प्रिय पात्र को पत्र ओमा शर्मा |
प्रिय एंटन हॉफमिलर;
तुम्हारे नाम से इस दुनिया में कम लोग ही परिचित होंगे. तुम क्या, जब तुम्हारा सर्जक, स्टीफ़न स्वाइग, भी आज उतना लोकप्रिय नहीं रह गया है जैसा वह तुम्हारे जन्म के वक्त था, जब पूरी दुनिया में उसका लिखा (चाहे कहानी-उपन्यास हो या लेखक-कलाकारों की जीवनियाँ) न सिर्फ बा-इज़्ज़त पढ़ा और सराहा जाता था बल्कि तीस-चालीस ज़बानों में रातों-रात तर्जुमे के रास्ते यूरोप और दुनिया के दूसरे तमाम मुल्कों के पाठकों को आनंद देता रहता था. कहानियों पर नाट्य-प्रस्तुतियाँ खेली जातीं, उनपर फिल्में बनतीं, स्कूल-कॉलिज के पाठ्यक्रमों में शामिल रहतीं. लेकिन वक्त का पहिया! करवट लेता है, लेता रहता है. इसके चलते शुक्र है, तुम कुछ लोगों की स्मृति में फिर लौटे हो. मेरे जैसे चंद मुरीदों के जेहन में अलबत्ता तुम अपने शरीफ़ाना, आधे-अधूरेपन और दूसरे बहुत कुछ के साथ हमेशा बने रहे.
“क्यों”?
आज इसी बाबत मैं तुम्हें यह ख़त लिख रहा हूँ.
इसलिए पहले उस कृति की बात जहाँ तुमने अपना किरदार पाया.
‘बिवेयर ऑफ पिटी’ नाम से अंग्रेजी में अनुदित किताब मूल जर्मन में ‘उनजीडल्ड देस हेरसंज’- जिसका अंग्रेजी तर्जुमा ‘इम्पेशेन्स ऑफ़ हार्ट’ होता है- सन 1938 में तब रचा गया जब तुम्हारा सर्जक, जर्मनभाषी ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफ़न स्वाइग, यहूदी होने के कारण सन 1934 में अपना देश छोड़ने को मजबूर होते ही इंग्लैंड भाग आया था. उसके चार बरस पहले जर्मनी में हिटलर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया था.
पड़ोसी स्वतंत्र मुल्क ऑस्ट्रिया को तो वह जर्मनी की बाँदी समझता था इसलिए नस्ली हिंसा, नफरत और बर्बरता का जो तांडव जर्मनी में शुरू कर चुका था, उसे ऑस्ट्रिया में भी खूब चलाया जा रहा था. नाजी सब जगह तलाशियों, लूट-खसोट और हिंसा का अपना खुला खेल खेल रहे थे. तुम्हारा सर्जक इंग्लैंड में कभी इस तो कभी उस ठिकाने में रहता, हजारों मजलूम यहूदियों की मदद करता, अपने लिए ब्रिटिश नागरिकता लेने की जुगत बिठा रहा होता. और इसी सबके बीच, बीस बरस साथ रही पत्नी, फ्रेडरिक, से तलाक के बाद सत्ताईस बरस छोटी नई बनी सचिव ‘लौट’ के साथ नया जीवन शुरू कर रहा था. यानी दौर और ज़िंदगी के तमाम झंझावातों के बीच तुम्हें रचा गया! तुम्हारे किरदार के लिए ये मालूमात दीगर भले हों लेकिन उनकी छाया कितनी आई/नहीं आई, इसे मैं तुम्हें बतलाना चाहूँगा. तुम्हें मालूम रहे कि तुम किस आबोहवा के बीच जने गए!
संक्षेप में तुम्हारे जीवन की कथा कुछ यूँ रही: अपनी पच्चीस बरस की उम्र में सन 1914 में तुम वियना के पास एक घुड़सेना की छावनी-बस्ती में बतौर एक लेफ्टीनेन्ट ट्रेनिंग ले रहे थे- अंततः अपने (तत्कालीन) साम्राज्य की सेवा करने के लिए. तमाम तरह के अनुशासनों से लदी-फंदी वह फौजी जिन्दगी ऊब से भरी थी मगर वहाँ तुम्हें उस कस्बे के अतिधनाढ्य केकिसफेलवा परिवार से मिलने का संयोग बना. केकिसफेलवा ने जब तुम्हें रात्रि-भोज पर पहली बार आमंत्रित किया और खाने के बाद तुमने परिवार की सत्रह वर्षीय इकलौती बेटी एडिथ को पारंपरिक नृत्य के लिए आमंत्रित किया तो एडिथ घबड़ा उठी, क्योंकि वह अपंग कैसे नृत्य करती? जब तुम्हें अनजाने में हुए अपने अपराध का आभास हुआ तो तुम खुद शर्मिंदा हुए लेकिन बाद में, जैसा कि होना था, एडिथ ने ही मामले को गरिमापूर्वक ढंग से सुलझा लिया. उसके बाद तुम उस परिवार- जिसमें एडिथ की एक कजिन— इलोना, उसकी मदद के लिए रह रही थी, में नियमित आने-जाने लगे.
तुम्हें देखकर एडिथ और सभी परिजन बहुत खुश होते. तुम अपने फौजी जीवन के किस्से उन्हें मजे से सुनाते जिनसे तुम्हारा और उनका दिल बहलता. लेकिन इस तरह नियमित आने-जाने के दौरान एडिथ तुमको पसंद करने लगी. तुम्हें इसका गुमान नहीं था और जब पता चला तो तुम्हें यह मंजूर नहीं था. लेकिन तुम एडिथ से सहानुभूति या दया-भाव रखते थे, इसलिए उसको ठुकरा भी नहीं सकते थे. उनके पारिवारिक डॉक्टर कोनडोर से तुम्हें उस परिवार और एडिथ की गंभीर हालत का पता चला और यह भी कि तुम उसके लिए एक उम्मीद बन चुके हो. तुम उस निरीह-नादान का पहला प्यार बन चुके थे! तुम देर तक दो-मने में जकड़े रहे. कभी तुम उसकी तरफ झुकते तो कभी तुम्हारा अपना अंतरमन आड़े आता. तुम्हें खुद पर भरोसा नहीं था. बल्कि एक डर भी था कि यदि तुमने एडिथ को पसंद कर लिया तो लोग समझेंगे कि तुम बिक गए हो, क्योंकि एक अपंग, लाचार स्त्री से कौन सक्षम युवा विवाह करना चाहेगा?
इसी तरह के तमाम प्रसंगों के बीच गुजरते हुए कथा आगे बढ़ती है और अंत में तमाम तरह की ऊंच-नीच और कशमकश झेलते हुए तुम मन बनाते हो कि तुम उसके जीवन-साथी बनोगे. मगर नियति! यह बात कहने के लिए देर हो चुकी थी क्योंकि रातोंरात तुम्हारा तबादला अन्यत्र हो गया और नई जगह पहुंचते ही पहला विश्व-युद्ध छिड़ गया जिससे सभी संचार सेवाएँ अवरूद्ध हो गईं. अर्थात तुम अपनी बात कह नहीं सके. जो भरोसा तुमने एडिथ को दिलाया था, बुज़दिली में तुमने उसी दिन उसे चकनाचूर कर दिया. एडिथ इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी और अपनी जान ले बैठी. यह कहानी वाकये के करीब पच्चीस वर्ष बाद तुम लेखक को सुना रहे हो जिससे तुम्हारा परिचय हाल में हुआ था. एडिथ के हादसे के लिए पूरी तरह खुद को कसूरवार मानते हुए तुम अपने मुल्क के लिए जंग लड़ने मोर्चे पर गए जहाँ तुमने धुआंधार पराक्रम दिखाया, दुश्मन का खून-खराबा किया और इसके लिए तुम्हें साम्राज्य का सर्वोच्च सैनिक तमगा भी नवाज़ा गया. जिसका तुम्हारे लिए फिलहाल कोई मोल नहीं बचा था क्योंकि तुम्हारी आत्मा में तुम्हारी निर्णय-दुर्बलता के कारण एक अबोध अपाहिज की हत्या और प्रेम की अतृप्ति आज भी धंसी है.
मोटा-मोटी यही है न तुम्हारी कहानी?
और कहानी के साथ या समानांतर बुनी दृश्य-अदृश्य परतें, स्वप्न, निरुपायता, संवाद और चिकित्सा की सीमाएं, व्यक्ति के अंतस्थल और वाह्य जगत के बीच का द्वन्द्व, नियति के खेल, कृति और सर्जक के अंतर-संबंध.? कभी तुमने उन सबके बारे में सोचा?

दो)
तुम्हारी ज़िंदगी के ग्राफ से गुजरते हुए मैंने यह बात गौर की कि भले तुम एडिथ को पहले दया-भाव से देखते थे. किसी अपाहिज-लाचार के प्रति किसी सक्षम के भीतर सहज उभरने वाली दया से! लेकिन अंत में तुम उसके प्रति करुणा से जाग उठे. दया-भाव से निकलकर करुणा के रास्ते में एक और मकाम आता है और वह है सहानुभूति का. बहुत जल्द तुम दयाभाव से निकलकर सहानुभूति या सह-अनुभूति के रास्ते पर चढ़ गए थे. याद है जब एडिथ ने तुम्हें एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा था और तुम उसे अपनी जैकेट में खोंसकर फौजियों के साथ पार्टी में चले गए थे और लगातार उस पत्र में वर्णित भावनाओं से भीतर तक मचल रहे थे.
तुम्हारे साथी फ़िज़ूल-सी बातें कर रहे थे लेकिन तुम्हारा मन किसी बात में नहीं लग रहा था. तुम अपने से ज्यादा एडिथ के बारे में सोचने लगे कि कोई ऐसे कैसे ठहाका लगा सकता है जबकि उसी वक्त कहीं कोई इतना लाचार और सहमा हुआ पड़ा हो जैसे एडिथ थी? यह दया-भाव नहीं, एडिथ के प्रति सह-अनुभूति की कोंपल थी. उससे तुम्हारे जुड़ाव का अगला पायदान.
प्रिय टोनी, अपने किरदार में तब तुम पच्चीस वर्ष के युवा थे. यह वह उम्र होती है जब प्रेम परिभाषाओं से परे होता है या उसकी परिभाषा आप निजी स्तर पर बनाते हैं. रोज-रोज अलग तरह से महसूस करते हैं. इसमें कुछ तयशुदा जैसा संभव हो नहीं पाता होगा. एडिथ तुमसे एक-तरफा प्यार में थी. जब तुम्हें इसका पता चला तब अपने भीतर झांकने के बाद तुम्हें यही लगा की तुम एडिथ के प्यार का प्रतिदान नहीं दे सकते. तुम इसी कारण उस कस्बे को छोड़कर भाग जाना चाहते थे क्योंकि वहाँ रहते हुए उससे बचना मुश्किल था. लेकिन जब वियना आकर तुम डॉक्टर कोनडोर से मिले तब तुमने अपने जीवन में एक नई रोशनी महसूस की. जब तुमने देखा कि किस तरह दिन-रात दूसरों की सेवा में लगा डॉक्टर एक अति-मामूली जीवन जी रहा है और उसके भीतर कोई मालिन्य-मलाल नहीं है, बल्कि मनुष्य और उसकी पीड़ाओं को गहरे औदात्य से देखता है. उस मुलाकात में तुम्हारे भीतर एक मूलभूत परिवर्तन हुआ.
नौकरी से अपना इस्तीफा देने के ख्याल से जब तुम कोनडोर के पास पहुंचे तब उसने तुम्हें चेताया कि इस आघात को एडिथ झेल नहीं पाएगी क्योंकि नौकरी से इस्तीफा, यानी उस कस्बे से पलायन, परोक्ष रूप से एडिथ की हत्या का दस्तावेज़ होगा. इसके बावजूद तुमने अपने दिल की बात डॉक्टर को बताई और कहा कि जब तुम एडिथ से प्यार नहीं करते हो तो तुम्हें उसके प्रेम को क्यों स्वीकारना चाहिए? क्या इस झूठ के साथ जीना होगा?
कोनडोर ने तुम्हारी बात सुनी और फिर तुमसे दो सवाल किये. पहला, क्या तुम एडिथ को इसलिए प्यार नहीं करते हो क्योंकि वह अपाहिज है? तुमने कहा कि ऐसा तो कुछ नहीं है. फिर कोनडोर ने पूछा कि क्या तुम इसलिए उससे प्यार नहीं करते हो क्योंकि तुम्हें डर है कि दूसरे लोग क्या कहेंगे? तुम्हारे मित्र या दायरे के लोग कहीं यह न कहें कि तुमने उसके अमीर होने के कारण उस अपाहिज युवती का प्रेम करना कबूल कर लिया?
यह पहला मौका था जब तुमने चीजों को नए सिरे से सोचा और तुम्हें महसूस हुआ कि इस बात में बहुत कुछ सच्चाई है. फिर तुम्हारा ह्रदय परिवर्तन होता है जब कोनडोर ने कहा कि मनुष्य जीवन अपनी पर्याप्त सार्थकता ग्रहण कर लेता है यदि हम इस संसार में एक व्यक्ति के भीतर भी खुशियाँ भर सकें, जैसी हजारों लोगों के जीवन में खुशियाँ भरने के साथ-साथ डॉक्टर कोनडोर ने अपनी पत्नी के जीवन में भरी, एक अंधी स्त्री के साथ विवाह रचाकर. तात्पर्य यही कि तुम्हारे सर्जक ने तुम्हें किसी तयशुदा खांचे में नहीं गढ़ा; वह तुम्हें बदलता जा रहा है. डॉक्टर कोनडोर जैसे अलग, संभव किरदार की संगत में यह बदलाव अतिरिक्त सार्थकता ग्रहण करता है.
तीन)
टोनी, कभी मैं सोचता हूँ कि क्या सच में यह तुम्हारा ह्रदय परिवर्तन था? मैं सोचता हूँ मनुष्य के भीतर प्यार के तंतु बहुत अनगढ़ और अदृश्य रूप में गढ़े होते हैं. कभी वह खुद की रोशनी में उसे देख पाता है, कभी दूसरों के अनुभव की रोशनी से. लेकिन तुम्हारे मामले में यह रोशनी आई डॉक्टर कोनडोर के बहाने से जिसका मर्म था: दूसरों की मदद करना भी प्यार हो सकता है, खासतौर उसकी जो प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद की गुहार कर रहा है, क्योंकि ऐसा करके तुम कम से कम एक जीवन को तो बदल रहे हो. यह दया, सहानुभूति नहीं; प्यार का विस्तार है और रहेगा. एक उम्र में प्यार को हम देह में सीमित कर देते हैं और वह भी विपरीत लिंगी प्यार. तुम्हारे, मतलब कोई एक सदी बाद, प्यार नामक पहेली की कई ग्रंथियों-गुत्थियों की गिरह ढीली हुई है, निजी और सामाजिक नैतिकताओं के नित नए संस्करणों ने दस्तक दी है, उसका रहस्य भले पूर्ववत हो. क्या प्यार की परिभाषा भी बदल गई? नहीं, मेरे जाने यह प्यार के केवल उस अंश पर पड़ती रोशनी है जो पहले हमारे बीच व्याप्त तो था मगर सामाजिक स्वीकार्यता- मतलब वही, ‘दूसरे लोग’– के कारण बाहर आने में हिचक रही थी.
चार)
कभी मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि एक प्रेम संबंध को लेकर जितनी मानसिक उठा-पटक तुमसे करवाई गई है, उसके पीछे तुम्हारे सर्जक की क्या मंशा हो सकती थी?
एक विकलांग-असामान्य युवती का एक सक्षम युवक के साथ संबंध, जो ऊपर से देखने में बेमेल लगता है, का झूला-नृत्य करने-कराने के पीछे तुम्हारे सर्जक की क्या नीयत होगी?
मैं सोचता हूँ इसके दो कारण रहे होंगे: एक, यह कि तुम्हारा सर्जक अपने युवाकाल के बाद से ऐसे झंझावातों से खुद घिरा रहा कि उसे आम सामाजिक स्थितियाँ या संबंधों में ‘सामान्यता’ कम ही देखने को मिली.
युद्ध हो रहे थे, मार-काट मची थी, लोग दर-बदर भटक रहे थे. इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के आसपास हो चुकी थी जबकि, जिस समय तुम्हारा ‘उदय’ हुआ, दूसरे विश्व-युद्ध से कुछ पहले, तब तक पूरा यूरोप ही वैश्विक लपटों का मर्कज़ बन चुका था.
मैं सोचता हूँ यह पर्याप्त कारण न हो. दूसरे, तुम्हारे सर्जक को मैंने जितना करीब से पढ़ा-जाना है उसके आधार पर कह सकता हूँ कि वस्तुतः उसकी मंशा इन्हीं झंझावातों और जीवन की असामान्यताओं के बीच मनुष्यता की उन बुनियादों की टटोल है जो देश-काल से परे जाकर अपनी शाश्वतता के रेशे चिह्नित करने की सम्भावना लिए रहती है.
याद करो जब डॉक्टर कोनडोर से मिलने के बाद तुमने अपना मन बना लिया था कि एडिथ को अपना लोगे. लेकिन वापस अपने कमरे पर आकर तुम्हें लगा कि नहीं, दुनिया क्या कहेगी? तुम्हारे सहकर्मी क्या कहेंगे? सर्जक वहाँ से तुम्हारा विचलन करा देता है.
इस विचलन का स्रोत क्या है? प्रमुखतः यही कि वह जैसे तुम्हारे भीतर और तुम्हारे बहाने के अहसासों के सत्य की गहराइयों का अन्वेषण कर रहा है. उसे मालूम है कि वह तुमको जब तक उन तमाम अंधड़ रास्तों और विकल्पों से नहीं गुजारेगा, जिसकी एक पाठक भले अपेक्षा करे, तब तक उस असामान्यता के स्रोत पूरी तरह से अनावृत नहीं होंगे.
तुम्हें शायद मालूम ना हो, लेकिन तुम्हारा सर्जक मानता रहा था कि सुख जीवन का पर्याप्त लक्ष्य नहीं है. मैं इसे उसके सृजित तुम्हारे जैसे दूसरे किरदारों में लगातार देखता रहा हूँ, चाहे वह ‘अनजान औरत का ख़त’ की वह अभिशप्त औरत हो या ‘बदहवास’ का अनुतप्त डॉक्टर, या फिर ‘खेल शतरंज का’ में निर्जन काल-कोठरी में रोटी के टुकड़ों के शतरंजी मोहरे बनाकर अकेलेपन से भिड़ंत करता डॉक बी.
जब उसकी कहानियों में कोई हास्य-विनोद प्रवेश नहीं कर पाता है तो उपन्यास में सुख नाम की शय कहाँ से आती? तुम्हारे सर्जक की कहानियों में, जीवन की तरह, तार्किकता की जगह कम ही है; वहाँ व्यक्तियों की बुनावट या उनके संबंधों के नियामक स्वनिर्मित भावनात्मक आवेग होते हैं. उसके लिए साहित्य दो जमा दो के जोड़ का गणित नहीं जिसकी चार में इति-सिद्धि हो जाए; वह तीन या पांच या कुछ भी अलाय-बलाय करने की गुंजाइश चाहता है.
एक खास किस्म के भावनात्मक अतिक्रमण का तनाव ही तुम्हारे सर्जक का देय है. वह जैसे एक घुटा हुआ मनो-शल्य-चिकित्सक है जो तुम्हारे जैसे चरित्र की आत्मा को आहिस्ता, अलबत्ता शालीन सहजता से, उधेड़ता जाता है और जहाँ भी पाठक थोड़ी राहत की अपेक्षा करने लगता है, ऐन वहीं, वह उसमें एक ऐसा पेंच या कोण जड़ देता है जो कथा को न सिर्फ विस्तार देता है बल्कि अभी तक कही जा रही कथा को नए सिरे से देखे-सोचे जाने का कोतूहल भी जगा डालता है!
जिस सर्जक की बनत में बाल्जाक और दोस्तोएवस्की सरीखों की आत्मा डेरा डाले रहती हो, नीत्शे और गेटे साँसों में घुले रहते हों, स्टेंढिल और रोलां आवाजाही करते हो और जिस व्यक्ति के मन में फ्राइड का मनोविश्लेषण कोहराम मचाए रहता हो, वह अपने किरदार को और किस तरह सिरजता?
पाँच)
क्या तुम्हें मालूम है कि तुम्हारे सृजन के बाज लम्हों में तुम्हारा सर्जक किस तरह, ग़ालिबन अवचेतन में, अपने भविष्य को सृजित कर रहा था? तुम्हें शायद मालूम ना हो. याद करो जब तुम एडिथ के पास से सब कुछ ठीक-ठाक कर यानी उसके साथ सगाई स्वरूप उसकी अंगूठी पहनकर और उसके होठों पर चुंबन देकर जब तुम देर से लौटे. और फिर एक बार दोस्तों ने तुम्हें इस बाबत उड़ती खबर से तुम्हें कनफ्रंट किया कि क्या यह सच है?
तुममें साहस नहीं था. तुम फ़ौरन कायर-कछुआ बन गए और वास्तविकता से मुकर गए. लेकिन मुकरकर कहाँ जाते? तुम्हारा जमीर ही तुम्हारे गले पड़ गया.
तुम्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था; एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई थी. एक तरफ एडिथ को तुम्हारा दिया हुआ वादा था और दूसरी तरफ दोस्तों के बीच खुद किया इनकार! तुम्हें कोई रास्ता नहीं सूझा, और जो रास्ता सूझा वह क्या था? यह वही रास्ता था जो तुम्हारे सर्जक ने तुम्हारी निर्मिति के चार बरस बाद, जटिल होते अँधेरे के बीच, स्वयं अपनाया: ख़ुदकुशी का.
लेकिन यहाँ दिलचस्प बात ख़ुदकुशी करने की तैयारी को लेकर है. तुम हो या तुम्हारा सर्जक, दोनों पीछे छूट जाने वाली दुनिया के अपने तमाम मसलों को किस सफाई-सलीके से सुलझाकर जाना चाहते हैं, यह देखने वाली और अद्भुत बात है!
मम्मी-पापा से माफ़ी मांगता पत्र, दोस्तों को किंचित सूचनात्मक सा कुछ, कपड़े कहाँ जाएंगे, तुम्हारा घोड़ा/पैट कौन देखे-संभालेगा. बची अवधि का अग्रिम मकान-किराया अलग लिफ़ाफ़े में. एडिथ/फ्रेडरिक को भी अलग से ख़ास.
जाने से पहले दाढ़ी बनाई जाए, टाई भी मुनासिब लगे..
दुनिया से जाने का फैसला करने के बाद, किसे दुनिया की इतनी पड़ी रहती होगी?
वह दुनिया जिसका कुछ पलों के बाद तुमसे कोई वास्ता नहीं बचेगा!
यह क्या पहेली है? मानव स्वभाव का यह क्या रहस्य है? और क्या यह कम दिलचस्प बात है कि फ्रायड हो या दोस्तोएवस्की, नीत्शे हो या बालजाक, मानव स्वभाव के पुरातत्ववेत्ता और कोलंबस, तुम्हारे सर्जक की ही तरह स्वयं न जाने कितने रहस्यों के अंधे कुएं बने रहे और बने रहेंगे.
ग़ालिबन इसी में उनके सृजन की जड़ें पोशीदा रहती हों.
छह)
टोनी, तुम एक भयानक दो-कड़े के शिकार रहे. तुम्हारे भीतर एडिथ के प्रति दया थी लेकिन याद करो, डॉ. कोनडोर ने बहुत शुरू में ही तुम्हें ‘दया’ के दो प्रकारों का फ़र्क समझाया था.
पहली, एक कमजोर और भावुक किस्म की दया जो वास्तव में किसी अन्य की पस्त हालत को देख दिल में उपजी अधीरता से फटाफट निजात पाने की बेचैनी से अधिक कुछ नहीं होती है. यह करुणा न होकर एक इच्छा मात्र होती है. दूसरे की पीड़ा से अपनी आत्मा पर ढाल सा तान देने की.
इसके विपरीत एक दया और होती है- सच्ची, भावुकता-रहित ओर सकारात्मक. धैर्य और संयम में पगी. जैसे एक डॉक्टर की अपने मरीज के प्रति होती है.
क्या किया तुमने उस रौशन नसीहत का?
मुंडी तो खूब हिलाई मगर वही ढाक के तीन पात!
किसी ने कहा भी है कि दुनिया में सबसे ख़राब चीजें दुष्ट और क्रूर लोगों की वजह से नहीं, ग़ालिबन कमजोर लोगों के कारण होती हैं. एडिथ का एक दफा हाथ थामने के फैसले के बाद तुम मुकर गए और उस कस्बे से कूच कर गए. और फिर- खुदाया एक बार फिर, पता नहीं किस मिट्टी की गंध के वश, पुनर्वापसी की चाह में तपने भी लगे! मेरे मुल्क में, तुमसे कोई एक सदी पहले एक शायर हुए; मिर्ज़ा ग़ालिब. उनका एक शेर यूँ है:
की मिरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ूद पशेमां का पशेमां होना.
तुम्हारे चरित्र या उसकी बुनावट का न तो मैं यहाँ आकलन करने बैठा हूँ और न उसपर निर्णय देने. आखिर तुम्हारी चारित्रिक बुनावट तुम्हारे सर्जक का इख़्तियार है. संभवतः इस चारित्रिक बुनावट यानी व्यक्तित्व के भीतर बसे अनमनेपन में रंगे दो-कड़े के बहाने वह जैसे उन तमाम युवकों को शिल्पाकार दे रहा है जो जहाँ है उसके खिलाफ भी है; फौज में है लेकिन मन नहीं लगता, घर में है लेकिन घर का नहीं है, प्रेम कर नहीं सकते क्योंकि जीवन महत्वपूर्ण है, काम से खिन्न है क्योंकि वहाँ एक गुलामी झेलनी पड़ती है, संबंधों में नाखुश है क्योंकि वहाँ दूसरों की अपेक्षाएं आड़े आती हैं!
और इन सबका मेरे जाने एक सामाजिक और राजनीतिक आधार भी है. उपन्यास में तुम्हारा जन्म दूसरे विश्व-युद्ध से ठीक पहले हुआ, जब हिटलर जर्मनी के अगल-बगल के छोटे-छोटे मुल्कों, मसलन चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड, के कई हिस्सों को हड़पने लग गया था. तत्कालीन यूरोप के बड़े और विद्वान नेता- चेम्बरलिन, दलादे, लार्ड हेलीफेक्स, यह सोचते थे कि पहले विश्व-युद्ध के बाद जर्मनी ऐसा नहीं कर सकेगा.
मगर हिटलर उनकी नाक के नीचे और जैसा म्युनिख समझोते की आड़ में हुआ, न सिर्फ कर रहा था बल्कि क्रमशः बड़े पैमाने पर करता जा रहा था. यह राजनीतिक दृष्टि दोष इतना स्पष्ट और घातक था कि आम जनता, एडिथ की तरह, केवल उसकी एक मूक गवाह और शिकार बनी रह सकती थी. तुम्हारा सर्जक उस सारे प्रदूषण के बीचोबीच तुम्हें गढ़ रहा था. अपने बहुस्तरीय निजी झमेलों के साथ-साथ. एडिथ के प्रति तुम्हारी ‘कभी हाँ कभी ना’ वस्तुतः युद्ध और शांति के संबंधों के उस कालखंड का रूपक है जिसके भयानक अंतर विरोधों की तुम उपज हो.
अच्छा इंसान मानते हुए भी मैं तुमसे दया नहीं करता. एक भले मनुष्य के वेश में तुम अपने समय के वो पात्र रहे जिसके बहाने मैं तुम्हारे देश-काल को देखता हूँ. उपन्यास के अंत में तुम यह कहकर संगीतकार ग्लूक की सिम्फनी ‘ओरफी’ की प्रस्तुति को अधूरा छोड़कर दबे पाँव निकल जाते हो क्योंकि तुम्हारे बगल में डॉ. कोनडोर अपनी नाबीना पत्नी के साथ आ बैठे थे और तुम्हारे भीतर उनके सामने पड़ने की इसलिए हिम्मत नहीं थी क्योंकि अब केवल वही बचे थे जो जानते थे कि तुम एक मासूम जीवन के अपराधी हो. तुमने अपनी अन्तर-आत्मा का हवाला दिया. तुम भूल गए कि कोई पाठक इस भ्रम को चीरकर तुम्हारे सर्जक से सवाल करेगा कि निर्णय-दुर्बलता किसी भाषा में अन्तर-आत्मा का पर्यायवाची नहीं हुई है! हाँ, मनुष्य निर्णय-दुर्बल होते हैं और कला-सृजन की भूमि में उनकी भरपूर उपस्थिति संभव है क्योंकि कला मूल्य-सापेक्ष नहीं होती है.
सात)
एडिथ से सन 1913-14 के दौरान दर्शाया तुम्हारा सम्बंध प्रकारांतर से उस समय का भी रूपक है जब एक तरह से मनुष्य की मासूमियत का अंत हो गया. वह युग चालबाजियों और फरेबों का नहीं था. वह बहुत महत्वाकांक्षाओं का युग भी उतना नहीं था. उस युग में मध्यवर्गीय सुरक्षाओं का बोलबाला था. दादा खरीदे पोता बरते वाला काल. इसलिए मनुष्य अपने आसपास और अपने आगत मात्र की ही सोचता था. और क्यों न हो, सदियों से यह मनुष्यगत सच चला भी आ रहा था.
लेकिन महायुद्ध ने उसे बेदखल कर दिया. और हमेशा के लिए. महायुद्ध (पहला) हुआ ही क्यों था? उसकी कोई बड़ी वजह नहीं रही थी. लोगों को लगता भी नहीं था कि एक ऐय्याश अपढ़ से राजकुमार की हत्या कोई ऐसी बात है कि साम्राज्य एक स्वतन्त्र मुल्क- सर्बिया पर हमला बोल दे. होते-होते जर्मनी ने रूस और बेल्जियम पर हमला बोल दिया. इसलिए मैं कह रहा हूँ कि यह उस मासूमियत के दौर का अंत था.
तुम्हारे सर्जक ने तुम्हारे बहाने एक तरह से- एडिथ की मार्फ़त इसे अंजाम दिया. मुमकिन है तुम्हारा सर्जक तुम्हारे और एडिथ के बहाने उस समय की जिओ-पॉलिटिक्स जिसमें वह खुद को गले तक फंसा महसूस कर रहा था, का रूपक गढ़ने का प्रयास कर रहा हो कि मासूमियत से भरी इंसानियत के साथ किस तरह फ़रेब होता है.
मैं सोचता हूँ इसीलिए सन 1937-38 में, एक परदेसी ज़मीन पर अपना पहला उपन्यास लिखते हुए तुम्हारा सर्जक, पहले विश्वयुद्ध के उस समय में लौट रहा है जिसने वैश्विक स्तर पर पहली बार मासूमियत के साथ सामूहिक छल होते देखा था और जिसका मवाद अभी तक उसके भीतर भरा था.
मनोवैज्ञानिक या फिलोसॉफिकल नजर से देखें तो मैं सोचता हूँ जिस तरह उपन्यास में तुम्हारा जीवन आया है, वह यह भी बताता है कि ज़िंदगी हमें मौके देती है लेकिन असीमित तो हर्गिज नहीं. ज़िंदगी हमें एक से अधिक मौके भी देती है लेकिन यदि बार-बार आप उन्हें जाने देंगे तो फिर वह अपनी तरह से आगे बढ़ती है, और बाजदफा इंतकाम लेती है. उसके बाद आजीवन प्रायश्चित के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं रह जाता हो. आप गाते रहिए अपनी आत्मा-अंतरात्मा का राग; उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है.
मासूमियत के साथ किए जाने वाले छल की बात हमें तुम्हारे सर्जक की अनेक रचनाओं में मिलती है जिसमें तुमसे मैं सिर्फ एक का जिक्र यहाँ करूंगा. एक अपेक्षाकृत छोटी कहानी ‘अदृश्य संग्रह’ का. यह युद्धोपरांत समय के उस जर्मन प्रान्त की कथा रचती जहाँ तबाही के बाद महंगाई आसमान छू गई थी. कहते हैं कि बोरे भरकर नोट लेकर निकलते और जेब भरने जितना सामान ला पाते. ‘अदृश्य संग्रह’ के संग्रहकर्ता बूढ़े को आजीवन संग्रह किए रेखांकनों और चित्रों की अपनी संपदा पर बहुत जायज़ किस्म का गर्व है.
मगर होता यह है कि महंगाई की मार झेलते उसके परिवार ने धीरे-धीरे संग्रह की चीजों को बेच दिया है और उनकी जगह ख़ाली चौखटे रख दिए गए हैं. उस संग्राहक से जब कोई मित्र मिलने आता है तो वह उसी पुरानी मासूमियत के साथ संग्रह की एक-एक चीज के बारे में बताता जाता है, किसे कब, कैसे और कहाँ से हासिल किया जबकि वह संपदा वहाँ से कब की गायब हो चुकी है! युद्ध से पहले की मासूमियत के जैसे तुम प्रतीक बने हो, युद्ध के बाद वैसे ही तो वह अंधा संग्राहक बनने को अभिशप्त है!
इस दुनियावी छल-छद्म को साहित्य नहीं रोक सकता है, कलाएं उन पर लगाम नहीं लगा सकती हैं. लेकिन हाँ , उन सबकी तरफ संकेत अवश्य कर सकती हैं जो तुम्हारे सर्जक द्वारा किया गया है. कला का शायद यही समुचित प्रतिरोध- या अपने होने का कारण- होता हो!

पुनश्च
यह देखना भी रोचक है कि तुम अपनी फ़ितरत में अपने सर्जक से कितना मिलते या अलग पड़ते हो. तुम्हें गढ़ते समय उसने बेशक अपने से अलहदा किरदार गढ़ने की आजमाइश की है. कहाँ तुम देह-यष्टि में इतने छरहरे ऊर्जावान और कहाँ वह हमेशा का एक कामचलाऊ सा व्यक्ति, कहाँ तुम घंटों घुड़सवारी में रमने-बसने वाले फौजी और कहाँ वह इस सबको दूर से सलाम करके घर बैठने वाला शहरी, कहाँ तुम अपनी नौकरी के ग़ुलाम और कहाँ वह सदा से हर किसी बंधन को धता बताने वाला उन्मुक्त जीव, तुम किताबों के परहेजी और वह दुनिया के एक से एक उस्ताद को दिन-रात पढ़ने का जुनूनी. या इसी तरह का और भी कुछ.
उसने चाहा भले न हो मगर फिर भी तुम्हारी तबीयत में उसके अंश-अक्स आ ही गए हैं. कलागत रचाव का शैतान हरदम अपने सर्जक के वश में रहता भी कहाँ है! उसके उचाट मनमानेपन की अपनी व्याकरण होती होगी. ख़ुदकुशी की तैयारी में अपनाए समानांतर सलीकों की बात मैं ऊपर कर चुका हूँ. अरे प्यारे सुनो, तुम्हारा नाम- एंटन, कैसे आन पड़ा? यह जर्मन प्रान्त में कहाँ और कितना दिखता है? क्या तुमने कभी सोचा? इसे देकर तुम्हारा सर्जक कहानी विधा के अपने पसंदीदा रूसी उस्ताद को चुपके से अपनी कलात्मक सलामी ही तो दे रहा है! तुम्हारे भीतर आर्थिक मामलों में स्वायत्तता और खुद्दारी में मुझे तुम्हारे सर्जक का भरपूर बिम्ब दिखता है. याद है जब डॉक्टरी सलाह पर एडिथ को स्वास्थ्य लाभ के लिहाज़ से एंगाडिन (स्विट्जरलैंड) में कुछ हफ्ते गुजारने के प्रस्ताव पर चर्चा हो रही थी और वह चाहती थी कि तुम भी उसके साथ चलो. लेकिन तुमने कहा कि वहाँ जाने का खर्चा तुम वहन नहीं कर सकोगे क्योंकि वह तुम्हारी हैसियत से कहीं परे बैठेगा.
वह गुहार करने लगी तो तुमने एक सैनिक की ज़िंदगी की माली-मुश्किलों का बारीक-बयाँ कर डाला, युद्ध के बरक्स उनके नारकीय जीवन का चित्र उकेर दिया. इसपर एडिथ ने जब तुम्हें वहाँ बा- इज़्ज़त बतौर मेहमान अपने पापा के खर्चे पर ले चलने की बात की तो तुम अपने मिज़ाज के परे जाकर उखड़ गए: कोई तुम्हारे ऊपर खर्च करे या तुम किसी से आर्थिक या कोई फेवर लो, यह तुम्हें कदापि स्वीकार नहीं हो सकता था, भले वह स्नेहवश किया गया हो. और तुम वहाँ जाने के लिए राजी नहीं ही हुए जबकि तुम्हारा इतना कुछ दांव पर लगा था.
यह तुम्हारे भीतर पसरी सर्जक की आत्मा थी जिसकी शब्दावली से ‘प्लीज’ और ‘थैंक यू’ नदारद रहे. तुम्हारी पैदाइश के बाद आई उसकी आत्मकथा तुम ज़रूर पढ़ना और देखना कि खुद को किरदार बनाते वक्त तुम्हारे सर्जक ने खुद से कैसी दिलकश बेमुरव्वती बरती है.
(यह आलेख आमिर हमज़ा द्वारा आने वाली संपादित पुस्तक ‘नूह का कबूतर’ में शामिल रहेगा.)
![]() ११ जनवरी १९६३ बुलन्दशहर (उ.प्र.) एम. ए., एम. फिल (अर्थशास्त्र)भविष्यदृष्टा’, ‘कारोबार’ और ‘दुश्मन मेमना’ कहानी संग्रह तथा स्टीफ़न स्वाइग की आत्मकथा और उनकी कहानियों के हिन्दी अनुवाद आदि प्रकाशित. विजय वर्मा, इफको सम्मान, रमाकांत स्मृति कथा सम्मान, स्पंदन कथा सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान आदि से सम्मानित. मुंबई में रहते हैं. |
ओमा जी ने जिस शिद्दत से स्वाइग को पढ़ा, समझा और हिन्दी पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है, अपने अनुवादों के माध्यम से हिंदी को समृद्ध किया है, वह तारीफ़ के काबिल है।
Beware of pity मेरे पसंदीदा उपन्यासों में से एक है और उसके दो हिंदी अनुवाद क्रमशः पढ़े थे। अंग्रेजी में पढ़ने की इच्छा फिर भी बनी हुई है।
इस उपन्यास के बहाने यह साहित्यिक प्रयोग बहुत रोचक है जो पाठक को स्वाइग की दुनिया से परिचित कराता है और contextually बहुत रिच है।
पत्र की शैली में आत्मीयता की कमी महसूस हुई। इसमें पत्र की शैली के निजीपन पर उन्हें और मेहनत करनी चाहिए थी… यह उनके वश में था।
रोचक है यह खत। बहुत संभावनाएं खुलती है किसी भी लेखक के लिए किसी प्रिय किरदार से इतना गहन संवाद बनाने की।
यह नावेल हिंदी में छप चुका है। stefan zweig इस समय भी बहुत पढ़े जाते हैं, ऐसा मुझे लगता है। जो उनके लेखन से परिचित नहीं है उसे खोजकर उनकी कहानियों, उनके अद्भुत संस्मरण THE WORLD OF YESTERDAY को भी अवश्य पढ़ना चाहिए।
ओमा शर्मा की यह तहरीर ऐसी है कि नावेल से अपरिचय के बावजूद भी पढ़ी जा सकती है।
पत्र लिखना/पढ़ना दोनो मेरे प्रिय शगल रहे हैं! आजकल कोई कहां लिखता है. ऐसे में अपने प्रिय क़िरदार को पत्र लिखना! एक शानदार विधा बन गई अपने आपमें. पढ़ते हुए मैं समानांतर सपनों में विचरने लगी! मैं अपने किन प्रिय किरदारों से संवाद करूंगी, उन्हें पत्र लिखूंगी? शायद अन्ना करनीना को, वेरा को, पॉवेल को, भारत में श्रीकांत को, होरी को, बकुल को, या फिर कृष्णकली को, अंगूरी को इसको, उसको, बहुत ढेर सारे लोगों को. शुक्रिया ओमा जी मेरी कल्पनाओं को पंख देने के लिए!