अम्बर पाण्डेय की कविताएँ |
वेश्या से मिलना जुलना
(सच्ची घटना पर आधारित)
अर्धरात्रि से दूसरे दिवस दोपहर तक
आगंतुकों की सेवा, फिर स्नान, पूजा,
भोजन, नींद
ऐसे कट गया जीवन पर वर्षा होते ही
उसे याद आता डिहरी, सोन के किनारे
उसकी जीर्ण कुटी और गृहदाह
एक दिन जब आगंतुक अधिक न थे
बहुत वर्षा हो रही थी और उसने खाट पर
बिछाई थी धुली हुई, कमलिनियों से भरी
चद्दर, निकट ही
स्टोव पर दूर दार्जिलिंग की चायपत्ती
गुड़गुमुड़ बोलती उबलती थी, उसने पूछा
‘तुम क्या करते हो अमरन साहब?’
जैसे अम्माँ मुसकुरातीं खिचड़ी स्वादिष्ट बनने पर
अम्माँ खिचड़ी अच्छी से अच्छी बनाने के
बहुत जतन करतीं
‘रोगी का पथ्य उत्तम हो तब रोगी
फटाफट निरोग होता है’ मूँग की दाल
दुबराज, नमक और जल
जैसे पंचतत्वों से भाँत भाँत के जीव हुए
वैसे ही इन पाँच पदार्थों से
खिचड़ी के भिन्न भिन्न स्वाद होते
‘मैं कवि हूँ, कैथी.’ पता नहीं क्यों
उस बज़ार की सब निर्धन वेश्याएँ साड़ी ही
क्यों पहनती थी, साड़ी की किनोर से चाय की
पतीली पकड़े, वह हँसती, ठठाकर
‘कवियों को नमक लेने को धन नहीं होता
कवि लोग वेश्याओं के घर बस
उपन्यासों में आते है अमरनचंद्र.’
एक रात्रि बहुत नशे में उसके ब्लाउस में
अपनी कविता रखकर
आ गया मैं, उस रात्रि रुपया नहीं था मेरे निकट
बहुत दिनों बाद उसने फ़ोन किया
पैसे माँगती होगी किंतु वह शुरू हो गई
‘संवाद पर संवाद ही तो लिखे है
कथा हो सकती है. कवि नहीं हो तुम
झूठे हो.’
फिर अगली बेर गया तो कहा
‘मत आओ हर्पीज़ हो गया है.
बहुत पीड़ा है.
बहुत खेद है.’
मन बहुत विशाल पाकशाला है
उसमें अंधकार है मिट्टी का तेल है
मैं वहीं बैठ गया
और मन में ही चौके में
स्टोव में हवा भरने लगा
बहुत वर्षा होती थी
चौके की छत चूती थी
काली मूँछ धान अल्प था
दाल मटर की थी मूँग की नहीं थी
इतने दुःख में भी वह हँसने लगी ‘कवि हो
तब भी कल्पना में भी
ऐसा अभाव है तुम्हारे.’
किस कवि ने कहा कि अदहन में भी
चावल डालते नहीं अकेले
मन जो एक विशाल पाकशाला है
तो देह उसमें खदकता अदहन है
सब अकेले ही जलते है
‘हमेशा हाथ से नमक डालना
चम्मच से कभी नहीं’ अम्माँ की
शिक्षा
नमक लेकर मैं अंगुलियों से
उसे तौलता रहा; कमर के एक ओर
जहाँ हर्पीज़ अधिक थी, उसे ऊपर कर
करवट ली, ‘अमरनचंद्र जी, अपने मन की
इस विशाल, आँधमयी
जिसकी छत चूती है
उस पाकशाला में चाय बनाकर ही मुझे
पिला दो
नमक आँकते तो लम्बा टेम खटेगा.’
रोगी का पथ्य उत्तम हो
तब रोगी फटाफट निरोग होता है
‘अच्छा मैं अदरक लेकर आता हूँ तब.’
छाते कविताओं की ही भाँति
दुःख से पूरा नहीं बचा पाते थे- पतलून सोरबोर
बुशर्ट बरबाद, जनेऊ तक भीग गया
(पता नहीं क्यों मैं क्यों पहनता था उन दिनों
विष्णुपुर का जनेऊ!)
सब सृष्टि जलमयी थी, बुधवारपेठ में
कोई दिखता ही नहीं था, पनोरे, पड़ोह धलधल
बहते
सब दिशा गोड़डुबान जल था, एक चाय के ठेले पर
हम्माल मजूर चिमनी से बीड़ी सुलगाते थे
‘पता था रीते हाथ लौटोगे, घटा कहती है कि
आज ही सब बरसूँगी’ चाय छानते उसने कहा
‘बाहर गमले में अदरक बो रखी है मैंने
आपको बताने आती तब तक आप फ़रार.’
‘अदरक को छुआछूत बहुत होती है न! कोई ऐसा वैसा हाथ
लग जाये सड़ जाती है’ मैंने कहा
उसने मुख उठाया ‘ओह रे बाबा, तुम्हें तो
माता निकली है’ जलते स्टोव के आलोक में
उसका कपाल देखकर मैंने कहा
‘माता तो छोटी थी तब निकली थी
यह हाथभर केश थे मेरे
आधे माता ले गई आधे कालाजार लील गया
लम्बे केशोंवाली वेश्याएँ बहुत कमाती है.’
‘बार बार वेश्या क्यों कहती हो?’
‘कोई शब्द पुरातन होकर बुरा तो
नहीं हो जाता न.’
पत्नी से अलग होने के पश्चात, प्रतिदिन का
आना-जाना था उसके निकट
बहुत पहले की बात नहीं है
हाँ, तब वर्षा बहुत होती थी
और चिमनी से ही हो जाता था इतना
प्रकाश
कि जीवन चल जाए, एक-दूसरे के
दुःख और सुखों से भरे कपाल दिख जाए
‘मैंने जब भी कोई कविता लिखनी चाही
दुख की छाया ने उसपर पड़कर सब नाश
कर दिया.’
‘दुःख की छाया सुख की भूमि पर पड़ती है
सुख की छाँह मेघों की छाँह जैसी है
अभी थी अब नहीं. भंगुर है.’
‘तुम कवि हो क्या, कैथी?’
हँस हँसकर उसने कहा ‘हाँ हूँ
काहे से कि संवाद करना ही तो
कविता है तुम्हारी दृष्टि में’ हर्पीज़ में भी
उसने हँस हँसकर कहा.
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*बुधवारपेठ- पुणे का एक इलाक़ा जो वेश्यावृत्ति के लिए प्रसिद्ध है.
*अमरनचन्द्र- कवि का धोखे का नाम. कवि वेश्या से अपना असली नाम नहीं बताना चाहता.
मल्लबर्मन
अद्वैत मल्लबर्मन का टीबी अस्पताल से
आधी रात को भाग जाना
(अद्वैत मल्लबर्मन ने तिताश एकटी नदीर नाम नामक उपन्यास लिखा था। उन्होंने अविभाजित बंगाल में एक दलित परिवार में जन्म लिया था।)
जधावपुर के कुमुदशंकर राय टीबी अस्पताल से
ख़ून की उलटी करते भाग गया अद्वैत मल्लबर्मन
‘पद्मा पद्मा’ पुकारते
‘होगी कोई विस्मृत हतभागिनी’ वार्डबॉय ने कहा
‘पद्मा पाकिस्तान चली गई’ कहते भाग गया
सन्निपात के सातों लक्षणों से क्लांत, यक्ष्मा का रोगी
वय: ३६/३८
एक रात कहने लगा रोगी, फाँसी लगाई तो
श्वेत कनइल के हार की लगाऊँगा
जधावपुर में कहाँ धरी है
नदियों में केवल सायंकाल फूलनेवाली कनइल की लताएँ
फिर एक दिवस भू पर पग धरने से
मना कर दिया, किसी मूल्य पर पलंग से
नहीं उतरता था, कहता, भारतवर्ष में
जौंक बहुत है
सरोजिनी के नवदल में पेड़ा माँगता था
देश आज़ाद हुआ है
किंतु वह तो दो वर्ष पूर्ण ही हो गया
उसे कहाँ पता था डाक्साब
तिताश में तैरते मेरी लंगोट बह गई
सिंघाड़े के आटे का हलवा बल भया
मेरी आठवर्ष की स्त्री को नाग डँस गया
दिनभर बकबक झिकझिकी वृथा विलाप
बीड़ी के लिए रुपए देता था
सौगंध खाता कि सिनेमा वाली स्त्री से मिलाएगा
एक बालक आता तो था मिलने, नाम कोई घटक वटक था
बोतल लाता था
दोनों ही पद्मा की रट लगाते ‘पद्मा पद्मा पद्ममयी पद्मा
पद्मवर्णा दुर्गम तरणा पद्मा’
कोई कोई निशा टेबुल बजा बजाकर गाते थे
मुसलमानी गान
‘देश नष्ट हो गया है अब कौन पढ़ेगा
मासिक पत्रिका मोहम्मदी में छपी मेरी कविताएँ
आनंद बाज़ार पत्रिका से कहो मुझे भूल जाए’
सबके नाम ऐसे ही नष्ट होंगे
किंतु उससे पहले देश नष्ट होगा
उससे पहले भाषा नष्ट होगी
जैसे हो गई नष्ट तुम्हारी हिंदी.
टाकाचोर
भृंगराजों के झुण्ड में शिकार करता
आ बैठा है टाकाचोरों का कुटुंब
देखना अशुभ है निमीलित आँखों से
कहता है शैलेंद्र
‘कौआ है रे’ अज्ञानी जन कहते हैं
‘टाकाचोर टाकाचोर’
कहकर दौड़ता जाता है शैलेंद्र
आँखों को करतलों से ढँके
प्रातः निपटा चुका है बसंतों की पंगत में
निम्बोरियों के ढेर
उड़ती दीमकें खा चुका सकल
कितने पक्षियों के अण्डे खाकर
अब भृंगराजों के दल में यह
भुखमरा क्या खाने आया है
लग्गा लेकर टाकाचोर का नीड़ उजाड़ने को
टॉर्च से खोज रहे है शैलेंद्र के पापा
सब ओर साँय साँय है
‘टाकाचोर के रहते कोई और गृहस्थी नहीं कर सकता’
‘भरी रात्रि क्यों किसी का नीड़ नष्ट करते हो
भीतर गरम कम्बल में जो
नष्ट नीड़ पढ़ते थे, वही जाकर पढ़ो न ‘
साँय साँय है टाकाचोर का ज़रा अंदेसा नहीं
प्रातः ही फिर स्वर किया, शर्करा
तो जल में ही घुलती है
तब वायु में कैसे घुलकर स्वर हो गई
‘को कि ला को कि ला को कि ला ‘
श्रीमद्अमरसिंह ने शब्दकोश बनाने में
शताब्दियों पूर्व
कर दी थी बड़ी भारी मिस्टेक
टाकाचोर ‘को कि ला को कि ला ‘ टेरता है
अज्ञानी जन हतप्रभ, कागला नहीं है
कोकिला है’
नीड़ नहीं किया पताकाओं के संग निकल गया
श्यामाओं की फ़िराक़ में.
फ्रांसीसी भाषा का प्रेमी
अग्नि हैं भाषा, पंख सा जलकर
भस्म हो जाऊँगा. नित्य सात बजे
सायंकाल फ्रांसीसी भाषा का प्रेमी
अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा
करता हैं, दिनभर की थकी, जिसका
मन बासे दूध सा फट फट
पड़ने को हैं, धीरज से क्रोशिया
बुनती हैं.
नित्य दिन के जाते जाते
फ्रांसीसी भाषा कहाँ खो जाती
हैं? शब्द गिनता हैं अँगुलियों पर वह,
मात्राएँ और उच्चारण में भेद भ्रमित
कर देता हैं अर्थ. यह भाषा जिसे सीख
रहा हैं प्रेयसी से, गद्य में, अपने अनर्थ में
भी कैसी कविता लगती हैं. वह कहती हैं
हैं ”cava bien merci.” चन्द्रमा निकल
आता हैं सुदी प्रथमा को ही. कहो तो
फ्रांसीसी में क्या कहते हैं चन्द्रमा को.
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अम्बर पाण्डेय दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं. |