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समालोचन

Home » पाण्डुलिपि के पृष्ठों पर बहस: पंकज कुमार बोस

पाण्डुलिपि के पृष्ठों पर बहस: पंकज कुमार बोस

कथाकार प्रवीण कुमार की कहानी ‘रामलाल फ़रार है’ पर आधारित पंकज कुमार बोस का यह आलेख दिलचस्प और विचारोत्तेजक है. लेखक और उसके कल्पित पात्रों के बीच के सृजनात्मक तनाव को समझने के लिए भी इस आलेख का महत्व है.

by arun dev
September 27, 2021
in आलोचना
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पाण्डुलिपि के पृष्ठों पर बहस: पंकज कुमार बोस
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रामलाल फ़रार है
पाण्डुलिपि के पृष्ठों पर एक बहस

पंकज कुमार बोस

प्रवीण कुमार की कहानी ‘रामलाल फ़रार है’ पहले पहल ‘आलोचना’ (अंक 62) में प्रकाशित हुई और उनके दूसरे संग्रह ‘वास्को डी गामा की साइकिल’ में पुस्तकाकार प्रकाशन से पूर्व ही पर्याप्त चर्चा और बहस का विषय बन गयी. प्रकाशनोपरांत कहानी पर व्यक्त प्रतिक्रियाओं में “कथा-वस्तु और कथा-कथन के नएपन” को अधिकांश आलोचकों ने लक्षित किया. एक और कहानी ‘सिद्ध पुरुष’- जो ‘समालोचन’ पर प्रकाशित हुई- ने भी इतनी विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ बटोरी कि उसके पाठकों के बीच जैसे किसी बड़ी बहस का माहौल बन गया. पहले से ऑनलाइन माध्यमों पर पर्याप्त चर्चित होने के बावजूद, संग्रह के प्रकाशित होने के दस-पंद्रह दिनों के भीतर समीक्षाएँ भी प्रकाशित होने लगीं. प्रकाशन और प्रतिक्रियाओं के परिदृश्य पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि इस समय हिन्दी में, ख़ास कर कथा-रचना में जो नया उन्मेष आया है, उसमें प्रवीण कुमार एक विवादी स्वर की तरह हैं.

यह साक्ष्य है कि आज के साहित्यिक परिदृश्य में जिस तरह रचना के लेखन-प्रकाशन में एक त्वरा आयी है, उसी अनुपात में आलोचना भी अपनी गत्यात्मकता के लिए प्रयत्नशील है. जो लोग आज आलोचना की अनुपस्थिति की चिंता करते हैं उन्हें प्रवीण कुमार की कहानियों के प्रकाशन परिदृश्य पर एक नज़र डालनी चाहिए : क्योंकि वे स्वयं आलोचना के पक्ष में, उसे उकसाने या चुनौती देने के लिए किसी प्रणोदक के रूप में प्रकाशित होती हैं. उनकी कहानियों के बारे में पहली ध्यातव्य बात यही है. अतः यदि उन्हें बहसधर्मी या विवादप्रसूता कहानियाँ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं.

 

1.

‘रामलाल फ़रार है’ व्यापक अर्थों में एक बहुस्तरीय या बहुमंज़िली कहानी है किन्तु सामान्यतः यह रचना-प्रक्रिया की कहानी है. एक लेखक है जिसने अपनी कहानी के ड्राफ़्ट को लैपटॉप में सेव करके रखा है. अगली सुबह उठ कर लैपटॉप खोलने पर पाता है कि उसकी कहानी से कतिपय वर्णन हटा दिए गए हैं. उसे कुछ संकेत मिलते हैं कि उसी के पात्र ने कहानी के साथ छेड़छाड़ की है. इस समस्या से कहानी शुरू होती है और क्रमशः लेखक को, जो उसमें नैरेटर भी है, यह भान होता है कि रामलाल नाम के पात्र ने कहानी के अनेक विवरणों को मिटा कर यत्र-तत्र अपनी शिकायतों के संकेत छोड़ दिये हैं.

पुनः अधूरी पड़ी कहानी को पूरी करने के ख़याल से वह दूसरी बार लैपटॉप खोलता है तो देखता है कि इस बार भी रामलाल ने कुछ कारनामा अंजाम दिया है. अबकी वह कहीं-कहीं नोट्स या चिट्ठीनुमा टीप छोड़कर गायब है. पांडुलिपि के पृष्ठों पर किसी प्रेत की तरह रामलाल के प्रकट होने और अपनी टीप के साथ उसके गायब होने की यह प्रक्रिया कई बार दोहरायी जाती है. अपने रचनाकार के लिए वह एक छोटी चिट्ठी छोड़कर गया है जिसमें पहले तो जाति सूचक संबोधनों का प्रयोग करता है, फिर लेखक पर “श्रेष्ठता की गंध” का आरोप लगाता है कि आपने मेरे साथ अन्याय किया है, मेरा उपयुक्त ढंग से चित्रण नहीं किया है, इत्यादि. लेखक भी प्रतिउत्तर में अपना पत्र लिख कर छोड़ देता है-

“प्रिय रामलाल, मैं जानता हूँ कि तुम यहीं कहीं हो. मैं न तो इतना कट्टर हूँ कि तुम्हें नमक-हराम कहूँ और न इतना उदार हूँ कि तुम्हारी गुस्ताख़ी मैं माफ़ कर दूँ. पर एकाध बातें मैं जानना चाहूँगा. इतना तो हक़ है मेरा. अव्वल तो यही कि इस तरह फ़रार होने का क्या मतलब है? तुम्हें कोई नाराज़गी थी तो बात करते. क्या मैं इतना निर्दयी हूँ?”

घटनाक्रम कुछ ऐसा होता है कि तीन से चार बार कहानी का पात्र रचयिता के सामने प्रकट होता है और गायब हो जाता है. बारम्बार इस प्रक्रिया में नैरेटर और कैरेक्टर आमने-सामने आकर एक-दूसरे की बात को समझने की कोशिश करते हैं, आपत्तियाँ सुनते हैं और अपना पक्ष रखते हैं. किन्तु अंततः न रचनाकार झुकने को तैयार है और न ही पात्र. कोई भी एक, दूसरे से समझौते के लिए तैयार नहीं. दोनों, दोनों की सीमाएँ और ख़ूबियाँ जानते हैं. फिर भी किसी संधि-रेखा पर समझौता करने को सहमत नहीं. अंततः हल निकलता नहीं और एक नए पात्र से कहानीकार का साक्षात्कार होता है. लेखक उसे पहचानने की कोशिश करता है कि आख़िर वह है कौन? बातचीत आगे बढ़ने पर भान होता है कि वह मूलतः वही पात्र है जिसने उसकी कहानी के साथ छेड़छाड़ की है. अंततः यहाँ भी एक समझौता होते-होते रह जाता है और नए अवतार में आया हुआ पात्र फिर फ़रार हो जाता है.

चूँकि यह सार-संक्षेप है, केवल संकेत दिया गया है इसलिए समीक्षा से पहले मूल कहानी का पाठ अपेक्षित है. कहानी में रामलाल आता है और गायब हो जाता है. उसका आना, यानी उपस्थित होना; और गायब हो जाना, यानी अनुपस्थिति; उसकी रणनीति है. एक दृष्टिकोण है. यदि पात्र के पक्ष से, उसके लगाए आरोपों पर ध्यान दें तो इसे ‘कहानी’ मानना कठिन होगा. कहानी में कोई समस्या उत्पन्न हुई है, उसे लेकर यह केवल एक उधेड़बुन लगेगी. इस अर्थ में कहानी नहीं लगेगी. इसलिए कहा गया कि साधारण अर्थों में यह रचना-प्रक्रिया की कहानी है. किन्तु पात्र के आरोपों के समानांतर यदि लेखक (नैरेटर) के पक्ष को देखें तो बहुत कुछ कहना शेष रहता है और बहस कहानी ‘होने’ या ‘न होने’ से आगे चली जाती है. फिर यह एक लेखक और उसके पात्र के अंतर्द्वन्द्व की कहानी हो जाती है. यों, यह बहस को पैदा करती हुई, उसे सुलझाने के क्रम में पुनः कुछ नए प्रश्नों को छेड़ती हुई और बड़ी बहस की ओर मुड़ती हुई एक सतत कहानी है.

संभव है कि पहली बार यह कहानी कथा-युक्ति के कारण किसी पाठक को अपनी गहराइयों की ओर खींचे. हालाँकि प्रवीण कुमार की अब तक की तमाम कहानियों में, उनके प्रकाशित पहले संग्रह की कहानियों में भी, कोई न कोई कथा-युक्ति है. एक कहानी से अलग कथा युक्ति दूसरी में. ‘रामलाल फ़रार है’ की कथा-युक्ति भी बाक़ी कहानियों से एकदम अलग है. पहला कारण यही युक्ति है कि कहानी बरबस हमारा ध्यान खींच लेती है.

 

 

2.

यदि कहानी में लेखक और उसके सृजित पात्र के बीच तनाव को एक युक्ति मानें और हिन्दी कहानियों के इतिहास में इसकी खोज करें तो ऐसी दो और कहानियों का ध्यान आता है. अज्ञेय की कहानी ‘कलाकार की मुक्ति’ (1954) और मन्नू भंडारी की ‘मैं हार गयी’ (1957). दो-तीन वर्षों के अंतराल में लिखी गयी दोनों कहानियों में से एक अल्पचर्चित है जबकि दूसरी बहुचर्चित. किन्तु मार्के की बात यह है कि अज्ञेय की कहानी उनके कहानीकार की प्रौढ़तम अवस्था की कहानी है, जबकि ‘मैं हार गयी’ मन्नू भंडारी पहली कहानी. अज्ञेय में जहाँ कथ्य एक दर्शन या जीवन-सत्य बनकर आया है, वहीं मन्नू भंडारी में महज प्रयोगार्थ. यहाँ ‘कलाकार की मुक्ति’ कहानी प्रासंगिक है. यह शिप्र द्वीप के महान मूर्तिकार पिंगमाल्य की कहानी है जिसके बारे में कहा जाता था कि उसे सौंदर्य की देवी का वरदान प्राप्त है. हालाँकि वह स्त्री जाति से घृणा करता है लेकिन उसकी बनायी स्त्री मूर्तियाँ अप्रतिम और दिव्य सौंदर्य से युक्त होती हैं. वह जीवन की गति और कला की लय में कला को अधिक श्रेय देता है. एक बार प्रदर्शित होने से पूर्व वह किसी नवसृजित मूर्ति का सूक्ष्म निरीक्षण कर रहा था कि अकस्मात् कलादेवी अपरोदिता के अनुग्रह से उसमें प्राण का संचार हो गया. मूर्ति और मूर्तिकार में संवाद होने लगा. फिर उसे प्रत्यय हुआ कि मेरी जो कला अजर-अमर थी, उसे देवी ने जरा-मरण के नियमों के आधीन कर दिया. वह देवी को कोसने लगा. उसके लिए किसी भी सूरत में कला की हार असहनीय थी, इसलिए सोचने लगा,

“वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता. मूर्ति सजीव होकर परे हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है, लेकिन कला की निश्चय वह हार है.”

अंततः वह स्वयंसृजित अद्वितीय सुन्दर मूर्ति को खंडित कर देता है क्योंकि कलादेवी कल उसे पुनः अद्वितीय सुन्दर स्त्री में रूपांतरित कर सकती है. पौराणिक गाथाओं से सूत्र ग्रहण करते हुए कथा आगे बढ़ती है जिसमें पिंगमाल्य ने उस मूर्ति-रूपसी से विवाह कर लिया और उन्हें एक संतान भी हुई. वस्तुतः यह एक प्रतीक-सत्य है जिसके अनुसार बंधनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि वह घृणा से भी मुक्त हो गया है. अपनी मुक्ति की स्मृति में बहुत दिनों तक उसने भग्न मूर्ति के टुकड़े भी सम्भाल रखे थे.

‘कलाकार की मुक्ति’ वस्तुतः कला के श्रेय और प्रेय की कहानी है और इस प्रश्न की भी कि क्या प्राचीन प्रतीक-सत्य कभी बदलते नहीं? क्या उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता? यदि उसके अर्थ बदलते हैं या उनमें परिवर्तन होता है तो फिर सत्य का कौन-सा रूप हमारे सामने आ सकता है? इस संभावना की कहानी है. इसके लिए एक छोटी-सी भूमिका भी अज्ञेय ने कहानी के आरंभ में दी है. मूर्ति में प्राण आ जाना और मूर्ति की स्त्री से कलाकार का प्रेम हो जाना एक विकट समस्या है. अब वह मूर्ति, जो कि कला थी, कला-रूप थी, अपने स्रष्टा के अधिकार क्षेत्र में नहीं रही. उसके प्रतिकूल हो गयी. हमारे यहाँ स्रष्टा को, कलाकार को प्रजापति या ब्रह्मा कहा गया है.

“अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः” के अनुसार जिस प्रकार ब्रह्मा अपनी सृष्टि में इच्छित परिवर्तन करता है, उसी प्रकार कवि भी कर सकता है, “यथा वै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते.”

अज्ञेय की उक्त कहानी में भी संभवतः प्रच्छन्न रूप में यह धारणा है जो वहाँ खंडित होती दिखलाई गयी है. कलाकार की कल्पना में कोई स्त्री नहीं है लेकिन अचानक वही उसके यथार्थ का हिस्सा हो जाती है. कल्पनातीत या संभावनातीत का हमारे यथार्थ का हिस्सा हो जाना और उस यथार्थ का इतना जटिल रूप ले लेना कि कलाकार को अपनी पूर्व धारणा बदलने के लिए विवश होना पड़े, फिर उस जटिलता को भोगना और उसका निर्वाह करना. अज्ञेय के यहाँ कलाकार को यह निर्वाह करना पड़ता है.

अज्ञेय से कुछ अलग मन्नू भंडारी की ‘मैं हार गयी’ कहानी की नैरेटर (जो कहानी में लेखिका भी है) अपनी रचना (पात्र) को नष्ट कर देती है क्योंकि रचना के भीतर से उपजे जटिल यथार्थ को वह स्वीकृत नहीं कर पाती. वहाँ स्रष्टा के द्वारा अप्रत्याशित यथार्थ का संवहन नहीं हो पाता. इसलिए मन्नू भंडारी की कहानी महज कथा-युक्ति बन कर रह जाती है, प्रयोग से आगे बढ़ कर कोई बड़ा सत्य प्रस्तुत नहीं कर पाती. एक ही पात्र को, एक महान नेता बनाने के उद्देश्य से दो अलग-अलग परिस्थितियों में रख कर उसी कहानी को अलग-अलग सिरे से लिखने का उपक्रम किया जाता है. एक बार लेखिका अति सामान्य ग़रीब परिवार में अपने पात्र का जन्म और परवरिश दिखलाती है. परिणामस्वरूप जटिल जीवन-संघर्षों में वह टूट जाता है. दूसरी बार एक समृद्ध और सुविधा भोगी परिवार में उसकी परवरिश होती है, फलतः अप्रत्याशित रूप से वह लेखिका को ही अपशब्दों से बींधने लगता है. जबकि दोनों जगहों पर कहानी की लेखिका बेहद आत्मसजग होकर उसे अनुशासित करती रहती है, “तुम्हें मेरे आदेश के अनुसार चलना होगा. जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी विधाता.” इसके बावजूद उसका पात्र (दोनों बार) भिन्न-भिन्न वर्ग-स्थितियों में, अनपेक्षित परिणति की ओर चला जाता है जिसकी दिशा लेखिका के आदर्श के सर्वथा विपरीत है. उसके हाथ से वर्ग-स्थितियों को नियंत्रित कर सकने वाली लगाम जैसे छूट जाती है. अब पुनः नए सिरे से कहानी लिखने की उसकी हिम्मत नहीं होती, उसे कहना पड़ता है कि

“इस बार की असफलता ने तो बस मुझे रुला दिया. अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि एक बार फिर मध्यम वर्ग में अपना नेता उत्पन्न करके फिर प्रयास करती.”

यह वस्तुतः उसकी आत्मस्वीकृति है : एक रचनाकार द्वारा अपनी ही दुनिया के जटिल यथार्थ की स्वाभाविक गति को न बदल सकने की विवशता. यह आत्मसमर्पण भी है जिसकी ध्वनि आरंभ से अंत तक पूरी कहानी में गूँजती रहती है.

यों तीनों कहानियाँ एक ही समस्या के तीन अलग-अलग समाधान प्रस्तुत करती हैं लेकिन प्रवीण कुमार की ‘रामलाल फ़रार है’ हमारे समय की एक क्लैसिक कहानी है जो अनायास ही हमें बाक़ी दो कहानियों की याद दिला देती है. और इसलिए भी कि इसमें केवल कथा-युक्ति नहीं है, बल्कि कथा के भीतर से उपजी जटिल परिस्थितियों का सामना भी किया गया है. कथा-युक्ति का अतिक्रमण करती हुई और जटिल यथार्थ से दो-दो हाथ करती हुई एक कहानी जिसमें पात्र और उसके स्रष्टा के बीच अंत तक अपने-अपने पक्ष को लेकर बहस कायम रहती है. यह रचना-प्रक्रिया की बारीकियों को उजागर तो करती ही है, रचना-कर्म के प्रति लेखकीय ईमानदारी का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ भी है. उक्त दो कहानियों से बहुत अलग भी. मन्नू भंडारी की कहानी का शीर्षक ही है ‘मैं हार गयी’ और अंत में नैरेटर की आत्मस्वीकृति, जिसका निहितार्थ यह है कि बहुधा पात्र अपने स्रष्टा से आगे निकल जाता है या बड़ा हो जाता है- Character is greater than creator. यह कहानी से ही निकला हुआ अभिप्राय है. हालाँकि पात्र स्वयं रचयिता की ही कल्प-सृष्टि है, फिर भी हम उन्हें दो सत्ताएँ मान लें. अज्ञेय के यहाँ ‘कैरेक्टर’ और ‘क्रियेटर’ दोनों अंततः एक ही ज़मीन पर आ जाते हैं. दोनों में समझौता-सा हो जाता है जबकि मन्नू भंडारी में पात्र की स्वतंत्र इयत्ता का दमन. इनसे अलग प्रवीण कुमार की कहानी में पात्र का अपना पक्ष है, वह ख़ूब दलील देता है और लेखक भी अपनी जगह अड़ा रहता है. दोनों के बीच तीखी बहस होती रहती है. ग़ालिब के शब्दों में कहें, तो

“वह अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्‘अ क्यों छोड़ें
सुबुक सर बन के क्या पूछें, कि हमसे सरगिराँ क्यों हो.”

 

 

3.

कथा-युक्ति के बाद, दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम है ‘नैरेशन’, जो इस कहानी को विशिष्ट बनाता है.

उक्त दोनों कहानियों से अलग ‘रामलाल फ़रार है’ में एक बड़ी बात यह लगती है कि नैरेटर और कैरेक्टर दोनों की अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता है और कमोबेश दोनों ने एक-दूसरे को अभिव्यक्ति की पूरी छूट दे रखी है. और यह सब सजग रूप से संभव होता है. लेखक ने एक-दो जगह संकेत भी दिया है कि मैं चरित्रों के ऑर्गेनिक विकास को महत्त्व देता हूँ, वे परिस्थिति-विशेष में अपना व्यक्तित्वांतरण कर सकते हैं, अपनी भूमिका बदल सकते हैं, किसी भी रूप में मैं उनके स्वाभिमान का हनन नहीं करना चाहता. यह एक लेखक के रूप में, जो कि इस कहानी में नैरेटर भी है, उसकी जो लोकतांत्रिक भावना होनी चाहिए उसके पक्ष से भी है और दूसरी ओर उसके द्वारा सृजित पात्र के पक्ष से भी. लेखक ने चरम पर ले जाते हुए दोनों पक्षों के वस्तुगत यथार्थ की यथासंभव रक्षा की है. यह लोकतांत्रिक भावना के कारण हुआ है. अगर थोड़ी देर के लिए हम भूल जाएँ कि नैरेटर और कैरेक्टर दो अलग सत्ताएँ न होकर एक ही कहानी के दो पात्र हैं तब हमें दूसरा निष्कर्ष मिलेगा. फिर यदि लेखक को पहला और नैरेटर को दूसरा पात्र मान लें तो भी एक अलग निष्कर्ष आएगा. ये सभी केवल कथा-युक्ति के नहीं, बल्कि कथा के आंतरिक यथार्थ की जटिलता के अलग-अलग निष्कर्ष होंगे.

इस कहानी में नैरेशन की तकनीक कथा-युक्ति की तकनीक का ही एक हिस्सा है. तहक़ीक़ात किया जाय तो पाया जाएगा कि कहानी का जो पहला हिस्सा है उसमें लेखक (या नैरेटर) अपने बारे में बता रहा है कि अमूमन वह इस तरह की कहानियाँ लिखता है, उसके विचार ऐसे हैं, वह स्वाभिमान और मनुष्यता का पक्षधर है, आदि. यह ‘आत्म-कथन’ (Self Narration) पहले हिस्से में भरपूर है. दूसरे और तीसरे हिस्से में भी यत्र-तत्र है जहाँ दोनों अपना-अपना पक्ष रख रहे हैं. फिर दूसरे प्रकार का नैरेशन है—नैरेटर द्वारा पात्र का नैरेशन, जिसे हम ‘पात्र-कथन’ (Narration of Character) कह सकते हैं. इसमें वह ख़ुदबयानी से आगे जाकर किसी अन्य का बयान कर रहा है. नैरेशन की एक तीसरी स्थिति भी है जिसमें ‘पात्र’ ख़ुद अपना बयान दे रहा है, लेखक की बैसाखी के बिना. यों, बयान या नैरेशन के तीन पैटर्न इस कहानी में हैं : आत्म-कथन, पात्र-कथन और पुनः पात्र द्वारा आत्म-कथन. इसे आत्माख्यान, पात्राख्यान और पात्र का आत्माख्यान भी कहा जा सकता है. नैरेशन की इन तीनों अवस्थाओं में केवल बहस होती है, कोई निष्कर्ष सामने नहीं आता. यानी यह कहानी किसी अदालत की तरह है जिसमें नैरेटर, लेखक  और पात्र अपनी दलीलें पेश करते हैं. जज कोई नहीं है. मन्नू भंडारी की ‘मैं हार गयी’ में नैरेटर जज के रूप में एकाएक निर्णय ले लेती है, इसलिए कमज़ोर हो जाती है. कथा का अंत खुला नहीं रहता, एक बिन्दु पर बंध-सा जाता है.

नैरेशन पर, ख़ास कर महाकाव्यों के नैरेशन पर अपना महत्त्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत करते हुए, ए. के. रामानुजन ने यह ध्यान दिलाया है कि ‘महाभारत’ में, अलग-अलग जगहों पर उसके रचयिता व्यास की नैरेशन की शैलियाँ भिन्न-भिन्न हैं. कहीं वह उत्तम पुरुष के रूप में, तो कहीं मध्यम पुरुष के रूप में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं. और कहीं दोनों में से कुछ नहीं, क्योंकि तब कोई और उनकी अनुपस्थिति में उनका संदर्भ दे रहा होता है. कथा चल रही होती है लेकिन वह घटना के नेपथ्य में कहीं होते हैं. रामानुजन द्वारा निर्दिष्ट पद्धति कमोबेश यहाँ भी है. यानी उत्तम पुरुष की स्थिति में ‘सेल्फ़ नैरेशन’ है. मध्यम पुरुष के रूप में, दूसरे पात्र का वर्णन है : जब दोनों पात्र आमने-सामने बात कर रहे हैं. अंतिम तीसरी स्थिति में यहाँ थोड़ा परिवर्तन है. यहाँ लेखक प्रकट है और पात्र भी प्रत्यक्षतः उपस्थित, लेकिन वह ख़ुद अपना बयान दे रहा है (Self Narration by the Character), कहीं पृष्ठभूमि में कुछ वर्णन भी चल रहा है. इस तरह नैरेशन के विश्लेषण से संबंधित भारतीय अवधारणा से कुछ साम्य होने पर भी प्रवीण कुमार की इस कहानी में एक नयापन है. दूसरी ओर, अज्ञेय या मन्नू भंडारी की उक्त कहानियों से निकलने वाले अंतिम संदेश या निष्कर्ष से भी यह अलग है. सचेत रूप से इसे एक खुले निष्कर्ष पर छोड़ दिया गया है.

 

 

4.

रामलाल की ‘उपस्थिति’ और ‘अनुपस्थिति’ का खेल, और यदि कहानी से ही शब्द लेकर कहें तो—प्रवीण कुमार की बहुत-सी कहानियों में ऐसे ‘खेल’ हैं. खेल भी और समीकरण भी. और यह केवल पात्र के संदर्भ में ही नहीं; पात्र जिन स्थितियों में हैं, जिस देशकाल में हैं, उसके संदर्भ में भी है. लेखक यत्र-तत्र समय की अवधारणा के साथ भी प्रयोग करता रहता है जैसे कि ‘सिद्ध-पुरुष’ कहानी में, जहाँ मुख्य पात्र कभी व्यतीत में जाकर उपस्थित हो जाता है और कभी अपने प्रतिरूप के समक्ष अनुपस्थित. ‘रामलाल फ़रार है’ में भी उपस्थिति-अनुपस्थिति का प्रश्न उठाया जा सकता है क्योंकि उसके निहितार्थ हैं. रामलाल के फ़रार होने में एक विशेष ध्वनि है. यह कहानी के मूल विचार में भी है और रचना-प्रक्रिया की समस्या को आगे बढ़ा कर समाज-विमर्श की समस्या बनाने में भी. यहाँ कुँवर नारायण की कविता ‘काफ़्का के प्राहा में’ की पंक्ति याद आती है-

“एक उपस्थिति से कहीं ज़्यादा उपस्थित हो सकती है कभी-कभी उसकी अनुपस्थिति.”

उपस्थिति से अधिक अनुपस्थिति का महत्त्व होना, महज एक घटना या युक्ति न होकर, विचार या दर्शन के रूप में मानीखेज हो जाना है.

इस कहानी में, लेखक द्वारा रचित (और नामित) पात्र रामलाल का भेद तब खुलता है जब अंत में वह स्वयं यथाकल्पित नाम के साथ लेखक को अपना परिचय देता है—अनुभव शेखर के रूप में. ऐसा नहीं है कि रामलाल, कहानी में पूर्णतः अनुपस्थित है. चूँकि लेखक उससे सतत आत्मसंवाद कर रहा है, उसकी बातों से, उसके आरोपों के कारण लगातार बेचैन है, इसलिए भौतिक उपस्थिति न होने के बावजूद वह है. बाद में जब रामलाल के रूप में न आकर, अनुभव शेखर के रूप में आता है, तब भी उपस्थित है. यों कहानी के ड्राफ़्ट में और पूरी कहानी में उसकी आद्यंत उपस्थिति है. ड्राफ़्ट के बीच चिट्ठी छोड़ने के बहाने अपने रचयिता के साथ उसका संवाद उसकी सबसे संवेदनशील और बहसतलब मौजूदगी है. वह स्वयं से संबंधित वर्णनों को भरसक संपादित करना चाहता है. इसके लिए लेखक को सलाह देता है, भर्त्सना भी करता है. उसके भीतर जो कुलबुलाहट है, वह सब बाद में अनुभव शेखर के रूप में आने पर बाहर निकलता है. वह स्वाभाविक रूप से नहीं आता, बल्कि ख़ुद को ‘प्रेजेंट’ करता है. अब तक अनुभव शेखर नेपथ्य में कहीं था और लेखक द्वारा प्रदत्त ‘रामलाल’ की भूमिका के साथ उधेड़बुन में था. अंततः स्वयं ‘प्रदत्त’ व्यक्तित्व के चोले को फेंक कर एकाएक प्रकट होता है. रामलाल के रूप में उसकी आवाज़ की गूँज तो थी लेकिन वास्तव में वह है कौन, सामने से वह दिखता कैसा है, यह ज्ञात नहीं था. नेपथ्य के पर्दे के हटते ही अनुभव शेखर के रूप में उसकी उपस्थिति का पूरा दावा होता है. इस प्रकार यदि इसे किसी नाट्यदृश्य के सादृश्य में देखें तो दो अलग-अलग साज-सज्जा में एक ही पात्र की दो उपस्थितियाँ लगेंगी. अंततः वह कहीं भी किसी भी रूप में अनुपस्थित नहीं है.

ज़रा कल्पना कीजिए कि एक पात्र किसी कहानी में है और उसमें रहते हुए उस कहानी में संशोधन भी कर रहा है. एक संशोधन लेखक पहले से कर रहा है और दूसरा उसका पात्र भी कर रहा है. दूसरी कल्पना करें कि एक ही कहानी को दो परस्पर विरोधी विचार के लेखक लिख रहे हैं और स्वानुकूल परिणतियाँ दिखलाना चाह रहे हैं और जब रामलाल को लगता है कि वह अंतिम परिणाम में शायद ऐसा नहीं कर सकेगा तो मूल कहानी से बाहर छिटक कर अनुभव शेखर के रूप में अपने अभीष्ट यथार्थ के साथ प्रकट होता है. इस तरह दोनों में ठन सी गयी है. इस कल्पना से लेखक और पात्र के अंतर्द्वंद्व को बेहतर समझ पाएँगे. यों यहाँ लेखक के भीतर एक और लेखक, कहानी के भीतर एक और कहानी तथा पात्र के भीतर एक और पात्र उपस्थित है.

प्रवीण कुमार

 5.

यदि मनुष्य के वर्गीय अस्तित्व के पहलू पर ध्यान दें, तो अनुभव शेखर के रूप में अपने मूल व्यक्तित्व को प्रकट करना कहीं-न-कहीं रामलाल जैसे लोगों का अपने अस्तित्व या पहचान के लिए संघर्ष करते हुए स्वयं सृजित विकल्प के साथ सामने आना भी है. इस क्रम में उसे अनेक स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है. लेखक ने अपने पात्र की उपस्थिति-अनुपस्थिति के प्रसंग के जरिए अनायास ही मानवीय पहचान संबंधी इस जटिल विमर्श को उठा दिया है. मानवीय अस्तित्व या पहचान के विमर्श का एक पड़ाव जाति/वर्ग विमर्श भी है. जबकि इसके कुछ संकेत कहानी में हैं, इस कोण से भी कहानी को सोचा जा सकता है. जब रामलाल अपनी चिट्ठी छोड़ता है तो लेखक के लिए दो-तीन अलग-अलग संबोधनों का प्रयोग करता है- लाला जी प्रणाम, सेठ जी नमस्कार. हर बार अंत में लिखता है, ‘आपका रामलाल.’ एक जगह तो हद हो गयी जब उसने लिख दिया- ‘तुम्हारा रामलाल’. वह ‘आप’ से ‘तुम’ पर आकर बहस करता है कि मेरा ‘रामलाल’ नाम ही क्यों दिया? “मेरे विवरण तुमने जहाँ-जहाँ रचे थे, उनमें से श्रेष्ठता की गंध आने लगी थी मुझे… मैं फिर आऊँगा. पर यह भी सोचना कि मेरा नाम आख़िर रामलाल ही क्यों रखा तुमने?” इसपर आगे लेखक का एकालाप है,

“…ये रामलाल नामकरण को लेकर उसे क्या दिक्क़त हो गई? एक औसत चरित्र का नाम क्या फ्रेंक्लिन डी. रूज़वेल्ट रखना होता है? कथानक और कथ्य के संतुलन को वह बामड़ क्या समझेगा? नामकरण में उलझना बेकार ही था मेरा. मैं यक़ीन से कहूँगा कि उस कहानी के मूल कथ्य की मार्मिकता उसके रामलाल होने से ही खुलती.”

रामलाल के तर्क और लेखक के पक्ष को सम्मुख रखने पर स्पष्ट है कि दोनों के अपने-अपने अंतर्द्वंद्व हैं. रामलाल में कहीं अधिक है इसीलिए वह लेखक के सोच को बार-बार प्रश्नांकित करता है, उसे लगता है कि लेखक की चेतना पर “श्रेष्ठता बोध” का एक मुलम्मा चढ़ा हुआ है जिसे रगड़ कर हटाना है. इसी मुलम्मा पर चोट करने के लिए वह जाति/वर्ग सूचक संबोधनों का सायास प्रयोग करता रहता है. लेखक बारंबार लोकतांत्रिकता के अपने दावे के बावजूद लगभग तटस्थ रहता है, अपने लिखे में कोई बदलाव नहीं करना चाहता. हालाँकि वह संवाद का पूरा अवसर देता है लेकिन रामलाल की दृष्टि में वह रूढ़िवादी सोच वाला है. अपनी ओर से रूढ़ि पर प्रहार करते हुए वह लेखक के यथास्थितिवाद को भी बेनकाब करना चाहता है. कहानी के लेखक ने, लगता है कि स्वयं को शब्दशः ‘प्रजापति’ ही समझ रखा है, इसीलिए बिना अपनी इच्छा के वह कोई परिवर्तन करना नहीं चाहता. दूसरे के दलीलों से भला क्या करेगा! इसी कारण कहानी में आद्यंत तनाव बना रहता है, जो प्रकारांतर से इस प्रजापति की सृष्टि का ही एक ‘खेल’ है. पर रामलाल प्रजापति के सत्य को जानते हुए भी पीछे नहीं हटता. एक जगह अपनी बात शुरू करते हुए लिखता है ‘तथाकथित लेखक महोदय को दोपहर की जोहार.’ इन संबोधनों और ऐसे पत्र-संवादों में केवल वक्रता, व्यंग्य या विडंबना बोधक स्थितियाँ नहीं, बल्कि वास्तविक सामाजिक संस्तरीकरण के अनिवार्य संकेत हैं, जिसका एक प्रतिनिधि रामलाल है. आरंभ में कुछ जगहों पर वह ‘हिडेन’ है जबकि बाद में एकाएक खुलकर आ जाता है.

कहानी के भीतर रामलाल की अपनी रामकहानी में, एक और पात्र है- प्रोफ़ेसर. इस अंतःकथा से भी ऊपर की सामाजिक या वर्गीय संस्तरीकरण वाली बात स्पष्ट होगी. रामलाल के ग़ुस्से की (लेखक से उसके झगड़े की) बुनियादी वजह प्रोफ़ेसर ही है जिसके यहाँ वह बीस साल से काम कर रहा है और जो उसे ‘साथी’ कह कर पुकारता है. रामलाल उस प्रोफ़ेसर को ‘बाऊजी’ कह कर संबोधित करता है. प्रोफ़ेसर की पत्नी को पहली बार उसने ‘बहू’ कह कर पुकारना चाहा तो उसने मना कर दिया, फलतः उसे ‘बीबी जी’ कहने लगा. रामलाल ‘बहू’ शब्द से एक आत्मीय संबंध का अनुभव करना चाहता था जबकि प्रोफ़ेसर की पत्नी ने ‘बीबी जी’ द्वारा उस आत्मीय संबोधन को नौकर-मालकिन के औपचारिक और भेदपूर्ण संबंध में बदल दिया. इसीलिए प्रोफ़ेसर द्वारा ‘साथी’ कहकर पुकारे जाने पर भी रामलाल को बार-बार एहसास होता है कि साथी वाली बात है नहीं. यों किसी ख़ास संबोधन से संबंध विशेष के निर्धारण का संकेत यहाँ है.

उसकी अनेक पीड़ाएँ हैं जिनमें एक यह भी है कि वह प्रोफ़ेसर के यहाँ बीस साल से काम करता रहा है लेकिन तब से लेकर अब तक उसे प्रति माह पाँच हज़ार रुपये ही मिल रहे हैं. जब प्रोफ़ेसर इतना कमाता है तो क्या बीस-तीस हज़ार रुपये खर्च करके उसके लिए छोटी-मोटी रेहड़ी नहीं खुलवा सकता या कोई और व्यवस्था नहीं कर सकता! ऐसा लगता है कि प्रोफ़ेसर का एक प्रच्छन्न रूप उसने अपने लेखक में देख लिया है, फलतः उससे भी विद्रोह करने लगता है. अपने लेखक के साथ उसकी तीखी बहस, प्रोफ़ेसर से उसकी उदासीनता का ही अधिक विकसित और प्रत्यक्ष स्थानापन्न है. ये कुछ स्थितियाँ हैं जिनसे उसकी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक निर्मिति का पता चलता है. कहानी पढ़ने के बाद उससे जुड़ी ऐसी स्थितियाँ सहसा उभर कर सामने आ जाती हैं जैसे पानी की सतह पर तेल के थक्के उभर कर तैरने लगते हैं.

हमारे समाज में जो पहचान की लड़ाई है उसका भी एक दृश्य यहाँ है. अपनी पहचान या अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाला वर्ग अपने जीवन के बुनियादी अधिकार और आकांक्षाओं के लिए ही लड़ रहा है. रामलाल इस कहानी में शायद अपने जीवन के अधिकार के लिए लड़ रहा है, जबकि अनुभव शेखर के रूप में एंट्री करने पर उसमें एक ‘एलीट टच’ दिखलाई देता है. वह क्लीन शेव्ड और कर्ली बालों में चमक-दमक के साथ, सफ़ेद टी-शर्ट और जींस में, नए मँहगे जूते और घड़ी पहने हुए, और सिनेमा देख कर आया है! अभी तक उसके सामने सिनेमा का कोई संदर्भ नहीं था. इतनी दुनिया देखने-घूमने के बाद उसे महसूस होता है मेरे लिए इतना कुछ संभव है. कम से कम इतना तो मैं कर ही सकता हूँ जबकि लेखक अपने कृत्रिम वातावरण में मुझे यह सब करने नहीं दे रहा है. इस रूप में आज का निम्न वर्ग अपनी पहचान या जीवनाधिकार के लिए जो संघर्ष कर रहा है उसका वह प्रतिनिधित्व करता है. इस कोण से देखें तो पाएँगे कि अपने बुनियादी जीवनाधिकार के लिए जो व्यक्ति संघर्ष करेगा उसे प्रकट-अप्रकट रूप से किसी दूसरे वर्ग के खिलाफ़ भी लड़ना पड़ेगा. उस दूसरे वर्ग का जो तथाकथित शासनाधिकार है (परंपरा प्रदत्त चला आता हुआ अधिकार जो पूर्व निर्धारित तो नहीं, लेकिन बस चला आ रहा है) उसी के खिलाफ़ संघर्ष करना पड़ेगा. यह तथाकथित शासनाधिकार और वास्तविक जीवनाधिकार के बीच का द्वंद्व है जिसमें एक पक्ष की ओर से वर्चस्व की रणनीति और दूसरे की ओर से सामाजिक संघर्ष या अस्तित्व की लड़ाई दीखती है.

कोई चाहे तो इसमें जाति विमर्श ढूँढ सकता है लेकिन उससे आगे जाकर, पहचान या अस्मिता अर्जित करने की लड़ाई के लिए एक बड़ी ज़मीन के रूप में इसे ढूँढना चाहिए. यह व्यापकता अंततः नितांत मानवीय होगी. क्योंकि कोई भी पात्र-सेवक, मज़दूर या कामगार अपने बुनियादी रूप में एक मानवीय चरित्र ही है. वह अपनी वर्गीय पहचान को मानवीय पहचान में अंतर्निहित कर लेना चाहता है, किन्तु दूसरे विरोधी वर्गों से इसके लिए अनुकूल स्थितियाँ न पाकर सामाजिक या मनोवैज्ञानिक विद्रोह शुरू कर देता है. अपने परिवेश के साथ रामलाल जैसे पात्रों का यही अंतःसंघर्ष है.

यही अंतःसंघर्ष क्रमशः सामाजिक संघर्ष का रूप ले लेता है जो इस कहानी में रामलाल और प्रोफ़ेसर के बीच या रामलाल और लेखक (नैरेटर) के बीच है. इसे ‘जीवन का अधिकार’ बनाम ‘शोषण का अधिकार’ के रूप में देखना चाहिए कि यदि एक आदमी अधिक त्याग करेगा तभी दूसरे को अधिक सुविधा मिलेगी; उसी तरह कोई दूसरा ज़रूरत से ज़्यादा सुविधाभोगी है तो किसी अन्य के बुनियादी अधिकारों में अनिवार्यतः कटौती भी करनी होगी. ऐसा व्यक्ति यदि अपना अधिकार पुनः अर्जित करना चाहे तो दूसरे की सुविधाओं में कमी करनी ही पड़ेगी. यह एक तरह का ‘चेक एंड बैलेंस’ नियम है जो ऐसे सामजिक संघर्षों में अंतर्निहित होता है. दूसरी बात कि यदि रामलाल को किसी पिछड़ी, निम्न या दलित जाति का सदस्य मान लिया जाय तो भी उसमें विरोधमूलक पहचान के लिए एक तीव्र संघर्ष तो है ही. कहानी में इस विरोधमूलकता के पर्याप्त संकेत हैं जिन्हें ढूँढा जा सकता है. पिछड़े या दलित वर्ग के किसी व्यक्ति को अपने ही वर्ग से संघर्ष करके अपनी पहचान अर्जित करने की ज़रूरत नहीं होती, उसे कथित रूप से एक वर्चस्वशाली सुविधाभोगी उच्च वर्ग से संघर्ष करके यह हासिल करना पड़ता है.

रामलाल की बहस लेखक से तो है, लेकिन कहानी में जो अंतःकथा है उसमें उसकी असली लड़ाई प्रोफ़ेसर से है. लेखक को वह आड़े हाथों इसलिए लेता है कि उसमें और प्रोफ़ेसर में एक समानधर्मिता मिलती है- श्रेष्ठता की गंध, एक एलीट व्यवहार, आदि. यह भी सही है कि कहानी में नैरेटर ने ख़ुद ऐसी समानधर्मिता सृजित कर दी है. ऐसा करना या दिखाना कथाकार की एक युक्ति हो सकती है, इसके बावजूद अपने रचनाकार से रामलाल की दुहरी दुश्मनी है. एक, उसमें दिखने वाली प्रोफ़ेसर की छाया से और दूसरी, अपने लेखक द्वारा एक कमज़ोर पात्र के मनमाने वर्णन के कारण. चूँकि उसकी बुनियादी दुश्मनी प्रोफ़ेसर से है और लेखक उसके प्रतिरूप या प्रतिनिधि जैसा है, इसलिए अपने मन की कुंठा और बेचैनियों को वह सीधे लेखक पर ज़ाहिर करता है. इसी कारण सापेक्षिक रूप से इसे एक वर्गमूलक, किन्तु विरोधमूलक पहचान कहा गया है. यों पूरी कहानी को समाजशास्त्र और मनोविश्लेषण की दृष्टि से पढ़ने पर पहचान की सामाजिक निर्मिति और पात्र की मानसिक संरचनाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष मिलेंगे. प्रसंगतः इसी कहानी में कई जगहों पर ‘मनोविज्ञान’ और ‘मनोविश्लेषण’ जैसे शब्दों का सायास उल्लेख भी ध्यातव्य है.

 

 

6.

अंत में, इस कहानी के शीर्षक के बहाने कुछ बातें तथा ‘रामलाल’ व ‘अनुभव शेखर’ के कुछ और प्रसंग. लेकिन इसके साथ यह प्रश्न भी नत्थी है कि कोई लेखक अक्सर अपने पात्रों के साथ ही प्रयोग क्यों करता है? ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जिनमें घटनाओं के साथ, परिवेश, वातावरण या फिर टाइम या स्पेस के साथ कोई नया प्रयोग किया गया हो. उदाहरण तो हैं लेकिन बहुत कम. पात्रों के साथ प्रयोग के अनेक उदाहरण मिलते हैं—विशेषतः वैसी कहानियों में जिन्हें हम रचना-प्रक्रिया की कहानी या लेखक (नैरेटर) के आत्मसंघर्ष की कहानी कहते हैं. इन स्थितियों में कहानी के अन्य अवयवों की अपेक्षा लेखक आत्यंतिक रूप से पात्र से ही क्यों जुड़ता है? उसी पर क्यों प्रयोग करता है? प्रवीण कुमार के यहाँ यह शिकायत कुछ हद तक कम है गो कि उनकी अन्य कहानियों में दूसरे प्रयोग भी मिलते हैं.

कहानी के शीर्षक ‘रामलाल फ़रार है’ के ‘फ़रार’ शब्द पर सोचते हुए कोई भी पाठक बिना कहानी पढ़े उसका सामान्य अर्थ कुछ ऐसा कर सकता है मानो कोई क़ैदी जेल में है. शायद किसी बंधन में होगा, आज़ादी चाहता होगा, और जब उसे मुक्त नहीं किया गया तो अपने प्रयासों से ही उसने उसके रास्ते खोज लिए. एक दृष्टि से यह एक ‘मुक्ति अभियान’ है, जिसे दूसरी दृष्टि से ‘फ़रार’ कहा गया है. ठीक उसी तरह जैसे एक मान्यता से 1857 की क्रान्ति को ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहा जाता है जबकि दूसरा पक्ष उसे ‘विद्रोह’ मानता है जिसे कुचल देना ज़रूरी था. यहाँ रामलाल के प्रसंग में भी बंधन और मुक्ति का यह कॉमन सेन्स या दो दृष्टियाँ उभरती हैं. यह भी एक सवाल है कि क्या लेखक सचमुच अपने पात्र को क़ैद कर सकता है- कहानी की अपनी बनी-बनायी अवधारणा में? फिर ‘क़ैद’ का मतलब क्या है और ‘मुक्ति’ का क्या अर्थ है? ‘फ़रार’ शब्द को लेकर पाठकों में उभरने वाला कॉमन सेन्स इस कहानी को पढ़ने के बाद निस्संदेह बदलेगा. लेखक का अपना अभिप्राय सामने आएगा. उसके लिए शायद ही ‘फ़रार’ से अलग कोई दूसरा शब्द यहाँ उपयुक्त होता. हालाँकि स्वयं इस शब्द में एक नकारात्मक अर्थ है लेकिन अपनी जगह पर उपयुक्त और कहानी के संदर्भ में सकारात्मक भी, फिर भी कहानी में बार-बार उसको मुकम्मल करने की कोशिश की गयी है. क्योंकि कहानीकार बेहतर जानता है कि जो फ़रार है, उसमें एक फ़राहत भी है. असल में रामलाल की फ़राहत और लेखक की तरहदारी के बीच मुसल्सल एक पेचोख़म भी है जिसकी शनाख़्त की ज़रूरत है.

जहाँ तक शीर्षक में और फिर पूरी कहानी में ‘रामलाल’ नामक पात्र की बात है तो कहानी के पाठ से अयाँ है कि इस नाम के साथ वह बहुत दूर तक इसमें है. बाद में अनुभव शेखर के नाम से उसका नया प्रवेश होते ही कहानी समाप्त हो जाती है. हमारे दैनिक जीवन में ‘रामलाल’, ‘रामू’ या ‘बहादुर’ जैसे सुने-सुनाए बहुत-से ऐसे शब्द हैं जो पेशेवर वर्ग विशेष की ओर संकेत करते हैं. इसमें काम या पेशा मुख्य है, जाति का संकेत गौण है. क्या संयोग है कि इस किताब पर चर्चा करते हुए, किसी कार्यक्रम में एक वक्ता को ‘रामलला’ शब्द भी याद आ गया! ‘रामलाल’ से ध्वनिसाम्य रखता हुआ यह शब्द आज के राजनीतिक संदर्भों में ख़ूब प्रचलित है, विशेष रूप से राममंदिर के शिलान्यास वर्ष में. यह भी देखने का एक कोण या संदर्भ हो सकता है कि जैसे राम की पूरी कहानी से रामलला गायब हैं और एकमात्र राजनीति ही हावी है, उसी तरह प्रवीण कुमार की इस कहानी से मुख्य पात्र रामलाल ‘फ़रार’ है और वर्ग संघर्ष का सांस्कृतिक संकेत देता हुआ लेखक का मुख्य विचार ही हावी है. यों समसामयिक विमर्श का एक विचारोत्तेजक मुद्दा भी यहाँ मौजूद है.

प्रसंगतः यह भी दर्ज करते चलें कि काशीनाथ सिंह की लम्बी कहानी ‘कविता की नयी तारीख़’ में भी रामलाल नाम का एक आदमी है जो थोड़ी देर के लिए प्रकट होता है और शेष कथा में नेपथ्य में पड़ा रहता है. वह रामलाल मॉनीटर है जिसे एक बड़े साहब ने सस्पेंड कर दिया है. बड़े साहब के एक संबंधी कवी महोदय कुछ दिनों के लिए सपरिवार वहाँ आए हैं तो मौक़ा पाकर रामलाल उनसे पैरवी करना चाहता है,

“भाई साहब, मेरे पाँच बच्चे हैं. बीवी का पिछले साल ही इन्तकाल हो गया. छोटा भाई भी यहीं है, मेरे साथ. अभी किसी को नहीं बताया है. सब समझते हैं, छुट्टी पर चल रहा हूँ. गाँव पर भी चाचा को ख़बर नहीं दी है….और मेरी कोई ग़लती नहीं, साहब ने सस्पेंड कर दिया है. बिला वजह.”

शुक्र है कि काशीनाथ की कहानी में रामलाल मॉनीटर की जो स्थिति हो गयी है वह प्रवीण कुमार के रामलाल की नहीं है, फिर भी शिकायत तो भरपूर है. वहाँ रामलाल डर और हिचक के कारण बीच की स्थिति में है जबकि हमारा विवेच्य रामलाल बहस करने के बाद ख़ुद आगे बढ़कर अपना अधिकार ले पाता है. एक तथ्य यह भी कि काशीनाथ सिंह की कहानी में कवी महोदय ‘अपनी भाषा के भवभूती’ कहते हुए, व्यंग्य में ही सही, अज्ञेय का नाम-स्मरण कर लेते हैं. काशीनाथ के अवचेतन में अज्ञेय हैं और यहाँ प्रवीण कुमार के अवचेतन में अज्ञेय और काशीनाथ दोनों एकसाथ. अवचेतन के इसी प्रवाह में पुराने नाम बह कर आ गए हैं और उसके साथ बहती चली आयी हैं पूर्व पात्रों की कुछ ग्रंथियाँ.

रामलाल ने नए अवतरण में ख़ुद अपना नाम अनुभव शेखर रखा है. वह इस पर अपनी दलील देता है, अपने बारे में बताता है कि उसकी पृष्ठभूमि क्या है. उसके साथ ऐसा हो सकता था लेकिन प्रोफ़ेसर ने होने नहीं दिया. अंततः लेखक से कहता है कि वास्तविकता में न सही, मेरी कल्पना के अनुसार ही तुम मेरा नाम, मेरी परिस्थितियाँ बदल तो सकते थे. अपने पक्ष में सारे बयान देता है कि मेरे पास इतने अनुभव हैं; मानो लेखक को अपने बीस सालों के अनुभव का प्रमाण-पत्र दे रहा हो. अनुभव शेखर में सायास और सोद्देश्य लगे हुए ‘अनुभव’ शब्द की ध्वनि यही है. ‘शेखर’ भी कहानीकार ने बहुत सचेत होकर रखा है. ‘अनुभव’ रामलाल का अपना कमाया हुआ है, कमाया हुआ सच है, ख़ुद उसने अर्जित किया है जबकि लेखक की ओर से आरोपित करके उसे ‘शेखर’ बना दिया गया है. शेखर हिन्दी कथा साहित्य में अत्यंत चर्चित पात्र रहा है और बहुधा उसके रचनाकार का पर्यायवाची भी. शेखर और उसका रचनाकार हिन्दी के प्रत्येक महत्त्वाकांक्षी कथाकार के अवचेतन में किसी न किसी रूप में उपस्थित रहता है. नामकरण के प्रसंग में इस पर भी ध्यान जाता है.

नया अवतरण होते हुए भी अनुभव शेखर और रामलाल में एक अंतर है. यह समाजशास्त्रीय अंतर है और मनोवैज्ञानिक भी. लेखक की अपनी कथायुक्ति के संदर्भ में भी में रामलाल और अनुभव शेखर में दूरी है. उसी तरह स्वयं लेखक प्रवीण कुमार और उनके नैरेटर के बीच भी एक दूरी है. अगर नैरेटर को एक पात्र मान लें (जैसा कि पहले संकेत किया गया) तो कहानी के दो पात्रों के बीच भी पर्याप्त दूरी है. यहाँ कहा जा सकता है कि प्रवीण कुमार को नैरेटर में रीड्यूस किया जा रहा है. रीड्यूस बिलकुल नहीं किया जा रहा है बल्कि ध्वनि यह है कि लेखक और नैरेटर में एक दूरी होनी चाहिए और इस कहानी में अनिवार्य रूप से, क्योंकि इसमें जो नैरेटर है वह मूलतः एक लेखक या रचनाकार की भूमिका में है.

एक समय टी. एस. इलियट ने यह बात कही थी और अज्ञेय ने उसे अपने उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ की भूमिका में तथा अन्यत्र उद्धृत किया कि-

“भोगने वाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है, और जितना बड़ा कलाकार होता है उतना ही भारी यह अन्तर होता है.”

इस तर्क पर हम ‘रामलाल फ़रार है’ को अनुभवयिता और रचयिता की निर्मिति के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संस्तरीकरण की कहानी कह सकते हैं. रामलाल अनुभव करने वाला है और बाद में अनुभव शेखर के रूप में वह स्वयं एक नए रामलाल को रच कर प्रस्तुत करता है इसलिए कलाकार भी. उसके बीच पर्याप्त समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दूरी है. किन्तु दूसरे स्तर पर लेखक और नैरेटर के बीच शायद उतनी दूरी नहीं है जबकि रामलाल और अनुभव शेखर, साधारण और संभ्रांत के रूप में परस्पर दूर होते हुए भी एक-दूसरे के स्थानापन्न (पूरक नहीं) लगते हैं. उनमें एक ही समय दूरी और निकटता का बोध एक साथ है. जबकि कहानी के भीतर उपस्थित लेखक और प्रोफ़ेसर की जो सामाजिक स्थितियाँ दिखलायी गयी हैं वे एक दूसरे की पूरक लगती हैं. इन दोनों में भी यदि दूरी होती और परस्पर सादृश्य की स्थितियाँ उत्पन्न नहीं होतीं तो कहानी में और तनाव आ सकता था, उसके अर्थ का आयाम और विस्तृत हो सकता था. अनुभवयिता और रचयिता के दो स्तर हैं : पहला, लेखक और नैरेटर; दूसरा, रामलाल और अनुभव शेखर. इसलिए यहाँ दूरी वाले सिद्धांत को इलियट का कोई आप्त वाक्य न मानकर इसी कहानी से निकला हुआ एक विचार मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं.
_________________________

पंकज कुमार बोस

25 दिसंबर 1985 को खगड़िया (बिहार) में जन्म. दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली से उच्च शिक्षा. हिन्दी आलोचना के इलाहाबाद केंद्र से जुड़े विषयों पर पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च. शोध के अलावा आलोचना, रचनात्मक गद्य और अनुवाद में भी कुछ काम. एक अग्रणी प्रकाशन संस्था में एक वर्ष प्रधान संपादक के रूप में कार्य. आलोचनात्मक लेख ‘वाक्’, ‘वागर्थ’, ‘हंस’,  ‘आभ्यंतर’, ‘पक्षधर’, ‘आजकल’, ‘प्रतिमान’, ‘आलोचना’, ‘अनहद’ और ‘पल प्रतिपल’ जैसी पत्रिकाओं; तथा ‘सदानीरा’, ‘समकालीन जनमत’, ‘पहली बार’, ‘अनहद कोलकाता’ पर प्रकाशित. ‘हिन्दवी’ ब्लॉग पर ‘गद्य जिज्ञासा’ नाम से स्तंभ लेखन.

कुँवर नारायण और नामवर सिंह पर केंद्रित लेखन विशेष चर्चित. कुँवर नारायण के अंग्रेज़ी निबंधों का हिन्दी अनुवाद और उनपर केंद्रित कई परियोजनाओं के संयोजन-संपादन में संलग्न. उनके साक्षात्कारों की तीसरी संपादित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. पहली आलोचना पुस्तक भी प्रकाश्य. अकादमिक उपलब्धियों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रो. सावित्री सिन्हा स्मृति स्वर्ण पदक तथा यूजीसी की डॉ. एस. राधाकृष्णन पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप; लेखन के लिए वागर्थ, कोलकाता द्वारा ‘प्रेरणा पुरस्कार’ और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा ‘साहित्य सम्मेलन शताब्दी (युवा) सम्मान’. फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में अध्यापन और ‘पक्षधर’ पत्रिका की संपादकीय टीम से संबद्ध.

संपर्क : 9540879062/pkbose.du@gmail.com

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Comments 9

  1. मनोज मोहन says:
    2 years ago

    आपने आसपास जो पर्यावरण बनाकर रखा है, उससे फ़ायदा यह हुआ है कि आप कहानी का बेहतर विश्लेषण कर रहे हैंं… नरेश गोस्वामी और पंकज कुमार के लेख में कहानियों का अनुरोध झलकता है कि मुझ पर लिखें, कहानीकार का नहीं…. यह बड़ी बात है…

    Reply
  2. शशिभूषण मिश्र says:
    2 years ago

    पंकज जी ने बहुत गहराई के साथ इस कहानी की भीतरी परतों को उघाड़ने की कोशिश की है । कहानी के साथ पूरे परिदृश्य को मूल्यांकित करने के श्रम के लिए उन्हें बधाई…

    Reply
  3. रमेश अनुपम says:
    2 years ago

    पंकज जी की आलोचनात्मक दृष्टि की तारीफ की जानी चाहिए। वे बेहद गंभीरता और तैयारी के साथ कहानी में प्रवेश करते हैं ।कहानी को बाहर और भीतर से देखने की कोशिश करते हैं । आलोचनात्मक विवेक के साथ कहानी का विश्लेषण करने का ,उसे एक अलग रोशनी में देखने और दिखाने का प्रयत्न करते हैं । अज्ञेय और मन्नू भंडारी की कहानियों के साथ इसकी संगति दिलचस्प है। बहरहाल पंकज बोस और ’समालोचन’ को ढेर सारी बधाई

    Reply
  4. पंकज मित्र says:
    2 years ago

    पंकज जी की कथालोचना की प्रविधि विरल किस्म की है और पाठ को खोलने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी। उन्हें बहुत बधाई और समालोचन को साधुवाद।

    Reply
  5. उदयभानु पाण्डेय says:
    2 years ago

    आलोचना का यह अंदाज़ निराला है। मेरा मानना है कि कहानी और उपन्यास, खासकर कहानी की आलोचना बहुत मुश्किल है।इस आलोचना का एक मानक अनुशासन है। जैसे कहानी में सबसे पहले कहआनी होनी चाहिए, उसकी आलोचना में भी कथानक का पूरा ढांचा साफ होकर उभरना चाहिए।यदि Myth का Reversal है तो उस पर एक पैराग्राफ ज़रूर होना चाहिए।आपको बधाई।

    Reply
  6. Chandrakala Tripathi says:
    2 years ago

    रचना को आलोचना में प्रायःएक ऊसर फार्मूलेशन के तहत खोला बंद किया जाने लगा है जिसे पढ़ कर लगता है कि उसमें एक जीवन है ही नहीं।दी गई स्थितियों में किरदार तय शुदा कुछ कर धर रहे हैं।उसका स्पंदित हिसाब अदृश्य हो जाता है। नामवर जी कहते थे कि आलोचना पढ़ने में रचना पढ़ने जैसा आनंद आना चाहिए।उनकी आलोचना में हम उन्हें जैसे बोलते सुनते हैं। आपने जो भूमिका दी है उसमें रचना से नज़दीकी झलक रही है।
    पढ़ती हूं। एक अलग नवैयत की कथा लग रही है।
    जटिल संदर्भ अपने फोर्स से अपना ढ़ंग चुन लेते हैं

    Reply
  7. कैलाश बनवासी says:
    2 years ago

    प्रवीण कुमार की यह कहानी तो मैंने नहीं पढ़ी है, लेकिन पंकज बोस के विवेचन से उत्सुकता गहरा गई है। प्रवीण कुमार नयी कथा युक्तियों के सिद्ध खिलाड़ी सिद्ध हो चुके हैं,उनकी कहानियों की बहुस्तरीयता पाठक के लिए भी बड़ी चुनौती हैं। आलोचक गण तो इसी तरह से डूब कर कुछ न कुछ सीपियां बटोर लाएंगे। प्रश्न मुझ जैसे कहानी पाठकों का है जिनको डर ये है कि इस खेल को ठीक-ठीक समझ या देख पाएंगे भी ,या पाठ,अंतर्पाठ, अस्मिता या जाति विमर्श की बारीकियों में ही उलझ कर रह जाएंगे।
    बहरहाल,पंकज जी ने रामलाल फरार है के विभिन्न परतों, विमर्शों को बाखूबी खोला है। बहुत बहुत बधाई पंकज जी।

    Reply
  8. Anonymous says:
    2 years ago

    Sandar jabardast jindabad 🎉

    Reply
  9. प्रियंका सिंह says:
    2 years ago

    बहुत गंभीर लेकिन सरस आलेख के लिए आपको बधाई
    निरंतरता बनाए रखें।

    Reply

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