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समालोचन

Home » सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की: अणु शक्ति सिंह

सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की: अणु शक्ति सिंह

पत्रकार और लेखिका अणु शक्ति सिंह की यह कहानी आकार में छोटी भले ही हो, असर गहरा करती है. अकेलेपन और उदासी की सफ़ेद रौशनी से यह कहानी  स्त्री को केंद्र में रखकर बुनी गयी है. 

by arun dev
December 20, 2018
in कथा
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सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की: अणु शक्ति सिंह
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सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की                            

अणुशक्ति सिंह

शाम उतनी नहीं उतरी थी, मगर सामने वाली खिड़की सफ़ेद रौशनी से भर गयी थी. हल्का-हल्का छाता धुंधलका और सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की, जैसे किसी ने मोनोक्रोम में कोई तस्वीर उतार ली हो. खिड़की के उस पार वह बैठी हुई थी. सफ़ेद नूडल्स स्ट्रिप पहने हुए. सर झुकाए हुए न जाने क्या देख रही थी. शायद कोई किताब पढ़ रही हो…

किताब पढ़ने के अलावा सर झुका कर कितने और काम किये जा सकते हैं? कुछ सिला जा सकता है. कोई तस्वीर देखी जा सकती है. उसके हाथ उस हरकत में नहीं थे कि सीधे-सीधे इस निष्कर्ष पर पहुँच जाया जाए कि वह कुछ सिल रही थी. तस्वीर देखना और किताब पढ़ना बराबर ही तो हुए. 

सोचने का यह क्रम अचानक से टूटा. दूसरे कमरे से कुछ गिरने की आवाज़ आयी थी. अन्दर बच्चे ने रंगीन पेन्सिल से भरा डब्बा गिरा दिया था. उसे उठाते हुए सहसा ही ख़याल आया कि चीज़ों को उठाते और गिनते हुए भी तो सर झुका हुआ ही रहता है. आज सोशल मीडिया पर किसी की लिखी हुई पंक्ति ज़ेहन में घुमड़ने लगी.

“मैं गिनती हूँ नींद की गोलियाँ…”

कहीं वह भी तो ऐसा ही कुछ नहीं कर रही थी?

खिड़की के पार बहुत सारी चीज़ें नहीं दिखतीं हैं. तब जब वह खिड़की से सर बाहर निकाले या तो आसमान को तक रही होती है या ज़मीन को, तब भी बहुत कुछ नहीं दिखता. जो भी नहीं दिखता उस तमाम अनदेखे खाली हिस्से को कल्पना भर जाती होगी. मसलन…

‘सफ़ेद नूडल्स स्ट्रिप के साथ उसने ग्रे शॉर्ट्स पहना होगा’

‘उसके घर में किताबों की बड़ी शेल्फ़ होगी.’

‘वह खाने में टिंड फ़ूड ज़्यादा लेती होगी’

वगैरह, वगैरह…

कभी-कभी महसूस होता, कल्पनाओं और यथार्थ ने कैसा कोलाज रच दिया है. पिछले हफ़्ते डिपार्टमेंटल स्टोर में उसे फ्रिज से कैन्न्ड फ़ूड का बड़ा सा डब्बा उठाते देखा था. बिल की लाइन में खड़े-खड़े उसके सामान में रेडीमेड पराठों के चार पैकेट भी दिखे थे.

उस दिन ग्रोसरी बास्केट भरते हुए दो तीन दफ़े उससे टकराना हुआ था.

टकराना?
नहीं, दरअसल एक-दूसरे के बगल से निकल जाना.आमने-सामने आ जाने की दशा में उससे नज़रें मिलाने की ख़ूब कोशिश, जिसका अंदाज़ा उसे दूर-दूर तक नहीं था.

वह जब भी खिड़की से आधी बाहर लटकी दिखती, उसकी आँखों को देखने की तमन्ना बेहिसाब बढ़ जाती. क्या लिखा होगा उसकी आँखों में?

यह ख़याल कभी-कभार ऑबसेशन की शक्ल अख्तियार कर लेता. डिपार्टमेंटल स्टोर में भी उसके आस-पास से गुजरने की, उसकी आँखों में झाँकने की उन तमाम कोशिशों की वजह शायद इस ऑबसेशन का फिर से सर उठाना ही था.

बिल पे करने के बाद वह पलटी थी. उसी दौरान उसकी आँखों की एक झलक मिली थी. गहरे काले घेरों के बीच पीली सी सफ़ेद आँखें… गोले की रंगत क्या रही होगी, उसके लिए कल्पना काफी है.

जितना भी दिखा था, उसमें उसकी आँखें खाली लगीं थीं. इतनी खाली कि उनमें कल्पनाओं का रंग बेहद आसानी से भरा जा सकता था.

उसकी खिड़की के पार झाँकना अक्सर जादुई अहसास दे जाता. झाँकते, देखते और सोचते वह बेहद अपनी सी नज़र आने लगती.

उसने भी वह ऑनलाइन टेस्ट लिया होगा. डॉक्टर ने उसकी पीठ का एक हिस्सा दबाते हुए उससे भी कहा होगा कि तुम्हें किसी की ज़रूरत है. क्या वह भी सोते हुए मर जाना चाहती है?

हो सकता है जो भी सोचा जा रहा है, उसका हक़ीक़त से कोई वास्ता न हो, मगर उसके हाथ में भी ठीक उन्हीं दिनों ‘द कलर पर्पल’ कैसे नज़र आ सकती है, जब वह इन हाथों में थी? क्या सेली की ऊपर वाले को लिखी चिट्ठियों को पढ़ते हुए उसे भी उसके साथ सहानुभूति हो रही होगी?

उसकी खिड़की की और निहारते हुए अक्सर ख़याल आता है कि किसी दिन साथ बैठकर बातें की जायेंगी.

हो सकता है उसके पास भी कोई कहानी हो? मन में कुछ ऐसे राज़ जिन्हें वह भी एक गुमनाम ख़त में दर्ज कर ईश्वर को पोस्ट कर देना चाहती हो.

मन कभी-कभी लिस्ट बनाता है उन सवालों के जो उससे किये जा सकते हैं.

‘तुमने कभी सिल्विया प्लाथ की कविताओं को पढ़ा है?’

‘क्या तुमने कभी किसी से प्यार किया है?’

‘क्या किसी ने तुम्हारा दिल तोड़ा है‘

अगर वह तीसरे सवाल का जवाब हाँ में देगी तो एक सवाल और किया जाएगा.

‘दिल टूटने के बाद क्या तुम्हारे आस-पास भी कुछ इक्ट्ठा हुआ था?’

‘क्या?’

अगर उसने पलटकर यह सवाल कर दिया तो?

क्या जवाब होगा, इस सवाल का?

पूछा जा सकता है कि तुमने सुना है नदियों के डेल्टाओं के बारे में?

समंदर में लीन होने से पहले नदियाँ पीछे छोड़ जाती हैं ढेर सारा गाद. इतने लंबे सफर में जो भी, जितना भी इकट्ठा होता है, नदियों के गायब हो जाने से पहले विशाल हो जाता है. मन के दुखने पर हर बार वैसा ही कुछ मन के आसपास भी इकट्ठा होता है. दिल की धमनियों से बहकर आने वाला रक्त देह से मिलते वक़्त अपना सारा गाद बाहर छोड़ जाता है. यह गाद दिल पर कम, दिमाग में ज़्यादा बैठता है.

यह सब तो प्रालाप है. क्या वह इसे समझ पाएगी? हाथ में तकिया ले मुँह टिकाये हुए यह सोचते-सोचते जब नज़रें उस सफ़ेद खिड़की के पार गयीं तो दिखा उसने भी हाथों में तकिया ठीक वैसे ही पकड़ रखा था…

कोई इतना एक जैसा कैसे हो सकता है?
याद आया कल रात वह भी फ़ोन पर ठीक उसी वक़्त बात कर रही थी.
संयोग पर कुल कितनी किताबें लिखी गयी होंगी?
उसका होना महज़ संयोग है क्या?
कुछ सवाल खोजी बनाने की असीम क्षमता लिए होते हैं.
कब देखना हुआ था उसे पहली बार?

एक दिन कमरे की बत्तियों के लगातार झपकने के दौरान वो सफ़ेद खिड़की दिखी थी. खिड़की रौशनी के आते ही दूधिया हो जाती, जाते ही अंधेरे में गायब. हैरान करने वाली बात यह थी कि उस खिड़की के दिखने और गायब होने में, कमरे की बत्तियों के जल पड़ने और बुझ जाने में एक ग़ज़ब का तरंग था, जैसे दिमाग के खोहों में कोई लहर उमग कर गिर रही हो.

इच्छा हुई कि उठ कर देखा जाए वह अभी क्या कर रही है.
 
वह फिर सर झुका कर बैठी है. इस बार शायद… नहीं, पक्के तौर पर कुछ गिन रही है. इधर भी तो कुछ गिना जा रहा है…

क्या?

बच्चा क्या कह रहा है?

“तुमने दवाई वाली गोलियाँ क्यों बिखेर रखी हैं?”

मैंने?

मैंने कब…?

गोलियाँ तो वह खिड़की पार वाली गिनती है.

उँगली खिड़की की ओर उठती है.

“उधर तो आईना है. खिड़की दूसरी तरफ़ है.”

आ… ई… ना! स्मृति कौंधती है. उसकी चमक में दिखता है डिपार्टमेंटल स्टोर के बिलिंग काउंटर के ठीक सामने लगा आदमकद आईना…

आईना… बटुए की ओर नज़र जाती है. स्टोर का बिल दिखता है…

यम्मीज़्ज़ के चार पराठे

कैन्ड पालक-पनीर…

पहले नज़र दिन के खाने के आधे प्लेट पर जाती है. पालक पनीर… मुँह का स्वाद कसैला हो जाता है. बच्चा कंधे से नीचे गिर गए नूडल्स स्ट्रिप के स्ट्रिप को ठीक कर चला जाता है. आंखें सफ़ेद रौशनी वाली खिड़की की ओर उठती है. आख़िरी चाहत खिड़की के पार वाली लड़की को देखने की.

खिड़की या आईना… आईना या खिड़की….

सब गड्ड-मड्ड हो रहा है. नीम-बेहोशी से ठीक पहले की अवस्था. कोई शायद गुनगुना रहा है, सिल्विया प्लाथ की कविता…

“एन्ड आई अ स्माइलिंग वुमन

आई एम ओनली थर्टी

एन्ड लाइक द कैट आई हैव नाइन टाइम्स टू डाई”

अणुशक्ति सिंह
177 G, गरुड़ अपार्टमेंट, 
DDA पॉकेट 4, 
मयूर विहार फेज़ 1, नयी दिल्ली -91
 
Tags: अणुशक्ति सिंहहिंदी कहानियाँ
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Comments 1

  1. सन्दीप तोमर says:
    3 years ago

    बेहतरीन कहानी

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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