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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : अनूप सेठी

सहजि सहजि गुन रमैं : अनूप सेठी

अनूप सेठी 10 जून, 1958. एम. ए. (हिन्दी) और एम. फिल. (हिन्दी ) कविता संग्रह : जगत में मेला (आधार प्रकाशन), 2002. अनुवाद : नोम चॉम्स्की सत्ता के सामने (आधार प्रकाशन), 2006. हिमाचल मित्र पत्रिका (जिसका प्रकाशन फिलहाल स्‍थगित है) का सलाह संपादन. पंजाबी से कुछ अनुवाद. कुछ एक कहानियां. रेखांकन. कुछ रचनाओं का मराठी […]

by arun dev
September 3, 2012
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अनूप सेठी
10 जून, 1958.
एम. ए. (हिन्दी) और एम. फिल. (हिन्दी )
कविता संग्रह : जगत में मेला (आधार प्रकाशन), 2002.
अनुवाद : नोम चॉम्स्की सत्ता के सामने (आधार प्रकाशन), 2006.
हिमाचल मित्र पत्रिका (जिसका प्रकाशन फिलहाल स्‍थगित है) का सलाह संपादन.
पंजाबी से कुछ अनुवाद. कुछ एक कहानियां.
रेखांकन. कुछ रचनाओं का मराठी और पंजाबी में अनुवाद   
कई पत्र पत्रिकाओं में स्तम्भ लेखन.
ई पता  : anupsethi@gmail.com
बी-1404, क्षितिज, ग्रेट ईस्टर्न लिंक्स, राम मंदिर रोड,
गोरेगांव (पश्चिम), मुंबई 400104.
मोबाइल: 098206 96684. 

अनूप सेठी दुर्लभ कवि हैं. नहीं दिखते तो सालो साल नहीं दिखते. इस कवि का कविता संसार दुर्गम है. समकालीन काव्य – संस्कार से दूर  अपने आस पास को वह एक आवयविक चिन्तक की तरह देखते हैं और शाब्दिक फिसलन से बचते हुए उसे एक धार देते हैं. कवि के पास अपनी विश्व–दृष्टि है.


अनूप सेठी की कविताएँ अर्थ की कई परतें रखती हैं इसीलिए एकाधिक बार पढ़ने पर खुलती हैं और मन – मस्तिष्क में अपनी स्थाई जगह बना लेती हैं. घर–गृहस्थी की नौ कविताएँ ९ सालो में पूरी हुई हैं. सब की सब अद्वितीय. 

 Zombies-1
प्रेतबाधा
बड़ी तकलीफ में हूं
आंत मुंह को आती है जी
रह-रह कर ठाकुर पतियाता हूं
समझ कुछ नहीं पाता हूं
किस राह आता किस राह जाता हूं
गली में निकलता हूं
होठों में मनमोहन मिमियाता है
नुक्क्ड़ पर पहुंच पान मुंह में डाला नहीं
येचुरी करात भट्टाचार्य एक साथ भाषण दे जाता है
उठापटक करवाता मेरे भीतर नंबूदरीपाद डांगे पर
यहां तो पिछला सब धुल-पुंछ जाता है
बाजार की तरफ बढ़ता हूं
ईराक अफगानिस्तान पाकिस्तान हो के
कश्मीर पहुंचा देता है बुश का बाप और बच्चा
बराक ओबामा गांधी की अंगुली थामे
नोबल के ठीहे से
माथे पर कबूतर का ठप्पा लगवा लाता है
नदी पोखर की ओर निकलना चाहता हूं
कोपनहेगेन-क्योटो बंजर-बीहड़ गंद-फंद कचरा-पचरा
पैरों से लिथड़ा जाता
मुझमें ओसामा गुर्राता है
बिल गेट्स मुस्काता मर्डक कथा सुनाता
अंबानी नोट दिखाता है
अमर सिंह खींस निपोरे नेहरूजी बेहोशी में
मुक्तिबोध हड्डी से गड़ते
मार्क्स दाढ़ी खुजलाते टालस्टाय की भवों के बीच
अरे! अरे!! ये बापू आसाराम कहां घुसे आते
छिन्न-भिन्न उद्विग्न-खिन्न
तुड़ाकर पगहा पदयात्रा जगयात्रा पर जाना चाहूं
रथ लेकर अडवाणी आ डटते
रामलला को गांधी की धोती देनी थी
उमा भारती सोठी (छड़ी) ले भागी
जागूं भागूं जितना चाहे
वक्त के भंजित चेहरे
चिपके-दुबके लपके-लटके अंदर-बाहर
बौड़म मुहरे जैसा कभी इस खाने कभी उस खाने में
भौंचक-औचक घिरा हुआ पाता हूं
अपनी ही जमीन से खुद को हजार बार गिरा हुआ पाता हूं
जेब में तस्वीरें थीं नरेंद्रनाथ भगत सिंह की
पता नहीं कहां से राम लखन सीता माता
हनुमान चालीसा गाने लग जाते हैं
गिरीश कर्नाड कान में फुसफुस करते
मंच पर गुंजाएमान हो उठता है
खंडित प्रतिमा भंजित प्रतिमा
प्रतिमा बेदी लेकिन किन्नर कैलास गई थी
यह ओशो का चोगा पहने
गांधी जी दोपहर में कहां को निकले हैं
झर गए सूखे पत्तों जैसे
किसने कहा मेरे पंख उगे थे
बड़ी तकलीफ में हूं साहब
आंत मुंह को आती है
कबूतर ने अंडे दे दिए हैं
बीठ के बीच बैठा हूं
करो कुछ करो
मुझ नागरिक की प्रेतबाधा हरो!! 
गेहूं
मुझे बोरी में मत भरो लोको (लोगों)
बाजार में लुटेरों सटोरियों के हाथ बिकने से बचा लो
खाए अघाए का कौर बनने को
सरकारी गोदामों में सड़ने को
मजबूर मत करो भाइयो
उससे अच्छा है खेत में ही खाद बन गलूं
ओ लोको बोरियों में मत भरो मुझे
कोई जांबाज बचा नहीं
बेजान की जान बचाए
बच जाए दाना
भूखे के मुंह दाना जाए
रोको लोको रोको
इस धर्मी कर्मी दुनिया में सरेआम
मौत को गले लगाता मारा जाता
मेरा जीवनदाता
रोको लोको कोई रोको लोको
भोली इच्छाएं
1.
धरती पर पैर जमाना दूब की नाईं
टपरी की छत पर चढ़कर  फल देना मोटे ताजे
फिर कुम्हड़े की बेल बन मुरझा जाना
सहना मार रहना मुस्तैद
पर इतने भी बैल मत हो जाना
पुट्ठे पर हाथ फिरे जब बच्चे का
ठिठक सिहर पगुराना
मत बिसराना .
2.
लौकी बन लटकूं
मुदगर सी लंबी हो या हंडिया
फर्क नहीं पड़ता
दिल की बीमारी में बाबा कोई
रस निचोड़ के पिलवा दे या
अंतस को खाली करके
तार पर सुर तान करके
इकतारा बन बाजूं
कड़ियल हाथों में साजूं.
3.
पीतल  के तवे पर टन्न से बजे
या लोहे की कटोरी घनघनाए
ऐसी घंटी बन बाजूं
बेड़ियां गल जाएं
पंख लग जाएं
बेहद्द तक फैले गूंज
बाल गोपाल दुनिया भर के
खिलखिलाएं.
4.
छुरे और छर्रे
बंदूक और भाले
राइफल और रॉकेट
आग लगे और गल जाएं
पटड़ियां बन बिछ जाए सारा लोहा
तोड़ने वालों की छाती पर दौड़ूं
जोड़ने वालों की बन कर रेल.
Charles C. Ebbets


घर- गृहस्थी की नौ कविताएं
ये लोग मिलें तो बतलाना
जैसे घरों को बच्चे आबाद करते हैं
औरतें जीवनदान देती हैं
उसी तरह घर में संजीदगी लाते है बूढ़े
मर्द मैनेजर की तरह अकड़ा हुआ
घूमता और हुकुम चलाता है
घर में कभी करुणा का कोई अंखुआ फूटा होगा
उसे धारा होगा बुजुर्ग ने अपनी कांपती हथेली पर
औरत ने ओट कर रखी होगी अपने आंचल की आंधी तूफान से
बच्चा अगर है तार सप्तक तो बूढ़ा मंद्र
औरत और मर्द इन्हीं की पेंग पर राग छेड़ते हैं
बंदिश मध्यम की
कभी कभी खटराग पर
अहर्निश बजता रहने वाला पक्का राग
बच्चों में भी अगर घर में हो बेटी तो
समझिए घर अमराइयों से घिरा है
गहरा हरा छतनार
झुरमुट
गर्मियों में भी भीतर बसी रहती है
गहरी हरियाली, नमी और ठंडक
बेटी पतझड़ के पत्तों को भी दुलरा के
हवा में छोड़ती है एक एक
जैसे दीप नदी जल में बहाती है
जैसे सूर्य को भिनसारे अर्घ्य देती है
बेटियां बड़ी मोहिली होती हैं
बरसात का मौसम उनका अपना मौसम होता है
एकदम निजी
कहां कहां से सोते फूटते रहते हैं
उमगता है, अगम जल बरसता है धारासार
प्रकृति रूप-सरूपा बेटी में अठखेलियां करती है
बेटियों के लिए घटित अघटित सब कुछ अपना
इतना निजी कि अविभाजित
इतना अविभाजित कि नि:संग
अखिल भुवन इतना अपना कि कुछ भी अपना नहीं
होकर भी न होना बेटी होना है.
बेटे का होना भी कम चमत्कारी नहीं है
फ वैसा ही है जैसे मुरली और तबला
मुरली तन्मय करती है, तबला नाच नचाता
मुरली गहराती भीतर, तबला मुखर मतवाला
बेटा होने का मतलब ही है धमाचौकड़ी
घर को सिर पे उठा रखने वाले शरारती देवदूत
घुटरुन चलत राम रघुराई
मां बाप के घुटने टिकवा दें
बेटे निकल जाते हैं लंबी खोजी यात्राओं पर
माताएं बिसूरती रहतीं जीवन भर
वैसे नहीं कुछ और ही हो के लौटते हैं लला
कृष्ण भी कहां लौटे
प्रत्यंचा की टंकार होते हैं बेटे.
उनकी बहनें न होतीं तो अंतरिक्ष को थरथरा देते
बहन मानो थोड़ी ठंडक थोड़ा छिड़काव
फुहार पड़ते ही ओठों में मुस्काने लग जाते है
यही मुस्कान अंतरिक्ष को बचा लेती है बार बार
देश देशांतर को, राज्य प्रांतर को,  घर द्वार को
बेटा तोड़ के सीखना चाहता है
खिलौना हो, वस्तु हो या हो संबंध
बेटी सहेज के जोड़ना जानती है
गुड़िया हो, गृहस्थी हो या हो धरती माता
ये दोनों मुक्त मगन पाखी
आकाश की गहराइयों में खो जाते
अगर घर में बुजुर्ग न होते
ढली उम्र का पका सधा बुजुर्ग जैसे घर का शिवाला
तुलसी का पौधा, नीम का पेड़
जिसके पास है दुनिया जहान का ज्ञान
हर सवाल का जवाब, समस्या का समाधान
आपने पूछ लिया तो गुण गाए
कुछ बताना जरूरी न समझा तो राम राम
जब तक बच्चे उनकी गोद में खेलते हैं
किस्से कहानियां लहलहाती हैं
बेटों की बहादुरी की, बेटियों की मेहनत की
कथा बांच के ताकत पाते हैं बूढ़े
खाते कम गाते ज्यादा हैं
धीरे धीरे सत्ता त्याग करते जाते हैं
तर्पण
यह जेठे बेटे तेरे नाम
यह धीए तू ले जाना
आंख की जोत मंद होती, देह सिकुड़ती जाती
आत्मा का ताना बाना नाती पोतों के हाथ सौंपते जाते
एक चादर बुनना मेरे बच्चो
उस चादर में महकेगा फूल
खंसोटोगे तो झरेगा
सहेजोगे तो फलेगा
माई होगी जिस घर में
गमकता चलेगा चार पीढ़ी
बाबा के बाद अगर
अकेली रही आई होगी बरसों बरस तो
उसका होना गूंजेगा आठ पीढ़ी
तुलसी के चौरे पर दीवे की लौ सी बलती है माई
धन हो कि न धान हो
माई जैसे पीर की मजार है
सब सुख साधन अंतस में गुंजन करने लगता है.
(2003)
माई
क्या होता है जहां
बाहुबल सिरा जाता है
बुद्धिबल छीज जाता है
कोई ताकत अनबूझी घर को भर देती है
बेटी सिर पर धारे घर की लाज चलती है
निर्भय
बाबा न बोलेंगे
गहन ध्यान में मुनिवर ज्ञानी
निर्गुण
आसीस ले आगे बढ़ेंगे राजकुंवर
माई की मुस्कान कमजोर की ताकत
निर्लिप्त
ऐसी सूरज किरण खिलेगी सलोनी
दुख ताप बिंध के चरणों में लोटेगा
निर्मल
कब आंसू का अंजन आंज के
माई की आंख में हंसी तिर जाएगी
कौन जाने
घर भर के राग द्वेष को मांज के सजा देती है माई
दिवाले में जैसे तांबे की अरघी चमकीली.
(2003)
जूते बेटी के

घर भर में फैले हैं जूते बेटी के
जगह जगह कई जोड़ियां
कई बिछड़े हुए जुड़वां भाई
एक पलंग के नीचे ऊंघता धूल भरा
दूजा कहीं अल्मारी में
फंसा रह गया लक्कड़ पत्थर के नीचे
दिखा ही नहीं सालों साल
कुछ घिसे हुए पहने गए फट फटा कर मुक्त हुए
कुछ मरम्मत कराए जाने तक टिके रहे
स्कूल की वर्दियों के हिस्से
कुछ एक दम नए नकोर पर मुरझाए हुए
पहने ही नहीं गए
बाल हठ ने खरिदवा लिए
लड़की होने की धज ने पहनने नहीं दिए घर आकर
बेचारे स्पोर्ट्स शूज भारी भरकम
विज्ञापनी अदा में अकड़े और ठसक से रहने वाले दिखते हुए
धरे ही रह गए
मां बार बार सहेजने समेटने की कोशिश करती है
सफाई अभियान में कई बार पनिहां भी निकल आती हैं
नन्हीं गुदाज छौनों सी
सूटकेसों में बंद कपड़ों में नर्म नींद लेतीं
निहार कर वापस रख देती है
सफाई के इरादे को स्थगित करते हुए
हर बार पुराने दिनों महीनों और साल दो साल की उम्र के
फ्राकों के साथ सजाते हुए
आषाढ़ का आकाश है गुलमोहर खिले हैं
पीलाई ललाई फैलती जाती है
कमरे की हर शै से होती हुई
रूह के अंतरतम कोनों तक
एक झंकार रौशनी की
हवा खुशबू से सिहराती हुई
रौशन जमाना हो उठे
क्या पता एक और किलकारी गूंजे
किसी भाग भरे दिन गोद में
ये कपड़े ये मौजे ये जूते तर जाएं
एक खिलौना घर में आ जाए
बच्ची बहुत मगन है
मां की चप्पल उसे भी आ गई
जूते न पहन के बेकार करने की डांट अब नहीं पड़ेगी
मिल जुल कर पहन लेंगी मां बेटी
आ गई उम्र अब
सांझे और भी कर लेंगी राज दस हजार दुनिया जहान के
कभी कभी नई उम्र की सैंडल पहन कर
मां भी हो आएगी बाजार
हिम्मत नहीं होती अभी पूरी तरह से सोचने की
छोटी हो गई चीजों को अब विदा कह दो
वक्त बीत गया
उड़ गए आषाढ़ के बादल
गुलमोहर झर-झर झर  गया आंसुओं की तरह
सलेटी रौशनी है अटकी हुई खिड़की पर
धीमी धीमी आवाज आ रही है दूसरे कमरे से
तार पर गज घिसने की
वाइलिन है या सारंगी
कोई चला हो जैसे मीलों पैदल
सूखे के दिनों में
बस्ती नहीं
दिखा भी तो पीपल
अपनी गोद में झरे हुए पत्तों के अंबार समोये हुए
कानों में पड़ रही है दूर कहीं कोई मद्धम कूक
सूखी हुई नदी होगी उसके आगे
उसके पार क्या खबर
कोई रोता होगा दीवार से सिर टिका कर या
बस्ती से दूर जाकर
उठ वे मना
अभी बहुत काम बाकी हैं
तरकाल बेला है
दिया तो बाल.   
(2002)
नहाना (एक)
आज भी रोज की तरह पहले धोए हाथ
फिर डाला जल पैरों पर
छाती पर गिरीं चंद बूंदें चमकती हुईं
सिर के बालों में फंसी दूब पर ओस की चांदी
सावधानी के बावजूद उछल के जा पड़ीं पीठ पर
सुई की तरह चुभती हुईं
मुंबई के बाथरूम में नहाते हुए भी झुरझुरी सी
झर झर झरने लगा जब जल
रोंए जो खड़े हुए थे स्वागत में पल भर को
बहते पानी में बहने लगे लहराते हुए
घास जैसे जमीन की छाती से चिपकी चली जाती है
पहली बारिश से बनते नदी नालों में
लगता है पानी खड़ा है बहे जा रही है घास ही
किसी अनबूझे उछाह में
एक फुनगी ने सिर उठाया बरसती बूंदों के बीच आंखें झपकते हुए
नर्मदा माई की पद यात्रा पे निकलूं अमृतलाल वेगड़ की तरह
पर भोलेपन में महिमा न गा जाऊं सरदार सरोवर की
विस्थापितों और डूब रहे गांवों की तरफ डग बढ़ाऊं
सुंदरलाल बहुगुणा का तप फले
टिहरी गढ़वाल जैसी जगहों की जल समाधि टले
विंध्यवन में भटकूं
पहाड़ों की सैरगाहों में जा पड़ा रहूं निर्मल वर्मा की तरह
पर उनकी राह पकड़ गुजरात न जाऊं
हर्ष मंदार की आवाज गली गली गुंजाऊं
साबुन मला तो झाग बनने लगा
हल्का रुई सा सफेद दूध सा 
बर्फवारी हुई कश्मीर में इस बार बहुत देर बाद
अग्निशेखर भटकते रहते हैं जम्मू और दिल्ली के बीच
कोई ले के चले
सब के सब चल पड़ें
तंबुओं कैंपों से बाहर निकल
पैदल पार कर नेहरू टनल और खूनी नाला
हुजूम उतर आए घाटी में
एक पूरी सर्दियां रहें सब अपनी वादी में
धूप खिले झर झर झरे बरसात
बह गया फेन
रह गया देखे किसी सुंदर सपने का उजाला त्वचा पर
नहलाता हूं देह तिरती जाती है रूह
अब समझ में आया बेटी नहाने से इतना क्यों कतराती है
करने लगो जब स्नान
लग जाता है कैसा ध्यान
शुक्रिया उनको जिन्होंने बाथरूम बनाए और उनमें फुहारे लगाए
उनको और भी ज्यादा शुक्रिया जिन्होंने नलों में पानी छोड़ा भरपूर
खुदा सबके नसीब में लिखे रोज रोज नहाना
देह का खिलना और
रूह का खिलखिलाना.

नहाना (दो)
गुजरात से अपूर्व भारद्वाज का फोन आया
साहित्य के पुराने परिचित पाठक ने
दुआ सलाम के बाद
खोज खबर ली घर की घरवालों की
पढ़ाई लिखाई की
हर बार की तरह
गुजरात पे लिख डाली होगी आपने भी
गुजरात गए बिना ही
कविता कोई
बाहर निकला करिए
तब लिखिए कविता
दोहराया बरसों पुराना जुमला
निकलूंगा जरूर निकलूंगा
संभाली मैंने भी वही बरसों पुरानी ढाल
गुजरात ही नहीं
कश्मीर असम और उड़ीसा भी
हर जगह जहां है दुख तकलीफ
मौजूद रहना चाहता हूं
हां हां आप डाक्टर हैं
रहते रहिए खुशफहमी में
फिर भी हिलिए तो
तप उठे कान
गीला था तौलिया चिपकता हुआ
फैंकना था तौलिया फिंक गया फोन
तौलिया उलझता चला गया पैरों में
पाठक प्रिय से संप गया टूट
झल्लाया मैं सच सुन कर नाहक
क्यों कर किस पर? .
(2003)


टमाटर
सद्गृहस्थ की तरह लौट रहा था काम से
टमाटर खरीद कर
आवाजाही से खदबदाती सड़क में भरे बाजार
बस पकड़ने की हड़बड़ी में
दिखे आने और बगल से निकल जाने के बाद
दो युवक
मिसाइल की तरह
कंधा अचानक हो गया हल्का
जैसे भार बांह का
नहीं रहा साथ
लुढ़कते चले जाते दिखे टमाटर
दिशा बे दिशा
भरमाए हुए कबूतर की तरह
लहराती हुई पॉलिथिन की थैली रह गई पास
कहां चले गए शावक गदराए हुए
मेरे हाथ से फिसल कर
बच्चों को ले गया मानो कोई तेंदुआ झपट कर
कोई सुनामी लील गई गांव घर को
कोई भूकंप आ गया सब कुछ को धरारशाई करता हुआ
आतंकवादियों का हमला था
या अपहरणकर्ता आ गए
जो मेरे टमाटर मुझसे छिन गए इस तरह
सरे बाजार लुट गया
परकटे पंछी की तरह
हाथ में लहराती पॉलिथिन की फटी हुई थैली की तरह
पैरों तेले ज़मीन थिर हो
तो चित भी स्थिर हो जरा
समझने की कोशिश करूं
है यह हो क्या रहा !.
(2005)

फकत एक मीसल पाव का सवाल है
गुर्राते हुए निकला घर से
गुस्से से तमतमाता
रुका रहता ज्यादा देर तो
सर फटता दर्दे सर से
बर्तन होते दो चार शहीद, सो अलग
लाम को जाते सिपाही की मानिंद चलता चला गया
शब्द भेधी बाण की तरह शब्द सुने बिना
दौड़ना पड़ा बस पकड़ने वालों की भीड़ में
किसी तरह डंडा आया हाथ में
फिसलते फिसलते पैर फंसा पायदान में
लहरा के सारी देह झूल गई
पल भर की उड़ान लेकर मुर्गी की तरह फड़फड़ाती
झनझना गई काया अंतर बाहर से
हरेक अंग के स्प्रिंग मानो फटाक से खुल गए
जबड़ा ढीला पड़ चुका था
सर अभी भारी था
इस लपलपाते झटके के बावजूद
जा के सीधे कैंटीन में बैठा धड़ाम से
ले आया तंबी मीसल पाव बिन बोले
नसें ढीली पड़ने लगीं
अंगुलियां खुद-ब-खुद आगे बढ़ने लगीं
एक चम्मच गया फरसाण का रस भीगा हलक के अंदर
नमकीन चटकीला
दमादम मस्त कलंदर
बोझा जैसे उतर गया हो सर पर से
जाला जेसे हट गया आंख पर से
दृष्टि बड़ी हल्की हो के तैर रही है
बारिश के बाद के मनोहारी ठंडे आकाश में
नमक है या लावण्य
दुनिया अचानक भली सी दिखने लगी है भोली भाली
ख्याल तुम्हारा सताने लगा है
चलो एक मीसल पाव हो जाए साथ साथ.
(2005)

जाना और आना
धूल धुएं शोर से घुटे और झुके हुए बेगुनाह पेड़ थे सजा काटते
हर जगह की तरह
लोग थे निशाना बींधने छोड़े गए तीर की तरह
उन्हें और कुछ दिखता नहीं था
सड़क चल रही थी
वहां और मानो कुछ नहीं था
बच रहे किनारे पर
जैसे बच रही पृथ्वी पर
चल रहे थे चींटियों की तरह
हम तुम
जैसे सदियों से चलते चले आते हुए
अगल बगल जाना वह कुछ तो था
खुद के पास खुद के होने का एहसास था
मैं दौड़ा वहां जीवन पाने इच्छा से
तुमने धड़कते दिल को थामा अपनी सांसे रोककर
पता नहीं कब तक
फिर हम तुम
लौटे उसी सड़क पर से झूमते हाथियों की तरह
जैसे किसी दूसरे लोक से किसी दूसरे आलोक में
यह आना तो सचमुच खासमखास था.
(2010)

पेटी में दो छेद ज्यादा
कहते हैं कमाने लग जाए कोई ज्यादा तो
खाने नहीं लग जाता ज्यादा
ऊल जलूल खर्चे जरूर बढ़ा लेता है
ऐशो आराम का उदरस्थ हुआ सामान दिखने लगता है
धारे न धरता भार पतलून का
जो ऊंची चीज होते हैं इस हलके में
गैलेसों के सहारे पतलून को कांधे पर टांगे लेते हैं
साहबों की औलाद
उनकी पैंट कभी नहीं गिरती
भले पूरी पृथ्वी को हड़प कर जाएं
लस्टम पस्टम चलने वाला
पतलून को उचकाता ही रह जाता है
पेट तोंद हुआ जाता
हवा ही हवा का गुब्बारा बेचारा
पचपन की उमर के आते आते
पेटी में पड़ गए दो छेद क्या ज्यादा
दिखते कम हैं भीतर गड़ते ज्यादा 
मुंह चुराता फिरता है खुद से ही
अभी अभी प्रोमोशन पाया बाबू शर्म का मारा.
(2001-2)

कुनबा
बाल कटाकर शीशा देखूं
आंखों में आ पिता झांकते
बाल बढ़ा लेता हूं जब
दाढ़ी में नाना मुस्काते हैं
कमीज हो या कुर्ता पहना
पीठ से भैया जाते लगते हैं
नाक पर गुस्सा आवे
लौंग का चटख लश्कारा अम्मा का
चटनी का चटखारा दादी का
पोपले मुंह का हासा नानी का
घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं
वह रोती मैं हंसता हूं
मैं उसके हिस्से में सोता
वह मेरे हिस्से में जगती है
बेटी तो बरसों से तेरी चप्पल खोंस ले जाती है
बेटे की कमीज में देख मुझे
ऐ जी क्यों आज नैन मटकाती है.
(2009)
____________________

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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