• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » अनामिका अनु की कविताएँ

अनामिका अनु की कविताएँ

समालोचन में प्रकाशित इधर पांच कवियों में- लाल्टू पंजाब से अधिक बंगाल के हैं, हैदराबाद में रहते हैं. रंजना अरगडे मराठी हैं,गुजरात में वर्षों रहने के बाद अब भोपाल में रह रहीं हैं. हरि मृदुल उत्तराखंड के हैं, मुंबई में रह रहें हैं. परमेश्वर फुंकवाल राजस्थान से सटे मध्यप्रदेश के एक जिले के रहने वाले हैं अब राजकोट में रहते हैं. अनामिका अनु मुज्जफरपुर की हैं केरल में रहती हैं. ये सभी हिंदी में कविताएँ लिखते हैं. यह हिंदी कविता का हिन्दुस्तानी चेहरा है और आकाश गंगा की तरह यह दुनिया विस्तृत हो रही है. माफ़ कीजियेगा यह किसी ब्लेक होल में नहीं गिर रही है. अनामिका अनु की कविताओं के साथ पंचनद यही सम्पूर्ण हुआ. कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
June 11, 2020
in कविता
A A
अनामिका अनु की कविताएँ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

अनामिका अनु की कविताएँ

 

दो रिक्शे क्या देखते हैं?

दो रिक्शे एक दूसरे की तरफ़ पीठ किये खड़े हैं
सड़क सुनसान है
वीरान धड़क रहा है
दुकानों के शटर नीचे गिरे हैं
सड़क के साफ़ गाल पर मंदी लिपी है.

शाम को एक जत्था मज़दूरों का आया
कुछ थकी औरतों ने अपने बच्चों को गोदी से उतार
रिक्शे पर बिठाया
और पसर गईं
रोड के सीने पर रेत सी.

घंटे डेढ़ घंटे बाद
सब चले गये

एक बिल्ली आकर हरे पर्दे वाले रिक्शे पर लेट गयी है
दो बिल्लियाँ दाँतों में दबा एक-एक रोटी का टुकड़ा
आस पास घूम रही हैं
भूखे कुत्तों का एक उदास झुंड टूटी झोंपड़ी सा पड़ा है सड़क की दूसरी तरफ़
पोल पर फतिंगे फड़फड़ा रहे हैं
टिप-टिप बारिश
शहर के ‘हाथ-पाँव’ गाँव जा रहे हैं.

 

प्रेम पर चर्चा

जब भी मेरे प्रेम पर चर्चा हो
तुम मेरे नाम के बग़ल में अपना नाम लिख देना
मेरे पापों की गणना हो
मेरे नाम के आगे अपना नाम लिख देना

तुम तो शून्य हो न
बग़ल में रहे तो दहाई कर दोगे
आगे लग गए तो इकाई कर दोगे
गुणा भी कर दिया किसी ने तो क्या मसला है
तुम सब शून्य कर दोगे

 

मेरे सपने में एक मज़दूर आता है

मेरे सपने में एक मज़दूर आता है
उसके कड़े रूखे हाथों को छूते ही
मेरे भीतर का प्रस्तर क्षेत्र गुंधा मुलायम आटा हो जाता है
हाँ मेरे स्वप्न में एक मज़दूर आता है

मैं जब पढ़ रही थी मेडिकल
वह अस्पताल की दीवारों पर सीमेंट-रेत का गारा लगाता था
मैं और मेरे दोस्त जब भी गुज़रते थे उस तरफ़ से
तो वह हाथ रोक लेता था
ताकि एक भी छींटा न लगे हमारे सफ़ेद कपड़ों पर
कभी भी आँख भर कर नहीं देखा उसने
धूप से भरी वे आँखें आती रही मेरे ख़्वाब में

उसके देह से नमकीन गंध आती है
कपड़े मुचड़े होते हैं
जो प्रकृति से लड़कर हर दिन पेट भरता है
मैंने उसी कम पढ़े मज़दूर से प्यार किया है

हाँ मेरे सपने में एक मज़दूर आता था
मैंने आने नहीं दिया सपनों में राजकुमारों को

मैं पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर और भीतर बाहर से बेहद ख़ूबसूरत
मैं अंदर बाहर से एक थी,
वास्तविक नायक पर मेरी नज़र थी
देखा कई अभिनेताओं को
प्रशंसक भी बनी
पर उनसे आटोग्राफ़ नहीं मांगा
न उनको देख कर कभी चिल्लायी
मुझे अभिनेता और नायक में फ़र्क़ पता था
मेरे सपने में एक नायक आता था

जिससे मैंने कहा करने को मेरे जीवन पर हस्ताक्षर
उसने थरथराते हाथों से अपना नाम लिखा
और समर्पित आँखों से मुझे देखा

रोज़ सुबह वह चला जाता है करनी लेकर काम पर
मैं आला लेकर अस्पताल में

हाँ इस डाक्टर ने एक मज़दूर से प्यार कर ब्याह रचाया है
ये सच है
मेरे मेरे सपने में एक मज़दूर आया है.

 

लापता

मेरी दुनिया दर्द से बनी थी
बड़े-बड़े टोले मुहल्लों से शुरू होकर
अब तो भरी पड़ी हैं अट्टालिकाओं से.

एक आध कच्ची प्यार वाली गलियाँ थीं
मेरी सख़्त दुनिया की छाती पर
मैं उन गलियों में नंगे पाँव चली थी.
सड़क कच्ची थीं
तलवे में एक झुनझुनाती ठंडक
दौड़ी थी

आज उन गलियों को तलाशने निकली
छोड़ कर दुनिया की सबसे सख़्त छोर.
पर आँखें पत्थर, कलेजा मोम
देखकर गलियों में बिछी कोलतार
और लगी बिजली की पोल

मैं लौटना चाहती हूँ पैदल
उस सख़्त टुकड़े पर
और पटकना चाहती हूँ
अपना सिर उन निर्जीव दीवारों पर जो
सूचना और इश्तिहार से भरी पड़ी हैं
लिखा है-
मैं लापता हूँ

 

सिस्टर शेरा

एक थी सिस्टर शेरा
उसे याद था
हजारीबाग का पहाड़ी इलाक़ा
और पलामू के बीहड़ जंगल
वह भूखे पेट जंगल में ढूंढती आयी थी वे हरे पत्ते
जो बिना धोएं कच्चे खाये जाते थें
और जिसे चबाने से खाली पेट का गुड़गुड़ाना बंद हो जाता था
उसे याद है छोटी बहन के मृत शरीर पर उंगली फेरते
ही उसकी उंगलियां बर्फ हो गयी थीं
जबकि तब भी गर्म था उसकी बहन का मृत देह

उसे याद है
वह कैरोल गान
वह गले में लटका क्रूस
वह पहली बार अंडा, दूध और भात झक कर खाना
पहला नया कपड़ा
पहली नयी किताब

एक आदमी कैसे जीता है
या उसे कैसे जीना चाहिए का सलीका

वह बढ़ते-बढ़ते एक दिन रूकी
और भाग गयी अपने एक साथी के साथ
जो अब भी कोयले की खदान में
घुसता है
जिसका फेफड़ा बेहद काला
और मन बेर सा निर्मल है

सब उसे धर्म च्युत कहते हैं
पर सिस्टर शेरा जानती है
प्रकृति का आदेश नहीं ठुकराया जाता
उसका ज्ञान उसे बंधनमुक्त करता है
प्रेम बंधन नहीं प्रवाह है
स्वतंत्रता की पहली उड़ान

वह भागी नहीं
चलकर आयी है
अपनी दुनिया में वापस
और लड़कर लेगी अपने अधिकार

जंगल के इंकलाब से धर्म
और सत्ता दोनों थरथराती है

जंगल की क्रांति से डरता है
हर आदमी के भीतर का जंगल
सत्ता के मद में पागल हर मानव के मन में एक माद होता है
जिससे निकलता है खूंखार शेर

जिसके सामने डटकर खड़ी है
कलम और मशाल के साथ
सिस्टर शेरा…

वर्कला की है अम्मा – दो

वह चंदन का पेड़ कितना धीरे-धीरे बढ़ रहा है?
अम्मा कितनी जल्दी-जल्दी बूढ़ी हो रही है!

सूर्य को अर्घ्य देने जाती है
तो दरवाजे और तुलसी चौरा के बीच खड़ा मिलता है
वह दुबला पेड़
तुलसी चौरा तक जाने के क्रम में
उसे पकड़ कर लेती है तीन छोटे डेग.

अम्मा की हाथ से हल्का मोटा तना
लगता है लाठी हो
बुढ़ापे की
अम्मा सा ही ढीला-ढीला

अम्मा आज तिरानवे की हो गयी है
उसे जन्मदिन मनाना अच्छा लगता है
वह मंदिर जाना चाहती है
लाक डाउन है
करोना के डर से सब मंदिर बंद हैं
पर परिप पायसम बनना तय है

अम्मा कल ही सब बच्चों, नाती-नतिनियों, पोते-परपोतों, परनतनियों, रिश्तेदार, पड़ोसी सब को बता चुकी है
कि कल उसका जन्मदिन है
सुबह से फोन टुनटुना रहा है
अम्मा मुस्कुरा रही है.

 

निष्काषित

मैं निर्वासित कवि हूँ
एक सुंदर देश का
कल मुझ से मिलने मेरे अतीत का सहचर आया था
वह केतली सा भरा था गर्म स्मृतियों से
खौलती स्मृतियों को वह मेरे भीतर उड़ेल रहा था
मैं कमजोर प्लास्टिक के कप सा पिघल कर विकृत हो गया था
स्मृतियाँ फैल गयी थी इधर-उधर
और मैंने एक ताप और उदास भाप
बहुत भीतर, बहुत दिनों
बाद महसूस की.

बाहर बर्फबारी हो रही है
शीशे को पोंछती प्रेमिका कह रही है-
मेरे मुँह से भाप निकल रहा है
इंजन रुक गयी है
छुक छुक बंद है
पटरी गाँव से होकर गुजरती है
मगर भाप वाले इंजन नहीं चलते अब वहाँ.

अनामिका अनु
मुजफ्फरपुर

‘इंजीकरी’ कविता संग्रह प्रकाशित.
2020 के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित.
anamikabiology248@gmail.com

Tags: अनामिका अनु
ShareTweetSend
Previous Post

परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ

Next Post

बटरोही : हम तीन थोकदार (चार )

Related Posts

अनामिका अनु की कविताएँ
कविता

अनामिका अनु की कविताएँ

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक