कुमार अम्बुज
एक सार्वजनिक आत्मकथा
शिरीष कुमार मौर्य ने इधर कुछ अलग तरह से लंबे काव्यात्मक आलाप लिए हैं. ‘रितुरैण‘ और ‘चर्यापद‘ इसके प्रकाशित और चर्चित उदाहरण हैं. अब ये आत्मकथात्मक कविताएँ. इन सबमें महत्वपूर्ण और लक्षित की जा सकने वाली एक समानता है कि ये कविताएँ दीर्घ कविताएँ न होकर, एक ही आलंब की नोक पर खिली हुईं अनेक कविताएँ हैं. इनका सहोदरपन इन्हें एक सूत्र में बाँधता है और पाठक को उस मुख्य शीर्षक की भावना और व्यथात्मक व्यंजना से अलग नहीं होने देता. ये अपनी विषयगत सामूहिक सामाजिकता से संचालित हैं. लेकिन इनमें से प्रत्येक कविता अपने आप में स्वतंत्र भी है, और उसका अपनी कहन और व्यक्तित्व है.
मैं आलोचक नहीं हूँ और मेरे पास उस तरह से कविता को बाँचने, देख सकने का सामर्थ्य भी नहीं है. और वैसी भाषा और अकादमिक क्षमता भी नहीं. इसलिए एक पाठक के तौर पर इन्होंने जो मुझे दीप्ति, प्रभाव और उत्सुकताएँ दी हैं, उनका संक्षिप्त विवरण ही दे सकता हूँ. शायद यह किसी काम आए.
यह आत्मकथा सार्वजनिक मन की कथा है. इसमें छूटे हुए धागे हैं, किस्से हैं. कही-अनकही है और संबद्ध असंबद्धता है. विलोम हैं. और इनसे बुना हुआ पूरा ताना-बाना है. इसकी ताकत यह है कि यह मजबूत नहीं है. यहाँ अधूरी इच्छाओं को भी निराश्रित होना है. खुद का निर्वात है, जो बाहरी निर्वात से टकराता है. स्थानीयता के भूगोल में मौसम हैं, ऋतुएँ हैं. पहाड़ी वनस्पतियाँ और विन्यस्त कठिन जीवन है. अपने कहे पर प्रश्नांकन हैं. कहीं पुकार है और कहीं पुकार नहीं होने का दुख है.
कुछ मुश्किलें और असहमतियाँ भी पेश हो सकती हैं. जैसे, कविता में प्रसंग मर जाते हैं या जीवन पाते हैं. इस तरह कुछ संशय और द्वैत हैं लेकिन शिरीष की यह आत्मकथात्कता किसी ‘निश्चित‘ की दुनिया नहीं है. ‘लगभग‘ की दुनिया है. शायद की संभाव्यताओं को लेकर चलने वाली दुनिया है. एक ही घटना, एक विचार, एक मनोविचार, प्रसंगवश अलग तरह से ध्वनित हो सकता है.
आत्म-अन्वेषण और बाह्य जगत से क्रिया-प्रतिक्रया के मनोवैज्ञानिक चिह्न पंक्तियों में बिखरे हुए हैं. ताले का रूपक और खो गईं चाबियों को इस तरह देखा जा सकता है. जिसमें गुम चाबियों के बावजूद ताले खोल लिए जाने की हमेशा और एक अपराजेय प्रतीक्षा है. यह आशा से कुछ अधिक है.
यह अपने समय के पीछे और आगे जाने की जितनी कोशिश है, उतनी ही अपने समय में रहने की आकांक्षी भी. इसलिए इस समकाल में विवश विस्थापन में घर लौटने के करुण दृश्य भी समाहित हैं. गरीब की असहायता और मनुष्य के हिंसक होते चले जाने की विडंबनाएँ हैं. भूख-प्यास और घर की तलाश है. एक रात है जो इस समाज के आसमान में फैली है. जिसमें कविता की परंपरा में पुष्प की अभिलाषा ध्वस्त है या असंभव है. यह पूर्वज कविता को अजीब विस्मय से देखने के लिए अभिशप्त है. मिथक और पुराकथाओं के पास जाने की युक्तियाँ हैं. दरअसल, इन कविताओं में जैसे एक बार फिर आत्म-अभिव्यक्ति की खोज है.
फिर एक शरीर है जो अपना ही नहीं रह गया है. शिराएँ और धमनियाँ किसका आवागमन हैं. लेकिन एक आवाज़ है जो बहुवचनीय है. शिरीष ठीक कहते हैं कि यह आत्मकथा है या इमला है. लेकिन उम्मीद कुछ ऐसी है कि पस्ती से निकलकर आती है और हरी है, उज्ज्वल भी. इन्हीं मंतव्यों और व्यग्रताओं के बीच इन कविताओं को उस समुच्चय में पढ़ा जा सकता है, जिससे यह मुख्य शीर्षक बना है.
kumarambujbpl@gmail.com
(कृति: Ernest Mancoba) |
कविताएँ
आत्म क था
शिरीष मौर्य
1.
कुएँ में हूक की तरह मैं
बोलता रहा
मेरे भीतर एक कुआँ था
और बाहर एक कुआँ था
लोग सब जा चुके थे
मेरे जीवन में
पुराने वक़्तों के किसी बल्ब का
फिलामेंट जल रहा था
कमरे में
मेरी ही ख़ाली कुर्सी मुझे सुन रही थी
हूक की तरह
मैं बोल रहा था
और चाहता था
जहाँ भी हो न्याय की कुर्सी
सुने
मैंने जो बोला
अपनी ही ख़ाली कुर्सी से.
2.
मैंने उन संदेशों का
इंतज़ार किया
जो मेरे नाम कभी लिखे ही
नहीं गए
उन लोगों को चाहा कि आएँ मुझ तक
जिनमें ख़ुद तक पहुँचने की भी
कोई इच्छा नहीं बची थी
जो आईना तक नहीं देखते थे
मेरा मुख कैसे देखते?
विराट एक जमावड़ा था
रास्तों पर
हर गाड़ी अपनी जगह थमी हुई थी
वर्षों से
सब कुछ छोड़ कर मैं आया
महादेवी !
मीरा कुटीर तक
तुम्हारी मेज़ पर लिखा था
महादेवी की टेबिल
वहीं थी
महादेवी के लेखन कार्य की चौकी
पानी गर्म करने का
एक पुराना उपकरण महादेवी के नाम का
एक तौलिया स्टैंड भी तुम्हारा
सब चौंकते थे
देखते थे
बहुत भीड़ थी कविता में
कहीं तो मिल जाती
महादेवी की संतति
वेदना उमड़ती थी
उठती थी हूक
सब खोजते थे कवयित्री
महादेवी जैसी
क्या उस माँ का
मुझ कवि जैसा
बेटा न हो सकता था ?
कि रहता एक लगभग संसार में
लिखता लगभग कविताएँ
और खो जाता देवीधार के जंगल में कहीं
सदा के लिए.
3
मेरी सब पुकारें खो गईं
पूस की सर्द हवाओं में
वे कुछ दूर भी नहीं चल पायीं
कुहरे में उनकी छाया
कभी-कभी दिखाई पड़ती हैं
सुनाई कुछ भी नहीं पड़ता
मैं नहीं कहता
कि लोग बहुत क्रूर हैं या वक़्त ही बुरा है
बाहर पुकारते-पुकारते
अपने भीतर ही पुकारना मैं भूल गया था
मुझे अपनी
आवाज़ नहीं आयी थी
महीनों से
आज सुनता हूँ ख़ुद को
बहुत गहराई में
मेरी बुनियाद के आसपास
उन चींटियों के
चलने की आवाज़ आती है
जो रोज़ थोड़ा-थोड़ा सा
मुझको
मुझमें से लाती रहती हैं
बाहर
और मैं रोज़
थोड़ा-थोड़ा गिरता रहता हूँ
अन्दर
जबकि
मेरे अंदर नहीं
मुझसे बाहर जो चींटियों की लायी
थोड़ी-थोड़ी कथाएँ हैं
उन्हीं में
थोड़ा-थोड़ा आत्म है मेरा
बाहर तो मैं निपट सार्वजनिक
रहता हूँ
और चाहता हूँ
कि सदैव प्रश्नांकित रहे मेरी कविता
जो दरअसल
इकलौता नागरिकता होगी मेरी
जान से प्यारे
मेरे देश में
अपनी बुनियाद में पूरा गिर जाने से पहले
गिर जाने के बाद
जब चींटियाँ ढोएंगी उसे
तब किसी
प्रमाण की आवश्यकता भी
उसे नहीं होगी.
(कृति: Ernest Mancoba)
|
4
कविता में मर गए
कुछ प्रसंग उनकी स्मृति भी
अब नहीं बच रही है
बस
बेहद ठोस सा एक व्यवधान
शिल्प में
जो बताता है यहाँ कुछ था
अब नहीं है
एक पेड़ पर
थोड़ी सी अटकी चुपचाप मर गई
टहनी की आवाज़
कुछ बाद में आती है
एक कुत्ता जो गली में
रोज़ दीखता था
अचानक कहाँ चला जाता है
कोई नहीं जानता
एक चिड़िया का आखिरी गान
पत्तियों और
हवा की सरसराहट में
बदल जाता है
हवा भी खा जाती है
पानी भी पी जाता है
चीज़ों को
गुज़रे बरस खेत में छूटी खुरपी का
कंकाल भर मिलता है
जीवन अपने आख्यान में ही
अनश्वर रहता है
देह में वह मर जाता है
बहुत कुछ जो मर गया
कभी वापस नहीं लौटेगा जीवन में
एक अरसे से सोचता हूँ
तेरे मन में
कहीं वो मैं तो नहीं
इस
अकेली कथा में आत्म मरा है
या आत्म में ही मर गई है
समूची कथा
चौंककर देखता
मैं हूँ.
5.
मैं एक ताला हूँ
कई बरस पुराना जंग लगा
किसी ने छुपा दी थी
मेरी चाबी
उसी को अब वो मिल नहीं रही है
कुछ और बरस
फिर मैं
चाबी से खुल भी न सकूँगा
मुझे तोड़ना पड़ेगा
अपनी नींद में गिरा
कोई फूल मारना मुझे
या एक फूँक
पुरानी हवाओं की याद से
भरी
मेरा टूटना लोहे के टूटने की
तरह नहीं
दिल के टूटने की तरह होगा
जैसे महबूब की गली
वैसे ही दिल भी
एक ख़ामख़याली है
जब दिल के लिए
कोई जगह न रह जाएगी कथा में
तुम्हें तुम्हारी ही
छुपाई हुई एक चाबी मिलेगी
याद दिलाती हुई
कि ताले जैसे लोग गुज़रे
ज़माने में थे
तुम्हारी नींद
और तुम्हारी साँस तक में
उन्होंने
अपने खोले जाने का
इंतज़ार किया.
6.
गोद में
कंधे पर
ठेले पर
बच्चों को लादे
यह देश घर आ रहा है
बैलगाड़ी में
जुए के नीचे एक आदमी ने
अपना कंधा रख दिया है
बैलगाड़ी पर
उसकी गर्भवती पत्नी और
एक बच्चा है
एक माँ
थक जाने के कारण
चौपाये की तरह चल रही है
उसकी पीठ पर दो बच्चे हैं
एक बेटी रोती हुई जा रही थी
थकान
पीड़ा
और भूख से
अब मर गई है
समूचा एक वक़्त कराहते हुए
घर आ रहा है
एक देश
अपने नागरिकों के
हृदय का
रहवासी होता है
कोई पूछे
उस हृदय में पीड़ा और पछतावे
के बाद
अब कितनी जगह
बच रही है
इस विदारक दृश्य में
एक कवि
अपने देश का हाथ थामे
अपने घर
आना चाहता है
उसकी गठरी में
गौरव गाथाएँ नहीं
समूची उम्र की
एक पीड़ा है विकट
और हर तरफ़ पैदल चल रहे
देश की
एक विकलता
समूची.
7
वे किसी बदलाव के लिए
सड़क पर नहीं हैं
उनकी यात्रा घर जाने की है
जबकि
उनमें से कुछ के तो परिवार
उन्हें घर में घुसने भी नहीं देंगे
इस यात्रा के तुरत बाद
वे महामारी के मारे जन
कुछ दिन
सिवानों पर रहेंगे
गाँव के लिए उनकी शुभेच्छाएँ
दरअसल
किसी पछतावे की तरह होंगी
यह क्रांति नहीं है लकड़बग्घो
बंद करो हँसना
यह बहुत बड़ी एक
विवशता है
एक ऐतिहासिक पीड़ा
तुम
उनकी यात्रा में शामिल नहीं हो
तुम जहाँ शामिल हो
वहाँ से हर रात
इन सिवानों तक भयानक
एक
आवाज़ आती है
सियारों के रोने की
और मेरी नींद में एक आदमी
धीरे से
सड़क पर ही निढाल हो
गिर जाता है.
(कृति: Ernest Mancoba)
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8
[दीघोरत्ति (दीर्घरात्रि)]
मेरा रक्त
किसी पतली पहाड़ी नदी की स्मृति है
जिसमें जल
कम भले हो जाए
कभी सूखता नहीं है
मेरी अस्थियाँ
बाँज के बहुत बड़े कुछ पेड़ों का स्वप्न है
नमी और ठंड से भरा
आज भी
अनदेखी सी एक काई जमती है मुझ पर
पिरूल से भरा तेज़ ढलान है
मेरा यथार्थ
जिस पर फिसलते कई साल गुज़रे
लेकिन
मैं अब तक तलहटी तक
नहीं पहुँच सका
मेरा भविष्य
दोगुनी दिहाड़ी पर मिली हुई मजूरी है
महामारी काल की
तक़लीफ़ और पछतावे से भरी
मुझे अब बस
इस पराजय की उदात्तता को लिखना है
और खो जाना है
अपने सुदूर पहाड़ी गाँव में
जहाँ से
मेरी समकालीन इन रातों में
तेंदुओं के विकल गुर्राने
रीछों के विकट चीख़ने की आवाज़ें
आती हैं मुझे
और मेरी उचाट नींद पर
चौंककर
भयभीत गिर जाती है मेरी ही
देह
आप चाहें तो इसे मेरी आत्मकथा
समझ सकते हैं.
9
(दीघोरत्ति न मुच्यते)
जानता हूँ
इन सुदीर्घ रातों में दूर कहीं
कोई मुझे पुकारता है
घृणा पुकारती है बाआवाज़
बेआवाज़ पुकारता है प्रेम या शायद इससे उलट
मैं पुकार की परिभाषा नहीं करूँगा
समूचे समाज के अवचेतन में
जैसे पुकारते हैं मिथक कोई पुकारता है मुझे
मेरे अवचेतन में
जहाँ रहता है पुकारता हुआ समूचा समाज
वहाँ अलग सी एक पुकार
किसी मिथक के क़दमों में डाल सकती है मुझे
इस तरह जो आत्म बनेगा मेरा
ज़्यादा गाढ़ा होगा
हर ओर लुटते और लौटते मेरे जनों की
गाढ़ी कमाई की तरह
देखना
कि कोई चुनाव न खा जाए उसे
महामारी और बुख़ार से बचा हुआ आदमी
अकसर चुनाव में पिघलता है
अजब होती है आदमी की विलेयता
इसीलिए
यह जो लोकतंत्र का विलयन है
सप्ताधिक दशकों से चहुँओर
मैं इसमें विलेय नहीं
विलायक की खोज में हूँ
विकट इस कथा में
विकल यह खोज आत्म की है.
10
मेरे लिए खिलते हुए फूल
जब झड़े तो उनकी उदात्तता मेरी स्मृति का
हिस्सा हुई
गाँव में पानी का अकेला स्थान
एक नौला था क्षीणधार उसने जीवन में
धैर्य सिखाया
और दूसरे की प्यास का सम्मान भी
मेरी बाट
अपने ही जनों की बनाई
कुछ पगडंडियाँ
खाई में गिर जाने के भय से भरीं
कभी पाँव नहीं फिसले उन पर
वे धमनियों की तरह ले
आती थीं मुझे
शिराओं की तरह ले
जाती थीं
अब मैं नहीं
मेरी एक कथा है वहाँ
बुराँश के फूलों की तरह उसका भी
एक मौसम है
और एक अन्तर्कथा
किनगोड़े के छोटे जादुई बैंगनी फल सी
मेरे रक्त जैसे रस से भरी
ठीक इन्हीं दिनों
लोग पूछ रहे हैं रह रहकर
मेरी आवाज़ आ रही है?
मैं दिख रहा हूँ आपको?
लगता है कोई किवाड़ पीट रहा है बिना रुके
बिना सुने बोल रहा है
भले लोगो
इतना भी शोर मत करो
मैं सुन रहा हूँ पराध्वनियाँ
मुझे फूलों के झड़ने तक की आवाज़ आ
रही है
उन फूलों की स्मृति में एक अकेली
फूलसुँघनी चिड़िया कुछ गा रही है
मुझे उसे देखना है
उसकी चोंच में दबा हुआ अकेला साहसी
वह गान मेरा है
गाँव के पंदेरे पर भूल आया था उसे
सुना
वो पंदेरा भी कुछ बरस पहले
सूख गया.
11
भूख से ग़रीबी से
बीमारी-महामारी से
विस्थापन पलायन से मर गए लोग
हारे नहीं
पिटते और पछताते
जब तक बना जीते रहे ख़ुद से
दंगों में मरे दबंगों ने मारा
जात ने मारा रंगों ने मारा
मरे नहीं मारे गए लोग
दिल या स्वप्न टूटने के कारण
आत्महत्या कर चला गया
आदमी
इस तरह लड़ कर
और दम घोंट कर और जला कर
और गाड़ियों से दबाकर
और दूसरे हज़ार तरीक़ों से
मार दिए जाने वालों से
मिलेगा
तो शर्मिंदगी में लौट आने के लिए
पीछे कोई दुनिया ही नहीं बची होगी
उसके लिए
किसान लौटेंगे
तो सहेजेंगे बची हुई पृथ्वी
धरे हुए बीज
बचे हुए जंगलों में
सूखी लकड़ी लेने चले जाएंगे
लकड़हारे
नदियों में
स्वर्ग से बुनकर लाया हुआ जाल
बिछाएंगे मछुआरे
अपने बच्चों को
कंधे पर बैठा कर फिर चल देंगे
मेरे लोग
इस बार मृत्यु से जीवन की ओर
मारे हुए लोग हारे हुए लोगों से अधिक जीयेंगे
जाएँगे अधिक दूर तक
अधिक बार वापस आएँगे
फरिश्तों के झरे हुए पंखों से
वे अपनी तप्त दुपहरियों को पंखा झलेंगे
हारे हुए
उतनी देर हार जाने के कारणों पर
विमर्श करेंगे
अपने ईश्वर की उपस्थिति में वे शायद
फिर हार जाएँ
जीवन ही नहीं
इस बार अपनी मृत्यु भी
और
अपनी मृत्यु हार जाना ही सबसे बड़ा
त्रास है संसार में
ठीक वैसा ही
जैसे कथा का हार जाना
किसी के आत्म में.
(कृति: Ernest Mancoba)
|
12
किसी और की कथा में
देहरी पर बैठा
रोटी और एक गिलास पानी
माँग रहा था मेरा आत्म
मैं उसे
हाथ पकड़ कर उस कथा से
बाहर लाया हूँ
हाँफता सा
अब वह मेरे साथ चलता है
कि एक दिन
अपने गाँव पहुँच जाएगा
और अपने खंडहर हो रहे घर को
दुबारा बसाएगा
उस कथा में उसने जो खाया
धोखा था
पिया जो अपमान था
और थोड़ा क्रोध भी
अब शायद उसे पता है
किसी और की कथा में वह
बहुत बड़ी एक सत्ता के हाथों
मरते-मरते बचा है
इससे तो बेहतर है गाँव पहुँचने की कोशिश में
भूख से और दर्द से मर जाना
इस तरह जो दृश्य बनेगा आत्म का
उसमें हीनता नहीं
जीवन और मृत्यु के लिए बहुत ज़रूरी
एक सम्मान होगा.
13
द्वार पर देवशुनी
साथ में श्याम और शवल
उज्ज्वल
यह स्मृति ऋग्वेद की
यास्क का निरुक्त
और आगे
पतित एक प्रसंग पुराणों-महाकाव्यों का
मिलते हैं मुझको हर ओर खड़े
चार पाँवों पर
जन-जन के मित्र अभिन्न
पुकारते अकसर कातर-से स्वर में
बिछुड़कर गिरा सुदूर अतीत में
यह
मेरी ही आत्मकथा का
कोई पन्ना है
मार डाले गए सारमेय
यज्ञ वेदियों के निकट
पर सरमा के स्तनों का दूध नहीं सूखा
और न रक्त
उसके उन निरपराध पुत्रों का
उससे ही धोता हूँ
पाप अतीत के
भविष्य की पराजय सब
शर्मिंदा भी होता हूँ
टकराती है मुझसे जो
हर बार
यज्ञ के धुएँ से हारी मनुष्यता की ही
दुर्गंधित साँस है
तब एक पशु मुख
मेरे दुखते जीवन में
अपनी गर्म खुरदुरी जीभ डाल
चाटता है मुझको
मैल की परतों में दबे
इस संसार में
मुझे
अब तक
सरमा के बेटों ने ही साफ़ रखा है
अपने इस बचे-खुचे आत्म के लिए
मैं ईश्वर से भी अधिक सरमा का ऋणी हूँ
एक प्रागैतिहासिक श्वान परिवार की
आत्मकथा में
धरती पर गिरती हुई बूँद-सी थरथराती है
मेरी कथा.
(कृति: Ernest Mancoba) |
14
हवा पर सवार बरसातें
रास्तों पर कीचड़ और रिश्तों में उमस कर गईं
आत्मकथाओं में
मेघ और मनुष्य की समकालीनता
कहीं साबित नहीं थी
नरम गुनगुनी गुलाबी सर्दियों के फ़रेब
बहुत थे
मैंने अपनी कथा के सबसे गर्म मौसम से देखा
अपना निकटतम अतीत
कि चिड़ियों की चोंच में आए सब वसन्त
घोंसलों में लग गये
कि अब वहाँ उड़ चुके बच्चों की सूखी हुई बीट
झरे हुए रोयें
और छोड़ देने की एक दुर्गंध भर बची है
कि महान से महान पुष्प की भी अब कोई अभिलाषा नहीं
स्मृति भर शेष है
इस तरह
जो कुछ भी अब दिख रहा है
वह समाज में चिंघाड़ रही
एक वीरता
और आत्म में विलीन हो चुकी
एक पराजय है
और जो अभी नहीं दिख रहा है
दरअसल यह है
कि बच गए जीवन को अब मुझे जीना होगा
बरसात में
रास्ता पार करने की कोशिश की तरह.
15
प्रशस्ति वाचन के बीच में
मैं अचानक कुर्सी से उठ गया हड़बड़ा कर
मुझे कोई कील चुभी
नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी चौंके
विष्णु खरे के चेहरे पर मुस्कान थी
बोले बधाई हो
चंद्रकांत देवताले ने बगल से
हँस कर उनका साथ दिया
संचालक देवी प्रसाद त्रिपाठी ने कान में बताया
धातु की इस कुर्सी के शिल्प में
कील कहीं शामिल ही नहीं है मुझे कैसे चुभ सकती है
मैंने कहा
शायद वह कुर्सी के विचार में शामिल है
शायद उसी विचार का विरोध करते कुर्सियों से भरे
उस सभागार में
सबसे आगे नीचे ज़मीन पर बैठे थे मंगलेश डबराल
वह शाम उन्हीं की तो अनुशंसा थी
और उनके ठीक पीछे वीरेन डंगवाल
जिनके पास कुर्सियों से लेकर प्रशस्तियों तक में छुपी हुई
सब कीलों का मर्म था तीखा और तपा हुआ
पुरस्कार बस ऐसी ही एक कथा रहे
जीवन में
या तो कीलों से बिंधी हुई कोई व्यथा रहे
पा लिया जिसे कवियों ने
तो भी कभी कह नहीं सके निस्संकोच
निर्भार.
16
यह देश आत्मकथा लिखना चाहता था
और इसके कर्णधार इससे इमला लिखवाते थे
यह चाहता था आत्म की अभिव्यक्ति
लोग पूछते थे किस गाँव के हो तुम्हारी भाषा पर
आंचलिक दबाव बहुत हैं
रहवास का मुकाबला नागरिकता से था
और जीवन की द्वाभा का भर दुपहरी के प्रकाश से
आत्मकथा में थी ग़लती की गुंजाइश
इमला में विशुद्ध हो जाना था
जबकि
इतना विशुद्ध कोई समाज होता नहीं
शामिल रह जाता है
पुरातीत का सब मैला तब भी देश
महान हो जाता है
अपनी ही द्वाभा में
जीवन की अशुद्धियों का रहवासी एक कवि
भाषा और समाज का थोड़ा भी उजास
यदि कह पाता है
तो उसे समूचे देश की ही
आत्मदशा
या तो आत्मकथा
मैं मानता हूँ.
17
कवियों की आत्मकथाओं में
शामिल होती हैं
उनकी कविताएँ
विकल चरित्र-अभिनेत्रियों सरीखी
नायक-नायिका के
समकालीन एक संसार को
बचाती हुई
वे कब विदा हो जाती हैं
कोई नहीं जानता
उनके नाम प्रेमिकाओं के नाम नहीं होते
पर वे प्रेम में होती हैं
उनके कवि भी
ख़ुद चरित्र-अभिनेताओं की तरह
रहते हैं
समकालीन एक समाज में
पोस्टर में कहीं नहीं दिखते
पर फ़िल्म में होते हैं
दर्शकों के उद्धत-से आत्म में
वे बार-बार
सामूहिक पीड़ाओं के बीज बोते हैं.
18
और फिर एक अंत अनंत-सा
और फिर अब
मैं भरूँगा
मोर की तरह
एक उड़ान
भारी और सुंदर
एक ऊँची मुंडेर से उड़कर
एक निर्जन अहाते में उतरूँगा
मानो किसी कथा से उड़कर
उतरना आत्मकथा में
किसी के सिरहाने धरी कविता की किताब में
दबा हुआ
एक मोरपंख
अब मेरी याद होगा तो होगा.
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वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)
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