मैं और मेरी कविताएँ (१) : आशुतोष दुबे_________________________________________
कविता और जीवन : कुछ बेतरतीब वाक्य
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॥ कि ॥
सब कुछ हो चुका है
और अभी होना है
उसे कहा जा चुका है
और अभी कहना है
वह ठीक उसी तरह नहीं होगा
और ठीक उसी तरह कहा भी नहीं जाएगा
एक खेल होगा हमेशा होने और कहने में
जिसमें होना छुपने की कोशिश करेगा
कहना उसे ढूँढने की
इसी लुकने-ढूँढने में बहुत मुमकिन है
कहना होने को थोड़ा बहुत पा जाए
और ताज्जुब नहीं कि साथ-साथ
कुछ अनहुआ-अनहोना भी
अपनी मुट्ठी में ले आए
या होना खुद कहने में ही जा छुपे
और कहना उसे शब्द शब्द ढूँढता फिरे
इस तरह ख़ुद को पा जाए
बूझते रहें खेल देखने वाले
बहसा करें आपस में
होने को कहना है
कि कहने में होना है
होने को खोना है
कि कहने में पाना है
जब विषय इतना अछोर हो, जैसा कि यह है: कविता और जीवन ; तो इसकी बहुतेरी सुविधाएँ और असुविधाएँ होती हैं. इस तमाम सहूलियत और जोखिम के बीच इस विषय पर जिस पर क्या कुछ किस-किस तरह से नहीं कहा जा चुका है और जिस पर हर एक को हमेशा स्लेट पोंछ कर अपने लिए फिर ऐसे लिखना पड़ता है जैसे पहले कभी कुछ था ही नहीं और था भी तो हमारी तरह नहीं था; यानी कविता और जीवन का एक कस्टमाइज़्ड वर्शन, उसकी हिमाकत कर रहा हूँ.
कविता सबके जीवन में होती है: उसे पहचान पाना सबके जीवन में नहीं होता. इसलिए सब कवि नहीं होते. कवि होना चयन से अधिक एक विवशता है. जीवन के घमासान और दैनिक रक्तपात के दरमियान धार के बीच में होने और किनारे बैठ कर ख़ुद को और दूसरों को भी जूझते हुए देखने और दर्ज करने का काम है. जिसकी भीतरी कोई आँख खुल जाती है: उसे वैसी नींद नहीं आती. जागना और रोना पड़ता है. यही जाग यही सिसकी उसकी कविता है.
कविता एक ऐसा विचित्र लोक है जहाँ हर बात का विलोम भी पड़ोस ही में रहता है. जीवन की ही तरह. इसीलिए उसमें इतने स्वरों, तेवरों, भाषा-छवियों, प्रसंगों, समयों, स्थितियों, स्वभावों की संकुलता है. उसमें कोई बात अंतिम बात नहीं. कोई सम्भावना समाप्त नहीं, कोई प्रयोग अवांछनीय नहीं, कोई आवाज़, वो कितनी ही मद्धिम, कितनी ही अनसुनी हो, बेघर नहीं.
कहा गया है कि जीवन को कविता की तरह होना चाहिए. कविता से यहाँ मतलब सुन्दरता से होगा. लय और छन्द से होगा. लेकिन कविता भी हमेशा इस अर्थ में कविता की तरह नहीं होती. वह भी जीवन की तरह हो जाती है: कुछ खुरदुरी, ऊबड़खाबड़, असमतल. जैसे मुक्तिबोध की कविता. इसीलिए इसे उलट कर कहता हूँ: कविता को जीवन की तरह होना चाहिए. अप्रत्याशित, अपूर्वानुमेय से भरपूर. विस्मय के लिए हमेशा गुंजाइश छोड़ते हुए, एक धारावाहिक संघर्ष, टूटते-बिखरते-समेटते हुए, नश्वरता के तीखे बोध के साथ जूझते हुए और उसके सामने घुटने टेकने से इंकार करते हुए. सुन्दरता को ढूँढते हुए और इस यात्रा में मिली असुन्दरता को भी अपने लेखे में लेते हुए.
कल्पना और स्वप्न और यथार्थ और आकांक्षा के दरवाज़ों से निकल कर उन्हीं के दरवाज़ों में जाते हुए. बीच के आंगन में ठिठकते हुए. सीढियाँ चढते हुए सीढियाँ उतरते हुए. जीवन और जगत से खो गए को अपनी पुरानी टुटही सन्दूक में जतन से अवेरते हुए. अपने अप्रस्तुत रह जाने के धक्के से भी सँभलते हुए. देखना- कहना- सुनना-बरतना- पढ़ना- लेना- और छोड़ना सीखते हुए और पुराने सीखे हुए को अनसीखा करते हुए. अनगिनत बार के बरते हुए शब्द कविता के भीतर फिर एक नया स्फुरण, नई दीप्ति पाते हैं. एक नयी भाव-ऊर्जा से सराबोर. कविता इसी तरह जीवन के नए संस्करण प्रस्तुत करती है और इस प्रक्रिया में खुद का नयापन पाती है.
जिस तरह जीवन एक तरह का नहीं हो सकता उसी तरह कविता भी; यहाँ तक कि एक ही कवि की कविताएँ भी, एक तरह की ही नहीं हो सकतीं. किसी ने कहा है, “एक तरह का कवि हो जाना अपने भीतर कई कवियों की मृत्यु है.” बड़े कवियों की कविता इसकी गवाही अक्सर देती है. जो बज़िद एक ही काव्य संवेदन, एक ही भाव लोक से बँधे रहना चाहते हैं वे भी बाज़ दफ़ा पाते हैं कि कविता पर उनका ज़ोर नहीं चलता. वह उनके बावजूद अपने सुर को पा लेती है.
“The purpose of poetry is to remind us
how difficult it is to remain just one person,
for our house is open, there are no keys in the doors,
and invisible guests come in and out at will. ” [मीवोश]
एक कविता अपनी धोखादेह सादगी में भी महत्त्वाकांक्षी होती है. जीवन के बिम्ब उसमें अपना उत्तर जीवन पाते हैं. वह सिर्फ़ ‘स्लाइस ऑफ़ लाइफ़’ भर से संतुष्ट हो जने वाली शै नहीं; उसका पसारा जीवन को उसके पूरेपन में थामने तक है. नहीं है तो उसकी आकांक्षा में तो यह है ही.
‘हम तो लेंगे सारा का सारा जीवन
कम से कम वाली बात हम से न कहिए’:
रघुवीर सहाय कहते हैं.
येव्तुशेंको भी तो यही कहते हैं :
No, I’ll not take the half of anything!
Give me the whole sky! The far-flung earth!
Seas and rivers and mountain avalanches —
All these are mine! I’ll accept no less!
No, life, you cannot woo me with a part.
Let it be all or nothing! I can shoulder that!
I don’t want happiness by halves,
Nor is half of sorrow what I want.”
जाहिर है, कविता छूटी हुई चीज़ों तक बार-बार पहुँचने की कोशिश करती है. इसके लिए उसे स्मृति, कल्पना, फैंटेसी, समय के भिन्न आयामों और अपने निजी से सार्वजनिक तक के तमाम गलियारों वीथियों में घूमना होता है. मलयज के शब्दों में कहें तो “रचने और भोगने का एक द्वन्द्वात्मक रिश्ता है. एक के होने से ही दूसरे का होना है. दोनों की जड़ें एक-दूसरे में हैं और वहीं से वे अपना पोषण –रस खींचते हैं. दोनों एक-दूसरे को बनाते-मिटाते-बनाते हैं.” जो हो रहा है वह बाहर ही नहीं भीतर भी हो रहा है और कविता में उसकी सबसे सान्द्र और संश्लिष्ट जगह बनती है.
जीवन एक बहुत बड़ा, व्यापक पद है. इसमें बहुत सा जिया हुआ, देखा हुआ, सुना हुआ और पढ़ा हुआ शामिल है. कई बार आपका पढा हुआ, जो बिल्कुल कुछ और है, आपको अपने जिए हुए के पास ले जाता है, जो उस पढे हुए से बिल्कुल अलग है और जिसे आप भूल ही चुके थे. लेकिन कविता का पाठ, पाठक की मनोभूमि को संवेदन-उर्वर करके अपनी मौलिक सृजन क्षमता की ओर ले चलता है. उसमें अपने अजाने-अदेखे अंत:चेतना के अंधेरे तहखाने में पड़े कबाड़ को एक अप्रत्याशित आलोक मिलता है और एक ऐसी भी कविता सम्भव हो जाती है जिसकी पहली-दूसरी पँक्तियों को आने वाली पँक्तियों का कोई आभास नहीं होता. कविता कई बार कवि को अपने इस तरह आने से अचम्भे में डालती है. यही विस्मय कवि का सुख है. अप्रत्याशित की यही विकल प्रतीक्षा कवि की बेचैनी, उसका असंतोष, उसकी तकलीफ भी है. जीवन के तितर-बितर में कविता अपना एक संयोजन ढूँढती है. और उस संयोजन की अपर्याप्तता की टीस से भर कर, अगले संयोजन के संधान में जुटती है. अप्रत्याशित का अर्थ अनिवार्यत: अपरिचित से नहीं; अनेक बार वह सुपरिचित का अपूर्व पुनर्विन्यास भी हो सकता है. अपने आसपास पर एक बहुत अलग निगाह. अपने भीतर की एक अनायास तलाशी. बढ्ते तापमान के बीच भीतर की नमी को, सजलता को, करुणा को संजोने के जतन. लेकिन जो भी हो, उसमें कवि की सहभागिता अगर महसूस होती है तो कविता सच्ची लगती है.
अपने जिए को कहने में सुनने-पढने वाले की सहज साझेदारी बताती है कि जीवन के इन उलझे हुए अलग-अलग धागों की मूल बनावट एक सी है. जब यह साझेदारी सम्भव होती है, कवि अपने पाठक के करीब हो जाता है. पर कई बार यह नहीं भी होता; तब भी एक वास्तविक पाठक कवि और कविता को इसलिए ख़ारिज नहीं करता कि उसके जीवनानुभव या पाठानुभव से कविता की संगति नहीं बैठ रही. ऐसी अनेक कविताएं हैं जिनके भीतर प्रवेश नहीं मिलता, लेकिन उनके कुछ बिम्ब, कहन का कोई ढब, किसी पंक्ति का विन्यास, भाषा को बरतने का अन्दाज़, कोई ठिठका हुआ अनुभव, कोई अनचीन्ही कोशिश, और इन सबको अपर्याप्त ठहराते हुए वह ‘कुछ’ जिसे ठीक-ठीक पहचानना कई बार मुश्किल होता है– बार-बार अपनी ओर खींचता रहता है. कविता, अगर वह बाज़ार में उपभोग हेतु बनाई नहीं गई है तो अपने पाठक के लिए कई मुश्किलें खड़ी करती है. ये मुश्किलें हमारे आनन्द और हमारी यातना की वजहें भी हो सकती हैं.
शायद ही साहित्य के किसी अन्य कला रुप में अपने ‘होने’ को लेकर ऐसी सचेतनता होती है, जैसे कविता में. इसीलिए कविता पर इतनी कविताएँ मिलती हैं. यह आत्म सजगता इस वजह से भी है कि शब्द कविता के भँवर में आते ही अपना अतिरिक्त अर्थ सृजित करने लगते हैं. सहृदय पाठक के मन में बनते अर्थ वलय कविता को वह सब बनने से रोकते हैं जो कविता अपने अनूठे स्पर्श के अभाव में स्वयं बन कर रह जाती. कई बार जब वह कविता कही जाती है मगर हो नहीं पाती तो यह दुर्घटना घट भी जाती है. यानी वह एक वक्तव्य, ब्योरा, टिप्पणी, रपट सब बन जाती है; बस कविता नहीं हो पाती. दूसरी ओर, हमारे समय में ऐसे भी कवि हुए हैं जिन्होंने नितांत गद्यात्मक रहने का जोखिम मोल लेकर भी अपने संयोजन से काव्यात्मक उत्कर्ष हासिल किए हैं. जो गैरकाव्यात्मक विषयों में नितांत गैरकाव्यात्मक तरीकों और शिल्प में गए हैं मगर इसके बावजूद जिन्होंने उन विषयों को एक असुरक्षित जोखिम भरे रास्ते पर चल कर भी एक काव्यात्मक अन्विति देने में सफलता प्राप्त की है.
प्रत्येक कवि, अपने काव्य स्वभाव के अनुरुप जीवन और समय की बहुविध सच्चाइयों से टकराने, उनसे प्रतिकृत होने और उनमें हस्तक्षेप करने की रणनीति बनाता है. यह रणनीति बहुत सचेत स्तर पर न होने के बावजूद उसकी कविताओं में देखी जा सकती है. बहुधा जो कविताएँ अवसाद, निराशा, और पराजय बोध का प्रभाव देती प्रतीत होती हैं, बहुत मुमकिन है, कान लगा कर सुनने पर उनमें किसी घायल, त्रासद और दुर्निवार उम्मीद की फड़फड़ाहट सुनाई दे; बल्कि यह भी सम्भव है कि इसी फड़फड़ाहट में उस कविता का बीज हो. चरम नैराश्य में डूबा व्यक्ति आखिर कविता भी क्यों लिखेगा? टॉमस मान ने कहा है कि लिखना एक सक्रिय किस्म की उम्मीद है. कवि के सामने यह दोहरी चुनौती है कि कविता जीवन से लथपथ भी हो और ठोस और मूर्त दुनिया के रुढ़ हो चुके अर्थों से मुक्त होकर उड़ान भी ले सके. प्राय: कविता का जन्म दिए गए यथार्थ और वांछित यथार्थ की द्वन्द्व भूमि में ही होता है.
कई बार कविताओं में हम दुख को शोभा और अलंकरण की तरह, एक सौन्दर्यात्मक मूल्य की तरह भी बरतते हुए देखते हैं. लेकिन कविता में सुख को लिखना एक ज़्यादा कठिन चुनौती है. बचपन में एक बार पिता के साथ हम दोनों भाई बहुत सुबह उज्जैन रेलवे स्टेशन पर उतरे और वहाँ से पैदल ही अपने गंतव्य की ओर गए. मुझे वो रास्ता याद है. खेतों में से गुज़रते हुए हम. सुबह की ताज़ा हवा का स्पर्श, उगता हुआ सूरज. रंग बदलता आसमान. पिता का खेतों में उगी बेर की झाड़ियों से बेर तोड़ कर हमें खिलाना और उनके साथ, उन्हें सुनते हुए हमारा चलना. उस पुलक तक, उस सुख तक, जिसमें सिर्फ़ एक अनुभव है और जिसमें कोई नाटकीयता नहीं है, उसे शब्द बद्ध करना मेरे लिए तो कम से कम अब तक असम्भव रहा है.
दुखों को हम कितनी सरलता से लिख देते हैं. वे बहुत ज़्यादा प्रत्यक्ष होते हैं. उन्हें हम अपनी शिराओं पर झेलते हैं. उनकी मियाद भी ज़्यादा होती है और उन्हें कहने के लिए हम बहुत से शब्द, विन्यास, शिल्प हम जानते भी हैं. लेकिन सुख को कहना हमें अचकचा देता है. विष्णु खरे की एक ऐसी ही कविता मुझे बहुत प्रिय है जिसमें कवि बचपन की एक रेल यात्रा का वर्णन करता है. पिता, माँ, बुआएँ सब हैं. बुआ कोई गीत गा रही है. माँ पिता को छेड़ रही है. कवि इस आनन्द में डूबा हुआ चाहता है कि ये यात्रा कभी ख़त्म ही न हो. लेकिन हमें पता है कि ये यात्रा ख़त्म होगी. सुख की हर कविता इसीलिए प्रकारांतर से उसके खो जाने के दुख की कविता बन जाती है.
कविता पाठक के मन में पुनर्सृजित होती है. कवि भी मूलत: पाठक ही होता है. पहले उसकी दृष्टि चीज़ों को बदलती है और जब कविता का सामान्य पाठक अपनी दृष्टि और अनुभव से कविता पढ़ता है तो चीज़ें, दृष्टि और अनुभव सहित और बदलती हैं. वैसे कविता शायद अकेली ऐसी विधा है जिसका सामान्य पाठक शायद ही मिले. यानी वो पाठक जो शुद्ध पाठक हो, खुद एक गुपचुप कवि न हो जो किसी भी समय अपने कविरुप में प्रकट होने की प्रतीक्षा में न हो.
अपनी एक कविता से इसका समापन करूँगा जिसका शीर्षक है: ‘समस्यापूर्ति’. किसी समय ‘समस्यापूर्ति’ कविता प्रेमियों के बीच एक रोचक प्रचलन था. यानी एक पँक्ति दे दी जाती और उसे शामिल करते हुए एक पूरी कविता रचनी होती. कविता इस तरह है:
वह एक पँक्ति है: अकेली और उदास न उसमें मंत्र का सधापन है, न सूक्ति की चकाचौंध.
आरम्भ की चमकीली उठान उसमें कहीं नज़र नहीं आती. अंत की निर्णायक अंतिमता उसके बूते के बाहर लगती है.
बीच के असमंजस में वह कहीं भी हो सकती है और नहीं भी.
अपने नीम अँधेरे और निपट एकांत में वह एक सजल और संतप्त पँक्ति है.
वह एक गढी हुई पंक्ति है जिसकी उँगली अनगढ़ जीवन के हाथ से छूट गई है.
अपने शब्दों की आकुल फड़फड़ाहट के बावजूद वह उड़ नहीं सकती. उसे प्रतीक्षा है अप्रत्याशित की.
वह बाट जोहती है अपनी सखी-पँक्तियों की, जिन्हें उसने कभी नहीं देखा. जो आएँगी अर्थ को चकमा देकर, थाम लेंगी उसे हाथ बढ़ा कर. ले जाएँगी उसे अपने उजास और धुँधलके में.
तब तक वह एक समस्या है, कवियों के लिए.
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आशुतोष दुबे की कविताएँ
॥ न्यूनतम के सुनसान में ॥
एक अफ़वाह में सच की जितनी छाया होती है
धुँए में आग की जितनी सूचना
एक सिसकी में जितने दुख का पता मिलता है
उस न्यूनतम के सुनसान में
हमें जाननी होती है समूची कथा
उसके ब्यौरों के घटाटोप से बचते हुए
जिनमें चीज़ें एक-दूसरे को कुचलते हुए एक भगदड़ में नज़र आती हैं
हमें बहुत एहतियात से छूना होते हैं
उस मर्म के पंख
जिनके रंगों की धूल
उंगलियों के पोरों पर चमकने लगती है
एक स्वप्न में उतरने के लिए
उस जाग में विनम्र प्रवेश की ज़रूरत होती है
जिसका रसायन एक नींद के विस्तार पर फैला हुआ है
॥ मृत्यु ॥
उसका फोन मर गया
उसके दरवाज़े की घंटी मर गई
उसके आसपास की तमाम आवाज़ें मर गईं
मर गई घड़ी की टिकटिक
उसी के साथ
उसका इंतज़ार मर गया
अपने चारों तरफ़ मौत से घिरी
वह तो बिल्कुल आखिर में मरी
पर जिन्हें बहुत बाद में इसका पता चला
उन्हें इस सब का कुछ पता नहीं है
॥ दिखना हो सके ॥
चाँदनी की इतनी अमीरी भी ठीक नहीं
कि रात बेघर हो जाए
प्रेमियों को कोई अंधेरा कोना न मिले
चोरों का रोजगार मुसीबत में पड़ जाए
कवियों के मन में जो समन्दर है
उसको नाहक बुख़ार आ जाए
अमरित टपके
तो दूध की कुलिया में नहीं
खेत में टपके
किसान में जान आ जाए
दिखना हो सके
चाँदनी के ज्वार में
दृश्य डूब न जाए
॥ भूलना ॥
भूलने के लिए
बस भूलने की कोशिश से बाज़ आना चाहिए
भूलने में कुछ भी नाटकीय नहीं है
सिवा भूल जाने की अकस्मात् याद आ जाने के
भूल जाना अकर्मक क्रिया है
वह होती रहती है
जब उसे होते रहने दिया जाता है
॥ विदेह ॥
कभी नाखून काटना भी
पहाड़ की तरह लगता है
दाढी बनाना अजाब
आलमारी खोलने पर
कमीजों की हँसी सुनाई देती है
उस पहिये की आत्मा मेरे भीतर काबिज है
जिसे कोई बच्चा
एक डंडी से लुढ़का रहा था
और अब उस घूमते पहिए के पीछे
दौड़ते रहने से ऊब कर पीछे रह गया है
पहिए को साधे रखने वाली रफ़्तार
मायूस होकर जा चुकी
अब टेढ़ा मेढा होता हुआ
मैं ज़मीन पर गिरने ही वाला हूँ
भाड़ में जाएँ
न जाने किस तरफ़
भागते दौड़ते हाँफते लोग
उनके कदमों की आवाज़ भी
अब बहुत दूर चली जाए
मेरे ऊपर गिरते रहें सूखे पत्ते और धूल
जिनके ऊपर से सरपट गुज़र जाए गिलहरी
कोई भटकती हुई चींटी
मुझे टोहने चली आए
कभी हवा मेरा चेहरा देखने के लिए
ज़ोर से चले और उसे कुछ न दिखे
नाम और निशान
घुलते रहें बेआवाज़
पुछते जाएँ मेरे तमाम पते
हर तरह की तख़्ती से
|| सुख की उम्र ||
तस्वीरों में दिखने वाले सुख की उम्र
सुख से बहुत ज़्यादा है
एक दिन हम
उसके सामने ठिठक जाते हैं
याद करने
पहचानने की कोशिश करते हैं
उसकी धूल पोंछ कर रख देते हैं
कुछ पीला पड़ता हुआ
वह हमें देखता है
हमारे उसके सामने से हटने के पहले
॥ फिर भी ऐसे रहना है ॥
तारीफ़ें कुम्हला जाती हैं
आँखों की वैसी चमक को भी बुझते जाना है
मिलते हुए हाथों की वह गर्मजोश सख़्ती भी वक़्ती है
एक ही दिन में पृथ्वी को घूम जाना है
सुबह और शाम के छह बजे
अलग अलग होना है आसमान का रंग
एक वक़्त में लिखा
किसी और वक़्त में अजनबी की तरह घूरता है
जिस याद में रह जाने को इतनी छटपट है
उसका कोई जीवन बीमा नहीं है
फिर भी ऐसे रहना है
जैसे हमेशा रहना है
भूलने में ही रहना है
जब तक हो सके
॥ नामुमकिन ॥
चांद के बिना
रात के आसमान का काम चल जाता है
और धरती का भी
पर तारों के बिना यह नामुमकिन है
हम उनकी रौशनी में नहीं
मौजूदगी में चलते हैं
॥ उध्वस्त ॥
नदी के तल में
पाप की गठरियाँ औंधी पड़ी हैं
मछलियों के पेट में
मृतकों के पिंड मोक्ष पाते हैं
वह जिसका काम दिवंगत को उसके पूर्वजों की धार में छोड़ देना है रात को पसीना-पसीना होकर उठ बैठता है
भटके हुए मृतक उसे घेर लेते हैं
अपना पता पूछते हैं
वह जो सद्गति के व्यापार में है अक्सर एक बुरे सपने में देखता है
वह घर ढह गया है जहाँ उसे मरने के बाद जाकर रहना है.
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