स्त्री की विकल दुनिया
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कुछ दिनों पहले मार्फ़त एक स्नेहिल दोस्त ‘द वेजीटेरियन’ की एक डिजिटल प्रति मिली. पढ़ना शुरू किया. हान कांग की इस किताब की पहली ही पंक्ति स्ट्रेंजर की याद दिला गई. अब्सर्डिटी या विसंगति का एक मज़मून.
पढ़ते हुए किसी अपने पड़ोस की किसी लड़की की कोई बिसरी हुई कहानी याद आई जिसे सिर्फ़ इसलिए ब्याह लिया गया था कि वह तनिक दब्बू थी. दिखने में आम सूरत को उसकी ख़ूबी मानी गई कि सुंदर लड़कियों वाले नख़रे उसमें नहीं होंगे. वह ज़्यादा नाक नहीं चढ़ाएगी और औसत से भी खपा हुआ पुरुष उसे अपने तरीक़े से हाँक पाएगा. ऐसी आम लड़कियों से एक ही उम्मीद की जाती है, ज़िंदगी को सबसे आम अन्दाज़ में जीने की.
क्या हो जो ऐसी ही एकदम आम लड़की एक दिन हाथ में कोई झंडा उठा ले, आस्तीन चढ़ा ले, किवाड़ की सिटकनी खोले और बाहर निकल जाए ‘क्रांति-क्रांति’ का उद्घोष करते हुए. कई बार यह भी नहीं होता है. हो सकता है किसी रोज़ वह लड़की जिससे जीवन भर साड़ी पहनने की उम्मीद की गई थी, सलवार कुर्ता ख़रीद कर ले आये और पहनने की ज़िद करे! उसकी बात तमाम लोगों को नागवार गुज़रे और उसे पागल क़रार दे दिया जाए.
ख़ैर, बात यहाँ कांग के ‘द वेजीटेरियन’ की ‘यंगहे’ की हो रही है. यंगहे जिससे उसका पति शादी ही केवल इसलिए करता है कि वह बेहद साधारण है. वह इतनी मितभाषी है कि उसके छोटे लिंग पर सवाल नहीं करती है. उसकी बेडौल बढ़ी हुई तोंद पर भी कोई प्रश्न नहीं करती. वह अपने काम से काम रखने वाली स्त्री है जो मिस्टर च्योंग/च्यांग को वक़्त पर दाना-पानी-सेक्स मुहैया करवाती रहती है. एक ही आदत उसकी बुरी है कि वह ब्रा नहीं पहनना चाहती जबकि उसके पति च्योंग/च्यांग महोदय चाहते हैं कि वह पैडेड ब्रा पहने ताकि मित्रों के सामने मिस्टर च्योंग/च्यांग की इज़्ज़त बढ़ जाए. अपने पति की इस हसरत की पूर्ति भी यंगहे गाहे-बगाहे कर ही देती है.
पाँच बरस औसतता में गुज़ारते हुए बेहद साधारण वह लड़की एकदिन कुछ असाधारण कर बैठती है. घोर मांसाहारी परिवेश में बड़े होने के बाद, मांस के टुकड़े करने में किसी बुचर सी दक्षता के बावजूद भी केवल एक सपने के आधार पर एक दिन फ्रिज से मांस का पूरा ज़ख़ीरा बाहर कर देती है.
यही शुरू होता है उसका संघर्ष. पहले पति को लगता है कि उसने पैसे बर्बाद कर दिए. वह पाँच सालों में पहली बार उस दिन लेट होता है क्योंकि उसकी पत्नी ने उस दिन उसकी शर्ट इस्तरी करके नहीं रखी. उसके हाथों में दफ़्तर का सामान नहीं थमाया.
वह खाने की टेबल पर मांस न देखकर चिहुंकता है. बीवी से मांस या अंडे की ज़िद करता है. बीवी मना करती है. उसकी पूरी परवरिश को ठेस पहुँचती है. वह उसे मना कैसे कर सकती है?
वह अपनी पत्नी की ज़िद को फ़ितूर समझता है. कितने दिन? यह पढ़ते हुए मुझे आस-पास के वे तमाम पुरुष याद आ गये जिन्हें उनकी पत्नी की कोई भी नई चाहत बस फ़ितूर या दिल बहलाने का आलम नज़र आता है.
इस दौरान उसकी पत्नी उससे योनिक रूप से दूर होती है. वह वजह पूछता है. पत्नी बताती है कि उसके शरीर से मांस की गंध आती है. वह अपनी यौन तुष्टि के लिए पत्नी के साथ बलात्कार करता है. वह चुप होकर हर बार सहती है. रोज़ खाने की टेबल पर खाना लगाती है. वह इस बलात्कार को नियम बना देता है.
वह ख़ुश होता है कि उसे दफ़्तर से बड़े अधिकारियों के साथ खाने का न्यौता मिला है. वह अपनी पत्नी को लेकर जाता है. वहाँ वह खाने से अधिक चिंतित तब हो उठता है जब उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी फिर ब्रा नहीं पहन कर आई है.
यहाँ यंगहे की ओर से वह आत्म-संवाद दीगर हो उठता है जहाँ वह कहती है,
“मेरे स्तन मेरे शरीर का सबसे अहिंसक हिस्सा हैं. वे किसी की जान नहीं ले सकते.”
अब तक स्तन को यौन अभिलाषाओं को पुष्ट करने वाले अंग अथवा शिशु आहार की ख़ातिर उपयोगी हिस्से के तौर पर ही देखा गया था. यंगहे के इस कथन के माध्यम से लेखिका ने एक कमाल की प्रतिरोधी दृष्टि दी है.
मांस न खाने पर पत्नी के साथ लोगों के लगभग ख़राब व्यवहार और एक बुरे डिनर के बाद भी उसे पत्नी की जगह अपनी नौकरी की चिंता होती है. यहाँ भी मुझे अपने आस-पास का परिवेश ख़ूब याद आया. यह भी ज़हन में आया कि परिवेश तो एशियाई ही है न.
च्योंग/च्यांग के पास बीवी से बदला लेने का एक ही तरीक़ा है. उसकी नई आदत के बारे में उसकी माँ और बहन को सूचना दे दी जाए. उसकी दी हुई पूर्व सूचना के आधार पर यंगहे की बहन के घर की हाउस वार्मिंग पार्टी में एक पूर्वनियोजित माहौल तैयार होता है, जहाँ यंगहे के पिता हिंसक ढंग से उसे मांस का टुकड़ा खिलाने की कोशिश करते हैं. इस क्रम में उसे दो तगड़े थप्पड़ भी लगा देते हैं.
यहाँ हिंसा की एक परत और खुलती है. बहुत साधारण यंगहे के साथ हुई हिंसा की. यंगहे अठारह बरस की उम्र तक पिता की मार झेलती रही है. आश्चर्य यह कि पिता का थप्पड़ पड़ने पर उसकी माँ की सहानुभूति यंगहे के प्रति कम और उसके पति के प्रति अधिक होती है कि उसे यह देखना पड़ा. पिता की हिंसा से आजिज़ यंगहे प्रतिरोध में अपनी कलाई की नस काट लेती है.
यहाँ यंगहे का प्रतिरोध आहार की किसी भी लड़ाई से ऊपर उठ जाता है. हिंसायुक्त अतीत की कई गिरहें खुलती हैं… जीवन को ख़ास ढर्रे से जीने के लिए बनाये गये दवाब की मीनारें भड़भड़ाकर गिरती हैं.
यंगहे अपने प्रतिरोध के साथ ज़िद्दी होती जाती है. अस्पताल में माँ की दी हुई दवाई को निकाल देना, पति से इस क़दर कोफ़्त है उसे कि वह एक दिन उसे सोया देख बिस्तर से निकल जाती है. बाहर एक झरने के पास बैठी मिलती है, बिना किसी ऊपरी वस्त्र के… उसे झिंझोड़कर पूछा जाता है तो वह बताती है, अपने स्तनों को धूप दिखा रही थी.
“मुझे नहीं मालूम कि वह औरत क्यों रो रही है. मुझे नहीं पता कि वह क्यों केवल मेरे चेहरे को इस तरह घूरती रहती है कि इसे निगल जाना चाहती है. और क्यों अपने काँपते हाथों से मेरी कलाई के बैंडेज को सहलाती है.
मेरी कलाई ठीक है. इससे मुझे कोई दिक्कत नहीं होती है. मुझे परेशानी अपनी छाती से होती है, मेरी नाभि के पास तंत्रिक तंत्र में कुछ अटका हुआ है. मुझे नहीं मालूम कि यह क्या हो सकता है. यह इन दिनों स्थाई रूप से वहाँ मौजूद है. अब जब मैंने ब्रा पहनना बंद कर दिया है, मैं इस जकड़न को हमेशा महसूस कर पा रही हूँ. मैं कितनी भी गहरी सांस लूँ, यह नहीं हटती है.”
अपने साथ और अपने परिवेश में हो रही हिंसा के प्रति यहाँ पहली बार उद्वेलित और आक्रामक रूप से प्रतिरोधी नज़र आई है. एक क़दम उस ओर बढ़ा देना जहाँ से लौटने की गुंजाइश नहीं.
यह कथा के पहले हिस्से की समाप्ति है और यंगहे के उस शादीशुदा जीवन की भी, जिसमें उसकी उपस्थिति उसके प्रति हो रही हिंसा का प्रसार भर थी. यही अंत है शाक और माँस आहार के आपसी टकराव का भी…
वे तमाम लोग, जिन्हें लगता है कि ‘द वेजीटेरियन’ आहार की लड़ाई का क़िस्सा है, उन्होंने संभवतः यहीं उपन्यास की इति मान ली होगी.
दूसरा हिस्सा उस परिस्थिति को सामने लेकर आता है जहाँ दुर्बलता सबसे बड़ी शत्रु के रूप में खड़ी होती है. यंगहे को मांसाहार छोड़े हुए दो से अधिक बरस बीत चुके हैं. उसकी बहन उसके साथ लगातार संपर्क में है. मदद पहुँचाती हुई. यंगहे पुष्ट शाकाहार खाना सीख गई है. क्षीणकाय यंगहे अब बेहतर शारीरिक अवस्था में है. और वह अब अपने ही जीजा की योनिक फंतासी का हिस्सा भी है. यह पूरा उपक्रम शुरू होता है एक मंगोलियन मार्क (हमारी ज़ुबान में लहसन) के ज़िक्र से. यंगहे की बड़ी बहन इनहे अपने बेटे के लहसन को देखते हुए ज़िक्र करती है अपनी बहन के नितंब पर मौजूद ऐसे ही एक निशान की जो उम्र के बीसवें बरस तक उसके नितंब पर यथावत् मौजूद था.
इस ज़िक्र के बाद कलावादी मनोस्थिति वाले जीजा की यंगहे में अलग तरह की दिलचस्पी पैदा हो गई है. यंगहे की शाक अभिरुचि का इस्तेमाल वह अपने आर्ट प्रोजेक्ट में करता है. यंगहे से मिलकर उसके पूरे शरीर पर फूलों का चित्र बनाने का प्रस्ताव देता है. न्यूनतम जीवनशैली जी रही यंगहे तुरंत तैयार हो जाती है. यंगहे का जीजा यंगहे के नग्न शरीर पर फूल उकेरने की पूरी प्रक्रिया को रिकॉर्ड करता है. यंगहे को भी अपने बदन के फूलों से इस तरह प्यार हो जाता है कि वह उसे उतारना नहीं चाहती. यंगहे के प्रति यौनिक फंतासी उसके जीजा को तनिक और उकसाती है. वह फूलों में ढके एक स्त्री और पुरुष शरीर को साथ फ़िल्माना चाहता है. वह ख़ुद उस भूमिका में आना चाहता है पर अपने शरीर के प्रति वितृष्णा और इनहे के प्रति बची हुई थोड़ी सी सदाशयता उसे बाध्य करती है कि वह अपने मित्र से यह करवाये. उसका मित्र तैयार होता है. वह यंगहे के साथ सेक्स के एक्ट की नक़ल भी करता है पर जब यंगहे का जीजा उसे सच में सेक्स के लिए कहता है तो वह मना करके निकल जाता है.
उस पूरी प्रक्रिया में यंगहे मूक रूप से अपनी सहमति ज़ाहिर करती रही है. जब आख़िर में पुरुष मॉडल चला जाता है तो वह हँसते हुए किलसती है, मैं उत्तेजित हो गई थी. स्त्री की उत्तेजना को सहमति मान लेने वाले भाव से ग्रस्त जीजा यंगहे साथ सेक्स करने की कोशिश करता है पर यंगहे मना कर देती है.
यंगहे उसे कहती है कि उसके शरीर पर बने हुए फूल उसे आकर्षित कर रहे थे. यंगहे के इस कथन को सुनकर उसका जीजा प्रोजेक्ट के फाइनल एक्ट को ख़ुद निभाने की सोचता है.अपनी एक कलाकार मित्र की सहायता से वह वैसे ही फूल अपने बदन पर भी बनवाता है जैसे पुरुष मॉडल के शरीर पर थे. वह उन फूलों को लेकर यंगहे के पास आता है. कैमरा सेट करता है और यंगहे के साथ सेक्स करता है. यंगहे इस बार एकदम मना नहीं करती है. दरअसल इस दफ़े वह समर्थन की ख़ास मुद्रा में होती है.
इस पूरे हिस्से में यंगहे की फूलों और पौधों के प्रति एक ऐसी अभिरुचि नज़र आती है जो आम नहीं है. यह विशेष का बोध लिए हुए है.
इस हिस्से की समाप्ति इनहे द्वारा अचानक आ जाने पर होती है. उसे अपनी बहन की मानसिक हालत ठीक नहीं लगती है. उसे शक अपने पति की मनोदशा पर भी होता है. दोनों ही लोगों को आपात सहायता समूह ले जाता है.

उपन्यास का तीसरा हिस्सा यंगहे के गौण होने का है. इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि यह गौण यंगहे की पुरज़ोर उपस्थिति का हिस्सा है. इस हिस्से की कमान यंगहे की बड़ी बहन इनहे के हाथों में है. उस घटना के बाद से इनहे अपने पति से दूर हो गई है. पुलिस से उसे मालूम होता है कि उसकी मानसिक हालत ठीक थी, ज़मानत मिलने के बाद वह कहीं चला गया है. इनहे अपने व्यापार और बच्चे के साथ उलझी हुई अपना जीवन जी रही है, जिसमें महीने दो महीने में वह यंगहे से मिल आती है. यंगहे के प्रति उसका क्षोभ कहीं नज़र नहीं आता है. वह पूरी घटना का ज़िम्मेदार अपने पति को मानती है, दोष भी उसे ही देती है कि उसके अपने पति ने उसकी छोटी बहन की मनोदशा का नाजायज़ फ़ायदा उठाया. ज़िंदगी की ऊहापोह में डूबी इनहे के पास एक यंगहे के अस्पताल से कॉल आती है कि उसकी बहन ग़ायब हो गई है. बीमार बच्चे की तीमारदारी में व्यस्त इनहे के पास चिंतित होने का भी समय नहीं होता है. कुछ घंटों बाद उसी अस्पताल से वापस फ़ोन आता है कि वह जंगल के क़रीब पेड़ों को घूरते हुए मिली.
यह जानकारी कई बीती हुई घटनाओं से पर्दा उठाती है. यंगहे के वर्तमान को नियंत्रित कर रहे उसके अतीत के अनुभवों को जोड़ती है. हिंसा का एक पूरा सिरा खुलता है. जंगल में खो जाने पर नौ बरस की यंगहे की ख़ुद से चार साल बड़ी बहन से इल्तिजा करना कि यहीं रह जाते हैं, लौटते नहीं हैं. बड़ी बहन को लगता है यंगहे सिरफिरी है. सालों बाद उस वाक़िए को याद करते हुए बड़ी बहन सोचती है, जंगल में रहने की वह इल्तिजा उसकी बहन के दिमाग़ का दिवालियापन नहीं था. पिता की हिंसा से दूर पनाह की एक कोशिश थी. जंगल और पेड़ उसे सहृदय पनाहगाह के तौर पर नज़र आये थे. इनहे और सोचती है. उसकी छोटी बहन उसके लिए अपने बच्चे की तरह रही है. उसके ख़यालों और संघर्षों की पूरी शृंखला खुलती है. इसके साथ-साथ तारतम्यता में होते हैं अस्पताल में यंगहे के वक़्ती हालात. एक दिन इनहे को यंगहे सिर के बल खड़ी मिलती है. बहन के पूछे जाने पर यंगहे बताती है कि वह पेड़ की तरह देखना चाह रही थी. पेड़ दरअसल सिर के बल खड़े होते हैं. उनकी बाँहें ज़मीन में होती हैं.
“देखो दीदी, मैं सिर के बल खड़ी हूँ. मेरे बदन से कोंपलें फूट रही हैं. मेरे हाथ से जड़ निकल रहे हैं. वे ज़मीन तक जा रहे हैं. गहरे, बहुत गहरे जहाँ कोई सीमा ही नहीं… हाँ मैंने अपने पैर इसलिए फ़ैला रखे हैं कि मैं चाहती हूँ कि मेरे जननांगों से फूल खिल उठें. मैंने उन्हें ख़ूब फ़ैला रखा है…”
इनहे अब यंगहे से अधिक मिलने लगती है. यंगहे ने धीरे-धीरे खाना छोड़ दिया है. वह अब पेड़ों की तरह पानी भर पीती है. अस्पताल में उसे जबरन खिलाने की कोशिश होती है. इनहे को याद आता है कि किस तरह पिता ने उसकी बहन के मुँह में जबरन मांस ठूँसा था. उसे यह भी याद आता है कि पिता की हिंसा से बचने के लिए उसने ज़िम्मेदारी का बोझ ओढ़ लिया. पिता दोनों बहनों के छोटे भाई के प्रति सहृदय थे. उनकी क्रूरता का भार उतरता था तो केवल यंगहे पर जो सब से दबकर और चुप चुप रहने लगी.
अपनी उसी बहन को जब वह अस्पताल में देखती है कि उसके शरीर में जबरन खाना ठूँसा जा रहा है तो प्रतिरोध से भर उठती है. वह सबसे यंगहे को छोड़ देने को कहती है.
इनहे यंगहे का अस्पताल बदलवा देती है. संभवतः यहाँ यंगहे को मुक्ति मिल गई है. उसकी बहन ने उसके अंतस् में बैठे प्रतिरोध को पहचान लिया है. पेड़ से यंगहे की सन्निधि की जड़ों को ढूँढ़ लिया है.
किंतु यह इनहे की कहानी का अंत नहीं. उसकी कहानी में अभी भी एक ख़राब सपने के टूटने की उम्मीद बाक़ी है. कुछ प्रतिरोध हैं जो सड़क के किनारे खड़े आग सरीखे जलते नज़र आ रहे पेड़ों के प्रति हैं.
“इनहे बोलना शुरू करती है. वह यंगहे से फुसफुसाते हुए कहती है, “मैं जो कहना चाहती हूँ…” सड़क के सन्नाटे में एम्बुलेंस के चलने की आवाज़ गूँजती है. इनहे यंगहे का कंधा पकड़ते हुए कहती है, “शायद यह सब कोई सपना है.” (कहते हुए) वह अपना सिर झुकाती है, फिर अचानक जैसे कुछ हुआ हो, वह अपना मुँह यंगहे के कानों के पास लाती है और बोलना ज़ारी रखते हुए, एक-एक शब्द एहतियात से चुनते हुए कहती है, “मुझे भी सपने आते हैं. समझी… सपने और मैं भी खुद को उनमें फ़ना हो जाने दे सकती थी. उनमें खो सकती थी पर सपने ही सबकुछ नहीं हैं. हमें किसी बिन्दु पर जागना पड़ता है, है न! क्योंकि तब फिर…”
इस उपन्यास के आख़िरी हिस्से को पढ़ना कुछ घंटों के लिए जड़वत् हो जाना था. सिर्फ़ नाम देखकर या सुनकर इसे आहार के किसी पाये से बांध देने को मूर्खता से जोड़ा जा सकता है. यहाँ आहार केवल एक माध्यम है जो कई स्त्री मन की विकलताओं को खोलता है.
अठारह उन्नीस बरस पहले जब ‘द कलर पर्पल’ के आख़िरी सफ़ें पढ़ लिए गए थे तो मन यूँ ही डूबा रहा था देर तक.
स्त्रियों की एक जागृत दुनिया है. एक दुनिया सुप्त भी. सुप्त दुनिया मन के कई कोनों में अर्ध जागृति की अवस्था में आ जाती है. दुनियावी हिंसा उस पर अक्सर अपना प्रभाव डालती है. शांत आवरण के अंदर भी एक ज्वालामुखी उबलता रहता है. जिस दिन उसका ताप बाहर आता है, विसंगतियों की शुरुआत होती है क्योंकि स्त्री से प्रतिरोध की अपेक्षा किसी समाज को नहीं होती. कम से कम उस स्त्री से तो बिलकुल नहीं जिसे हमेशा शांत, साधारण और घर चलाने के लिए सबसे मुफ़ीद माना गया हो.
हान कांग ने उसी साधारण स्त्री की असाधारणता की कहानी लिखी है. वह जिसके साथ हुई हिंसा असाधारण थी और जिसका प्रतिरोध भी. उसके ऊपर हुई हिंसा और उस प्रतिरोध, दोनों की चश्मदीद रही दूसरी स्त्री का मन जो विकलताओं से उलझकर भी उम्मीद के एक हिस्से को पकड़कर बैठा है.
डेबराह स्मिथ के सरस अनुवाद में इसे पढ़ना अपने आस-पास की उन तमाम विसंगतियों से आबद्ध होना था जिस पर नज़र नहीं जाती.
अणु शक्ति सिंह
लेखक और पत्रकार दो उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ और ‘कित कित’ प्रकाशित संपर्क: singh.shaktianu19@gmail.com |
समीक्षा पढ़ना भी कहानी सा लगा 👍
इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपका बहुत आभार अणु जी। कुछ तो पता चला।
उपन्यास के मजमून को इतने रोचक और सारपूर्ण तरीके से रखना इस समीक्षा की उपलब्धि है। स्त्री – जीवन के संघर्ष के खुलते नये आयाम इस कृति का विशिष्ट बना गए होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन एक बात और स्पष्ट हो गई कि स्त्री लेखन कहीं का भी हो, वह स्त्री के देह – पक्ष से मुक्त नहीं है। यह स्त्री – सोच की विफलता नहीं बल्कि निस्सहायता है। समीक्षा में उद्धृत अंश में भी यह साफ झलकता है। रही बात भाषा की तो यह स्पष्ट है कि भाषा में गद्यात्मक बोझिलता नहीं है बल्कि काव्यात्मक सौष्ठव है। काव्यात्मक लहजे में गद्यात्मक जीवन – संघर्ष की अभिव्यक्ति इन उद्धरणों में स्पष्ट है। बहरहाल लेखिका और समीक्षक दोनों को बहुत बहुत बधाई।
बढ़िया आलेख। अणु शक्ति सिंह ने उपन्यास का मर्म खोलकर रख दिया है। उन्हें पढ़ते हुए उपन्यास पढ़ने का एहसास हुआ।
यह समीक्षा से अधिक उपन्यास का सारांश लग रहा है। करीब 2800 शब्द के इस लेख में 200 शब्द इंट्रोडक्शन और 165 शब्द कन्क्लुशन के छोड़ दिए जाएं तो पूरे लेख में बस 300 शब्द लेखक ने अपने लिखे हैं। बाकी सब तो उपन्यास का सारांश ही है। इसमें कुछ 400 शब्द तक के उद्धरण भी हैं। इंट्रोडक्शन और कन्क्लुशन में भी जो बात कही गई है वह किसी भी स्त्री दृष्टिकोण से लिखी पुस्तक के बारे में कहा जा सकता है। ऐसे में यह पुस्तक किस तरह की दृष्टि देती है, यहां कहीं भी स्पष्ट नहीं हो रहा है।
यह मात्र समीक्षा न होकर पूरा का पूरा स्वतंत्र आलेख है।
अच्छा लगा पढ़ कर।
लेकिन मुझे लगता है यहां उपन्यास की रीडिंग में analysis थोड़ा जोड़ा जा सकता था ।इसका narration वर्जीनिया वुल्फ के जैसे ही टाइम और स्पेस से बाहर देखने से बहुत बेहतर खुल सकता है क्योंकि इस उपन्यास का लेखक भी वर्जीनिया की तरह ही समय के आर पार एक बार नहीं कई कई बार जाता है।
दूसरी बात कि किसी भी समाज की संस्कृति को समझने के लिए दो तरह के टूल्स होते हैं जिसमें पहला स्थानीय और दूसरा यूनिवर्सल कहलाता है।जब कोई स्थानीय स्थिति को ट्रांसपास कर उस समाज को वैश्विक दृष्टि से देखता है तब उसमें जिस methodology का प्रयोग किया जाता है ,शायद अगर समीक्षक उसे यहां विस्तार से लिखती,जो यकीनन उपन्यास की कथा से ज्यादा analytical हो जाता ,तब यह उपन्यास और बेहतर संदर्भों में पाठकों के लिए खुलता।
बेहतरीन आलेख है संतुलित गहन विश्लेषण करता हुआ केंद्र तक निर्भय जाते हुए। मार्मिकता को उसकी आदिमता में देखता दिखाता।
सोशल मीडिया पर ज्यादातर हूंहा होता है ऐसे में यह स्थिर स्वर मन को सुकून देता।
शाकाहार पर हमारे इधर काफी चमक दार बाते मुखर हो की जाती है जिसमें अपना पक्ष गहरी हठ से सही सिद्ध किया जाता है जिसमें सामने वाला प्रतिपक्षी नहीं अपितु असहनीय अपवित्र मान लिया जाता है। यही शाकाहार की मूल धारणा से सब को च्युत कर देता है। यदि आप का चित निर्मल सहिष्णु नहीं है तो आप का शाकाहार एक दिखावा है वह आप के भीतर के हिंसक से मुक्त नहीं है। इसलिए ऐसे सज्जनों की कलई आरंभ में खुल जाती है। शाकाहार कितना ग्रहणीय है कैसे है यह सिर्फ गांधी बताते हैं वहीं मूलतः भीतर बाहर से शाकाहारी भी। इस आलेख में अद्भुत संवेदना से शाकाहार को रूपक लेते जिस तरह मानवीय नियति को दिखाया गया रचना की है वह बिन गहरे सरोकार और जुड़ाव से संभव नहीं
मैने पढ़ी है कई प्रतिक्रिया ।लेकिन आपने इतनी गम्भीरता और गहराई से पड़ताल कि हैं कि बिना किताब पढ़े हुए हि पुरा किताब दिमागमे समा गया।बेहतरिन समीक्षा के लिए साधुवाद ।बधाइयां।
मनोज कर्ण
काश समीक्षा और बड़ी होती! समीक्षा पढ़कर उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा दूनी हो गयी है। जबरदस्त..👍 संपादक और लेखिका दोनों को शुक्रिया।
व्यक्ति की स्वतंत्र क्रिया को परिभाषित करने वाला प्रमुख पहलू ही यह होता है कि वह किसी भी रूप में उसके सामान्य रुझानों के दायरे में नहीं पड़ता है । एक सामान्य कर्तव्य-परायण स्त्री यंगहे का एक पूरी तरह से मांसाहारी कोरियाई समाज में शाकाहारी बनने का निर्णय स्वतंत्रता की दिशा में उसका पहला कदम था । इस कदम कोई सीधा संबंध उसके अतीत के दमित भावों से न होने पर भी, स्वतंत्रता का पहला स्वाद उसके तारों को उस पर अतीत में हुए दमन की स्मृतियों के अवशेषों से जोड़ती जाती है । और इस प्रकार, एक औसत, कर्त्तव्य-परायण स्त्री का सारी मर्यादाओं को चुनौती देने वाले विक्षिप्त चरित्र में रूपांतरण होता चला जाता है । वह आत्म हत्या की कोशिश की हद तक भी चली जाती है ।
यह समाज की एक कठोर नैतिकताओं की ज़ंजीरों में बंधे समाज उस विभाजित व्यक्ति के विद्रोह की कहानी है जो अपने सामान्य जीवन में ही हमेशा एक ओर जीवन के आनंद, प्रेम और ख़ुशियों तथा दूसरी ओर नैतिक मूल्यों और कर्तव्यों के बीच विभाजित रहता है। इस विखंडन का विकल्प उसकी स्वतंत्रता में होता है । दरअसल उसे अपनी आकांक्षाओं और अपने विखंडन के बीच चुनाव करना होता है । यंगहो जब उस दिशा में कदम बढ़ाता है तो वह पूरे आधुनिक कोरियाई समाज की विडंबनाओं का आईना बन जाती है । चरित्रों का यही विक्षिप्त, प्रेमरत और विक्षुब्ध रूप ही उन्हें श्रेष्ठ साहित्य का उपयुक्त पात्र बनाता है ।
हिंदी में जो लेखिकाएँ आनंद सिद्धांत के अनुसार स्त्री की व्यवहारिक कर्तव्य-परायणता की कहानियाँ लिखती है, वे यंगहो की तरह के चरित्र की कल्पना भी नहीं कर सकती और इसीलिए श्रेष्ठ साहित्य की रचना में असमर्थ होती हैं ।
स्तन शरीर के सबसे अहिंसक अंग हैं, वे किसी की जान नहीं ले सकते! देह की गहरी समझ से उपजा एक अद्भुत वाक्य !! यंगहे का शाकाहारी हो जाना सिर्फ भोजन शैली का बदलाव नहीं है बल्कि यह पुरुष की आदिम हिंसा का प्रतिरोध है। मांसाहार की जो भी देश काल गत अनिवार्यताएँ हों पर यह सच है कि वह हिंसा से ही प्राप्त होता है। इसीलिए जो हिंसा का विरोधी होगा वह स्त्री के बलात् दैहिक यौन शोषण का भी विरोधी होगा, वह युद्ध का भी विरोधी होगा और वह मांसाहार का भी विरोधी होगा। समालोचन का धन्यवाद कि इस उत्कृष्ट रचना का कथा सार उपलब्ध कराया ।
Great
If it will cover all works
Congratulations 🎊