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समालोचन

Home » अमरकांत की कहानियाँ : आनंद पांडेय

अमरकांत की कहानियाँ : आनंद पांडेय

कथाकार अमरकांत (1925–2014) की यह जन्मशती है. आज ही के दिन, 1925 में उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के भगमलपुर गाँव में हुआ था. उन्हें प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का प्रतिनिधि माना जाता है. वे साधारण जीवन के असाधारण चित्रण के अप्रतिम कथाकार हैं. अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत किया गया है. इस अवसर पर प्रस्तुत आनंद पांडेय का यह सुदीर्घ आलेख अमरकांत की कहानियों का गंभीर विश्लेषण करता है. किसी भी लेखक की जन्मशती तभी सार्थक होती है जब उस वर्ष हम उन्हें विशेष रूप से पढ़ें, समझें और उन पर विचार-विमर्श करें. यह आशा की जा सकती है कि यह वर्ष अमरकांत की रचनाशीलता को नए सिरे से समझने और मूल्यांकित करने का अवसर सृजित करेगा.

by arun dev
July 1, 2025
in आलोचना
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अमरकांत की कहानियाँ : आनंद पांडेय
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जन्मशती

अमरकांत की कहानियाँ
आनंद पांडेय

अमरकांत (1925-2014) आजादी के बाद की हिंदी कहानी की यथार्थवादी धारा के प्रमुख कथाकार हैं. वे आजादी के बाद के शहरी निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी की सच्ची और जीवंत कथा कहते हैं. उनकी कथा यात्रा सतत और सुदीर्घ है. प्रेमचंद की तरह उनकी भी कहानियों की संख्या बहुत बड़ी है. अपनी कहानियों के माध्यम से वे अपने समय के मनुष्य, उसके परिवेश और उसकी नियति का समग्रबोध कराते हैं.

किसी सिद्धांत और आदर्श के दबाव में न आते हुए जनवादी और प्रगतिशील दृष्टि से वे कहानियों में आजीवन उत्तर भारत के शहरी यथार्थ को बड़ी आत्मीयता और कलात्मक परिपक्वता के साथ पुनर्रचित करते रहे. उनकी कहानियाँ रोजमर्रा के सेकुलर और खालिस जीवन को उपजीव्य बनाती हैं फिर भी उनमें मनुष्य के शाश्वत सरोकारों की कमी नहीं है. उन पर इतिहास का दबाव है और न ही पुराण का. उन पर किसी आदर्श समाज की कल्पना  या स्वप्न  को जमीन पर उतारने का भी दबाव नहीं है. इसलिए उनमें क्रांति की हड़बड़ी है और न ही पुनरुत्थान का मोह. फिर भी यथास्थितिवाद से वे सजग और अविराम संघर्ष करते रहे. सामयिक यथार्थ से किसी भी प्रकार का विचलन उन्हें स्वीकार नहीं. उनकी दृष्टि वर्तमान पर टिकी रहती है. वे न भावुकता में बहते हैं और न ही नीरस बुद्धिविलास में रुचि लेते हैं.

एक विशिष्ट वैचारिकी में अवस्थित होते हुए भी उन्होंने साहित्य को विचारधारा के प्रचार का माध्यम नहीं बनाया. एक निस्पृह-सी संलग्नता से वे अपने परिवेश के मनुष्यों के भीतरी और बाहरी सत्य को लौकिक-लीला के साक्षी-भाव से बिना नाटकीयता के रखते हैं. उनकी कोशिश यथार्थ को बिना क्षत-विक्षत किये कहने की रही है. लेकिन यथार्थवाद के नाम पर उनकी कहानियों में हिंसा और गाली-गलौच है और न ही जीवन की प्रकृत यथार्थवादी नग्नता. ‘अँधेरी दुनिया’ के यथार्थ से उनका अच्छा परिचय है लेकिन वे उस तरफ नहीं बढ़ते हैं. उनके कथा साहित्य में काफी डार्कनेश और निराशा के तत्व हैं लेकिन उनके पात्र अवसाद, निराशा और व्यक्तित्व विखंडन से बचे रहते हैं.

 

1.

किसान, कृषि मजदूर तथा जड़ और क्रूर जाति-संरचना के ग्रामीण यथार्थ की झलक उनकी कहानियों में मिलती है. उनकी कुछ कहानियाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि पर हैं. उनकी सहानुभूति ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में दबी जनता के साथ है फिर भी वे शब्द के सच्चे अर्थों में ग्राम कथाकार नहीं हैं. उन्होंने किसानों की समस्याओं पर बहुत कम लिखा है. इसी तरह शहरी मजदूरों-नौकरों पर भी उन्होंने कुछ यादगार कहानियाँ लिखी हैं लेकिन मजदूर वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति के बावजूद वे मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि कहानीकार नहीं हैं. किसानों की तरह ही औद्योगिक श्रमिकों की कारुणिक ज़िंदगी और जीवन-संघर्ष भी उनकी कहानियों का उपजीव्य नहीं है. इसका सम्भव कारण यह हो सकता है कि किसानों और मजदूरों के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव उनके पास कम रहा हो और वे सिद्धांत और विचार को आधार बनाकर कहानी लिखने वाले कथाकार तो थे नहीं. जो उनके परिवेश में प्रत्यक्ष था, जो उनके जीवनानुभव और निकट पर्यवेक्षण में था, उन्हीं को उन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया है. कोई छोटी-मोटी नौकरी करनेवाले, कम खर्च में गृहस्थी खींचनेवाले, किराए के मकान में रहनेवाले, कम आय वर्ग के शिक्षित व्यक्ति की संवेदना का केंद्र और सहानुभूति का विस्तार जहाँ तक हो सकता है, उनकी कहानियों का परिसर वहाँ तक फैला है. इसी वर्ग की समस्याओं, जिजीविषा तथा बेरंग और उदास जिंदगी को उन्होंने व्यंग्यभिने और निस्संग गद्यात्मकता में कथाबद्ध किया है. इसी वृत्त के इर्दगिर्द रहने वाले मलिन बस्तियों के लोग, भिखारी, घरेलू नौकर, बेघर मजदूर भी उनकी कहानियों में आये हैं.

इस निम्न मध्यवर्गीय दृष्टि-वृत्त में आनेवाली जनता न एक सुपरिभाषित वर्ग है और न ही एक श्रेणी. बुर्जुआ वर्ग की सापेक्षता में यह सर्वहारा जनता है. लेकिन यह भी पदानुक्रम में विभाजित है. बसावट और आय की उँची सीढ़ियाँ हैं, जाति और लिंग की श्रेणियाँ हैं. मोटेतौर पर यह साधारण शहरी जनता है. जिसे देखने की दृष्टि वर्गीय है. परंतु, अमरकांत इसके जातीय पक्ष को जरूरी कथ्य के रूप में सामने लाते हैं. जिस देश और काल के यथार्थ को वे अपनी कहानियों में पिरोते हैं वह जाति की रूढ़ संरचना से शापित है. फिर भी, उनकी समस्याओं को वे अस्मितावादी शैली में न देखकर वर्गीय शैली में देखते हैं. समाज को देखने का यह ढंग भारतीय प्रगतिशील आंदोलन के मेल में है.

जाति के सवाल को जिसने वर्ग के सवालों में शामिल समझा या फिर अस्मिताई शैली को सर्वहारा की राजनीतिक एकता के आड़े आने वाले तत्व के रुप में देखकर प्राथमिकता नहीं दी. परंतु, अमरकांत ने जहाँ जरूरी लगा है वहाँ जातिगत कारकों को रेखांकित किया है और जातिगत सामाजिक ढाँचे की समस्याग्रस्तता को निर्ममता से दिखाया किया है. उनका स्वर जाति विरोधी शैली और स्वर से भिन्न है. उनका स्वर अपने पूर्ववर्ती कथाकार प्रेमचंद से भी भिन्न और तरल है. लेकिन इतना तय है कि अमरकांत के यहाँ जातिव्यवस्था के प्रति न मोह है और न ही उसे न्यायोचित ठहराने की कोई बौद्धिक चालबाजी. इसके विपरीत वे जाति की विद्रूपता को यत्र-तत्र खोलते ही हैं. ‘कलाप्रेमी’ का सुबोध राय स्वयं उच्च जाति का है लेकिन वह उच्च जातियों की वर्चस्व और सत्ता की लालसा को सामाजिक जड़ता का कारण मानता है,

“जानते हो, सदियों से यहाँ समाज पर शासन कौन कर रहा है? बड़ी-बड़ी जातियों के सामंतवादी प्रवृत्तियों के लोग. आज भी इन्हीं जातियों का शासन है. क्या बात है, इन्हीं जातियों में ईश्वर के अवतार, धार्मिक संत, विद्वान, राजनीतिक नेता, लेखक-कलाकार आदि पैदा हुए?… ये परिवर्तन क्यों चाहेंगे?”

अमरकांत इस कटु सामाजिक सत्य को बराबर अपने ध्यान में रखते हैं और जातीय वर्चस्व के कारण निम्नजातीय जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को वे बार-बार कार्य-कारण के रूप में नहीं रखते हुए भी उपेक्षित नहीं करते हैं. उनकी शैली कथा के बीच या उसके बहाने वैचारिक वाद-विवाद और विमर्श आयोजित करने की कम रही है इसलिए उनकी भाषा तर्क-कर्कश और विमर्शी नहीं है.

उनके कई मध्यवर्गीय पात्र गरीब और फटेहाल लोगों से घृणा करते हैं क्योंकि उनकी नजर में ये देश पर बोझ हैं. ये कुछ करते नहीं केवल समाज की कृपा पर ज़िंदा रहते हैं. ऊपर से देखने पर यह भाव आधुनिक किस्म के वर्गीय श्रेष्ठताबोध और पूर्वग्रह का फल लगता है लेकिन अमरकांत बड़े धैर्य से इसमें छुपी प्रच्छन्न जातीय श्रेष्ठता की ग्रंथि को भी खोज लेते हैं. प्रकारांतर से वे भारतीय समाज को देखने के लिए जाति और वर्ग दोनों दृष्टियों की समान रूप से अपरिहार्यता को रेखांकित करते हैं. इस दृष्टि से ‘दो चरित्र’ बड़ी अर्थ-गर्भ कहानी है. इसके प्रमुख पात्र जनार्दन उच्चशिक्षित सरकारी अधिकारी हैं. हर प्रकार से सम्पन्न और खुशहाल हैं. पड़ोसी अर्जुन और मित्र कन्हाई से भिखमंगों पर चर्चा में वे कहते हैं,

“आप इन्हें भिखमंगा समझते हैं? अरे भाई, ये पूरे ठग हैं. ये ऊपर से गरीब दिखाई देते हैं, इनके घर जाइये तो पता चले. इनकी हमसे आपसे अच्छी हालत है.”

इसी समय एक लड़का भीख माँगते हुए आ पहुँचता है. जनार्दन भिखारियों के बारे में अपने सिद्धांत को मानो व्यावहारिक रूप से सिद्ध करने के एक अवसर की ताक में बैठे थे. पहले वे उसे कामचोर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं लेकिन जब वह उनके घर का नौकर बनने के लिए तैयार हो जाता है तो वे मानो अपने अनुभवसिद्ध सिद्धांत के टूटने से घायल हो जाते हैं. पुनः अपने को सही सिद्ध करने के लिए कुछ काम लेकर वे उसे अकारण पीटकर भगा देते हैं. और तर्क देते हैं,

“साला एकदम चोर मालूम पड़ता है. बार-बार सिर उचकाकर घर के भीतर देखता है. साले ने अपने घर का अता-पता भी तो नहीं बताया. जाति-वाति का भी कोई ठिकाना नहीं.”

जनार्दन मूलतः वर्गीय ग्रंथि का शिकार है लेकिन वह जाति के तर्क को अपने पूर्वग्रह को सिद्ध करने के लिए करता है. इस तरह अमरकांत वर्गीय दृष्टिकोण के जातिगत आधार को दृष्टिगत रखते हैं.

इस लेख में आगे ऐसे और कई उदाहरण देखने में आएँगे जहाँ जाति के कारण कोई अच्छी स्थिति में तो कोई बुरी स्थिति में है, कोई शोषित होता है तो कोई शोषण करता दिखता है. फिलहाल यहाँ एक उदाहरण देखते हैं. ‘शक्तिशाली’ कहानी की शुरुआत में ही वे नरेन के बारे में बताते हैं–

“वह एक ऊँची जाति और अच्छे खाते-पीते कुटुंब में पैदा हुआ था और जवान होने पर उसको एक अच्छी सरकारी नौकरी तथा पढ़ी-लिखी और वफादार बीवी भी मिल गयी थी.”

इसलिए ‘उसकी जिंदगी सुख तथा आनंद से बीत रही थी.’ इसके विपरीत ‘कुहासा’ के दूबर की ज़िंदगी है, जो गाँव की एक ‘चमरटोली’ में पैदा हुआ. उसका न बचपन सही से बीता और न ही शिक्षा मिली. जब बड़ा हुआ तो उसके बाप ने उसे खिलाने-पिलाने में स्वयं को असमर्थ पाकर एक दिन उसको यह कहते हुए मारकर घर से निकाल दिया कि –

“जहाँ मन हो, जाकर मुँह पिटा, जैसे चाहे अपना गड्ढा भर. गाँव के कई लड़के शहर में रिक्शा चलाकर पैसा पीट रहे हैं, घर-परिवार चला रहे हैं, यह सूअर है कि जांगरचोरी कर रहा है..?”

 नरेन और दूबर की जिंदगियों के बीच का फासला उनकी जातियों के बीच के फासले की तार्किक और नियतिबद्ध परिणति है. नरेन की ज़िंदगी जहाँ सुख से गुजरती है वहीं दूबर शहर में रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित भूख और ठंढ से एक रात अकाल काल कवलित हो जाता है. अमरकांत वर्ग के इस फासले को जाति के फासले से निःसृत दिखाते हैं. इस तरह वे वर्ग और जाति में कार्यकारण सम्बन्ध देखते हैं और वर्ग के साथ-साथ जाति को भी ध्यान में रखते हैं.

स्पष्ट है, अपनी कहानियों में आमतौर पर वे जाति को ही वर्ग के निर्धारक कारक के रूप में देखते हैं. लेकिन वे इसे यांत्रिक रूप से लागू न करके इसके परे भी जाते हैं और श्रमशील और वंचित वर्ग में उच्च और निम्न सभी जातियों के लोगों को दिखाते हैं. ‘दलील’ में विनय की रिक्शेवाले से बातचीत का एक अंश रिक्शेवाले की जाति और पेशे पर केंद्रित रहता है. वह अपनी जाति बताते हुए कहता है,

“बाबूजी, हम लोगों को गोसाईं बोलते हैं. हमारे लोग किसी की नौकरी-चाकरी, मजदूरी-गुलामी नहीं करते, उसे ओछा समझा जाता है. हम ईश्वर की संतान हैं, ऋषि-मुनि के वंश हैं, हमारे लोग दुआ-आशीर्वाद बाँटते हुए मांगते-खाते हैं.”

विनय ने निष्कर्ष निकाला कि यह यह भिखमंगों की किसी जाति का है इसलिए भाड़े के लिए ज्यादा चिकचिक नहीं करेगा–

“अपनी जाति की विशेषता इस व्यक्ति में अब भी होगी और इसे जो भी दिया जाएगा, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेगा.”

‘प्रैक्टिस’ में मलिन बस्ती में रहनेवाले जिस जरायमपेशा दयाल को डराकर वकील बिहारीलाल पैसे ऐंठते हैं, वह ‘जनेऊ की कसम’ खाता है. वे दिखाते हैं कि जाति अंततः वर्ग के समानांतर हो, यह जरूरी नहीं है. ऐसे पात्रों के माध्यम से वे यह भी दिखाते हैं कि वर्गीय दृष्टि से निम्न होने के बाद भी इनके मानस में जाति श्रेष्ठता के तत्व बने रहते हैं.

 

2.

अमरकांत की कहानियों में भूख बहुत व्यापक समस्या के रूप में दर्ज होती है. उनके पात्र जिस वर्ग से आते हैं उसके लोगों की ज़िंदगी की लड़ाई रोटी, कपड़ा और मकान की ही है. पर बहुत-से पात्र न कपड़े की सोच पाते हैं और न ही मकान की बल्कि वे अभी पेट की आग में तप रहे हैं. भूख से ऊपर अभी उठ ही नहीं पाए हैं. ‘दोपहर का भोजन’ भूख की समस्या पर आधारित एक कालजयी कहानी के रूप में तो विख्यात है ही. इसके अतिरिक्त भूख पर इससे भी अधिक लोमहर्षक कहानियाँ अमरकांत सुनाते हैं. ‘घर’, ‘तंदुरुस्ती का रोग’, ‘कुहासा’, ‘अमेरिका की यात्रा’ और ‘निर्वासित’ जैसी कहानियाँ भूख के विरुद्ध आम आदमी की समरगाथा हैं.

जाहिर है, भूख और भुखमरी वर्गीय समस्याएँ हैं. लेकिन, ऐतिहासिक परिस्थितियों में ये अधिकांश भारतवासियों की समस्या रही हैं. अमरकांत की कथा-यात्रा भारत के औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने के ठीक बाद की समयावधि में शुरू होती है. उस समय सद्यः स्वाधीन भारत भूख से जूझ रहा था. अन्न उत्पादन में देश आत्मनिर्भर नहीं था. इसके आर्थिक आँकड़े और ऐतिहासिक कारण बहुत स्पष्ट हैं. फिर भी यह कहना जरूरी है कि उस समय भुखमरी थोड़े से लोगों को छोड़कर कमोबेश पूरे भारत की समस्या थी. इसलिए अमरकांत की कहानियों में भूख की समस्या केवल समाज के निचले पायदान पर फँसे लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उससे भी अधिक व्यापक है. क्षुधाताप में केवल उनके गरीब पात्र ही नहीं झुलसते हैं बल्कि अमरकांत इसे केवल गरीब आदमी के अनुभव से खींचकर मानवमात्र के अनुभव और संघर्ष में रखते हैं.

‘अमेरिका की यात्रा’ एक ऐसे युवक की कहानी है जिसकी चुनौती भूख नहीं, महानता अर्जित करने का फितूर है. उसके लिये भूख का मतलब खाना खाने से पहले की भूख है. भूख उसके जीवन का सतत नहीं बल्कि एक दुर्घटनावश हुआ अनुभव है. वह ‘महान’ बनना चाहता है. उसे समझ में आया कि अमेरिका ही वह देश है जहाँ महानता सहजप्राप्य है. इसलिए वह बिना संसाधन के एक दिन घर से निकल पड़ता है. ट्रेन में बिना टिकट बैठा था सो रास्ते में टीटी उसे ट्रेन से उतार देता है. रात स्टेशन पर बीतती है. किसी और ट्रेन से अगले दिन वह इलाहाबाद पहुँचता है. वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उसके रोमानी ख्याल ज़िंदगी के कटु यथार्थ की तपिश में झुलस जाते हैं. फलतः अमेरिका-यात्रा को स्थगित करके वह कोई नौकरी खोजने लगता है ताकि भोजन और आश्रय का प्रबंध कर सके. जठराग्नि में जलता वह भटकते हुए एक मिठाई की दुकान पर इसी उद्देश्य से जाता है. वहाँ एक मजदूर कुछ खा रहा था. उसके हाथ से एक टुकड़ा जमीन पर गिर जाता है. वह उसे खाने की सोचता है. पर मजदूर स्वयं भूख से मुतमईन नहीं हो पाया था. सो उसने टुकड़े को ज़मीन से उठाकर खा लिया. अमरकांत एक सधी और सादी भाषा में इस दृश्य को यूँ रखते हैं–

“खाने के समय एक लंबा टुकड़ा जमीन पर गिर गया था. न मालूम कैसे मेरे दिमाग में यह विचार आया कि मजदूर के चले जाने पर मैं सबकी आँखें बचाकर उस टुकड़े को सफाई से मुँह में डाल लूँगा. किंतु मज़दूर मुझसे अधिक चालाक था. दोना साफ करने के बाद उसने जमीन पर गिरे टुकड़े को उठाकर गले सरका लिया और फिर चलता बना.”

ऐसे ही ‘घर’ कहानी का एमए पास बेरोजगार युवक विनय एक दिन भूख से तड़प उठता है. बाप ने उसे गुस्से में घर से जाने के लिए कहा तो वह सायकिल लेकर बिना कुछ खाये-पिये निकल पड़ा. माँ रोकती रही थी कि कुछ खाकर जाओ. धूप से बचने के लिए वह एक पार्क में निरुद्देश्य बैठ गया. उसे भूख लगी तो पानी से पेट भरने लगा. लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब पानी पचना बन्द हो गया,

“खाली पेट पानी पीने के बाद उसे उबकाई आने लगी, जैसे सारा पानी मुँह के रास्ते निकल जायेगा. वह एक ओर बैठकर ‘ओ ओ’ करने लगा. उसकी आँखों और नाक से तेजी से पानी गिरने लगा, लेकिन मुँह से कुछ भी न निकला, लगा उसका कलेजा उखड़कर बाहर आ जायेगा.”

ऐसे ही ‘दोपहर का भोजन’ की सिद्धेश्वरी भी खाली पेट पानी लगने से दैहिक कष्ट भोगती है. विनय आर्थिक रूप से असुरक्षित परिवार का एक बेरोजगार युवक था फिर भी परिवार भुखमरी का शिकार नहीं था. उसे भी ‘अमेरिका की यात्रा’ के पात्र की तरह आकस्मिक रूप से भूख से मुठभेड़ करनी पड़ती है. लेकिन, भूख तो भूख है. उसका एक बार का अनुभव भी मारक होता है. अमरकांत के जो पात्र रोज इसे झेलने के लिए अभिशप्त हैं, उनके कष्ट और मन:स्थिति की कल्पना की जा सकती है. अमरकांत ऐसे पात्रों के भूखमय जीवन की बड़ी मार्मिक कथा रचते हैं.

फिर भी, अमरकांत के यहाँ क्षुधातुरता जीवन के शाश्वत अनुभव के रुप में नहीं बल्कि निर्धनता और साधनहीनता की परिस्थितियों में फँसे मनुष्यों का जीवनानुभव है. यह भूख भोजन मिलने में देरी के अनुभव से भिन्न है. यह आहार न पाने की सतत निराशा और विपन्नता बोध से टूटे मनुष्यों के जीवन संकट के रूप में दर्ज होती है.  उनके यहाँ भूख किसी समाज की विपन्नता, विषमता और राजनीतिक कुव्यवस्था के कारण उपजी महामारी की तरह आक्षितिज व्याप्त है.

 

3.

अमरकान्त के यहाँ भूख से लड़ते ज्यादातर पुरुष पात्र दिखते हैं जबकि तत्कालीन यथार्थ परिवेश में भूख से सबसे ज्यादा स्त्रियाँ पीड़ित होती हैं. वे घर के पुरुषों को पहले खिला देती हैं. यदि कुछ भोजन बच जाता है तो वे उसी से अपना काम चला लेती हैं, नहीं तो भूखे ही पड़ रहती हैं. अवधी भाषा के एक लोकगीत में महिलाओं की यह त्रासदी ऐसे मुखरित हुई है–

नउमन कुटना अ नउमन पिसना,
नउमन सिझऊँ रसोइया हो राम.
पछिली टिकरिया भइया मोर भोजनवा,
ओहू माँ देवरा क कलेवना हो राम.

(इसका अर्थ यह है कि मैं ढेर सारा धान कूटती हूँ, ढेर सारा आटा पीसती हूँ, ढेर सारा खाना बनाती हूँ फिर भी मेरा भोजन तो वह आखिरी रोटी होती है जो खाने योग्य नहीं होती है. इसमें भी आधी देवर के लिए बासी रखनी पड़ती है.)

पुरुषों के पक्ष में स्त्रियों के भोजन में कटौती गरीबी और पितृसत्ता दोनों के संगम से उपजी आचार संहिता है. लड़कियों को बचपन से ही लड़कों के लिए उनके पोषण में कटौती का भेदभाव सहने की आदत लगवाई जाती है. विवाह के बाद तो यह दाम्पत्य और गृहिणी धर्म में स्त्री निष्ठा का मानदंड बन जाती है. अभाव और गरीबी में अंकुरित मूल्य गरीबी बीतने के बाद भी व्यतीत नहीं होते हैं. इस वजह से अब भी देखने में आता है कि खाते-पीते घरों में स्वादिष्ट भोजन बनने पर पुरुष अधिक खा जाते हैं फलतः महिलाओं के लिए भोजन कम पड़ जाता है या नहीं बचता है. रच-रचकर जिस व्यंजन को बनाया वही स्त्री को न मिले; तो यह किसी को पता चले न चले,  स्वयं स्त्री को अखरता ही है. उक्त अवधी गीत इसी भाव को प्रकट करता है. स्त्री को भले ही यह संतोष हो कि खाया तो उसके ही पति और बच्चों ने ही, लेकिन इस संतोष से उसका शरीर नहीं चल सकता है.

ऐसे प्रसंगों में वह कुछ न बोले, इसके लिए मर्यादाएँ खड़ी की गयी हैं जबकि पति को भोजन न मिले तो वह पत्नी पर हाथ उठा सकता है. अंधाधुंध बिषबुझे वाक् वाण चला सकता है. ‘तंदुरुस्ती का रोग’ के पति को शक होता है कि पत्नी बच्चों को खूब खिलाती है जबकि उसे भरपेट भोजन नहीं देती है. उसे बच्चों को खाते देख लालच आती है. फिर वह पत्नी को अपने व्यंग्य बाणों से बेधता है. ‘निर्वासित’ में अकाल की परिस्थिति है सो पेट के लिए आक्रामक संघर्ष होता है. बीमार पति पत्नी के दिल और निष्ठा को लगातार आहत करता है. लंबे समय से अपने को जब्त करती पत्नी जब उसी की भाषा में जवाब दे देती है तो पति उसका कभी मुँह तक न देखने की कसम खाकर गृहत्याग देता है. अमरकांत आगे पुरुष का पूरा संघर्ष तो दिखाते हैं जबकि स्त्री की कहानी अंत में बस एक संक्षिप्त शोक-समाचार के रूप में आती है. पुरुष का संघर्ष आख्यान और स्त्री का संघर्ष मात्र शोक-समाचार! बहरहाल. अमरकांत के यहाँ प्रायः गरीबी के कारण महिलाएँ समाज समर्थित कुपोषण का शिकार होती दिखती हैं परंतु सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में प्रचलित पितृसत्तात्मक नैतिकता की छायाएँ स्वतः प्रकट होकर पूरी समस्या की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति करती हैं.

‘दोपहर का भोजन’ की सिद्धेश्वरी, ‘निर्वासित’ की पत्नी और ‘शाम’ की लता जैसे पात्रों के माध्यम से अमरकांत पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के भूख का सवाल बड़ी सफाई से उठाया है. तीनों स्त्रियाँ अपने पेट काटकर पति और बच्चों के पेट भरती हैं. सिद्धेश्वरी के परिवार के सदस्य यह जानते हैं कि गृहस्वामी की नौकरी जाने के बाद आजकल घर में खाना बहुत कम रहने लगा है इसलिए वे दूसरे के लिए खाना बचाकर खाते हैं. सभी अभिनय करते हैं मानो उन्हें खाना खाने से ऊब हो गयी है या भूख नहीं है, इसलिए थोड़ा ही खाते हैं. फिर भी दोनों बेटों और पति को खिलाने के बाद सिद्धेश्वरी जब बची हुई आखिरी एक रोटी को थोड़ी सब्ज़ी और दाल के साथ खाने बैठती है तो उसे सामने खटोले पर लेटे रुग्ण बच्चे के खाने की चिंता सताती है. वह आधी रोटी उसके लिए बचा लेती है और आधी से ही संतोष कर लेती है. वह अवधी लोकगीत देहात से निकलकर शहरी परिवेश में भी सार्थक बन जाता है. लेकिन ऐसी पारस्परिक संवेदना और सरोकारी भाव अन्यत्र कम दिखाई देते हैं. ज्यादातर पुरुष इसकी परवाह भी नहीं करते हैं कि पत्नी को भोजन मिल रहा है या नहीं. इसलिए जब सब्र का बाँध टूट जाता है तो स्त्रियाँ अपने दुख को झगड़े में प्रकट करती हैं. ‘शाम’ की लता पति से झगड़ते हुए कहती है,

“खुद उपवास करती हूँ, पर सबके सामने दो रोटी रखने की कोशिश करती हूँ.”

ऐसी कहानियों में अमरकांत ने भूख से लड़ते परिवार में स्त्री के हिस्से पड़ते सबसे अधिक कष्ट को दर्ज किया है.

भूख के कष्ट के साथ स्त्रियों को पुरुषवादी मानस जन्य मानसिक यंत्रणा को भी सहना पड़ता है. ‘निर्वासित’ में भुखमरी की स्थिति में स्त्री के कष्ट में पति-संदेह और पुरुष अहं की अच्छी पड़ताल की गयी है. अपने प्रति पति का किसी भी प्रकार का अविश्वास एक पतिव्रता स्त्री के लिए सबसे बड़ा कष्ट होता है. पति को लगता है कि वह अपना पेट तो भर लेती है लेकिन उसे खाना नहीं देती. अकाल से एक खाता-पीता खुशहाल सीमांत किसान परिवार भी भुखमरी का शिकार हो जाता है. पत्नी गाँव के बाबू साहबों के यहाँ कुछ काम करती है तो कुछ खाने को मिलता है. लेकिन इससे काम नहीं चलता. पति बीमार पड़ जाता है तो उसे भूख और भी अधिक सताने लगती है. पत्नी से खाना माँगता है. एक दिन गुस्से में कह पड़ता है कि अपने तो चोरी-चोरी गड्ढा भर लेती हो, मुझे पूछती भी नहीं हो. स्वाभाविक रूप से पत्नी को यह बात लग जाती है. वह खुद को शारीरिक और पति को भावनात्मक चोट देती है.

जली-कटी और अपमानजनक बातें सुनकर पति आत्महत्या के इरादे से आधी रात घर से निकल जाता है. लेकिन अंततः वह जिस ट्रेन से कटकर मरने गया था उसी पर बैठकर शहर चला जाता है. वहाँ वह किसी तरह से भुखमरी से अपने को शारीरिक और आर्थिक रूप से खड़ा करता है. बहुत दिनों बाद किसी भद्र स्त्री के समझाने पर पत्नी और बच्चों की खबर लेता है. उसके पास एक चिट्ठी के साथ सौ रुपये मनीऑर्डर भेजता है. बदले में उसका भाई आता है. उससे पता चलता है कि उसके गृहत्याग के बाद पत्नी अपराधबोध से बिस्तर पकड़ लेती है और पहले से ही भूख से जर्जर उसका शरीर इस कष्ट को सह नहीं पाता है. पत्नी की मृत्यु के बाद वह दुखी होता है. यह कहानी अकाल और भूख के संकट में मानवीयता और संबंधों के क्षरण की कहानी है. यह अकाल जैसी भीषण स्थिति में भी पुरुष अहं और स्त्री के प्रति उसके क्रूरतम अविश्वास भाव की भी कहानी है. अमरकान्त अपनी कहानियों के माध्यम से दिखाते हैं कि आपदा और भुखमरी की असामान्य स्थिति में स्त्री के पल्ले सबसे अधिक दुख पड़ता है और पुरुष इस अकाल बेला में भी अहं और पुंसाभिमान से ऊपर नहीं उठ पाता है.

भूख आदमी को मानवीय गरिमा से च्युत करती है. अकाल में लोग संतानें बेचते हैं. जिन्हें पेट काटकर पालते हैं उन्हीं के निवालों पर आँखें गड़ाने लगते हैं. प्रेमचंद के यहाँ ऐसे अमानवीकृत लोग घीसू-माधव बन जाते हैं. भूख से होने वाली मृत्यु सबसे यातनादायी होती है. इसमें यातना की लंबी सड़क से गुजरना पड़ता है. जहाँ कदम-कदम पर मनुष्य को अपनी मानवीयता, जीवन मूल्य और संवेदना से वंचित होने की नैतिक ग्लानि का कष्ट फोकट में मिलता है. विनय के जमीन से जूठन उठाकर खाने तक के आत्मसंघर्ष का प्रकरण हमने अभी देखा. ‘कुहासा’ के दूबर की कहानी और भी अधिक विचलित करने वाली है. गाँव से भागकर वह शहर आता है. जहाँ लेबर चौराहे पर खड़े होकर काम का इंतज़ार करता है. एक बाबू साहब के यहाँ उसे पहली मजदूरी मिलती है. उसे रात में पोते के जन्मदिन के भोज से फैली गंदगी की सफाई करने का काम मिलता है. कुछ पैसे के साथ- साथ उसे भरपेट भोजन का भी आश्वासन मिला था. बाबू साहब के घर जाते समय ‘भूख के मारे दूबर से चला नहीं जाता था’ फिर भी पाँच घंटे काम करने के बाद जब वह अधमरा हो गया तो उसे बासी खाना मिला, जिसमें –

“लकड़ी की तरह कड़ी पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ, कोंहड़े की बासी महकती सब्ज़ी, पुलाव की भुरकनी और ढेर सारी मीठी चटनी लेकिन दही बड़े और बूँदियाँ नदारद.”

बूँदी और दही बड़े का भी आश्वासन बाबू साहब ने दिया था लेकिन उसे दिया नहीं. लेखक भूला नहीं. यह बताना जरूरी समझा कि जिन व्यंजनों का लालच दिया गया था, वह भी नहीं दिया गया. ऊपर से बाबू साहब के एहसान-अपमान के कुबोल– ‘ले ससुर, डटकर खा. बेटा ऐसा खाना तुम्हारे सात पुश्तों ने न खाया होगा.’ भूख ने दूबर को इतना ‘दूबर’ और स्वाभिमान रहित बना दिया था कि वह प्रतिकार के बजाय – ‘खाने पर कुत्ते की तरह टूट पड़ा.’

‘दूबर’ सौभाग्यशाली सिद्ध होता है कि उसे बहुत दिनों बाद बासी ही सही, भरपेट भोजन तो मिल गया. लेकिन, ‘निर्वासित’ का गाँव अकाल विभीषिका में फँसा है. किसान-मजदूर लोगों के पास अनाज के दाने नहीं हैं. अकाल और भुखमरी की भयावह स्थिति है–

“सबके चेहरे सूख गये. गाल पिचक गये. आँखें काले गड़हों में धँस गयीं. बच्चों में इतनी ताकत नहीं रह गयी थी कि वे रो सकें. लोग-बाग गाँव छोड़कर भागने लगे. जो बचे वे घास-पात की जड़ों को उखाड़-उखाड़कर खाने लगे. कुछ नहीं मिलता तो पेड़ के पत्तों का काढ़ा बनाकर पी जाते. डर, तकलीफ़, और कमजोरी से कोई भी दूसरों से न बोलता था और न एक दूसरे की ओर देखता ही था. दिन में स्यार और कुत्ते डहक-डहककर रोने लगे….”

‘दूबर’ की तरह सभी पात्र भूख से शांतिपूर्ण संघर्ष ही करते हैं. पर कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो चोरी के रास्ते पर बढ़ जाते हैं. ‘फर्क’ का लड़का पुलिस को बताता है कि ‘जब भूख बर्दाश्त नहीं होती तो’ वह लोगों के घरों में घुसकर खा-पीकर निकल जाता है. खाने की सामग्री न मिलने पर ही हल्के-फुल्के सामान चुराता है और उन्हें बेचकर खाने का जुगाड़ करता है. कहानीकार ने यह दिखाया है कि थाने में जुटी भीड़ उसकी बात पर भरोसा नहीं करती है और –

“एक जबरदस्त नैतिक आक्रोश से उबल रही थी. घृणा और गुस्से से लोगों के मुँह सिकुड़ गए थे और खीसें निकल आयी थीं.”

भूख की दिगंत व्यापी समस्या में फँसे लोग भी एक भूखे लड़के को दुनिया का सबसे बड़ा संकट समझकर उसे दंडित करने की माँग करते हैं. उस भीड़ में कोई ऐसा नहीं निकलता है जो उसके साथ सहानुभूति जताता, उसकी बातों पर भरोसा करता! अमरकांत ने कहानी में यह अंश जोड़कर लोगों की सामूहिक संवेदनहीनता और मूर्खता को रेखांकित किया है. ये लोग ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ के यथार्थ को जीते हैं जबकि मामूली लोगों को सबसे बड़ी समस्या समझते हैं. इस कहानी के माध्यम से वे भूख जैसी राष्ट्रीय समस्या पर लोगों की दृष्टिहीनता को भी उघाड़ देते हैं.

इसके विपरीत, ‘काली छाया’ में देश में व्याप्त भुखमरी की समस्या का जिक्र लोगों के हृदय को तरल बना देता है. अपनी प्रेमिका से रात अंधेरे मिलने आये युवक को गाँव ने चोर समझकर मार-पीटकर  एक पेड़ से बाँध दिया था. लेकिन सुबह जब लोगों ने उसे देखा, अपने बचाव में कही उसकी बातों को सुना तो सबके विचार बदलने लगे. एक व्यक्ति ने कहा, ‘देश के लोग भूखों मर रहे हैं.’ फिर कथाकार भीड़ पर इस वाक्य के प्रभाव को रेखांकित करते हुए अपनी ओर से कहता है,

“इस अंतिम वाक्य का सभी पर बहुत गहरा असर पड़ा और कुछ लोगों ने दया, परोपकार आदि भावनाओं से उत्साहित होकर उसकी रस्सी खोल दी.”

जाहिर है, इस प्रसंग में भुखमरी ने लोगों की मानवता और बंधुता के भावों को जगाया है. अमानवीय होने के बजाय मानवीय बनने के साझे भाव का अनुभव कराया है. ‘फर्क’ में जहाँ लोग चोर को देखकर देश में ‘तानाशाही’ कायम करने का दुर्भाग्यपूर्ण और क्रूर विचार प्रकट करते हैं वहीं ‘काली छाया’ भुखमरी की समस्या के बीच लोगों को मानवीय बनाती है.

यहाँ यह भी देख लेना चाहिए कि जो लोग गरीबों को केवल रोटी, कपड़ा और मकान में फँसे समझते हैं और यह मानकर चलते हैं कि देश-दुनिया के भावों और विचारों से उन्हें क्या लेना-देना. यह तो शिक्षित लोगों का शगल है. उन्हें यह देखना चाहिए कि भूख और बदहाली में फँसे लोगों में भी एक ऐसी चेतना है जो ‘नून, तेल, लकड़ी’ से ऊपर उठकर देश-दुनिया से सरोकर रखती है. उन मुद्दों को अपने आत्मबोध का अंश मानती है. इसलिए इस देश की साधारण जनता को केवल आर्थिक कल्याण की बातें ही नहीं बल्कि राष्ट्र और समाज के भावनात्मक मुद्दे भी आकर्षित करते हैं; अमरकांत यह स्मरण कराते हैं.

 

4.

तत्कालीन उत्तर भारतीय निम्न वर्गीय शहरी जनसंख्या की आर्थिक बदहाली, नैतिक संकट और जिजीविषा का सबसे बड़ा संवेदी सूचकांक भूख ही हो सकती थी. इसलिए अमरकांत ने भूख को एक तरह से केंद्रीय सूचकांक के रूप में रखा है. लेकिन कपड़ा और मकान भी ऐसे ही बुनियादी सूचकांक हैं. ‘कुहासा’ का दूबर कपड़े की कमी की वजह से एक रात ठंढ से ठंढा पड़ जाता है. अमरकांत निम्नवर्गीय लोगों के कपड़े की समस्या को लगातार उठाते हैं. पात्रों का परिचय देते हुए वे प्रायः उनके पहनावे के चित्र जरूर खींचते हैं. ‘फ़र्क’ का लड़का ‘एक गन्दा खाकी पैंट पहने था. कमीज़ भी गंदी और फटी थी.’ ‘काली छाया’ की लड़की ‘मैली कुचैली साड़ी’ पहनकर सोई हुई थी जबकि उसका प्रेमी ‘कत्थई रंग की लुंगी और फटी बनियान’ में चोरी से उससे मिलने आया था. ‘दो चरित्र’ के भिखमंगे लड़के के ‘शरीर पर एक लंगोटा और फटी बनियाइन’ और सिर पर ‘एक फटा-पुराना अँगोछा’ लिपटा हुआ था. ‘प्रैक्टिस’ के वकील साहब बिहारीलाल जब जरायमपेशा इलाके में कुछ पैसे झटकने के लिए निकले तो ‘उन्होंने झोल और सिकुड़नोंवाली वही शेरवानी पहन रखी थी, जो कचहरी भर में कुख्यात थी.’ शेरवानी की हालत बिहारीलाल की आर्थिक हालत की सबसे विश्वसनीय संकेतक है. यानी अमरकांत अपने पात्रों के पहनावे से उनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत बताते चलते हैं. ‘जनशत्रु’ में वे कहते भी हैं– ‘मैले-कुचैले वस्त्रों में साधारण लोगों की उस भीड़ को देखकर मुहल्ले की वास्तविक परिस्थितियों का अन्दाजा हो जाता था.’

इसी तरह मुहल्ले और मकान भी उनके निम्नवर्गीय पात्रों की हैसियत बताते हैं. ‘मकान’ और ‘घर’ नाम से तो उन्होंने दो कहानियाँ भी लिखी हैं. इसके अलावा मलिन बस्तियों और उसके मलिन और जर्जर मकानों की छवि वे बार-बार उकेरते हैं. उनकी कितनी ही कहानियों में ऐसे या इससे मिलते-जुलते चित्रण दिख जाते हैं,

“नालियों की दुर्गंध, कूड़े, कचरे तथा अन्य कई प्रकार की गन्धों के साथ मिलकर उनकी नाक और दिमाग में तेजी से प्रवेश कर गयी थी, जिसको निकालने के लिए उन्होंने अपने नथुनों को दो-तीन बार फटकारा. उस गली में एक विशेष सतर्कता बरतनी पड़ रही थी, जिसके मार्ग का कीचड़ लोगों के आने-जाने से लपसी की तरह फैल गया था. दोनों ओर खपड़ैल के पुराने, जर्जर मकान.”

पोती की शादी सम्पन्न होने के बाद ‘उनका आना और जाना’ के गोपालदास के ‘सामने एक जीर्ण-शीर्ण मकान उभर’ आता है. यह उनका ही मकान था जहाँ वे लौट आने के लिए व्याकुल हो उठे थे. जिसे छोड़कर वे कहीं आना-जाना पसंद नहीं करते थे. भूतपूर्व कवि आत्मानंद ‘बस्ती’ कहानी लिखने के ‘समय एक सीलन भरे बदबूदार मकान में रहता था. जहाँ चौबीसों घंटे अंधेरा रहता था.’ ऊपर से मकान मालिक का संवेदनहीन व्यवहार. किराया मिलने में जरा भी देर होती तो वह बिजली का तार काट देता. आत्मानंद के पास यह सब सहने के अलावा कोई और उपाय नहीं था. कथाकार बताता है कि उसकी तरह ‘शहर में और भी बहुत से लोग ऐसी ही ज़िंदगी व्यतीत कर रहे थे.’ गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता रामलाल के शब्दों में ऐसे लोगों की ज़िंदगी ‘क्या गुलामों से बदतर नहीं है?’ यहाँ अमरकांत ने इस एक वाक्य के माध्यम से उन तमाम शहरी लोगों के आवासीय संकट की ओर ध्यान खींचा है जो अपना मकान नहीं बना सकते और किराए के गंदे मकानों में रहते हैं. ‘नून-तेल-लकड़ी’ का इंतजाम करने में ही वे चुक जाते हैं इसलिए कोई अच्छा मकान किराए पर नहीं ले पाते.

रामलाल मकान के संकट से जूझ रहे तमाम घरविहीन लोगों को जोड़कर दो साल तक आन्दोलन चलाते हैं. जिसके फलस्वरूप सरकार इन लोगों के लिए एक नयी बस्ती बनाती है. रामलाल बस्ती के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यह बस्ती हमारी ‘न्यायसंगत आकांक्षाओं की प्रतिमा है.’ ‘बस्ती’ अमरकांत की उन गिनी-चुनी कहानियों में है जिन्हें आदर्शवादी कहा जा सकता है. लेकिन यह कहानी जिस यथार्थ को सामने लाती है, वह बहुत विश्वसनीय और प्रामाणिक है. यथार्थ में ऐसी बस्तियाँ भले ही नहीं बसायी जाती हैं लेकिन इसने शहरी घरविहीन परिवारों के जीवन-संघर्षों और एक अच्छे मकान की उनकी ‘न्यायसंगत आकांक्षाओं’ की एक ‘बस्ती’ का आदर्श जरूर स्थापित किया है. यह आदर्श उस देशकाल में और भी प्रेरक है, जहाँ निजी मकान नहीं बल्कि किराये का मकान भी एक सपना-सम लगता है.

‘मकान’ का मनोहर दुखी होकर कहता है,

“वस्तुत: एक साधारण आदमी को मकान के बारे में मकान के बारे में सोचने का अधिकार नहीं है.”

अमरकांत मकान की ‘न्यायसंगत’ जरूरत और जीवन में उसके महत्त्व को स्थापित करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने मनोहर से कहलवाया है,

“मकान सर्दी-गर्मी, आँधी-पानी, ओला-पत्थर से रक्षा करता है कि नहीं? मकान एक छाया देता है, जिसके नीचे इंसान सुख के साथ सो सकता है. मकान में रहकर हमें गर्व होता है कि हमारा भी कोई अस्तित्व है. मकान आदमी का हँसाता है, संतोष देता है, उसमें जोश भरता है, उसको ऊँचा उठाता है, उसको आगे बढ़ाता है. ऐसे ही हँसते हुए मकान में आदमी रहना चाहता है.”

असल में, अमरकांत की ‘बस्ती’ नामक कहानी एक साफ-सुथरी बस्ती और उसमें साफ-सुथरे मकानों में रहने की आम आदमी के स्वप्न की काल्पनिक बस्ती है. यथार्थ में तो आम आदमी के लिए ऐसी बस्ती एक हकीकत से अधिक एक फसाना है. मकान की समस्या अमरकांत के चेतन और अवचेतन मानस में इतनी रची-बसी हुई है कि वह विषय के साथ-साथ उपमान की तरह भी आ जाती है. ‘घर’ के विनय के दिल को वे ‘एक जर्जर मकान की तरह बैठ’ता हुआ दिखाते हैं.

जो रोटी, कपड़ा, और मकान तीनों से वंचित हैं, अमरकांत उनकी कहानी इत्मीनान और संलग्नता से सुनाते हैं. अगर अमरकांत न होते तो भूखे, बेघर, और अर्धनग्न जनता के ऐसे प्रामाणिक और यथार्थवादी चित्र कथा साहित्य में कम ही देखने को मिलते. ‘जिंदगी और जोंक’ जैसी कहानी उस दौर में अमरकांत के अलावा और कौन लिख सकता था! ‘कुहासा’ की चर्चा न जाने क्यों कम हुई है, लेकिन निम्नवर्गीय मानव के इर्दगिर्द छल और शोषण के दुष्चक्र और उसमें फँसे मनुष्य के अभाव और जीवन के लिए संघर्ष की त्रासदी की उसके जैसी कहानियाँ विरल हैं.

विनोद कुमार शुक्ल ने अपने समय के बारे में शिकायत की है,

“यह ऐसा गरीब समय है, जिसमें गरीबी मुद्दा नहीं. यह ऐसी भुखमरी का समय है जिसमें पेट भरना कोई मुद्दा नहीं बनता.”

अमरकांत ने अपनी कहानियों के माध्यम से देश की अधिकांश आबादी की गरीबी और भुखमरी को मुद्दा बनाया. साहित्य सबको रोटी, कपड़ा और मकान नहीं दे सकता लेकिन उसकी उत्कट जरूरत का नैतिक बोध तो करा ही सकता है. अपनी कहानियों के माध्यम से अमरकांत ने यह बोध कराया है और विनोद कुमार शुक्ल ने जिस ‘गरीब समय’ और ‘भुखमरी का समय’ की शिकायत की है, उसे भी दूर किया है.

जनता रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई शिक्षा और रोजगार से जीत सकती है; एक सिद्धांत के रूप में अमरकांत इसे मिथ साबित करते हैं. स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ शिक्षित बेरोजगारी भी बढ़ती जाती है. अमरकांत की कहानियों में ऐसे न जाने कितने पात्र हैं जो शिक्षित होने के बाद भी रोटी, कपड़ा और मकान से दूर हैं क्योंकि वे बेरोजगार हैं. शिक्षा से जीवन में परिवर्तन का उनका सपना सपना ही रह गया. नौकरी को ही रोजगार माननेवाले उनके पात्र या तो अनियमित रोजगार में संलग्न हैं या फिर रोजगार की प्रतीक्षा में लगे बेरोजगार हैं. नौकरी उनकी सबसे बड़ी लालसा और जरूरत है. पर रोजगार के अवसर बहुत कम हैं. ‘घर’ नामक कहानी का विनय एमए करने और  टाइपिंग वगैरह सीखने के बाद भी बेरोजगार है. पाठकों से विनय का परिचय कराते हुए अमरकांत लिखते हैं,

“वह एक दुबला-पतला, लंबा और साँवला-सा नौजवान था, जो एमए पास करके दो साल से बेरोजगार था.”

आगे वे इस बेरोजगारी को राष्ट्रीय समस्या के रूप में रखते हैं,

“वैसे बेकारी कोई नई बात नहीं थी, वह इधर राष्ट्र की एक खास पहचान बन गई थी, जिसका वह पूरी तरह अभ्यस्त भी हो गया था.” ‘

दोपहर का भोजन’ के मुंशी चंद्रिका प्रसाद की क्लर्की की नौकरी से छँटनी हो गयी थी और पूरा परिवार आधे-तीहे भोजन पर जी रहा था.

फिर भी एक अदद रोजगार अमरकांत के यहाँ भूख से ही निजात पाने का ही रास्ता नहीं है बल्कि जीवन की गरिमा, शिक्षा की सार्थकता और सामाजिक-राष्ट्रीय दायित्व के निर्वहन का भी माध्यम है. शिक्षा रोजगार न दे सके तो उसका क्या मूल्य? यह बिडम्बनात्मक सोच अमरकांत के यहाँ खूब है. लेकिन यह विडम्बना अमरकांत की चिंतन पद्धति की नहीं बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली की रही है. औपनिवेशिक शासन काल में जिसकी नींव ही सरकारी बाबू बनाने के उद्देश्य से डाली गई थी. यह यथार्थवाद की बिडम्बना है, न कि कथाकार के किसी आदर्शवादी आग्रह की. उनके कई ऐसे पात्र भी हैं जो शिक्षा के बल पर गरीबी के मकड़जाल से निकलते हैं और तमाम लोगों के लिए सहारा बनते हैं. ‘रिश्ता’ का नईम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इस प्रसंग में अमरकांत जो न कहकर भी कह जाते हैं वह यह कि आम जनता की रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या केवल शिक्षा देकर नहीं दूर की जा सकती है, बल्कि उसके लिए बड़ी राजनीतिक लड़ाई के माध्यम से व्यवस्थागत परिवर्तन की जरूरत है.

 

5.

अमरकांत ने स्त्री-पुरुष प्रसंगों में पुरुष मानसिकता और नैतिकता को बड़ी बारीकी से उजागर किया है. पुरुषों के लिए स्त्रियाँ काम, प्रेम और परिवार की पूर्ति का साधन हैं. वे उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्वीकार करने में आनाकानी करते हैं. अमरकांत प्रेम के भाववाले किसी पात्र का चित्रण करते हैं तो भी अंततः ऐसे पुरुष पात्रों के लिजलिजे चरित्र और खोखली नैतिकता की परतें उधेड़ देते हैं. ‘लड़का-लड़की’ का चन्दर विद्यार्थी के रुप में आदर्शवादी है. शहर में होने वाले राजनीतिक जुलूसों और आंदोलनों में भागीदारी करने लगता है. वह बौद्धिक रूप से जागरूक होता दिखता है. इसी समय उसे एक अदद प्रेमिका की तलाश होती है. तारा नामक एक लड़की धीरे धीरे उसे चाहने लगती है. घर की विषम परिस्थितियों में धँसी होकर भी उसकी प्रेरणा से पढ़ाई पर ध्यान देती है. अपने पिता को बताकर वह चन्दर के पास आकर विवाह का प्रस्ताव करती है. पर चन्दर भाग खड़ा होता है. यहाँ उसकी आदर्शवादिता और तारा के प्रति उसके प्रेम का खोखलापन दिखाना ही कहानीकार का उद्देश्य था. कमलेश्वर ने ऐसे ही कथा-पात्रों के बारे में लिखा है,

“कुछ क्रांतिकारी (पात्र) सहसा आये– अपनी झूठी शहादत की महिमा से मंडित, और अपने लिये नारियों की माँग करने लगे… मध्यवर्ग की नारी उनके मानसिक-बौद्धिक अत्याचार और दैहिक नपुंसकता की शिकार होकर दुख के क्षणों को ‘भोगने की नियति’ से आबद्ध हो गयी… पर यह कभी पता नहीं चला कि कथा साहित्य के वे क्रांतिकारी पात्र कब और कहाँ क्रांति करने में संलग्न रहे?”

 (नयी कहानी की भूमिका, पृष्ठ 12)

ऐसे पात्रों को अमरकान्त ने जीवन से उठाया है. वास्तविक जीवन के क्रांति नायकों की नकल में तमाम नवयुवक उनके मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं लेकिन जीवन और आदर्श में संतुलन न बिठा पाने की वजह से वैसे बन जाते हैं जिनके बारे में कमलेश्वर ने लिखा है. लेकिन यहाँ यह ध्यान देने की भी आवश्यकता है कि तारा विवाह संस्था के सिवा और कोई रास्ता नहीं समझती है. क्या विवाह कर लेने से ही चन्दर क्रांतिकारी बन जाता? इसे नकार कर चन्दर जैसे चरित्रों का समुचित मूल्यांकन नहीं किया जा सकता कि वह तारा को प्रेरित करके शिक्षित बनाता है. हर प्रेम संबंध विवाह में परिणत हो ही जाय, यह कसौटी भी नियतिवादी ही है. यह सही है कि चन्दर के प्रेम में समर्पण नहीं था. संभवत: वह किसी अधिक सुंदर लड़की के मिलने तक ही उसके साथ रहता. इसके विपरीत तारा के प्रेम में सच्चाई और पूर्ण समर्पण था. वह चन्दर को अपनी मंजिल मान चुकी थी जबकि तारा चन्दर की मंजिल नहीं थी.

‘एक निर्णायक पत्र’ अत्यंत सुशिक्षित तथा स्त्रियों के शिक्षा, आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता जैसे बुनियादी आधुनिक अधिकारों का समर्थक होकर भी भीतर कहीं स्त्री के प्रति पुरुषवादी ग्रंथियों के शिकार पुरुषों के स्वभाव को खोलने वाली कहानी है. कुमार विनय एक सुशिक्षित व्यक्ति है. भ्रष्टाचार और व्यवस्थागत अनियमितता की वजह से उसको नौकरी नहीं मिलती है. फलतः वह कभी नौकरी न करके आत्मनिर्भर रहने का संकल्प लेता है. आय का नियमित साधन न होने के कारण वह आजीवन अविवाहित और स्त्रियों से दूर रहने का भी फैसला लेता है. अपने स्वाभिमान और उद्यम से एक अच्छी कोचिंग चलाता है. उसके कई विद्यार्थी सफल होते हैं. नीति भी उसकी कोचिंग से सफल होती है और लखनऊ मेडिकल की पढ़ाई के लिए चली जाती है. जाने से पहले दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित रहने की कसमें खाते हैं. नीति उधर पढ़ाई में व्यस्त हो जाती है.

व्यस्तता, संकोच और कुछ अन्य सहज कारणों से वह विनय को पत्र नहीं लिख पाती है. संवाद की कमी और एक मित्र के भड़काने के कारण वह वह नीति के प्रति संदेह से भर जाता है. उसे अपनी हीनता भी कमजोर करती है. इसलिए वह लखनऊ उससे मिलने जाता  है लेकिन वह छुट्टी की वजह से मौसी के यहाँ गयी हुई थी. मुलाकात न हो पाई. उसे दो बार ऐसे ही लौटना पड़ा. उसे उसके चरित्र और वफादारी पर शक बढ़ने लगा. उसे लगा कि नीति जानबूझकर उससे दूरी बना रही है. उसे स्वतंत्रता पाकर स्त्री के बिगड़नेवाले स्वभाव को बताने वाली तुलसीदास की पंक्ति भी याद आयी. तीसरी बार जब वह दो-तीन दिन की तैयारी से लखनऊ पहुँचा तो वह अचानक उससे मिली और उनके होटल के कमरे में चाय के मकसद से गयी. लेकिन कुमार विनय गुस्से, प्राधिकार भाव और उसके चरित्र पर संदेह की प्रतिक्रिया स्वरूप जबरदस्ती उसके कपड़े उतार देते हैं. वह कुछ नहीं बोलती है, न विरोध करती है. बस अंदर तक हिल जाती है. अनपेक्षित स्थिति में वह शर्म से बैठ जाती है. पलभर में विनय के मन की गुबार शांत हो जाती है. उसे अपनी गलती और नीति की बेगुनाही का यकीन हो जाता है. उसे कपड़े पहनने की निजता देने के लिए वह बाथरूम में चला जाता है. इसके बाद वह उसे होस्टल छोड़, उसे सब कुछ भूल जाने के लिए कह अपने शहर लौट जाता है. कुछ दिन बाद वह पत्र लिखता है जिसमें नीति की तमाम प्रशंसा और कुछ बातों का ध्यान रखने के लिए कहता है. नीति पढ़कर उस पत्र को उड़कर कूड़ेदान में गिर जाने देती है. ऐसा लगता है कि नीति के मन में ‘गुरु दक्षिणा’ का भाव अधिक था. परीक्षा परिणाम आने के बाद जब उसने विनय का पैर छुआ तो उसने उसे यह कहकर उठा लिया कि – ‘तुम्हारी जगह वहाँ नहीं है.’ उसके मन में प्रेम से ज्यादा विनय के प्रति कृतज्ञता का भाव था. इसी वजह से उसने उसके प्रेम प्रस्ताव का विरोध नहीं किया और समर्पित रहने का वचन दिया. यदि उसमें प्रेम का आवेग होता तो किसी न किसी रूप से उसे पत्र लिखने का समय निकाल ही लेती. लेकिन विनय को उसका प्रेम और दिल जीतना बाकी था जो वह अपनी मर्दसुलभ कुंठाओं, ग्रंथियों और पुरुषवादी प्राधिकारभाव के कारण नहीं कर पाता है. यह कहानी केवल सामाजिक रूप से पुरुष को समझने से अधिक उसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने के लिए आमंत्रित करती है.

अमरकांत के यहाँ स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध प्रसंग परिवेशबद्ध और यथार्थवादी है. वैवाहिक-पारिवारिक मर्यादाओं और सामाजिक जकड़न में उनके स्त्री-पुरुष कहीं फँसे हैं तो कहीं उससे निकलने की हल्की कोशिश में लगे हैं. प्रेम की सिद्धावस्था के दर्शन कम होते हैं. उनके यहाँ प्रचलित अर्थ की प्रेम कहानियाँ बिल्कुल कम दिखती हैं. जिनमें प्रेम संयोग-वियोग दोनों में जिया जाता है. अमरकांत का तत्कालीन सामाजिक यथार्थ प्रेम की कब्रगाह है. प्रेम का अंकुर तो नहीं रोका जा सकता है लेकिन उसकाे पल्लवित होने से रोका जा सकता है. ऐसे में कहीं समाज-दमित प्रेम है तो कहीं समाज के दबाव में आत्मदमित. अमरकांत की कहानियों में ऐसे ही कुचले हुए प्रेम के खंडहर हैं. उनके पात्र प्रेम-मार्ग त्याग देते हैं लेकिन प्रेम के खंडहर अपने भीतर लिए-लिए जीते हैं. ‘असमर्थ हिलता हाथ’ की लक्ष्मी अपने भीतर ऐसा ही खंडहर लिए मर जाती है. प्रेम के स्त्री-पक्ष का संघर्ष और आत्मसंघर्ष ‘असमर्थ हिलता हाथ’ में दिखाई देता है. माँ अपने प्रेम को चुनने के बजाय पारिवारिक-सामाजिक मर्यादा को चुनती है. जाति और धर्म की मर्यादाओं की नेतृत्वकारी भूमिका में वह सब पर शासन करती रही. वह किसी पुरुष से प्रेम कर ही नहीं पाई, पति से भी नहीं. अपनी बेटी को उसके प्रेम को पाने से रोकती रही.

माँ का अनुशासन इतना कड़ा रहा कि बेटी से उसका सम्बन्ध खराब हो गया. बेटी इतनी त्रस्त हो चुकी थी कि माँ के बीमार पड़ने पर उसके मन में क्षणभर के लिए क्रूर ख्याल आया कि, ‘माँ की मृत्यु के बाद वह चिड़िया की तरह आज़ाद हो जाएगी.’ दिलीप एक ‘नीच जाति’ का ‘काला’ लड़का था. वह एक ब्राह्मण परिवार में आता-जाता था. परिवार में पूरी तरह से घुल-मिल गया था. धीरे-धीरे उसी परिवार की लड़की मीना से उसे प्रेम हो जाता है. उसने लड़की के भाई से विवाह की बात की तो परिवार से उसका सम्बन्ध टूट गया. मीना पर निगरानी रखी जाने लगी. पर सहेलियों की सहायता से दोनों में पत्राचार चलता रहा. माँ ने उसके चारों ओर एक ‘लकीर’ खींच दी थी. शुरु में वह दिल पर पत्थर रखकर उस लकीर की फकीर बनने की कोशिश करती है. लेकिन कुछ समय बाद उसे विश्वास होता है कि– ‘प्यार लकीर से बड़ा होता है.’ जब जीवन अंत निकट आया तो माँ के भाव बदलते हैं. लेकिन उसका लकवाग्रस्त शरीर अपने बदले भाव बेटी से कह नहीं पाया. कहने की कोशिश में ही आखिरी पलों में वह मीना को कातर होकर देखती हुई मरी. लेकिन मीना यह नहीं समझ पाई कि माँ अब बदल गयी है. माँ अंदर से चाहती है कि मीना जाति-धर्म की मर्यादा में फँसकर प्रेम को न कुर्बान करे. पर मीना तो पुरानी बंदिशों के पालन का संकल्प ले लेती है ताकि माँ की आत्मा को शांति मिल सके. कहानी जहाँ खत्म होती है वहाँ से यह अर्थ निकलता है कि मीना ‘लकीर’ में ही बँधकर अपने प्रेम को दफन करने का संकल्प ले लेती है. इस तरह खंडहर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ता जाता है.

अमरकांत के यहाँ इन सामाजिक मर्यादाओं का जोर इतना अधिक है कि बिना द्वंद्व के भी प्रेम संबंध स्वयंसेवी भाव से मर्यादाओं की बेदी पर होम हो जाते हैं. ‘रिश्ता’ कहानी में एक गरीब जुलाहे के बेटे नईम को मास्टर रामानुज सिंह ने अपने खर्च से पढ़ाया था. मास्टर की बेटी उसकी सहपाठी थी. नईम आईएएस अधिकारी बनता है. वह इसके लिए मास्टर साहब का कृतज्ञ था. उनके कोई बेटा नहीं था इसलिए धीरे-धीरे वह बेटे की भूमिका में आ जाता है. नीरू-नईम की लरिकाई की दोस्ती प्रेम में बदल गयी. एक दिन एकांत पाकर नीरू ने नईम का हाथ पकड़कर अपने प्रेम का इजहार किया तो नईम ने कहा—

“नीरू, तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिए कोई भी नहीं है. पर हमें और भी बातों का ख्याल करना चाहिए. मास्टर साहब रिटायर होने वाले हैं. हमारा समाज जैसा है, वह तो तुम जानती ही हो. अगर हम कुछ फैसला करते हैं, तो तुम्हारी दो बहनों का क्या होगा? उसकी वजह से गाँव में फसाद भी फैलेगा. मास्टर साहब का दिल टूट जाएगा.”

निरुपमा ने उसकी बात से हामी भरी. अगली मुलाकात में उसने नईम से कहा—

“नईम तुमने ठीक ही कहा. इसकी वजह से तुम्हारे प्रति जो इज्जत है वह और भी बढ़ गयी है. तुम मेरे लिए भाई की तरह हो. यह रिश्ता कभी न खत्म होने पाये.”

नईम जितना ही विचार करता, उसको अपना फैसला उतना ही ‘उचित’ लगता. बाद में उसने नीरू की शादी ऊँचे ख्यालों वाले अपने एक दोस्त आईएएस अधिकारी विवेक से करवा दी. मास्टर का पूरा परिवार नईम में अपना एक लायक बेटा देखता है. नीरू अपने पति के साथ खुश है. इस तरह नीरू और नईम ने अपने प्रेम को सामाजिक मर्यादा और रिश्तों के लिए होम कर दिया.

इसी तरह ‘मछुआ’ के अनिलेश और नीरजा की कहानी है. अनिलेश विवाहित था. पत्नी गाँव में रहती थी. और वह शहर में नौकरी से बचे समय में औरतों का शिकार करता था. उसका ‘जीवन-दर्शन था कि इस भवसागर में स्त्रियाँ मछलियाँ हैं और वह मछुआ.’ उसके पड़ोस के एक क्वार्टर में जब विधवा स्कूल शिक्षिका सीता देवी रहने लगीं तो उसके दोस्तों को लगा कि अनिलेश की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं. सीता देवी खुद चालीस वर्ष की थीं और उनकी बेटी नीरजा भी जवान हो रही थी. ऐसे में उसे दोनों का ध्यान था. एक बार वह बीमार पड़ा तो सीता देवी ने दवा कराई और ठीक होने तक माँ-बेटी ने उसकी सगे की तरह सेवा-सुश्रुषा की. परिवार से वह और जुड़ गया. लेकिन उसकी वासना नीरजा के लिए कम न हुई. धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले में अनेक अफवाहें और किस्से फैल गए. महिलाओं ने उनके घर आना-जाना बंद कर दिया. इसके बावजूद अनिलेश के प्रति उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. एक तरफ नीरजा के मन में अनिलेश के प्रति प्रेम उफान लेता है तो दूसरी तरफ अनिलेश अपने किये-अनकिये की, अब तक के जीवन दर्शन की नैतिक आत्म समीक्षा का भाव प्रबल हो जाता है. इस आत्ममंथन के बाद उसका दृष्टिकोण पूर्णतया बदल जाता है. जिस नीरजा को देखकर उसके ‘मुँह में पानी आ जाता था’ एक दिन उसी नीरजा के उत्कट और ‘निर्लज्ज प्यार’ और उसकी ‘आँखों में प्यार की भूख देखकर’ भी वह नहीं फिसला. उसने नीरजा को समझाते हुए कहा,

“तुम पर गम्भीर जिम्मेदारियाँ हैं. तुम्हीं को अपनी माँ के दुख को दूर करना है. तुमको आगे बढ़ना है.”

अनिलेश एक नैतिक अपराध और सीता देवी जैसी पवित्र हृदय की स्त्री को धोखा देने के बोध से बच गया लेकिन नीरजा के कोमल हृदय में प्रेम का एक खंडहर बस गया.

अमरकांत के यहाँ ऐसे असफल, हताहत और अकाल कवलित प्रेम की न जाने कितनी कलप और कसक है. यह न कथाकार के किसी नैतिक आग्रह या आदर्श की वजह से हुआ है और न ही ऐसी प्रेम विरोधी सामाजिक रूढ़ियों के अनुपालन के नैतिक दायित्व बोध के कारण बल्कि लेखक की यथार्थवादी सौंदर्यदृष्टि और कथादृष्टि के कारण. अमरकांत जिस निम्न मध्यवर्ग के लोगों की जिंदगियों को कहानियों में पुनर्रचित कर रहे थे उनके मूल्यबोध और सामाजिक संरचना में ऐसा ही हो रहा था. यही उनका जीवन-सत्य था. कथाकार ने बिना किसी मूल्य निर्णय के अधैर्य और कलात्मक अपरिपक्वता का परिचय दिए, इस वर्ग के लोगों के जीवन द्रव्य को कहानियों में ढाला है.

असल में, अमरकांत ने भारतीय स्त्रियों के दुख और संरचनात्मक उत्पीड़न को बड़ी करुणा और सहानुभूति के साथ सामने लाया है. जाहिर है, इसका उद्देश्य   उनकी मुक्ति और सामाजिक संरचनागत लिंग-वैषम्य को समाप्त करना था. उनके लिए यह राष्ट्रीय प्रगति का एक जरूरी सूचकांक है. ‘असमर्थ हिलता हाथ’ का दिलीप कहता है,

“जब तक यहाँ की औरतें तरक्की नहीं करेंगी, यह देश तरक्की नहीं कर सकता.”

फिर भी, वे स्त्री मुक्ति के हवाई पात्र नहीं बनाते हैं. बल्कि परिस्थितियों में धँसी और फँसी स्त्रियों की जिजीविषा और सहनशीलता को रेखांकित करते हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि वे पितृसत्ता की हरकारा स्त्रियों का प्रोटोटाइप या प्रतिमूर्ति बनाते हैं. न ही वे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचे के प्रति उनके असंतोष को सजग रूप से दबाते हैं. असल में, उनका उद्देश्य निम्नवर्गीय भारतीय स्त्रियों की सोचनीय स्थिति का यथार्थवादी चित्रण था. न कि काल्पनिक या अपवादात्मक चरित्रों की रचना करके स्त्रीवाद का प्रचार करना. कहानी कला और विचारधारा दोनों ही दृष्टिकोण से वे इस कार्य में सफल होते हैं. वे स्त्री जीवन का अकुंठ और प्रामाणिक चित्रण करते हैं. उनके पात्र स्त्री पात्र सहज और सजीव हैं. जिनकी भाषा बौद्धिक विमर्श की नहीं, जीवन व्यवहार की भाषा है.

विवाह और परिवार ऐतिहासिक रूप से स्त्रियों के लिए बन्धनकारी संस्थाएँ रही हैं. विवाह के बाद साधारण स्त्री आर्थिक और सामाजिक रुप से दोयम दर्जे का मनुष्य बन जाती है. घर-बाहर हर जगह परिश्रम करने के बावजूद वह आर्थिक रूप से परनिर्भर रहती है. अमरकांत विवाह और परिवार संस्थाओं के विरोधी नहीं दिखाई देते हैं लेकिन स्त्री कष्टों के चित्रण के माध्यम से उनमें क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव कराते हैं. विवाह और परिवार  संस्थाएँ समस्याग्रस्त हैं, अमरकांत इस सत्य को सजग रूप से अपनी कहानियों में से उपन्यस्त करते हैं.

विवाह संस्था एक स्त्री के स्वभाव, व्यक्तित्व, जीवन और सुख के लिए कितनी घातक हो सकती है, अमरकांत ने इसकी बड़ी त्रासद कहानी ‘स्वामी’ में कही है. नीलिमा पति की कठपुतली बन जाती है फिर भी पति खुश नहीं रह पाया. अपने पति की हर बात मानती है.  उसे पति से कोई शिकायत नहीं है. परंतु वह जहाँ हँसमुख, जिंदादिल और खुशमिजाज थी वहीं उसके पति मनोहरलाल शर्मा शांत, गंभीर और मनहूस किस्म के आदमी थे.  पत्नी का यह स्वभाव पति के मन में उसके पातिव्रत्य को लेकर संदेह का कारण था. एक दिन वे उस पर फूट पड़े–

“तुम क्यों हँसती हो? तुम खानदान को कलंकित करने पर तुली हुई हो. तुम्हारे दिल में जरूर कोई खोट है.”

उस दिन नीलिमा रोई-सिसकी पर अगले दिन से उसने अपने जीवन को पति की प्रतिछवि में ढालने का संकल्प लिया. वह परंपरागत स्त्री थी. उसे जरूरी आज़ादी से रहने और अपने व्यक्तित्व के विकास के बजाय पति की इच्छाओं की मूर्ति बन जाने की शिक्षा मिली थी. उसने अच्छी पत्नी बनाने के लिए रची गयी और अपनी माँ से प्राप्त उन शिक्षाओं का स्मरण किया और ‘सोचा कि पति के बिना स्त्री के जीवन का क्या महत्व. जैसा पति चाहे वैसा ही स्त्री को करना चाहिए.’ अगले दिन उसने अपना कायाकल्प कर लिया. हँसना, बोलना, गाना-बजाना, पास-पड़ोस में आना-जाना सब छोड़ दिया. दो वर्ष में वह सूखकर काँटा हो गयी. जो देखता, विश्वास नहीं कर पाता कि यह वही नीलिमा है. लेकिन पति ने इस परिवर्तन में उसके व्यक्तित्व-विनाश पर कभी कुछ नहीं कहा. उलटे उनका संदेह और प्रबल होता गया. अपने बूढ़े नौकर हरिया को इसलिए मार डाला क्योंकि उसे संदेह था कि वह नीलिमा को रखे हुए है. नीलिमा ने सफाई दी कि वह उसे अपनी बेटी मानता था. उसकी किसी सफाई को पति ने सही नहीं माना और उसे तिल-तिल करके मारने का क्रूर दंड दिया. दो सालों में तिल-तिल करके नीलिमा मर गयी.

लेकिन कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो सामाजिक-पारिवारिक पसंद की शादियाँ करती हैं, सब कुछ सहती हैं लेकिन नीलिमा बनने से इनकार भी करती हैं. ये विवाह-परिवार में रहते हुए भी अपने लिए जगह बनाती हैं. इस दृष्टि से ‘हौसला’ कहानी की उमा एक प्रतिनिधि चरित्र है. तंगी के कारण उसकी शादी एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो बदसूरत और उम्र में बड़ा था. केवल उसके पास नौकरी थी. पति हरनाथ की सूरत ही नहीं बल्कि आदतें, व्यवहार और रहन-सहन भी उसे नापसंद थे. उसने नीलिमा के विपरीत अपने पति से साफ-साफ कह दिया–

“देखिये जी, अब तक आपने जो किया सो किया अब इस घर में वही चलेगा जो हम कहूँगी.”

उसने अपनी पहल पर मिठाई की दुकान खोली और घर की आर्थिक स्थिति ठीक करने में लग गयी. खूब परिश्रम किया. बेटियों को पढ़ाया. बेटियों की शादी में उसने अपनी चलाई. वह बेटियों को अपनी नियति से बचाने की हर संभव कोशिश करती है. पति को उसने हमेशा परिदृश्य में रखा.

विवाह में कुछ पति भी पत्नियों के व्यवहार से पीड़ित दिखाए गए हैं. ‘असमर्थ हिलता हाथ’ के पति आज्ञाकारी हैं, ‘पेड़-पौधे’ का प्रशांत बहुत संवेदनशील जीवन साथी है, ‘हौसला’ का पति पत्नी के लिए बिल्कुल गैरजरूरी हो जाता है फिर भी इनके लिए विवाह सुखद नहीं रहा. इन कहानियों में पति पत्नी की बातें मानने के लिए बाध्य हैं. वे लगातार उनकी मनमानी ज़ब्त करते हैं क्योंकि पुरुषों पर भी हर स्थिति में विवाह और परिवार को बचाये रखने की सामाजिक-पारिवारिक नैतिकता और मर्यादा का दबाव रहता है. इस तरह अमरकांत ‘मिसोजिनी’ के साथ-साथ ‘मिसेन्डरी’ के तत्वों को भी निगाह में रखा है. वे पुरुष को खलनायक साबित करके समस्या का सरलीकरण नहीं करते बल्कि उनकी कोशिश उस सामाजिक-पारिवारिक संरचना और मूल्य-मर्यादाओं की शल्य-चिकित्सा है जो विवाह संस्था को स्त्री और पुरुष दोनों के लिए कष्टदायक बनाती हैं.

 

6.

अमरकांत ने स्त्रियों के प्रति पुरुषों की कामान्धता का आख्यान कई कहानियों में रचा है. पुरुष के लिए स्त्री देह का आकर्षण सहज है लेकिन उस आकर्षण में केवल कामांधता और वासना की प्रबलता स्त्रियों को भोग्या के रूप में देखने की प्रवृत्ति डालती है. पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था इसे पुरुषों के विशेषाधिकार में बदल देती है. अमरकांत इस विशेषाधिकार के नैतिक और सामाजिक अपराध में रूपांतरित होने के प्रतिफल से स्त्रियों के जीवन की त्रासदी को बहुत बारीकी से सामने रखते हैं. ‘प्रिय मेहमान’ ‘पलाश के फूल’, ‘मछुआ’, ‘जोकर’ और ‘ज़िंदगी और जोंक’ जैसी कहानियों में उन्होंने पुरुषों की यौन आक्रामकता और असभ्य कामांधता को उजागर किया है. ‘प्रिय मेहमान’ का नीरज यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है. पत्नी मायके गयी है. पड़ोस की परिचित परित्यक्ता युवती नीलम  उसके यहाँ आती है. वह नहीं जानती थी कि वह घर में अकेला है. उसे नहाना था. नीरज के बढ़ावा देने पर नहाने चली जाती है. इधर नीरज की लोलुपता बढ़ती जाती है. वह अपने को तैयार कर लेता है कि नीलम के साथ सहवास न केवल उचित है बल्कि उसके लिए बेसहारा और तलाकशुदा ‘सताई हुई औरत’ का ‘दुख-दर्द कम कर देना एक परोपकार की भी बात होगी.’ जब नीलम बाहर निकलती है तो वह ‘आँख फाड़कर दे रहा था, गोया उसको पी जाएगा.’ नीलम ताड़ जाती है और इशारों-इशारों में अपना क्रोध जाहिर करके चली जाती है.

‘पलाश के फूल’ का पात्र नवलकिशोर राय तो इतना कामांध और अनैतिक है कि वह अपने से काफी कम उम्र की लड़की को अपने चंगुल में लेता है. वह बयालीस वर्ष का और लड़की पंद्रह-सोलह वर्ष की! उसका बाप अपनी बेटी को जमींदार राय के हवाले करे, इसके लिए वह षड्यंत्र करके उसके गरीब किसान बाप को पिटवाता है और फिर आर्थिक मदद करके बाप को दबाता है. वह युवती को पहले असहमति के बिना भोगता है फिर धीरे-धीरे युवती उसको चाहने लगती है. बीच में शादी होती है फिर भी ससुराल से भागकर उसके पास आती है. जब वह कहती है कि राय उसे लेकर भाग चले और शहर में रखे तो वह भाग खड़ा होता है. उसे लड़की का देह चाहिए था, उसके प्रेम को स्वीकार करने की क्षमता उसमें नहीं थी. उसे सामाजिक और कुल मर्यादा को खतरा दिखा–

“शैतान तुम्हारी इज्जत, जमीन-जायदाद, बाल-बच्चे सभी कुछ छीनकर तुम्हें बरबाद करना चाहता है.”

काफी समय बाद अपने मित्र से अपनी काम-पराक्रम की कथा साझा करते हुए कहता है–

“कसम खाकर कहता हूँ पता नहीं क्या हो गया था जहाँ किसी जवान स्त्री को देखा नहीं पागलपन सवार हुआ.”

उस लड़की से बचने के बाद वह पश्चाताप करता है और पूजा-पाठ से प्रायश्चित करता है. लेकिन उस लड़की के मन में जो खंडहर उसने बना दिया, उसके लिए उसमें कोई अपराधबोध नहीं होता है.

‘मछुआ’ के अनिलेश की कामाक्रामकता तो आपने ऊपर देखी लेकिन ‘जोकर’ के नलिन भाई की कहानी वीभत्स लिप्सा और मनोरोग की सीमाएँ छूती है. वह ऐसे पुरुषों का प्रतिनिधि चरित्र है. वह औरतों-लड़कियों को देखता तो भद्दी टिप्पणियाँ करता. किस्सागो कहता है–

“नलिन भाई अब सेक्स के अलावा अन्य किसी विषय पर बात ही नहीं करते.”

अंधेरे में उसकी ‘भूख बुखार की तरह बढ़ जाती’ ऐसे में जब वह ‘किसी मैली-कुचैली स्त्री को देखता’ तो उसके ‘कान शिकारी कुत्ते की तरह’ खड़े हो जाते. अमरकांत के ऐसे पुरुषों में एक सामान्य विशेषता यह है कि इनके निशाने पर हमेशा निचली जाति, गरीब और पुरुष-शून्य घर की स्त्रियाँ रहती हैं. उन्हें सुंदर, संभ्रांत और आज़ाद स्त्रियाँ नहीं आकर्षित करती हैं. ये सोचते हैं कि गरीब और अरक्षित महिलाएँ आसानी से चंगुल में आती हैं और उनसे पिंड भी आसानी से छुड़ाया जा सकता है. वे चरित्र भ्रष्ट भी होती हैं. ‘जब कोई छोटी जाति की स्त्री बगल से गुजरती’ तो नलिन बेशर्मी से घूरता. नवलकिशोर कहते हैं कि बिहार के गरीब-पिछड़े इलाके में इसका सबसे ज्यादा मजा आता है. उन्होंने भी जिस लड़की को शिकार बनाया वह गरीब ग्वाले किसान की बेटी थी. ‘मछुआ’ का अनिलेश भी सीता देवी के पुरुष विहीन परिवार में सेंध लगाना चाहता है. इसी तरह, ‘प्रिय मेहमान’ का नीरज एक परित्यक्ता और रोजगार के लिए संघर्षरत शिक्षित युवती नीलम को सहज लभ्य समझता है. ऐसे पुरुषों का ध्यान ‘गरीब की लुगाइयों’ पर रहता है. जाहिर है, ऐसे पुरुषों की आक्रामकता में जाति-वर्ग-लिंग की असमानता सहायक होती है. उनकी आक्रामकता के लिए सुरक्षित भूमि प्रदान करती है. किस्सागो का इशारा है कि उक्त असमानताओं को मिटाए बिना स्त्री को यौन शोषण और हिंसा से सुरक्षित नहीं किया जा सकता है. उनकी कहानियाँ निम्नवर्गीय और निम्नजातीय स्त्री के यौन शोषण और पुरुष की कामाक्रमकता के समाजशास्त्र पर प्रकाश डालती हैं.

 

7.

एकाध अपवादों को छोड़कर अमरकांत ने यों तो प्रचलित अर्थों में राजनीतिक कहानियाँ नहीं लिखी हैं लेकिन उनके परिवेश में राजनीति का गहरा हस्तक्षेप था इसलिए उन्होंने आजादी के बाद की बदलती राजनीतिक संस्कृति के बहुत-से संदर्भ अपनी कहानियों में शामिल किये हैं. ‘जनशत्रु’, ‘हत्यारे’, ‘कुहासा’, ‘पलाश के फूल’, ‘बस्ती’, ‘दर्पण’ जैसी अनेक कहानियों में उन्होंने राजनीतिक नेताओं के शब्द और कर्म के द्वैध, पाखंड और सत्तालोलुपता की बड़ी प्रामाणिक और व्यंग्यपूर्ण खबर ली है. ‘दर्पण’ के कुलदीपक ‘भारती’ के बारे में बताते हुए वे लिखते हैं,

“भारतीजी कभी समाजवादी पार्टी यानी विपक्ष के बड़े ही तेज-तर्रार और क्रांतिकारी नेता थे, इसके बाद अचानक वे सत्ता में आ गये, फिर वह विपक्ष में चले गये, और अंत में उन्होंने पके आम की तरह अपनी ऐसी हालत बना ली कि एक बार खोदने से भद से फिर सत्ता की गोद में जा गिरे.”

आगे चलकर राजनीति में ऐसे कुलदीपक बहुमत में हो जाते हैं. ‘हत्यारे’ कहानी विश्वविद्यालयी परिवेश से उपजी वैचारिक राजनीति के वैश्विक फलक की कहानी है. इस कहानी में जवाहरलाल नेहरू समेत कई विश्व नेता आये हैं. यह छात्र-युवा राजनीति के लंपटीकरण और अपराधीकरण की अनोखी कहानी है.

अमरकांत की कहानियों में साम्प्रदायिकता की प्रक्रिया और प्रतिफल दोनों का दृष्टिसम्पन्न चित्रण मिलता है. यह भले ही उनकी कहानियों का प्रधान कथ्य नहीं है फिर भी वे जिस परिवेश और परिक्षेत्र की कहानियाँ  लिख रहे थे उसमें साम्प्रदायिकता एक चिंतनीय और प्रभावी तत्व के रूप में उभर रही थी. देश-विभाजन के बाद भी देश-विभाजन रुका नहीं है, अमरकांत इस अंतर्दृष्टि को कुछ कहानियों में प्रतिफलित करते हैं. ‘बीच की जमीन’ में वे अपनी तरफ से कहते हैं, … घृणा तथा दहशत के माहौल में अब साफ नजर आ रहा है कि शहर दो ही नहीं बल्कि अनेक टुकड़ों में बँट गया है.  साझी संस्कृति और साम्प्रदायिकता पर उन्होंने अधिक नहीं लिखा है. इस विषय पर केवल ‘जनशत्रु’, ‘मौत का नगर’  और ‘बीच की जमीन’ जैसी कुछ कहानियाँ हैं. ‘जनशत्रु’ में हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति दुर्भाव और पूर्वग्रह भरने और उनके हिंदूवादी साम्प्रदायिक राजनीति में फँसाये जाने की प्रक्रिया का बेहद यथार्थवादी और प्रामाणिक चित्रण हुआ है. महंत बाबू उर्फ महंत प्रसाद बदवलिया पुरानी रियासत के वारिस थे.

जमींदारी उन्मूलन के बाद शहर आकर बस गए थे. धन-दौलत और प्रतिष्ठा अर्जित करने के बाद अब राजनीति में हाथ आजमाने में लगे थे.  उन्होंने अपनी एक पार्टी भी बना ली थी. कुछ असामाजिक तत्वों को पैसे देकर एक ऐसे मुहल्ले में तनाव पैदा करवाने की योजना पर काम कर रहे थे जहाँ हिंदू-मुसलमान और कथित ऊँची-नीची जातियों के लोग मिल-जुलकर शांतिपूर्वक रह रहे थे. ये तत्व कभी हिंदुओं के घरों में पथराव करते थे तो कभी मुसलमानों के घरों में. समझदार लोग जल्दी ही समझ गए कि यह किसी योजना के तहत करवाया जा रहा है. इसलिए वे नजर लगाए हुए थे और एक दिन तीन लोगों को पथराव करके भागते देखा. दो भाग गए, एक पकड़ा गया. पिटाई के बाद भीड़ उसे पुलिस को सौंप देना चाहती थी. तभी महंत बाबू को टेलीफोन पर सूचना मिली. भीड़ का विश्वास जीतकर उन्होंने पहले उस व्यक्ति को छुड़वाया और फिर खुद सजा देने का ढोंग करते हुए उसे ऐसे मारा जिससे वह कुछ आगे बढ़कर गिर जाय ताकि भाग सके. महंत इस युक्ति से अपने आदमी को बचा ले गए और जनता के विश्वासपात्र भी बने रहे.

अमरकांत बड़ी बारीकी से यह देख रहे थे कि कैसे शांतिपूर्ण देश में साम्प्रदायिक तनाव और दंगों को चुनावी लाभ के लिए संपन्न किया जाता है. ‘मौत का नगर’ और बीच की जमीन  साम्प्रदायिक दंगों और कर्फ्यू के बाद साधारण जनता में व्याप्त आतंक, शको-सुबहा, डर और उसकी आर्थिक बदहाली की बड़ी प्रभावशाली कहानी है. दोनों-समुदायों के लोग मारे-गए हैं. दोनों एक दूसरे को शत्रु और खतरे के रूप में देख रहे हैं. दोनों एक दूसरे की परछाई से डर रहे हैं.  बीच की जमीन में शांति और सद्भावना के प्रयास हास्यास्पद और प्रयासी  विदूषक लगने लगे हैं. फिर भी पुरानी गांधीवादी धुन के कुछ लोग हैं जो विभिन्न समुदायों के बीच की जमीन को बचाने में पूरी ताकत से लगे हुए हैं.  यह कहानी सांप्रदायिकता के खिलाफ एक बड़े जनजागरण की जरूरत पर बल देती है. सद्भावना सभा में शांति आंदोलन के प्रमुख नेता जानकी शर्मा अपने वक्तव्य में कहते हैं,

“हमारे देश की कल्पना सदा एक ऐसी बीच की जमीन के रूप में की जाती रही है, जिसमें विभिन्न वर्ग और समुदाय के लोग सम्मानपूर्वक मिलजुलकर रहें.”

जानकी शर्मा के माध्यम से अमरकांत भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और आजादी के बाद भारत संवैधानिक मूल्य के रूप में स्थापित उस ‘आइडिया ऑव इंडिया’ की याद कर रहे हैं, जिसे स्वाधीनता आंदोलन की अवधि में आधुनिक भारत ने पुनराविष्कृत किया था. सांप्रदायिकता के निशाने पर सबसे पहले यह भारत प्रत्यय ही रहा है. बीच की जमीन बचाने की कोशिश असल में इसी भारत प्रत्यय को बचाने की कोशिश है जिसमें जानकी शर्मा जैसी पुरानी पीढ़ी के लोग लगे हुए हैं. कहानी उस दुखद पक्ष को रखती है जिसमें इस भारत प्रत्यय की कल्पना को मन में बसाए रखना अत्यंत मामूली और महत्वहीन चीज हो गयी है. अखबार और प्रभावशाली लोग इनकी उपेक्षा करते हैं और एक बड़ी आबादी इसमें लगे लोगों को हास्यास्पद समझने लगी है. यह हमारे सामूहिक आत्मबोध के पतन की सूचना देने वाली पीड़ादायी कहानी है.

प्रेमचंद के बाद हिंदी साहित्य में मुस्लिम पात्र ‘अल्पसंख्यक’ होते गए. हिंदी साहित्य, हिंदू कथा साहित्य बनता गया. जिसमें मुस्लिम जीवन की छाया विरल होती गयी. लेखक मानो अपने ही आस-पास रहने वाले मुस्लिमों की जिंदगियों और उनके मनों की ठीक-ठीक जानकारी से वंचित होते गये. इससे दोनों संप्रदायों में अजनबियत बढ़ी और फलतः साम्प्रदायिकता भी. मलिक मुहम्मद जायसी का मूल्यांकन करते समय रामचंद्र शुक्ल ने साम्प्रदायिक अजनबियत और साझी संस्कृति के निर्माण में साहित्य की महत्तर भूमिका को रेखांकित किया था. वह भूमिका धीरे-धीरे गौण होती गयी. अमरकांत का कहानी साहित्य भले ही धर्मनिरपेक्ष जीवन दृष्टि से सम्पन्न है फिर भी उनके यहाँ मुस्लिम जीवन की एक भी कहानी नहीं दिखती है. कुछ अप्रमुख पात्र  जरूर आते हैं जो केवल इतनी सूचना देते हैं कि वे जिस समाज की कहानियाँ लिख रहे हैं उनमें मुसलमान भी रहते हैं, वो भी प्रायः दंगों के वातावरण में.  ‘मकान’ में हिन्दू मनोहर ने विधर्मी लड़की शकीला से शादी की है. दोनों मिलकर जिंदगी के मोर्चे पर मुस्तैद हैं. इसके अतिरिक्त, ‘बीच की जमीन’ में वकील नईम और  ‘मौत का नगर’ में दो मुस्लिम पात्र झलक दिखाकर लुप्त हो जाते हैं.

 

8.

अमरकांत की कहानियों में मनुष्य के काइयाँपन, चालाकी और धूर्तता की अपूर्व आख्यान है. उनके यहाँ भोले-भाले, सिद्धांतवादी पात्रों के बजाय काइयाँ, चालाक और धूर्त पात्रों की अधिकता है. ये पात्र यदि निम्नवर्गीय हैं तो इनकी मजबूरियाँ हो सकती हैं और यदि ये उच्च वर्गीय हैं तो यह उनका वर्गीय चरित्र है. दोनों ही स्थितियों में अमरकांत निर्मम होकर यह दिखाते हैं कि मनुष्य में नैतिकता, करुणा और सदाशयता का भारी अकाल है. ‘प्रैक्टिस’ के वकील बिहारीलाल एक यादगार चरित्र है. वकील के वेष में वह दलाल और ठग है. पुलिस से मेलजोल करके वह जरायमपेशा लोगों के लिए काम करता है और बदले में उनसे पैसे ऐंठता है. बुढ़ापा आ गया है और इस तरह की ‘प्रैक्टिस’ अब चल नहीं रही है. एक दिन वे एक पॉकेटमार दयाल से पैसे ऐंठने जाता है. उसे तरह-तरह से डराता कि कोतवाल उसका रिश्तेदार है. और दयाल उसकी हिटलिस्ट में है. बचना है तो कुछ पैसे दे ताकि पुलिसवालों को देकर बचा सके. दयाल जनेऊ की कसम खाता है और तरह-तरह से बताता है कि अब इस धंधे में कमाई नहीं है इसलिए माँगी रकम नहीं दे सकता है. दयाल जानता है कि वकील उसे झाँसा दे रहा है फिर भी लंबी हुज्जत और मोल-भाव के बाद 3 रुपये देने के लिये राजी हो जाता है. घर में से रुपये लेकर निकलता है तो डेढ़ रुपये ही देता है. बाकी डेढ़ एक घंटे में लाकर देने का वादा करता है. वकील बिहारीलाल जानता है कि अब इतने से ही संतोष करना पड़ेगा. वह बाकी पैसे लेकर नहीं आनेवाला. फिर भी वे संतुष्ट होकर लौटता है. प्रैक्टिस और वकालत की धौंस देकर उसने डेढ़ रुपये ऐंठ लिए. पॉकेटमार की भी पॉकेट मार ली. ऐसी है उनकी प्रैक्टिस और ऐसा है वह मनुष्य! तमाम काइयाँ और फरेबी पात्रों में बिहारीलाल सिरमौर है.

यदि भलमनसाहत और ईमानदारी जैसे गुण किसी पात्र में दिखते भी हैं तो वे भी एक रणनीति के तहत स्वार्थ साधना के लिए ही अपनाए गए हैं. इसका एक सम्मत उदाहरण ‘कुहासा’ में दिखाई देता है जहाँ एक धूर्त और फरेबी राजनीतिक एजेंट रामचरन मजदूरों और कुलियों को थोड़े से लालच और ढेर सारे आश्वासन देकर राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों में भीड़ जुटाने के लिए ले जाता है. उसके व्यवहार में दबे-कुचलों के प्रति सद्भावना दिखती है लेकिन यह अपना काम निकालने की कला है, वास्तविक भाव नहीं. प्रशासन की तरफ से दूबर को एक कंबल मिलता है. रामचरन उसको पैसे का लालच देकर कंबल बिकवा देता है और बदले में कुछ कमीशन कमा लेता है. उसी रात दूबर ठंढ से मर जाता है.

 

9.

सधा, पैना और सार्थक व्यंग्य अमरकान्त की कहानियों की विशेषता है. मध्यवर्गीय मनुष्य की अमानुषिकता, भद्रता के आवरण में छिपी क्षुद्रता, काइयाँपन और राज-समाज की ‘अंधेर नगरी’ पर वे व्यंग्य की सतत फुहार छोड़ते रहते हैं. यह फुहार हल्की-फुल्की होती है इसलिए देर तक भिनती है और देर तक आर्द्रता बनाये रखती है. हस्बेमामूल ज़िंदगी के बीच यह इतनी सहज और अनायास घुसपैठ करती है कि इस पर अलग से ध्यान नहीं जाता है लेकिन कहानी की मार्मिकता और प्रभाव का विश्लेषण इसे हिगरा कर नहीं किया जा सकता है. अमरकांत का व्यंग्य प्रसंग और व्यंग्य कथन दोनों बहुत संक्षिप्त होते हैं. पर इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है. ‘बिहारी सतसई’ के ‘दोहरों’ की तरह जो दिखने में नाविक के तीर की तरह छोटे लेकिन ‘गम्भीर घाव’ करते हैं. वैसे भी व्यंग्य बेशर्म और मोटी चमड़ी वालों के लिए निरर्थक होता है. उसका असर उन्हीं पर होता है जिनमें लाज-शर्म और संवेदना बची होती है. ऐसे लोगों के लिए व्यंग्य के छोटे तीर भी पर्याप्त घातक सिद्ध होते हैं. जो लोग लाज-शर्म धोकर पी चुके होते हैं, जो लोग ढीठ और काइयाँ होते हैं उनके लिए व्यंग्य की मोटी-मोटी पोथियों का भी कोई मतलब नहीं होता. इसलिए अमरकांत की छोटी-छोटी व्यंग्योक्तियाँ सफलतापूर्वक लक्ष्यभेदन करने में समर्थ हैं.

हास्य और व्यंग्य को रूढ़ ढंग से एक साथ रखकर देखा जाता है. मानो व्यंग्य कोई हल्की-फुल्की चीज हो और जिसे सुनने के बाद हँसी के सिवा कोई और भाव नहीं जागता हो. अमरकांत ने व्यंग्य को गहरी करुणा और कभी-कभी वितृष्णा के भाव जगाने के लिए साधा है. हास्य की बजाय वह रुदन के लिए टीसता है. ‘कुहासा’ के बाबू साहब के लिए लिखा गया यह अंश उनके व्यंग्य का अच्छा उदाहरण है,

“बाबू साहब को पोता हुआ था, जिसकी बरही के अवसर पर, पिछली रात एक अच्छी-खासी पार्टी हुई थी. इस खुशी के कारण बाबू साहब मन में काफी उदार हो रहे थे, इसीलिए उन्होंने दूबर से सिर्फ पाँच घंटे डटकर काम लिया जिसकी वजह से वह अधमरेपन की स्थिति पर पहुँच गया था. बाबू साहब की इसलिए भी तारीफ करनी पड़ेगी कि काम खत्म होने के बाद उन्होंने दूबर के सामने पत्तल पर रात का बचा हुआ खाना परोसवा दिया.” 

किसी-किसी कहानी में व्यंग्य प्रत्यक्षतः अनुपस्थित रहता है लेकिन अंत होते-होते पूरी कहानी एक विद्रूप स्थिति पर या सामाजिक बिडंबना पर तीखा और अवाक कर देने वाले व्यंग्य में पर्यवसित हो जाती है. ‘फर्क’, ‘श्वान गाथा’, ‘एक बाढ़-कथा’ जैसी कहानियाँ इसी ढब की हैं. ‘फर्क’ में भुखमरी का शिकार एक लड़का खाने-पीने की चीजें चोरी करने लगता है. एक दिन मार-पीट के बाद उसे पुलिस को सौंप दिया. थाने में पूरी भीड़ जुट गई. सब ऐसे ही चोरों को देश की सबसे बड़ी समस्या बताकर लड़के को कड़ी-से-कड़ी सजा की माँग करते हैं. लेकिन उसी समय थाने में एक कुख्यात डाकू सुखई पकड़ कर लाया जाता है. लोग उसे देखकर उसकी बहादुरी और कीर्ति का गान करने लगते हैं. भूख शांत करने वाले मामूली चोर और एक कुख्यात हत्यारे डाकू के बीच ‘फर्क’ की जनभावना पर कहानीकार बिना कुछ कहे ही बहुत सार्थक व्यंग्य कर देता है.

—

अमरकान्त
1 जुलाई, 1925-17 फरवरी, 2014

प्रकाशित कृतियाँ : उपन्यास–‘सूखा पत्ता’, ‘काले-उजले दिन’, ‘कँटीली राह के फूल’, ‘ग्रामसेविका’, ‘सुखजीवी’, ‘बीच की दीवार’, ‘सुन्नर पांडे की पतोह’, ‘आकाश पक्षी’, ‘इन्हीं हथियारों से’; कहानी-संग्रह : ‘ज़िन्दगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र-मिलन तथा अन्य कहानियाँ’, ‘कुहासा’, ‘तूफ़ान’, ‘कलाप्रेमी’, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’, ‘सुख और दुःख का साथ’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘अमरकान्त की सम्पूर्ण कहानियाँ’ (दो खंडों में); संस्मरण : ‘कुछ यादें, कुछ बातें’; बाल-साहित्य : ‘नेऊर भाई’, ‘वानर सेना’, ‘खूँटा में दाल है’, ‘सुग्गी चाची का गाँव’, ‘झगरू लाल का फ़ैसला’, ‘एक स्त्री का सफ़र’, ‘मँगरी’, ‘बाबू का फ़ैसला’, ‘दो हिम्मती बच्चे’.

पुरस्कार व सम्मान : ‘ज्ञानपीठ पुरस्‍कार’, ‘साहित्य अकादेमी पुरस्‍कार’, ‘व्‍यास सम्‍मान’, ‘सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार, ‘यशपाल पुरस्कार’, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का सम्मान, ‘जन-संस्कृति सम्मान’, मध्य प्रदेश का ‘अमरकान्त कीर्ति सम्मान’ आदि से सम्‍मानित.

विशेष : विदेशी भाषाओं, प्रादेशिक भाषाओं, पेंग्विन इंडिया में कहानियाँ प्रकाशित, दूरदर्शन पर कहानियों पर फ़िल्में प्रदर्शित, रंगमंच पर कहानियों के नाट्य-रूपान्तरों का प्रदर्शन.

आनंद पाण्डेय

‘पुरुषोत्तम अग्रवाल संचयिता’ का ओम थानवी के साथ सह-संपादन तथा ‘सोशल मीडिया की राजनीति’ नामक पुस्तक का संपादन. ‘लिंगदोह समिति की सिफारिशें और छात्र राजनीति’ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित.

सम्पर्क
174-A, D 2 area, राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, पुणे
anandpandeyjnu@gmail.com  9503663045

 

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Comments 6

  1. कुमार अम्बुज says:
    2 months ago

    ज़रूरी याद। अच्छा आलेख।
    साहित्य की निकट परंपरा का पुनर्जागरण।

    Reply
    • आनंद पांडेय says:
      2 months ago

      धन्यवाद सर।

      Reply
  2. शशिभूषण मिश्र,बांदा says:
    2 months ago

    अमरकांत की संवेदना जिन अंधेरे और सीलन भरे कोनों तक पहुंचती है; उनकी कहानियां जिस विस्तार से उत्तर भारतीय जन जीवन विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक बदलावों को अंकित करती हैं,उन्हें पहचानने का प्रयत्न इस लेख में संभव हुआ है । इस मेहनत भरी पड़ताल के लिए आनंद जी को बधाई !

    Reply
  3. शहादत says:
    2 months ago

    बहुत शानदार और सुदीर्घ लेख। लगभग पूरे अमरकांत साहित्य को समेटे हुए, उनकी रचनाशीलता और विचाराधारा पर बात करते हुए, उनके चिंतन और तत्कालीन भारतीय निम्नवर्गीय समाज का चित्रण करने वाला।

    Reply
  4. Madhukant says:
    2 months ago

    एक महत्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास .बहुत-बहुत बधाई

    Reply
  5. Prof Yogesh Gokul Patil says:
    2 months ago

    अमरकांत प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा के रचनाकार है। प्रस्तुत आलेख अमरकांत के समग्र साहित्य का मूल्यांकन एवं विश्लेषण में सार्थक सिद्ध हुआ है। जो शोधकर्ता अमरकांत के समग्र कथा साहित्य पर अनुसंधान करना चाहता है तथा हिंदी के सभी पाठकों के लिए जो निम्न मध्य वर्ग के जीवन की सच्चाई को जानना चाहता है वह अवश्य इस आलेख को संपूर्णता पढ़ें। एक सार्थक आलेख हेतु हार्दिक अभिनंदन

    Reply

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