सभ्यता का यह समय यांत्रिक जटिलताओं के साथ-साथ मानवीय विद्रूपताओं का भी है. युवा कवि तुषार धवल उत्तर – पूंजीवाद के भारतीय संस्करण की इन्ही विषमताओं को अपनी इस लम्बी कविता में विन्यस्त करते हैं, तुषार की कविताएँ बेरंग और बदरंग मध्यवर्गीय नगरीय जीवन के संत्रास को देखती समझती हैं. कवि की मूल संवेदना इन विराट अंतरालों में जड़ हो रही मानवीयता को पा लेने की है. शिल्प में दृश्यात्मक बिम्बों के सहारे यथार्थ को व्यक्त करने का कौशल देखा जा सकता है. तुषार रंगमंच, चित्रकला और छायांकन में भी रूचि और गति रखते हैं.
यहाँ अभी भी कुछ बचा हुआ है
(1)
मुम्बई. व्यस्त बांद्रा (वेस्ट) लिंकिंग रोड. अट्टालिकाएं. पूँजी की चमक. एक भूख गुमनाम इसीलिये अनदेखी. ‘सबसे तेज़ चैनल’ भी अंधा. ‘योर चैनल’ भी गायब. इस खबर पर कॉमर्शियल ब्रेक नहीं है. टी.आर.पी नहीं सनसनी भी नहीं, इसीलिये ‘चैन से सो’ जाओ.
मटियाओ !
कवि अकेला है. उसके पास ब्रेक का वक़्त नहीं. सनसनी भी नहीं.
‘जग सोवत हम जागें’!
समरथ को नहीं दोस गोसांईं !
(2)
कोलतार की धूसर चपटी मृत देह पर शहर भर की बामियों से बिलबिला कर निकले दीमकों का व्यस्त लिप्त अकेंद्रित झुण्ड
औल बौल खौल रहा है
खोल रहा है हवा में दुर्गंध की परतों को
गैस छोड़ता अँतड़ियों में उबलती पेट्रोल की
आँखें मिचमिचाती हैं फेंफड़े पहाड़ चढ़ते हैं
सर्फ एक्सेल की होर्डिंग को देख कर कभी सफेद रही शर्ट पूछ उठती है
क्या ये ‘दाग अच्छे हैं’ ? क्या ये वाकई ज़रूरी थे ?
ये दाग छाती पर, फेंफड़ों में, आकाश पर ?
उस चमचमाते लुभाते झूठ के मुँह पर क्यों नहीं हैं दाग ?
उसे किस रिन या टाइड से धोया जाता है सत्ता के गलियारे में ?
एक बड़ी वाशिंग मशीन है कहीं किसी पिछ्वाड़े में रखी हुई जिसमें
समय के झूठ के महत्त्वाकांक्षा के हवस के सभी दाग धुल जाते हैं
लेकिन नहीं धुल पाती है उस आठ महीने की बच्ची की कूड़े से उगी ज़िंदगी
जिसने जनमते ही सिर्फ माँ को और भूख को पहचाना है
उसकी मुरझाई पंखुड़ी से पपड़ाये गालों का रंग नज़र नहीं आता
इस मृत कोलतारी देह पर
लिप्त दीमकों के व्यस्त झुण्ड में सब घुल मिल कर एक विन्यस्त दृश्य की तरह है
उसके सिरनुमा अंग पर सूखे उलझे पिलियाये रेशों को जॉन्सन बेबी शैम्पू नहीं चूमता
उसके वस्त्रहीन अंगों पर सवा सौ करोड़ कीटाणु पल रहे हैं
पर डिटॉल चुप है लाइफबॉय गुम
कंकाल सी उसकी काया पर एक बैलून सा फूला पेट
किसी फोटोग्राफर की ब्लैक एण्ड वाइट शो का माकूल मुफीद विषय बन उसकी लेंस को ज़रूर पुकार लेता है लेकिन उसकी उसी पुकार पर हॉर्लिक्स चुप है केलोग्स गुम
सब अपनी अपनी पंच लाइन में जड़े हैं ‘खुशियों की होम डिलेवरी’ करने में इस घात में कि
कब ‘कुछ मीठा हो जाये’
पर उस तक कोई नहीं आता किसी को फिक्र नहीं कि वह भी ‘तीन गुना तेजी से बढ़े’
उसके लिये इस समय में कुछ बना ही नहीं बनता ही नहीं
या वही नहीं बन पायी बन पाती किसी चीज़ के लिये लायक
उसे पता ही नहीं है और इसीलिये उसे चाहिये भी नहीं
(3)
वह तो खेल रही है
अपने आप से मिट्टी से सड़क किनारे सलमान वाली ‘लैंड क्रूज़र’ के पहियों की ठीक बगल में जो नशे में मत्त हाथों से कभी भी उसकी सोयी रात में फुटपाथ पर चढ़ कर उसके कुनबे को नेस्तनाबूद कर सकती है. उसी की छाँह में बैठी लगभग उसी से खेलती वह कीटाणु सने हाथ अपने मुँह पर थपकारती हुई “आ अ आ अ …” कुछ ‘गा’ रही है
यह उसी की भाषा है उसी का होना उसी का दुख उसी का खेल
धूल है लिथड़ा बदन है बदन पर पेशाब की गंध रूखे मरे पिलियाये बालों में जूँओं की फौज इधर अँगुली उधर खुजली किसी के फेंके पेपर प्लेट का फटा टुकड़ा हमारी बच्चियों के टेडी बियर, हॅना मोन्टाना या बार्बी डॉल से कम प्यारा नहीं है उसे इस वक़्त. एक खेल है जीवन !
एक खेल है जीवन इस वक़्त जो उसका खिलौना है अभी एक खेल होगा उसका जीवन जो किसी का खिलौना होगा कभी
वह भी माँ की दुर्गति दुहरायेगी
यही होता है
होता आया है हमारी नपुंसक बहसों के बीचों बीच जब हमारे खोखले विमर्शों को धकेलती आत्मश्लाघाओं का क्रूर संघर्ष नये आडम्बरों में प्रतिपादित हो रहा होता है.
यही होता है.
एक नदी उफनती हुई हमारे बीच से गुज़र जाती है और हम एक़्वा गार्ड की सर्विसिंग की फिकर में लगे रह जाते हैं. समय बीत जाता है.
यही होता है
कुनबे क़ौम क़ायनात कफन ओढ़ रहे होते हैं
और हमारी शॉपिंग खतम नहीं होती
हमें अदना बनाता एक शॉपिंग मॉल हमें ललकारता रहता है
जरूरतों का असीमित विस्तार डुबो देता है मानव बोध को उसके ‘मैं’ के उफान में
यही होता है
और
यही नसीब अब भी है हमारा सुनते हो वाम !
हम —
जो तुम्हारे दायरे के भी बाहर धकेल दिये गये हैं सत्ता के नये विमर्श में.
हम अनसुने अनकहे अनजाने. हम नाकाफी किसी भी संदर्भ में ज्ञान में !
हाशियों की लिपि कोई नहीं पढ़ेगा हम कब की ध्वस्त सभ्यता हैं जुरासिक युग के तुम्हारी वर्तनी के बाहर !
“आ अआ आअ … ते ते ति ति ताय ताय … आ आ …” गीत है यमक है हुमक का नाभि से उगता परा के स्वर सा उसकी धूल में निर्विकार है सर्वस्व “आ आ अम मम मम म्म म्म्म म्मा मा माँ माँ म मम्म माँ माँ”
“माँ” और वह बिलख उठी
आधी शटर गिरे ए.टी.एम के सिक्यूरिटी गार्ड की तरफ देखा सहम गई
इधर उधर देखा घबरा गई
माँ की महक नहीं थी कहीं भी ICICI के इंश्योरेंस की बकथेथरी में उसके ATM में
उसने सबको देखा उसे किसी ने नहीं (उसमें value था ही नहीं )
एक महिला ने दया दिखा कर उसके आगे पाँच का सिक्का डाल दिया एक काजू बर्फी भी
पर इसमें माँ कहाँ है ?
माँ ! और वह फूट फूट कर रो पड़ी
पैसों की खाद पर पनपता चमचमाता जीवन उसका नहीं है
कोई पैन नम्बर राशन कार्ड वोटर आई डी कोई आधार संख्या उसकी या उसकी माँ की नहीं कोई नागरिकता का प्रमाण नहीं कोई बर्थ सर्टीफिकेट उसके नाम का नहीं
कोई क्यों गिने जन्मा हुआ इंसान उसे उसकी तो पहचान ही नहीं आवाज़ तक नहीं
बस एक ही आवाज़ है “माँ” और वह दौड़ी आई पानी की एक बोतल लिये
(4)
वही फुटपाथ है वही भीड़ वही कोलाहल निर्लिप्त व्यस्ततायें भी वही
वही धुआँ वही धूल मृत कोलतार की धूसर देह पर बिलबिलाती दीमकों का उफान भी वही
पर वसंत है अभी नंदन वन में यहाँ इसी धरती पर
उसी फुटपाथ पर
उसी ‘लैंड क्रूज़र’ के पहियों की ठीक बगल में
वही लिथड़ी कीटाणु भरी देह मरे मुरझाये पिलियाये केश हरितिमा की खिलती चमक में बदल चुके हैं !
माँ दौड़ी आई किसी पिछवाड़े से और लपक कर गोद में भर लिया उसे
उसकी आँखों में शहद है
पिघलता चेहरा पारिजात है पोर पोर बदन सृष्टि का सनातन संगीत
उसकी ध्वनियों को सुनो इस दृश्य में
अचानक यह तेज़ भागता शहर स्लो मोशन में चलता हुआ एक फ्रीज़ शॉट में बदल गया है सिर्फ एक ही आंदोलित दृश्य है यहाँ इस फुटपाथ पर उसकी सुर लहरी में सारा शहर फेड आउट हो कर वाटर कलर के रंगों सा आपस में घुल रहा है हर तरफ संगीत यह जीवन का जीवन को पुकारता जीवन को जन्म देता हुआ
यहाँ अर्थ नहीं काम नहीं मोक्ष नहीं
यहाँ ब्रॅण्ड नहीं विज्ञापन नहीं प्रदर्शन नहीं
यहाँ दो आत्माएं हैं एक दूसरे से उगी हुई पैदा हुई एक दूसरे से
हमारे नारे हमारे कोरस हमारी क्रांतियाँ यहाँ ठहर जाती हैं
शुद्ध मानव के इस विराट के समक्ष
शब्दहीन हो !
जाओ बेचो कहीं और कुछ और
नापो अपने सेंसेक्स अपनी प्रगति अपने पैमानों से
बढ़ाओ अपने टर्नओवर, चमकाओ अपनी बैलेंस शीट
यहाँ अभी भी कुछ बचा हुआ है तुम्हारे बावजूद भी
तुम्हारी हवस के पंजे जिससे टकरा कर टूट जाते हैं
योजनाओं विमर्शों सत्ता के क्रूर संघर्षों लोभ की चपेट से बाहर
मैं लौटता हूँ हृदय में वही मानव लिये
शुद्ध और खुरदुरा !
पेंटिग तुषार धवल के हैं
तुषार धवल की लम्बी कविता : दमयंती का बयान
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तुषार धवल
22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)
पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद
दिलीप चित्र की कविताओं का हिंदी में अनुवाद
कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनय, चित्रकला और छायांकन में भी रूचि
सम्प्रति : भारतीय राजस्व सेवा में मुंबई
tushardhawalsingh@gmail.com