अनामिका अनु की कविताएँ |
मैं पूरा वृक्ष
मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूँ,
मैं सिर्फ योनि नहीं
जहाँ मेरी सारी इज्जत और पवित्रता को स्थापित कर रखा है
मैं पूरी शख़्सियत
मजबूत, सबल, सफल
किसी ने चोट दिया तन हार गया होगा
मन कभी नहीं हारेगा
नेपथ्य से कहा था
अब सम्मुख आकर कहूंगी
मैं नहीं हारूंगी
खोह में बिषधर की घुसपैठ,
मैं रोक नहीं पाती
पर इससे मेरी जड़ें भी हिल नहीं पाती
मेरा बढ़ना, फलना, फूलना इससे कम नहीं होता
मैं वृक्ष ही रहती हूँ
कितने पत्ते टूटे
कितनी टहनियां आंधी उड़ा ले गयी
पर मैंने नये पत्ते गढ़े, नयी टहनियां उपजाई
अपनी बीजों से नए वृक्ष बनाए
मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूँ.
मेरे खोह से बहते लाल रक्त को
अपावन मत कहना
इसमें सृजन की आश्वस्ति है
इसमें सततता का दंभ है
यह यूं ही लाल नहीं
इसमें जीवन का हुंकार है
प्राण उगाने की शक्ति है
ये सुंदरतम स्राव है मेरा
जीवन से भरा
इसमें सौंधी सुगंध मातृत्व की
श्रृंगार मेरा, पहचान मेरी
सबकुछ न भी हो पर बहुत कुछ है ये मेरा.
न्यूटन का तीसरा नियम
तुम मेरे लिए शरीर मात्र थे
क्योंकि मुझे भी तुमने यही महसूस कराया
मैं तुम्हारे लिए आसक्ति थी
तो तुम मेरे लिए प्रार्थना कैसे हो सकते हो
मैं तुम्हें आत्मा नहीं मानती
क्योकिं तुमने मुझे अंत:करण नहीं माना
तुम आस्तिक धरम-करम मानने वाले
मैं नास्तिक
न भौतिकवादी, न भौतिकीविद
पर फिर भी मानती हूँ
न्यूटन का तीसरा नियम
क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है
और हम विपरीत दिशा में चलने लगे.
माँ अकेली रह गयी
खाली समय में बटन से खेलती है
वे बटन जो वह पुराने कपड़ों से
निकाल लेती थी कि शायद काम आ जाए बाद में
हर बटन को छूती, उसकी बनावट को महसूस करती
उससे जुड़े कपड़े और कपड़े से जुड़े लोग
उनसे लगाव और बिछड़ने को याद करती
हर रंग, हर आकार और बनावट के वे बटन,
ये पुतली के छट्ठे जन्मदिन के गाउन वाला,
लाल फ्राक के ऊपर कितना फबता था न
मोतियों वाला ये सजावटी बटन
ये उनके रेशमी कुर्ते का बटन
ये बिट्टू के फुल पैंट का बटन
कभी अखबार पर सजाती,
कभी हथेली पर रख खेलती
कौड़ी, झुटका खेलना याद आ जाता
नीम पेड़ के नीचे काली माँ के मंदिर के पास
फिर याद आ गया उसे अपनी माँ के ब्लाउज का बटन
वो हुक नहीं लगाती थी
कहती थी बूढ़ी आँखें बटन को टोह के लगा भी ले
पर हुक को फँदे में टोह कर फँसाना नहीं होता
बाबूजी के खादी के कुर्ते का बटन
होगी यहीं कहीं
ढूँढती रही दिन भर
अपनों को याद करना भूल कर
दिन कटवा रहा है बटन
अकेलापन बाँट रहा है बटन.
अनामिका
मैं ने धूप को चखा नहीं है
पसीने को भी पीया नहीं है
चार दीवारें, छत के भीतर रह कर
भी बहुत कुछ तो जीया नहीं है
छाये में निकली और पली-बढ़ी
कौन सी मेरी यात्रा?
मैं क्या नया गढ़ दूंगी?
धूप चखे,चाँद नहाए,
बयार बहे लोगों की है बात निराली
ठोकर खायी, गिरे पड़े हैं, धूप सेंक कर पले-बढ़े हैं
ऐसे तपे-तराशे लोगों के साथ पकती है सौंधी, पकी, नयी कहानी
रंग सुनहले उनके जिसने धूप, पानी और हवा पीया है
खादी और कतान बुने हैं, चरखा और बरखा देखी है
मैं दीवारों के भीतर का काला पत्थर
कौन सा मोती गढ़ दूंगी?
तपा सोना,कटा हीरा,
अडिग पर्वत,बही नदी
छाये की मैं कुकुरमुत्ता,
क्या हरा मैं गढ़ दूंगी?
छत्तीस का प्रेम
मैंने अब तक टूट कर प्यार किया नहीं
अब करूंगी छत्तीस में
ये इश़्क मौत तक चलेगी पक्का है
प्रेमी मिलेगा ही, ये भी तय है
मैं सर्वस्व उसे समर्पित कर दूंगी, गारंटी है
जब वह आलिंगन में लेगा
मैं पिघल कर उसमें समा जाऊंगी
इत्र बन कर उसके देह की खुशबू बन जाऊंगी
अपने रोम-रोम को उसकी कोशिका द्रव्य का अभिन्न हिस्सा बना दूंगी
वह वृक्ष तो मैं फंगस बन,उसकी जड़ों से जुड़ जाऊंगी
माइकोराइजा* सा उसे और भी हरा-भरा कर दूंगी
तब कोई भी दूर से ही उसकी लहलहाती हँसी देख कर कह देगा
वह किसी के साथ है, साथ वाली खुशी छिपती नहीं
यह गर्भ की तरह बढ़ती है
और सृजन करती है, जन्म देती है जीवन को
मैं टूट कर प्यार करूंगी तुम्हारी आंखों में चमकती अमिट
तस्वीर बन जाऊंगी
कोई भी खोज ले भीड़ में तुमको, तेरी आंखों में मुझे देखकर
ये पहचान नई देकर मैं प्यार करूंगी
तेरे रूह के पाक मदीने में मैं कालीन सा बिछ जाऊंगी
इश़्क उस पर सजदे करेगा आयतें और नमाज़ पढेगा
तुम अनसुना कर देना बाहर का हर कोलाहल
और भीतर से आती हर अज़ान पर गुम हो जाना मेरी याद में
मैं टूट कर प्यार करूंगी इस बार
पहली और अंतिम बार
तेरी उंगलियों के पोर-पोर को मैं कलम बनकर छुऊंगी
तुम मेरे कण-कण में भाव भर देना
फिर इस मिलन से जो रचना होगी, उसे तुम कविता कह देना
जिस पर वह लिखी जाए, उसे तुम कागज कह देना.
इस बार टूट कर प्यार करूंगी,
चिर चुम्बन तेरे लब के कोलाहल को दीर्घ चुप्पी में ढक देगा
तेरे सारे भाषण मेरे लबों की लाली बन घुल जाऐंगे
मैं ऑक्सीजन सा हाइड्रोजन में मिल जाऊंगी
फिर पानी बन कर बह जाऊंगी,
कोई इसे तर्पण मत कहना
मैं! कब मेरा हाड़ मांस थी
मैं अनामिका, अपरिचित, अनकही, अनलिखी कविता थी,
फिर कैसे मैं जल कर राख, गलकर मिट्टी, नुच कर आहार
मैं स्वतंत्र और मौत के बाद शुरू होता है मेरा विहार
मौत मेरा अंतिम प्रेमी और मैं
मौत की अनंत आवर्ती यात्रा का एक प्रेमपूर्ण विश्राम मात्र
गंभीर श्वास, उन्मुक्त निश्वास.
(*माइकोराइजा-कवक और पेड़ के जड़ों के बीच एक सहजीविता का संबंध)
लिंचिंग
भीड़ से भिन्न था
तो क्या बुरा था
कबीर भी थें
अम्बेडकर भी थें
रवीन्द्रनाथ टैगोर भी थें
गांधी की भीड़ कभी पैदा होती है क्या?
पत्ते खाकर
आदमी का रक्त बहा दिया
दोष सब्जियों का नहीं
सोच का है
इस बात पर कि वह
खाता है वह सब
जो भीड़ नहीं खाती
खा लेते कुछ भी
पर इंसान का ग्रास…आदमखोर
इन प्रेतों की बढ़ती झुंड आपके
पास आएगी.
आज इस वज़ह से
कल उस वज़ह से
निशाना सिर्फ इंसान होंगे
जो जन्म से मिला
कुछ भी नहीं तुम्हारा
फिर इस चीजों पर
इतना बवाल
इतना उबाल
और फिर ऐसा फसाद ?
आज अल्पसंख्यक सोच को कुचला है,
कल अल्पसंख्यक जाति,परसो धर्म
फिर रंग, कद, काठी, लिंग को
फिर उन गांव शहर देश के लोगों को जिनकी संख्या
भीड़ में कम होगी
किसी एक समय में
किसी एक जगह पर
हर कोई उस भीड़ में होगा अल्पसंख्यक
और भीड़ की लपलपाती हाथें तलाशेंगी
सबका गला, सबकी रीढ़ और सबकी पसलियां
पहले से ही वीभत्स है
बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास
अल्पसंख्यकता सापेक्षिक है
याद रहा नहीं किसी को
असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर
सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो
और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?
अनामिका अनु मुजफ्फरपुर ‘इंजीकरी’ कविता संग्रह प्रकाशित. anamikabiology248@gmail.com |