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Home » राही डूमरचीर की कविताएँ

राही डूमरचीर की कविताएँ

झारखण्ड के युवा कवि राही डूमरचीर की कुछ कविताएँ लगभग साल वर्ष पहले समालोचन पर प्रकाशित हुईं थीं और उन्होंने ध्यान खींचा था. आदिवासी दृष्टि, सन्दर्भ और परिवेश राही की विशेषता है. प्रस्तुत कविताओं में भी उन्होंने इसे रचा है, सभ्यता के नाम पर दहन और दोहन की कील चुभती रहती है. मैदान से जंगल की यात्रा में यातना के खड़े खम्भे दिखते हैं.

by arun dev
May 17, 2023
in कविता
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राही डूमरचीर की कविताएँ
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राही डूमरचीर की कविताएँ

गंगा किनारे बसे शहर में

गंगा किनारे बसे
इस शहर में आने से पहले
गंगा को इतने क़रीब से नहीं देखा था
पापनाशिनी गंगा का दुःख नहीं समझ पाया था
कहाँ समझ पाया था भूपेन हाजारिका के गीत को भी
यहाँ आने से पहले गंगा
हमारे यहाँ की नदियों को समा लेने वाली एक बड़ी नदी थी
एक ऐसी नदी, जिसके किनारे से आये लोगों ने
हमारे जंगलों- पहाड़ों में तबाही मचा दी

दिल्ली पढ़ने जाते हुए
बनारस से गुज़रते, ट्रेन से दिखती थी गंगा
अर्धचन्द्राकार गंगा सुन्दर दिखती थी
दिल्ली घुसते हुए देखता था यमुना को भी हर बार
दिल्ली जितनी नापसंद थी
उतनी ही खीझ होती ख़ुद पर यमुना को देख कर
सोचता, कैसा बुरा वक़्त आ गया है
कि मेरे जैसा अदना-सा आदमी भी
यमुना जैसी नदी पर तरस खा रहा है

इस शहर में रहते
घूम आया गंगा के किनारों पर दूर तक
गंगा के किनारों पर चलते हुए महसूस किया
कि गंगा अपना दुःख किसी से नहीं कहती
कौन सुनता उसकी अनकही कहानियाँ
जो पोथियों से बिल्कुल अलग थीं

यहाँ आने के बाद ही गंगा को देखने
पहाड़ों की तरफ़ गया
पहली बार गंगा को वहाँ देख रहा था
जहाँ वह माँ नहीं थी
पहाड़ों पर उछलती-कूदती गंगा का बचपन
उसकी प्रौढ़ा अवस्था से बिल्कुल अलग था
कितना दर्दनाक होता होगा गंगा के लिए
अचानक बेटी से माँ हो जाना, लगा
गंगा अपने बचपन को पाने के लिए तरस जाती होगी
सच उसे पता है, जैसे पता होता है ब्याही गई हर स्त्री को
वह जानती है अपना बचपन वापस नहीं पा सकती अब
नहीं दुहरा सकती बेपरवाह दिनों की कहानियाँ अब
इसलिए दूसरो का पाप धोती गंगा
ख़ुद को क़ुर्बान करती रहती है
प्रजा हाहाकार करती रहती है दोनों पार
और वह चुपचाप दिखती हुई-सी बहती रहती है

मन को निर्मल करना चाहते थे कबीर गंगा के पानी-सा, जानते थे
वह गंगा ही है जिसके पीछे नाम पुकारते भागते थे ईश्वर भी
पर लोगों ने उसके ही किनारों को बाँट दिया जातियों में
बाहुबलियों ने बाँटा उसे अपने-अपने इलाक़ों में
सींचती रही वह खेतों को, हरियाली बख़्शी सबको एक सी
एक सी पवित्र रही समस्त प्राणियों के लिए
पर पलायन करती गई सबसे बड़ी आबादी उसके ही किनारों से
सबसे ज़्यादा हत्याएँ देखीं, भगदड़ देखा, उतराती लाशें देखीं
गीतों को धीरे-धीरे शहरों की गलियों में गुम होते देखा

कैसे रोकती गंगा उनको जो उपजे–लहलहाए थे उसके ही किनारों पर
हरियाली, पानी और गीतों से ज़्यादा क्या दे सकती थी उनको
कैसी विडम्बना है कि पानी का होना आज
गंगा के होने का गवाह नहीं है
पानी के नहीं होने पर भी वह गंगा कहलाती है
ख़ुद को नदी से मिथक में बदलते देखती गंगा
सहस्त्राब्दियों को ख़ुद में समेटे आर्तनाद करती है

हम गंगा के पानी को अँजुरी में भरते हैं
मनोकामनाएँ पूरी करने की करते हैं फ़रियाद
क्या हम अँजुरी में भरे हुए
पानी की भी कभी सुनते हैं

 

Painting: maya-varadaraj

सोने न दिया जाए तो बुरा मान जाती है रात

नींद नहीं आने पर
चुपके से उठकर
किसी भी पहर
हाड़ाम बा* के आँगन में पहुँच जाता था
एक इमली और तीन-चार करंज पेड़
और कुछ पुटुस की झाड़ियों की दूरी-भर था उनका घर

वहाँ आँगन में
ख़ाली पड़ी किसी चारपाई पर या चटाई बिछाकर
उनकी बगल में इत्मीनान से लेट जाता
और भर मन आसमान ताकने लगता था
जैसे नदी के बहुत आहिस्ते बहने को भी
महसूस किया जा सकता था
गाडा टोला के उनके आँगन से
वैसे ही कितना भी चुपके से पहुँचूँ
हाड़ाम बा जान जाते थे मेरा आना

बहुत दुलारकर कहते
कितनी भी थकी हो
पर हमारे जागते ही जाग जाती है नदी
सोने न दिया जाए तो बुरा मान जाती है रात भी
सो नहीं पाने वाली जगहें बहुत बदनसीब होती हैं
गलियों में कहाँ नींद आती है रात को
उसे पैर सिकोड़ कर सोने की आदत नहीं
इसलिए शाम होते ही दौड़ लगाती है
खेतों-मैदानों की तरफ़
जो नहीं पहुँच पाती, वहीं गलियों-कोनों में
पड़ जाती है पैर मोड़ कर

बुडी गो* ने हाड़ाम बा से चुहल करते हुए कहा-
अब आप भी सो जाइए
आराम फरमाने दीजिए रात को
रात को दुलारते हुए, कहा हाड़ाम बा ने
बहुत बड़ी जगह है यहाँ उसके सोने के लिए
हम बतिया सकते हैं अभी कुछ देर तक

* हाड़ाम बा– बूढ़े बाबा ( दादा)
* बुडी गो- बूढ़ी माँ (दादी)

 

पूछा गौरेया ने

एक दिन पूछा गौरेया ने
अनुभवी बरगद से
प्यास ज़्यादा पुरानी है
या ज़्यादा पुराना है पानी

जंगल में फैलती
घास के गंध की तरह
फ़ैली इस सवाल की बेचैनी
बहुत नीचे, जहाँ छुपकर मिलती थीं
पानी से बरगद की जड़ें
वहाँ भी मच गई खलबली
गौरेये का मासूम-सा यह सवाल
फैला इतिहास के हर मोड़ तक
पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना
जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार
वहाँ भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी

शाम को लौटने की बात कह कर
निकल गई वह नदियों– पेड़ों से मिलने
इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा –
क्या समय था वह
जब पानी और प्यास साथ-साथ चलते थे
जब जहाँ प्यास लगती
पानी वहाँ पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित
इतना कि कभी–कभी नाक के रास्ते जा पहुँचता गले तक

फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की
सभ्यतायें पानी के किनारे
सभ्यता के नाम पर
इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड कर दिया
बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया
और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे
अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर
और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार
कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार

शाम ढले लौट कर जब आई गौरेया
बरगद कहीं नहीं दिखा
इधर–उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़े थीं
जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंज़र था
कहते हैं
उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गोरैया भी

 

Art work: Gigi Scaria, Breath, 2022

दारे उमुल*
(एक)

बचपन में ही मेरी ज़िन्दगी में
एक पेड़ आ गया था
वह वहीं था मेरे जन्म के पहले से
उससे पहले उसकी माँ
और उसके पहले उसकी नानी भी
वहीं आस-पास रह चुकी थीं

चहकता-महकता मेरा बचपन
उससे कहानियाँ सुनते बीता
उसने बताया था, कैसे
किसी चिड़िया ने उसकी नानी को
बीज-रूप में पहाड़ के उस तरफ़ से लाया था
वह मौज से नानी के घर की कहानियाँ सुनाता
पहाड़ के उस तरफ़ के जंगल की बात करता
मनमौजी एक बहुत प्यारी नदी की कहानियाँ सुनाता
उसकी बातें सुनता हुआ मैं सोचता रहता-
हरियाली से नदी थी या नदी से थी हरियाली

फिर एक दिन दर्द में डूबते हुए उसने बताया –
उस तरफ़ अब मेरा कोई रिश्तेदार नहीं बचा
एक अजीब सी तकलीफ़ तारी हो रही थी, जब उसने कहा –
एक भी पेड़ कटे तो खाना नहीं खाया जाता
धूप ज़िद करती रहती है दिन भर, पर मन नहीं होता
प्यारी चिड़ियों से कहता हूँ ज़िद मत करो
दूसरे पेड़ों की नींद में ख़लल पड़ेगी
सो नहीं पाएगी, हमारी प्यारी नदी भी

वह अपने उन रिश्तेदारों को याद करता, देर तक चुप रहा
उसने कहा वह अकेला रहना चाहता है
भारी मन से वापस चला आया, उससे विदा लेकर
पर उसका वह रूप आँखों के आगे टँगा रह गया –
पेड़ों का हरकत किए बिना चुपचाप खड़े रहना
हमारी दुनिया का ख़ौफ़नाक बिम्ब है

उससे मिलने, अगले दिन गया
फिर उसके अगले दिन भी-
पर वह मुझे आगोश में लिए वैसे ही चुप रहा
मैंने कहा- मेरी छुट्टियाँ ख़त्म हो रही हैं
हॉस्टल चला जाऊँगा
क्या इसी बेरुख़ी से विदा कर दोगे
कहा उस दिन भी कुछ ख़ास नहीं
उसने आगोश में थोड़ी हरकत की
एक पत्ता मेरी गोद में गिराया और कहा –
इसे अपने साथ रखना, चाहे जहाँ – जितनी दूर चले जाना

उसके बाद आश्चर्य से दीवारों पर पेड़ों को बचाने के नारे पढ़ता
मैं एक शहर से दूसरे शहर भटकता रहा
ये अजीब जगहें थी, जहाँ रात और दिन का कोई फ़र्क़ नहीं था
यहाँ दूर-दूर दिखते थे पेड़ और शहर अपनी भूख के लिए
आराम से बैठकर पहले योजनाएँ बनाता था
फिर एक-एक कर पेड़, जंगल, नदी, पहाड़ को
अपने दीवारी गीतों के साथ खाता था
एक पत्ता कितनी मदद करता मेरी
पर मेरे अन्दर की हरियाली को उसी ने बचाए रखा

इधर ज़िन्दगी की भागमभाग लम्बी खिंच रही थी
और उधर शहर मेरे पहाड़ों की तरफ़
अपनी जीभ का विस्तार कर रहा था
बहुत चाहते हुए भी
उससे मिलने नहीं जा पाया

 

(दो)

अरसे बाद
तमाम आशंकाओं के साथ
उससे मिलने गया

साहस जुटा कर उस तरफ़ चला क्योंकि इस बीच
उसकी नानी के यहाँ के सारे पेड़
टुकड़े किए जा चुके थे
वहाँ मेरे जैसों की हँसती-खेलती बस्ती आबाद हो चुकी थी
पेड़ों के क़ब्र के निशान वहाँ अब भी मौजूद थे
पर वहाँ आबाद हुए लोग ख़ुश थे कि
इंसानों की तरह असमय मरने से, पेड़ नहीं बनते प्रेत
जब तक ज़िन्दा हों, वे ज़रूर हो सकते हैं प्रेतों का डेरा
इंसानों का भी जवाब नहीं-
ज़िन्दा रहने के लिए पेड़ों का क़त्लेआम करते हैं
और मरने के बाद ज़िन्दा पेड़ों को परेशान करते हैं

बहरहाल, दूर से ही दिख गया वह
सुकून मिला कि वह अब भी मौजूद था वहीं
पहुँचा तो उसे देख कर दिल बैठ गया
बेहद थका और उदास दिख रहा था
कई दिनों से खाना नहीं खाया हुआ-सा
कई दिनों से चिड़ियों के गीतों से भी बेगाना-सा

माफ़ी चाहते हुए उससे कहा-
बहुत चाहते हुए भी नहीं आ पाया तुमसे मिलने
किस मुँह से आता, मेरे जैसों ने
तुम्हारी दुनिया में तबाही मचा रखी है
वह मौन पड़ा रहा, विदाई वाले दिन से भी ज़्यादा
बहुत मिन्नतों के बाद
पेड़ों के संहार के लिए कोई एक शब्द
फुसफुसाया था उसने मेरे कानों में
जैसे इंसानों की हत्या के लिए नरसंहार होता है

वह शब्द मेरे कान में बजता है
दिमाग़ फटा जाता है
पर देवनागरी में उसे लिख नहीं पाता
हिन्दी में उसे कह नहीं पाता

आज वह भी चला गया, असमय हमें छोड़ कर
पड़ा है औंधे मुँह अपनी माँ और नानी की ज़मीन पर
पाँच फीट के इंसान की मौत पर
रोता है इंसान बुक्का फाड़कर
इतने बड़े पेड़ की मौत से
कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा सहृदयों की बस्ती पर

*दारे उमुल – पेड़ की छाँव

राही डूमरचीर
24 अप्रैल 1986 दुमका (झारखण्ड).

दुमका में शुरुआती तालीम के बाद शांतिनिकेतन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके इन दिनों आर.डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर (बिहार) में अध्यापन.
कुछ कविताएँ एवं अनुवाद प्रकाशित.

 rdumarchir@gmail.com

Tags: 20232023 कवितानयी सदी की हिंदी कविताराही डूमरचीर
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Comments 12

  1. कुमार मंगलम says:
    3 weeks ago

    राही हमारे समय के प्रतिनिधि कवि हैं। बगैर शोर के चुपचाप अपने काम को अंजाम देने वाले विरल कवि। इन कविताओं की संवेदना आपको थिर नहीं करती बचैन करती है। इन कविताओं के लिए राही को शुभकामनाएं और प्रकाशित करने के लिए समालोचन को साधुवाद।

    Reply
  2. राजलक्ष्मी शर्मा says:
    3 weeks ago

    कविताएँ कुछ देर अपने साथ बहा लें जायें यही उनकी सफलता है मेरे हिसाब से , और राही जी की कविताएँ उद्देश्य में सफल हुईं ।

    Reply
  3. गीता श्री says:
    3 weeks ago

    राही से हालही में मुलाक़ात हुई थी। उनकी कविताओं में आदिवासी भूगोल की महक और पीड़ा है।

    Reply
  4. Anonymous says:
    3 weeks ago

    अपनी जमीं की सच्चाई को बड़ी सहजता और खूबसूरती से पिरोते है

    Reply
  5. Ganesh Visputay says:
    3 weeks ago

    राही से हालही में मुलाक़ात हुई थी। उनकी कविताओं में आदिवासी भूगोल की महक और पीड़ा है।

    Reply
  6. M P Haridev says:
    3 weeks ago

    पर हमारे जागते ही जाग जाती है नदी
    सोने न दिया जाये तो तो बुरा मान जाती है रात भी

    कवि दिल्ली में यमुना नदी की व्यथा को देखकर द्रवित हैं । मैं भी कुछेक बस में दिल्ली जाते हुए कई बार दूर से दिखती यमुना को देखा था । हमारी भूख ने नदी को रुलाया है ।
    कवि ने दादी और दादा के संवाद में भी रात्रि में सो जाने की बात कहलवायी है कि रात जाग जायेगी । गंगा पुत्री से माँ बनी है तो भारतवासियों ने बाहुबली बनकर इसे लूटा है ।
    बरगद और गौरैया की बात मैंने बचपन में देखी सुनी थी । हमारे ननिहाल में तालाब के किनारे बरगद का बूढ़ा वृक्ष था । चिड़ियाँ और कौए 🐦‍⬛ पेड़ पर बैठकर चहकते थे । मई के महीने में ही दो वर्ष पहले मैं ननिहाल में गया था । वहाँ मेरे नाना के छोटे भाई प्यारेलाल जी का पौत्र रहता है । उससे विदा लेकर हम दो दोस्त तालाब और बरगद देखने गये थे । कुछ भी नहीं था । मकानों ने खा लिया था ।

    Reply
  7. Vinod Padraj says:
    3 weeks ago

    राही डूमरचीर की कविताएं बहुत बुनियादी सवालों को अपनी निजी शैली में उठाती हैं ये प्रश्न अब आदिवासी समाज के नहीं अपितु दुनिया के लिए जीवन मरण के प्रश्न होने चाहिए जिसे आदिवासी समाज अपनी नसों में महसूसता है इन कविताओं में गहरी मार्मिकता है
    राही अपनी मिट्टी अपने लोगों अपने भूगोल से बेहद प्यार करते हैं और उन्हीं के बीच रहकर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं
    मैं उस कवि मिलकर बहुत खुश हुआ जो दिल्ली छोड़कर दुमका चला गया था और बार बार कहता था कि कभी आइए मेरे कमरे से पहाड़ दिखता है

    Reply
  8. Shashi Rani Agrawal says:
    3 weeks ago

    अंचल की गंध अपने में समेटे नदी , पहाड़ , वृक्ष , पशु , पक्षी की सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करती हुई यह कविताएँ सहृदय पाठक को अपने साथ लेकर आगे बढ़ती जाती हैं। उनकी पीड़ा पाठक के मानस से भीगे पट सी लिपटी रहती है। सफल आंचलिक कविताओं के सृजक राही जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    Reply
  9. प्रिया वर्मा says:
    3 weeks ago

    काश ये कविताएं मैं लिख पाती! यही तो टीस रही इन्हें पढ़ते हुए कि कितने गहरे में बैठकर कवि ने इन्हें लिखा। ये महसूस होती कविताएं हैं। आभार समालोचन

    Reply
  10. प्रभात मिलिंद says:
    3 weeks ago

    राही अनूठे कवि हैं। अपनी कविताओं के प्रति और उन कविताओं के पीछे अपनी मंशा के प्रति बेहद साफ़गो और बेबाक। जंगल, नदी, पहाड़, वृक्ष, जीव जगत और आदिवासी जीवन के प्रति उनके विचार जिस रूप में उनकी कविताओं में दिखते हैं, कमोबेश उनकी शिराओं में भी उसी रूप में बहते हैं।

    कवि को निजी तौर पर जानने के अपने सुख-दुःख हैं। सुख, यह कि आप कविता की कसौटी पर कवि की शख्सियत को कसकर देखने लगते हैं, और दुख यह कि इस क्रम में कई बार कविता की कथ्यात्मक दुर्बलताएँ पाठकों से ओवरलुक होने का अंदेशा हो जाता है। राही इन दोनो सिरों से इक्विडिस्टेंस पर रह कर पढ़े जाने वाले कवि हैं। इसलिये राही से आत्मीय होकर भी उन्हें पसंदीदा कवि के रूप में पढ़ा जा सकता है।

    अपने आदिवासियत से राही का अनुराग वर्णनातीत है गोकि वे आदिवासी नहीं हैं। इस आधार पर उनके मनुष्य और कवि दोनों का ‘सेंस ऑफ ग्रेटिट्यूड’ विलक्षण है।

    सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं – अपने कंटेंट और उद्देश्य में पूरी तरह से फोकस्ड। इन्हें बस ज़रा सा पाठकीय धैर्य की अपेक्षा है, वर्ना फ़िलहाल ऐसी कविताएँ कहाँ लिखी जा रही हैं जो आदिवासियत के संरक्षण के बहाने सीधे बाज़ारवाद से मुठभेड़ कर रही हों।

    Reply
  11. DR. Rekha Shekhawat says:
    3 weeks ago

    जल, जंगल एवं जमीन से जुड़े रहने का भाव व आदिवासी जीवन के अनुभूत सत्य से रू-ब-रू करवाती सुन्दर कविताएँ है।

    Reply
  12. नीतिशा खलखो says:
    3 weeks ago

    अनूठी।।

    Reply

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