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Home » उत्तराखण्ड में नवलेखन: बटरोही

उत्तराखण्ड में नवलेखन: बटरोही

वरिष्ठ कथाकार बटरोही उत्तराखण्ड की साहित्यिक-सांस्कृतिक संपदा को अपनी लेखनी का विषय बनाते रहें हैं. उनके लेखन में साहित्य, इतिहास, स्मृति, लोक और व्यक्तिगत संस्मरण घुलमिल कर आते हैं. इस आलेख को भी उन्होंने इसी शैली में लिखा है. उत्तराखण्ड के नवलेखन की विवेचना के बीच आये इतर प्रसंग दिलचस्प हैं.

by arun dev
July 2, 2022
in आलेख
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उत्तराखण्ड में नवलेखन:  बटरोही
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उत्तराखण्ड में नवलेखन

बटरोही

“चार धाम और देवभूमि– जैसी बातें यहाँ ब्राह्मणवाद के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाती हैं. यहाँ नाथ, सिद्ध, बौद्ध, जाड़, सभी मत काफी हद तक ब्राह्मणीकृत हो चुके हैं और शैव मत पूरी तरह वैष्णवीकृत. उसमें मूल शैव तत्व नाम मात्र को बचे हैं. उत्तराखण्ड में ब्राह्मणवाद का विचारधारात्मक प्रभाव बेहद ताकतवर है. हिमाचल की तरह यहाँ की सांस्कृतिक फ़ज़ा में सिख, बौद्ध, जनजातीय, आर्य, पूर्व खस और ईसाई प्रभाव कोई असर डालने की स्थिति में नहीं हैं. हालाँकि हिमाचल भी अब राजनीतिक रास्ते से सामाजिक तौर पर उत्तराखण्ड बनने की ओर अग्रसर है. इन दोनों ही राज्यों में दलितों की संस्कृतिविहीनता उन्हें निरीह हथियार रहित समझौता परस्त बनाती है.”

(जातिवाद के ऊँचे शिखर: मोहन मुक्त: ‘समयांतर’, जनवरी, 2022)

 

यह आलेख युवा कवयित्री कल्पना पन्त के हाल ही में प्रकाशित कविता-संग्रह ‘मिट्टी का दुःख’ को लेकर लिखा जाना था, मगर किताब के हाथ में आते ही मुझे लगा, इस किताब के जरिये वह बात कही जानी संभव नहीं है, जिसे मैं चाहता था. इसी बीच एक साथ उत्तराखण्ड के अनेक युवा रचनाकारों की उद्वेलित करने वाली रचनाएँ हाथ लगीं, जिन्हें पढ़ते हुए लगा कि उस बात को उत्तराखण्ड से उभर रहे नवलेखन के जरिए कहा जाए तो शायद बात बन सकती है.

मगर शीर्षक लिखा जा चुका था, पूरी थीम भी दिमाग में थी, इसलिए प्रस्थान-बिंदु को बदलना ठीक नहीं होगा. फ़िलहाल, उन रचनाकारों का ज़िक्र जरूर करना चाहूँगा, जिनकी वज़ह से मुझे यह बदलाव लाना पड़ा.

जो रचनाकार इस वक़्त मेरे सामने हैं, उनमें हैं:

कवि-कथाकार अनिल कार्की (1986),
कवि-विचारक मोहन मुक्त (1984),
कवि-कथाकार-यायावर सुभाष तराण (1972),
बतकही-व्यंग्य के अंदाज़ में यात्रा-वृतांत लिखने वाले अरुण कुकसाल (1959),
अनूठे व्यंग्यकार शम्भू राणा (1973)
कवयित्री कल्पना पंत (1969),
स्वाति मेलकानी (1984) और
रेखा चमोली (1979);

और उनसे कुछ पहले उत्तराखण्ड से उभरे तीन जबरदस्त रचनाकार:

कहानीकार नवीन कुमार नैथानी (1962),
संस्मरण-लेखिका यायावर गीता गैरोला (1959) और
कवि राजेश सकलानी (1955).

और भी कई रचनाकार हैं जिन पर मैं बात करना चाहता हूँ मगर कल्पना पन्त और मोहन मुक्त की हालिया प्रकाशित रचनाएँ मुझे सुदूर अतीत में खींच ले गयीं; आधी सदी से भी अधिक के पुराने काल-खंड में, इसलिए बात की शुरुआत उन्हीं से.

कल्पना का कविता-संसार मुझे और भी पीछे, यादों की दुनिया में खींच ले गया. ‘मिट्टी का दुःख’ 2021 में प्रकाशित हुआ है, जिसकी चर्चा किये बिना मैं कुछ व्यक्तिगत हवालों से अपनी बात कहूँगा और उसके बाद ही मुख्य विषय पर आऊंगा. माफ़ी चाहूँगा अगर इस आलेख में पाठकों को साहित्य के बजाय इतिहास, स्मृति और व्यक्तिगत रिश्तों की अनुगूँज सुनाई देने लगे. शायद ये बातें हमारे नवलेखन को देखते हुए आज के दिन कही जानी ज़रूरी हैं, इसलिए बात व्यक्तिगत स्मरण से.

8 जुलाई,1969 को मैंने जीआइसी नैनीताल के हिंदी विभाग में ताराचंद्र त्रिपाठी के साथ अध्यापन की शुरुआत की. त्रिपाठीजी मुझसे छह-सात साल बड़े हैं और कई सालों से पढ़ा रहे थे. मैं अध्यापन की पृष्ठभूमि से एकदम अछूता, अभी-अभी आकार ले रही बेढ़ब-अराजक जीवन-शैली के साथ अपनी नई दुनिया का हिस्सा बना था. त्रिपाठीजी बौद्धिक संस्कारों के बीच पगे साहित्य-संस्कृति के गंभीर अध्येता थे. उनका शिक्षक-व्यक्तित्व मेरे लिए प्रश्नहीन स्वीकृति की तरह था. पहले दिन कक्षा में जाने से पहले उन्होंने मुझे ग्यारहवीं कक्षा की एक पाठ्य पुस्तक थमाई थी और मुझे शुभकामनाएँ दीं. उस वक़्त तो नहीं, आज बहुत साफ़ महसूस हो रहा है कि उस दिन उन्होंने मुझे चुपके से सूरज की एक प्यारी-सी किरण सौंपी थी, भविष्य के आलोकमय मार्गदर्शन के लिए. बाद की जिंदगी में उस किरण के सहारे मैं देश-विदेश के असंख्य विद्यार्थियों के बीच गया और मैंने अपने तरीके से जिंदगी का कठिन रास्ता तय किया. नहीं जानता कि मुझे इस बीच त्रिपाठीजी कितने याद आए होंगे मगर हमारे बीच भौतिक दूरी बढ़ती गई और हम दो स्वतंत्र द्वीपों की तरह हिंदी की दुनिया में आकार लेते चले गए. बावजूद इसके, हम दोनों आज एक ही कस्बानुमा पहाड़ी शहर में रहते हैं, औपचारिक मित्रों की तरह.

आज, यानी रविवार, 10 अप्रैल, 2022 को सुबह दस बजे के करीब नए युग का डाकिया अमेज़न, मेरे हाथ में त्रिपाठीजी से जुड़ी एक और किरण थमा गया है, उनकी छोटी बेटी का पहला कविता-संग्रह: ‘मिट्टी का दुःख’. कविता-संग्रह मैंने अभी पढ़ा नहीं है, यह घटना मेरे लिए इसलिए ख़ास है क्योंकि इस दिन ने भारत के इतिहास में एक नई तारीख रची है. जिंदगी में पहली बार मेरे पास इतवार के दिन डाक आई. क्या यह घटना आज के दिन टालने लायक है कि जहाँ देश का हर सरकारी कर्मचारी मामूली अवसरों को भी राजपत्रित अवकाशों में तबदील करने की जुगत में रहता है. रविवार तो पूरी दुनिया में अवकाश का दिन होता है, ऐसे में रविवार को एकाएक प्रकट  हुई इस नई किरण को मैं कैसे अनदेखा कर सकता था?

मैं पशोपेश में पड़ गया था. उलझन का कारण यह था कि क्या सचमुच हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं? क्या इतिहास बदल चुका है और उसने अपने दौर के लिए नए प्रतीक गढ़ लिए हैं! हमारी एकदम ताज़ा पीढ़ी के साथ जुड़ी यह घटना क्या हमारे लिए नए ज़माने का कोई पैग़ाम लेकर आई है ? मानो आमने-सामने खड़े दो समाज, जो एक-दूसरे के पूरक बनना चाहते हैं, लेकिन दोनों के बीच अपने-अपने ईगो आड़े आ गए थे. पुराना समृद्ध समाज हमें थामे हुए है और हम उसकी जकड़न से मुक्त होकर अपनी अपने वक़्त की नई इबारत लिखना चाहते हैं. नए प्रतिमान, जो अभी भविष्य के गर्भ में हैं, पुरानों को ख़ारिज कर उनकी जगह लेना चाहते हैं… प्रतिद्वंद्वियों के-से ये तेवर जैसे  एक-दूसरे के सामने चिढ़ाने की मुद्रा में अंगूठा दिखाने की तर्ज पर खड़े हो गए हैं! सवाल यह है कि इन पीढ़ियों के सरोकारों को किस निगाह से  देखना चाहिए: अतीत के नौस्टाल्जिया की तरह, नए युग की चुनौतियों की तरह या एक अराजक मूल्यहीन भीड़ की अभिव्यक्ति की तरह? कहाँ है हमारा रास्ता? क्या हम किसी अंधी गली के मुहाने पर खड़े हो गए हैं?

कल्पना पन्त का जन्म 27 नवम्बर, 1969  को नैनीताल में हुआ था, उसके पिता के साथ हुई  मेरी मुलाकात के करीब चार महीने बाद. इस बीच हमारे दौर में लिखे जा रहे हिंदी लेखन तथा बौद्धिक संवादों के समानांतर कल्पना और उसकी उम्र के दूसरे शिशुओं ने जिंदगी की किशोर से लेकर युवा रचनाकर्मी तक की स्वप्निल यात्रा तय की:

वे तुम्हारे नाम में
देवी लगाके छोड़ेंगे,
भावना के फूल
भक्ति से मरोड़ेंगे
फिर कई लांछन
तुम्हारे नाम जोड़ेंगे,
बाद में फिर
मुख ही मोड़ेंगे…
देवी बनाकर
तुम्हारे सपनों को ही
निचोड़ेंगे.
(कल्पना पन्त: ‘देवी’ 1994)

मजेदार बात यह है कि दो साल बाद ही वह अपनी अगली कविता में लिखती हैं:

सुबह चार बजने को हैं
और ये रुक गई आगरा फोर्ट
आसमां में चलता हुआ
चाँद भी रुक गया है अभी
एक लड़की निर्द्वन्द्व उतरती है
रिक्शा पकड़
चल देती है ईदगाह स्टेशन
ठिठुरता चाँद संग-संग चलने लगता है
लड़की तनिक उझकती है
और हथेली पे चाँद रख लेती है.
(ईदगाह:1996)

क्या इन कविताओं में आपको आज से पच्चीस साल पहले के परिदृश्य की जगह राग-विराग की तरह हमारे नए समाज में अंकुरित हो रहे नए ज़माने के असुविधाजनक-से लगने वाले शब्दों की आहट सुनाई दे रही है?… हिज़ाब, लव-जिहाद, अज़ान, बजरंग बली, हनुमान चालीसा, बुलडोजर बाबा, बुलडोजर मामा, अयोध्या, अयोध्या, मथुरा, बाबरी मस्जिद, गुजरात, बजरंग दल, ज्ञानवापी, भगवा शिक्षा, मंदिरों में लौटती वर्ण-व्यवस्था, शिव लिंग, मस्जिदों-गुरुद्वारों-गिरिजाघरों में आयोजित की जा रही सामूहिक प्रार्थनाएं और मंत्रोच्चार की तर्ज़ पर ध्वनि-प्रदूषण फ़ैलाते शब्द-दर-शब्द… हाशिए में चली जा रही कबीर की चेतावनी और उसका स्थानापन्न बनता जा रहा तमाम धर्मों का मंत्रोच्चार!

सवाल यह है कि आज की ताज़ा पीढ़ी इन नए शब्दों के सन्दर्भ किस रूप में ग्रहण कर रही है? ‘ईदगाह’ कविता की लड़की ने सुबह के जिस ठिठुरते चाँद को उझक कर अपनी हथेली पर रख लिया है, वह कैसे उसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाएगी? उसने ईदगाह के चाँद को अपनी हथेली में क्यों थाम लिया है? हमारी नई संस्कृति में एकाएक अंकुरित हो गए ये शब्द हमारी आने वाली नस्लों के अनिवार्य कवच हैं या उन्हें भटकाव और अवसाद के भँवर में ले जाने वाले महज मरीचिका-शब्द हैं! पुरानी पीढ़ी के हम तनावग्रस्त लोगों को इन नए शब्दों को किस तरह पढ़ना चाहिए? क्या पुरानी और नई पीढ़ियाँ मिलकर नए समाज की उस आवाज़ को तलाशने में सफल हो गई हैं जिसकी वजह से नए दौर का परिप्रेक्ष्य निर्मित होने की कगार पर है.

हमारी पीढ़ी की एक-एक साँस के साथ जो प्रतीक गूंथे हुए हैं, उन्होंने अलग तरह के सहिष्णु मूल्यों का ढांचा तैयार किया था. इस ढांचे को बनाने में सदियाँ लगी थीं; पहले से चली आ रही परम्परा के स्वीकार और अस्वीकार के बीच से न जाने कितने नए रास्ते निर्मित किये गए, जिनके कुछ चुनिंदा हिस्सों को आज निर्ममता से खारिज किया जा रहा है. विगत सात-आठ सालों में शब्दों के अर्थ और आशय न सिर्फ बदले हैं, उन पर उठाये गए सवालों को एक ही सांचे में ढालने का दबाव बढ़ता चला जा रहा है. पुराने प्रतीक ध्वस्त हो रहे हैं लेकिन इस प्रत्यावर्तन पर कोई सार्थक संवाद नहीं सामने आ रहा. इस तरह उन्हें पेश किया जा रहा है मानो वही हमारी सभ्यता की प्रातःकालीन प्रार्थनाएं हों. अर्थहीन शोर के साथ शुरू होने वाली प्रार्थनाएं. हमारी आने वाली पीढ़ियों के वैकल्पिक स्वर क्या यही हैं? क्या सचमुच यही हैं हमारी नई नस्लों की अपेक्षाएँ?

एक दिन हम भी मारे जायेंगे
लेकिन हम भी हमारे दोषी होंगे
क्योंकि हर मौत के
जुलूस में हम भी शामिल हैं
उनींदी आँखें लिए….

—

ये कौन-सी बारिश है
जिसमें हम भीगते नहीं,
सामानांतर पुलों पर खड़े हैं
मगर मिलते नहीं….
(कल्पना पन्त: मिट्टी का दुःख – 2021)

सिर से पांव तक राजनीति के अंधड़ में फंसे हमारे समाज के पास आज अपने साहित्य से जुड़े सवालों के साथ संवाद का अवकाश नहीं बचा है. बेहद तकलीफ़-देह है यह अहसास कि हमारा लेखन आज न मुख्यधारा की चिंता का क्षेत्र है और न हिंदी समाज का स्थानीय स्वर बन पाया है. एक भारत वह था जिसे हमारे दो पंडितों एक कश्मीरी और एक उत्तराखंडी- के सपनों ने बनाया और संजोया था, दूसरा भारत 2013 की भीषण आपदा में तहस-नहस हो गए भारत के सबसे ऊँचे शिखर पर खड़े मंदिर केदारनाथ को ध्वस्त होने से बचाने वाली ‘दिव्य शिला’ के संरक्षक देश के प्रधान (मंत्री) पुजारी और सबसे बड़े प्रदेश के बाबा बुलडोज़र के द्वारा पुनर्स्थापित किया जा रहा है. इनमें से कौन सही है और कौन गलत, यह अभी भविष्य के गर्भ में है. मगर सवालों को धकेलकर हम आगे तो नहीं बढ़ सकते!

 

दो)

अपने लेखन-कैरियर के आरंभिक दिनों में ताराचंद्र त्रिपाठी और मैं कुछ ऐसी ही बहसों में खोये रहते थे. नैनीताल की अयारपाटा पहाड़ी पर बसे अपने कॉलेज से मध्यताल किनारे की खूबसूरत ब्रिटिशकालीन लाइब्रेरी तक का एक किलोमीटर का रास्ता घंटों की बहस में तय होता था और हम शाम के धुंधलके में, जब टिफ़िन टॉप और कैमल्स बैक का क्षितिज गुलाबी धुंध से भर जाता था, घर पहुँचते थे. ज्यादातर हमारी बातें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों और लेखकों के नजरिये पर होती थीं. हम दोनों का रुझान वामपंथ की ओर था और अपने इलाके से जुड़े एक समतावादी समाज का सपना हर वक़्त हमारी चिंता में शामिल था. डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग में प्राध्यापक चर्चित मार्क्सवादी आलोचक डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय हमारे आइकॉन और गुरू थे, जो उन दिनों तेज़ी से लिख रहे थे, कथाकार और आलोचक के रूप में उनका डंका बजता था. मुंहफट और चौबीस घंटे साहित्य को जीने वाले डॉ. उपाध्याय की ही मानस-संतान थे ताराचंद्र त्रिपाठी. उन दोनों के साथ मैं भी एक शिष्य की तरह जुड़ गया था. हम लोग हिंदी लेखन की मुख्यधारा को ब्राह्मणवादी स्वर मानते थे हालाँकि उन दिनों यह शब्द आज की तरह इतने तीखे ढंग से प्रयोग में नहीं लाया जाता था. हर शनिवार को हम लोग उपाध्याय जी के संयोजन में शहर के केन्द्रीय सभा-कक्ष में कवि-सम्मेलन, मुशायरों और वैचारिक बहसों का आयोजन करते थे. छोटा-सा शहर नैनीताल, हिंदी-उर्दू के लगभग सभी रचनाकार उसमें शामिल होते थे. अपने समय के वैचारिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर धुआंधार बहस किया करते.

मेरे एमए के अंतिम वर्ष के बीच में ही उपाध्याय जी रीडर बनकर राजस्थान विश्वविद्यालय चले गए और जाते-जाते हमें अजीब वैचारिक धर्म-संकट में झोंक गये. वे हनुमान-भक्त हो गए थे और नियमित रूप से नैनीताल-हल्द्वानी मार्ग की चोटी पर स्थित हनुमान-गढ़ में पूजा-अर्चना के लिए जाने लगे थे. त्रिपाठीजी की दोस्ती उपाध्याय जी के साथ लगातार बनी रही, लेकिन नैनीताल छोड़ने के कारण मेरा संपर्क उनसे कम होता चला गया. जयपुर जाने के बाद कुमाऊँ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मेरी नियुक्ति उन्हीं के द्वारा की गई. तब तक, उनके संपर्क के एक दशक बाद, हिंदी की दुनिया बदलने लगी थी, यही वह दौर था जब हिंदी लेखकों के वैचारिक पक्ष के प्रति मेरा मोह-भंग होने लगा था; शायद लेखकों की कथनी और करनी के द्वैत के कारण.

 

तीन)

एक युवा कवयित्री के द्वारा ईद के चाँद को उझककर अपनी हथेली पर रख लेने का क्या निहितार्थ है? क्या उसका आशय वही रहा होगा जो इन दिनों उग रहे नए शब्दों से सामने आ रहा है! कल्पना पन्त के संग्रह ‘मिट्टी की गंघ’ को पढ़ते हुए मुझे संग्रह में उसकी शीर्षक-कविता नहीं मिली. क्या यह अनायास था या ऐसा जानबूझकर किया गया था? मुख्य कविता की अनुपस्थिति और उसी के नाम से संग्रह का नामकरण! पहले ही संग्रह में ऐसी चूक! मैंने संग्रह को फिर तलाशा और जवाब मिला लेखिका के द्वारा आरंभ में लिखे आमुख को पढ़कर. बहुत सामान्य-सी घटना है, जिसकी ओर शायद ही कविता के किसी पाठक का ध्यान गया हो. यहाँ कवयित्री की किसी कविता का सन्दर्भ नहीं है, सिर्फ एक अनुभव का संकेत है. इस अनुभव ने किशोर मानस द्वारा अनेक कविताओं को जन्म दिया जो लिखे जाने के साथ ही फाड़ डाली गईं और किसी संग्रह में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर पायीं. घटना इस तरह है:

“मैंने एक कविता लिखी थी मिडवाइफ. इस कविता का सन्दर्भ एक अत्यंत दुखद प्रसंग से है. हमारी कॉलोनी में एक मिडवाइफ रहती थी. अकेली थी, या परिवार के साथ कोई था, मुझे नहीं पता था. कॉलोनी वालों के दुःख-दर्द में काम आती थी. मैं छोटेपन में काफी बीमार रहती थी. टांसिल फूल जाते थे तेज बुखार चढ़ता था और मैं बेहोश हो जाती थी. हर बार अमूमन ऐसी स्थिति में अस्पताल के बिस्तरे पर पाई जाती थी. एक बार घर में ऐसी स्थिति में मेरे हाथ-पांव एकदम ठंडे पड़ गए. डॉक्टर के पहुँचने से पूर्व पड़ौसियों द्वारा लगभग मृत मान ली गई मेरे प्राण उस मिडवाइफ ने ही ठंडे पानी के टब में डालकर बचाए थे. एक दिन हम बच्चे खेलते-खेलते उस मिडवाइफ के घर पहुँचे तो देखा बिस्तर पर पड़ी मिडवाइफ का मुंह खुला था, उस पर चीटियाँ चल रही थीं. वह कब की मर चुकी थी.”

क्या इस घटना को आज की युवा हिंदी कविता का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है? मैं यहाँ दूसरी अनेक चर्चित कविताओं का सन्दर्भ दे सकता था, कुछ नाम मैंने ऊपर गिनाए भी हैं, मगर जिस बात पर मैं बहस खड़ी करना चाहता था, उसे बेहतर ढंग से मोहन मुक्त के उस अंश से ही समझा जा सकता है, जिसे मैंने अपने आलेख के आरंभ में शामिल किया है. अड़तीस वर्षीय इस असाधारण प्रतिभाशाली युवा कवि को मैं बाकी कुछ लोगों की तरह दलित लेखक नहीं कह रहा हूँ. (अभी-अभी उसका कविता-संग्रह ‘हिमालय दलित है’ प्रकाशनाधीन है.) यह विशेषण मुझे उसकी वैचारिक प्रतिभा से मेल खाता नहीं लगता.

मेरे मित्र त्रिपाठीजी और उनके गुरु कट्टर मार्क्सवादी उपाध्यायजी का सन्दर्भ भी अनायास नहीं है. अपनी विकट मेधा के सहारे उन्होंने नाथ, तंत्र और वेदांत दर्शन के अंतर-विरोधों को लेकर अनेक उपन्यास और सैकड़ों वैचारिक लेख लिखे. अपनी इसी प्रतिभा के बल पर वह जयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और फिर अनेक विवि के कुलपति रहे. अंतिम दिनों में घोर अल्कोहौलिक और हनुमान भक्त हो गए थे. उच्च पद पर होने के कारण स्वार्थी तत्वों ने उनका खूब इस्तेमाल किया और उनका अवसान उदासी भरा रहा.

यह वह दौर था जब हिंदी साहित्य, खासकर कथा साहित्य, एकदम नई शक्ल में उभर रहा था. गावों-कस्बों से सीधे उभरे कथाकार साहित्य की नयी इमारत खड़ी करने में लगे थे और हिंदी समाज की मध्यवर्गीय चेतना में छाये हुए थे. कथ्य, परिवेश, भाषा, कथन-भंगिमा के जितने रूप उन दिनों एक साथ सामने आये, शायद फिर कभी नहीं आए. मगर देखते-देखते साहित्य अपनी जमीन की जड़ों से अलग मध्यवर्गीय विचार दर्शनों के भँवर में फंसता चला गया, जहाँ संसार की समृद्ध भाषाओं की तेजस्वी बहसें थीं, नए-नए शिल्प और विदेशी धरती थी; मगर स्थानीयता का वह गवईं साँचा गायब हो गया, जिसने उस दौर में कलाओं की हर विधा में विश्व-स्तर की रचना-धर्मिता को जन्म दिया था. यह हालत आज तक बरक़रार है; शायद आज ज्यादा ही बदसूरत हुई है. हिंदी का लेखक अजीब किस्म की अवसादग्रस्त आत्ममुग्धता के भँवर में फँस गया लगता है.

क्या इसके लिए मोहन मुक्त का दलित-आख्यान ज़िम्मेदार है? विगत अर्द्ध-शती में अनेक शब्द राजनीति की गिरफ्त में आकर अपना अर्थ इतना बदल चुके हैं, कि उनका मनमाना आशय ग्रहण किया जाने लगा है, अब तो इस मनमानेपन की इंतहा हो गई है. कौन-सा शब्द समाज की चिंता में से उभरा है और कौन-सा स्वयं-भू सामंती राजनेताओं के गणित से, पता लगा पाना मुश्किल हो गया है. इसीलिए मेरी नज़र अपने क्षेत्र के सबसे प्रतिभाशाली युवा पर टिकी है. जिस सामाजिक पृष्ठभूमि में से मोहन का उदय हुआ है, उसे देखते हुए उसकी बातों की प्रामाणिकता में सवाल खड़े करना बेवकूफी होगी. मगर जिज्ञासाएं तो अपनी जगह पर हैं और उन्हें आज के दौर में सवर्ण-दलित जैसे खानों में एक विचारशील लेखक के द्वारा उठाया जाना अजीब-सी विसंगति खड़ी कर देता है. पिछली पूरी सदी भर जाति, अस्मिता और सामाजिक असंगतियों के विमर्श पर खूब बहस हुई है; रचनाकारों के द्वारा खुद को डीक्लास करने की घोषणाएँ हुई हैं, एक दूसरे पर जम कर कीचड़ उछाली गई है, फिर भी बहसें ज्यों-की-त्यों हैं. राजनीतिक व्याख्याएँ मुखर होने लगती हैं, जो समाज की वास्तविक चिंताओं को राजनीतिक दलों के हित पोषण में ले जाकर पटक देती हैं.

जिन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ रहा था, हमारे शहर में एक युवा अधिवक्ता थे, नंद प्रसाद आर्य, जो बौद्ध बन गए थे और बाद में उन्होंने अपना सरनेम लिखना छोड़ दिया था. मुझे याद नहीं पड़ता, मनुस्मृति और वेद-वेदांत की जितनी गहन और तार्किक जानकारी उनके पास थी, वैसी शहर के किसी और बुद्धिजीवी में शायद ही थी. वह नैनीताल के बस-अड्डे के पास, जो अब गाँधी-चौक बन गया है, हर सुबह जोर-जोर से मनुस्मृति की विसंगतियों का बखान करते हुए ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद की घोर आलोचना करते थे. कुछ समय तक तो लोग उत्सुकता से सुनते और ज्ञानार्जन करते रहे, एक समय के बाद रूटीन मोनोटोनस बातचीत की तरह लोगों ने उसे दिनचर्या का हिस्सा मानकर स्वीकार कर लिया. कुछ वक़्त के बाद वो माइक लगाकर और ज्यादा उग्र ढंग से अपनी बातें सुनाने लगे. उनकी बातें हम कुछ लिखने-पढ़ने वाले लोगों को आकर्षक जरूर लगती थीं लेकिन वो वक़्त हमारे कामकाज की तैयारी का होता था, इसलिए बहुधा वह शोर, जो नैनीताल की पहाड़ियों में आर-से-पार गूँजता था, हमें डिस्टर्ब करने लगा. बावजूद इसके मैं उनके आखिरी वक़्त तक उनका प्रशंसक बना रहा और उन्हें सभा-गोष्ठियों में ध्यान से सुनता था. उनसे मेरी मुलाक़ात कम होती थी, मगर एक दिन जब किसी सार्वजनिक स्थान में हम मिले, उन्होंने सबके सामने कहा, उन्हें मेरे लेख और विचार अच्छे लगते हैं. वो मेरा हर लेख पढ़ते हैं.

एक दिन यह नगीना इतिहास के धुंधलके में खो गया. उनके विचार आज भी नैनीताल की फ़ज़ाओं में मौजूद होंगे ही, पता नहीं, राजनीतिक व्याख्याओं के इस दौर में उनके भाषण अपने मूल रूप में कितने जीवित हैं और हमारी नयी नस्लों को बौद्धिक दृष्टि से कितना उत्तेजित करते हैं.

पिछले साठ-सत्तर सालों में नैनीताल ही नहीं, हमारा समूचा सांस्कृतिक भूगोल बदला है, पीढ़ियाँ, उनके सरोकार और वरीयताएँ बदली हैं, लेकिन जो बात नहीं बदली, वह है हमारी हठधर्मिता. समाज को हम उसकी चिंताओं के बदले अपने निजी आग्रहों से आंकने के आदी होते चले गए हैं. इसी क्रम में हम अपनी जड़ों से भी कटते चले गए हैं. हिंदी क्षेत्र में तो यह ज्यादा ही हुआ है, जैसा कि मोहन मुक्त ने अपने लेख में लिखा है, “हिमाचल भी अब राजनीतिक रास्ते से उत्तराखण्ड बनने की ओर अग्रसर है.”

क्रमश:

बटरोही
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव

पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन,  ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.

इन दिनों नैनीताल में रहना.
मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com  

Tags: उत्तराखण्ड में नवलेखनकल्पना पंतबटरोही
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Comments 7

  1. राजेश सकलानी says:
    3 years ago

    भाई बटरोही जी ज़मीनी काम कर रहे हैं।
    इस तरह के काम से प्रायः साहित्यकार कतराते हैं।

    Reply
  2. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    3 years ago

    बटरोही जी का यह आलेख बहुकोणीय तो है पर हर कोण से देखने पर अधूरा सा. मोहन मुक्त के एक आग्रही किस्म के पुराने लेख से प्रारंभ कर आपने अपने व्यतीत के कुछ संस्मरण सामने रखे और कल्पना पंत के “मिट्टी का दुःख” पर कुछ बढ़िया भी कहा. प्रश्न है कि आलेख के शीर्षक का खूब भान होते हुए भी “उत्तराखंड में नवलेखन” विषय पर ज्यादा ठोस सामने क्यों नहीं आ पाया.

    Reply
  3. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    3 years ago

    बटरोही जी का यह आलेख बहुकोणीय तो है पर हर कोण से देखने पर अधूरा सा. मोहन मुक्त के एक आग्रही किस्म के पुराने लेख से प्रारंभ कर आपने अपने व्यतीत के कुछ संस्मरण सामने रखे और कल्पना पंत के ‘ मिट्टी के दुःख ‘ पर कुछ बढ़िया भी कहा. प्रश्न है कि आलेख के शीर्षक का खूब भान होते हुए भी ” उत्तराखंड में नवलेखन ” विषय पर ज्यादा ठोस सामने क्यों नहीं आ पाया !

    Reply
  4. कल्पना पंत says:
    3 years ago

    बट्रोही सर और समालोचन पत्रिका का हार्दिक आभार , मिट्टी का दुख पुस्तक को अपनी समालोचना का संस्पर्श देने

    Reply
  5. रमा बोरा says:
    3 years ago

    बहुत दिली बातें ।अपने जीवन की छोटी छोटी बातों से सारपूर्ण बातों का सिलसिला रोचकता से भरपूर रहा …लेकिन आज के इस क्रांतिकारी बदलाव के समय में आप जैसे साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर को बेबाकी से ही चीजों को पटल पर लाने की जरूरत है।एक बेचैनी सब के अंदर उभर रही है। आपके पास दृष्टि भी है कलम की ताकत भी ..नवलेखकों को आप मार्ग दिखा सकते हैं ।जब महत्वपूर्ण दाव पर हो तो साख बचाना बेमायने है।🙏

    Reply
  6. Tanu Bali says:
    3 years ago

    मिट्टी के दुख संग्रह को मैंने बड़े गौर से पढ़ा है इस संग्रह की शीर्षक कविता एक छोटी सी कविता है लेकिन गहन अर्थपूर्ण , यह कविता गागर में सागर है
    कविता है –
    दुख मिट्टी का था
    छुवन सपनीली
    में बाजरे की रोटी
    चांद सी सजीली
    दोपहर तपन की थी
    भावना सुरीली.

    Reply
  7. Geeta gairola says:
    3 years ago

    बटरोही सर।के आलेख का प्रारंभ किस अंत की तरफ जाएगा ये जिज्ञासा है।वैसे मुझे उनका लेखन के तरीके का बहुत कुछ आभास रहता है फिर भी जिज्ञासा बनी रहेगी।

    Reply

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