मुकेश दर्द के गायक थे. उनकी आवाज में ऐसी विकलता थी, जो अपनी ओर खींचती थी. अगर कहा जाए कि मुकेश की गायकी का सबसे बेहतरीन पक्ष क्या हो सकता है, तो शायद यही कि उन्हें ऐसी आवाज मिली थी, जो अंतर्मन को भिगोती चली जाती है. बचपन की सुखद स्मृतियों में मुकेश के गीत भी थे, जो आगे चल कर साथ बने रहे. उन्हें जब भी सुना, पूरी तन्मयता से सुना. मुकेश को सुनना ऐसे वक्त से गुजरना है, जहां आप अपने साथ होते हैं, और कोई सच्ची और सहज आवाज आपको बहुत करीब लग रही हो. मैंने यही पाया कि बेहद एकांत के क्षणों में किसी साफ सुथरे से रिकार्ड में मुकेश की आवाज सुनी तो उससे अपने को बंधा हुआ पाया. वे दर्द के अफसानों के लिए थे. आप उसे किसी भी स्वरूप में सुन सकते हैं. उनके रोमांस के गीतों में भी दर्द अछूता नहीं रहता. पहली बार मुंबई जाते हुए मेरे मन में जितना कौतूहल, सागर के विस्तार को निहारने के लिए था, उतना ही मन इस बात से तरंगित था कि मैं मुकेशजी का घर देख सकूंगा. तब मुकेश को गुजरे हुए दो दशक से ज्यादा हो चुके थे, लेकिन मैं जानता था कि भले अब उनसे मिलना नहीं होगा, लेकिन उनके घर को भी देख पाऊं तो अच्छा लगेगा.
मां बचपन में कुछ गुनगुनाया करती थीं. इतना जरूर था कि वह लोरियां नहीं होती थी. लेकिन उसे सुनना अच्छा लगता था. तब इतनी सुध बुध नहीं थी कि मां से पूछता कि आप, यह क्या गुनगुनाती हो. इसका अर्थ क्या है. पर गीत संगीत का एक प्रवाह होता है. उसका अपना एक बोध होता है. वे शायद लोकगीत रहे होंगे. मैंने बाद में उस धुन लय को जानने की कोशिश की लेकिन मुझे इसका पता नहीं चला. बस उसका अहसास मन में रहा. वे स्वरलहरियां मन में बस- सी गईं. भले अर्थ समझ में न आ पाया हो, लेकिन उसका कोई अहसास मन में रहा. मां जो गुनगुनाती थी वो भी मन को दिलासा देने के लिए था.
शायद मुकेश एकांत के गायक हैं. आप जब अपने में होते हैं तो यह आवाज आपको अपने बहुत पास लगती है. फिल्मी पर्दे पर राजकपूर ने रोमांस को निजी और आत्मीय बनाया. इसके लिए राजकपूर के पास मुकेश की आवाज थी. बचपन की याद आती है. तब पौड़ी शहर में सांस्कृतिक छटा बिखरी रहती थी. आए दिन कोई न कोई आयोजन. गढ़देवा, बैसाखी और भी बहुत से उत्सव आयोजन समय- समय पर होते रहते थे. उन आयोजनों में पहाड़ों की परंपरा के गीत-संगीत नृत्य तो देखने- सुनने को मिलते ही थे, पर साथ ही नए फिल्म संगीत की भी बहार रहती थी. पर इतना होने पर भी जो चीज सबसे मुग्ध करती थी, वह घरों में रखा बड़ा सा ट्राजिस्टर. किसी घर में बैठक की अहमियत और शोभा ही इस बात से तय होती थी कि मेज -स्टूल में कितना बड़ा ट्रांजिस्टर रखा हुआ है. खासकर ट्रांजिस्टरों से तीन बातें बहुत लुभावनी लगती थी, एक तो सिगनेचर टोन के बाद उससे गूंजते हिंदी, अंग्रेजी के समाचार, हॉकी या क्रिकेट की कमेंट्री और इससे बजते फिल्मी गीत. बाकी इसकी कोई भी उपयोगिता रही हो, लेकिन अपने लिए तो इसका यही महत्व था. इसमें भी समाचार केवल अपने ही रुझान की चीजों को सुनने के लिए था.
ट्रांजिस्टर और रेडियो में गीत बजते. पर न जाने क्यों कुछ गीतों को बार- बार सुनने की इच्छा होती. बहुत से गीत जैसे सावन का महीना, जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा, एक प्यार का नगमा है, कहता है जोकर सारा जमाना, मेरे मन की गंगा, जोत से जोत जगाते चलो. उस समय तो शायद बलमा और नगमा इन शब्दों का अर्थ भी पता नहीं था. पर ये गीत सचमुच अच्छे लगते थे. मुकेश की आवाज से कोई तारतम्य सा ही जुड़ा था कि धीरे धीरे बोल कोई सुनना ले जैसा सामान्य-सा गीत भी होठों पर आ जाता था. इन गीतों में ही इतना खो गए कि धुन बजते ही अहसास होने लगता कि कौन सा गीत सुनने को मिलने वाला है. रेडियो में गीत सदाबहार संगीत की तरह बजते ही रहते थे. इसलिए संगीत और मनोरंजन के सबसे अच्छे विकल्प के नाते जब तब उसके करीब रहकर इन गीतों को सुनना बहुत अच्छा लगता था.
(मुकेश और राजकपूर) |
उस समय सिनेमा हाल में जिस कमरे की विंडों से अलग अलग क्लास के हरे-पीले टिकट बेचे जाते थे. वहां रखा तवे की शक्ल वाला रिकार्ड प्लेयर भी नजर आता था. उसकी प्लेट पर रिकार्ड रखने के बाद जब उसपर सुई टिकती और वह बजना शुरू होता तो उस जमाने के सदाबहार गीत गूंजने लगते. तब भी छोटे शहरो में एक या दो सिनेमाहाल ही होते थे. इसलिए वहां की एक-एक चीज निगाहबान की तरह हमें पता रहती. मसलन आगे आने वाली फिल्म कौन सी होगी, रिकार्ड प्लेयर कहां रखे जाते हैं, सिनेमा के गेट-कीपर कहां पर खड़े रहते हैं, और शायद यह भी कि राजेश खन्ना की फिल्म कब लगने वाली है. उस समय की एक प्रचलित रिवाज था कि दोपहर का शो शुरु होने से ठीक एक घंटा पहले करीब ग्यारह बड़े रिकार्ड प्लेयर पर ओम जय जगदीश की आरती शुरू होती थी, और फिर उस समय या थोड़े पहले की फिल्मों के गीत बजते. इतनी आवाज गूंजती कि उसे आधा शहर तो सुन ही लेता था. उन रिकार्ड में बजने वाले गीतों को बहुत तबियत के साथ गाहे-बगाहे सुना करते थे.
ऐसे ही समय शोर, उपकार, पूरब पश्चिम, सरस्वती चंद्र, मेरा नाम जोकर, रोटी कपड़ा और मकान जैसी कई फिल्मों के तराने गूंजते. इन सबमें मैं मुकेश की आवाज को तलाश लेता था. कभी- कभी एकटक होकर सुनता. कोई मेरी उस तंद्रा को तोड़ता तो मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं पूरा गीत सुनकर ही मानता. मैं चाहता था कि सावन का महीना वाला गीत बार-बार सुनू. तब मन होता कि वायलेन की वो धुन सुनने को मिले जिससे इक प्यार का नगमा है, गीत शुरू होता है. हालांकि मुझे तब जानकारी नहीं थी कि मधुर लगने वाली यह स्वर लहरी वायलेन की है. पर वह सब सुना जाना अच्छा लगता.
पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, दम मारो दम, कांची रे कांची रे जैसे गीतों का अपना समा बंधा था. बाबी के गीत झूठ बोले कव्वा काटे, देता है दिल दे गीत खूब सुनने को मिलते थे. फिजा में रफी साहब का वो ऊंचा अलाप लिया गीत भी गूंजता था, ओ आज मौसम बड़ा. इन गीतों के क्रम और वर्षों में कुछ फर्क लग सकता है. लेकिन तब फिल्म का कोई पापुलर गीत, आज की तरह हफ्ते दो हफ्ते के लिए नहीं होता था. गीत पापुलर होने के बाद लंबे समय तक सुना जाता था. इसलिए आप एक ही समय में रेडियो में पहले गाने की फरमाइश में अगर पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे जाए सुन सकते थे तो करवटें बदलते रहे सारी रात को सुनाने के लिए कोई रेडियो उद्घोषक से कह सकता था. उनमें समय का अंतर महसूस नहीं होता था. यानी गीत में साल दो साल पुराना होने पर भी वही ताजगी बनी रहती थी.
बरसाती मौसम में एक सुबह रेडियो में केवल मुकेश के ही गीत बज रहे थे. यह उनके लिए श्रद्धांजलि थी. ड्रेटाइट में मुकेश का निधन हो गया था. रेडियो के गीतों के कार्यक्रम में उन्हें उनके गीतों से ही श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही थी. उनका शव विमान से मुंबई लाया गया था. बाद में यह भी जाना कि जिस दिन मुंबई मे मुकेश की शवयात्रा निकली थी, उसी दिन टीवी में बंदनी दिखाई जाने वाली थी. बंदिनी में मुकेश की आवाज में एक गीत है ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना. यह संयोग था कि इसी दिन यह फिल्म दिखाई जाने वाली थी. पहाड़ों में तब टीवी देख पाना संभव नहीं था. लेकिन इतना याद है कि रेडियो में बंदिनी का यह गाना बार-बार बज रहा था. इस गीत से मुकेश को बार-बार याद किया जा रहा था.
(मुकेश) |
कह नहीं सकता कि पहले से सोच कर या फिर मुकेश को ही याद कर सिनेमा हाल वालों ने भी एक दो दिन बाद शोर फिल्म लगाई थी. इस फिल्म को फिर जाकर देखा था. याद आता है कि फिल्म के शुरू होने से पहले पर्दे पर मुकेश को गाते हुए दिखाया गया था. यह किसी पुराने कार्यक्रम की झलक थी, जिसमें जिसमें मुकेश गा रहे थे, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं. इसके बाद फिल्म शुरू हुई थी. एक बड़े गायक के लिए यह श्रद्धाजलि अर्पित करने का बेहद गरिमामय तरीका था. न जाने फिल्म के उस पर्दे पर मुकेश के कितने नग्में सुने गए होंगे. मुकेश अब सदा के लिए दूर चले गए थे. अब उनके पुराने तरानों को ही सुना जा सकता था.
मुकेश के तबके कई नए पुराने तरानों को उसमें सुना जा सकता है. जाने ना नजर , बड़े अरमानों से रखा है बलम, सावन का महीना, आजा रे अब मेरा दिल पुकारे जैसे युगल और जाने कहां गए वो दिन, आसूं भरी है ये जीवन की राहें, दिल जलता है तो जलने दे जैसे गीतों को सुनने का अहसास कुछ और था. मुकेश को याद के लिए इसे सुनने से बेहतर और क्या हो सकता था. इसे कितनी ही बार सुना. मुकेश सबकी पसंद नहीं हो सकते. कुछ लोगों को लगता था कि उनका विरही स्वर हर बार अच्छा नहीं लगता. गीत तो किशोर दा के हैं, चुलबुले हंसते हंसाते, कभी कभी दर्द भरे भी. एकदम खुली आवाज. या आकाश तो रफी साहब छूते हैं. कुछ शास्त्रीय लोगों को लगता कि मुकेश कहीं स्वरों को पकड़ने में कमजोर पड़ जाते हैं. एकदम शुद्ध नहीं गा पाते. इस पहेली में खोने से क्या फायदा था. यही लगता था कि अगर उनका गाना मन को अंदर तक छू रहा है, तो फिर उसकी सीमाओं, कमियों में गुणा-भाग क्यों किया जाए. पर बाद में यह भी सोचा कि शास्त्रीयता में पूरी तरह से न घुलने वाले इस गायक से आखिर रवि ने गोदान में जिया रहत और शंकर जयकिशन ने जाने कहां गए वो दिन की कठिन धुनें कैसे गवाई.
(राजकपूर, शैलेन्द्र और मुकेश आदि) |
क्यों एसएन त्रिपाठी ने झूमती चली हवा गाने के लिए मन्ना डे के बजाय उन्हें याद किया. हर बार वही बात थी कि उन्हें इन गीतों के लिए मुकेश की आवाज चाहिए थी. वे दूसरे पक्ष में थोड़ा कमजोर हो सकते थे, लेकिन इन गीतों के लिए मुकेश की आवाज ही चाहिए थी. मुकेश के गीत आखिर मन को इतने क्यों भाए. इसकी वड़ी वजह शायद यही थी कि जिन्दगी का एक बड़ा फलसफा यही है कि हे सबसे मधुर वो गीत जिसे हम दर्द में गाते हैं. हर इंसान के जीवन में कई छुए अनछुए पहलू होते हैं. जीवन में खुशियां भी हैं और दर्द भी. मुकेश की आवाज में छिपा दर्द शायद मन की उस थाह तक पहुंचते हैं. दर्द के अफसाने सबने गुनगुनाए. लेकिन मुकेश तो शायद दर्द के गीतों के लिए ही जन्मे थे. उनके रोमांटिक गीतों में भी उत्साह नहीं, मन की कसक दिखती है. उन्होंने निर्दोष प्रेम करने वाले की तरह ही अपने गीतों को गाया. इसलिए पर्दे पर राजकपूर जिस चरित्र को साकार करते थे, मुकेश की आवाज उसके सबसे करीब थी. बल्कि उसी चरित्र के लिए थी.
मुकेश की आवाज से इसलिए राजकपूर अलग नहीं हो सकते. ज्यादा से ज्यादा मन्ना डे तक कुछ तराने पहुंचे. लेकिन राजकपूर के लिए मुकेश ही थे. बिल्कुल इसी तर्ज पर मनोज कुमार ने भी संगीत को तैयार करने के लिए शंकर जय किशन का साथ लेकर मुकेश को लिया. जाहिर है ये प्यार और दर्द के ही अफसाने थे. मुकेश की गायकी की पहली खूबसूरती यही थी कि वे उस अहसास को पूरी तरह अभिव्यक्त कर पाती थी जिसके लिए वह गीत रचा गया होता था. उनके गीतों में याचना भी थी, सादगी भी और वे गीत प्यार की अभिव्यक्ति में पूरी तरह निर्दोष लगते थे. उनकी सांद्र तान, नेजल टच अपनी अलग पहचान बनी. संगीत की कमियों में शुमार करती कुछ बातें शायद मुकेश जी के लिए नहीं थी. लोग उन्हें किसी भी तरह सुनना चाहते थे. बेशक वे बहुत लंबे अलाप न ले रहे हों, या कहीं- कहीं स्वर को पूरी तरह पकड़ नहीं रहे हों.
मुकेश के गीतों का जिक्र आया तो जानने वालों ने यही कहा कि उन्हें गीत- कविता की बेहतर समझ थी. गीत गाते हुए उनके शब्दों की अभिव्यक्ति बहुत प्रभाव डालती थी. उनका हर गीत अपना पूरा वातावरण तैयार कर लेता था. यही कारण था कि केवल सारंगी और ढोलक पर आंसू भरी है ये जीवन की राहें भी उतना ही अच्छा प्रभाव छोड़ जाता है, जिनका खिले हुए साज साजिंदों के बीच कहता है जोकर सारा जमाना सुनना. उनकी आवाज का माधुर्य था कि कविता में ढले गीत, तारों में सजके ये कौन चित्रकार है, चंदन सा बदन गीतों में माधुर्य दिखा. यही वजह है कि इंदीवर के चंदन सा बदन के सुंदर शब्दों को इतनी सुंदरता से गा सके. कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है में शायरी को शायद इसी आवाज की चाहत थी.
जिन्होंने मुकेश को स्टेज शो करते हुए देखा है, वो बताते हैं कि किस तरह हारमोनियम बजाते हुए केवल ढोलक या तबले के सहारे वो आधी आधी रात तक अपने कार्यक्रम दे देते थे. पुराने एलबमों में मुकेश को गाते हुए देखा है, स्वयं हारमोनियम लेकर गाते हुए. साथ में बस चार -पांच साजिदें या सहगायिका. उस दौर में जब केवल मुकेश या रफी के कार्यक्रम का मतलब यही होता था कि उनके गीतों को ही सुनना है. लोग घंटों बैठकर ऐसे प्रोग्राम को सुना करते थे. मुकेश के ऐसे किसी आयोजन में नहीं देख पाने का अफसोस है. प्रोग्राम क्या उन्हें कभी देखा भी नहीं. बस आवाज ही सुनी है, या फिर चलचित्रों में कहीं नजर आते हैं.
एक बार कल्याणजी ने कहा था कि मुकेश जी से गीत गवाने का मतलब यह निश्चित था कि गीत लोकप्रिय होगा ही, फिल्म चले या ना चले. बात ठीक ही थी. आज दर्पण ना तुम, तेरे प्यार का गम, सारंगा तेरी याद में, जाने कहां गए वो दिन, सजनवा बैरी हो गए हमार ना जाने कितने ऐसे तराने हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि फिल्म भरपूर सफल हुई होगी. शायद इसलिए कि इन फिल्मों के गीत बहुत हिट हुए. फिल्म चाहे जिस करवट बैठी हो, लेकिन मुकेश ने गाया तो गीत हिट ही हुए.
मुकेश के चार पांच गीतों का जिक्र किया जा सकता है. जहां मुकेश अपनी गायकी का बहुत अलग अहसास कराते हैं. जहां लगता है कि सब कुछ भुला कर बस यह गीत मुकेश को ध्यान में रख कर तैयार हुआ है. गीत संगीत में पूरी तरह मुकेश की छवि नजर आती है. पहला गीत मेरा नाम जोकर का जाने कहां गए वो दिन है,. मुकेश को याद करने के लिए यह एक तरह से प्रतीक गीत कहा जा सकता है. जय किशन ने इसके लिए यादगार धुन बनाई और मुकेश ने इतनी खूबसूरती से गाया कि बताते हैं कि गाना खत्म होते ही राजकपूर ने उनको गले लगा लिया. राज ने कहा था यही मुझे चाहिए, ये मेरा गीत है. दूसरा गीत आवारा का आवारा हूं है.
मेरा नाम जोकर से सालों पहले बल्कि राज कपूर की शुरुआती फिल्मों में आवारा का संगीत आया और आवारा हूं गूंजा तो सुदूर मास्को, वियना हर जगह लोग इसे सुनते गए. इस कदर कि अगर आप मास्को में हैं तो वहां लोग आपको इंडियन देखकर, आवारा हूं आवारा हूं गाने लगते. यानी इस गीत की लोकप्रियता का इतना अच्छा अहसास. तीसरी कसम के गीत सजनवा बेरी हो गए हमार के लिए जो सादगी माधुर्य का भाव चाहिए था वो मुकेश में ही मिल सकता था. मुकेश की आवाज में यह गीत पूरी मिठास घोलता है. प्यार का अहसास इसमें बहुत कोमलता के साथ उभरता है. बंदिनी का ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना वेदना और यादों का गीत है. एसडी बर्मन ने इस गीत के लिए जो तर्ज बनाई थी, उसमें मुकेश का गीत विछोह -वियोग उभरता है.
इसी तरह मुकेश की गायकी की चमक चंदन सा बदन जैसे गीतों से हैं. कल्याणजी आनंदजी ने जितनी अच्छी धुन बनाई मुकेश ने उतना ही सुंदर गाया. इस गीत की अलग महक है. मुकेश के स्वर उसमें सौंदर्य भर देते हैं. ओह रे ताल मिले नदी के जल से ऐसा ही सुंदर गीत है. इसे भी इंदीवर ने ही लिखा है. रोशन ने अपने स्कूल के साथी मुकेश के लिए यह तर्ज बनाई थी. इस गीत में जीवन का दर्शन है. मांझी गीतों का दर्शन अनूठा है इसमें जिंदगी का दर्द, अहसास, संघर्ष, सपना और वेदना सबका अहसास होता है. अलाप, बहते पानी के स्वर और इनके बीच मुकेश की आवाज में गीत. सूरज को धरती तरसे, धरती को चंद्रमा, पानी में सीप जैसे प्यासी हर आत्मा. मुकेश ने पूरे मन से इस गीत को गाया.
केवल फिल्मी गीत नहीं उनके गाए, गैर फिल्मी गीत और गजलों को भी मुकेश पूरी तरह सुनने वालों को मंत्रमुग्ध से करते हैं. लगता नहीं दिल मेरा, कोयलिया उड़ जा, तेरे लबों के मुकाबिल, किसी ने जादू किया, मेरे महबूब मेरे दोस्त, इन गजलों को मुकेश के लिए फिल्म संगीत की सीमाएं नहीं थी. इसलिए उन्होंने अपने ही मिजाज में बहुत डूब कर गाया है. कह सकते हैं कि भले ही फिल्म संगीत की तरह इन गजलों की लोकप्रियता न हो, पर इनको गाते हुए मुकेश को अच्छा लगा होगा. इन गजलों की अपनी अलग पहचान है. मुकेश की गायकी को चाहने वाले इन्हें जरूर तलाशते होंगे. मुकेश ने अपनी आवाज में जो दर्द पाया था, जिस तरह उनकी वाणी में समर्पण झलकता था, उसी धारा में वह रामचरित मानस को गा सके थे. खासकर जिस भक्ति भाव में उन्होंने इस कृति का सुंदर कांड गाया है, वह बेजोड़ है.
अमेरिका जाने से पहले वह इसके पूरा गा चुके थे. उनके गाए भजनों में शांति सी उमड़ी है. उनकी आवाज में जब भी जिनके हृदय श्री रामबसें सुना तो यही लगा कि अभी अभी कोई पावन गोता लगा आए हों. तूने रात गंवाईं सोय के, प्रभु मैं आपही आप भुलाया, राम नाम रट रे कुछ इस तरह के भजन आपकी उनकी गायकी की तन्मयता नजर आएगी. संत ज्ञानेश्वर में लक्ष्मी-प्यारे लाल को मुकेश अपने इसी भाव में भा गए. उनका गीत जोत से जोत जगाते चलो, घर-घर गूंजा. मुकेश की गायकी में जो सहजता है वह भजनों के बहुत अनुरूप लगती है. इसलिए जब भी उन्होंने कोई भजन गाया तो लगा कि वह महज भजन नहीं गा रहे बल्कि उस भाव में डूब गए हैं.
(लता के साथ मुकेश) |
अगर मुकेश ने केवल रामचरित मानस ही गाया होता तब भी गायकी में उनकी अपनी एक बड़ी जगह बन गई होती. समय के साथ जीवन और संगीत में बहुत बदलाव आता है. लेकिन कुछ चीजें अपनी पहचान बनाए रखती हैं. शो मैन राजकपूर के निधन पर मुकेश के गीत हर तरफ सुनाई देना स्वाभाविक था. उन्हें मुकेश के गीतों से ही दी जा रही थी. राज कपूर के निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि के रूप में दिल्ली में साकेत के पास एक सिनेमाघर में राजकपूर की कई फिल्मों को सिलसिले से दिखाया गया था. फिर वहां मुकेश के गीत ही थे.
कुंदनलाल सहगल की जन्मशताब्दी में कुंदनलाल सहगल पर जनसत्ता ने एक विशेष अंक निकाला था. तब बहुत गिने चुने लोग थे जो सहगल के साथ किसी न किसी तरह जुड़े थे. इनमें नौशाद से तो मिला ही जा सकता था. शहजहां में सहगल के गाए कुछ दो गीत बहुत मशहूर हैं. इसका संगीत नौशाद ने ही तैयार किया था. नौशाद ने सहगल साहब पर काफी कुछ कहा था. तब उन्होंने भरोसा दिया था कि फिर आओगे तो मुकेशजी पर बहुत चर्चा करूंगा. कुछ समय के बाद फिर नौशाद के घर पर था तो चर्चा मुकेश पर ही थी.
वह कहने लगे, मुकेशजी कहीं प्रोग्राम करते थे तो तू कहे अगर मैं जीवन भर गीत सुनाता जाऊं, जरूर गाते थे. नौशाद ने कहा था, दर्द के अफसाने तो सभी गाते थे, पर मुकेश की आवाज में कुछ अलग बात थी. इसी तरह कल्याणजी से भी बहुत बातें होती थी. वह कहने लगे कि मुकेशजी से तो सबसे ज्यादा गीत हमने ही गवाए हैं. गाते हुए आंखे बंद कर लेते थे. कल्याणजी बहुत दिलचस्पी से बातें बताया करते थे. हर गीत पर उनके पास कोई न कोई एक घटना होती थी. जब इंदीवर धमेंद्र के लिए पहला गीत मुझको इस रात की तन्हाई में, लेकर आए तो उनके गीत थमाते ही अगले पल हमने उन्हें धुन भी सुना ली. और कहा इसे मुकेश जी ही गाएंगे. जब मुकेश जी को इस बारे में बताया गया तो वे यकीन नहीं कर पा रहे थे कि इतनी अच्छी धुन एक पल में बन सकती है. इस घटना का जिक्र तो कल्याणजी कई प्रसंगों में कर चुके हैं कि किस तरह उन्होंने अपने गीत आप से हमको बिछुड़े हुए.. को मनहर और कंचन को गाने दिया था. मुकेश पर आप उनसे बहुत सी बातें कर सकते थे. अफसोस, अब न मुकेश हैं न कल्याणजी.
मुकेश के लिए भले ही दान सिंहऔर और सरदार मलिक कुछ ही धुनें दे पाए हों, लेकिन यह भी है कि मुकेश के सबसे अच्छे गीतों का जिक्र होने पर आप जिक्र होता है जब कयामत का वो तेरे प्यार का गम और सारंगा तेरी याद में जैसे गीतों को शामिल किए बिना नहीं रहेंगे. गीतों की संख्या भले कम हो लेकिन भूले बिसरे प्रसंग एकाएक फिर सामने आ गए थे. सरदार मलिक ने तो कहा भी था, कि इस घर में तो सब डब्बू अन्नु मलिक से मिलने आते हैं, तू मुझे कैसे मिलने आ गया. मैंने कहा था, मुकेशजी के बहाने आपसे मिलना हुआ. आपसे मिलकर भी अच्छा लगा. दानसिंग से भी एक छोटी मुलाकात थी लेकिन बहुत आदर था उनके मन में अपने गायक के लिए.
हसरत जयपुरी, रवि और खैय्याम से मिलना खासा दिलचस्प था. कुछ साजिंदे भी मिले जो मुकेश के स्टेज प्रोग्राम में साज बजाया करते थे. बहुत ललक कर बताते थे फलां गीत में उस साज को बजाया है. फिल्म संगीत से जुड़े तमाम लोगों से मिलना तो अच्छा ही लगा, लेकिन नितिन मुकेश से मिलना मेरे लिए अहमियत रखता था. इस घर में आप तहजीब, कला के लिए असीम इज्जत और सादगी को महसूस कर सकते थे. वर्षों तक मुकेश के गीत सुने, उस समय में उनके बेटे से मिल रहा था. घर पर उन्होंने बुलाया था. मुझसे बहुत सी बातें की थी. यह घर मुकेश को जीता है , उन संस्कारों को आत्मसात किया है. गीत-संगीत के अलावा मुकेश के दूसरे पहलुओं पर भी नितिन ने बहुत खुल कर बताया था. कहा था, वो सुबह सुबह उठ कर रामचरित मानस जरूर पढ़ा करते थे. उस दिन की याद भी की थी जब चंद्रशेखर की शानदार गेंदबाजी से भारत ने इंग्लैंड को हराया था. लेकिन मैच खत्म होने के बाद उन्होंने मुकेशजी के घर फोन करके कहा था कि वो मिलने आ रहे हैं. जल्दी ही चंद्रशेखर घर पर मिलने आए थे.
मुकेश ने चंद्रा से कहा कि सारी दुनिया तो आपके पीछे है, आप यहां कैसे आ गए, चंद्रा का जवाब था, मुकेशजी सारी दुनिया मेरे पीछे और मैं आपके पीछे. प्रसंगवश नितिन कई घटनाएं ऐसी बताते चले गए थे. तब यही महसूस हुआ कि जिस तरह मुकेश गाते थे, उसमें लिए जिंदगी भी उतनी ही साफ-सुथरी होनी चाहिए. जब मन में अति भावकुता हो तभी कोई मोहम्मद रफी वो दुनिया के रखवाले या फिर मुकेश जोत से जोत जगाते चलो गा सकते हैं.
मैं वहां हर चीज को तल्लीनता से देख रहा था. अंदर के बैठक में सलीके से रखी चीजें, रिकार्ड, ट्राफियां रखी थीं. और याद दिला रही थीं पुरानी फिल्में और लोगों के मन में रचे बसे गीत.एक तरफ वह ट्राफी भी जो मुकेशजी को रजनीगंधा के गीत कई बार यूं भी देखा है के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक के लिए मिली थी. हर तरफ भूली बिसरी संजोई यादों की तस्वीरें थी. एक तस्वीर हाथों में तानपुरा लिए हुए कुंदन लाल सहगल की भी. अच्छा लग रहा था कि मैं नितिन मुकेश से रूबरू हूं. वही आवाज, तहजीब और संस्कारों के साथ अपनी सुनहरी यादों को संजोए एक घर.