अधूरी रह जाती है एक तस्वीरकुमार अम्बुज |
उसने कहा वह उदास नहीं है
और सब कुछ ठीक हो जाएगा
कि यह कोई पुरानी, शायद उसके बचपन की बात है
तब कोई सपना देखा हो या सिर्फ़ वहम हो
कि दुकानें लुट रहीं थीं और उन जगहों से उठता था धुआँ
जहाँ दूब थी और सबसे ज़्यादा गिरती थी ओस
और उन जगहों से भी जहाँ संगीत और खिसकपट्टियाँ थीं
पता नहीं अब बारह बजे रात तक
पान की दुकानें खुलें या न खुलें
कठिन है कुछ भी काम करना
और मुश्किल है कि कोई प्यार की निगाह डाले
और कभी-कभार पूछेः भूखे तो नहीं हो
पार्कों में बूढ़े लोग दिखाई नहीं देते
बचे हुए बच्चे खिड़कियों से देखते हैं आसमान
घर की स्त्रियाँ उन्हें टोकती भी नहीं हैं
जितनी सुहानी जगहें थीं राख से भर गई हैं
कोई जगह ऐसी नहीं दिखती जहाँ कुछ
बेमतलब के झाड़ उगे हों या छोटे पौधे ही हों
जिनके क़रीब जाने पर दिखे कि उनमें नीले-सफ़ेद फूल भी हैं
मैं कल ही तुमसे मिलने आना चाहता हूँ
लेकिन यह इतना मुश्किल है कि सिर्फ़ सोचो तो आसान लगता है
मुझे नहीं पता कुछ न कुछ करते रहने का अब क्या मतलब है
फिर भी मैं तुम्हें फ़ोन कर रहा हूँ और देर रात हो गई है
देर रात के उस सूने अँधेरे में वह भूलता हुआ-सा
कहता जाता था कुछ, उसके शब्दों में
व्याकरण और उच्चारण की वे ग़लतियाँ थीं
जो भाषा के जीवित होने में और अनायासिता में
और बेचैनी में होती हैं
अब मेरी विस्मृति और कल्पना भी शामिल हो रही है उनमें
जो और भी अशुद्ध कर रही है भाषा को
लेकिन उनका अर्थ ज़्यादा साफ़ होता जाता है.
राकेश श्रीमाल से परिचय और मित्रता के चालीस बरस पूरे होकर संपन्न हुए. तमाम हुए. ऐसी स्मृति का हिस्सा हुए कि अब उसमें नया कुछ नहीं जुड़ेगा.
उसका स्वभाव, जीवन शैली, साहित्य की पसंदगी और दृष्टिकोण मुझसे काफ़ी अलग रहा. कहीं-कहीं तो विपरीत. उसमें अपनी तरह की अराजकता और लापरवाही भी ऐसी कि उनका नामकरण राकेश के नाम पर हो सकता है. 1982-84 के दो सालों तक हमारा मिलना-जुलना लगभग रोज़ का रहा. राकेश बहुत कम उम्र में, लेखक होने की आकांक्षा को केंद्र में रखकर, अकेला रहने की कठिन प्रतिज्ञा के साथ इंदौर से गुना चला आया था. जब राकेश गुना में मिला तो वह इक्कीस का था. वह चाहता था कि उसका परिवार किसी तरह उसके कला-साहित्य प्रेम में व्यवधान न बने. साहित्य के पक्ष में सब कुछ दाँव पर लगा देने की समझ और दीवानगी उसके पास थी. वह आत्मनिर्भर और स्वतंत्र रहकर काम करना चाहता था.
कुछ समय बाद प्रगतिशील लेखक संघ की गुना में इकाई बनाना तय हुआ. आज यह जान लेना कुछ विचित्र इसलिए लग सकता है क्योंकि राकेश वामपंथी रुझान का नहीं रहा लेकिन उसने मेरी मैत्री की ख़ातिर गुना इकाई की स्थापना में सक्रिय सहयोग किया. मैंने कविताएँ चुनीं और उसने पोस्टर बनाए. साथ-साथ भागदौड़ की. थोड़े समय के लिए वह प्रलेस गुना इकाई का सदस्य भी रहा. लेकिन प्रलेस उसकी आकांक्षा या विचार में नहीं था. मैं नहीं जानता कि उसने मुझसे कभी कोई प्रेरणा ली या नहीं लेकिन उसकी वजह से मैं साहित्य के कठिन इलाक़ों में घुसने और कविता पोस्टर बनाने की तरफ़ आकर्षित हुआ. तब मैंने, अन्य दोस्तों के साथ कई कविता पोस्टर बनाए और गुना के मुख्य चौराहे पर साप्ताहिक अंतराल पर दो-तीन सालों तक प्रदर्शित किए.
उन्हीं दिनों उसने मेरे जीवन का पहला एकल काव्य पाठ देवलालीकर फ़ाइन आर्टस कॉलेज इंदौर में कराया. उसकी मित्रता प्रख्यात चित्रकार हरचंदन भट्टी, अखिलेश और देवीलाल पाटीदार से थी जो उस समय वहाँ सीनियर थे. वह काव्य पाठ उतनी ही सफलता प्राप्त कर सका जितनी उस समय की मेरी कविताएँ. वे कविताएँ मेरे किसी संग्रह में जगह न पा सकीं. उस घनघोर अवसादी काव्यपाठ के तुरंत बाद ग़म ग़लत करने के लिए चार घंटे बॉर की शरण में रहना पड़ा. इस दुर्घटना के उपरांत भी राकेश को मेरे कवि हो जाने की आशा बनी रही. उसकी अमर आशा ने मुझे कई बार भरोसा दिया. उन दिनों राकेश के अलावा गुना शहर में कोई न था जिससे उस साहित्य की बात की जा सकती हो जिसमें मेरी दिलचस्पी बनने लगी थी.
(दो)
हमारी साहित्यिक पसंद, एक-दूसरे की पसंद न बन सकी और उसके रुझानों से मेरा मेल न हुआ. लेकिन मित्रता बनी रही. वह मेरी चिंता करता रहा और मैं उसके लिए फ़िक्रमंद रहा. शायद इससे ज्यादा कोई सहायता हम एक-दूसरे की कर नहीं सकते थे. वह अपनी अभिरुचि को पल्लवित करता रहा. मैं बहुत छोटी जगह में रहने की इच्छा पूरी करने के लिए क़रीब के क़सबे मुँगावली में तबादला लेकर चला गया. जीवन-यापन और लेखकीय स्वप्न के लिए वह इंदौर, मुंबई, भोपाल आदि अनेक जगहों पर घूमता-भटकता रहा, काम करता रहा. अंतत: वर्धा और फिर कोलकाता में स्थिर हुआ. कभी-कभार हमें एक-दूसरे के समाचार मिलते रहे मगर संपर्क लगभग टूटा-सा रहा. एक ऐसी संचार सेवा की तरह जिसकी कनेक्टिविटी अकसर ही ग़ायब रहती है. लेकिन जब भी हम कभी मिले तो किसी ज्वार भरे उत्साह और उठती हुई किसी हूक के साथ. यह अलग बात है कि हमारे बीच कई बातें आड़े आती रहती थीं. वह अप्रत्याशित हो जाने में सक्षम थ. उसकी अराजकता दुविधा में डाल सकती थी, चोटिल कर सकती थी, हतप्रभ कर देती थी और उमंग को नष्ट़ कर देती थी. किंतु जो चीज़ वर्षों तक लगातार बनी रही, कभी नष्ट नहीं हो सकी, वह प्रथम प्रेम की कोई तीव्र भावना ही थी. जिसमें आक्रामकता, असहमति और प्रियता का दुर्लभ, कठिन संयोग रहा.
उसने मेरे छोटे-मोटे पड़ावों का भी जश्न मनाया, हार्दिक ख़ुशी दर्ज़ की. जब मुझे कविता के लिए पहला पुरस्कार मिला, जब पहले प्रवास पर मुंबई में उससे मुलाकात हुई, जब मेरी किताब आई या दुर्घटना का कोई प्रसंग रहा हो, उसने इन तमाम बहानों से हमारे निजी समय और संबंधों को संक्षिप्त संस्मरणों की तरह प्रकाशित करने में प्रसन्ननता का अनुभव किया. उस लिखने में प्रशंसा का भाव उतना केंद्रीय नहीं था जितना आत्मीयता और लगाव का. और इसी से उनका विशेष अर्थ हुआ.
बावजूद कि आप उसकी योजनाओं, कल्पनाओं, वायदों और कसमों से बहुत दूर तक उम्मीद नहीं लगा सकते मगर वह कई बातें आकस्मिक रूप से कर गुज़र सकता है. पैसा उसकी जेब में टिकता नहीं और यदि आपकी जेब में पैसा है तो वह उसे भी टिकने नहीं देगा. अपने सामने रखी हर चीज़ को वह ख़र्च कर देना चाहता है. उम्र, रुपया, समय, शराब, संबंध, आकांक्षा और स्वप्न. लेकिन इन्हीं में से वह कुछ बचा लेता है. कैसे, यह समझना बहुत मुश्किल है. जैसे कोई जादूगर टोकरी में से कबूतर ग़ायब कर देता है मगर फिर वह कबूतर उसी टोकरी में मिल जाता है. वह एक जादू और कर सकता है- आपको उस प्रतिभा का विश्वास दिला सकता है जो आपके भीतर है ही नहीं. और फिर एक दिन अपने सर्जनात्मक एकांत में आप पाते हैं कि वह प्रतिभा आपके अंदर वाक़ई है. तब आपको लगता है कि उसने टोकरी में से कबूतर ग़ायब नहीं किया था बल्कि खाली टोकरी में से एक और कबूतर प्रकट कर दिया था.
(तीन)
उसमें संपादन की कुछ ख़ास क्षमता थी. कलाओं की अपनी एक समझ जो नये कोण से रोशनी को गुज़रने देती है. प्रिज़्म की तरह. वह आकर्षक गद्य लिखता रहा और कविताएँ. मुझे उसकी शैली पसंद आती थी, परंतु. इस परंतु को मैं यहाँ विषय नहीं बना सकता. यह विषयांतर होगा और मेरे सामर्थ्य के बाहर भी. वह मित्र बनाने में निष्णात था. मगर वहीं कहीं बारीक़ अक्षरों में लिखा रहता था- शर्तें लागू. उन अक्षरों को अकसर आप पढ़ नहीं पाते. यह आपकी चूक थी, उसकी नहीं. वह हकला सकता था लेकिन उसका पूरा वाक्य आपके भीतर धँस जाएगा. वह चुंबक था या लत या वरदान या आफ़त या आसानी या मनमानी, कहना कठिन है. लेकिन यदि आप उसके मित्र हो गए हैं तो वह आपके प्रेम को याद रख लेगा और आपके दिए अपमान को बिसरा देगा. अंत में आप भी सिर्फ़ उसके उस तपाक को याद रख पाएंगे जो वह मिलते ही पेश कर देता है.
जीवन के पाँच-सात प्रेम याद करूँ तो उनमें मेरा एक असफल मगर प्रखर प्रेम राकेश है. जो मेरे जीवन में मेरा नहीं हुआ लेकिन कशिश की तरह मेरी शिराओं में बना रहा. राकेश अपनी कुल परिणति में दुर्गम प्रेम है इसलिए उसकी लालसा बनी रहती है. अपनी प्रकृति में वह ऐसी प्रेमिका है जिसे पाना सहज है लेकिन उसके साथ निर्वाह कठिन. कई बार आप थककर उससे छुटकारा चाहते हैं मगर अगले ही क्षण लगता है कि यदि यह प्रेम छूट गया तो जीवन निरर्थक हो जाएगा.
बहरहाल, इक्कीस की उम्र में साहित्यिक समझ और जानकारी में वह मुझसे आगे था और मैं उसकी तुलना में पच्चीस का साहित्यिक गँवार. यहाँ गँवार शब्द मैं किसी अतिरेक में नहीं, सच्चाई से लिख रहा हूँ. उस समय मैं नई दुनिया अख़बार के कॉलम ‘अधबीच’ में व्यंग्य लिखता था और स्थानीय क़िस्म की मादक और मारक प्रसिद्धि का शिकार था. धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका से कुछ परिचय, बाक़ी गुना के मुशायरों की संगत का अनुभव, ग़ज़लकारों, गीतकारों से संवाद. बस, इतना ही. राकेश ने आते ही मुझे खोज निकाला और दो-तीन मुलाक़ातों के बाद धावा बोल दिया. काफ्का, कामू वगैरह के नाम लेकर पूछा कि इनको पढ़ा है. मैं क्या बोलता, वे नाम ही मैंने न सुने थे. फिर उसने मेरे आगे पूर्वग्रह, साक्षात्कार पत्रिकाओं के कई अंक रखे. कृष्ण बलदेव वैद का नाम भी राकेश से ही पहली बार सुना. मेरे होश उड़ गए. मैंने इसे चुनौती और अवसर की तरह लिया. आगामी तीन सालों तक अनेक लेखकों, किताबों, पत्रिकाओं को ध्यान से, कुछ घबराकर पढ़ता चला गया.
राकेश ने एक बंद क़सबे में मेरे लिए साहित्य जगत की महत्वपूर्ण खिड़कियों को खोला. इसे मैं कभी विस्मृत नहीं कर सकता. यह अलग बात है कि राकेश के प्रिय लेखक मेरे प्रिय न हो पाए और मेरी समझ के प्रस्थान बिंदु भी उससे अलग होते गए. लेकिन राकेश प्रिय हो गया और बना रहा. हालाँकि उसे सँभालना मेरे वश का काम नहीं था. वह मुझे सँभालता रहा. उसकी तुनकमिज़ाजी में एक वात्सल्य भाव विद्यमान रहा चला आया. इस दीर्घजीवी मित्रता में उसका योगदान कम से कम अस्सी प्रतिशत का रहा.
राकेश ने उस समय मेरी कविताओं में, वे संभावनाएँ देखीं जो मुझे ख़ुद नहीं दिख रहीं थीं. इस तरह उसने मुझे सर्जनात्मक और आत्मविश्वासी बनाया. उन दिनों हमने कई रातों तक चाँद को अपने सफ़र में परास्त किया या फिर चंद्रमा को उगने ही नहीं दिया. शायद यह राकेश का ही असर था कि मैं धीरे-धीरे सफल, सरल व्यंग्य लेखन से मुक्त होकर, कविता के असाध्य से रास्ते पर चला जो आगामी कुछ वर्षों की असफलताओं को अपने भीतर समेटे हुए मेरी प्रतीक्षा में था. फिर वह गुना से चला गया. और मेरे दैनिक जीवन से भी.
(चार)
याद करता हूँ कि वह कवि था, लेखक, चित्रकार, समीक्षक और संपादक. वह इतना कल्पनाशील और नवाचारी कि अपने यूटोपियन विचारों के ज़रिये अशोक वाजपेयी से लेकर धीरेंद्र अस्थाना और प्रभात रंजन, अरुण देव तक, वरिष्ठ चित्रकारों से लेकर संघर्षशील नये कलाकारों, गैलरी मालिकों और संगीतकारों तक सबको प्रभावित करता रहा. उसने कई बार अपनी काग़ज़ की नाव को क्रूज़ के मुक़ाबले में उतार दिया और उसे कभी डूबने नहीं दिया, उसे बराबरी से खेता रहा. किसी भी प्रतियोगिता से बाहर.
दरअसल, उसकी संपादकीय क्षमता का उपयोग भी ठीक से हुआ नहीं. या उसने किया नहीं. जनसत्ता के सबरंग, कलावार्ता और पुस्तक-वार्ता के उल्लेखनीय संपादन के बावजूद उसका संपादकीय कौशल शेष ही बना रहा. दूसरों की सुप्त प्रतिभा जगाने में उसका कोई सानी नहीं. वह हाथी को हल में जोत सकता था और रेगिस्तान को यकीन दिला सकता था कि उसके पास उपजाऊ काली मिट्टी का भंडार है.
वह बोहिमियन रहा, गृहस्थ हुआ, औचक, अविश्वसनीय और आत्मीय बना रहा. एक ऐसा चमकीला नक्षत्र जो दूर से बहुत लुभावना है, इस संसार को किंचित प्रकाशित करता है, वहाँ आप अपनी बस्ती बसाना चाहते हैं लेकिन ध्यान रखें कि यह एक ख़तरनाक विचार हो सकता है. राकेश में अनेक कमियाँ रही होंगी मगर उसकी सबसे अच्छी अच्छाई थी कि वह मेरा प्रेम था. मुझे उसकी बुराइयाँ दिखकर भी नहीं दिखतीं थीं. उसकी कमियों के प्रति मेरी आँख में मोतियाबिंद बना रहा. क्योंकि कि प्रेम अंधा नहीं होता, प्रेमी अंधा होता है. इसलिए मैंने कभी उसका साहित्यिक मूल्यांकन भी नहीं किया.
कई लोग अपनी कुटैवों को अपने जीवन से भी अधिक प्यार करने लगते हैं. राकेश इस मामले में ज़रा ज़्यादा आगे निकल गया. वह उन लोगों में रहा जो इस संसार में करने कुछ आए थे, करते कुछ रहे और अकरणीय के गुंजलक में से अचानक अनुपस्थित हो गए. राकेश, तुमने मुझे हमेशा प्रेम किया लेकिन कई बार निराश किया.
लेकिन इस बार तो तुमने हद कर दी.
(पाँच)
अपनी इस कविता के साथ एक बार फिर अकेला होता हूँ जो तुम्हें भी पसंद रही आई:
एक कम है
अब एक कम है तो एक की आवाज़ कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं
एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना
मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी
मैं इस एक की परवाह करता हूँ.
कुमार अम्बुज |
आज सुबह से ही यह वेदना मथ रही। अंबुज जी ने एक एक वाक्य बहुत गहरे उतर कर लिखा है। अब बस यादें ही हैं और हम सबका रीता सा उदास मन है।
आविष्कार करने, कर लेने की तरह याद किया हैं अम्बुज जी ने।
अंबुज जी ने चित्र में एक रंग के कम हो जाने के अवसाद को मुकम्मल ढंग से इस संस्मरण में उकेर दिया है। – – हरिमोहन शर्मा
मर्मस्पर्शी लेख। इस बहाने मैं भी अपनी मैत्री को याद कर पा रहा हूं..प्रतिभा को निखारने और उसे दिशा देने का काम राकेश सहज मैत्री में कर लेते थे। अब लग रहा है की मैत्री भाव राकेश के लेखक ,कला मर्मज्ञ ,संपादक आयामों को जानने समझने के लिए निहायत जरूरी है।
“ वह चुंबक था या लत या वरदान या आफ़त या आसानी या मनमानी, कहना कठिन है. लेकिन यदि आप उसके मित्र हो गए हैं तो वह आपके प्रेम को याद रख लेगा और आपके दिए अपमान को बिसरा देगा” – यह पंक्तियाँ Kumar Ambuj जी ही लिख सकते थे ! अद्भुत पीस …पढ़कर लगा कि प्रकृति सबको राकेश श्रीमाल जैसा मित्र दे
ओह! राकेश श्रीमाल जी को थोड़ा सा भी जो जाना, संपादक और लेखक की तरह, उससे बिल्कुल अलग, आज जाना अम्बुज जी की कलम से. अद्भुत.. बहुत आत्मीयता से, बेहद मार्मिक ढंग से लिखा है अम्बुज जी ने..
What a wonderful painful memory.
उसने कई बार अपनी काग़ज़ की नाव को क्रूज़ के मुक़ाबले में उतार दिया और उसे कभी डूबने नहीं दिया, उसे बराबरी से खेता रहा. किसी भी प्रतियोगिता से बाहर……
अम्बुज तो अम्बुज है बस ।मित्रों को याद करने का यही सलीका है ।