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Home » बलराम कांवट की कविताएँ

बलराम कांवट की कविताएँ

कविता में सौन्दर्य कहाँ से झरता है और अर्थ कहाँ से फूटता है, यह कहा नहीं जा सकता. कभी वह कुछ पंक्तियों में ही उभर आती है, तो कभी उसका होना किसी वन के होने जैसा होता है, जहाँ तरह-तरह की ध्वनियाँ, रंग और रहस्य मिलकर उसे और गाढ़ा करते चलते हैं. बलराम कांवट की इन प्रस्तुत कविताओं में कथा-सूत्र भी हैं, अंचल का धूसर जीवन, समय की टकराहट से उठती चिंगारियाँ और उसकी गर्द भी. उनकी आठ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
August 2, 2025
in कविता
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बलराम कांवट की कविताएँ
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बलराम कांवट की कविताएँ

1.
इस घोर सूखे में

कहते हैं कभी किसी को प्यासा नहीं सोना चाहिए

चाहे कितनी ही गहरी
लगी हो आँख
कितना ही आलस भरा हो
तुम्हारी देह में
कितनी ही दूर रखी हो
खाट से मटकी

अगर प्यास बहुत कड़ी है
तो जरूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें जल के पास

बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते झगडते
हम भाई बहन छत पर सोते थे

सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए माँ कहती थी

जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं
और मन मरोड़े
अलसाये पड़े रहते हैं
तो अंदर ही अंदर इतने छटपटाने लगते हैं प्राण
कि वे देह से उतरकर
बाहर दुनिया में निकल जाते हैं
जल की खोज में

वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी
कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण जल ढूँढते हुए चले गए
पड़ौस के आँगन में
एक खुले
घड़े के अंदर

तभी उस घर में
कोई उठा
और दो घूँट पानी पीकर
घड़े को ढक आया

इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए उस बुढ़िया के प्राण

सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थी
सबने मृत समझकर
रोते सुबकते
उसकी काठी बांधी

वे शमशान में
उसे अग्नि देने ही वाले थे
कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन
और इधर
लकड़ियों को हटाती
भड़भड़ाकर
बाहर आई बुढ़िया

इस तरह जलते जलते वापस लौटे उसकी देह तक प्राण

इस घोर सूखे में
प्यास से अधमरा
बैठा हूँ
किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए

और सोचता हूँ

अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को
तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे वे प्यास बुझाने

और जब तक लौटेंगे

अग्नि देकर
घर लौट चुके होंगे ग्रामीण
देह जलकर
राख हो चुकी होगी!

 

फोटो – मदन मीणा

2.
नई आँधियाँ

जब भी उठती हैं धरती पर आँधियाँ
दीवार की ओट में
जीवन बैठ जाता है

आकाश में उड़ते पखेरू उतर आते हैं नीचे वृक्षों पर
जंगलों और पहाड़ियों में डोलते जीव
अपनी खोहों में सिमट आते हैं
पेड़ पौधे हाथ पकड़कर देते हैं एक दूसरे को सबसे मुश्किल घड़ी का आसरा
मनुष्य भागकर भेड़ता है
खिड़की दरवाजे

ये आँधियाँ
घरों की ओर लौटती पगडंडियों से
हमारे होने के निशान बुहार जाती हैं

ऐसे घोर अंधड़ों में
किसी की कोई थाह नहीं लगती
सब असहाय से दुबके रहते हैं अपनी शरणगाहों में
और तूफ़ान के थमने की
केवल प्रतीक्षा करते हैं

इस प्रतीक्षा में होता है
गहरा धैर्य
और यह विश्वास कि यह संकट नहीं आ बरपा है पृथ्वी पर सदा के लिए
इसमें अवश्य ही होगी कुछ हानि
कुछ अभागे पक्षी ज़ख़्मी होंगे
कोई पशु बिछड़ जाएगा अपने साथी से
कुछ पेड़ उखड़ जाएँगे
कुछ हार मानकर लेट जाएँगे

लेकिन वे घुटनों पर हाथ रखके वापस खड़े होंगे
यह विश्वास बना रहता है
खोया हुआ साथी पुनः मिलेगा अपने साथी से
यह विश्वास बना रहता है

इस कठिन समय में
जंगल में दूर किसी टहनी पर झूलती बया
अब तक इसी भरोसे पर सहती आई है इस विपदा को
कि थोड़ी देर बाद
अपने आप थमेगी उसकी काया
खेत में देह चिपकाए बैठी टिटिहरी अच्छी तरह जानती है
थोड़ी देर बाद
अपने आप दिखेगा आकाश में चाँद

बबूलों के नीचे खड़े रोजड़े
आश्वस्त हैं कि फिर से विचरेंगे वे इन घाटियों और मैदानों में

पगडंडियाँ जानती हैं
फिर से बनेंगे किसी पनिहारिन के पाँव के निशान उन पर

जैसे हर दुःख का निकल ही आता है कोई ना कोई निवारण
इसका निदान भी मिल ही जाता है
और अंततः एक रोते हुए बच्चे की तरह
सुबकते सुबकते
सबकुछ शांत हो ही जाता है

सबकी साझा स्मृतियाँ अब तक यही कहती आई हैं
और यही होता आया है

लेकिन अब उन स्मृतियों की मृत्यु का समय है
अब यह नई आबोहवा का समय है
अब मुश्किल है जीवित रहना उन्हीं पुरानी आस और उम्मीदों पर
अब नई आँधियों से
आँख मिलाने का समय है

मैं अपनी देखी हुई
सबसे तेज आंधी में अटका हूँ पचवारे के किसी रास्ते में
और एक तिबारे में
उंकड़ू बैठे
आँखें मींचे सोच रहा हूँ

अब इन आँधियों की चाल पहले से कितनी तेज है
इनकी आवाज़ें
कितनी भयावह
ये आँधियाँ आती हैं पहले से बहुत ज़्यादा समय के लिए
और आसानी से लौटने का
नाम नहीं लेती

मैं उस पुराने भरोसे के बारे में सोचता हूँ
जिसके सहारे
हम कैसी कैसी आँधियाँ सह लेते थे
लेकिन क्या होगा
जब नहीं रहेगा यह विश्वास
और लगेगा कि हमारे जीते जी नहीं थमेगी यह तेज बयार
साँझ हुए भी
हम नहीं पहुँचेंगे
अपने द्वार
हमारे आकाश में उठने तक
नहीं बैठेगा
यह धूल का गुबार !

 

साभार pinterest

3.
गिद्ध

गाँव से आधा कोस दूर
खेतों में
जहाँ हल चलाते थे पिता

स्कूल से लौटकर
मैं सूनी दोपहरियों में उनकी रोटी लेकर जाता था

वहाँ सुनसान रास्ते में एक नाला पड़ता था
नाले के पास
बड़ का पेड़
मृत मवेशियों को
उधर ही घसीटकर आते थे ग्रामीण
उधर ही
कंकालों के चहुँओर
कूदते मंडराते दिखाई देते थे मुझे
गिद्धों के झुंड

मुझे गिद्धों से इतना डर लगता था
कंकालों से
इतना डर लगता था

कि उन्हें देखकर
मैं दूर ही ठिठका खड़ा रहता था आषाढ़ की कड़ी धूप में
और सारी दिशाओं से
किसी साथ आने जाने वाले की
घंटों घंटों
प्रतीक्षा करता था

जब दूर कहीं बैलों को हांकता आता
कोई किसान
अपनी मवेशियों के साथ आता कोई ग्वाला
कोई घास काटने आई स्त्री
पगडंडियों पर दिखाई देती
तो उनकी छांव पकड़कर पार करता था मैं यह रास्ता
और हर बार
तीसरे पहर तक पहुँचती थी
एक भूखे
किसान की रोटियाँ

यह बचपन की बात थी
बचपन अब कहीं नहीं है

जिस पगडंडी पर चलने से
मैं ख़ौफ़ खाता था
अब पक्की सड़क निकली है वहाँ धरती को चीरती
जिस खेत में
पिता हल चलाते थे
वहाँ कितने ही जीवों का घर उजाड़कर
हमने नया घर बनवाया है

वह बड़ का पेड़
जो कभी गिद्धों का घर था
अब भी किसी वृद्ध सा खड़ा है वहीं धूप में अकेला
लेकिन उसकी गोद में
अब कोई गिद्ध नहीं है

अब नहीं है कहीं कोई गिद्ध
यह सोचते हुए
मैं जब जब गुजरता हूँ
इस नए रास्ते से

मुझे पहले से बहुत ज़्यादा डर लगता है!

 

 

4.
मनहार का फूल

कई बरस पहले
नदी किनारे चलते हुए मैंने तुम्हें एक फूल दिया था
पाँच रंगों वाला
नायाब
चमकीला
बनास की घाटियों में खिला
मनहार का फूल

मैंने कहा भी था
संभालना
यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है

आज वह पूरी तरह खत्म हो चुका है मेरी गौरा
उसे ढूँढो !

ढूँढो उसको
कहाँ जाएगा
यहीं कहीं रखा होगा घर में किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने
मत पूछो किस काम आयेगा बस ढूँढो

जैसे काली घटाओं
मेघों फुहारों और पवन पुरवाइयों में फिर से जी उठते हैं
आकाश के नीचे सतरंगी सर्प

यह भी कभी
अनुकूल जल और वायु पाकर खोल सकता है अपनी आँख
सात ना सही
आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं

तो रखेंगे इसे सहेजकर हम
जैसे किसान रखते हैं बरसों बरस घड़ों में बीज
और करेंगे प्रतीक्षा
इसके लिए सही हवाओं सही पानी सही नक्षत्रों की

अगर लौटकर आए कभी धरती के दिन तो शायद इसमें भी लौटें नए प्राण

फूल से बनेंगे फूल
एक बार फिर जी उठेंगी बनास की घाटियाँ

एक बार फिर
कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही
नायाब चमकीला पचरंगा
मनहार का फूल!

मेरी गौरा उसे ढूँढो!

 

 

5.
सकल बन

सर्दियों की उजली धूप में इतनी दूर तक चमकते हैं सरसों के मैदान
कि मेढ़ों में बँटे खेतों की लकीरें
फूलों से ढक जाती हैं

कहीं कोई बाड़ नहीं दिखती
कोई अन्य फूल पौधा या घास नहीं

सिर्फ़ एक पीला समुद्र है आँखों की कोर कोर तक फैला हुआ

ये फूल सबको भाते हैं
कवि रीझते हैं इन पर
ग्रामीण महिलाएँ अपने गीतों में इन्हें बार बार गाती हैं
बसंत के रागों में
बार बार आता है इनका जिक्र
मुझे भी ये
बुरे नहीं लगते

लेकिन एक शाम
कुएँ की ढाय पर बैठे बैठे
मैंने एक गीत सुना गाँव की किसी गोरी के मुख से
उसके सिर पर पीली लूगड़ी थी
लूगड़ी पर भरोटा
और सरसों के बीच डूबती उभरती
वह गाती हुई जा रही थी

वह अपने गीत में धरती से पूछ रही थी
कि “तेरे माथे पर केवल सरसों के फूल क्यों हैं
क्या ये सदा से इसी तरह फैले हुए थे मनुष्य के अहंकार की तरह
या पहले कुछ और भी था
अगर था तो क्या
और फिर क्या हुआ ऐसा- कि अब जहाँ देखो केवल सरसों का फूल है
अब फूलों के नाम पर
केवल सरसों का फूल हैं”

उसने कई ऐसे पौधों
और ऐसे फूलों के नाम लिए जो अब धरती पर कहीं नहीं थे
उसने कई ऐसे सुखों के नाम लिए जो अब मनुष्य के पास कहीं नहीं हैं
धरती ने उसके गीत का कोई जवाब नहीं दिया
और वह ऐसे ही लौट गई
अनुत्तरित
घरों की ओर लौटती पगडंडी पर
गीत गाती हुई

मैं सोचने लगा कि करीब आठ सौ बरस पहले
जब एक सेना के साथ चलता चलता कवि ख़ुसरो आया था मेरे गाँव के पास
तो क्या उसने यहीं देखी होगी ‘सकल बन सरसों’
क्या उसने
वन को ही कहा था- बन
या खेतों को ही बन कहकर
वह आगे बढ़ गया था

मैंने अपने पुरखों से पूछा
तो वे भी कुछ सदियों पहले तक नहीं जानते थे इस फसल का नाम
उनके पुरखों ने भी
इसे कभी नहीं उगाया
फिर पता नहीं
किसने कब दिया केवल एक ही पौधे को जीवित रहने का अधिकार

हालांकि अब भी इनमें मधुमक्खियाँ डोलती हैं
वे अब भी यहाँ रस बनाती हैं
लेकिन आकाश की ओर देखती हुई वे सोचती ज़रूर होंगी
पहले का वह रस अब कहाँ गया
पहले के वे रंग
अब कहाँ गए

मैंने पहली बार संदेह किया
इन खिलती हुई सरसों की घाटियों और मैदानों पर
मैंने पहली बार
इन फूलों के वर्चस्व को देखा किसी दूसरी आँख से
मैंने पहली बार समझा
कि यह सरसों का महाविस्तार दूसरे हज़ारों लाखों पौधों और फूलों का मरघट है

मैं पहली बार सरसों के बीच उदास बैठा हूँ !

 

 

6.
चंबल की आवाज़

चंबल की घाटियों और खेतों में
अकेले भटकते हुए
बुझी आँखों से देखते हुए
साँझ का सूरज
जब भी धरती के दुःखों के बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
कितना जटिल है जीवन
होना कितना असहनीय
जैसे किसी चीज का कोई अर्थ नहीं
जैसे सबकुछ
समझ से कोसों दूर है

ऐसे में कभी कभी
मन करता है
कि बस! जहाँ जिस खेत में खड़ा हूँ वहीं उतार दूँ अपनी चप्पलें
और चला जाऊँ उस पगडंडी की ओर
जहाँ आगे पीछे
एक ना एक दिन
सबको जाना है

लेकिन जैसे ही देखता हूँ
इस अनाम दिशा की ओर
सारी दिशाओं से कई आवाज़ें आती हैं बच्चों की तरह दौड़ती हुईं
और उँगली पकड़कर
मुझे थाम लेती हैं

टीलों और खाइयों में खिले
डांग के फूल मुझे मुड़कर देखते हैं
नदी किनारे सरसराते कांस की आवाज़ें
मुझसे कहती हैं
इतना भी मुश्किल नहीं है यह समझना
कि जहाँ जहाँ पहुँचेगा जल
घास और फूल
खिलते रहेंगे पृथ्वी पर

मुझे उस मल्लाह की आवाज़ रोकती है
जो कहता है
नदी पार करना
इतना भी कठिन नहीं

इन बीहड़ों में
दूर से दिखता मुझे मेरा गाँव रोकता है
गाँव में थान पर बैठा देवता रोकता है
थान पर नाचते मोर
और खेलती गिलहरियाँ
रोकती हैं मुझे

मुझे चिरौल की टहनी पर बैठी
फाख्ता रोकती है
जब उसकी आवाज़ घुलती है पास ही भैंस चराती किसी गूजरी के गीत से
तो उसका गीत मुझे रोकता है
जो कहता है
बहुत सुंदर है पृथ्वी पर फाख्ता की आवाज़
इतना सुख बहुत है
यहाँ ठहरने के लिए
होने के लिए
इतना मतलब बहुत है

मुझे वापस अपनी गोद में बुलाती है
यह कलकल बहती
नदी चंबल
यह कहते हुए कि कहाँ जाएगा मुझे अकेला छोड़कर
मैं तो तब से इस दुनिया से अपशब्द सुन रही हूँ जब मैं एक बूँद हुआ करती थी
कितनी तलवारें
कितनी गोलियाँ
फिर भी जीवन को जल देती हुई
टिकी हुई हूँ
अब भी धरती पर

इस तरह आकाश की ओर जाती उस पगडंडी की ओर जाने से
मुझे धरती पर बहती
एक नदी रोकती है!

 

साभार pinterest

7.
अगले जन्म में

अंतिम बार
जिस वृक्ष के नीचे रोते हुए तुमने कहा था
कि अब अगले जन्म में मिलेंगे हम
मनुष्य नहीं
पक्षी बनकर आयेंगे
इसी धरती पर

वह वृक्ष मेरे देखते ही देखते सूख गया है

उसे देखकर
जब देखता हूँ धरती पर दूसरे वृक्षों
पक्षियों
नदियों, ऋतुओं, हवाओं को
तो लगता है
सबकुछ इसी जन्म में ख़त्म होता जा रहा है
मेरे देखते ही देखते

जब नदियाँ नहीं होंगी
मीठी ऋतुएँ और शीतल बहती हवाएँ नहीं होंगी
तो कैसे होंगे वृक्ष

जब वृक्ष नहीं होंगे तो कैसे होंगे पक्षी

जब धरती ही
नहीं होगी
तो कैसे मिलेंगे हम
अगले जन्म में!

 

 

8.
कहने की ताकत

आकाश में फैलते धुएँ के नाम पर
मैं उस बुढ़िया से नहीं लड़ सकता
जो काँटों और चप्पलों की लड़ाई लड़कर लाती है बीहड़ से ईंधन
और अपने लिए दो रोटियाँ सेंकती है

पशु अधिकारों के बारे में
कैसे कहूँ मैं उस गड़रिये से कि आज़ाद करो अपने रेवड़
और बंद करो
जंगल जंगल चलना विचरना
जिसका इस संसार में कोई नहीं
केवल इन भेड़ों और बकरियों के

मैं उस मछुआरे को नहीं पढ़ा सकता जीव हत्या का पाठ
जिसके पास केवल यह नौका है- और केवल जल

मैं खेत पर जाते किसान का बैल नहीं छीन सकता!

मैं जंगल बचाने के लिए नहीं रोक सकता किसी लकड़हारे की साइकिल
मैं जैव विविधता की चिंता में
फूल बेचने जाती स्त्रियों का बाज़ार बंद नहीं करवा सकता

मैं उस मदारी का खेल कैसे रोकूँ
जो ख़ुद ही दुनिया के खेल से बाहर बैठा है

मैं किसी भील से नहीं कहूँगा कि जंगल जलाकर मत उगाओ अन्न
बहुत बढ़िया है वीगनवाद
लेकिन इसके लिए-
मैं एक दलित बच्ची के हाथ से नहीं छीनूँगा दूध की बोतल
जिसे इतिहास में पहली बार मिला है- ऐसा दुर्लभ क्षण

यहाँ बहुत ज़्यादा लोग हैं
जो प्रकृति की इन्ही नन्हीं कुतरनों के सहारे टिके हुए हैं अब भी पृथ्वी पर
लेकिन इन बेर कुतरते पक्षियों को
मैं उनकी शाख से नहीं उड़ा सकता

जिनसे बहुत कुछ कहना चाहिए
वे संख्या में बहुत कम हैं
वे सिर्फ़ लोग नहीं- देश हैं संस्थाएँ हैं व्यवस्थाएँ हैं
उन्हीं के पास है
संसार के सारे खेल की रस्सी

वहाँ तक पहुँचने और कहने की ताक़त
शायद मेरे पास न हो
लेकिन जो भी कहूँगा जैसे भी कहूँगा
यह तय है
उनसे कहूँगा.

 

गांव टोकसी, गंगापुर सिटी, राजस्थान में जन्म. जयपुर, दिल्ली और पुणे से पढ़ाई की. दिल्ली विश्वविद्यालय से विशाल भारद्वाज की फ़िल्मों पर पीएच.डी. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के तहत एक उपन्यास ‘मोरीला’ अनुशंसित एवं प्रकाशित. मुख्यतः पारिस्थितिकी विमर्श से संबंधित लेखन.
संपर्क 7976412030
Tags: 20252025 कविताएँबलराम कांवट
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Comments 6

  1. अजित says:
    2 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं। मुझे लगा कि कुछ कविताओं को थोड़ा सम्पादित और छोटा किया जाता तो और बेहतर होता।

    Reply
  2. हीरालाल नागर says:
    2 months ago

    आज के दिन की शुरुआत सुबह-सुबह युवा कवि बलराम कांवट की कविताएं पढ़ते हुए हुई। बलराम से मेरी भेंट थी भारतीय ज्ञानपीठ के मार्फत जब वे अपना नया उपन्यास पुरस्कार के लिए सबमिट करने आए।
    उपन्यास के कुछ पन्ने पढ़कर उन्हें सलाह दी थी कि इसे जरूर सबमिट करें। बाद में इसे पुरस्कार भी मिला। बहरहाल, आज बलराम कांवट की कविताएं पढ़कर यह विचार पुख़्ता हुआ कि प्रतिभा अपनी जगह जरूर बना लेती हैं। कविताओं को बार-बार पढ़ने से उसके अर्थ खुलते हैं। बलराम की कविताएं अच्छी लगी मुझे। उनके सुखद भविष्य की
    कामना करता हूं। अरुण देव जी नयी प्रतिभाओं को खूब मौका देते हैं और उन्हें तराशते हैं। उन्हें बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
    हीरालाल नागर

    Reply
  3. Amar Dalpura says:
    2 months ago

    इन कविताओं में संवेदना का विस्तार है । मनुष्य केंद्रित धरती पर सहजीवी प्राणियों, फूलों और अन्य चीज़ों को देखना साथ ही उस व्यवस्था और संकटों को इंगित करना जो इन्हें ख़त्म कर रहे हैं । बलराम की कविताएँ इस नज़र से अलग है ।बहुत बधाई

    Reply
  4. डॉ. शहाबुद्दीन says:
    2 months ago

    बलराम कांवट की कविताएं पढ़ी… बहुत गहराई और सूक्ष्म दृष्टि है उनमें! अद्भुत! अपने समय से मुठभेड़ भी करती हैं और जनसरोकार को भी संवेदनशील ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। कवि का दर्द लोगों की संवेदना से जुड़कर मार्मिक और हृदयस्पर्शी बन गया है। लोक जीवन और सत्ता विमर्श का परस्पर संबंध कविता को समकालीन समय के सवालों से जोड़ देते हैं। अभिव्यंजना कौशल की बारीकियों और नवीन बिम्ब-प्रयोग कविता को दिलचस्प बना दिये हैं। कविता में लोककथा का संस्पर्श कविता को आख्यान की ओर परिणत करना है।

    Reply
  5. राकेश प्रजापति says:
    1 month ago

    कविता_कहने की ताकत
    पसंद आया

    Reply
  6. Ram Bishnoi says:
    1 week ago

    “बलराम की कविताएँ संवेदना की उस नदी-सी लगती हैं, जिसमें मनुष्य ही नहीं, पेड़-पौधे, पक्षी और सहजीवी प्राणी भी बहते हैं। इन पंक्तियों में धरती की पीड़ा है, ऋतुओं का संगीत है और उन संकटों की गूंज भी है जो हमें भीतर तक झकझोरते हैं। यह संग्रह केवल कविताओं का नहीं, बल्कि जीवन और प्रकृति के साथ एक आत्मीय संवाद का अनुभव है। हार्दिक बधाई।” 🌿✨

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