अखिलेश द्वारा लिखी यह श्रृंखला ‘रज़ा जैसे मैंने देखा’ इस कड़ी के साथ अब यहाँ सम्पूर्ण हुई, समालोचन में यह पिछले छह महीने से माह के पहले और तीसरे शनिवार को प्रकाशित होती रही है. इसकी बारह कड़ियाँ यहाँ प्रकाशित हुईं हैं. जल्दी ही यह क़िताब के रूप में छपेगी.
यह एक चित्रकार द्वारा विश्व के बड़े चित्रकार पर लिखी श्रृंखला है, इसमें रज़ा का जीवन और उनकी चित्रकारी की बुनावट का चित्रण है. यह कार्य ऐसा चित्रकार ही कर सकता था जो उनके निकट हो और लेखक भी हो. ज़ाहिर है वह अखिलेश ही हो सकते थे.
चूँकि यह रज़ा जैसे चित्रकार पर एक सम्पूर्ण लेखन है, इसलिए यह वाजिब था कि उनके चित्रों के साथ पेंटिंग भी प्रकाशित किये जाएँ. इस पूरी श्रृंखला में रज़ा के २२ फोटो और उनके २६ पेंटिंग प्रकाशित किये गये हैं. यह सब कवि,संपादक, और कला-समीक्षक राकेश श्रीमाल के सहयोग से संभव हुआ है.
इस समापन किश्त में रज़ा के अंदर का कलाकार मन और उनकी कला बड़े ही आत्मीय ढंग से सामने आती हैं. फ़्रांस के कुछ प्रसंग बहुत रोचक हैं.
रज़ा : जैसा मैंने देखा (समापन)
चित्र के समक्ष झुके हुए रज़ा
अखिलेश
रज़ा बड़ी मुश्किल से अपनी दिनचर्या में लौट रहे थे. उन्हें भी अंदाज़ा हो गया था कि इन चित्रों में ही शरण है. वे जानीन को भुला देने के लिए नहीं, उसकी याद में चित्र बनाने लगे. उनकी मुश्किल यह नहीं थी कि उन्हें टैक्स-पेपरों और अन्य नियम कानून नहीं पता हैं. उन्हें यह पता चलने लगा कि जानीन ने इस तरह उनके जीवन का कितना समय बचाया. ये नीरस दुनियावी कामकाज उनका बहुत समय ले रहे हैं. इस बात से वे खीज जाते. इस तरह के काम शुरू हों तो एक दिन का समय नहीं, वे हफ़्तों तक चलते रहते. रज़ा स्टूडियो में जाना चाहते हैं और यह काम ख़त्म होने का नाम नहीं लेता. रज़ा जिन्हें यह अंदाज़ा भी नहीं था कि पेरिस में सुबह सात बजे अंडे मिल सकते हैं. या कि दुकाने खुल जाती हैं. या बेकरी के अलावा किसी दूसरी दुकान से भी ब्रेड मिल सकती है.
उनका संसार सिमट गया था. स्टूडियो और बैंक, दवाईवाला, चश्में की दुकान, चर्च, चर्च के रस्ते में पड़ने वाली बेकरी, नीचे वाली फ्रेंच रेस्तराँ, ज्यादा मित्र होने पर पास की लेबनीज़ रेस्तराँ, और अब वे लूव्र नहीं जाते या कि दूसरे किसी भी संग्रहालय किन्तु आपको जाने के लिए हमेशा बोलेंगे. उनका ध्यान अपने चित्रों में रहता और स्टूडियो में ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहते रहे. वे खूब काम कर रहे थे और उनके चित्रों पर अभी भी उनका नियन्त्रण था. वे फ्रांस में रहते थे और उन्होंने यहाँ रहकर बहुत कुछ सीखा. इसके लिए वे हमेशा ऋणी महसूस करते थे. फ्रांस उनके लिए आधुनिक देश था, तरक्की और नए विचारों से भरा. विज्ञान और देकार्त की स्पष्टतावादी सोच से प्रभावित. अंधविश्वासों से दूर. अपने एक साक्षात्कार में रज़ा कहते हैं:
\”मैं इसे यों कहूँगा कि कला की बुनियादी समस्याओं और विशेषतः अपने काम के सन्दर्भ में मेरी जो समझ बनी है उसमें पेरिस की बड़ी भूमिका है. फ्रांस में मेरे प्रवास ने मुझे बहुत कुछ दिया है और अगर मैं अमरीका या लन्दन में रहा होता तो कहानी दूसरी होती. मुझे पेरिस में रहना था, यह काफी सोच-विचार कर तय हुआ था. यहाँ बहुत ऊँचे दर्जे के उदाहरण थे, जिन्होंने यह महत्वाकांक्षा दी कि हम ऐसे प्रतिमानों पर पहुँच सकते हैं जो दुनिया में कहीं भी सबसे ऊँचे हों. पर यह सिर्फ सोचने भर से नहीं हो सकता, आपको क्षमता के एक स्तर पर पहुँचना होगा. भरतनाट्यम नाचना या हिन्दी कविता लिखना, आसान नहीं है जब तक कि आपको उनकी भाषा बहुत अच्छी तरह से न आती हो. फ्रांस ने मेरे रहने में मदद की, न सिर्फ यह देखने में मदद की कि निकोला द स्टाल, मोन्द्रियन या सूलाज के चित्रों में श्रेष्ठ क्या है बल्कि अपनी सम्भावनाएँ विकसित करने, अपने तकनीकी कौशल का विकास करने और उस भाषा पर अधिकार करने में भी, जो मेरी चित्र भाषा है. मैं अपना बचपन और जवानी नहीं भूलता और न ही उन सबको जो मैंने यहाँ पायें- रंग, रेखा, आकृति, स्पेस आदि की प्रारम्भिक समस्याओं को लेकर.
फ्रांस एक ऐसा देश है जिसमें अनुपात का बोध असाधारण है: इमारतों में, कला में, साहित्य में, और जिन्दगी में. वह कला और चित्रकला में बहुत महत्वपूर्ण है. अगर मैं इस सुयोग तक नहीं आता तो मैंने \’तमशून्य\’ या \’बिंदुनाद\’ जैसे चित्र न बनाये होते, विकीर्ण होते काले रंग में. मुझे काले के महत्व का अहसास हुआ. मैं उसे भारतीय चिन्तन से जोड़ता हूँ. मुझे लगता है कि काला रंग मातृ-रंग है, वह रंगो की जननी है. वह विकिरण है और यह सम्भव है, मैं यहाँ चित्र बनाऊँ या भारत में, इस बोध का उद्गम फ्रांस में है जिसे मैं नहीं भूलता.\”
रज़ा में कृतज्ञता का गहरा भाव हमेशा मौजूद रहा. वे अपने गुरु के प्रति और उन सब कलाकारों, प्रसंगों, घटनाओं के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे हैं जिनसे उन्हें कुछ सीखने को मिला. फ्रांस को लेकर रज़ा हमेशा कृतज्ञ रहे हैं. इस कृतज्ञता में वह कई चीजें नज़र अंदाज़ कर देते हैं.
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह सभी प्रपञ्चों को जीवन में घसीट लाता है. रज़ा के जीवन में यह सम्भव नहीं था कि अपनी चित्रकला सम्बन्धी मुश्किलों से बाहर इस तरह के लोकाचार, अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, टोना-टोटका पर ध्यान दें. फ्रांस रज़ा के लिए आधुनिक देश था, विज्ञान और तार्किकता पर टिका. यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन कसौटी पर खरा न उतरता हो. इसलिए जब मैंने पेरिस में मौजूद एक ऐसे ही अन्धविश्वास के बारे में उन्हें बतलाया तो वे विश्वास न कर सके. उनके लिए फ्रांस वैज्ञानिक चेतना वाला देश है जिसमें इस तरह के अन्धविश्वास और अतार्किक बातों की कोई जगह नहीं है. फिर मैंने एक दिन लूव्र के सामने वाले पैदल पार-पुल पर लगे हज़ारों ताले वाला फोटो दिखाया और बतलाया कि फ्रांस के युवा शादी-शुदा जोड़े अपनी शादी के बाद यहाँ आकर इस पुल पर अपने नाम का ताला लगाकर उसकी चाबी सेन नदी में डाल देते हैं जिसके पीछे उनका अन्धविश्वास यह है कि जब तक ताला लगा रहेगा उनकी शादी टूटेगी नहीं (उन्होंने हँसते हुए कहा यहाँ वैसे ही शादी दो महीने से ज्यादा नहीं टिकती) रज़ा को विश्वास नहीं हुआ.
खुद को भरोसा दिलाने के लिए वे बहुत दिनों बाद घर से बाहर निकले और उस पुल को देखने आये. वहाँ मैंने बताया कि ऐसा ही एक पुल और है जो नॉत्र-दोम चर्च के पास है. और यहाँ का मेयर इन चाबियों को नदी से निकालने पर काफी पैसा खर्च करता है और वे चाह कर भी इस अन्धविश्वास को बंद नहीं करा पा रहे हैं. उनके लिए यह बड़ा झटका था. उन्हें इस पर भरोसा करने में समय लगा. वे कुछ दिन सुबह नाश्ते की मेज पर यही बातें करते रहे. उनका इतने सालों का भरोसा टूट रहा था. वे कोशिश करते रहे अपने देखे हुए को आत्मसात करने की. ऐसा नहीं कि फ्रांस में सभी कुछ उतना ही उजला और साफ-सुथरा होता है जिसका भरोसा किया था उन्होंने. उनका अनुभव कुछ विचित्र रहा और जब मैंने ध्यान दिलाया तभी इस पर ध्यान गया. एक दूसरा उदाहरण है.
रज़ा के साथ एक घटना वर्ष चौहत्तर में हुई, उन्हें सड़क पर कहीं चक्कर आ गए और वे चार घण्टे के लिए बेहोश रहे. सामान्य देख-रेख के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गयी. डॉक्टर ने उन्हें दोपहर और रात के खाने के बाद की दवाई एक महीने लेने के लिए बताया और वे नियमित रूप से उसे आज तक लेते रहे. लगभग चालीस सालों से. मेरा ध्यान इस तरफ गया, जब गोर्बियों में बहुत बार ऐसा हुआ कि हमलोग किसी के घर रात के खाने पर आमंत्रित हैं और रज़ा अपनी दवाई ले जाना भूल गए हैं. खाने के बाद जब उन्हें दवाई की याद आती और नहीं रहने पर वे परेशान हो जाते और उनकी बैचेनी बढ़ती जाती. मेजबान के लिए यह स्थिति असुविधाजनक हो जाती. मैंने उनसे पूछा आप ये दवा किस बात की लेते हैं तब उन्होंने यह सब बतलाया.
मुझे आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर ने भी दोबारा जाँच नहीं की और न ही कभी उन्हें दूसरी बार चक्कर आया. वे बिला-वजह ये दवाई बरसों से नियमित खा रहे थे. मेरे कहने पर एक हफ्ते के लिए दवाई लेना बंद कर दी. छह दिनों तक उसका कोई गलत असर नहीं दिखाई दिया, आख़िरी दिन वे बोले मुझे थोड़ा चक्कर सा आ रहा है. किन्तु यह चक्कर उन्हें आँख के चश्मे का नम्बर बढ़ने से आ रहा था उस दिन आँख की जाँच कराने पर पता चला. इसका सीधा अर्थ यही था कि उन दवाइयों को खाने की कोई जरूरत नहीं थी. किन्तु रज़ा वो दवाई लेते रहे और जब फ्रांस छोड़कर भारत आये तब उन्होंने हमेशा के लिए दवाई लेना बंद कर दी.
इसी तरह उनके साथ आँखों को लेकर भी हुआ. उनकी बायीं आँख में मोतिया-बिन्द का आपरेशन फ्रांस में हुआ और सफल नहीं रहा. उनकी दूसरी आँख का आपरेशन भारत में हुआ जो सफल रहा और वे आखिर तक उसी एक आँख के भरोसे रहे. और सबसे विचित्र बात यह थी कि फ्रांस के किसी डॉक्टर ने उन्हें सलाह दे दी कि आप जो खाना खाओ, उसे चबाकर निगलना मत. रज़ा ने खाना चबाकर उसे निगलना बंद कर दिया. मैंने उस डॉक्टर का नाम रज़ा से बहुत बार पूछा कि कौन बेवकूफ़ डॉक्टर है जो खाने को लेकर इतनी गलत सलाह दे रहा है. मेरी नाराजगी देख उन्होंने उसका नाम कभी बतलाया नहीं. किन्तु इस कारण उन्हें बहुत कष्ट बाद में झेलना पड़ा. यह सब मैं रज़ा से कहता रहता और फ्रांस का मजाक भी उड़ाता, किन्तु वे टस से मस न होते. हालाँकि मैं यह सब मजाक के रूप में कह रहा हूँ ये बात वो भी जानते थे. किन्तु बात में तर्क होता था. वे समझते थे मगर जिद्दी होने से किसी की सुनते न थे. उनके लिए जानीन ही थी जो बतला सकती थी या बदल सकती थी, जिनकी बात वह मान सकते थे. उन्होंने दवाई लेनी भारत में आने के बाद एकदम बन्द कर दी और उन्हें कुछ नहीं हुआ.
रज़ा के लिए उनका स्टूडियो ही मक्का-मदीना था जहाँ सभी प्रार्थनाएँ की जा सकती थी. वे डूबकर काम कर रहे थे और उनकी दिनचर्या सिकुड़ रही थी. वे स्टूडियो में ही समय बिताना पसन्द करने लगे. उनका बस चलता तो वे खाना भी वही खाने लगते किन्तु उनकी मेड यह करने न देती. वह साफ़-सफ़ाई के बाद खाना बना कर मेज पर रख जाती बाकी दिनों का फ्रिज में. रज़ा के लिए उनका कैनवास, रंग और स्टूडियो ही पूरा संसार था. रज़ा की ख़ासियत यह थी कि वे खुद पर भी काम करते. यदि उन्हें कोई धुन सवार हो गयी तब वे उसके अनुसार अपने को ढालने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे. उनका कहना कि आपको अपनी क्षमता के एक स्तर पर पहुँचना होता है. यह क्षमता पाने और बढ़ाने के लिए काम करना होता है. यह बात रुडी ने बहुत सुन्दर ढँग से कही है :
\”पेरिस में प्रारम्भिक वर्ष कठिन लेकिन अत्यधिक उत्तेजना से परिपूर्ण थे. रज़ा ने कठोर परिश्रम किया, अर्थाभावग्रस्त थे और अक्सर बहुत अकेले लेकिन उन्होंने स्वयं को नए जीवन के प्रति पूरी तरह से उत्सर्ग कर दिया और उन नए प्रभावों के प्रति भी जो कि उनके ऊपर उत्तरोत्तर ऊँचे स्वर में प्रबल आरोह की तरह, हर बार नयी शक्ति के साथ लगातार टूटे. जीवन में पहली बार वे एक ऐसी दुनिया के सम्पर्क में आये जहाँ कला को पूरी तौर पर गम्भीरता से लिया जाता था और निश्चित रूप से जीवन का एक हिस्सा था, जो उसे चारों ओर से घेरे हुए थी. पहली बार उन्होंने यह अनुभव किया कि यूरोप में कलाकार के लिए अध्ययन करने, सीखने, देखने और खुद को सँवारने के हज़ारों सुविधाजनक अवसर उसकी पहुँच के दायरे में हैं.\”
रज़ा जानीन के बाद वापस उसी हालत में थे नितान्त अकेले और उन्होंने इस बार अपने को काम में झोंक दिया. उनकी एकाग्रता के लिए पुनर्जागरण काल की कलाकृतियाँ थीं, मिनिएचर चित्र थे, यक्ष-यक्षिणी थे, बाइजेंटाइन चित्रकला, रोमन शिल्प और इतावली कलाकृतियां, खजुराहो और कोणार्क के मन्दिर, प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम के मालवा मिनिएचर और जैन लघु चित्रों की सीख, तंत्र और गुप्त कालीन शिल्पाकृतियाँ मौजूद थी और इतनी लम्बी यात्रा का अनुभव उन्हें सम्भाले था. वे आगे लिखते हैं :
\”रज़ा कहाँ जा रहे हैं? प्रशनगोई करना निरर्थक है अथवा कलाकार से यह कहना कि उसे किस लक्ष्य का सन्धान करना चाहिए. मुझे यह बोध है कि वर्तमान काम एक नवीन रूपान्तरण की प्रक्षेप-गति या कलात्मक-उच्छलन की प्रक्रिया में है. उनके चित्रांकन अब अनिवार्य रूप से अमूर्त्त हो गए हैं. मैं यह आशय सम्प्रेषित करना चाहता हूँ कि उनके बिम्बों की उर्जास्वित शक्ति, बहुत अल्प मात्रा में, दृष्टव्य जगत के तत्वों पर अवलम्बित है जो एक अलग सुस्पष्ट भाषा बोलते हैं, उनके लिए जो सुनने में सक्षम हैं अथवा सुनने की इच्छा रखते हैं.\”
रज़ा इन दिनों एक के बाद एक ख़ूबसूरत कैनवास रच रहे थे. अभी उनकी उम्र का असर आना बाकी था. इन चित्रों में मुख्यरूप से बिंदू ही केन्द्र में था किन्तु वे यदा-कदा बिंदू-विहीन चित्र भी रच रहे थे. उनकी रंग-पैलेट अब और परिपक्व हो गयी थी. रंग मानों साँचे में ढाल कर सुघड़ और संयोजित, अनुपात में अद्वितीय लगाए जा रहे थे. इस दौर के कुछ चित्र अकल्पनीय हैं. \’जागृति\’, \’बिंदू\’, \’प्रेम-कुण्ड\’, \’रस\’, \’पञ्च-तत्त्व\’, \’ध्यान\’, \’सूर्य-नमस्कार\’, \’गर्भ-गृह\’, आदि अनेक चित्र देखने योग्य हैं. रज़ा की सोच-समझ बहुत ही साफ़ थी और सीधा सोचना उनकी ख़ासियत रही है. वे कहते है :
\”मनुष्य और ब्रह्माण्ड का आन्तरिक सम्बन्ध होता है और बहुत बड़ी बात है इसको चित्रकला में लाना. तो मेरा प्रयत्न है कि इस आईडिया को बहुत ज्यादा बढ़ाया जाये. मैं चाहता हूँ चित्र बनें, काले रंग से शुरू होकर सारे रंगों की ओर जाएं, फिर सफ़ेद कैनवास की तरफ़. मेरी ख्वाहिश है अब मैं कुछ ऐसे चित्र बना सकूँ जो फंडामेन्टल हों. दूसरी बात मैं यह कहूँगा जो पहले कहनी चाहिए थी. आपको अपने दिल की बात बता रहा हूँ. मेरी चित्रकला की कोशिश बहुत धीमे-धीमे हुई है. कुछ तमीज नहीं थी. बस हमारे सामने दो ही चीज़ें थीं- एक हमारी मूर्त्तियाँ थीं और दूसरी ओर ये बेनाम बाज़ार के प्रिंट थे, जो बिलकुल वल्गर थे. इनमें न तो कला है न धार्मिक फीलिंग. जहाँ तक मेरा ख्याल है ये हिंदू धर्म में भी नहीं है, न इस्लाम में है. क्रिश्चियनिटी में ऐसी तसवीरें थीं जिनमें खूबसूरत-सी औरत बना देते हैं. क्राइस्ट को खूबसूरत \’यंग-मेन\’ बना देते हैं. मण्डला, दमोह में इसी तरह के चित्र और मूर्त्तियाँ देखी थीं. मैं सच कहता हूँ उस समय मेरी धार्मिक प्रेरणाएँ उतनी ही विकसित थीं जितनी हिंदूओं की डिग्निटी. इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कह सकता. अब वृहत्ताकार से बीज तक जाऊँ. मैंने उस आईडिया को विकसित करने की कोशिश की है. एक बिलकुल आसान तरीके से मैं काम शुरू करूँ जिसको एनलार्ज करें तो एक वृत्त बन जाता है. अब दैहिक और आत्मिक तत्त्वों के मिलाने से एक किस्म की ऊर्जा पैदा होती है. उस ऊर्जा से रंग दिखाई देते हैं. ये रंग पाँच होते हैं. हमारे यहाँ इनको पञ्च-तत्त्व कहा गया है. हो सकता है कि हिंदू धर्म में ये पञ्च-तत्त्व दूसरे हों, जो \’क्षिति जल, पावक, गगन, समीरा\’ से मिलते हों या रंगों में उनके समकक्ष हैं जो पाँच रंगो के नाम हैं. अब इन पञ्च-तत्त्वों को केंद्रीकृत, संगठित किया जाये तो वही बात होती है जो पञ्चभूत शैली में होती है.\”
रज़ा के साथ ज्यामिति, रंग और ये सब विश्वास थे जिनसे रचा जा रहा था. रज़ा के चित्र अब और मुखर हो गए थे. उनमें वैसी गम्भीरता देखना अब मुश्किल था, जो रज़ा का सुनहरा समय था, जिसका जिक्र ऊपर कर आया हूँ. अब रज़ा दोहराव और सुरक्षित संसार रच रहे थे. इनमें से ज्यादातर वही विषय थे जिनका सर्वश्रेष्ठ वे पहले चित्रित कर चुके थे. ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ दोहरा ही रहे थे उनमें यह भीतरी प्रतिभा थी जिससे खुद को ख़ारिज करने का जोख़िम वे अक्सर उठाया करते थे. अब रज़ा अपनी प्रसिद्धि से निरपेक्ष किन्तु आश्चर्य भी करते रहे कि लोगों को क्या हो गया है. एक दिन जब मैं बाहर से लौटा तो देखा उनके स्टूडियो में कुछ अमरीकी मेहमान बैठे हैं. रज़ा ने परिचय कराया और वे सब रज़ा के चित्र खरीदने आये थे जो उनके पास नहीं थे. रज़ा के चेहरे पर विचित्र सा भाव था. वे संकोच और संशय से बात कर रहे थे. उनकी परिचित बात करने की शैली नदारद थी. उनका हास्य-बोध भी इस्तेमाल नहीं हो रहा था. वे लोग जब चले गए, रज़ा ने मुझसे कहा आप भरोसा करेंगे वे लोग ये कालीन भी माँग रहे थे. रज़ा ने कालीन की तरफ़ इशारा किया, बरसों से यह कालीन उनके स्टूडियो में बिछा हुआ था काम करते करते उस पर अनेक रंग के धब्बे गिरे और पानी ढुला दाग पड़े हुए थे. रज़ा को विश्वास न था और वे कहने लगे कल कोई ये कुर्सी या इस स्टूल को माँगेगा. वो कुर्सी और स्टूल रज़ा के स्टूडियो में बहुत समय से होंगे और रज़ा अक्सर अपना ब्रश इन पर पोंछा करते थे वे अपने-आप में रंगीन कलाकृति सी दिखने लगी है इस पर ध्यान मेरा पहली बार गया. मगर रज़ा चकराए से लगातार यही कहते रहे कि ये क्या हो रहा है ? क्या पैसा खोटा हो रहा है ?”
मुझे उनकी उस प्रदर्शनी का ख़्याल हो आया. रज़ा, हुसैन, गायतोण्डे और बहुत से अन्य कलाकारों के अभिन्न मित्र बाल छाबड़ा ने वर्ष उन्नीस सौ उनसठ में मुंबई में \’गैलरी 59\’ खोली. इसके पहले बाल छाबड़ा के चित्रकार होने की घटना सुनाना जरुरी होगा.
बाल छाबड़ा फिल्म-मेकिंग की पढ़ाई कर अमेरिका से लौटे और अपनी पहली फिल्म बनाई जो बुरी तरह पिट गई. इस फिल्म के कला निर्देशक गायतोण्डे थे. जो बाल के अच्छे मित्र थे. गायतोण्डे के मित्रों में हुसैन थे और जब बाल और हुसैन का परिचय हुआ तो बाल दूसरी फिल्म की तैयारी कर रहे थे. बातचीत में बाल ने हुसैन से अगली फिल्म के कला निर्देशक बनने की पेशकश की हुसैन इस शर्त पर तैयार हुए कि बाल छाबड़ा पेंटिंग करना शुरू करें. जो बाल ने शुरू कर दी. इसी दौरान जापान में किसी द्विवार्षिक प्रदर्शनी के संयोजक भारत आये कुछ भारतीय कलाकारों के चयन के लिए. उन्होंने रज़ा, रामकुमार, तैयब, सूजा आदि अनेक कलाकारों का चयन किया और हुसैन के पास जा पहुँचे. हुसैन के आग्रह पर उन्होंने बाल छाबड़ा के चित्र भी देखे और उन्हें भी निमंत्रण मिला. इस प्रदर्शनी में बाल छाबड़ा के चित्र \’devil\’s workshop\’ को गोल्ड-मेडल मिला. और इस तरह बाल ने फिल्म बनाना छोड़ा और चित्र बनाना शुरू किया. कलाकारों की मुसीबतों से परिचित बाल ने गैलरी खोली जिसमें इन सभी कलाकारों के चित्रों से उसका उद्घाटन हुआ. उस पहली प्रदर्शनी में लगभग सभी चित्र बिक गए जिसकी ख़ुशी में दी गयी शाम की पार्टी में सभी उल्लसित और हैरान से थे.
रज़ा ने कहा \’आज ये क्या हो गया\’
बाल चीखा \’लोटा उलटा हो गया\’
हुसैन ने कहा \’पैसा खोटा हो गया, आज ये क्या हो गया \’
कुछ दिनों के बाद मैंने देखा वो अमेरिकन पीछे पड़कर कालीन और स्टूल खरीद ले गया. अब रज़ा के स्टूडियो में नया कालीन बिछा था और एक नया स्टूल आ गया था. ये सब वही लेकर आया था जो पुराने वालों से ज्यादा महँगा था. रज़ा उस नए माहौल में अपनी जुगत बिठा रहे थे. रज़ा रंगों को उनकी रूढ़ स्मृति से मुक्त कर रहे थे. वे अब इस जगह आ पहुँचे थे जहाँ रंग उनके लिए अपरिचित नहीं रह गए थे. वर्षों की साधना और ध्यान से रंग और रज़ा अब एक ही हो चुके थे. मैंने देखा रज़ा को चित्रित करने में यानी इसे अंग्रेजी में कहूँ तो ज्यादा आसान होगा, Act of painting में मज़ा आता था. वे कैनवास का एक बड़ा सा हिस्सा, या शान्ति बिंदू का बड़ा सा बिंदू घण्टों एक छोटे ब्रश से चित्रित करते रहेंगे, शायद उन्हें दो या तीन दिन लग जाए तब भी वे उसी ब्रश से करते रहेंगे और ऐसा नहीं है कि रज़ा के स्टूडियो में बड़े ब्रश नहीं थे या रोलर नहीं रखा था. वे शान्ति से शान्ति बिंदू चित्रित करते हुए कई दिन निकाल सकते हैं और मैंने देखा कि उनके इस धीरे-धीरे छोटे ब्रश से रंग भरने में अनेक तरह के टेक्सचर पैदा होते रहते थे जो चित्र की सम्वेदना को बढ़ाते हैं. इन टेक्सचर में रज़ा अपना समय और अपने विचार भी चित्रित करते जाते हैं. इन टेक्सचर में उस रंग की रंगतें भी उभरती जाती हैं. कई बार हम दोनों इस पर बात भी करते थे और रज़ा एकाध-बार बड़े ब्रश को भी मौका दे देते किन्तु जल्दी ही वापस उस छूटे ब्रश को उठा लेते. यह उनके काम करने का मुफ़ीद ढंग था जिसमें उनकी बात रंग और कैनवास से भी होती रहती और वे अब काम बन्द करने के बाद कैनवास को हाथ जोड़कर, सर झुकाकर प्रणाम करना नहीं भूलते.
उनके शान्ति-बिंदु का काला रंग या कि सूर्य-नमस्कार का काला सूरज सिर्फ काला बिंदु मात्र नहीं है. सिर्फ काला रंग यदि आप देख रहे हैं तो मैं चाहूँगा आप एक बार फिर देखें. उसमें रज़ा के द्वन्द्व भी चित्रित हैं. रज़ा का समय ही नहीं रज़ा का देखना भी छुपा है जिस तरह उन्होंने काले रंग को देखा है. उसमें मण्डला के जंगल का अँधेरा और रज़ा के मन का भय भी छिपा है. रज़ा का डर उस काले को आलोकित करता है. रज़ा ने रंगों को उनकी रूढ़ि से मुक्त कर नयी पहचान भी दी है. काला सिर्फ उदास काला नहीं है या कि लाल उच्छृंखल लाल नहीं है सफ़ेद शान्त भर नहीं रहा या कि नीला आकाश भर में नहीं सिमटा है. चित्र को देखना होगा, तब वह आपसे बात कर अपने रहस्य खोलेगा. रज़ा के चित्र उकसाते हैं. आपके देखने को खींच लेते हैं.
आश्चर्य लोक के इसी अचम्भे को रज़ा ने साधा है, अपनी कड़ी मेहनत और एकाग्रता से. प्रतिभा और जिद से. जुनून और प्यार से. रज़ा के चित्रों का सच उन रंगों में नहीं है. उन स्थापनाओं में नहीं है. रज़ा के उन विश्वासों में नहीं है. उन धारणाओं में नहीं है जिस पर रज़ा का भरोसा है. रज़ा के चित्रों का सच उस भय में है जो रज़ा के भीतर बचपन में समाया उन भटकनों के बीच, जो जंगल की लुका-छिपी वाली स्थिति के भीतर था. जहाँ एक बालक अपनी जिज्ञासा लिए उस जंगल के नीरव एकान्त में सुकून के कुछ क्षण खोजता है. कुछ चमकता सा पाता है. वह पाता है कि जंगल से भयानक जंगल की कहानियाँ हैं. जिनमें हर अनजान से ख़तरा है. जीवन की सुरक्षा ही इन कहानियों का केन्द्र है. मगर उसका जंगल भय के साथ रोमांच का अनुभव भी देता है. ढूँढने के साथ पाना भी जुड़ा है. अन्धकार में उजाला है. उजाले का स्रोत अँधेरा है. यह अँधेरा इतना डरावना नहीं है और इसमें छिपे अनजान का भय है. यह बात जाहिर है रज़ा ने उस वक़्त न समझी हो और शायद कभी इस तरफ ध्यान भी न गया हो, किन्तु उनके रंगों की उजास में उनके द्वारा लगाए गए काले रंग की गहराई में वह सब दिखता है. उनका काला रंग वैसा काला रंग नहीं है जो वैषम्य दिखाता हो, यह काला उस चित्र के दूसरे रंगों की तरह ही उसका हिस्सा है. कोई यह कह सकता है कि यह भी कोई बात है, सभी काले रंग चित्र में इसी तरह का स्थान रखते हैं. मगर रज़ा के सन्दर्भ में यह बात नहीं कही जा सकती, उनका रंग प्रयोग संवाद तो करता ही है और साथ ही सभी रंग की उपस्थिति उसी तरह है मानों वे एक परिवार के सदस्य हों, जिनका स्वभाव भिन्न है. वे आपस में मिलजुल कर रहने वाले सदस्य हैं जो अपनी विशेषताओं के कारण अपना महत्व भी दर्शाते हैं. रज़ा के चित्र आकर्षित तो करते ही हैं उस आकर्षण में हम देखना भूल जाते हैं. उन्हें ध्यान से देखना उनका प्रकटन है. इस प्रकटन में वे उद्घाटित होते हैं. इस उद्घाटन में वह बात करते हैं और तब आप जान पाते हैं उनका होना. रज़ा खुद कहते हैं इन रंगो के बारे में कि भारतीय कला में रंग एक तरह भाव-समाधि का, आनन्द का पर्याय है. रज़ा जिसे भाव-समाधि कह रहे हैं वह जिज्ञासा में खोजा गया सच है. यह समाधि उस अँधेरे में लगी है जहाँ कुछ दिखाई देना मुश्किल है और एक लौ लगी है कुछ पाने की. यह समाधि की अवस्था है जब हम अँधेरे में कुछ पाने के लिए हाथ-पाँव मार रहे होते हैं.
यदि हम रज़ा के चित्रों को उनके शुरुआती दौर से देखें तो पायेंगे कि रज़ा की रंग-पहुँच उसी भय से संचालित है. उसमें पाने-खोजने का खेल लगातार चल रहा है. रज़ा के रंग-प्रयोग को ध्यान से देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि रज़ा की रंग-पैलेट सीमित है उन्हें बहुत से रंग नहीं चाहिए. उनके पास लाल रंग की एक रेंज है. दूसरे नीले और हरे की. तीसरे उन्होंने सफ़ेद रंग से कुछ चित्र बनाये हैं जो उनके बाद के समय के चित्र हैं. उसमें बहुत ज्यादा चित्र संसार नहीं दिखता. किन्तु जो भी चित्र बने हैं उनमें रंग- संवेदना गहरी है. वे अक्सर कल्पना करते थे एक संग्रहालय की, जिसके एक कक्ष में उनके सिर्फ तीन चित्र सफ़ेद रंग-योजना वाले टाँगे जाएँ. इन तीन चित्रों का प्रभाव यही सोच थी. उससे उत्पन्न पवित्र भाव उन्हें आह्लादित करता था. कल्पना में ही हो रहा था. कभी ऐसा न हो सका कि उनके तीन चित्र एक कक्ष में प्रदर्शित हुए हों. किन्तु इस विचार से वे हमेशा उत्तेजित रहे.
रज़ा की ख़ासियत यह रही कि वे किसी परिस्थिति को सुलझाने में समय लेते रहे हैं. वे उससे घबरा कर नाता नहीं तोड़ेंगे न ही उसका विकल्प खोजेंगे. वे बस कुछ समय लेंगे. उस पर विचार करने के लिए सोचेंगे और उसका हल निकाल लेंगे. वे धैर्य और विचार की जगह हमेशा खुली रखते रहे हैं. जो परेशानी मिजाज है, उससे सम्बन्ध बनाने में समय लगता है यह रज़ा जानते हैं. धीरे-धीरे वे मसरुफ होने लगे अपनी प्रदर्शनी और चित्रों के संसार में. उन्हें मिथकों की कथाएँ सुनना अच्छा लगता था और वे मानवीय गुण-अवगुण से भरे देवताओं के किस्से सुनकर चकित रहते. उनके पास करने को बहुत कम था. सिर्फ चित्र बनाना ही एक कर्म बचा जिस पर वे अडिग रहे. उन्हें याद भी सताने लगी. वे पिछले पचास से ज्यादा वर्षों से पेरिस रह रहे थे और उन्होंने भारतीय नागरिकता नहीं छोड़ी थी. उनका पासपोर्ट आज भी भारतीय था और उस पर घर का पता उनके प्रिय मित्र बाल छाबड़ा का ही रहा. वे उसके नवीनीकरण के लिए मुम्बई आते और अपना वीसा भी ठीक कराते रहे. रज़ा का मन अब फ़्रांस में नहीं लग रहा था. वे रहते जरूर थे पेरिस में किन्तु उनका मन भारत लौटने का बन रहा था. उन्हें चिन्ता थी बहुत सी बातों की और वे बेफ़िक्र थे कई मामलों में. रज़ा के शब्दों में :
\”मैं भीतर से ख़ाली हो गया था. कुछ समय के लिए मैंने चित्र बनाना बन्द दिया. मैं अपने भीतर देखने की कोशिश कर रहा था बजाय बाहरी दुनिया के. यह बहुत मुश्किल समय था जब सब कुछ गहरे अन्धकार में था. एकदम खाली. किन्तु मैं रुका नहीं मैंने अपनी प्रज्ञा को जगाये रखा. और धीरे-धीरे ख़ाली जगह में एक बिंदु उभरा. बढ़ते-बढ़ते इसने वृत्त का रूप ले लिया. एक बिजली सी कौंधी, मेरी ऊर्जा जागृत हो गयी. रास्ता सूझने लगा, धीरे-धीरे रंग दिखाई देने लगे. सफ़ेद, पीला, नीला, लाल. यह स्वाभाविक था कि काला रंग इन्द्रधनुष में बदलेगा.\”
वे चित्रों में ख़ुद को महफ़ूज पाते थे. वाल्डेमॉर जार्ज का लिखा सच हो रहा था :
\”रज़ा जिन्होंने कई प्रदर्शनियाँ फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, भारत, संयुक्त राज्य अमरीका में की हैं, अपना समय पेरिस के सिक्रेतां एवेन्यू स्थित अपने स्टूडियो में, जहाँ वे भारतीय ढंग से पालथी मारकर बैठ काम करते हैं, व्यतीत करते हैं और शेष समय इले-दि-फ़्रांस की एक देहाती कॉटेज और मांतों के निकट पहाड़ियों के हृदय में बेस किले से घिरे गांव में एक अड्डे पर बिताते हैं. चट्टानों के मध्य सीढ़ियों के नीचे एक विशाल तलघर है. वहां प्रकाश सिर्फ आकाश किरणों और एक छोटे से दरवाजे से दाखिल होता है.
सफ़ेद दीवारों की यह गुफा ध्यानस्थ होने में मदद करती है. वहाँ रज़ा अकेले रहते हैं या अपनी पत्नी जानीन मोंजीला के संग, जो अपनी ही शैली की चित्रकार है और अपने बिरले गुणों के लिए जिन्हें बहुत प्रशंसा मिली है. उनके माल-असबाब में नानबाई की एक विशाल मेज, बेडौल ढँग से निर्मित कुछ कुर्सियाँ, विवाह की एक संदूक और प्रसाधन की मेज है. दूसरी चीजों में गुलाबी संगमरमर की एक टॉप, एक फव्वारा, जस्ते की तश्तरियाँ, हाथों से निर्मित रसोई के बर्तन, एक तेल की कुप्पी और कुछ ढलवाँ लोहा. किसी को फिलिप डी शैम्पेन, लि नैन या जुरबारान के अंतःपुर याद आ सकती है. क्या रज़ा, पाब्लो पिकासो की तरह कहेंगे : \’मैं खोजता नहीं हूँ ?\’ वे आंतरिक प्रेरणा के अनुसार चलते हैं. \’पाता हूँ\’ का आशय है \’मुझ पर रहस्योद्घाटन हुआ है.\’ और फिर भी युवा भारतीय कलाकार का पहला मौलिक काम एक ज्यामितिकार का सुव्यवस्थित चेतना को प्रतिश्रुत है, सम्वेदनशील लेकिन कठोरता को समर्पित. रज़ा उस नियम के पक्ष में हैं जो संवेगों को ठीक करता है, सेजां और ब्रॉक का अनुसरण करते हुए वे सतह को विभाजित करते हैं, सशक्त रेखाएं खोजते हैं और एक-दूसरे को काटते धरातलों पर उन्हें लेते हैं.\”
\’यह रहस्योद्घाटन हुआ मुझ पर\’ यह कुछ वैसा ही है, जो बचपन में जंगल में घूमते-खोजते हुआ करता था. उस वक़्त भी जंगल के अँधेरों में अचानक किसी का उजागर होना, वह एक जानवर हो सकता था, या सरकता साँप, या कोई एक रंग का फूल, यह सब रज़ा के लिए एक अचम्भा था जिस पर उनकी कोई पकड़-पहुँच नहीं थी और अब भी अपने चित्रों के इस रहस्योद्घाटन पर रज़ा की कोई कोशिश कारगर नहीं है. वे चित्र बन जाते हैं. बनाये नहीं जाते. उनका अचम्भा अकेला उनका है जिससे रज़ा भी उपकृत होते हैं. और दीर्घा में दर्शक भी. इस चित्र-उजागर के करिश्मे ने रज़ा को प्रेरित किया जानीन का ग़म भुलाने को. दो हज़ार दो के बाद पिछले चौदह सालों में रज़ा ने लगभग तीस एकल प्रदर्शनियाँ की जो उनकी आंतरिक सक्रियता,उनके एकाग्र होने और अपने को रंगो के संसार में डूबा देने का प्रमाण है.
(समाप्त)