स्मृति-लेख अरुण देव |
कुशीनगर के बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी एम.ए. की कक्षा में नीरन सर को मैंने पहली बार सुना. जैसे तनी हुई प्रत्यंचा. मझोला कद. मुँह में पान. देवरिया ने उन्हें ज़मीन दी थी और बनारस ने आकाश. देवरिया तब मेरा भी ज़िला था.
उनका वक्तव्य आधुनिक और अद्यतन था. उनके पूरे व्यक्तित्व में ऊर्जा थी, और यह तुर्शी आकर्षित करती थी. लगभग सम्पूर्ण भक्तिकाल और आंशिक छायावाद में साल-दर-साल व्यतीत होते हिंदी विभाग में, वह नई कविता पर देर तक बोलते रहे, लगभग तीन घंटे. समय जैसे था ही नहीं. जैसे कोई आवश्यक क्षतिपूर्ति हो.
वाणी का आकर्षण होता ही है अगर खुले मन से झरे, बारिश की तरह, अनायास, सुखद और उर्वरक. तराशी हुई भाषा दिमागी कारगुज़ारी अधिक है; अगर वह मीठी हो तो सचेत रहना चाहिए. “मिठ बोलवा झूठे होते हैं”, ऐसा लोक में प्रचलित है. कक्षा-व्याख्यान भी ओपन-एंडेड हो सकते हैं. उन्हें होना ही चाहिए. यह सीखा.
श्रीकांत वर्मा की ‘हवन’ कविता की पंक्ति “चाहता तो बच सकता था” अभी भी स्मृति में है. उन्हें यह कविता याद थी और वह इसका बहुत प्रभावशाली पाठ कर रहे थे. आधुनिक कविता के सौंदर्य की परतें धीरे-धीरे खुल रही थीं, और यह कविता सम्मोहित कर चुकी थी. आज भी यह मेरी प्रिय कविताओं में से एक है. जयशंकर प्रसाद को वह आधुनिक हिंदी का सबसे बड़ा लेखक मानते थे और बहुत मन से प्रसाद को पढ़ाते थे.
समकालीन लेखक, जो तब बहुत दूर के लगते थे, उनका ज़िक्र वह बहुत निकट से करते थे, जैसे वे उनके घनिष्ठ मित्र हों, और उनमें से अधिकतर थे भी. वह ख़ुद भी कवि थे. और हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी में भी उन्होंने कविताएँ लिखी हैं.
गुरुवर मैनेजर पाण्डेय के मुहावरे को थोड़ा बदलकर कहूँ तो मुझे ‘हिंदी लग गई थी’. विज्ञान-वर्ग छोड़कर मैं कला-वर्ग में आ गया था. इसकी पृष्ठभूमि में पितामह के घरेलू पुस्तकालय में अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी की किताबों का भी हाथ रहा होगा. बाद में उपन्यासों की लत ने मुझे लतपथ ही कर दिया था.
हंस के साथ-साथ और पत्रिकाएँ पढ़ता था. उस समय हिंदी अख़बारों के साप्ताहिक संस्करण निकलने शुरू हुए थे, जिनमें साहित्य और विचार की अच्छी ख़ुराक होती थी—दिनमान टाइम्स, संडे टाइम्स, हिंदी ऑब्जर्वर आदि.
कविताएँ लिखने लगा था. डायरीनुमा पांडुलिपि मैंने नीरन सर को डरते-डरते देखने के लिए दी.
कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे वह डायरी वापस की, जगह-जगह निशान लगे थे, सुधार किए गए थे. उसे पूरा पढ़ा गया था. ‘संभावना है’, ऐसा उन्होंने कहा था. यह बड़ी आश्वस्ति थी.
अंतिम वर्ष में प्रबंध लिखना था. विषय के लिए मैं नीरन सर के सम्मुख था. “तुम्हारे पास के ही कवि हैं, ‘देवेन्द्र कुमार बंगाली’, उन पर क्यों नहीं लिखते?” और इस तरह मैं गढ़ा जाता रहा. किसी के होने में कितनों का होना हुआ रहता है. एक फूल के खिलने में हवा, बारिश, मिट्टी, खाद, कीट सब शामिल रहते हैं.
बंगाली जी को जानने के क्रम में नवगीत और नई कविता के सभी प्रारूपों से अच्छी तरह परिचित हुआ. बंगाली जी के परिवार से मिला, उनके साथियों से मिला. कई कवि-आलोचकों से इसी बहाने मुलाकात हुई, जिनमें विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी थे. नीरन जी के नाम के सहारे मैं विश्वास के साथ कहीं भी पहुँच जाता था.
संदर्भ पुस्तकों के लिए सर के घर जाता था, देवरिया ख़ास. सचमुच, यह मेरे लिए ख़ास था. वहाँ मुझे मेरा प्यारा मित्र मिला. परितोष मणि. फिर हम सहपाठी भी बने. उसे इस बात की पुलक रहती थी कि मैं नीरन जी का विद्यार्थी हूँ. उसे जब यह पता चला कि मैं नीरन जी का प्रिय हूँ उसने मुझे भी अपना प्रिय बना लिया. ऐसे स्नेहिल पुत्र मैंने कम ही देखे हैं.
एम.ए. की मौखिकी में मुझे अधिकतम अंक मिले जबकि उसी बैच में महाविद्यालय के ही तीन आचार्यों के कैंडिडेट थे.
एम.ए. प्रथम वर्ष में मेरे अधिकतम अंक थे, इसलिए मौखिकी में भी मुझे अधिकतम मिलेंगे, इस रीति की नैतिकता की रक्षा की गई थी. अधिकतर हिंदी विभागों का इतिहास मौखिकी में पक्षपात के गिरेपन से लिथड़ा हुआ है. उस वर्ष सम्पूर्ण कला-वर्ग में भी मेरे अधिकतम अंक थे. विदाई के अवसर पर नीरन सर ने मुझे ख़ास स्मृति-चिह्न दिया और कहा—“तुम एक परंपरा तराशोगे.” वह स्मृति-चिह्न आज भी मेरे पास है.
नीरन सर हिंदी साहित्य की दुनिया से गहरे जुड़े थे. उनके गुरु प्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र थे. बनारस में उनके साथ मैं उनसे मिला. “मेरा विद्यार्थी है”—मिश्र जी के प्रश्नवाचक भृकुटि का यह प्रतिउत्तर था.
कुशीनगर बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थली तो है ही, अज्ञेय की जन्मभूमि भी है. अज्ञेय अक्सर यहाँ आते थे. यहाँ पर्यटन विभाग का एक सादा और सुंदर होटल ‘पथिक निवास’ है, जिसमें वे ठहरते थे. उनकी स्मृति में नीरन जी के ही प्रयासों से ‘अज्ञेय स्मृति संस्थान’ बना है और एक पुरस्कार भी शुरू किया गया है. उनके पास, अज्ञेय के अद्भुत संस्मरण थे.
एक बार अज्ञेय ने किसी साधारण व्यक्ति के घर भोजन करने की इच्छा व्यक्त की. भोजन के समय दस-बीस ग्रामीण भी थे, और उन्होंने कविता सुनाने की फ़रमाइश कर दी. अज्ञेय ने कहा—“मेरे पास न कविताएँ हैं, न संकलन.” जिस व्यक्ति के घर भोजन हो रहा था, वह घर के अंदर गया और ‘सुनहले शैवाल’ की प्रति लाकर सामने रख दी. अज्ञेय डेढ़ घंटे तक कविता-पाठ करते रहे.
“अज्ञेय जी, यह आपका श्रोतावर्ग नहीं था,”
ऐसा कहते हुए जब नीरन जी ने क्षमा माँगी, तब अज्ञेय ने उनसे कहा, “इसकी आवश्यकता नहीं है. यही श्रोतावर्ग मेरी कविताओं का आधार है, और इन्हीं की चेतना मेरी रचना-भूमि है. मैं तो कृतज्ञ हूँ आपका कि आप मुझे यहाँ ले गए.”
अज्ञेय का ६५वाँ जन्मदिन यहीं मनाया गया था, जिसकी अध्यक्षता पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी करने वाले थे, और अज्ञेय की बड़ी बहन, भवानीप्रसाद मिश्र, लोठार लुस्से, डॉ. रघुवंश, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामकमल राय, केदारनाथ सिंह आदि शामिल होने वाले थे.
नीरन जी ने अपने उद्यम से कुशीनगर को साहित्य के केंद्र में खड़ा कर दिया था.
विश्व भोजपुरी सम्मेलन तब अरुणेश नीरन की केंद्रीय भूमिका में देवरिया में आरंभ हुआ. ऐसे बड़े आयोजनों की कल्पना आज भी करना मुश्किल है. देश-विदेश के विख्यात लोगों को बुलाना और उन्हें सुव्यवस्थित करना बहुत चुनौतीपूर्ण रहा होगा. ऐसे आयोजनों में कई लेखकों से मेरी जान-पहचान हुई.
एक बार ऐसे ही एक आयोजन में निर्मल वर्मा और गगन गिल पधारे थे. उन्हें मैं पहली बार देख रहा था. दोनों अल्पभाषी और किंचित सकुचाए से लगे थे.
उनके घर में उनकी बैठक पुस्तकों से भरी है. वहीं कई बार उनसे मिलना हुआ. हिंदी ही नहीं, दूसरी भाषाओं के साहित्य से वह हमेशा समृद्ध मिले. लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाएँ वहाँ पहुँचती थीं और साहित्य-जगत की सभी गतिविधियों से वह सुपरिचित थे. कुछ में उनकी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ थीं. भोजपुरी सम्मेलन के कर्ता-धर्ता होने के कारण उनकी व्यस्तता बनी रहती थी. विदेशों में उनका जाना और बाहरी विद्वानों का उनके घर आना लगा रहता था.
नीरन सर ने बड़े धैर्य से सबकुछ जोड़ा था. उनके पास पहचानने की अचूक दृष्टि थी और संयोजन का अद्भुत कौशल. शहर के सक्षम लोग सहर्ष सहयोग देने के लिए तैयार रहते थे. अतिथियों के ठहराने की ज़िम्मेदारी कोई उठाता था तो कोई उनके भोजन की व्यवस्था में लग जाता कोई अलंकरण का सामान मुहय्या करा रहा होता. उनका मानना था कि जब समाज का कार्य है तो समाज मिलजुल कर करे.
देवरिया नगर वर्षों से भोजपुरी का केंद्र बना रहा, इसमें उनका ही उद्यम था. लुप्त भोजपुरी साहित्य की पहचान, तलाश, संरक्षण और प्रकाशन का महती कार्य उन्होंने किया है. हिंदी के साहित्यकारों से भोजपुरी में लिखवाया है.
जेएनयू में पढ़ते हुए मैंने उनके कहने पर केदारनाथ सिंह से भोजपुरी में एक बातचीत की थी, जो विश्व भोजपुरी साहित्य में छपी. विश्व भोजपुरी सम्मेलन के तिमाही मुखपृष्ठ भोजपुरी साहित्य का वह वर्षों बरस संपादन करते रहे. भोजपुरी, हिंदी , अंग्रेजी शब्द कोश का उनके द्वारा संपादन महत्वपूर्ण कार्य है. भोजपुरी का शब्दकोश और उसका इतिहास उनके ऐसे कार्य हैं जो उन्हें हमेशा प्रासंगिक रखेंगे.
नीरन सर का खुलापन और असहमति से भी संवाद का उनका रास्ता उन्हें आकाशधर्मा बनाता है. वे समाज से जुड़े लेखक और संगठनकर्ता थे. समाज से आर्थिक सहयोग किस तरह आयोजनों में लिया जाए, यह उन्हें पता था, और सहयोगियों को कैसे सम्मान दिया जाए, यह भी उन्हें आता था.
कई राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं से वह जुड़े थे, जिनमें साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग आदि का नाम लिया जा सकता है.
पिछले वर्ष अरुण कमल के सम्मान के अवसर पर उनसे मिलने का अवसर मिला था. उम्र का असर तो था पर प्रत्यंचा वैसी ही तनी हुई थी. हर छोटी से छोटी चीज पर उनकी नज़र थी.
अब जब वह नहीं हैं. वे और याद आ रहे हैं.
नमन.
अरुण देव
devarun72@gmail.com
संपादकीय के रूप में आत्मीय और तरल संस्मरण। भला, इतना सुंदर गद्य कोई लिखता है!
सादर नमन।
अपनी यात्रा के साथ उनकी यात्रा को जोड़कर तुमने नीरन जी को समग्रता से प्रस्तुत किया है। सचमुच वे विदग्ध थे और सांगठनिक क्षमता से लेकर प्रतिभा-परख में भी सिद्ध थे। उनकी स्मृति को नमन।
विनम्र श्रद्धांजलि
नीरन का समाचार सुबह किसी की फेसबुक वाल से पढ़ा, फिर परितोष से कन्फर्म हुआ । दो वर्ष पूर्व देहली गई तो गाजियाबाद भेंट करने गई थी ।
अरूणेश नीरन से मेरा संपर्क 1968 के वर्ष से मुलाकात थी ।किसके माध्यम से हुई, डाॅ परमानन्द श्रीवास्तव, डाॅ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अथवा किसी अन्य माध्यम से पूरी तरह स्मरण नहीं हम लोग एक दूसरे को नाम से पुकारते थे । मै 1968 मे कानपुर में प्रवक्ता बन चुकी थी ,और नीरन बुद्ध डिग्री कालेज भ।में कुछ बाद में आए । साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक साहित्यिक परिचर्चा में नीरन ने मेरा वक्तव्य भी छापा था। बहुत सारी स्मृतियां हैं । मै दौड़ती भागती प्रशासन की दुनिया में कानपुर देहरादून तक आ गई, बीच मे यही जानकारी मिली कि नीरन बुद्ध डिग्री कालेज में प्राचार्य हो गए हैं । गत वर्ष मिली तो अस्वस्थ नहीं दिख रहे थे ,तय हुआ था कि शीघ्र ही देहरादून में कार्यक्रम आयोजित करेंगे और उन्हें आना पड़ेगा । ज्ञानोदय ( पुराने वाले ) के एक अंक मे शिवप्रसाद सिंह के साथ उनके साक्षात्कार वाला अंक आज भी मेरे पास सुरक्षित है ।
स्मृतियों के अनेक एकांत श्लथ के साथ विनम्र श्रृद्धांजलि ।
अरुणेश नीरन जी के निधन की खबर सुनकर स्तब्ध हूँ ।उनमें ऐसा आकर्षण और निश्छलता थी कि मैं सहज ही उनकी मंडली में शामिल हो गया।उनकी कहानियाँ,उनका कहानी पाठ, जीवंत संस्मरण और विद्वत्ता —अब कहने सुनने की बातें हैं।ऐसे लोग कम हैं जो अतीत और वर्तमान दोनों में रमते हों।
उनका निधन हमें सूना कर गया ।
नमन!
नीरनजीको सादर नमन । सच ! वे एक अच्छे मनुष्य भी थे। अरुणदेव जीने बहुत ही जीवंत संस्मरण लिखा है।
बहुत आत्मीय और सघन स्मरण। नीरनजी को स्मृतिनमन
इस तरह के लेखन की कितनी जरूरत है, मैं बता नहीं सकता. मुज़फ़्फ़रपुर शहर में भी हिंदी विभाग में अरुणेश नीरन जी की तरह प्रतिभाशाली शिक्षक कामेश्वर शर्मा जी थे…. अरुणेश जी के बारे में पढ़ा भले कम हूँ, लेकिन उनके बारे में सुना बहुत था…. हमारे यहाँ के रेवती रमण उनका ज़िक्र अक्सर किया करते थे….उनके प्रणति में लिखा यह श्रद्धांजलि लेख अद्भुत है…. अरुणेश सर के लिए नमन…
चकाचौंध से दूर और जहां है वहीं अपना सर्वश्रेष्ठ रचते रचाते ऐसे अध्यापक सौभाग्य से हम सबके जीवन में होते हैं। इस आत्मीय स्मृति लेख ने जैसे उन सब के प्रति भी एक श्रद्धांजलि अर्पित कर दी। शुक्रिया
‘समालोचन’ में ‘संपादकीय’।
यह दृष्टव्य शुरुआत है।
*
*आज देवरिया से अरुणेश नीरन जी के स्वजन परिजन बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर उनकी निर्जीव देह के साथ आज शाम पहुँचे। सत्यदेव त्रिपाठी के साथ मैं पहले ही पांच बजे वहाँ पहुँच गया था।बारिश कभी अधिक कभी कम होती रही। मुखाग्नि उनके बेटे परितोष मणि ने दी।बनारस के श्मशान ऐसे हैं कि मरने का मन नहीं करता। समालोचन में आपने उन्हें भावप्रवण ढंग से याद किया है।बनारस में अक्सर वे आते और मिलते रहे।अब नीरन जी के अंतरंग बैरिस्टर तिवारी, राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय भी स्मृति शेष हैं।कुशल संगठनकर्ता और भोजपुरी के अनन्य सेवक के तौर पर वे हमेशा याद किए जायेंगे।*
*वाचस्पति*
नीरन जी से मेरा सम्पर्क १९८० के प्रारम्भ में हुआ था. पहली मुल्लाकात में ही बडे भाई का सम्बंध बना और रिश्ते पारिवारिक हो गये. बहूत संस्मारण हैं बहुत बातें हैं पर अब सब बेमानी हैं. मन अशांत है और चित अस्थिर. कुछ दिन पूर्व ही देवरिया के सांस्कृतिक इतिहास पर २ पुस्तकें उन्होंने मेरे कहने पर तैयार की थीं. उन्हें मेरा नमन.
‘समालोचन’ में संपादकीय और स्मृतिलेख के रूप में !
यादगार रहेगा यह प्रयोग। योग्य शिक्षक की स्मृति सँजोने का यह तरीका श्लाघनीय है । अरुणेश नीरन का नाम लंबे समय से सुनता आया हूँ। मगर उनके शिक्षक और साहित्यिक एवं संगठक रूप का जैसा रेखाचित्र आपने उपस्थित किया है, उससे नीरन जी को और जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है। हम तो अपने शिक्षक डॉ कामेश्वर शर्मा जी को लेकर ही फूले न समाते हैं । मगर इस स्मृति लेख को पढ़ने के बाद यह सोचकर हैरान हूँ कि हमारी भाषा में ऐसे भी तप:पूत हैं और हम कितना कम जानते हैं!
दिवंगत आत्मा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।