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Home » आशुतोष दुबे की कविताएँ

आशुतोष दुबे की कविताएँ

आशुतोष दुबे की कविताओं में शिल्प का सौष्ठव और कहन की बारीकी देखते बनती है. उनका पाँचवाँ कविता संग्रह ‘सिर्फ़ वसंत नहीं’ सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुआ है. उम्मीद है यह संग्रह भी रुचि से पढ़ा जाएगा. आशुतोष दुबे को इस संग्रह के लिए बधाई और आपके लिए उनकी कुछ कविताएँ.

by arun dev
May 31, 2022
in कविता
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आशुतोष दुबे की कविताएँ
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आशुतोष दुबे की कविताएँ

1
फ़िजूल

फ़िजूल जरूरी का पीछा करता रहता है
उसकी जगह पर रखे हुए अपनी नज़र

जो चीज़ें हमने बहुत जतन से सहेजी हैं
उन पर फ़िजूल होने की धूल जम रही है

बड़ी होती सन्तानें माँ-बाप के
फ़िजूल होते जाने की चश्मदीद गवाह हैं

यह सब क्या अटाला इकट्ठा कर रखा है आपने
जगह कहाँ है इसके लिए
व्यर्थ संस्मरणों के लिए कहाँ है समय
माफ़ कीजिए
ज़रूरी काम है जाना है
आँकड़े तैयार करने हैं रिपोर्ट बनानी है जानकारी
देनी है
जिन्हें जल्दी से जल्दी फ़िजूल हो जाना है

ज़रूरी दवाइयां भी एक समय के बाद फ़िजूल हैं
जिस तरह डॉक्टर की कोशिशें

कुल को मिला कर लगता है
बहुत वक़्त फ़िजूल किया
मगर तब इसकी कितनी ज़रूरत लगती थी

ज़रूरी समझ कर इकट्ठा किया गया
जीवन के फ़िजूल का अम्बार

धीरे धीरे गिर रहा है जीवन पर.

 

२
अब वह कहीं जाती ही नहीं

जैसा उसे कहा गया था
उसने घर का दरवाज़ा
सिर्फ़ शाम को खोला
जब पति लौट आया काम से

पूरे दिन उसने दीवारों से बात की
अपनी उंगलियों से हवा में लिखती रही

फिर बच्चे आए
जब वे बड़े होते गए
तो दरवाज़े खुलने लगे
और खुलते गए धीरे धीरे

बच्चे अब अपने आसमान में हैं
और दरवाज़े खुले हुए

लेकिन अब वह कहीं जाती ही नहीं
यह नहीं कि इस बीच वह चलना भूल गई है
लेकिन अब उसके घुटनों में जानलेवा दर्द रहता है

 

3.
जब कभी सुख आया

जब कभी सुख आया
हम तैयार नहीं थे उसके आने के लिए
हमने उससे झिझकते हुए हाथ मिलाया

बहुत मुश्किल से आया था वह
और हम समझ नहीं पा रहे थे
कि उसे कहाँ बैठाएं
क्या ख़ातिर करें

हम अन्दर ही अन्दर उससे डरे
डरे कि वह चला जाएगा

बल्कि हम तो इससे भी डरे
कि यह सुख के भेस में वही बहुरूपिया तो नहीं है

आगे तो आपको मालूम ही है
हमारे डर और असमंजस के लिए
सुख के पास इतना वक़्त
कहां होता है !

 

4.
आज्ञाकारी

मृत्यु के पास जाते हुए
पिता एक आज्ञाकारी पिता थे

वैसे तो हरगिज़ नहीं
जैसे हम उन्हें देखते आए थे
आदर भय और प्रेम के गुत्थमगुत्था के पार

वे हमारी ओर अपने पूरे समर्थन और प्रतीक्षा से देखते थे
उनका इस तरह देखना खरोंच देता था

उन्हें नहलाने के बाद सर्दियों में
जब उनके सिर पर ऊनी टोपी पहनाई जाती
उनके चेहरे पर
तसल्ली की एक शिशुवत मुस्कान आ जाती

एक सुबह उन्होंने अचानक कहा :
सबको बुला लो
चलो हमें श्मशान चलना है
सबको ख़बर कर दो

उन्होंने यह बात एक ज़िद के साथ कही
हम डर के मारे उन्हें समझाने लगे
हालांकि यह एक मुश्किल काम था

तब हमने कहा
अच्छा चलते हैं
पहले आप सो जाइए

हमने उन्हें कम्बल ओढ़ा दिया
और वे आज्ञाकारी पिता की तरह सो गए

फिर उनका कुछ भी कहना बन्द हो गया
आँखों से भी
जिन्हें वे कभी कभी ही खोल पाते थे

एक दिन सुबह हमने सबको ख़बर कर दी
एक दिन सुबह हम उन्हें ले गए
आज्ञाकारी पुत्रों की तरह

शायद वे मुसकुराए हों
तसल्ली की वह शिशु मुस्कान
जो नहाने के बाद
ऊनी टोपी पहन कर उनके चेहरे पर आती थी.

 

5.
दराज

उसी ऊपर नीचे के रास्ते और रंगबिरंगी
रोशनी के तमाशे में
ऊबता रहता है फव्वारों का पानी

दिन दोपहर अजायबघर के जानवर
तमाशबीनों को अलसाए आदमियों की
जमुहाई नज़र से देखते हैं
अपनी खोह में जाने से पहले

छाते सर्दियों में कई बार शीतनिद्रा में नहीं जाते
अनिद्रा के शिकार होकर
मौसम भर
बारिशों की आवाज़ सुनते रहते हैं

बुहारी हुई धूल से माफ़ी माँगती हुई झाड़ू
एक दिन खुद बिखर कर
कचरा कचरा हो जाती है

फूल मुरझाए चेहरों को देखकर
कुछ न कर पाने के अफ़सोस से भर जाते हैं

फूलदान कुछ देर अकेले रहना चाहते हैं
मगर अधमरे फूल
उनके सिवा किससे कहेंगे अपने दुख
इसलिए वे चुपचाप इंतज़ार करते हैं

शाम एक दराज की तरह
तमाम फेंकी हुई उदासियों को समेटे
रात में बन्द होती रहती है.

 

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं. 

 

आशुतोष दुबे
1963

कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे
कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी.
अ.भा. माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, केदार सम्मान, रज़ा पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार.
अनुवाद और आलोचना में भी रुचि.
अंग्रेजी का अध्यापन.

सम्पर्क: 6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर – 452001 ( म.प्र.)
ई मेल: ashudubey63@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँआशुतोष दुबे
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Comments 13

  1. Ritu Dimri Nautiyal says:
    8 months ago

    सरल भाषा में संप्रेषित करी गयीं, गूढ़ अर्थ लिए हुए, संवाद है, जिसमें अपने हिस्से की बात, आशुतोष दूबे जी बोल चुके, अब वो बातें हमारे भीतर संवाद कर रही हैं | फिजूल, अब वह कहीं जाती ही नहीं, आज्ञाकारी, दराज…..| खामोशी को खोदकर आप बाहर निकालते हो, ताकि वहाँ जीवन की, चेतना की संभावना बने | संवाद जारी है आशुतोष जी | बहुत बहुत शुभकामनायें आपको 💐💐

    ऋतु डिमरी नौटियाल

    Reply
  2. दिव्या मिश्रा says:
    8 months ago

    यह पोस्टर भी किसी कविता से कम नहीं हैI इसमें सादगी है और गहराई हैI

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    8 months ago

    मैथ्यू आर्नल्ड की उक्ति है कि कविता जीवन की आलोचना है। वह जीवन जो मौजूदा समय में जिया जा रहा है।जिसमें आज का यथार्थ अपने जटिल और संश्लिष्ट रूप में हमारे सामने है।आशुतोष दुबे के सद्यःप्रकाशित संग्रह से ली गई पहली ही कविता में जीवन के सौंदर्य को नष्ट करती चीजों से हमारा साक्षात्कार होता है।उन्हें इस संग्रह के लिए हार्दिक बधाई !

    Reply
  4. त्रिनेत्र जोशी says:
    8 months ago

    सहज भाषा में सच्ची कविता की जो बानगी आपने प्रस्तुत की है, अधिकांश समकालीन कविताओं में वह नदारद रहती है। मैं तो पढ़ते – पढ़ते इनमें ही कहीं खो गया। काश कि मैं भी ऐसा ही कुछ कह पाता!

    Reply
    • M P Haridev says:
      8 months ago

      त्रिनेत्र जी जोशी, जिस समय सोवियत यूनियन का विघटन हुआ था तब आपका लेख जनसत्ता अख़बार में प्रकाशित हुआ था । मैंने पढ़ा और तब से आपका प्रशंसक हो गया । फ़ेसबुक पर आपका नाम तलाशने की असफल कोशिश की थी । फ़ेसबुक पर आप निष्क्रिय हैं । मुझे आपके में पैनापन दिखा । आपसे किस प्लेटफ़ॉर्म पर मुलाक़ात हो सकती है ।

      Reply
  5. अम्बर पांडेय says:
    8 months ago

    एक से बढ़कर एक कविताएँ है। Ashutosh ji अपनी पीढ़ी से एक ऐसे कवि है जो कविता दर कविता और और प्रासंगिक होते जा रहे है।
    उनकी कविता में प्रतिकार, राजनीति और बदलता हुआ समय बिना किसी होहल्ले और on-the-face विचारधारा के अत्यंत सूक्ष्मता से अंकित होता है।

    बाहरी तौर पर एक परिवार में घटित होती यह कविताएँ केवल परिवार तक सीमित नहीं बल्कि युग के बदलते तापमान का record इसमें हमें मिलता है।

    यह कविताएँ हमें बतलाती है कि नारेबाज़ी, तानाशाह तानाशाह की रट या उखाड़ दो पछाड़ दो से कहीं दूर कहीं गहरी लगभग subterranean कविता की नदी बहती है।

    Reply
  6. राजेश सक्सेना says:
    8 months ago

    जीवन चक्र के रोजमर्रा और पिता जैसे रिश्तों की कविताएं आशुतोष भाई की बहुत मार्मिक तो हैं ही वहीं इनकी तलीय सतह में मध्यवार्गीय जीवन की पारिवारिक सांगठनिकता के गहन बुनावट वाले धागे दिखाई देते हैं और संवेदना की हिलोरे भी अपनी हलचल से पाठक को भावुक करती हैं! फिजूल चीजों से भर चुके घर से लेकर फिजूल खर्च हो रहे जीवन तक की यात्रा कराती फिजूल शीर्षक की कविता लग़भग हर किसी के घर की ही कहानी है, तो आज्ञाकारी पिता बहुत मर्मस्पर्श करने वाली कविता है ! सुख के आने से डरने की बात कहती कविता में सुख की क्षणिकता का बोध कराती है! बढ़िया कविताएं आशुतोष भाई को बधाई और समालोचन का शुक्रिया बढ़िया कविताएं पढ़वाने के लिये !🙏🙏

    Reply
  7. Hari mridul says:
    8 months ago

    सघन और संवेदनशील कविताएं। अपनी मितव्ययिता में शब्दों की छटा देखते ही बनती है। बधाई आशुतोष भाई।

    Reply
  8. विनय कुमार says:
    8 months ago

    जितनी बारीक संवेदना उतनी ही बारीक कहन। कुछ कविताएँ सिर्फ़ महसूस करने के लिए होती हैं। यह जीवन जो सिर्फ़ वसंत नहीं उसे यूँ देखना आशुतोष जी की ख़ासियत है। उन्हें हार्दिक बधाई!

    Reply
  9. M P Haridev says:
    8 months ago

    आशुतोष दुबे की कविताएँ हमें ख़ुद को टटोलने के लिये उकसाती हैं । ख़ुद को टटोलने का अर्थ ख़ुद के सत्य को जानना है । अपने अस्तित्व को पहचाना है । यह आध्यात्मिक यात्रा है । यह सेन्टर लिबरल की चाहत है । सभी कविताओं को पढ़ लिया है । 1-2 कविताओं पर अभी और बाक़ियों पर सुबह टिप्पणी लिखूँगा । मैं उम्रदराज़ लोगों में से एक हूँ । टैग किये गये दोस्तों में से शायद कम आयु का होऊँ ।
    हर शरीर की आयु अलग अलग है ।
    4 आज्ञाकारी
    यह कविता मेरे दिल के क़रीब है । मैं अपने बच्चों की आज्ञा का पालन करने लगा हूँ । मुझे इससे तसल्ली मिलने लगी है । युवावस्था में हर पिता अपने बच्चों के प्रति कठोर दिखना चाहता है । लेकिन उसके हृदय में बच्चों के लिये प्रेम की लौ जलती है । अब पिता बूढ़े हो गये हैं । बुढ़ापे में शरीर की मांसपेशियाँ कठोर हो जाती हैं । भय लगता है कि गिर जाने से शरीर की हड्डी न टूट जाये । वृद्ध पिता अपनी छोटी छोटी मुश्किलों से गुज़रता है । अब उसे अपने पुत्रों पर भरोसा है कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ बुढ़ापे में उसके हाथ का सहारा बनेंगी ।

    Reply
  10. उत्पल says:
    8 months ago

    आशुतोष सिर्फ़ सम्वेदना की महीन बुनावट में सत्य को अभिव्यक्त नहीं करते, वे अपने अनूठे काव्य-आलोक में पाठक को जीवन की गहन परतों तक पहुँच पाने की हैसियत भी अर्जित करना भी सिखाते हैं। एक अच्छी कविता को रुककर, ठहरकर समझने का धीरज भी हम उनकी कविताओं से सीख पाते हैं। प्रिय कवि आशुतोष को इस नए संग्रह के लिए ख़ूब-ख़ूब बधाई।

    Reply
  11. प्रेमशंकर शुक्ल says:
    8 months ago

    बहुत महत्वपूर्ण कविताएं है, संग्रह निश्चय ही बेहतरीन होगा। आशुतोष जी हमारे समय की जरूरी आवाज हैं, उनकी कविताएं आज, अतीत और आगम को गहरे काव्य विवेक और सूक्ष्मता बोध के साथ उद्घाटित करती हैं। बाह्य के साथ उनकी कविताओं का अन्तर्जगत भी बहुत गझिन है। इस नए संग्रह के आगमन पर हम उन्हें हार्दिक बधाई देते हैं। समालोचन की कीर्ति यात्रा अनवरत रहे, यह कामना भी दोहराने का मन करता है

    Reply
  12. Sumit Tripathi says:
    8 months ago

    इतनी अच्छी कविताएँ एक अरसे के बाद पढ़ने को मिलीं। मन उल्लास से भर गया।

    Reply

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