अमर देसवाप्रवीण कुमार |
हर पेशे का एक धर्म होता है. धर्म मजबूरी है या मजबूती, यह चुनाव करने वाले की प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है. ज़ाहिर है डॉक्टर मंडल को अपने पेशे का चरमपन्थी घोषित होना था. वे किसी की नहीं सुन रहे थे. किसी की भी नहीं. युद्ध की दुन्दुभि बज चुकी थी. आराम करने के मानकों का उल्लंघन करते हुए वे बारह-बारह घंटे क्लीनिक में बैठ रहे थे और इधर भीड़ से घबराकर राजू डॉक्टर मंडल का साथ छोड़ चुका था. क्लीनिक में दवाइयों का स्टॉक तेजी से घट रहा था और बेहद ज़रूरी दवाइयों की उपलब्धता पर बाज़ार के अखाड़ेबाज धीरे-धीरे अपने हाथ खड़े कर रहे थे. बस यही राहत थी कि इस अखाड़े में डॉक्टर मंडल के लिए एक नया पहलवान उतर चुका था-रजत किशोर. अमृत ने ही डाकसाहब से उसकी मुलाक़ात कारवाई थी. उसके बाद उसे कुछ नहीं करना पड़ा.
युद्ध में कुछ हद तक संजय बना अमृत चारों ओर की सेनाओं पर नज़र टिकाए हुए था. पक्षधरता के साथ. उसकी विशेष नज़र डाकसाहब और रजत पर टिकी थी. युद्ध लगातार तेज़ होता जा रहा था. उसने देखा कि डाकसाहब ने दवाइयों पर अब राशनिंग शुरू कर दी है. जो बहुत ग़रीब थे उनको पाँच दिन की दवाइयाँ मिलतीं बाक़ियों को केवल पर्ची. इस आग्रह के साथ कि बाज़ार से ख़रीदकर जल्दी कोर्स शुरू करो नहीं तो दिक़्क़त हो जाएगी. दवाइयों के बाबत बीच-बीच में वे रजत को फ़ोन मिलाते. रजत उन्हें बाज़ार की डिमांड और सप्लाई का फंडा बताता. वे आपा खोकर कभी रजत पर चीख़ते तो कभी उससे फ़रियाद करते. पर रजत ख़ुद बाज़ार नहीं था. गुमनाम शक्तियों ने बाज़ार की डोर को अपने हाथों में ले लिया था. फिर भी रजत शहर के कोने-अँतरों से वाजिब दाम पर डाकसाहब के लिए दवाइयाँ लाता और हल्के मुनाफे के साथ सप्लाई कर देता. पर यह उसका एक पक्ष था. अधिकांश दवाइयाँ रह-रहकर कालाबाज़ारी के चपेट में आ जातीं और ठीक उसी समय रजत किशोर अपना प्रॉफ़िट बढ़ा लेता. ख़ासकर मठ और हॉस्पिटल की सप्लाई में तो वह अपने सेल्स की कारीगरी दिखा ही रहा था. साथ-के-साथ अपनी इस हरकत पर वह कुछ डरा भी रहता. वैसे उसे मालूम था कि इस महासागर में उसकी औक़ात झींगा मछली जैसी भी नहीं थी. जबकि व्हेलें और शार्कें चारों तरफ तैर रही थीं.
युद्ध के ठीक बीच में अमृत के मोबाइल पर एक सन्देश आया. सन्देश रोमन में था जिससे हिन्दी की ध्वनियाँ निकल रही थीं,
“क्या एक ऑक्सीजन सिलिंडर मिल सकता है?”
सन्देश प्रेषित करने वाले ने सन्देश के नीचे अपना नाम लिखा था—एक जासूस. अमृत ने सोचा, कौन है भई यह?
फिर जैसे बिजली कौंधी, “अरे, ताकिओ हाशिगावा साहब?”
“हाँ.”
“कमाल है! अब तक यहाँ क्या कर रहे हैं महाराज आप?”
उधर से बस दो शब्दों का उत्तर आया, “सिलिंडर, अर्जेंटली.”
अमृत ने गम्भीरता समझी, फिर एक शब्द का सवाल पूछा, “एड्रेस?”
टीम साँस का तत्काल आवाहन किया गया. पर आठ घंटे तक सिलिंडर का प्रबन्ध नहीं हो पाया. डॉक्टर राही लगा रहा पर जूनियर डॉक्टर के हाथ में था ही क्या? उसका सदर अस्पताल ख़ुद डाँवाडोल था, ऊपर से वीआईपी मरीज़ों के नख़रे.
नौवे घंटे में ज़िलाधिकारी ने हिरेन का फ़ोन उठाया तो हिरेन ने समझाया,
“दो जापानी नागरिक हैं. मर गए तो आप समझिएगा! मेरा क्या है?”
ज़िलाधिकारी को अफ़सोस होने लगा. उसने अपनी मजबूरी बताई,
“चौदह-चौदह घंटे फ़ोन पर रहता हूँ. लग रहा है कि ब्रेन हैमरेज कर जाएगा. कितनों का फ़ोन उठाऊँ?”
हिरेन ने साफ़ कहा,
“आपके ऑफ़िस का स्टाफ़ मुस्तैद नहीं है. सूचनाएँ आप तक समय रहते नहीं पहुँचती रहीं तो पूरा ज़िला ‘कोलैप्स’ कर जाएगा.”
ज़िलाधिकारी ने अपने ऑफ़िस स्टाफ़ का क्या किया यह सूचना किसी को नहीं पर ताकिओ हाशिगावा और उनके जापानी विद्यार्थी को तत्काल भर्ती किया गया. टीम साँस ने इसे अपनी एक और जीत माना.
यदि उस दिन अमृत ने हाशिगावा को लम्बी कहानी न सुनाई होती तो उनके बीच फ़ोन नम्बरों का आदान-प्रदान शायद ही हुआ होता! कहानी बड़ी ताकतवर चीज़ होती है. वह सुननेवाले पर जितना असर करती है, उतना ही कहानी कहनेवाले पर भी. उस कहानी को सुनाने के बाद अमृत के सपनों में बाघ और काले तेंदुए की लड़ाई अक्सर होने लगी थी.
तीन दिन बाद डॉक्टर राही ने अमृत को बताया कि दोनों जापानी अब ठीक हैं और उनका ऑक्सीजन मास्क भी हट चुका है. राही ने यह भी बताया कि हाशिगावा के चेस्ट में अभी भी इन्फेक्शन है जो धीरे-धीरे ठीक होगा. सूचना पाते ही अमृत के भीतर का देश-प्रेम उसे परेशान करने लगा. अमृत ने एक नागरिक होने के नाते, तत्काल हाशिगावा से औपचारिक माफ़ी माँगी,
“मेडिकल सुविधाएँ आप तक देर से पहुँचीं इसके लिए मैं अपने देश की ओर से माफ़ी माँगता हूँ हाशिगावा साहब.”
इस तात्कालिक कार्रवाई पर उधर से उस वक़्त कोई जवाब नहीं आया. पर अमृत ने फिर ग़लत शख़्स को छेड़ा था. शाम को उधर से अंग्रेजी में जवाब आया,
“मदद के लिए शुक्रिया पर माफ़ी वाली कोई बात नहीं. बहुजन हिताय का कोई राष्ट्र भी होता है?”
बहुजन हिताय शब्द को हाशिगावा ने अंग्रेजी में भी बहुजन हिताय ही लिखा था. साथ में प्रश्नवाचक चिह्न. अमृत के माथे पर बल पड़ गया. पर यह कोई नई बात नहीं थी. ताकिओ ऐसे झटके अमृत को पहले भी दो बार दे चुके थे पर जैसे किसी राहगीर का बटुआ गिर गया हो और वह बारम्बार उसी रास्ते पर आ-आकर अपना गुम हुआ बटुआ तलाश रहा हो, ठीक वैसे ही अमृत बार-बार मोबाइल में हाशिगावा का वह सन्देश पढ़ रहा था. कुछ तो था उस सन्देश में जिसे वह बार-बार पढ़ता, सोचता और फ़ोन रख देता. देर रात उसने यह किस्सा थके-हारे डाकसाहब को बताया. मौक़ा निकाल कर दोनों रोज़ एक बार बात कर ही लेते थे. आज वह बारी रात को आई थी.
डाकसाहब ने भरसक ‘बहुजन हिताय’ को डिकोड करने की कोशिश की,
“जापानी प्रोफ़ेसर का कहना है कि मदद कोई सरकारी नहीं बल्कि मानवीय गुण है.” पर अमृत का अपना ऐंगल था,
“ठीक है डाकसाहब पर राष्ट्र की एक भूमिका तो होती ही है न?”
“राष्ट्र जब आता है न अमृत तो नागरिकता की वरीयताएँ तय होने लगती हैं, इस बात को समझो!”
“डाकसाहब! नागरिकता शब्द से आप इतना चिढ़ते क्यों हैं, यह मैं आज तक समझ नहीं पाया?”
अमृत के मन में यह विचार कई दिनों से खदबदा रहा था. उसने कई बहसों में यह महसूस किया था कि ‘नागरिक’ शब्द बोलते ही डॉक्टर मंडल के मुँह का स्वाद जैसे कसैला हो जाता है. आज उसने यह गुत्थी डाकसाहब के सामने रख ही दी.
आजकल डाकसाहब भी फॉर्म में चल रहे थे, बोले, “नागरिकताएँ सभ्यताओं का जाली चेहरा होती हैं.”
यह बात उन्होंने बेहिचक बोली थी और एकदम साध कर बोली थी.
जैसे कि विस्फोट कर दिया डॉक्टर मंडल ने. हैरत से अमृत की आँखें फटी की फटी रह गईं. उसकी हैरानी ने उसे उत्तेजित कर दिया,
“ऐसे नहीं डाकसाहब! पहले सिद्ध कीजिए. तर्क दीजिए और उदाहरण तो पक्का देना होगा आपको.”
बीच-बीच में फ़ोन पर डॉक्टर मंडल के चुस्की लेने की आवाज़ आ रही थी. अमृत समझ गया कि रसरंजन हो रहा है.
डाकसाहब ने गला साफ़ किया,
“मैं दिनभर मरीज़ों की नब्ज़ टटोलता रहता हूँ. बीमार, बूढ़े, लाचार और ग़रीब मरीज़ों को देखते हुए दिनभर कुछ न कुछ सोचता रहता हूँ. कई बार लगता है कि हमने मनुष्य को नागरिक बनाकर कुछ मनुष्यों को बहुत पीछे छोड़ दिया है अमृत! जैसे वे किसी साँप की पुरानी केंचुली हों!”
डाकसाहब ने कुछ पॉज़ लिया.
फिर बोले,
“मैं देख रहा हूँ कि एक लपकी हुई नागरिकता में विशिष्ट और अतिविशिष्ट नागरिक अपने से कमतर नागरिकों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं. नागरिकों की न ख़त्म होने वाली श्रेणियाँ लगातार बनती चली जा रही हैं और हम हैं कि इस भ्रम में जी रहे हैं कि हम एक सभ्य समाज के वासी हैं. बल्कि आधी से अधिक शताब्दी का समय हमने इसी सभ्यता के दम्भ में निकाल भी दिया.”
अमृत साँस रोके सुन रहा था. उसने इतना ही कहा, “आगे?”
अमृत को और तर्क चाहिए था. उदाहरण तो पक्का ही. डाकसाहब के इतना कह देने भर से नागरिकता सभ्यताओं का जाली चेहरा सिद्ध नहीं हो रही थी.
डॉक्टर मंडल सुरूर में थे, बोले,
“आज नागरिकता का संकट नहीं मनुष्यता का संकट है. मनुष्यता नागरिकता को तो बचा सकती है पर नागरिकता मनुष्यता को बचाने से रही.”
“डाकसाहब, अब आप भटका रहे हैं. आप मुद्दे पर आइए,” अमृत का माथा गरम हो रहा था.
पर उसकी गर्मी से बेपरवाह डाकसाहब अपनी रौ में थे. उन्होंने एक घूँट और लिया, तब बोले,
“मुझे कई बार यह भी लगता है कि हमने अपनी डेमोक्रेसी में बहुजन हिताय की पूरी फिलिंग ही सरकारी कर दी है. नागरिकता ने हमसे मनुष्यता की वह आदत ही छीन ली. ट्रेनिंग ही ग़ायब है. इसी दम्भ में हमने बाँध बनाए, कारखाने तैयार किए और लड़ाइयाँ लड़ीं. ऊपर से अदोषपने से लगातार घिरे रहे हम.”
अमृत उबल पड़ा, “अब तर्क करने की जगह, डाकसाहब, आप तो सन्तई पर उतर आए! आप इतनी दूर क्यों चले जाते हैं?”
“मैं तो यहीं हूँ यार!” डाकसाहब मसखरी पर उतर आए पर अमृत का ग़ुस्सा ठंडा नहीं हुआ था. पढ़ा-लिखा आदमी है यह डॉक्टर. ऐसे कैसे कोई कह सकता है नागरिकता को लेकर? जाली मुखौटा? अमृत ने डॉक्टर मंडल को ट्रैक पर लाने की कोशिश की,
“डाकसाहब, सामान्य भाषा में साफ़-साफ़ तर्क रखिए नहीं तो मान लीजिए कि नशे में आपने ग़लत पत्ता फेंक दिया है आज.”
डॉक्टर साहब ने अबकी बार अपना स्पष्ट विचार रखा,
“मेरा मानना है कि नागरिकता मनुष्यता का एक छोटा-सा हिस्सा भर है. नागरिकता माने कमतर मनुष्यता. एक लालची अवस्थिति. नियन्ता के पद पर मनुष्यता को न रखना ही भूल है अमृत.”
“अजीब बात करते हैं आप भी डाकसाहब, नागरिकता बिना मनुष्यता के सम्भव ही नहीं!”
“तो इसकी ज़रूरत ही क्या है?”
“उफ़्फ़,” अमृत को कोफ़्त होने लगी इस समूची बहस पर. उसने चिढ़ते हुए सवाल दागा, “कैसे ज़रूरत नहीं है डाकसाहब? आप यह तो मानेंगे न कि जीवन जीने और सोचने के लिए हम सब को एक राष्ट्र चाहिए, एक आधार?”
“बिलकुल.”
“तो फिर बिना नागरिकता के राष्ट्र कैसे बनेगा डाकसाहब? या फिर कहिए कि स्टेट की भी ज़रूरत नहीं!!” अपनी जानिब अमृत ने डॉक्टर को घेर लिया था.
डॉक्टर मंडल की पलकें अब भारी हो रही थीं. सुरूर में बतियाते हुए वे अपने बिस्तर तक आ चुके थे. पर अमृत के सवाल का जवाब तो देना ही था उन्हें, बोले,
“यही तो ट्रेजडी है वकील साहब! नागरिक बन तो गए पर दिक़्क़त यह है कि राष्ट्र के भीतर केंचुली की तरह पीछे छूट गए जो नागरिक हैं न, बूढ़े-बुज़ुर्ग और ग़रीब, वे डॉक्टर बी.पी. मंडल की क्लीनिक पर इस महामारी में चालीस टका में अपना पक्का इलाज़ खोज रहे हैं. वह भी हाँफते हुए. जबकि साबुन-तेल पर वे भी उतना ही टैक्स दे रहे हैं जितना कि यह बी.पी. मंडल.”
फ़ोन पर सन्नाटा पसरने लगा.
थोड़ी देर बाद ही फ़ोन पर डाकसाहब के खर्राटों की आवाज़ आने लगी. अमृत ने फ़ोन काट दिया. उसे अभी और ज़िरह करनी थी. उसे लग रहा था कि क्या पता डाकसाहब सरकार की शॉर्ट साइटनेस पर जिरह करते या ऐसा ही कुछ बोलते, लेकिन डाकसाहब तो पता नहीं किस गहराई में उतर गए जहाँ से उनका निकलना नहीं हो पा रहा था. पर अमृत यह भी देख रहा था कि वह एक पचपन पार के ऐसे एक्टीविस्ट से जिरह कर रहा था जो शुगर और बी.पी. निरोगी गोलियाँ चबाते हुए बारह-बारह घंटे मोर्चे पर लड़ रहा है.
अमृत ने अपने तर्क के घोड़ों को तत्काल रोक दिया.
अजीब हालात हो रहे थे उसके. उससे कम उम्र लड़के उसे समझ नहीं पा रहे थे और उम्रदराज उसे ख़ुद समझ में नहीं आ रहे थे. बहरहाल, इस बहस का असर तो पड़ ही गया था अमृत पर. सोने के पहले वह ताकिओ हाशिगावा का वह सन्देश फिर से पढ़ने लगा. उसने पाया कि उसकी उँगलियाँ बरबस उस सन्देश का जवाब लिखने लगीं और सोने से पहले उन उँगलियों ने एक छोटा-सा सन्देश हाशिगावा को भेज भी दिया. उँगलियों ने अंग्रेजी में लिखा था, ‘अगर ‘बहुजन हिताय’ का कोई राष्ट्र नहीं होता तो फिर ‘मदद के लिए शुक्रिया’ भी नहीं कहते माननीय.”
प्रवीण कुमार पहले कहानी-संग्रह ‘ छबीला रंगबाज़ का शहर’ से चर्चित, जिसे 2017 का डॉ. विजय मोहन सिंह युवा कथा-पुरस्कार और 2018 का अमर-उजाला शब्द-सम्मान (थाप) मिला है. दूसरा कहानी संग्रह-‘ वास्को डी गामा की साइकिल’ 2020 में राजपाल से प्रकाशित. jpkpravindu677@gmail.com / 8800904606 |
समालोचन पर प्रकाशित इस कथा अंश से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवीण कुमार ने वह कथा भाषा आयत्त कर ली है जो किसी रचना को सहज सम्प्रेषणीय बनाने के लिए ज़रूरी होती है।
शुभकामनाएं।
आपका धन्यवाद । समालोचन के हर अंक से हम समृद्ध होते हैं । एक दृष्टि विकसित होती है ।
सुंदर एवं प्रभावी कथांश।प्रवीण कुमार को बहुत बधाई।एक अर्थपूर्ण शीर्षक पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है।यह उपन्यास उन्हें ख्याति दिलाएगा।बधाई समालोचन।
सहज अभिव्यक्ति में एक संघर्षरत इंसान की कहानी
प्रोफ़ेसर अरुण जी, आपको मालूम है कि मैं परिश्रम से टिप्पणी करता हूँ । कमज़ोर छात्र को अपना पाठ्यक्रम याद करने में अधिक समय लगता है । आपके विद्वान मित्रों में अकेला मैं कमज़ोर छात्र हूँ । टिप्पणी को select all भी किया था । दोबारा पोस्ट कर दी
। samalochn.com पर नीली रेखा चल पड़ी । इसका अर्थ था कि वह पोस्ट हो गयी । हे प्रभु तुम दीनदयाल हो ।
बहरहाल, प्रवीण कुमार जी ने अपने उपन्यास अमर देसवा में कोरोना काल महामारी की पृष्ठभूमि पर आधारित विषय वस्तु की अनूठी प्रवीर लिख दी है । इस उपन्यास के मुख्य पात्र डॉ मंडल हैं । और महामारी में अपने अस्पताल में प्रतिदिन 12 घंटे काम करते रहते हैं । रात्रि के भोजन के समय रसरंजन भी करते हैं । उनके अस्पताल का केमिस्ट काम न सँभाल सकने के कारण दुकान छोड़ देता है । अमृत नाम के एक व्यक्ति ने अस्पताल के लिए नया केमिस्ट उपलब्ध करा दिया है । इस एहसान के कारण डॉक्टर साहब और अमृत में मनुष्यता और नागरिकता पर बहस चलती है । डॉक्टरों को अपने अध्यवसाय में मानव मात्र की सेवा करने का संकल्प दिलाया जाता है । कोरोना से पीड़ित जापानी नागरिक की सँभाल करने के लिए ज़िला अधिकारी के आदेश पर अमृत डॉ मंडल को नोचते हैं । वे महाभारत के चरित्र संजय नहीं अपितु डॉ मंडल पर गिद्ध की तरह मंडराते रहते हैं । डॉक्टर साहब मनुष्य जगत के लिए समर्पित हैं ।
आपको बुरा न लगे और क्षमा माँगते हुए इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक ख़बर का पहला पैराग्राफ़ लिख रहा हूँ । शीर्षक है-
Pro-Beijing ‘patriots’ sweep 1st Hong Kong election under new law; record low turnout.
Pro-Beijing candidates swept to victory in an overhauled “patriots”-only legislative election in Hong Kong that critics deemed undemocratic, with turnout hitting a record low amid a crackdown on the city’s freedom by China 🇨🇳.