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समालोचन

Home » सहजि सहजि गुन रमै : मोनिका कुमार

सहजि सहजि गुन रमै : मोनिका कुमार

मोनिका कुमार ११ सितम्बर १९७७, नकोदर, जालन्धर  कविताएँ, अनुवाद  प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित सहायक प्रोफेसर (अंग्रेजी विभाग)  राजकीय महाविद्यालय चंडीगढ़ ई पता : turtle.walks@gmail.com मोनिका कुमार की कविताओं में कथन की सादगी है, पर अनेकार्थी हैं. ये कविताएँ बिम्बों की तेज़  रौशनी में चमकती नहीं, न हतप्रभ करती हुई उद्घाटित होती हैं. अनुभव के […]

by arun dev
August 11, 2012
in Uncategorized
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मोनिका कुमार
११ सितम्बर १९७७, नकोदर, जालन्धर 
कविताएँ, अनुवाद  प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
सहायक प्रोफेसर (अंग्रेजी विभाग)  राजकीय महाविद्यालय चंडीगढ़
ई पता : turtle.walks@gmail.com

मोनिका कुमार की कविताओं में कथन की सादगी है, पर अनेकार्थी हैं. ये कविताएँ बिम्बों की तेज़  रौशनी में चमकती नहीं, न हतप्रभ करती हुई उद्घाटित होती हैं. अनुभव के धूसर रंग में टिमटिमाती   गहरे संकेत करती हैं .कभी अस्तित्वगत प्रश्नाकुलता तो कभी इतिहास और वर्तमान के संशय.

मोनिका की पांच कविताएँ यहाँ आप पढेंगे.
रेने माग्रित


 ::            

काला चींटा सफेदपोश प्राणी हैं
आपके कंधे पर किसी सहारे के लिए नहीं चढ़ता
आप तो इसके रास्ते में आ गए
उन्हें लगा यह जिस्म साँस लेता कोई महाद्वीप है
वे उस पर केवल यात्राएं करते हैं अर्नगल
रास्ता भूल जाने पर काट कर देखता हैं
कहाँ है महाद्वीप का अंतिम छोर

महाद्वीप नहीं सहन करेगा कोई गुस्ताखी
हमारे घर में हमीं से बदमाशी
तुरंत रद्द कर दी गयी यात्राएं
और काले चींटे को नीचे झाड दिया गया

चींटा लडखडाती टांगों का संतुलन बिठाता है
और काफिले से जा मिलता है
अभी हम खड़े हैं उस बिंदु पर
जहाँ हम चाहते हैं यह घर
चींटों से मुक्त हो जाए
और चींटे करते हैं कल्पनाएं
दुनिया की हर चीज़ काश बताशा हो जाए




::             

बस इक पल भूल जाओ पश्च दृष्टि
दूर दृष्टि और पुनर्विचार
इतिहास और अनुभव से लद जाओगे 
मुझे भी निशब्द करने वाले तर्क दोगे
पश्च दृष्टि से निकलती हैं छनी- धुली बातें ( हर बार )
पर मुझे तो जानना है तुमसे
इतिहास की विस्मृति में
अनुभवों को चित करता हुआ
आकस्मिक
अपरिपक्व उत्तर
तभी तुम देते हो
हाँ वाचक का हाँ 
और न वाचक का न

सब इतिहास को समझने के लिए
चाहिए मुझे तुम्हारा
आकस्मिक उत्तर
उसकी ताजगी में
मैं देख पाती हूँ बेहतर
लबादे में छिपी मूंगफली
और
पके दानों में भरा इसका ताज़ा तेल




::         

मत कहना किसी को प्यार से
कि तुम हो मेरे नरम खरगोश
आसान नहीं
यूँ नरम थैलेनुमा जिस्म में दिल-ओ-जिगर सम्भालना
कान लंबे रखना
चेहरा जैसा कोई प्रौढ़ स्त्री
आँखों से दुनिया नापती हुई
और चुस्ती रखना चिड़िया सी
घास खाना चोक्न्ने रह कर
बचना बंदूक से, शिकारी की सवारी से
यह नरम नरम जो बचा है खरगोश में
उस मासूमियत का शेष है
जो कछुए की बगल में
छूट गई जल्दबाजी में




::   

चुनता है जीवन स्वत:
किस से होगी आखिरी बात
तुम हो मेरे अंतिम श्रोता
तुमने किया है प्रेम मुझे से

प्रेम गुजरता रहा हमारी देहों पर से
वातावरण बनकर
बारिश जिसका केवल एक क्षण है
धूप अंश मात्र
इन्द्रधनुष संयोग

मैं तुमसे कहना चाहती हूँ
जिन्हें कहने से पूर्व
मुझे निर्भय होना चाहिए
तुम सोच रहे मैं कितना तुम्हारे करीब आई
किसी भी बात से डर जाने पर

टटोल रहीं हूँ कमरे में मृत्यु की सुगंध
इसके आगमन से आश्वस्त होने को
तुम्हे दुःख है कल मेरी उँगलियाँ नहीं होंगी
जिसने किये तुमसे सौ चिठ्ठीयां लिखने के वादे
याद कर रही हूँ वे  गाँव और शहर
जो अटल भाग्य की तरह जीवन में आये
तुम्हे स्मरण है केवल रेल और यात्रायें
जो शहरों की शहरों से सुलह कराती हैं
मेरी आँखों से दिखती  है गुमनाम रेल पटरियां
तुम्हारी ऊँगली की नोक पर जमा है कन्याकुमारी का वादा

मृत्यु से मुझे भय था विशुद्ध
यात्रा आरंभ से ठीक पहले था जैसे छींक का डर
इक दिन छींक न टल सकी
पर पहुंची मैं घर वापिस रोज ही की तरह
उसी दिन लगा
बच सकती है मेरी देह दहन से
मेरी देह को खा रहीं हैं मेरी प्रिय गिलहरियाँ
कलेजे में खून कम की शिकायत करती हुईं
कम खून कलेजे को अनुग्रहीत करती हुई

मनमोहिनी विरक्त गिलहरियों
तुम्हारा शुक्रिया
तुम्हे देख हर बार
तीव्र हुई प्रेम की इच्छा

मैं फिर सोच रही हूँ
कैसा रहा जीना जीमना

जीना रहा अध्यापक जैसा
जो नहीं जानता गुलाब का अर्थ
पढ़े-लिखे के बीच बौराया रहता है
कक्षा में घुसते ही
कई आँखों को एक साथ देख
सम्मोहन तोड़ने के लिए
बरबस बोलने लगता है
अर्थ आने लगते है कमरे में तितलियाँ जैसे
आज का रहा बस उतना पाठ पठन
जितनी तितलियाँ हथेली समा सकी

जीमना रहा सुलभ
स्वाद है अनेक
बेसुआदी को बंदी बनाते हुए.


::  

जीवन को देखने के यूँ तो हैं अनगिनत सलीके
मुझसे सबसे आसान लगता है
इसे दाल चावल की नजर से देखना
बाकी सब भूल जाईये
खिचड़ी में लगे छौंक को भी
इस में डाले घी को भी
कितने खाए होंगे चावल
और कितनी दाल

यह सोच भी विचलित कर सकती है
अपराध बोध दे सकती है
हालाकि कुदरत कृपालु है
खेतों पर आपका नाम नहीं लिखती
किसान, एक जोड़ी बैल और अब ट्रेक्टर के लिए आप अज्ञात हैं
चक्कियां तो गजब की बेपरवाह है
बस पीसे जाती हैं खाने वाला कोई भी हो
फिर भी दाल चावल का आंकड़ा हिला देता है
तारों की गिनती भी वह परेशानी नहीं देती
जितना देती है चावल की गिनती
जीने मरने के बीच की महत्वपूर्ण तिथि है
अन्नप्राशन भातखुलाई
आपका समय शुरू होता है अब
पुलिस पीछा करती है अगर आप किसी का बटुआ चुरा लें
पर दाल चावल भूख से अधिक खा लें
तो केवल अपनी दी मौत मरते हैं
कुछ लोग दाल चावल की गिनती कम करने के लिए
भंडारा लगते हैं
ब्राह्मण भोज कराते हैं
कुछ कवितायेँ भी लिखते हैं
कुछ लोग इसी आत्मग्लानि में
लड्डुओं पर बैठी मक्खियाँ नहीं उड़ाते
सब कहते हैं उन्हें कयामत से डर लगता है
हमसे कोई पूछे
जिन्हें दाल चावल से डर लगता है. 
_____________________

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