उत्तराखण्ड में नवलेखन-6
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वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार से जुड़े उत्तराखंड के कुछ युवाओं से मैंने जब संपर्क किया तो पहली बार में सबने मना कर दिया. मैं योजना बना चुका था, उत्साह में घोषित भी कर चुका था. अजीब धर्म-संकट में पड़ गया. मुझे लगा, या तो मेरी सोच में खोट है या शायद चयन में ही गलती हो गई. सभी को मुझे अपना पक्ष समझाने में कई दिन लग गए. अंत में कुछ से इस शर्त पर स्वीकृति मिली कि उनकी तस्वीर और उम्र (युवा होने का प्रमाण) को सार्वजनिक न करूं और उन्हें ‘वैज्ञानिक’ न कहूँ. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि इन चीजों का निर्धारण पाठकों को करना था, मुझे नहीं. तस्वीर को वायरल न करने की शर्त इस डिजिटल ज़माने में कोई मायने नहीं रखती क्योंकि गूगल गुरु मेरे हाथ से उसे पहले ही हड़प चुके हैं.
मेरा पहला चुनाव था, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से 2020 में प्रकाशित किताब ‘अन्न कहाँ से आता है’, जिसे लिखा है ग्राम बिस्ताना (पौड़ी गढ़वाल) में जन्मी, ऑरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी, कोरवालिस, अमेरिका में वनस्पति विज्ञान की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. सुषमा नैथानी ने. किताब मूल रूप से हिंदी में बड़ी मेहनत और आज के हिंदी पाठक की समझ तथा भाषा-संस्कारों को ध्यान में रखकर लिखी गई है. लेखिका के साथ मेरा परिचय उनके विद्यार्थी जीवन से रहा है जब वह नैनीताल के मेरे ही कॉलेज में बी.एससी. की छात्रा थीं. मेरे घर के बगल में स्थित छात्रावास में रहती थी और उनका घर में आना-जाना होता रहता था. इसलिए इसे बड़बोलापन न समझा जाए कि मैं तभी से उनकी प्रतिभा को लेकर आश्वस्त था.
अगला चयन है, उत्तराखंड के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित ‘डॉ. डीडी पन्त बाल विज्ञान खोजशाला’, जो नैनीताल से 148 किमी दूर, 5 घंटे, 18 मिनट की ड्राइव पर बेरीनाग नामक क़स्बे में स्थित है. यह केंद्र वर्षों से बच्चों तक विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना को उन्हीं की ज़बानी पहुँचाने का अद्भुत जमीनी काम कर रहा है. ग्रामीण बच्चों के बीच उन्हीं की भाषा और परिवेशगत समझ के जरिए विज्ञान शिक्षा और चेतना फ़ैलाने का जो काम यह खोजशाला कर रही है, मेरी जानकारी में उत्तराखंड में कोई दूसरी संस्था या व्यक्ति मौजूद नहीं है.
बाकी के बारे में जिक्र करना बेकार है, अपनी एक सहज मंशा को विवाद में क्यों घसीटा जाये. उससे न मेरा भला होना है, न हिंदी पाठकों का.
‘अन्न कहाँ से आता है’
यह बात आज भी एक आम भारतीय के जेहन में नहीं घुस पाती कि विज्ञान विषयों का उच्च-स्तरीय शोध हिंदी में संभव है. गाँधीजी के ज़माने से बातें कही जाती रही हैं, काम भी हुए ही हैं. अरबों-खरबों के खर्च से शब्दकोश बने, थीसिसें लिखी गईं, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं, हिंदी में पढ़ाई भी शुरू हो गई, मगर आम आदमी की भाषा के बीच विज्ञान आज तक नहीं पहुँच पाया. शायद इसके पीछे यह कारण हो कि जिस प्रकार हमारे देश में अभी तक यही तय नहीं है कि इस देश का आम आदमी कौन है, उसी तरह यह भी कोई नहीं जानता कि उसकी जातीय भाषा कौन-सी है. (‘जाति’ का अर्थ यहाँ ‘राष्ट्रीय कौम’ समझा जाये.)
यह कहना भी सरलीकरण होगा कि यह किताब आम आदमी के लिए अपने विषय से जुड़ी सूचनाओं और शोध की जानकारी देने वाली पाठ्य पुस्तक है. पक्के तौर पर यह एक शोध है और शोध की सारी तकनीकी बारीकियां इसमें मौजूद हैं. हमारे विश्वविद्यालयों में इन दिनों विज्ञान के विषयों में हिंदी या अंग्रेजी में जो शोध हो रहे हैं, उनसे कहीं अधिक मेहनत और खोज इसमें की गई है. तथ्यों को जुटाने में भी और हिंदी पाठक के विन्यास में भी. इसमें न तो पारिभाषिक शब्दावली के पीछे भागने का उपक्रम है और न बोलचाल की भाषा को ही अंतिम मानने का आग्रह. भाषा और कथ्य दोनों में वैज्ञानिक दृष्टि साफ झलकती है. यह प्रयास एक युवा वैज्ञानिक की अपने समकालीनों और भावी पीढ़ी को अपनी मातृभाषा में संबोधित उपहार जैसा है. लेखिका ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए पहले ही कह दिया है,
“इस किताब में कृषि की शुरुआत से लेकर जैव-प्रौद्योगिकी से बनी जी.एम. ‘(जेनेटिकली मॉडिफाइड या जीन संवर्धित)’ फसलों तक का विवरण है. पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में औद्योगिक कृषि के मॉडल की गंभीर समीक्षा हुई है, और छोटे-बड़े स्तरों पर तरह-तरह के वैकल्पिक प्रयोग शुरू हुए हैं. किताब के अंत में एक संक्षिप्त टीप चुनिंदा नए प्रयोगों पर है, लेकिन अभी टिकाऊ कृषि के मॉडल को उभरने में वक़्त लगेगा, और उसके पहले कई कोणों से इस विषय की छानबीन चलती रहेगी. जैसे-जैसे कृषि से जुड़ी नयी जानकारियाँ सार्वजनिक होंगी उसी के साथ इस विषय पर आगे लिखती रहूँगी.” (पृष्ठ 12)
(दो)
अपने आलेख की भूमिका के रूप में मैं कल्पवृक्ष फार्म, गुजरात के एक 84 वर्षीय कृषक श्री भास्कर सावे का डॉ. एमएस स्वामीनाथन, अध्यक्ष, राष्ट्रीय किसान आयोग, भारत सरकार को 29 जुलाई, 2006 को भेजे एक महत्वपूर्ण पत्र के कुछ अंश यहाँ पेश करना चाहता हूँ, जिसका खूबसूरत हिंदी अनुवाद मेरे एक युवा मित्र नवीन पांगती ने किया है. पत्र मूल रूप से गुजराती में लिखे गए पत्र का भरत मनसाता द्वारा अंग्रेजी में किये गए अनुवाद का हिंदी रूपांतर है.
“हमारे देश में 150 से अधिक कृषि विश्वविद्यालय हैं. इनमें से कइयों के पास हजारों एकड़ कृषि भूमि है. इनके पास समस्त मूलभूत सुविधाएँ हैं, मशीनें हैं, लोग हैं, पैसा है… पर इसके बावजूद, भारी-भरकम अनुदान के बाद भी ये संस्थाएँ मुनाफा कमाना तो दूर, अपने छात्र-छात्राओं व कर्मचारियों के लिए भोजन तक नहीं उगा पातीं. पर हर वर्ष ये संस्थाएँ कई सौ ‘शिक्षित’ पर रोज़गार के अयोग्य छात्र-छात्राओं को तैयार करती हैं जिनको केवल इस बात के लिए प्रशिक्षित किया गया है कि कैसे किसानों को भ्रमित किया जाए और पारिस्थितिकी का ह्रास हो.
कृषि में एम.एससी करते हुए छात्र-छात्राएँ छह वर्ष लगाते हैं. इन वर्षों में उनका एक ही संकीर्ण व अल्पकालिक ध्येय होता है– उत्पादकता. इस ‘उत्पादकता’ के लिए किसानों को अनेकानेक चीजें खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है. पर इस बात पर एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया जाता कि किसानों को वो कौन-से कदम नहीं उठाने चाहिए जिनसे उसकी जमीनों को तथा अन्य जीव-जंतुओं को नुकसान होता है. समय आ चुका है कि हमारे लोग व हमारी सरकारें इस बात को समझें कि इन संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहित खेती के औद्योगिक तरीके मूलतः आपराधिक व आत्मघातक हैं.
गाँधीजी ने कहा था कि– जहाँ शोषण होगा वहाँ पोषण नहीं हो सकता. विनोवा भावेजी का कहना था कि– जहाँ विज्ञान और संवेदना का सामंजस्य होता है वहाँ धरती स्वर्ग बन जाती है, और जहाँ इनका सामंजस्य नहीं होता वहाँ एक ऐसी ज्वाला जन्म लेती है जिसकी लपटें हम सभी को निगल सकती हैं.
प्रकृति की उत्पादकता को बढ़ाने की चेष्टा वह मूलभूत चूक है जो आप जैसे ‘कृषि वैज्ञानिकों’ की अज्ञानता को चिह्नित करता है. अगर मनुष्य छेड़छाड़ न करे तो प्रकृति उदारता की पराकाष्ठा है. धान का एक दाना कुछ ही महीनों में धान के हजार दाने उपजाता है. ऐसे में ‘उत्पादकता’ बढ़ाने की ये ज़िद कैसी?
सभी तरह के फलदायक पेड़ अपने जीवन काल में हजारों किलो का आहार उत्पादित करते हैं बशर्ते कि किसान अल्पकालिक मुनाफ़े के लोभ में आकर पेड़ों को जहर से ना सींचे या उनकी प्राकृतिक विकास से छेड़छाड़ ना करें. हर बच्चे का अपनी माँ के दूध पर अधिकार है पर अगर हम धरती माँ से जबरन दूध खींचने का प्रयास करते हुए खून और मांस भी निचोड़ लेंगे तो हम उस माँ से अवलंबित पोषण की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं.
हमारी समस्त मुसीबतों की जड़ है ‘वाणिज्य और उद्योग’ के गुलामी की मानसिकता जिसके तहत हम अन्य सभी पक्षों को नकार देते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि ‘उद्योग’ किसी नए को जन्म नहीं देता. वह तो महज प्रकृति से प्राप्त कच्चे माल को एक नया स्वरूप देता है. सूर्य के ओज से मौलिक सृजन व जीवन प्रदान करने की क्षमता केवल प्रकृति में ही है.
हमारे जंगलों में बेर, जामुन, आम, अंजीर, महुआ, इमली आदि इतनी प्रचुर मात्रा में उगते हैं कि फलों के भार से टहनियाँ जमीन छूने लगती हैं. हर वृक्ष वर्ष-दर-वर्ष एक टन से अधिक की वार्षिक उपज देता है. बावजूद इसके हमारी पृथ्वी सम्पूर्ण रहती है. हमारी भूमि का ह्रास नहीं होता.
इन पेड़ों को पानी, खाद (एन.पी.के.) कहाँ से मिलता है? ये चट्टानों में भी कैसे फल-फूल जाते हैं? ये अपनी जगहों पर अडिग रहते हैं और प्रकृति इनकी जरूरतों को पूरा करती है. पर आप जैसे ‘वैज्ञानिक’ व विशेषज्ञ अपनी आँखों में पट्टी बाँधकर इस सत्य को अनदेखा कर देते हैं. आप लोग किस आधार पर यह नुस्खा जारी करते हैं कि एक पेड़ या पौधे की कब क्या और कितनी जरूरतें हैं.
कहा जाता है कि जब ज्ञान की कमी होती है तो अज्ञानता ‘विज्ञान’ का स्वांग रचती है. आपने भी ऐसे ही विज्ञान को अपनाया और उसके माध्यम से हमारे किसानों को दिशाभ्रमित कर उन्हें दुर्गति के कुएँ में धकेल दिया. वैसे अज्ञानी होना शर्म की बात नहीं है. अपनी अज्ञानता के बारे में जागरूक होना ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम है. अपनी अज्ञानता को नकारना अहंकार है जिसके जरिए हम खुद को भ्रमित करते हैं.”
(तीन)
सुषमा नैथानी का यह शोधकार्य हालाँकि हिंदी में लिखा गया है मगर इसकी प्रेरणा का स्रोत अमेरिका की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी का मोलिक्यूलर बायोलॉजी विभाग है. जाहिर है कि शोध का प्रस्थान-बिंदु महान सोवियत गणराज्य और यूरोप-अमेरिका की कृषि उपलब्धियों पर केन्द्रित है. किताब में रूसी कृषि-वैज्ञानिक निकोलाई वाविलोव, ब्रिटिश विचारक थॉमस क्लार्कसन, उसकी उपलब्धि पर लिखी विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता, ईस्ट इंडिया कंपनी की जावा, सूरीनाम, तिमूर, श्रीलंका, बाली, सुमात्रा, आदि अपने उपनिवेशों में फैलाये गए गन्ने, चाय कॉफी के साम्राज्य का बेहद रोचक और रोमांचक चित्र है. लेखिका ने जर्मन यहूदी वैज्ञानिक फ्रित्ज हेबर की कृत्रिम नाईट्रोजन बनाने की विधि, वॉन हम्बोल्ट की गुआनो की खाद, साथ ही ‘क्रैंक बागवान’ इवान ब्लादिमिरोविच मिच्युरिन के उस रोचक प्रसंग का जिक्र है जब दो अमरीकी कलाकार लूथर बरबैंक और इवान मिच्युरिन वाविलोव की खोजों का फायदा उठाकर एकाएक सेलिब्रिटी बन गए. किताब में जेनेटिक्स के जनक ग्रेगर जॉन मेंडल के परिचय के साथ ही जीन क्रांति और यूजेनिक्स का भी विस्तार से विवरण दिया गया है. यूजेनिक्स को लेकर ब्रिटिश बुद्धिजीवियों का अमरीकी और जर्मन खोजकर्ताओं से जो मतभेद था उसे भी खासे रोचक मगर वैज्ञानिक तथ्यों के साथ रेखांकित किया है. सारा विवरण हिंदी पाठकों के लिए एक कीमती उपहार है.
इसके बाद आते हैं भारत में हरित क्रांति के जनक नॉर्मन बोरलॉग. लेखिका ने विभिन्न शोध-परीक्षणों के जरिए जीन क्लोनिंग, ट्रांसफर, सीक्वेंसिंग और जीन संशोधन की प्रक्रिया के माध्यम से दुनिया भर में कृषि के क्षेत्र में जो नए प्रयोग हो रहे हैं, उन्हें बड़े रोचक ढंग से पाठकों तक पहुँचाया है. विद्यार्थियों के अलावा ये तथ्य हिंदी के आम पाठकों के लिए भी नयी दृष्टि देने वाले हैं.
अमूमन विज्ञान की जानकारी के नाम पर भारत में अतीत का मिथकीय कचरा ऐसी भाषा में परोसा जाता है जिसकी जानकारी आम भारतीय को दूर-दूर तक नहीं होती. असल में ये अतिवाद के दो छोर हैं जिनका किसी एक बिंदु पर मिल पाना संभव नहीं है. हम अपनी वर्तमान उपलब्धियों से किनारा करके न तो उछलकर अपने पुरखों के पास पहुँच सकते और न सांस्कृतिक स्तर पर अपनी परंपरा और स्मृति से कटकर सीधे डिजिटल युग का दामन थामकर आधुनिक हो सकते. और यह बात सभी पर लागू होती है, चाहे वे ज्ञानी हों या वैज्ञानिक.

(चार)
सवाल सिर्फ उत्तराखंड की युवा पीढ़ी का ही नहीं, समूची युवा पीढ़ी का है कि आज के विकसित दौर में संसार का ज्ञान ही नहीं, विज्ञान भी एक ऐसे वायुमंडल का निरुद्देश्य चक्कर लगा रहा है जहाँ उसकी अपनी जड़ें गायब होती जा रही हैं और वह अपनी थकन और जड़ता को ही खुद की उपलब्धि मानने लगा है. वर्षों से ‘लोकल’ और ‘ग्लोबल’ की सिरफोड़ बहस छिड़ी हुई है मगर एक ओर आम आदमी आज भी अपनी धरती के वायुयान में बेचैन भटक रहा है और दूसरी ओर वैज्ञानिक अपने अंतरिक्ष और प्रयोगशालाओं में. आदमी की अपनी धरती के साथ वह मातृवत अंतरंगता सिरे से गायब होती चली गयी है, जिसे 84 वर्षीय जैविक किसान भास्कर सावे ने सोलह साल पहले हमारे देश के सबसे बड़े कृषि-नियोजक के सामने अपनी चिंता के रूप में जाहिर किया था. दरअसल यह पत्र सावे का स्वामीनाथन को नहीं, हमारी आज की युवा पीढ़ी के नाम है. यूरोप के चमत्कार में अंधी दौड़ भाग रहे युवाओं को इस जिंदादिल बूढ़े की बातों पर गौर करना चाहिए, वरना हम लोग खुद ही प्रदेशों, धर्मों, जातियों में बंटे हुए अपना ही नहीं, अपनी धरती और आकाश का अस्तित्व भी गँवा बैठेंगे.
कहने की जरूरत नहीं कि भौतिक पदार्थों में अन्न ही मनुष्य की पहली जरूरत है. अन्न का सम्बन्ध धरती के साथ है इसीलिए मनुष्य ने उसी तरह उसे माँ कहा है जैसे सूर्य को पिता. इन दोनों के मिलन से ही तो बनती हैं वनस्पतियाँ जिसका उत्पाद अन्न मनुष्य को उसका पहला और अनिवार्य आहार प्रदान करता है. हमारी वर्तमान सभ्यता की विडंबना बन गई है कि यहाँ सारे निर्णय वैश्विक दबावों से आतंकित होकर लिए जाते हैं और हम सारी जिंदगी चमत्कार के उसी भँवर में चक्कर काटते गुजार देते हैं.
कहने को तो हर आदमी के पास अपना एक-एक जैविक पिता और माँ होते हैं, दोनों ही ‘स्थानीय’ होते हैं जिनका उसके जीवन में कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता. मगर आदमी की अहमन्यता ही है कि नए संसार में इन रिश्तों को अपने ढंग से चुनने की होड़ लगी है. वह अच्छा हो रहा है या बुरा, इसे तय करने का अधिकार किसी के पास नहीं है क्योंकि सृष्टि के क्रम को चुनौती देना आदमी के हाथ में नहीं है. इसके बावजूद सृष्टि में मौजूद हमारे अस्तित्व के जो आदि-रूप हैं, समस्त मानवेतर सृष्टि, वो समय-समय पर हमें अपने अहंकार और मनमाने निर्णयों को लेकर आगाह करते रहते हैं. लेकिन हम मानते कहाँ हैं, वही करते हैं जिसका चलन होता है और जो हमें तात्कालिक सुख देता है. आदमी को अपनी गलतियों का अहसास होता भी है मगर तब तक चिड़ियाँ हमारी फसल चुग गई होती हैं.
लेखकों, ज्ञानियों और वैज्ञानिकों की भूमिका यहीं से आरम्भ होती है. पता नहीं यह विभाजन विज्ञान ने किया या ज्ञानियों ने, कि ज्ञान और विज्ञान आदमी के आचार की दो परस्पर विरोधी शाखाएं हैं. उन्हें एक-दूसरे का पूरक कहने तक तो समझ में आ सकता है, आदमी के ये दो जरूरी पहलू आपस में विरोधी कैसे हो सकते हैं? उन्हें मिलाना तो दूर, दोनों शाखाओं की अनंत टहनियों के रूप में इतनी विशेषज्ञताएँ उभर आई हैं कि एक शाखा दूसरे से न सिर्फ अंजन है, उसे खुद से हीन समझने लगी है.
प्रक्रिया और सोच के तरीके अलग हो सकते हैं, जो सृष्टि के हर जीव के अलग होते ही हैं, विज्ञान कैसे ज्ञान से अलग हो सकता है? यही कुंठा भारतीय, खासकर हिंदी समाज में भाषा को लेकर दिखाई देती है. बड़े शान से कहा जाता है कि फलां इतना बड़ा वैज्ञानिक और विद्वान होते हुए भी हिंदी में बात कर लेता है. मैंने अपने कुछ युवाओं को जब ‘वैज्ञानिक’ संबोधन से पुकारने का दुस्साहस किया और जवाब में उनका जो नकारात्मक रिस्पौंस मिला, उसके पीछे यह भाव भी हो सकता है. मुझे तो भास्कर सावे से बड़ा वैज्ञानिक और कोई नहीं दिखाई देता, हालाँकि देश दुनिया में आज भी ऐसे जाने कितने लोग बिखरे पड़े हैं जो मस्ती से अपनी वैज्ञानिक खोजों के साथ दूर-दराज के सीमांतों में पागलों की तरह जुटे पड़े हैं. उन्हें डीफ़िल या डीएससी की गुहार नहीं लगानी.

डॉ. डीडी पन्त बाल विज्ञान खोजशाला
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ में एक छोटा-सा क़स्बा है बेरीनाग. सांस्कृतिक जागरूकता के लिहाज से समृद्ध मगर पहाड़ के आम गाँवों की तरह गरीबी और पलायन के दंश से पीड़ित. इसी क़स्बे से लगे बेहद पिछड़े गाँव ‘देवराड़ी’ में भारत के पहले नोवेल-विज्ञानी सर सीवी रमण के शिष्य डॉ. देवी दत्त पन्त का लगभग एक सदी पूर्व जन्म हुआ. पिता पुरोहिती करके किसी तरह परिवार का भरण-पोषण करते थे, देवीदत्त की महत्वाकांक्षा उन्हें महर्षि रमण तक खींच ले गई और उन्होंने भौतिकी और प्रकाश-किरणों पर विश्व-स्तरीय काम किया.
गरीबी के दंश में पले-बढ़े पंत सारी दुनिया घूमने के बाद भी अपने इलाके के सामाजिक अंतर- विरोधों को नहीं भुला पाए और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहे. राजनीति में भी कदम रखा, मगर वहाँ उन्हें किसी ने नहीं पहचाना. शिक्षा के क्षेत्र में, खासकर उत्तराखंड के सुदूरवर्ती इलाकों को उन्हीं की शर्तों पर मुख्यधारा के साथ जोड़ने का उन्होंने मुहिम छेड़ा और स्वायत्त शिक्षा-संपर्क केन्द्रों की स्थापना की. मगर जैसा कि हमारी व्यवस्था में होता रहा है, ‘महान’ समझे जाने वाले विचार जमीनी वास्तविकताओं को हड़प जाते हैं, यही हाल पंतजी की परिकल्पना का हुआ. ‘ओपन यूनिवर्सिटी’ और ‘दूरस्थ शिक्षा केन्द्रों’ ने इस योजना को महज औपचारिकता और धंधे के रूप में बदल दिया.
पंतजी नैनीताल के कॉलेज में भौतिकी की आधुनिकतम खोजों के साथ खुद के द्वारा स्थापित प्रयोगशाला में अंत समय तक जुड़े रहे और अनेक महत्वपूर्ण लोगों को अपने विज़न के साथ जोड़कर उन्होंने अपने इलाके और प्रतिभाओं का रचनात्मक विस्तार किया. आज दुनिया भर में उनके शोधार्थी और शिष्य फैले हुए हैं. उन्हीं में एक हैं आशुतोष उपाध्याय जो उनके अंतिम शोधार्थी हैं. वह एक तरह से उन्हीं की वैचारिक संतान हैं और उन्होंने अपनी कर्मभूमि के रूप में अपने गुरु की जन्मभूमि को चुना है.
आशुतोष ने इस केंद्र का नाम रखा, ‘डॉ. डीडी पंत स्मारक बाल-विज्ञान खोजशाला.’ मई, 2016 से उन्होंने अपनी गतिविधियाँ शुरू कीं जिनमें मुख्यतः वह गाँवों में साइंस की वर्कशॉप करने लगे. खोजशाला वाला हॉल बहुत बाद में उनकी माताजी ने बनवाकर दिया हालाँकि पूरा बनने से पहले भी वहाँ इलाके-गाँव के बच्चे खासी संख्या में आने लगे थे.
खोजशाला में मुख्य रूप से बेरीनाग और आस-पास के बच्चे ही आते हैं. बेरीनाग ब्लॉक के 15 सरकारी विद्यालयों में खोजशाला की ओर से हर महीने साइंस वर्कशॉप होती हैं, जिनमें बेरीनाग क़स्बे के अलावा त्रिपुरादेवी, राईआगर, चौड़मन्या, गणाई गंगोली, कार्कीनगर, ओडयारी, राममंदिर, ग्वीर, आमहाट आदि गाँव शामिल हैं.
खोजशाला के कार्यकर्ता उत्तराखंड के दूरस्थ इलाकों तक अपने कैंप लेकर जाते हैं जिनमें धारचूला, मुनस्यारी, उत्तरकाशी के अलावा बागेश्वर जिले के सामा, खाती, और बदियाकोट जैसे अति-दुर्गम इलाके शामिल हैं.
31 जुलाई को कथा-सम्राट प्रेमचंद की जयंती पर एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें ढाई सौ से अधिक बच्चों ने भाग लिया. बच्चों के बनाये सौ से अधिक पोस्टरों की प्रदर्शनी लगी, ‘बूढ़ी काकी’ का नाट्य मंचन किया गया, ईदगाह फिल्म का प्रदर्शन हुआ और चालीस बच्चों ने प्रेमचंद की अलग-अलग कहानियों का पाठ किया.
खोजशाला के द्वारा वैज्ञानिक जानकारी से जुड़े अनेक वीडियो और फ़िल्में तैयार की जाती हैं जिनके माध्यम से बच्चों में वैज्ञानिक संस्कारों के साथ अंधविश्वासों और सामाजिक पिछड़ेपन से मुक्त होने का बोध प्राप्त होता है.

केंद्र द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की कुछ टीपें
पहले दो दिनों में प्रतिभागी बच्चों ने प्रकाश, विद्युत् चुम्बक, हवा एवं हवा का दाब, खगोल आदि विषयों से सम्बन्धी 30 क्रियाकारी मॉडल बनाए और विज्ञान मेले के दिन अन्य बच्चों, शिक्षकों एवं उपस्थित लोगों को उन मॉडलों के बारे में बताया. इन मॉडलों के जरिए विज्ञान की समझ को पुख्ता किया गया.
खोजशाला की टीम द्वारा इन दिनों गाँवों में वालेंटियर की मदद से बच्चों के बीच मौसम और तापमान सम्बन्धी गतिविधियों की जानकारी दी जा रही हैं. इन गतिविधियों में बच्चे अपने हाथ से गत्ते का थर्मामीटर बनाना और उसमें रीडिंग पढ़ना सीखते हैं. साथ ही बच्चों को असली थर्मामीटर भी दिया जाता है जिससे बच्चे अलग-अलग प्रकार की वस्तुओं का तापमान लेते हैं. बच्चों को रोज़ का न्यूनतम और अधिकतम तापमान का पता लगाने के बारे में भी बताया जाता है.
आजकल बरसात का मौसम है. देश में अनेक जगहों पर भारी वर्षा हो रही है. मौसम की ख़बरों से पता चलता है कि किस इलाके में कितने मिमी वर्षा हुई. आखिर यह पता कैसे चलता है? वर्षा को मापने के लिए एक साधारण यंत्र इस्तेमाल किया जाता है जिसे वर्षामापी कहते हैं. आप चाहें तो वर्षामापी अपने घर में आसानी से बना सकते हैं और पता लगा सकते हैं कि किस दिन कितनी वर्षा हुई?
आज जून की ग्रीष्म संक्रांति है. उत्तरी गोलार्द्ध में आज के दिन सबसे बड़ा दिन है. कल से छोटे दिन शुरू हो जायेंगे.
सूर्य की परिक्रमा करने के दौरान पृथ्वी की वह स्थिति जिसमें उसकी धुरी का झुकाव, उसकी परिक्रमा के तल पर अधिकतम 23 ½ डिग्री होता है ऐसी स्थति वर्ष भर में दो बार 21/22 जून और 22/23 दिसंबर को होती है. जून की स्थिति में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका हुआ होता है. इसलिए उस समय उस गोलार्द्ध में सबसे अधिक गर्मी होती है. इस स्थिति को ‘शीत अयनांत’ कहते हैं क्योंकि उस समय उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु होती है.
आम तौर पर यह समझा जाता है कि गर्मी (उत्तरी गर्मी) में पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य के निकटतम होता है और सर्दी (उत्तरी सर्दी) में वह भाग सूर्य से अधिकतम दूरी पर रहता है. पर वास्तविकता ऐसी नहीं है. पहली जनवरी के आसपास पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य के निकटतम होता है और पहली जुलाई के आसपास सबसे दूर. इन दोनों स्थितियों में लगभग 40 लाख किमी का अंतर होता है परन्तु इसके कारण पृथ्वी को सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा की मात्रा में केवल 7 प्रतिशत की ही कमी होती है.
वह समय जब सूर्य भू-मध्य रेखा के उत्तर अथवा दक्षिण अपने अधिकतम ऊँचाई पर होता है और दोनों अयन-वृत्तों में से किसी एक (कर्क रेखा अथवा मकर रेखा) पर लम्बवत चमकता है, इस स्थिति मर भू-मध्य रेखा से सूर्य का झुकाव अधिकतम (230-30′) होता है. लगभग 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनांत या कर्क संक्रांति कहते हैं इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है.
दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है. अतः कर्क संक्रांति को उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म संक्रांति और दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है. अतः कर्क संक्रांति को उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म संक्रांति और दक्षिणी गोलार्द्ध में शीत संक्रांति भी कहते हैं. लगभग 22 दिसंबर को जब सूर्य दोपहर को मकर रेखा पर सिर के ठीक ऊपर होता है, इसका दक्षिणी झुकाव अधिकतम (230 30′) होता है. इसे दक्षिणी अयनांत या मकर संक्रांति कहते हैं. इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई अधिकतम तथा उत्तरी गोलार्द्ध में न्यूनतम होती है. मकर संक्रांति को वहां विद्यमान ऋतु के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में शीत संक्रांति और दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है.
अतः कर्क संक्रांति को उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म संक्रांति और दक्षिणी गोलार्द्ध में शीत संक्रांति भी कहते हैं. लगभग 22 दिसम्बर को जब सूर्य दोपहर को मकर रेखा पर सिर के ठीक ऊपर होता है, इसका दक्षिणी झुकाव अधिकतम (230 30`) होता है. इसे दक्षिणी अयनांत या मकर संक्रांति कहते हैं. इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई अधिकतम तथा उत्तरी गोलार्द्ध में न्यूनतम होती है. मकर संक्रांति को वहाँ विद्यमान ऋतु के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में शीत संक्रांति और दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है.
बिना किसी तरह की सरकारी या दूसरी तरह की मदद से संचालित यह खोजशाला एक युवा वैज्ञानिक ने अपने गुरु को श्रद्धांजलि देने के लिए अपनी भावी पीढ़ी को संबोधित की है. कभी आप हिमालय की बर्फीली चोटियों से घिरे, प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर इस सुदूर क़स्बे की मुख्य सड़क के किनारे बने इस खोजशाला में जायेंगे तो आप खुद को विज्ञान की भरी-पूरी दुनिया के बीच पाएंगे. विशाल हॉल में चारों ओर तरतीब से लगे मूल्यवान वैज्ञानिक उपकरण और दीवार पर नवीनतम जानकारी देते पोस्टर. चारों ओर घूमकर अपनी परिकल्पना के अनुसार प्रयोगशाला में परीक्षण कर रहे पांच से पंद्रह-बीस साल तक के जिज्ञासु किशोर-किशोरियाँ. कुछ स्कूली ड्रेस में, कुछ घरेलू पोशाक में. वहां कोई गुरूजी नहीं हैं और न कोई शिष्य. सब एक-दूसरे के साथ अपनी-अपनी जानकारियाँ शेयर करते हुए. यह कोई गुरुकुल नहीं है न छात्रों का रहवास. एक खुला मंच है, जहाँ आकर कोई भी अपनी विज्ञान से जुड़ी जिज्ञासाएँ शांत कर सकता है. बच्चे, युवा और बूढ़े, कोई भी. विज्ञान-केंद्र का जैसा बोझिल गरिमामाय माहौल यहाँ नहीं है, मगर वहाँ भरपूर विज्ञान है. वैज्ञानिक उपकरणों का हाई-फाई तामझाम नहीं है मगर एक जिज्ञासु वैज्ञानिक के लिए जरूरी सारी चीजें वहां उपलब्ध हैं. आशुतोष अपनी योग्यताओं के आधार पर संसार की किसी भी विज्ञान-प्रयोगशाला का सम्मानित हिस्सा बन सकते थे, लेकिन उन्होंने मुख्यधारा से कटे, अपनी जन्मभूमि के इस उपेक्षित टुकड़े को चुना जिसमें वह अपनी सारी प्रतिभा और ऊर्जा भावी पीढ़ियों को समर्पित कर रहे हैं. हालाँकि मुझे उन्हें मनाने में वक़्त लगा, मगर मुझे इस बात का संतोष है कि मैं ज़िद करके उन्हें आप लोगों तक खींच लाया हूँ.
डॉ. डीडी पंत आज मेरे या आशुतोष के ही गुरु नहीं, सारी दुनिया के गुरु हैं इसलिए उनके बारे में बताने का मेरा हक बनता है. यही बात मैंने आशुतोष के सामने अपना पक्ष रखते हुए कही थी, तब जाकर वह राजी हुए. आज के प्रचार ग्रस्त ज़माने में आशुतोष की यह पहल छोटी बात नहीं है.
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(क्रमशः)
अगली बार: हिमालय के लोक-स्वर
बटरोही पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित. इन दिनों नैनीताल में रहना. |
समालोचन के लिए अद्भुत शब्द भी अपर्याप्त है। यह तो वरदान है।
शुक्रिया सुरेश भाई. विष्णु खरे ने लगभग छह वर्ष पहले यही बात कही थी.-
“समालोचन’ पर जो यह सब हो रहा है, इसके लिए अद्भुत शब्द भी अपर्याप्त है। इन्टरनेेट और ब्लॉगिंग के इतने बहुआयामीय इस्तेमाल का ऐसा दूसरा उदाहरण विश्व में शायद अब तक देखा नहीं गया। और अभी तो यह ख़त्म नहीं हुआ है।” विष्णु खरे (26/5/2016)
हिंदी में साहित्येतर लेखन का जैसे यह एक आश्वासन है। वैज्ञानिक दृष्टि से संचालित दो प्रतिभाओं और डी डी पंत के बारे में यह जानकारी संपन्न करनेवाली है। बटरोही जी को धन्यवाद। और अरुण को, ‘समालोचन’ पर विषय वैविध्य को अग्रसर करने के लिए। जैसे यह भी एक जैव-विविधता है।
ऐसे समय जब जानबूझ कर विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के विरुद्ध माहौल तैयार किया जा रहा है डा. सुषमा नैथानी और आशुतोष उपाध्याय का लेखन एक नयी ताज़ी साँस जैसा है। बेहतरीन तरीक़े से उसके बारे में परिचित कराने के लिए बटरोही जी और उसे हमारे सामने लाने के लिए समालोचन का आभार।
सबसे पहले तो समालोचन और बटरोही जी को इस वैज्ञानिक आलेख को साझा करने के लिए अनेक बधाई। ज्ञान, विज्ञान और भाषा को लेकर आपके कार्य को मेरा सलाम।
डा. सुषमा नैथानी और आशुतोष उपाध्याय जी का उनके इस अद्भुत कार्य के लिए अनेक आभार।
यहाँ मैं अपना अनुभव बटना चाहूँगी कि अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ग्रहण करने और विज्ञान विषय को लेकर पढ़ने पर मुझे हिंदी भाषा की आवश्यकता मुझे न के बराबर पड़ी। जब प्रैक्टिस में आई तो व्यवहारिक भाषा हिंदी बनी। शोध के क्षेत्र में आने पर अनुभव हुआ कि मरीज़ को जांचने के जितने पैमाने हैं वे अधिकतर अंग्रेजी में सत्यापित हैं और हिंदी भाषी मरीजों पर उनका उपयोग करके जितने भी शोध पत्र प्रकाशित हो रहें वे दरअसल अनैतिक हैं। फिर इस क्षेत्र में कार्य करना शुरू किया जो अब भी जारी है।
और हाँ! डॉ डी डी पंत बाल विज्ञान खोज शाला के बारे में जानना बहुत रोचक लगा।
तब हम स्कूल के विद्यार्थी रहे होंगे, बटरोही जी के संपादन में बड़े ख्यात प्रकाशन मैकमिलन क. से हिंदी की तमाम गद्य विधाओं और उसकी एक प्रतिनिधि रचना का संग्रह ” विविधा ” (1973) आया था. यह अहम संकलन बाद में हमारे बहुत काम भी आया.
बटरोही जी की “उत्तराखंड में नव लेखन” की 6 वीं श्रृंखला तक आते आते यह लग रहा है कि जिन कलमकारों को इसमें शामिल किया जा रहा है, उन पर यह एक रिपोतार्ज भी है, एक डायरी भी. कोई रेखाचित्र जैसा भी और कहीं संस्मरणनात्मक फीचर जैसा भी.
एक ही जगह चयनित व्यक्ति के बारे में उसके रचनाकर्म, उसकी अपनी ख़ास स्टाइल और उनमें, जो कुछ भी संभावनाएं पाई गई, की उपपत्ति देना एक मुकम्मल काम कहा जा सकता है. जरा सा यह भी दिया जा सकता कि समकालीन लेखन परिदृश्य में उनका रेखांकन कितना हो पाया है या होगा तो उनकी पाठकीयता और बढ़ती !
बहुत ही सुंदर आलेख, हालांकि एक बार पुनः पढ़ूँगा ,अभी व्यस्तता में शीघ्रता से पढ़ गया। डॉ डी डी पंत क्या ये वही हैं जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष रहे हैं? अगर ये वही हैं तो मेरे पिता की पीएचडी के गाइड रहे हैं।
एक पंक्ति कहना चाहूँगा विज्ञान की जो शुष्कता और निष्ठुरता है वो साहित्य से मिलकर सरस हो जाती है, इसीलिए एक स्तर के बाद हर विज्ञान पढ़ने वाला छात्र साहित्य में अपना रस ढूंढने लगता है। बहुत बधाई और शुभकामनाएं लेखक और समालोचन को जो इतनी विविध पाठ्य सामग्री अपने पाठकों को परोसते हैं🙏🙏
वनस्पति-विज्ञानी डी डी पन्त दूसरे थे. हमारे गुरू पंतजी भौतिक विज्ञानी थे.
हिन्दी में विज्ञान से सम्बंधित विषयों पर लिखना सराहनीय है। परन्तु यदि सुषमा जी वैकल्पिक खेती यानी ऑर्गेनिक तथा प्राकृतिक खेती को ही अपने लेखन का केंद्र-बिन्दु बनातीं तो वह ज़्यादा उपयोगी रहता। अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि तथाकथित वैज्ञानिक खेती — हरित क्रांति और औद्योगिक खेती भी उसी के नाम हैं — ने पृथ्वी व पर्यावरण को — मिट्टी, पानी, हवा — को कितना नुकसान पहुँचाया है। इसके अलावा हरित क्रान्ति ने पंजाब के छोटे किसानों को बर्बाद कर दिया। वास्तव में हरित क्रांति को एक अवधारणा के तौर पर अब खारिज किया जा चुका है। पर्यावरण पर पिछले दशकों में जो काम हुआ है उसने भी औद्योगिक खेती को खारिज किया है। पर्यावरण को नष्ट करने में औद्योगिक खेती की अपनी सीधी भूमिका लगभग 15% है। इस बात पर ध्यान दें कि खेती केवल मनुष्यों के लिए नहीं की जाती। केवल अमरीका में जितनी ज़मीन पर खेती की जाती है उसकी केवल 30% ज़मीन ऐसी है जिसकी उपज मनुष्यों के लिए होती है। शेष 70% ज़मीन की उपज उन जानवरों — मुख्यतया गायों — को खिलाई जाती है जिनको माँस उद्योग द्वारा पाला जाता है और जिनकी संख्या अब मनुष्यों से कहीं अधिक है। (और जिन क्रूर स्थितियों में उनको पाला जाता है, वह एक अलग विषय है।) अब, माँस उद्योग का पर्यावरण को नष्ट करने में हिस्सा 30% से भी ज़्यादा है। इसका अर्थ यह है कि यदि इस 30% आंकड़े को भी साथ रख दिया जाए तो अमरीका में औद्योगिक खेती पर्यावरण को नष्ट करने में लगभग 45% भूमिका अदा कर रही है। जहाँ तक GM food का प्रश्न है, उससे मनुष्यों और पशुओं के स्वास्थ्य को जो नुकसान होता है, जो बीमारियां उससे पैदा होती हैं, उस पर भी काम चल रहा है, और पर्यावरण पर काम करने वाले वैज्ञानिक GM food पैदा करने के विरोध में हैं। GM food पैदा करने से केवल औद्योगिक खेती करने वालों, यानी कॉरपोरेटों और बहुत बड़े किसानों को फायदा होता है। कुल मिलाकर, यदि पिछले 10–12 हज़ार वर्षों के खेती के इतिहास को देखें तो पर्यावरणीय वैज्ञानिक अब कहते हैं कि जंगलों को नष्ट करने में सबसे बड़ी भूमिका खेती की है। मनुष्य अपनी संख्या बढ़ाता गया और उसके खाने की जरूरतें पूरी करने के लिए जंगल कटते गये। आधुनिक युग में यही भूमिका तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति ने भी अदा की, जो वह अब भी कर रही है। अब क्योंकि मनुष्य की संख्या बहुत बढ़ चुकी है — और वैज्ञानिकों के अनुसार वह 12 बिलियन होने तक बढ़ती जाएगी — अब खेती करने के ऐसे तरीकों पर ज़ोर देने और उन पर लिखने की ज़रूरत है जो वैकल्पिक हैं और जो पृथ्वी व पर्यावरण को व मनुष्य और जानवरों के स्वास्थ्य को नुकसान न पहुंचाएं। (यहाँ मैं कह दूँ कि तेजी ग्रोवर और मैं 1994 में श्री भास्कर स्वे के प्राकृतिक फार्म को देखने गए थे और हमने उनसे लम्बी बातचीत की थी। यह भी कह दूँ कि मैं एक छोटे किसान का बेटा हूँ (मेरे पिता के पास सिर्फ़ ढ़ाई एकड़ जमीन थी) और बचपन मे हमारे खेतों में प्राकृतिक खेती ही होती थी। पर उसके जल्दी ही बाद तथाकथित हरित क्रांति ले आयी गयी।)
रुस्तमजी, मैंने भास्कर सावे के तत्कालीन कृषि सलाहकार को लिखे पत्र का हवाला देते हुए आपकी ही बात कही है. वह विस्तृत पत्र है और उसमें आपसे कही अधिक निर्मम ढंग से कृषि मंत्रालय भारत सरकार को फटकारा गया है. इतना निर्भीक पत्र आज़ाद भारत में और किसी ने नहीं लिखा.
मैंने एक वैज्ञानिक की दृष्टि और फ़ैक्टस पर आधारित कृषि के विकास को उसके सामाजिक-एतिहासिक पक्ष को समझने की कोशिश की है. आप किताब पढ़कर राय देंगे तो आपका स्वागत है. पिछले 20 से अधिक सालों से भारत के बहुत से NGO, एक्टिविस्ट यही सब बातें कह रहे हैं जो आप कह रहे हैं और सावे जी के पत्र में हैं. मैं भी वही दोहराती तो क्या फ़ायदा होता? बाक़ी श्री-लंका ने तो वैकल्पिक कृषि और जैविक कृषि पर जो दाँव लगाया उसका परिणाम हमारे सामने है.
युवाओं के भीतर वैज्ञानिक चेतना उत्पन्न करना बहुत आवश्यक है ।लेखकों के भीतर तो और भी अधिक क्योंकि उनका लिखा हुआ लोगों तक पहुंचता है ।विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना में अंतर होता है ।केवल विज्ञान पढ़ लेने से वैज्ञानिक चेतना उत्पन्न नहीं होती ।बहुत से वैज्ञानिक भी अंधविश्वास से घिरे होते हैं ।इसलिए वैज्ञानिक चेतना को उसके व्यापक अर्थों में समझना जरूरी है। बटरोही जी का यह लेख इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
बटरोही सर का शुक्रिया, मेरा सौभाग्य कि डी॰ डी॰ पंत जी को देखा था, बहुत बार सुना था. और आशुतोष से नैनीताल के समय से परिचय है.–सुषमा नैथानी