साहित्य की दुनिया में संस्थाओं का बहुत महत्व होता है. हिंदी भाषा और उसके साहित्य में ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की केन्द्रीय भूमिका रही है. इसके निर्माण और देय की गौरव गाथा आप जानते हैं, कुछ ज़िक्र इस आलेख में भी है, पर इसके पतन की भी कहानी है.
कहाँ तो इसे संरक्षित और संवर्धित करने की जरूरत थी कहाँ इसे लगभग नष्ट ही कर दिया गया, कभी प्रो. वसुधा डालमिया ने इसके सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाया था लेकिन बात नहीं बन सकी.
इस बीच कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल की सक्रियता के कारण कोर्ट द्वारा इसकी सभी पुरानी कमेटियों को भंग करने का निर्णय आया है. और चुनाव का रास्ता निकला है.
ज़ाहिर है उम्मीद बंधी है.
इस विषय पर आलोचक-संपादक विनोद तिवारी का यह लेख प्रस्तुत है.
उमस के बीच इंद्रधनुष
(नागरी प्रचारिणी सभा के दिन बहुरेंगे ?)
विनोद तिवारी
धैर्य के कोढ़ से पीड़ित मध्यवर्ग की चुप्पियों के बीच से कभी-कभी कुछ ऐसी खबरें आ जाती हैं कि परिवर्तन का सपना अपने सच को पा लेता है. एक ऐसी ही ख़बर नागरी प्रचारिणी सभा, काशी को लेकर बनारस से आ रही है. महान जनकवि, नाटकार और कहानीकार बर्टोंल्ट ब्रेष्ट की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं :
नदी की धार बाँधना
फल के पेड़ में कलम लगाना
आदमी को शिक्षित करना
राज्य को बदलना
ये सब सोद्देश्य आलोचना की मिसालें हैं
और साथ-साथ कला की भी.
जिन्हें आलोचना से नफरत है, ये सुंदर पंक्तियाँ उन्हें तिलमिलाहट से भर देंगी. पर जो इसकी ताकत से वाकिफ़ हैं वे इन्हें चूम लेंगे. इतिहास गवाह है कि एक सच्चे लेखक की जो अनिवार्य सृजनात्मक चिंता होती है वह महज अपनी कलम की चिंता नहीं होती, वरन् व्यापक स्तर पर उस \’सिविल सोसायटी\’ की चिंता होती है जिसे अनेक स्तरों पर एक साथ अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक मिल कर बनाती हैं. ये संस्थाएँ ख़त्म होती जाएँ या इन्हें ख़त्म होते जाने के लिए छोड़ दिया जाए, किसी भी समाज के लिए इससे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है. इसलिए एक लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी अपने प्रतिरोधी हस्तक्षेप से समय-समय पर इन खतरों का सामना करते हैं, ऐसे खतरों की संभावनाओं से इस सिविल सोसायटी को जागरूक करते रहते हैं.
जहाँ, सरकार, सरकारी तंत्र और प्रचार-प्रसार के अकूत संसाधनों का साहित्यिक-सांस्कृतिक एजेंडा कुछ और हो, वहाँ बुर्जुआजी की यह सबसे जरूरी भूमिका होती है. दुर्भाग्य से, सामाजिक-सांस्कृतिक निर्माण की प्रक्रिया में, इस देश में भाषा और साहित्य को लेकर कभी भी कोई स्पष्ट और दूरदर्शी नीति नहीं देखी गयी. सरकारों को इसकी चिंता ही नहीं. अगर वो चाहतीं तो उन सभी संस्थाओं को जो किसी समय में ज्ञान और शोध के जरूरी स्रोत रहे हों, सामाजिक-सांस्कृतिक निर्माण की प्रक्रिया में किसी न किसी रूप में जिनकी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका रही हो, एक राष्ट्रीय नीति बनाकर उनको संरक्षित करतीं, वहाँ की ज्ञान-सम्पदा को नष्ट होने से बचाने के लिए स्थायी उपाय खोजतीं, उन्हें तकनीकी-संसाधनों के सहारे अधुनातन बनातीं और सुरक्षित करतीं.
जातीय स्मृति के तर्क से भी और सामाजिक-ऐतिहासिक-राजनीतिक परविर्तनों और विकास की दृष्टि से भी, किसी भी समय को जानने-समझने के लिए उस समय के भाषा, साहित्य और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष के साथ-साथ उसके ऐतिहासिक योगदान को एक जरूरी प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए. आज साहित्य पर, साहित्य के पक्ष पर और साहित्य मात्र पर ही क्यों समूची सांस्कृतिक-निर्माण के प्रक्रिया पर बातचीत हमारे समय की ठोस वास्तविकताओं से बहुत दूर चली गयी है. ऐसे में, जब कुछ प्रयास, कुछ संघर्ष के परिणाम ठोस और सार्थक रूप में सामने आते हैं तो सुखद आश्चर्य होता है. पिछ्ले दिनों, मृतप्राय नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के संबंध में ऐसी ही एक ख़बर मन उत्साह से भर उठा.
बाबू श्यामसुंदर दास |
देश में हिंदी की साहित्यिक संस्थाओं की बात की जाय तो पहला नाम \’नागरी प्रचारिणी सभा, काशी\’ का आता है. हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और सुदृढ़ीकरण में इस संस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. नागरी लिपि, हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में इस संस्था ने संकल्प-भावना के साथ कार्य किया. इस संस्था का उद्भव उस समय हुआ जब देश में सरकारी कार्यालयों, कचहरियों, अदालतों सहित अन्य जगहों पर भी अरबी, फारसी और अँगरेजी भाषाओं का बोलबाला था. हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने और उसके विकास के उद्देश्य ने नागरी प्रचारिणी सभा को जन्म दिया. इस संस्था की रूपरेखा क्वींस कालेज, बनारस के नवीं कक्षा में पढ़ने वाले तीन छात्रों- बाबू श्यामसुंदर दास, पं॰ रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने 3 मार्च 1893 में ही कालेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर बनायी थी. बाद में इन तीनों ने कुछ और लोगों से इस तरह की एक संस्था बनाये जाने की चर्चा की. इनमें गोपाल प्रसाद, कन्हैया सहाय, रामकृष्ण दास, जय कृष्णदास, रघुनाथ प्रसाद, उमराव सिंह, बाबा गंडा सिंह, भगतराम और शंकरनाथ थे.
इन सभी 12 लोगों ने मिलकर 16 जुलाई 1893 को विधिवत रूप से संस्था का नाम, स्वरूप और उद्देश्य तय किया गया. इसी दिन को नागरी प्रचारिणी सभा का स्थापना दिवस मनाया जाता है. भारतेन्दु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष और बाबू श्यामसुंदर दास पहले मंत्री चुने गए. शुरू में कुछ दिन तक नागरी प्रचारिणी सभा की गतिविधियां छात्रावास के ही छोटे से कमरे से संचालित होती रहीं लेकिन गोष्ठियों के आयोजन में लोगों की उपस्थिति अपेक्षा की सीमाओं को पार कर जाती थी. जिससे छात्रावास में जगह कम पड़ने लगी और लोगों की भीड़ से कालेज प्रबंधन को भी दिक्कत होने लगी. कुछ समय तक \’सप्तसागर मुहल्ले\’ के घुड़साल में इसकी बैठकें होती रहीं किंतु आगे चलकर बड़ी पियरी के बागबरियार सिंह स्थित मथुरा प्रसाद के बगीचे से नागरी प्रचारिणी सभा का संचालन होता रहा. बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना. विश्वेश्वरगंज स्थित वर्तमान समय में जहां नागरी प्रचारिणी सभा है वहाँ 21 दिसंबर 1902 को अवस्थित. पूरे देश भर में इसकी कई शाखाएँ हैं. भारत भर हिंदी का प्रचार-प्रसार और विकास करने वाली संस्थाएँ इससे सम्बद्ध हैं.
‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के उद्योग और प्रयास से सन् 1898 में सरकारी कचहरियों में नागरी का प्रवेश हुआ और अदालती आवेदन और सम्मन हिंदी में लिखे जाने लगे. इस दौरान बड़े कार्यक्रम का आयोजन भी किया गया. काशी की नागरीप्रचारिणी सभा का ध्यान आरंभ ही में इस बात की ओर गया कि सहस्रों हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकें देश के अनेक भागों में, राजपुस्तकालयों तथा लोगों के घरों में अज्ञात पड़ी पुस्तकों को एकत्र कर उन्हें सुरक्षित किया जाए. अत: सरकार की आर्थिक मदद से ‘सभा’ ने सन् 1900 से पुस्तकों की खोज का काम हाथ में लिया और सन् 1911 तक अपनी खोज की आठ रिपोर्टों में सैकड़ों अज्ञात कवियों तथा ज्ञात कवियों के अज्ञात ग्रंथों का पता लगाया. सन् 1913 में इस सारी सामग्री का उपयोग करके मिश्र बंधुओं ने अपना बड़ा भारी कविवृत्त-संग्रह \’मिश्रबंधु विनोद\’, जिसमें वर्तमान काल के कवियों और लेखकों का भी समावेश किया गया है, तीन भागों में प्रकाशित किया. यह ‘शोध-योजना’ जारी रही इस योजना के परिणामस्वरूप ही हिंदी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास ‘हिंदी शब्द-सागर’ के रूप में तैयार हो सका. 10 खंडों में प्रकाशित हुआ है.
यह हिंदी का सर्वाधिक प्रामाणिक तथा विस्तृत कोश है. हिन्दी विश्वकोश का प्रणयन सभा ने केंद्रीय सरकार की वित्तीय सहायता से किया है. इसके 12 भाग प्रकाशित हुए हैं. इसके अतिरिक्त हिंदी साहित्य और भाषा के पोषण में लगी नागरी प्रचारिणी सभा से 18 खण्डों में \’हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास,\’ \’राजकीय कोश\’, \’कचहरी-हिंदी-कोश\’, सहित न जाने कितने ग्रन्थों और कोशों का सम्पादन-प्रकाशन किया गया है.
8 वर्षों के परिश्रम से ‘सभा’ ने 1898 में पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की. हिंदी में पारिभाषिक शब्द निर्माण के इस सर्वप्रथम सर्वाधिक सुनियोजित, संस्थागत प्रयास में गुजराती, मराठी और बंगला में हुए इसी प्रकार के कार्यों का समुचित उपयोग किया गया. सभा का यह कार्य देश में सभी प्रचलित भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली और साहित्य के निर्माण की श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया का सूत्रपात करनेवाला सिद्ध हुआ.
‘आकर ग्रंथमाला’ के तहत प्राचीन कवियों की कृतियों संपादन और प्रकाशन शास्त्रीय और वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है. ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘पद्यमावत’, ‘सूरसागर’ और ‘तुलसी ग्रन्थावली’ जैसे ग्रन्थ इसके उदाहरण हैं. इसके अलावा ‘नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला’, ‘मनोरंजन पुस्तकमाला’, ‘शास्त्र-विज्ञान पुस्तकमाला’, ‘पाठोपयोगी पुस्तकमाला’, ‘प्रादेशिक ग्रंथमाला’, ‘वैदेशिक ग्रंथमाला’ ‘नवभारत ग्रन्थमाला’ जैसी अनेकों प्रकाशन-मालाएँ संचालित की गयीं. ‘सभा’ द्वारा सन् 1896 से ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन होता है. यह \’नागरी प्रचारिणी पत्रिका\’ सभा का मुखपत्र तथा हिंदी की प्रसिद्ध शोध पत्रिका है. कई वर्षों तक ‘हिंदी-रिव्यू’ नामक अंगरेजी मासिक पत्र प्रकाशित होता रहा. एक ‘विधि पत्रिका’ भी प्रकाशित होती थी. ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन शुरू में यहीं से होता था.
‘नागरी प्रचारिणी सभा’ अपना प्रकाशन कार्य समुचित रूप से चलाते रहने के उद्देश्य से सन् 1953 से अपना मुद्रणालय भी चला रही है. ‘सभा’ का ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’ देश में हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है. स्व. ठा. गदाधरसिंह ने अपना पुस्तकालय सभा को प्रदान किया और उसी से इसकी स्थापना सभा में सन् 1896 ई. में हुई. विशेषतः 19 वीं शताब्दी के अंतिम तथा 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो में हिंदी के जो महत्वपूर्ण ग्रंथ और पत्र-पत्रिकाएँ छपी थीं उनके संग्रह में यह पुस्तकालय बेजोड़ है. उपलब्ध स्रोतों के आधार पर लगभग 15000 से ऊपर हस्तलिखित ग्रंथ भी इसमें संग्रहित किए गए हैं. स्व. पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी, स्व. जगन्नाथदास \’रत्नाकर\’, स्व. पं॰ मयाशंकर याज्ञिक, स्व. डॉ॰ हीरानंद शास्त्री तथा स्व. पं॰ रामनारायण मिश्र जैसे अनेकों लेखकों ने अपने अपने संग्रह भी इस पुस्तकालय को दे दिए हैं जिससे यह पुस्तकालय और समृद्ध हुआ.
‘सभा’ के अंतर्गत भारतीय कलाओं के संरक्षण के उद्देश्य से गुरुदेव रबीन्द्र नाथ ठाकुर की अध्यक्षता में सन् 1920 में स्थापित ‘भारतीय कला परिषद्’ की स्थापना की गयी. ‘नगरी प्रचारिणी सभा’ में जगह की कमी के चलते इसे सन् 1950 में ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ को दे दिया गया. वर्तमान में ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ में ‘भारत कला भवन’ के नाम से कार्यरत यह केंद्र भारतीय साहित्य और संस्कृति से संबंध रखने वाली अमूल्य वस्तुओं का दुर्लभ संग्रहालय है.
नागरी लिपि, हिंदी भाषा और साहित्य के प्रोत्साहन के लिए ‘सभा’ अनेकों पुरस्कार और पदक प्रदान करती रही है. इनमें ‘राजा बलदेव दास बिड़ला पुरस्कार’, ‘बटुक प्रसाद पुरस्कार’ ‘रत्नाकर पुरस्कार’, ‘डा.श्यामसुंदर दास पुरस्कार’, ‘डा. द्विवेदी स्वर्ण-पदक’ आदि महत्वपूर्ण हैं. अपनी समानधर्मा संस्थाओं से संबंधस्थापन, अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देना, हिंदी की आशुलिपि (शार्टहैंड) तथा टंकण (टाइपराइटिंग) की शिक्षा देना, लोकप्रिय विषयों पर समय-समय पर सुबोध व्याख्यानों का आयोजन करना, प्राचीन और सामयिक विद्वानों के तैलचित्र सभा भवन में स्थापित करना आदि सभा की अन्य गतिविधियों में शामिल है. हिंदी भाषा और साहित्य के उन्नायकों में से एक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ के आदर्श और संकल्प को गांठ बांध कर जन्मीं इस संस्था के धीरे–धीरे डेढ़ सौ साल पूरे हो जायेंगे.
इस संस्था ने हिंदी भाषा और साहित्य के निर्माण और स्वतन्त्रता आंदोलन की लड़ाई को गति देने में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका का निर्वाह किया. लेकिन तीन-चार दशकों से सभाकी जर्जर इमारत और लोलुप मानसिकता वाले अधिकारी और कर्मचारी, इस महान विरासत को नष्ट हो जाने के लिए उसको उसी के हाल पर छोड़ चुके थे. इसको जीवंत करने की न कोई सोच, न कोई योजना, न कोई दृष्टि. पिछले कई सालों से यह संस्था कोमा में चल रही थी. दशकों से यहाँ प्रबंध समिति और कार्यकारिणी तथा दूसरे अन्य पधाधिकारियों के चुनाव जानबूझकर नहीं कराए गए. इस राष्ट्रीय महत्व की संस्था पर, एक परिवार के लोग, इसे अपनी पैतृक-संपत्ति मानकर कब्ज़ा जमाए हुए थे. अब, जबकि रंगकर्मी, कवि मित्र व्योमेश शुक्ल के प्रयासों से और वाराणसी प्रशासन के सकारात्मक रवैये के चलते प्रतीत होता है कि एक मृतप्राय संस्था को पुनर्जीवन मिल सकेगा. उसकी बची-खुची ज्ञान-सम्पदा को नए सिरे से संरक्षण और सुरक्षा मिल सकेगी. दशकों से स्थगित लोकतान्त्रिक प्रक्रिया शुरू होगी. अब इस संस्था के संचालन के लिए चुनाव की प्रक्रिया का रास्ता साफ हो गया है. इस सुखद ख़बर से देश-विदेश के शोधकर्ताओं के मन में आशा बँधी है. नागरी प्रचारिणी सभा का लुटा वैभव पुनः लौट आए, आइए हम सब मिलकर इसके लिए प्रार्थना करें. इस प्रार्थना को ऐसी दूसरी संस्थाओं के लिए भी दोहराया जाय कि प्रार्थना दोहराने से ख़राब नहीं होती.
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विनोद तिवारी :
आलोचक, संपादक. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर. ‘परंपरा, सर्जन और उपन्यास’, ‘उपन्यास: कला और सिद्धान्त’, ‘कथालोचना: दृश्य-परिदृश्य’, ‘नयी सदी की दहलीज पर’, ‘नाज़िम हिकमत के देश में’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’ ‘आलोचना की पक्षधरता’ और ‘विचार के वातायन’ जैसी पुस्तकों का लेखन सम्पादन. आलोचना के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान’ से सम्मानित.
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