| मैं तुम्हें पतझड़ में मिलने आऊँगी आनी देवू बेर्तलो की कविताओं का संचयन हिन्दी मेंतेजी ग्रोवर | 
1.
मैंने दो कप कॉफी के लिए कहा.
बैरे ने
हैरानी से मुझे देखा
दूसरी स्वप्न के लिए है, मैंने उसे बताया.
जीवन
कुछ नहीं
एक बुरा सपना
थोड़ी सी धूल
दो छोटे-छोटे फूल, बहुत पीले
जिनके सामने मैं रोती हूँ

कौन हैं ये…आनी देवू बेर्तलो? ऐसी कविताएँ उन्हें लिखने को कैसे मिली होंगी भला जिन्हें देखकर मुझ जैसे भंगुर व्यक्ति को लगने लगे कि ये कविताएँ भाषा में सम्भव ही नहीं हैं. मेरे जिस्म में इन कविताओं को पढ़ते हुए मेरा हृदय पूरे जिस्म में धड़क जाता है; यह किताब पास में न भी पड़ी हो तो भी.
सबसे पहले आनी देवू बेर्तलो को ही सुनें कि वे इस कविता के शिल्प और इसकी प्रक्रिया के बारे में किताब में क्या कहती हैं. यह नन्ही सी तहरीर उन्होंने अनुवादक रुस्तम के कहने पर ही हिन्दी के लिए लिखकर भेजी होगी, अनुमान लगा रही हूँ, शायद मूल संग्रहों में उन्हें अपने शिल्प पर कहने की बाध्यता न रही होगी:
सैद्धान्तिक रूप में मैं शास्त्रीय या निकट-शास्त्रीय पद्य या मुक्त पद्य या काव्यात्मक गद्य को कोई प्राथमिकता नहीं देती. जब मैं लिखती हूँ तो रूप ख़ुद ही आकार लेने लगता है.
एक भावना, एक अनुभूति जिसे मेरा मन महसूस करता है —- इन शब्दों को काग़ज़ पर डालना तुरन्त आवश्यक हो जाता है. उसके बाद हमेशा उन्हें फिर से पढ़ने, एक शब्द को दूसरे के साथ बदलने या, जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, कुछ शब्दों को हटाने का समय होता है. इसका उद्देश्य थोड़े से शब्दों में आवश्यक को कहना और इन थोड़े से शब्दों में दूसरों को छूना होता है. मैं हमेशा कोशिश करती हूँ कि मेरी कविता संक्षिप्त हो, क्योंकि उसे पाठक को एक झटके में पकड़ना चाहिए जैसे कि मेरी भावनाएँ, मेरी संवेदनाएँ एक झटके में आती हैं. इस प्रकार बोला गया शब्द अपने मौन मार्ग पर चलता रहेगा.
आनी देवू बेर्तलो पाठक से अपेक्षा करती हैं कि पाठक को उनकी कविता को “एक झटके में पकड़ना चाहिए जैसे कि मेरी भावनाएँ, मेरी संवेदनाएँ एक झटके में आती हैं”. यह अपेक्षा स्वयं में उचित ही है, कुछ-कुछ वैसी ही अपेक्षा है यह जैसी जापानी हाइकु कवियों को होती होगी. लेकिन हाइकु के सजग पाठक उस अन्तराल/ ब्रेक (यदि वह हाइकु में है तो) को समझते हैं जो मसलन हाइकु की पहली पाँच मात्राओं और शेष बारह मात्राओं के मध्य इस तरह पसरा हुआ रहता है कि रस की द्रुत और विलम्बित की प्रतीति एक साथ होती है.
लेकिन आनी के कहे इस “झटके” के बाद क्या? “इस प्रकार बोला गया शब्द अपने मौन मार्ग पर चलता रहेगा,” आनी इतनी सहजता से इन दो अपेक्षाओं को “इस प्रकार” पद से जोड़ देती हैं, जैसे उनमें यह सम्बन्ध तार्किक हो. इस सम्बन्ध पर मनन करने पर इसका तर्क मैं पतझड़ में तुम्हें मिलने आऊँगी के संचयनकर्ता और अनुवादक को साफ़ समझ में आया. मैंने उससे सिर्फ़ इतना आग्रह किया कि वह याद रखे उसने क्या कहा था. क्योंकि वह एकदम साफ़ और स्पष्ट बात थी वह सहज ही भुला दी जाने वाली बात भी थी; उसमें कोई वक्तोक्ति नहीं थी. उस बात को या उस जवाब को मैं यहाँ लिख नहीं रही हूँ. एक स्पेस यहाँ पाठक के लिए छोड़ रही हूँ जो यदि चाहे तो उत्तर दे सकता है: और यहाँ मैं पाठक को आमंत्रित करती हूँ और उम्मीद करती हूँ कई उत्तर आयेंगे, एक नहीं. फ़िलवक़्त सिर्फ इतना कहूँगी कि (मसलन) हाइकु की मेधा कभी मुझे भाषा की सामर्थ्य से परे महसूस नहीं हुई; बल्कि जापानी हाइकु में भाषा का बाहुल्य किसी एकल और सान्द्र प्राकृतिक बिम्ब में रूपायित हो किसी एक क्षण का वैभव प्रस्तुत कर देता है. उस बाहुल्य की प्रतीति उस तराश से पैदा होती है जिसके बिना हाइकु को शिल्पित नहीं किया जा सकता था. (माइकेलएंजेलो ने संगमरमर में फ़रिश्ते को देखा और तब तक तराशता चला गया जब तब उसने फ़रिश्ते को आज़ाद नहीं कर दिया.)
हालाँकि आनी की कविता से मुझे हाइकु की याद नहीं आयी, सिर्फ़ उस फ़रिश्ते की याद आयी जिसे संसार में व्याप्त भाषा के अपार वैभव के साथ-साथ रंगों और भूदृश्यों के ऐश्वर्य में आनी अक्सर देखती हैं और तराशने लग जाती हैं. कुछ ही कवि होंगे, जो संगमरमर फ़रिश्ते की झलक से जो तड़प कर ख़ामोश नहीं रह जाते होंगे. कुछ ही कवि होंगे जिनकी भाषा उनके संग हर हाल बनी रहती होगी. हाइकु से आनी केवल तराश का सबक लेती हैं. उस लम्हे के दौरान जब उनके एहसासात उनके समूचे जिये का उद्दीपन करते हैं, वे किसी एक सान्द्र क्षण पर रुक नहीं जातीं बल्कि उस क्षण पर एकाग्र वे एक अविश्वासनीय सुदीर्घ यात्रा तय कर लेती हैं, और कुछ भी ऐसा नहीं रहता जिसे अतीत कहा जा सकता हो; एक ही स्पर्श में उम्र-भर के लिए हृदय जाग चुका होता है:
उसने मेरा हाथ छुआ था
बस इतना ही
कि मेरा हृदय जाग जाये
हर दिन मैं उसका इन्तज़ार करती रही
व्यर्थ
तब मैं बहुत छोटी थी
और वह बहुत बूढ़ा था
दो
आनी की क़रीब-क़रीब हर कविता हर अन्य कविता के समानान्तर एक समूचा जीवन कुछ इस नज़ाकत से तराश रही होती है कि लाघव में भाषा की प्रतीति ही नहीं होती. कविता कवि के साथ इस तराश-ख़राश को ख़ुद भी कर रही है. कवि की प्रतीति भी मानो नामालूम हो. मानो कवि भाषा और भावोद्रेक के हाथ लगा एक ऐसा मुज्जसिमा भर हो जिसे भाषा के कुण्ड में विलय हो जाना है; फिर इस कुण्ड को भी दिशाओं में समा जाना है. यह एहसास कि इन कविताओं को भाषा में प्रकट करना सम्भव नहीं है, और यहाँ तक कि इन्हें भाषा में पढ़ना तक सम्भव नहीं है, आनी की कविताओं को हमेशा अनपढ़ा ही रखता आयेगा. (मुझे पता नहीं क्यों उन जलकुमुदिनियों (water lilies) की याद हो आयी जिन्हें क्लॉड मोने (Claude Monet) के विशाल गार्डन के तालाब में खिले हुए देखकर उस शख्स के लिए सन्तुलित रह पाना नामुमकिन होता है जो मोने के चित्रों से बेतरह सम्मोहित है. यह अलग बात है कि मोने के चित्रों के सामने खड़े होना भी जान को जोखिम में डालने से कम नहीं होता. और तो और, कहीं भी जलकुमुदिनियों को सम्मुख पाकर, या उनके विचार मात्र से कोई भंगुर सहृदय पाँव के नीचे की ज़मीन को खो देता होगा.)

एक क्लासिक वह है जिसे आप भूल नहीं सकते, बार-बार अभूले किरदारों के पास जाते हैं; उन्हीं दृश्यों में भटकते हैं जो आपको ज़बानी याद हैं, लेकिन एक क्लासिक वह भी है जो इस तरह भंगुर और उड़नशील है कि इसका “निरा नूर” स्वप्न में भी हाथ नहीं आता और आपकी कलाई उसे आगोश में लेने की कोशिश में काँपती रह जाती है.[1] पहले क्लासिक के पुनर्पाठ में आप अन्य अनुभूतियों के मध्य यह भी पाते हैं कि आपकी आत्मा ने कितना फ़ासला तय किया है. हर पाठ में आपके अन्तस का तापमान बदल चुका होता है; नास्तास्या नाम के जिस किरदार से कोई लड़की पहले पाठ में सम्मोहित है, वही लड़की, उस क्लासिक विशेष को बारबार पढ़ते हुए, बूढ़ी होने पर जान जाती है कि नास्तास्या का तूफ़ानी उन्माद लाइलाज ज़ेहनी अलामत है. वह उसके प्रति करुणा और ममत्व से भर जाती है. (इसके बरक्स, भंगुर क्लासिक को मैं अब से “निरा नूर” कहूँगी. दोनों क्लासिक में समानता यह है कि इतालो काल्विनो (Italo Calvino) के अनुसार वे [दोनों] अपनी बात कहना कभी ख़त्म नहीं कर पाते.)
पहली श्रेणी के अविस्मरणीय क्लासिक को आप शेल्फ में रख सकते हैं, क्योंकि वह आपकी चेतना में वर्षों से दिपदिपा रहा है. आपके भीतर के फ़रिश्ते को उम्र भर तराश-तराश कर उसे मुक्त किया है उसने. मैं तुम्हें पतझड़ में मिलने आऊँगी, जिसकी प्रेस से आयी ताज़ातरीन प्रति क्लासिक की एक श्रेणी के नामकरण का सबब बनी है, वह कविता-दर-कविता स्क्रीन पर अवतरित होकर अनुवादक कवि के पास मूल भाषा में आयी तो थी, लेकिन स्क्रीन उसके लिए सही स्थान न था. यह कविता आभासी स्क्रीन पर नमूदार होकर विश्व भर के पाठकों से बड़ा नामालूम सा संवाद कर रही थी: अपनी भाषा में मुझे किताब का रूपाकार दो, फिर मुझे पढ़ो, भले ही आपका पाठ कभी सम्पन्न नहीं होने वाला.
मुझे कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि आनी की भाषा की मितव्ययता को हिन्दी में भी आनी का सहोदर कोई कवि दरकार था. संयोग कहें इसे कि रुस्तम की नज़र इन कविताओं पर पड़ी और वे उसी लाघव से हिन्दी में प्रकट हुईं जो मूल फ़्रेंच में है. रुस्तम भी आनी का सहयात्री कवि है. एक संगतराश कवि जो संसार में व्याप्त भाषा के वैभव से उतना ही लेता है जितना उसकी कविता चाहती है.
तीन
आनी देवू बेर्तलो को ऐसी कविता को लिखते जाने का ताउम्र उपक्रम करना पड़ा जिसे भाषा में प्रकट करना सम्भव ही न था. इसके सिवा उनके पास चारा भी क्या था? बनना उन्हें चित्रकार था. उन्हें आर्ट स्कूल की पढ़ाई से बरज दिया गया. फिर चित्र उनके भीतर से स्वत: फूट निकले. उनके चित्रों और कविताओं में कोई साम्य ढूँढना कठिन है. उनके रंग लगभग पूरब के रंग हैं. उनके देश में प्रकृति और कला में वे रंग प्राय: नहीं ही मिलते. वे रंगों के बाहुल्य से संकोच नहीं करतीं, और उन रंगों का ऐश्वर्य छिटक कर तैल-भूदृश्यों में फैल जाता है. भूमध्य सागर के नीले का बाहुल्य यहाँ है; लेकिन अपने शब्दों को लेकर उनकी एक कविता को उद्धृत किये बिना शब्दों के साथ उनके व्यवहार को ग्रहण नहीं किया जा सकता:
मैंने कुछ शब्द हवा में उड़ा दिये
वे हर जगह आग जलाते हैं
यह रही तुम्हारी कृति
उसने मुझसे कहा
चार
आनी देवू बेर्तलो उन कवियों में से हैं जो बचपन में बहुत पिटा करते थे. मुझे मालूम है बचपन में पिटना क्या होता है. यह पिटना कुछ कवियों के लिए, कालान्तर में करुणा और आनन्द में रूपायित हो जाता होगा, मुझे ठीक से नहीं मालूम, लेकिन आनी देवू बेर्तलो के लिए हुआ होगा, यह मैं कह सकती हूँ. उन्होंने जीव विज्ञान का अध्ययन किया और अपना जीवन उन लोगों के लिए समर्पित कर दिया जिन्हें बचपन में बहुत पीटा गया था.
जो अपने साथ हुई हिंसा को करुणा में रूपायित करने की सामर्थ्य रखता हो, क्या वही कवि है जो मौन को ही भाषा की जगह बरत सकता है? मुझे नहीं मालूम. और क्या आनी मौन को भाषा की जगह बरत भी रही हैं या नहीं? इस प्रश्न के साथ ही हम एक अन्य मूल प्रश्न की ओर झुक जाने को होते हैं. एक नखलिस्तान क़िस्म का प्रश्न जो आनी की कविताओं को आलोचकीय टूल्स के साथ देखने की असामर्थ्य को प्रतिबिम्बित करता है. वह प्रश्न यह है, और यह कई लेखक स्वयं से पूछते ही आये हैं. क्या कुछ कवियों का लेखन उस भूगोल का नक़्शा उकेरने का प्रयास करता है जो अकथनीय है? भाषा के अथाह जल के सम्मुख अपनी तड़प के लिए शब्द और लय का संचयन करने का उपक्रम? आनी की कविताओं के सन्दर्भ में देखें तो यह संचयन ओस की तरह कवि को घास की नोंक पर रात-भर से झिरता हुआ प्राप्त होता है. कवि की कला सिर्फ़ यही है कि वह उसे बिना कोई कष्ट दिये श्वेत सतह पर इस विधि स्थानान्तरित कर दे कि यह समूची ओस धूप में उड़ जाये. उड़ने का मर्म यहाँ यह है: इन कविताओं को पढ़ कर कोई यह न कह सके कि मैंने इन कविताओं को पढ़ लिया है. या यह न कह सके कि मैंने अब आनी देवू बेर्तलो को पढ़ लिया है. इस एहसास के लिए आपको यह किताब हर समय घर में यूँ रखनी होगी कि वह आपको अलग से नज़र आती रहे. मेरे घर में ऐसी कुछ ही किताबें हैं जिन्हें मैं शेल्फ़ में सहेज देने से गुरेज़ करती हूँ.
एमिली डिकिन्सन ने जीते जी अपनी कविताओं को नहीं छपवाया. उनके लिए शाया होने का अर्थ था अपने मन को नीलाम कर देना. उनके इन संकल्प ने उनकी कविताओं को उन्नीसवीं सदी की काव्य-रूढ़ियों और संपादकीय दबावों से बचाकर उनकी अप्रतिम शैली को हमारे लिये बचाये रखा. कुछ-कुछ वही एहसास आनी देवू बेर्तलो की कविताओं को पढ़कर मुझे हुआ हालाँकि उनकी कविता एमिली डिकिन्सन से एकदम भिन्न है. लेकिन कुछ ही कवि ऐसे होते हैं जो आभासी स्क्रीन पर भी अपनी कविता को निस्पृहता से साझा कर आपको अपने एकान्त में शरीक कर लेते हैं. दूसरे देश में बैठा रुस्तम नाम का कोई कवि खेल-खेल में उनकी कविता का तर्जुमा करने लगता है. मूल का स्पर्श पाते ही यह अनूदित कविता ऐसी ही लगने लगी, ठीक वैसी ही महसूस होने लगी जैसे वह मानुस की भाषा में सम्भव ही न हो. और बावजूद इसके हर कविता में मानो एक समूचे जिये हुए जीवन का सत्व समाया हो.
पाठक इस अनुभूति पर ठिठक जायेंगे कि आनी की कविताओं में एक अनवरत प्रगाढ़ काव्य-मैत्री की अनुभूति होती है. एक ऐसे सहयात्री की जो स्वयं भी तब तक संगमरमर को तराशता है जब तक वह फ़रिश्ते को मुक्त नहीं कर देता. उसकी उपस्थिति से ही आनी को लगने लगा होगा कि आप अपने जीवन को कोई भी अर्थ देने में सक्षम होते हैं. (इस दुनिया में असंख्य मनुष्य और अन्य प्राणी हैं जो ऐसा नहीं कर पाते, और मुझे नहीं लगता कोई भी कवि इस सर्वव्यापी अन्याय से अनभिज्ञ हो सकता है. कविता उस फाँक से ही उपजती है, उस rupture से, जिसे कवि जगत में अन्याय की तरह महसूस करता है). बहरहाल, आनी का वह सहयात्री फ्रांसीसी कवि रोबेर नोतेनबूम है. आनी के हिन्दी संचयन के लिए रुस्तम ने नोतेनबूम की इन पंक्तियों को उद्धृत किया है:
मैं एक घने जंगल में खो गया था. मुझे ज़मीन से सिर्फ़ टेढ़े-मेढ़े तने और मुड़ी-तुड़ी झाड़ियाँ ही दिखायी दे रही थीं.
मैं एक खुले मैदान में पहुँचा जहाँ पेड़ काटकर, नाज़ुक फूल लगाये गये थे, सभी एक जैसे, व्यापारियों की दुकानों के लिए तैयार.
मैं अपने रास्ते पर चलता रहा. दूर से मुझे एक झरने का गीत सुनायी दिया. एक और खुला मैदान! अछूता. पानी की एक धारा उसमें से होकर बह रही थी, पारदर्शी और निर्मल. समकालीन कविताओं के बीच आनी देवू बेर्तलो की कविता मुझे इसी तरह दिखायी दी.
इसे पढ़िए! या यूँ कहें, इसे सुनिए!
पाँच
भला हो Des Plumes Press के उस सुरुचिपूर्ण प्रकाशक मदन पल सिंह का जो फ्रांसीसी किताबों को छापता है, मूल फ्रेंच से हिन्दी में अनुवाद भी करता है… और जो “हम घर जाल्या आपणा” का भाव मन में लिये अपने सीमित और निश्छल संसाधनों से इस कविता को नामालूम दाम पर आपके पास ले आया है. कवि, अनुवादक, मूल और हिन्दी प्रकाशक… इन तीनों ने अपने श्रम को प्रायः भुला दिया…यह कविता थी ही ऐसी.
[1] रब्ब से मुख़ातिब पंजाबी कवि भाई वीर सिंह की एक प्रसिद्ध कविता का सार. (सुप्णे विच तुसीं मिले असानूँ/ असां धाँ गलवाकड़ी पायी/ निरा नूर तुसीं हत्थ ना आये/ साडी कंबदी रही कलाई)
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| तेजी ग्रोवर, जन्म 1955, पठानकोट, पंजाब. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास. आधुनिक नॉर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के बीस पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं. प्राथमिक शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और योगदान रहा है. तेजी की कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में अनूदित हैं; स्वीडी, नॉर्वीजी, अंग्रेजी और पोलिश में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित. 2020 में उनकी सभी कहानियों और उपन्यास (नीला) का एक ही जिल्द में अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड से सम्मानित तेजी 1995-97 के दौरान वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलो चयनित होने के साथ-साथ प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्ष भी रहीं. 2016-17 के दौरान नान्त, फ्रांस में स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहीं. 2019 में उन्हें वाणी फ़ाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान, और स्वीडन के शाही दम्पति द्वारा रॉयल आर्डर ऑफ़ पोलर स्टार (Knight/ Member First Class) की उपाधि प्रदान की गयी. | 
 
	    	 
		    



 
                
Finest, जितनी गहरी कविता, उतनी गहरी समीक्षा, दरअसल, समीक्षा कहना भी गलत लगता है, यह कुछ ऐसा है, जिस को पड़ कर, अपनी कविताओँ को फिर से , किसी और zone से देखने का मन होता है। कि ज़ोर का ‘झटका’ धीरे से लगे।