• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र: रविभूषण

प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र: रविभूषण

प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880-8 अक्तूबर 1936) की आज पुण्यतिथि है. प्रेमचंद के लेखन में निर्मित हो रहे आधुनिक भारत की समस्याओं और उसके अंतर-विरोधों की विवेचना मिलती है. अगर वर्तमान की गहरी समझ हो तो भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है, लेखक इसीलिए भविष्यदृष्टा कहे जाते हैं. प्रेमचंद की अपने समय की लोकतांत्रिक गतिविधियों पर जो दृष्टि थी उसे ध्यान में रखते हुए यह आलेख वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने लिखा है. प्रेमचंद के इस आयाम पर अधिक विचार हुआ नहीं है.

by arun dev
October 8, 2021
in आलेख
A A
प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र: रविभूषण
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र

रविभूषण

इसकी किंचित‌ संभावना है कि विचारवान लोगों को इस शीर्षक पर आपत्ति होगी, क्योंकि प्रेमचंद के निधन के पचासी वर्ष बीत चुके हैं और उनके साथ आज के भारतीय लोकतंत्र को जोड़ा जा रहा है. कालजयी रचनाकार हमारे समय से सार्थक ढंग से जुड़कर ही कालजयी, अर्थवान और प्रासंगिक होता है. आज दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों- भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में लोकतंत्र संकटग्रस्त है. केवल इन दोनों देशों में ही नहीं, अन्य कई लोकतांत्रिक देशों में भी लोकतंत्र एक खतरनाक मोड़ पर है.

लंदन स्थित 1946 में स्थापित ‘द इकॉनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ प्रत्येक वर्ष लोकतंत्र सूचकांक विश्व के देशों में लोकतंत्र की स्थिति पर पाँच पैरामीटर्स- चुनाव प्रक्रिया, बहुलतावाद, सरकार की कार्य शैली, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक आजादी के जरिये जारी करता है. इस वर्ष भारत दो स्थान नीचे खिसक कर 53वें स्थान पर आ गया है और राजनेता बोल रहे हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं.

स्वीडन के गुथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के राजनीति-विज्ञान विभाग के स्वीडिश राजनीति-विज्ञानी प्रोफेसर स्टैफैन आई. लिंडबर्ग ने 2014 में एक स्वतंत्र शोध-संस्थान बी.डेम (वेरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी) की स्थापना की, जो प्रत्येक वर्ष एक वार्षिक ‘डेमोक्रेसी रिपोर्ट’ प्रकाशित करता है. 2020 की रिपोर्ट में इसने ‘भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ, तेजी से गिरावट के रास्ते पर’ प्रकाशित की थी.

इस वर्ष 2021 की रिपोर्ट ‘आटोक्रैटाइजेशन टर्न्स वायरल’ पर है. 52 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को पढ़ने पर यह ज्ञात होगा कि जो देश अपने को ‘लोकतांत्रिक’ कहते हैं, वहाँ लोकतंत्र की वास्तविक स्थिति क्या है.  यह रिपोर्ट यह बताती है कि उदार लोकतंत्र का ह्रास का यह दूसरा वर्ष है. इस रिपोर्ट को पढ़ने पर यह ज्ञात होगा कि जो देश अपने को ‘लोकतांत्रिक’ कहते हैं, वहाँ लोकतंत्र की वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट यह बताती है कि उदार लोकतंत्र  के ह्रास का यह दूसरा वर्ष है. इस रिपोर्ट के अनुसार उदार लोकतंत्र में भारत 97वें स्थान पर और संयुक्त राज्य अमेरिका 31 वें स्थान पर है. पहले स्थान पर डेनमार्क और 178 स्थान पर उत्तरी कोरिया है, भूटान 71 वें, नेपाल 75 वें, श्रीलंका 88 वें  और पाकिस्तान 116 वें स्थान पर है.  चुनावी लोकतंत्र इंडेक्स में भारत का स्थान 101 है.

भारत में अब आंशिक रूप से ही एक स्वतंत्र लोकतंत्र है. अकारण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय लोकतंत्र पर कई पुस्तकें आई हैं, जिनमें शिव विश्वनाथन की पुस्तक ‘थियेटर्स ऑफ डेमोक्रेसी बीटविन द एपिक एंड द एवरीडे (हार्पर कौलिन्स, 2016), योगेन्द्र यादव की पुस्तक ‘मेकिंग सेंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी’ (परमानेंट ब्लैक, 2020) और अभी लगभग साढ़े तीन महीने पहले प्रकाशित देवाशीष राय चौधुरी एवं जॉनकीन की पुस्तक ‘टू कील ए डेमोक्रेसी इंडियाज पैसेज टू डेस्पोटिज्म’ (ऑक्सफोर्ड, 24 जून 2021) का अधिक महत्व है.

अमेरिका में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने और भारत में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों देशों की लोकतांत्रिक दशाओं पर अनेक लेख लिखे गये, इंटरव्यू दिये गये और अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. डेनियल जिब्लाट एवं स्टीवन लेविट्स्की ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाई’ (2018) में यह बताया है कि निर्वाचित नेता भी लोकतंत्र की हत्या करता है.

‘द न्यूयार्क टाइम्स’ के साप्ताहिक स्तंभकार एवं तीन बार पुलित्जर अवार्ड विजेता अड़सठ वर्षीय थॉमस. एल. फ्रीडमैन इस समय अमेरिकी लोकतंत्र में 245 वर्षों के प्रयोग को ‘बेहद संकट’ में देख रहे हैं, जबकि वहाँ केवल दो राजनीतिक दल- डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन हैं. इसके विपरीत भारत में राजनीतिक दलों की भरमार है. अभी लोकसभा में कुल 36 राजनीतिक दलों के सांसद हैं.

आज के समय में जिन कुछ लेखकों की याद अक्सर आती है, उनमें प्रेमचंद सर्वोपरि हैं. 31 जुलाई को उन्हें सब याद करते हैं और स्मृति दिवस (8 अक्टूबर) पर उन्हें कम याद किया जाता है. प्रेमचंद ने अपने समय में उन सभी सवालों पर विचार किया है, जिनसे हम सब आज भी जूझ रहे हैं. आजादी के अमृत महोत्सव का शुभारम्भ हो चुका है और अब हम प्रेमचंद की स्वराज्य-दृष्टि पर कम ध्यान देते हैं. प्रेमचंद ने अपने समय में लोकतंत्र पर जो विचार किया  था, क्या हमने उस पर समुचित रूप से प्रकाश डाला?

नयी से नयी किताब में इस पर ध्यान न के बराबर दिया गया है. अभी उन पर जो एक किताब आई है, उसमें भी प्रेमचंद द्वारा लोकतंत्र पर किये गये विचारों की चर्चा नहीं है. पहले भी नहीं थी, आज भी नहीं है. इसका कारण क्या है? प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचकों ने प्रेमचंद पर काफी महत्वपूर्ण लिखा है, ‘गोदान’ पर लेखों और पुस्तकों की कमी नहीं है, पर प्रेमचंद लोकतंत्र के बारे में क्या सोचते-समझते थे, क्या लिख रहे थे, उस पर आज के समय में भी हमारी निगाह क्यों नहीं जाती, जबकि लोकतंत्र के सातों शत्रु- ‘भ्रष्टाचार, उग्रवाद, आतंकवाद और हिंसा, वंशवाद-परिवारवाद, कॉरपोरेटवाद, राजनीतिक अधिनायक प्रवृत्ति, निरंकुश शासकीय व्यवस्था, अवांछित गोपनीयता, प्रेस पर प्रतिबन्ध और अशिक्षा एवं निरक्षरता विद्यमान है.

हिन्दी में जिस समय कविता और साहित्य के लोकतंत्र को लेकर कुछ कवि-लेखक चिन्तित थे, उस समय के पहले से ही भारतीय लोकतंत्र का क्षरण हो रहा था. नागार्जुन ने 1965 में ‘भरत भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है’ कविता लिखी थी, इसके बाद रघुवीर सहाय, धूमिल एवं अन्य कई कवियों की कविताओं में लोकतंत्र को लेकर चिन्ताएँ प्रकट की गयीं, पर आलोचकों ने लोकतंत्र को केन्द्र में रख कर कविताओं की गंभीर आलोचना कम की. ‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कह कर आप हँसे.’ क्या यह अपने समय के ज्वलन्त सवालों से बच कर चतुराई से निकल जाना है या इन्हें केवल ‘टच’ कर आलोचना के सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व से बचना भी है? भारत में राजनीतिक दलों पर आधारित संसदीय लोकतंत्र है और भूमंडलीकृत भारत में संसद में क्रमशः अपराधियों-बलात्कारियों एवं करोड़पतियों की संख्या बढ़ती गयी है. अब लोकसभा में चालीस प्रतिशत से अधिक सांसदों पर अपराध के मुकदमे हैं और नब्बे प्रतिशत के लगभग सांसद करोड़पति हैं.

‘गोदान’ के आलोचकों ने राय साहब के धनुष-यज्ञ पर विस्तार से विचार नहीं किया है. इस उपन्यास के प्रकाशन (1936) के तेरह वर्ष पहले प्रकाशित प्रेमचंद के नाटक ‘संग्राम’ पर फिर क्यों ध्यान दिया जाये? ‘संग्राम’ प्रेमचंद का पहला नाटक है, जिसे उन्होंने 1922 में लिखा था और इसका प्रकाशन फरवरी 1923 में हुआ. इस नाटक का प्रमुख पात्र सबल सिंह स्वराज-समर्थक जमींदार हैं, प्रगतिशील और अध्ययनशील हैं. ‘डेमोक्रेसी’ पुस्तक पढ़ कर उसके सामने पूंजीवादी जनतंत्र का यथार्थ रूप स्पष्ट हो जाता है और उसे यूरोप का जनतंत्र सम्पत्तिशाली लोगों का खिलवाड़ लगता है –

‘‘प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानी से क्यों न चुनें, पर अंत में सत्ता गिने-गिनाए आदमियों के हाथ में चली जाती है… यह व्यवस्था अपवादमय विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है.’’

सबल सिंह लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था नहीं मानता. उसके अनुसार

“आदर्श व्यवस्था वह है, जिसमें सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महान बनकर जनता पर रोब न जमा सके.’’

लोकतंत्र के चार स्तंभों में एक न्यायपालिका है. सबल सिंह ने अदालतों को ‘सबलों के अन्याय की पोषक’ कहा है-

‘‘जहाँ रुपयों के द्वारा फरियाद की जाती हो, जहाँ, वकीलों-बैरिस्टरों के मुँह से बात की जाती हो, वहाँ गरीबों की कहाँ पैठ? यह अदालत नहीं न्याय की बलिवेदी है.’’

‘न्याय’ प्रेमचंद के साहित्य का एक प्रमुख बीज शब्द है. न्यायपालिका लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ है. आज उसी पर भारतीय संविधान की रक्षा का दायित्व है. भारतीय लोकतंत्र संविधान पर आधारित है. संविधान की ‘उद्देशिका’ में भारत को ‘एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य’ कहा गया है. आज भारत इन तीनों में से सही अर्थों में एक भी नहीं है.

1930 में ही प्रेमचंद ने ‘हंस’ में लिखा था

‘‘कानून केवल प्रजा के लिए ही नहीं है. सरकार पर भी उसके बनाये हुए कानून उतने ही लागू होते हैं, जितने प्रजा पर.’’

‘अकबर महान’ की जीवनी में उन्होंने अकबर की न्याय-व्यवस्था की प्रशंसा की है और यह लिखा है कि वह ‘निष्पक्ष’ और ‘विवेकवान’ थी.

‘‘न्याय अदना से अदना आदमी की पहुँच में हो, इसका समुचित प्रबंध किया गया.’’

प्रेमचंद का समस्त लेखन ब्रिटिश शासन के दौर का है. अब हम सब स्वाधीन भारत के नागरिक हैं और आजादी का अमृत महोत्सव (75 वीं वर्षगाँठ) मना रहे हैं. ‘गोदान’ में मालती सोचती है

‘‘राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है. हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायें और दंडकारी पुलिस बैठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं.’’

प्रेमचंद ने सौ वर्ष पहले 1922 की ‘मर्यादा’ पत्रिका में (‘नया वर्ष’) कौंसिल की वक्तृताओं को ‘निरर्थक’ ‘अप्राकृतिक’ और ‘सामर्थ्यहीन’ कहा है. एसेम्बली और कौंसिलों पर वे कम विचार नहीं करते, पर उनके आलोचक इस सब पर कम नजर डालते हैं. अंग्रेजों के शासन-काल की इन कौसिलों का अपना एक इतिहास है. ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन-काल में भारत का पहला गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स (6.12.1732-22.8.1818) था. वह बंगाल की सुप्रीम कौंसिल का पहला प्रमुख भी था. हेस्टिंग्स 20 अक्टूबर 1774 से अपने त्याग पत्र के समय 8 अक्टूबर 1785 तक गवर्नर जनरल था. उसकी सुप्रीम कौंसिल के अन्य चारों सदस्य- लेफ्टिनेंट जनरल जॉन क्लैवरिंग, जॉन मॉनसॅन, रिचर्ड बारवेल और फिलिप फ्रांसिस अंग्रेज थे. जिस वर्ष 1774 में हेस्टिंग्स गवर्नर जनरल और कौंसिल प्रमुख बना था, उसी वर्ष उसकी कौंसिल के सदस्य भारत पहुँचे थे. आगमन के तुरत बाद फिलिप फ्रांसिस का वारेन हेस्टिंग्स से विरोध आरंभ हो  गया था. कौंसिल के तीन सदस्यों- फिलिप फ्रांसिस, मॉनसन और क्लैवरिंग ने गवर्नर जनरल के रूप में हेस्टिंग्स की नीतियों का विरोध किया था और उसे भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया था. उस पर जालसाजी/धोखेबाजी के आरोप लगाये थे. यह विरोध चरम पर पहुँच गया था- विशेषतः महाराजा नन्दकुमार (1705-5.8.1775) के मामले के बाद, हेस्टिंग्स पर महाभियोग लगाने का प्रयत्न असफल रहा और नन्द कुमार को, सुप्रीम कोर्ट ऑफ बंगाल ने, जिसकी स्थापना एक वर्ष पहले 1774 में हुई थी, धोखाधड़ी के मामले में दोषी सिद्ध कर 1775 में फाँसी दे दी. सुप्रीम कोर्ट ऑफ बंगाल के पहले चीफ जस्टिस सर एलिजा इम्पे (13.6.1732-1.10.1809) 22 अक्टूबर 1774 से 3 दिसम्बर 1783 तक अपने पद पर थे. वे हेस्टिंग्स के बचपन के मित्र थे. उन्होंने मैत्री-धर्म का निर्वाह किया. आज भारत के सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व प्रमुख न्यायाधीशों ने सरकार के पक्ष में निर्णय दिया. ईस्ट इंडिया कम्पनी के समय के सुप्रीम कोर्ट ऑफ बंगाल के पहले मुख्य न्यायाधीश के साथ इनकी संगति बैठाना क्या गलत है? यहाँ यह उल्लेख इसलिए जरूरी लगा कि न्याय-व्यवस्था कम्पनी के समय की हो, या महारानी विक्टोरिया के समय की या स्वाधीन भारत की, सबमें कुछ-न-कुछ साम्य दिखाई देगा.

प्रेमचंद अपनी रचनाओं में अनेक बार काउंसिल (परिषद, महासभा) पर विचार करते हैं. 1833 के चार्टर एक्ट ने काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन किया था. गवर्नर जनरल सहित इसके चार सदस्य थे, जो कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स द्वारा नियुक्त किये जाते थे. गवर्नर को वोट देने का अधिकार था, पर वीटो देने का नहीं. कोर्ट आफॅ डाइरेक्टर्स के प्रतिवेदन पर इन सदस्यों को हटाने का अधिकार ब्रिटेन के सम्राट को था.

1857 के बाद भारत के शासन का नियंत्रण ब्रिटिश सम्राट को सौंप दिया गया. इसी के बाद गवर्नर जनरल का नाम बदल कर वायसराय किया गया और समस्त अधिकार भारत सचिव को सौंपा गया. वायसराय की कौंसिल चार सदस्यों की थी और भारत सचिव की पन्द्रह की, जिसमें सात सदस्य ईस्ट इंडिया कम्पनी चुनती थी और 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी. इंडियन काउंसिल एक्ट का अपना इतिहास है 1861 और 1909 में यह इंडियन कौंसिल एक्ट था. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 में आया.

प्रेमचंद के समय ब्रिटिश भारत में 1920 में शाही विधान परिषद (इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल) और प्रांतीय परिषद का चुनाव भारत के आधुनिक इतिहास का पहला चुनाव था. प्रेमचंद एसेम्बली और कौंसिलों पर लगातार विचार करते हैं. ‘गोदान’ में मिर्जा खुर्शेद एक ‘मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखा कर कौंसिल में पहुँच गये थे. आडिनेंस बिलों पर भी प्रेमचंद ने विचार किया है. प्रेमचंद के विशेषज्ञों और आलोचकों का इस ओर विशेष ध्यान नहीं जाता है. 20 मार्च 1933 के ‘जागरण’ में उन्होंने लिखा –

‘‘एसेम्बली तथा कौंसिलों में द्वितीय श्रेणी के राजनीतिज्ञ और तृतीय श्रेणी के विचारक एकत्रित हो गये हैं, जिन्होंने केवल जनता के प्रतिनिधित्व के बल पर अपना विज्ञापन किया है, अपने कुचालों से जनता को, अपने निर्वाचन क्षेत्रों को और अपने देश को कलंकित किया है.’’

एसेम्बली और कौंसिलों को हटाकर आज हम उसके स्थान पर लोकसभा और विधानसभा रख दें, तो कोई फर्क पड़ेगा? एक महीने बाद 23 अप्रैल 1934 के ‘जागरण’ में उन्होंने लिखा –

‘‘हमें अब कौंसिलों और एसेम्बली में स्वार्थी, कमजोर, अकर्मण्य मेम्बरों को भेजने की जरूरत नहीं.’’

प्रेमचंद जहाँ कहीं कौंसिलों की बात करते हैं, वह प्रांतीय परिषद (काउंसिल ऑफ स्टेट) है.

प्रेमचंद का लेखन 1901 से आरंभ हो चुका था. वे 1919 के ‘गवर्नमेंट आफॅ इंडिया एक्ट’ से सुपरिचित थे. इंडियन काउंसिल एक्ट 1909 में गवर्नर जनरल को यह शक्ति प्रदान की गयी थी कि वह अपनी कार्यकारिणी परिषद में एक भारतीय सदस्य को नामांकित कर सकता है. पहले भारतीय सदस्य सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा थे. 1919 के ‘इंडिया एक्ट’ में यह संख्या बढ़कर तीन हो गयी. जहाँ तक चुनाव का प्रश्न है, ब्रिटिश भारत में पहली बार शाही विधान परिषद और प्रान्तीय परिषद का चुनाव 1920 में हुआ था, जिसे प्रेमचंद देख रहे थे और मात्र दो वर्ष बाद 1922 में उन्होंने कौंसिल की वक्ताओं को ‘निरर्थक’ कहा था. कौंसिल की सदस्य-संख्या बढ़ती गयी थी.

आज का उत्तर प्रदेश उन दिनों ‘युनाइटेड प्रोविंस’ था, जिसकी अपनी प्रान्तीय परिषद थी, जिसके सदस्य निर्वाचित होते थे. प्रेमचंद ने जहाँ भी चुनावों की बात कही है, वह कौंसिलों के, विशेषतः प्रान्तीय परिषद के चुनावों की बात है. प्रेमचंद ने चुनाव के आरंभिक वर्षों में ही चुनावों में अपनायी जा रही तिकड़मों का विरोध किया था और कभी चुनाव (इलेक्शन) को महत्व नहीं दिया. चुनाव में जिस तरह के लोग निर्वाचित हो रहे थे, प्रेमचंद ने केवल उसी को नहीं, उस पूरे ‘सिस्टम’ को देख-समझ कर अपने समय में उसके संबंध में जो मत प्रकट किये हैं, वे आज के चुनाव और पूरे ‘सिस्टम’ को समझने के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं.

उस समय लोकतंत्र, चुनाव, निर्वाचित जनप्रतिनिधि और लोकतंत्र के चार स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस की प्रेमचंद की  जैसी सुस्पष्ट समझ शायद ही किसी को रही हो. प्रेमचंद तीस के दशक में चुनाव, लोकतंत्र आदि पर पहले की तुलना में कहीं अधिक विचार कर रहे थे. तीस के इस दशक में ही यूरोप के कई देशों में लोकतंत्र असफल हो रहा था. प्रेमचंद के समय कौंसिलों के चुनाव होते थे. ‘हंस’ के प्रवेशांक (मार्च 1930) में उन्होंने लिखा

‘‘शैतान ही जानता है, चुनाव के लिए कैसी-कैसी चालें चली जाती हैं, कैसे-कैसे दाँव खेले जाते हैं. अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने के लिए बुरे से बुरे साधन काम में लाये जाते हैं. जिस दल के पास धन ज्यादा हो और कार्यकर्ता कैनवेसर अच्छे हों, उसकी जीत होती है. यह वर्तमान शासन-पद्धति का कलंक है. सबसे योग्य व्यक्ति नहीं, सबसे चालबाज लोग ही चुनाव के संग्राम में विजयी होते हैं. ऐसे ही स्वार्थी, आदर्शहीन, विवेकहीन मनुष्यों के हाथ में संसार का शासन है. फिर अगर संसार में स्वार्थ का राज्य है, तो क्या आश्चर्य.’’

आज का भारतीय लोकतंत्र लोक विमुख, जन विमुख, छद्म, औपचारिक, दिखावटी, घायल, वायरल ग्रस्त, अविश्वसनीय, रुग्ण, अनुदार, कागजी और नकली लोकतंत्र है – वस्तु-विधान में नहीं, रूप-विधान में है, मजमून में नहीं, लिफाफे में है. ‘कंटेन्ट’ में नहीं, ‘फार्म’ में है. अमेरिकी ‘डेमोक्रेसी’ को ‘कॉरपोरेटोक्रेसी’ कहा जाता है. भारतीय लोकतंत्र को ‘ऑटोक्रेसी’ (तानाशाही, निरंकुश राज्य तंत्र), मोबोक्रेसी (भीड़ तंत्र), इलेक्टोक्रेसी (चुनाव-तंत्र) और कॉरपोरेटोक्रेसी (कॉरपोरेट तंत्र) की ओर जाते हम सब देख रहे हैं. अगर यही स्थिति कायम रही, तो लोकतंत्र की केवल ठठरी बच जाएगी. पिछले सात-आठ वर्ष में लोकतांत्रिक मूल्यों में कहीं अधिक गिरावट आई है, लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया गया है, असहमति को राष्ट्रद्रोह बताया गया है और प्रश्नकर्ताओं, प्रदर्शनकारियों एवं आन्दोलनकारियों को ‘अर्बन नक्सल’ कहा जा रहा है.  दूसरी ओर वी-डेम (वेरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी) ने पाकिस्तान की तरह भारत को निरंकुश (ऑटोक्रेटिक) कहा है और इसे बांग्लादेश देश और नेपाल से खराब माना है.

भूमंडलीकृत भारत में लोकतांत्रिक सभी मूल्यों का लगभग परित्याग किया जा चुका है. अब लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन’ नहीं है. लोकतांत्रिक शासन-पद्धति को अन्य व्यवस्थाओं से इसलिए बेहतर माना गया था कि यहाँ  असहमति और विरोध का पूरा सम्मान था. अब विरोधियों पर मुकदमे किये जा रहे हैं, उन्हें जेल में डाला जा रहा है. दस महीनों से किसान प्रदर्शन कर रहे हैं और इन पंक्तियों के लिखते समय लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या कर दी गयी है. आज 55 देशों में दोषपूर्ण लोकतंत्र है, जहाँ विश्व की 43.2 प्रतिशत आबादी है. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के पहले ही लोकतंत्र अपना सामाजिक-सांस्कृतिक नैतिक रूप खोने लगा था. इस व्यवस्था के आगमन के पश्चात‌ अब वह एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में भी संकटग्रस्त है. 1940 में गांधी ने पश्चिम के लोकतंत्र को ‘हलके रंग का नाजी और फासिस्ट तंत्र’ कहा था. इसके दो वर्ष पहले ‘हरिजन सेवक’ (3.9.1938) में उन्होंने जनतंत्र के विकास में हिंसा और असत्य को बाधक माना था.

‘गोदान’ में राय साहब ने जेठ के दशहरे के अवसर पर धनुष-यज्ञ का जो आयोजन किया था, उस पर आलोचकों ने अधिक ध्यान नहीं दिया है.

‘‘इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी.’’

‘गोदान’ के लेखन-वर्ष (1932-33 से 1936) में 1934 में राज्य कौंसिल के सदस्यों का चुनाव होना था. इसके पहले 1921, 1926 और 1930 में चुनाव हो चुके थे. चुनाव के आरंभिक वर्षों (1920-21) से ही प्रेमचंद ने चुनाव पर लिखना आरंभ कर दिया था. ‘संग्राम’ नाटक (1923) से लेकर ‘गोदान’ (1936) तक लोकतंत्र और चुनाव-संबंधी उनके विचारों को यहाँ संक्षिप्त रूप में ही देखने की एक कोशिश की गयी है. ‘गोदान’ में मिर्जा खुर्शेद तंखा से ‘डेमोक्रेसी’ में भक्ति न रहने की बात कहते हैं. डेमोक्रेसी को उन्होंने ‘जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग’ कहा है. मिर्जा खुर्शेद की लखनऊ में जूते की दुकान है. वे पुराने जमाने के बादशाहों से तुलना करते हैं.

‘‘पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे… बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था. वह किताबें नकल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ा कर अपना गुजर करता था. मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक सूची गिना दी. कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह और कहाँ आज कल के मंत्री और मिनिस्टर. पाँच, छह, सात-आठ हजार माहवार मिलना चाहिए. यह लूट है डेमोक्रेसी’’

Page 1 of 2
12Next
Tags: प्रेमचंदरविभूषणलोकतंत्र
ShareTweetSend
Previous Post

गरुड़: अम्बर पाण्डेय

Next Post

जेम्स ज्वायस: दो नागर: अनुवाद: शिव किशोर तिवारी

Related Posts

मंगलेश की मंगलेशियत: रविभूषण
आलेख

मंगलेश की मंगलेशियत: रविभूषण

इस समय रामविलास शर्मा: रविभूषण
आलेख

इस समय रामविलास शर्मा: रविभूषण

आज के समय में मैनेजर पाण्डेय: रविभूषण
आलेख

आज के समय में मैनेजर पाण्डेय: रविभूषण

Comments 9

  1. मनोज मोहन says:
    9 months ago

    आज दलाल झुनझुनवाला की तस्वीर लगाई जाती है, उसकी लोकतंत्र पर कही बात समझने के लिए प्रधानमंत्री नतशिर हो रहा होता है, वहाँ प्रेमचंद की क्या बिसात… हिंदी साहित्य समाज का मार्गदर्शक कभी नहीं रहा…प्रेमचंद के लिखे-पढ़े में लोकतंत्र में ग़ज़ब की आस्था है. रविभूषणजी अकादमिकता से अलग प्रेमचंद को इसलिए देख पा रहैं कि उन्होंने ज्ञानघर के दरवाजे और खिड़कियाँ खोल रखी हैं, और उनकी व्यक्तिगत आस्था भी लोकतंत्र में ही है…

    Reply
  2. Hammad फारूकी says:
    9 months ago

    विश्लेषण परक, सम सामयिक लेख, साझा करके पढ़े जाने,चर्चा किया जाने वाला।आज के भारत की मूल राजनीतिक समस्या पर तार्किक ढंग से विचार किया गया है। और अच्छा।होता कि प्रेमचंद के समकालीन हिंदी।के अन्य लेखक,आलोचक लोकतंत्र के बारे में क्या सोच रहे थे,उसे कैसे देख रहे थे,उनका।भी उल्लेख होता । तो एक व्यापक परिदृश्य सामने आता । रवि भूषण जी, अरुण देव, समालोचन का।आभार।

    Reply
  3. रवि रंजन says:
    9 months ago

    समाजविज्ञान की विचार भूमि पर खड़े होकर रविभूषण द्वारा किया गया प्रेमचंद की भावभूमि का गहरा विश्लेषण ज्ञानवर्धक होने के साथ ही आज साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण की नई प्रविधि को प्रस्तावित करता है।

    Reply
  4. Gc Bagri says:
    9 months ago

    रविभूषण सर ने कितनी समग्रता के साथ अपनी बात रखी है। बहुत सी हमारी नहीं पढ़ी हुई रचनाओं और अध्ययन को नया दृष्टिकोण देता हुआ जरूरी आलेख।समालोचन और रविभूषण सर का शुक्रिया।

    Reply
  5. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    9 months ago

    रविभूषण जी अनोखे विषयों पर लिखने के लिये ख्यात है ,इसके लिए वे भरपूर अध्ययन करते है । यह आलेख इस तथ्य का उदाहरण है

    Reply
  6. पंकज मित्र says:
    9 months ago

    आज के लोकतंत्र की सारी रूग्णताओं को प्रेमचंद दूरदर्शिता के कारण पहले ही डायग्नोज़ कर चुके थे। रविभूषण जी का यह आलेख उन्हें सामने लाता है और प्रेमचंद के बारे में हमारी समझ को माँजता है।

    Reply
  7. M P Haridev says:
    9 months ago

    प्रेमचंद ने अपनी दूरदृष्टि से जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी वह वैसा नहीं हो सका अपितु जस की तस है । यह चिन्ता का विषय है कि लोकतांत्रिक पायदान पर भारत 97 नम्बर पर है और नेपाल 78 वें नम्बर पर । भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहने की बजाय सबसे अधिक जनसंख्या का लोकतान्त्रिक देश है । चीन 🇨🇳 की आबादी भारत से अधिक है । शुक्र है कि रवि भूषण जी ने चीन को लोकतान्त्रिक देश नहीं माना । नेपाल के 78 वें स्थान पर मेरी आपत्ति है । वहाँ के शासन घोर मार्क्सवादी प्रचण्ड दहल की पकड़ है । दुनिया भर में कम्युनिस्ट देशों को उदारवादी लोकतान्त्रिक देश माना जाता है । यह पैरामीटर सिरे से ग़लत है । वहाँ भी चीन की तरह निरंकुश शासकीय व्यवस्था, अवांछित गोपनीयता और प्रेस पर प्रतिबंध है । ओ पी ओली शर्मा को प्रधानमंत्री पद से इसलिए हटना पड़ा कि दुनिया के अनेक देशों से मदद की राशि मिलती थी उसकी जानकारी वे सदन को नहीं देते थे । मुझे इस रक़म का मुग़ालता है कि यह 5000 million dollars थी । चीन, उत्तर कोरिया, क्यूबा, वियतनाम 🇻🇳 और रशिया में एक दलीय शासन प्रणाली है । इन देशों में चुनाव नहीं होते । उत्तर कोरिया में एक परिवार का शासन है । मिखाइल गोरबाचेव 1986 के खुले लोकतन्त्र और प्रेस की आज़ादी के बाद सोवियत यूनियन का अप्राकृतिक संघ विखण्डित हो गया । तब मास्को के अधीन 15 देशों ने dynast North Korea को कम्युनिस्ट देश होने की मान्यता दी थी । पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच की दीवार को गिराने और एक लोकतान्त्रिक देश बनाने में मिखाइल गोरबाचेव की भूमिका थी ।
    जहाँ तक भारत का प्रश्न है यहाँ के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निरंकुश शासक हैं । फिर भी भारतीय संविधान में पाँच सालों के बाद विधानसभाओं और संसद के चुनाव होते हैं । चुनाव होने पर विपक्षी या विपक्षी गठबन्धन की सरकार बन सकती है । Indian National Congress is also a dynast party. Nehru-Rajiv, Rahul Gandhi and his mother has crores of movable and immovable property. कल या आज के इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में Pinarayi Vijayan की मार्क्सवादी सरकार ने भी कोर्ट में झूठा हलफ़नामा देने की रिपोर्ट है । मेरी समझ में प्रेमचंद को प्रगतिशील लेखक संघ या जनवादी लेखक संघ के खाँचे में फिट करना उचित नहीं है । प्रेमचंद ग़रीब थे, लेकिन ग़रीबी के चलते ब्रिटिश शासन के विरोध में लिखते थे । ईस्ट इंडिया कम्पनी और बाद में वायसराय के ऐशो-आराम की ज़िंदगी पर अपने पात्रों के ज़रिए उनका मुखर विरोध किया था ।

    Reply
  8. दयाशंकर शरण says:
    9 months ago

    बहुत सार्थक आलेख,तथ्यात्मक और वस्तुनिष्ठ भी। रवि भूषण जी को साधुवाद ! आलेख में बस एक बात समझ में नहीं आयी कि भारतीय लोकतंत्र (नकली) रूप में है, अंतर्वस्तु में नहीं।मैं तो अबतक यही समझता था कि कन्टेन्ट महत्वपूर्ण होता है, रूप नहीं। जैसे एक ग्लास में शर्बत और दूसरे में जहर है तो फार्म तो एक है पर कंटेंट में फर्क है।

    Reply
  9. रमेश अनुपम says:
    9 months ago

    रवि भूषण जी के इस आलेख को मैं किंचित देर से पढ़ पाया। प्रेमचंद के बहाने देश में मौजूदा लोकतंत्र के हालात पर नजर डालें तो भीषण संकट की स्तिथि चारों तरफ दिखाई देती है । लोकतंत्र अब कहां है ।उसकी हत्या की जा चुकी है ।हत्यारे चारों ओर घूम रहे हैं ।प्रेम चंद को इस तरह से देखना और खासकर वर्तमान लोकतंत्र के संदर्भ में उनके विचारों के निकट जाना मेरी दृष्टि में एक बेहद जरूरी सृजनकर्म है। रविभूषण और ’समालोचन’ दोनों बधाई के पात्र हैं।

    Reply

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक