३)
सायण ने बतलाया वनदेवी के दो संगीतज्ञ है- झींगुर और
टिड्डा.
चौमुखी दीपक जैसे कान्तिमंत नेत्रोंवाले उस
बाल-पखेरू ने कहा सायण से,
“आचार्य, निरुक्त के वन में भले अन्धकार हो, तब भी
इतना उजियाला तो है कि देखे
आप वहाँ पपीहे और मांडीक
को वृषारव और चिच्चिक कहा
गया.”
इस जम्बूद्वीप पर, भारतीय उपमहाद्वीप
अब जिसे कहा जाने लगा है
यहाँ केवल भूमि और भूमा थी. था
यहाँ नहीं काल कभी.
इस प्रसंग से सिद्ध होता है कि गरुड़ था
बाल्यावस्था से विद्वान.
काला नमक नामक प्रसिद्ध धान
जहाँ पुच्छल जलमंजुर
पखेरुओं के गिरोह पूरा का पूरा निपटा देते और
नलिनियों के झुरमुट में बने
घोंसलों में सोते, सेते.
जहाँ सुदी रातों को टिटहरियाँ
भृंग, इल्लियाँ खाकर दिनभर
सोती,
जहाँ चातक पानी पीकर जीता था
और चकवे दोपहरों को मैथुन कर.
वहाँ यह विनता का बालक उड़ता
जाता उड़ता जाता था भूखा प्यासा.
बृहदाकार डैनों से ढँक लेता
आकाश, सूरज छुप जाता, कृषकों को लगता मेघ है
ज्योतिषियों को ग्रहण का अंदेशा होता था.
इतना विशाल इतना भव्य और भीषण था.
कोई नहीं जानता कि जन्म ही क्यों
लिया? गरुड़ भी नहीं.
जन्मोत्सव से किन्तु जानना चाहता था.
दिए गए से चाहे दैव से मिला हो
या जागतिक, तुष्ट न था
गरुड़
भूखा भी. केवल आत्मस पर बढ़ता था.
विनता चिन्तित होती,
‘तुम कुछ न खाओगे यदि तब अपने भाई की
भाँति अविकसित रह जाओगे’
तो कहता गति उसका भोजन, बुझाता आकाशगंगा
से अपनी प्यास और तारागणों
का आलोक उसका दूध है.
फिर भटका करता भटका करता
भटका करता जैसे सृष्टि के पहिए की धुरी में उसे
बनानेवाला भटका करता है.
इच्छा से एक से होने को दो उसने ब्रह्माण्ड बनाया
अजन दो पर नहीं रुका.
असंख्य जीव— वनस्पतियाँ,
कीट, मत्स्य, घड़ियाल, गगनचर, मानुष बनाए,
जड़ भाग गढ़ा जैसे चाक कुम्हार चलाता है.
एकान्त
में जी नहीं लगता था केवल इसलिए क्या इतना
बड़ा आयोजन किया
जैसे राजा यज्ञ करता है, लाखों
जन की पंगत मीठे और खारे व्यंजन खाती, दीये
करोड़ों जलते है, संगीत, नर्तन, गेंदे के कुसुमों से
उत्सव बन जाता है अपने आप पण्डाल में—
इस प्रकार उसने सृष्टि रची.
पहले शून्य से घबराया.
फिर इतना गढ़ा कि एकान्त को दुर्लभ पा
छोड़ गया हाथों गढ़ा अपना ही चलचित्र .
इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजता गरुड़ भटक रहा
था.
उत्स से दक्षिण को जाती, उत्तरवाहिनी कहीं, कहीं
पद्मों से भरी कीचड़
अपार और गंगासागर में विलीन होती जाह्नवी से ले
लुप्त सरस्वती, गोदावरी, कावेरी, कालिन्दी, शिप्रा,
नर्मदा, पंखवाले पर्वतों से लेकर दूर समुद्रों तक,
उड़ता था.
सोचता— क्या माँ को मौसी से दासतामुक्त
करने को उसका जन्म हुआ है मात्र
और उसके इस खग कलेवर में
व्योम में आने का कोई और कारण
नहीं है? नहीं है क्या? नहीं है?
अकारण ही दुख है.
कारण पाने से अर्थ की दीप्ति भर जाती है और गिरता
आँसू चमकने लगता है
जैसे जुगनू मुँह में दबा मांसाहारी मछली नदी
में तैरती है.
वह कारण ही खोज रहा था. एक दिन
बृहस्पति से टकरा टूट गया डैने का एक भाग
पुराना,
वहाँ नया कत्थई पंख आ रहा था. तब सोचा
नीचे ही देख देख क्यों मैं अर्थ खोजूँ!
ऊपर मैं देखूँ. ऊँची भरी उड़ान.
अनन्त पर लिखी जा सकती है क्या
कविता.
टीका अनन्त की करने के मैं योग्य नहीं तो
इस प्रसंग को क्या यहीं दे दूँ विराम.
इतना भर हूँ
बता सकता— अनन्त की कल्पना इसका प्रमाण है
कि मर्त्य हम मनुष्यों में है कुछ ईश्वरीय.
तर्क नहीं
करते अनन्त तक की यात्रा दुःख की तरह.
तो क्या मनुष्य की तरह अनन्त
भी अकारण है? सोचता था.
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गरुड़ की काव्यकथा किसी मिथकीय सामर्थ्य की कथा न होकर मानवीय दुःख, पीड़ा और विषाद की कथा बन गई। मैं डरता था कि अवसाद की न बन जाए पर ऐसा नहीं हुआ। अम्बर का यह गरुड़ हमारे भीतर अपने विशाल पंख फड़फड़ाता है जैसे। दूसरी आवाज़ों के साथ इस कविता में एक मंद्र ‘ध्वनि’ शामिल है। होने न होने के बीच की बनती-बिगड़ती दुनिया के वृक्ष की डगाल पर अशांत बैठा एक गरुड़ यानी यह कविता …..
अमृत को ठुकरा कर जो ढोता रहा ईश्वर को अपनी पीठ पर वैसे ही जैसे ढोते हैं मनुष्य या फिर मनुष्य ढोता रहा ईश्वर को अपनी पीठ पर जैसे ढोता है वह….. कवि, मेरे लिए तुम्हारी यह कविता एक लम्बा पाठ है, जाने कब तक चले।
अभी तो एक साँस में बहुत बेचैनी के साथ इसे पढ़ गया हूँ। इसे पढ़ने का यही सही तरीका भी है शायद।
शशांक की स्मृति को नमन।
अम्बर के गरुड़ की उड़ान निश्चय ही बहुत लंबी है, दूर से देखने पर उतना ही चकित-विस्मित करती है। लेकिन बहुत पास जाने पर उसके डैने पस्त, पुराने और बूढ़े-से लगते हैं, पंखों से रेशे झरते हुए लगते हैं। अम्बर के कवि से यह डटकर और उसके सम्मुख भी कहा जा सकता है क्योंकि उनमें वह क्षमता है कि हर बार अपनी ही राख से एक नई काया पैदा कर सके। लेकिन यहाँ मुझे गरुड़ नया कम, पुराना ही अधिक लगता है।
फिलहाल यह बधाई देने की जगह है। सो मेरी भी बहुत बधाई। यदि समय हुआ तो विस्तृत आलोचना बाद में की जाएगी। एक साँस में पढ़ तो मैं भी गया लेकिन सोचा कि मेरी टिप्पणी पहली टिप्पणी न हो। और चूँकि जल्दबाजी भी नहीं करता इसीलिए मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। मौर्य जी की ओपनिंग टिप्पणी से मेरी प्रतीक्षा सम्पन्न हुई। वैसे अगर यह मेरी पीढ़ी के एक कवि द्वारा लिखी गई एलजी है तो सबसे पहले सम्मान की हक़दार है। लेकिन अगर यह “कविता” भी है तो उसे केवल उस सम्मान के आवरण में पढ़ना कविता का अपमान भी है। हमारे ऊपर है कि हम किसका सम्मान और किसका अपमान करना चाहते हैं।
अम्बर जी, थोड़ा ठहर कर, दूसरी-तीसरी साँस में इसे पढ़कर, इस पर विस्तृत संवाद करना चाहूँगा। क्योंकि चाहे जिस अर्थ में भी, इसने मुझे झकझोड़ तो दिया ही है। आपकी अगली उड़ान के लिए मेरी मंगलकामनाएँ!
अम्बर के गरुड़ की उड़ान निश्चय ही बहुत लंबी है, दूर से देखने पर उतना ही चकित-विस्मित करती है। लेकिन बहुत पास जाने पर उसके डैने पस्त, पुराने और बूढ़े-से लगते हैं, पंखों से रेशे झरते हुए लगते हैं। अम्बर के कवि से यह डटकर और उसके सम्मुख भी कहा जा सकता है क्योंकि उनमें वह क्षमता है कि हर बार अपनी ही राख से एक नई काया पैदा कर सके। लेकिन यहाँ मुझे गरुड़ नया कम, पुराना ही अधिक लगता है।
फिलहाल यह बधाई देने की जगह है। सो मेरी भी बहुत बधाई। यदि समय हुआ तो विस्तृत आलोचना बाद में की जाएगी। एक साँस में पढ़ तो मैं भी गया लेकिन सोचा कि मेरी टिप्पणी पहली टिप्पणी न हो। और चूँकि जल्दबाजी भी नहीं करता इसीलिए मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। मौर्य जी की ओपनिंग टिप्पणी से मेरी प्रतीक्षा सम्पन्न हुई। वैसे अगर यह मेरी पीढ़ी के एक कवि द्वारा लिखी गई एलजी है तो सबसे पहले सम्मान की हक़दार है। लेकिन अगर यह “कविता” भी है तो उसे केवल उस सम्मान के आवरण में पढ़ना कविता का अपमान भी है। हमारे ऊपर है कि हम किसका सम्मान और किसका अपमान करना चाहते हैं।
अम्बर जी, थोड़ा ठहर कर, दूसरी-तीसरी साँस में इसे पढ़कर, इस पर विस्तृत संवाद करना चाहूँगा। क्योंकि चाहे जिस अर्थ में भी, इसने मुझे झकझोड़ तो दिया ही है। आपकी अगली उड़ान के लिए मेरी मंगलकामनाएँ!
गरुण के मिथक से हमारे जीवन और अस्तित्व की कथा व्यथा कहती एक सार्थक कविता। भाषा का सौंदर्य और अर्थगम्भीरता कविता को और प्रभावी बना रहे। कवि और समालोचन दोनों को साधुवाद।
तुम जाओ पक्षीराज, समुद्र मंथन में
अमृत निकला है.
हम नाग उसे पीना चाहते है.
माँ ने हमें मृत्यु का दिया है शाप.”
“माँ ने?”
“माँ ही तो देती है मरण का शाप.
जन्म के संग मृत्यु जन्मती.”
बेहतरीन !
सबसे पहले तो बधाई, दुःख और अवसाद के बाद रचनात्मक अभिव्यक्ति ही रचनाकार को उबारती है। जनमेजय के नागयज्ञ से लेकर जरत्कारु और आस्तीक की कथा बुनावट में गरुण की यह अभिव्यक्ति कई पाठ की माँग करती है, फिर यह भी कि यह कविता अपने समकालीन समस्याओं को कितना सम्बोधित करती है? करती है। इस सम्बोधन में ही कविता प्रसारण के गुणचिन्ह निहित है। पुनः बधाई।
“अमरण की इच्छा का शाब्दिक अर्थ है अमरण की मृत्यु!” ये कविता कितनी ही बार पढ़ी जाने के बाद भी अनन्त स्रोतों से तर्कशास्त्र, दर्शन और ज्ञानयोग की बूँद बूँद से जिज्ञासु मन के पोर पोर को तृप्त करेगी!
“अम्बर का गरुड़”
••••••••••
हिंदी के विलक्षण युवा कवि मेरे सबसे प्रिय और लाड़ले अम्बर पांडेय Ammber Pandey की नई लम्बी कविता गरुड़ पढ़ी – समझी जाना चाहिये, भले मुश्किल लगें पर जितनी बार आप पढ़ेंगे – जितना पाठ करेंगे, उतने संवेदना के स्तर पर आप पहुंचेंगे, यहाँ गरुड़ मात्र प्रतीक है पर इस बहाने जो जन्म, मृत्यु और पूरे जीवन संघर्ष का एक वृहत्तर व्योम वे रचते है – वह हमें अपने आप में भी झांकने का और स्व मूल्यांकन का मौका देता है – यहां गरुड़ के बहाने प्रश्न पूछने, अस्तित्व को समझने, अपने कर्म और अंत में एक कबीराना अंदाज़ है
भाषा, शिल्प सन्दर्भ और प्रसंगों के बरक्स यह उतनी ही दुरूह और क्लिष्ट है – जितनी इलियट की “द वेस्ट लैंड” और मुझे नही लगता कि वर्तमान में हिंदी के फलक पर कोई कद्दावर है जो इसे ठीक – ठीक समझ पाये , अपने भाई शशांक की स्मृति में लिखी यह कविता हिंदी में एक नई बहस पैदा करेगी और निश्चित ही इससे एक दिशा भी निकलेगी, अम्बर और स्व शशांक से मेरा परिचय दशकों पुराना है, शशांक का गुजर जाना एक हादसा ही है और अम्बर ने शशांक की स्मृति में जो शोकगीत लिखें है – 36 तक तो मैने पढ़ें है – उन्हें पढ़कर एक झुरझुरी उठती है और उसी क्रम में यह कविता एक मुकाम तक आपको लाती है
यह कविता मेरी नजर में पिछले पचास वर्षों में लिखी गई अपने आपमे एक अनूठी रचना है, और सुझाव है कि अम्बर को इसके बारे में पैराग्राफ वाइज़ नोट्स लिखना चाहिये ताकि मेरे जैसे मूढ़मति पाठको को वो सब जानने सीखने को मिलें जो ना मात्र पुराणों में है सन्दर्भों में है बल्कि जो इस सबसे जोड़ते हुए जीवन, साथ और मृत्यु तथा मृत्यु के बाद उपजे वियोग को भुगतने की अंतर्दृष्टि विकसित हो सकें, अंत मे इस पर एक किताब भी आये तो हिंदी का भला होगा, लम्बी, घटिया, कचरा कविताओं को छपते देखा है और खरीदा भी है इससे तो बेहतर है कि गरुड़ जैसी कविताएँ छपे और बांटी जाए या पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाए पर जड़ बुद्धि घटिया राजनीति करने वाले हिंदी के मठाधीश और प्राध्यापकगण इस पर ध्यान नही देंगे
अम्बर तुम हमेशा कमाल करते हो और निशब्द कर देते हो, बार – बार पढूंगा और समझूँगा, खूब लिखो, यश कमाओ – शुभाशीष
#कुछ_रंग_प्यार_के
एक बार पढ़कर समझना और कुछ कह पाना मुश्किल है मेरे लिए ,पौराणिक कथाओं और शास्त्रों का अध्ययन करने वाला ही इसे उस गंभीरता से आत्मसात कर पाएगा जिस गंभीरता से यह लिखी गई है, मृत्यु के दुख , विषाद से जन्मी अद्भुत कविता है जिसे अभी मैं बारबार पढूंगी, अम्बर हमेशा ही विस्मृत करते हैं, उनकी रचनाओं पर कहने के लिए शब्द कम ही रह जाते हैं… मेरे लिए यह अद्भुत कविता है |
किसी मिथक को विषय-वस्तु बनाकर काव्य-सृजन करना एक कठिन साधना है।और यह अगर जीवन के शाश्वत प्रश्नों से संबद्ध हो तो और भी कठिन है। मृत्यु के बारे में जानने की जिज्ञासा भारतीय आध्यात्म दर्शन की केंद्रीय विषय-वस्तु रही है।हमारे जीवन-दर्शन का प्रारंभ ही मृत्यु-दर्शन से होता रहा है।इस दृष्टि से यह कविता एक विशेष महत्व रखती है ।अम्बर जी को साधुवाद !
ठहर कर पढ़ना होगा कथा परिचित है पर उसका ट्रीटमेंट और भाषा अलहदा है अंबर पांडेय की
बीच बीच में कौंधती हुई पंक्तियाँ हैं
श्रीकांत वर्मा लिख गए थे गरुड़ किसने देखा है
अब अंबर पांडेय की आँख से दिखा है पर ठहर कर देखना होगा
गरुड़ पर एक कथा आचार्य चतुरसेन की पढ़ी थी बचपन में। उसमें गरुड़ के जन्म और उनकी तीव्र क्षुधा का आख्यान प्रस्तुत हुआ था। मिथक के रूप में पौराणिक महत्त्व तो है ही गरुड़ का। लम्बी कविता को पढ़ने के लिए पर्याप्त समय दिये बिना कोई टिप्पणी करना एक जालसाज़ी होगी। गरुड़पुराण और जनमेजय का नागयज्ञ जैसे उपजीव्य प्रसंगों को पुनः पढ़ कर ही कोई बात कही जा सकती है। लम्बी कविताएँ आकर्षित तो करती हैं। उन्हें रचना भी साधारण कार्य नहीं है।
गरुड़ इतने भी भोले नहीं थे। गरुड़ध्वज हुए। इंद्र तक को लपेटा दिया। वैष्णवों को आश्रय मिला।अम्बर की गारुड़ी में कई पलटे हैं । इतने कि कामू काफ़्का और नीत्शे भी इसमें नागपाश की तरह कविता के आरुणी अश्व उच्चैश्रवःकी पूँछ से लिपट गए हैं । (पहली बार वाल्मीकि की रामायण या शायद तुलसी के मानस में कैकेयी के प्रसंग में विनता और कद्रू का ज़िक्र पढ़ा था और बाद में महाभारत में । गरुड़पुराण इधर उधर मृत्यु प्रसंगों में कहीं आधा अधूरा सुना होगा। कभी आकर्षक नहीं लगा। वितृष्णा भी हुई सुनने- सुनाने वालों से, पर यह अपनी अपनी आस्था का विषय है ।मैं इसपर कुछ कहने वाला कौन हूँ ?)
गरुड़ पुराण के विकर्षक भयादोहन के सम्मुख गरुड़ का यह प्रशांत अमरणनिग्रह बहुत आश्वस्तिदायक है। ऐसी रचनाएँ भारतीय मिथकों के अक्षय वैभव का सत्यापन भी करती रहती हैं। लम्बी आख्यानाधारित कविताओं में चरित्र और प्रसंग, मुख्य कथ्य से भटका भी देते हैं। भाषिक सुर को यथावत थामे रखना भी चुनौतीपूर्ण होता है। यह कविता भी यत्र तत्र यत्किंचित अस्थिर होती है किंतु इसके बीच बीच में कुछ ऐसी दीप्त पंक्तियाँ हैं कि इस सब पर उतना ध्यान नहीं जाता। आख्यान के इस वितान को बस पार्श्व में रख कर यह कविता मात्र गरुड़ के साथ उड़ान भरती तो अंत में यह जिस गन्तव्य पर पहुंची है उसमें और चमकीली उठान होती। पंख आख्यान के हों और उससे आबद्ध न हों , तो एक बिल्कुल नई उड़ान सम्भव हो सकती है।
अधिकतर लम्बी कविताओं की तरह इस कविता में भी एक इतिवृत्त है।परंतु कालक्रम नहीं है। विनता जनमेजय के नागयज्ञ की कथा सुनाती है, मानो नागयज्ञ गरुड के जन्म से पहले हुआ। दूसरी ओर विनता के समय में चांद, तारे, सूर्य और सृष्टि सभी निर्माण की प्रक्रिया में हैं। काल भी नहीं है। जनमेजय की कथा काल के पूर्व की कैसे हो सकती है, वह तो द्वापर युग की कथा है।
तो यह इतिवृत्त है भी और नहीं भी। कालक्रम को भूलकर ही यह कविता पढ़नी होगी। अर्थात अविभाज्य काल।
कविता प्रत्येक जीव की ‘ऑटाॅनमी’ से आरम्भ होती है। वह है यही उसके बने रहने का तर्क है।
कविता के दूसरे भाग में सृष्टि के निर्माण का वर्णन है। सृष्टि के पूर्व अनाहत नाद था जिसे प्रणव या ओंकार कहते हैं। इस नाद के गर्भ में सृष्टि थी जो व्यक्त हुई। सृष्टि में कुछ भी सृष्ट नहीं है, जो निहित है वही प्रकट होता है। इसकी समांतर विचारधारा, जिसके अनुसार वस्तुसत्ता सत्य है और किसी निहित ‘आइडिया’ पर उसकी सत्ता निर्भर नहीं होती, का संकेत विनता की सौत कद्रु के दृष्टिकोण में प्रकट होता है।
तीसरे भाग में गरुड के आत्मज्ञान के लिए समस्त विश्व में भटकने का वर्णन है।मैं कौन हूं और सृष्टि क्या है- ये प्रश्न उसे उद्वेलित करते हैं। वह अनंत के ‘आइडिया’ को समझ पाता है, यह भी कि मानव में भी उसका प्रकाश है। अनंत के उद्देश्य की खोज के दौरान उसकी भेट अपने सौतेले भाई(शेषनाग?) से होती है जो मृत्यु के भय से छुपकर खोह में छिपा है। गरुड, जो अमृत का वाहक होकर भी अमृत का पान नहीं करता, जानता है कि मृत्यु अनंत का द्वार है न कि अमरत्व।
अंतिम अंश में आज के गरुड नाम से परिचित पक्षी (शायद बाज या शंखचील) का उल्लेख है जिसे यह भी नहीं पता कि वह ईश्वर (विष्णु) का वाहन है या उसकी लाश को ढो रहा है।
एक तरह से यह कविता भारतीय चिन्तन और उसके वर्तमान संकट का इतिहास है।
×××
इस कुंजिका का जो पाठ करेगा वह अंबर तरेगा।
अद्भुत ! इसके अतिरिक्त कुछ भी कहना संभव नहीं ।
शशांक अंबर के अभिन्न अंग थे,शायद अब भी हैं । अभिन्न अंग के न रहने की टीस बहुत कुछ बदल देती है। जीवन और मृत्यु दोनों ही तो हमारे लिये अबूझ हैं। एक नश्वर होकर भी प्रिय है और दूसरा शाश्वत होकर भी अप्रिय । सर्प हमारी कामनाओं के ही तो प्रतिरुप हैं जो हमें डस रहे हैं और वासना का विष हमें मृत्यु की तरफ ढकेल रहा है। हमें हमारा ज्ञान रूपी गरूड़ कहां दिखाई देता है,वह तो अहं और अज्ञान के तिमिर में कामनाओं को ग्रहण करने में लगा है।
यूँ तो प्रिय कवि अम्बर सदैव ही अपनी लेखनी से अपने पाठकों को विस्मित और आनन्दित करते रहे हैं।
किन्तु “गरुण” लिखकर तो कवि ने हम सबको स्तब्ध ही कर दिया है।
जनमेजय नाग यज्ञ और अन्य पौराणिक कथाओं के संदर्भों को अपनी दिव्य दृष्टि से परिष्कृत करके लिखा गया “गरुण” जीवन – मृत्यु के अबूझ रहस्य पर लिखी एक उत्कृष्ट रचना है। बहुत बहुत बधाई कवि।
काश! शशांक तुम भी पढ सकते…😢
प्रिय भाई और सखा शशांक की असामयिक मृत्यु के बाद प्रिय कवि अम्बर ने अपने दुख और अश्रुओं को शब्दों में पिरोकर बहुत सारी कविताएँ भी लिखीं जो सदैव ही हम सब संवेदनशील पाठक मित्रों के हृदय में उतरकर हमारी आँखें नम करती रहीं हैं ।
हमारे युग के सर्वश्रेष्ठ युवा कवि अम्बर , अब तुम से अपेक्षाएँ बढती जा रही हैं।
कहा तब आस्तीक ने आ, “सृष्टि नहीं मानव
केंद्रित गढ़ी ब्रह्मा ने कि प्रत्येक जीव केन्द्र है सृष्टि का,
उन्हें मारना यों कैसे शिव हो सकता है.
दसों दिशाओं में जब शोकग्रस्त कर रहे हो क्रंदन
कैसे यजमान कोई सुखी हो सकता?
—
अभी यहीं हूँ। ये पंक्तियां मेरे जीवन के उस पक्ष से मुख़ातिब हैं जो वर्षों से क्रमशः देहात्म को अपने पाश में लेता गया है। इसलिए यहाँ अटक गई हूँ।।
शोक में श्लोक की अंतर्ध्वनि इतनी सघन है कि इसके आस्वादन के लिए सुदीर्घ यात्रा दरकार है।
अम्बर है…और उसकी कविता को समझने जानने वाले सहृदय हिंदी में बैठे हुए हैं यह टिप्पणियों से ही स्पष्ट होता है। मेरे लिए यह बात आश्वस्ति और सुख का स्रोत है, और यह स्रोत बहुत गहरा और स्वाद-सम्पन्न है। जो सहृदय विस्तृत आलोचना का संकल्प लिए बैठे हैं, उनकी प्रतीक्षा रहेगी। उन्हें सुनना एक और यात्रा का शुभारंभ होगा।
शिरीष और संदीप को ख़ास सुनती हूँ मैं। उनके हृदय को थोड़ा बहुत जानने लगी हूँ।
शिल्प की दृष्टि से अम्बर का रचा सुनील ध्वन्यलोक रोम रोम को रोमांचित करता है। एलियट तो कह ही गए हैं, “Poetry can be communicated before it is understood. ”
So the abundance and plenitude of communication has already taken place. Understanding may or may not follow. I can’t make any claims quite yet.
लेकिन उखड़े श्वास के साथ गरुड़ के साथ रहने का संकल्प मैंने ले लिया है। और यह मेरे दीक्षित होने की घड़ी है। इसी अरण्य में कुछ और घटेगा…यह तय है, आहट किस ओर से आएगी, ख़बर नहीं है फ़िलवक्त।