राष्ट्र निर्माण में आदिवासी |
भारतीय इतिहास-लेखन में आदिवासी समुदायों को लंबे समय तक या तो नज़रअंदाज़ किया गया या हाशिए पर रखा गया, जबकि राष्ट्र-निर्माण और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अहम भूमिका रही है. समीक्षाधीन पुस्तक के लेखक कहते हैं कि “इतिहास-लेखन किसी भी राष्ट्र की बुनियाद को मज़बूत करने का सबसे बड़ा साधन है,” लेकिन जब इस बुनियाद में बेईमानी हो, तो पूरा ढाँचा कमज़ोर हो जाता है. भारतीय मुख्यधारा का इतिहास-लेखन अक्सर शहर-केन्द्रित और सवर्ण दृष्टिकोण पर आधारित रहा है, जिसमें किसान और आदिवासी प्रतिरोध को केवल उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के रूप में देखा गया और अंग्रेज़ों के स्थानीय सहयोगियों या एजेंटों को निर्दोष दिखाया गया. यहाँ तक कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी आदिवासी विद्रोहों को केवल वर्ग-संघर्ष के दायरे में रखकर उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता को नज़रअंदाज़ किया.
इसके विपरीत, उभरते हुए आदिवासी इतिहासकार इन संघर्षों को न केवल सामंती और औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध, बल्कि आदिवासी अस्मिता, सामूहिक संसाधन-अधिकारों और आदिवासी मूल्यों की रक्षा की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं. ये इतिहासकार मौखिक परंपराओं, लोकगाथाओं, गीतों, प्रतीकों और आत्मकथाओं को भी उतना ही ऐतिहासिक महत्व दे रहे हैं, जितना पारंपरिक इतिहासकार अभिलेखीय स्रोतों को देते रहे हैं. अभिलेखीय स्रोतों की अपनी एक राजनीति होती है (सत्ता और राज्य का दृष्टिकोण), जो एक तरह की छलनी की तरह है, जिससे छनकर ही कोई भी अभिलेख इतिहासकार तक पहुँचता है.
भारतीय इतिहास-लेखन के संदर्भ में लंबे समय तक अभिलेखीय तथ्यों को “पवित्र” माना जाता रहा है, जिससे अभिलेखागार इतिहासकारों के लिए प्राथमिक स्थल बन गए और केवल अभिलेखीय तथ्यों पर आधारित इतिहास को ही एकमात्र प्रामाणिक इतिहास माना जाता रहा. इस मान्यता को भारतीय परिप्रेक्ष्य में गंभीर चुनौती दी सबाल्टर्न स्कूल से जुड़े विद्वानों ने, जिन्होंने अभिलेखों को “ग्रेन के विरुद्ध” पढ़ने का आग्रह किया. हाल के वर्षों में उभरे हुए इतिहास-लेखन, विशेषकर हाशिए के तबकों से आए इतिहासकारों—जिनमें आदिवासी इतिहासकार प्रमुख हैं—की विशेषता यह है कि वे अपने समाज को इतिहास की “वस्तु” नहीं, बल्कि “विषय” के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और अपनी सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं, देवी-देवताओं, सामाजिक संरचनाओं और जीवन-दृष्टि को समेटते हुए इतिहास-लेखन कर रहे हैं. इससे इतिहास अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और बहु-दृष्टिकोण वाला बन रहा है.
“राष्ट्र निर्माण में आदिवासी” इसी परिवर्तनकारी दृष्टिकोण के तहत लिखी गई आदिवासी पुरखों के बलिदानों का दस्तावेज़ीकरण करने वाली पुस्तक है. लेखक के ही शब्दों में, यह उस महत्वपूर्ण सवाल का भी उत्तर देने का प्रयास है कि “आदिवासियों ने इस देश के लिए क्या किया है?”
पुस्तक की सुव्यवस्थित संरचना दो स्तरों पर काम करती है. पहले भाग में लगभग चालीस पृष्ठों की व्यापक भूमिका है, जो भारत के एक राष्ट्र के रूप में आदिवासियों के योगदान के महत्व को रेखांकित करती है. इसमें औपनिवेशिक काल में आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश उपनिवेश और उनके साथ सत्ता में साझेदार रहे देशी सामंतों, दोनों के विरुद्ध— किए गए सशस्त्र विद्रोहों की पड़ताल है. आदिवासी भारत की आज़ादी के आंदोलन में विदेशी साम्राज्यवाद और देसी सामंतवाद—दोनों के ख़िलाफ़ अग्रणी भूमिका में रहे. किताब की भूमिका यह भी उजागर करती है कि औपनिवेशिक दौर में जहाँ भारतीय कुलीन वर्ग, राजा, नवाब और सवर्ण तबके अंग्रेज़ों के साथ समझौते कर उनके “सहयोगी” बन गए, वहीं आदिवासी और किसान वर्ग ने इसका बिल्कुल उलटा रास्ता अपनाया— सशस्त्र प्रतिरोध. अंग्रेज़ी भू-राजस्व और कानूनी व्यवस्थाओं ने आदिवासियों के पारंपरिक सामुदायिक भूमि-अधिकार छीन लिए, और गैर-आदिवासी जमींदार, सूदखोर तथा व्यापारी उनके क्षेत्रों में बसकर शोषण करने लगे. इस अन्याय के जवाब में आदिवासियों ने पूरे भारत में 150 से अधिक बार हथियारबंद विद्रोह किए, जो औपनिवेशिक भारत के सबसे लंबे और व्यापक संघर्षों में थे. अंग्रेज़ी सत्ता और उनके स्थानीय एजेंटों ने इन आंदोलनों को सैन्य बल, हत्याओं, गाँव जलाने और सामूहिक दंड से दबाने की कोशिश की, लेकिन आदिवासियों ने न गुलामी स्वीकार की और न ही औपनिवेशिक सत्ता के एजेंट बने.
आज़ादी के बाद संविधान सभा में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बेहद सीमित रहा. उनके पारंपरिक अधिकारों की बहाली की जगह उन्हें केवल आरक्षण और कुछ प्रशासनिक “छूट” दी गई. औपनिवेशिक कानून, विशेषकर भूमि और वन संबंधी, लगभग जस के तस जारी रहे, जिससे आदिवासी अपनी ही पुरखाई ज़मीन पर “अतिक्रमणकारी” घोषित होते रहे.
विकास परियोजनाओं, खनन, बाँध और उद्योग के नाम पर बड़े पैमाने पर उनका विस्थापन हुआ. 1947 से 1990 के बीच विस्थापितों में आधे से अधिक आदिवासी थे. वनाधिकार कानून 2006 के बावजूद आधे से अधिक दावे खारिज कर दिए गए और कई जगह बेदखली के आदेश भी आए.
आज आदिवासी समुदाय अपनी पहचान, संस्कृति और अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है—भाषाओं और बोलियों का लोप, आजीविका के साधनों का खत्म होना, शहरी पलायन, और “मुख्यधारा” में ज़बरन समावेश के दबाव से उनकी स्वायत्त जीवनशैली कमजोर हो रही है. विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और पर्यावरणीय विनाश उनके पारिस्थितिकी-आधारित जीवन को लगातार ख़तरे में डाल रहे हैं.
इसी भूमिका के दूसरे हिस्से में एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा है—वह है आदिवासियों के ऐतिहासिक प्रतिरोध का विस्तृत प्रस्तुतीकरण, जिसमें जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा, औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध विद्रोह, और सांस्कृतिक-सामाजिक स्वायत्तता की लड़ाई शामिल है. इसमें भू-राजस्व नीति, वन कानून और “क्रिमिनल ट्राइब एक्ट 1871” जैसे दमनकारी औज़ारों के प्रभाव का विश्लेषण है, जिन्होंने आदिवासी जीवन को गहराई से प्रभावित किया. इसके अलावा गैर-आदिवासियों के आदिवासियों के प्रति नज़रिए और आज़ादी के बाद आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर आए संकटों की चर्चा है.
भूमिका के बाद के 12 अध्यायों में आदिवासी नायकों की क्रमवार कहानियाँ हैं, जिन्होंने राष्ट्र के बनने में ब्रिटिश उपनिवेश से आज़ाद भारत तक योगदान दिया.

1. तिलका मांझी: 18वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ पहला सशस्त्र विद्रोह करने वाले पहाड़िया नेता, जिन्हें भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी एवं आदि विद्रोही होने का श्रेय मिलता है.
2. यू तिरोत सिंह: उत्तर-पूर्वी भारत (ख़ासी पर्वत क्षेत्र) के मुखिया, जिन्होंने अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति का विरोध किया.
3. गोकुल एवं भुवना मीणा: राजस्थानी मीणा आदिवासी नेता, जिन्होंने 19वीं सदी में ख़ैराड़, अजमेर-मेवाड़ क्षेत्र में ज़मींदारों-महाजनों के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया.
4. शंकर शाह एवं रघुनाथ शाह: मध्य भारत के गोंड राजकुमार, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की और इसी के चलते ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें इसी राष्ट्रवादी सक्रियता के कारण तोप से उड़ाया था.
5. बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके: महाराष्ट्र के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आदिवासी एकजुटता बनाई.
6. टंट्या भील: मध्य भारत के भील समाज के वीर, जिन्हें लोकगाथाओं में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले ‘भारतीय रॉबिनहुड’ की तरह सम्मान मिला.
7. रानी रोपुईलियानी: पूर्वोत्तर (मिज़ोरम) की आदिवासी रानी, जिन्होंने अपने राज्य की स्वायत्तता की रक्षा के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवाद से संघर्ष किया.
8. बिरसा मुंडा: 19वीं शताब्दी के अंतिम दौर के महान मुंडा नेता, जिनका उलगुलान (विद्रोह) ब्रिटिश सत्ता और मिशनरियों के विरुद्ध आदिवासी अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक बना.
9. गुंडाधुर: बस्तर (छत्तीसगढ़) के धुरवा जनजाति के नेता, जिन्होंने 1910 में लोगों को संगठित करके ब्रिटिश एवं राजकीय अत्याचार के विरुद्ध भूमकाल विद्रोह छेड़ा.
10. कोमरम भीम: हैदराबाद रियासत के गोंड योद्धा, जिनका नारा “जल, जंगल, ज़मीन” की रक्षा आज भी आदिवासी अधिकारों का आह्वान माना जाता है; उन्होंने आसफ़ जाही हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध किया.
11. जयपाल सिंह मुंडा: झारखंड के आदिवासी नेता, प्रसिद्ध हॉकी कप्तान (1928 ओलंपिक स्वर्ण विजेता टीम) और संविधान सभा के प्रभावशाली सदस्य, जिन्होंने आज़ाद भारत के संविधान में आदिवासी अधिकारों की आवाज़ बुलंद की. और
12. काली बाई भील: राजस्थान की युवा आदिवासी नायिका, जिन्होंने 1947 में डूंगरपुर राज्य में प्रजामंडल आंदोलन के दौरान अपने शिक्षक की रक्षा में जान दे दी. उनकी शहादत आज़ादी के अंतिम संघर्षों में आदिवासी महिलाओं की भूमिका को रेखांकित करती है.
प्रत्येक अध्याय संबंधित नायक के ऐतिहासिक प्रसंग, विद्रोह की पृष्ठभूमि, संघर्ष के वर्णन और उसके प्रभाव को प्रस्तुत करता है. अध्यायों का क्रम लगभग कालानुक्रमिक है. तिलका मांझी से प्रारंभ होकर काली बाई भील तक, जिससे पाठक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में आदिवासियों की निरंतर सहभागिता का क्रमबद्ध अनुभव करते हैं.
पुस्तक का अंतिम अध्याय “भारत के आदिवासी विद्रोह” पूरे देश में हुए 150 से अधिक सशस्त्र विद्रोहों की सूची प्रस्तुत करता है. यह किसी भी अन्य समुदाय द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ी गई सबसे लंबी और सतत संघर्षगाथा है. इस प्रकार पुस्तक की संरचना पाठकों को विभिन्न क्षेत्रों और कालखंडों में फैले आदिवासी संघर्षों का विहंगम दृश्य प्रदान करती है, साथ ही प्रत्येक अध्याय अपने-आप में एक रोचक ऐतिहासिक कथानक की तरह पाठक को बाँधे रखता है.
पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल होते हुए भी कुछ ऐसे बिंदु छोड़ जाती है, जहाँ अधिक विस्तार की संभावना थी. पहला, इसमें चयनित कहानियों पर फोकस करने के कारण सभी प्रमुख आदिवासी आंदोलनों का समावेश नहीं हो पाया है. उदाहरण के लिए, सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में 1855 का संथाल हूल या नगालैंड की रानी गाइदिन्ल्यू का आंदोलन जैसे कुछ प्रसंग पुस्तक में वर्णित नहीं हैं. यद्यपि लेखक ने भूमिका के अंत में वादा किया है कि जिन नायकों की कहानी यहाँ नहीं आ पाई, उनके लिए अगली किताब लिखेंगे, फिर भी एक संश्लेषित अध्याय में संक्षेप में इन छूटे हुए आंदोलनों का ज़िक्र किया जाता तो तस्वीर और पूर्ण हो सकती थी.
दूसरा, कुछ अध्यायों में घटनाओं का वर्णन अत्यंत संक्षिप्त है. प्रत्येक नायक की जीवनी एक अध्याय तक सीमित होने से कई बार पाठक अधिक विवरण जानने की इच्छा रखता है, जैसे बिरसा मुंडा या जयपाल सिंह जैसे मशहूर व्यक्तित्वों पर अपेक्षाकृत कम पृष्ठ उपलब्ध हैं. हालाँकि लेखक ने संतुलन बनाते हुए कम ज्ञात नायकों को ज्यादा जगह दी है, परंतु प्रसिद्ध आंदोलनों पर विशद विश्लेषण की गुंजाइश थी. तीसरा, पुस्तक का फलक 18वीं सदी से 20वीं सदी के मध्य (स्वतंत्रता प्राप्ति) तक सीमित है. आज़ादी के बाद राष्ट्र-निर्माण में आदिवासियों का क्या योगदान रहा या उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, इस पर किताब में सीधे तौर पर चर्चा नहीं हो सकी है. अगर उत्तर-औपनिवेशिक दौर के किसी पहलू (जैसे आदिवासी आंदोलन या नीतिगत परिवर्तन) को समाहित किया जाता तो विषयवस्तु और समृद्ध हो सकती थी. बहरहाल, ये कमियाँ अपेक्षाकृत छोटी हैं और पुस्तक के समग्र संदेश को बाधित नहीं करतीं.
इसके बावजूद, “राष्ट्र निर्माण में आदिवासी” भारतीय इतिहास के एक उपेक्षित अध्याय को उजागर करने वाली महत्त्वपूर्ण कृति है, जो शोध की गहराई और रोचक प्रस्तुति के संतुलन के कारण छात्रों से लेकर आम पाठकों तक सभी के लिए पठनीय है. डॉ. जितेंद्र मीणा ने यह साबित किया है कि राष्ट्र-निर्माण में केवल मुख्यधारा के नायक ही नहीं, बल्कि हाशिए के समुदायों के नायक भी उतने ही हिस्सेदार हैं. यह पुस्तक ऐतिहासिक चेतना का विस्तार करती है और यह एहसास कराती है कि स्वतंत्रता और राष्ट्र-निर्माण की कहानी आदिवासियों के बिना अधूरी है.
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रविन्द्र कुमार ओरेगन विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के आधुनिक दक्षिण एशियाई इतिहास पर शोध कार्य कर रहे हैं. ravinderkumar955@gmail.com |
ऐसी किताबें अक्सर अलक्षित रह जाती हैं, इसलिए मुख्यधारा के प्रचलित इतिहास के बरक्स आदिवासी समुदाय के इतिहास की यह समीक्षा एक प्रशंसनीय काम है।
रविन्द्र कुमार ने इस छोटी समीक्षा में भी वर्चस्वी इतिहास के एक उपादान— विशेषकर राजकीय अभिलेखों/दस्तावेजों पर उसकी अतिशय निर्भरता या उसे अत्यधिक महत्त्व देने की प्रवृत्ति का ज़िक्र करने के साथ प्रस्तुत किताब की सीमाओं पर भी नज़र डाली है।
जहां तक लेखक द्वारा बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा जैसे आदिवासी नायकों को कम जगह दिए जाने की बात है तो यह शायद समकालीन स्रोतों पर पर्याप्त ध्यान न देने का भी परिणाम हो सकता है। मसलन, जयपाल सिंह मुंडा पर तो अभी हाल में ‘प्रतिमान’ (जनवरी-दिसंबर, 2021) में कमल नयन चौबे का एक विस्तृत लेख आया था।
ख़ैर, प्रस्तुत समीक्षा में मुझे “ग्रेन के विरुद्ध पढ़ने” जैसा प्रयोग ख़ासा अटपटा लगा। यह ‘रीडिंग अगेंस्ट द ग्रेन’ का शाब्दिक अनुवाद हो गया है। ज़ाहिर है कि इसके अर्थ की व्याख्या करते हुए एक-दो वाक्य अलग से लिखे जा सकते थे।