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Home » भीष्म : आशीष बिहानी की लम्बी कविता

भीष्म : आशीष बिहानी की लम्बी कविता

आशीष बिहानी 'कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र', हैदराबाद में शोधार्थी हैं. प्रस्तुत है उनकी लम्बी कविता भीष्म.

by arun dev
August 19, 2019
in कविता
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भीष्म : आशीष बिहानी की लम्बी कविता

चित्र द्वारा: सुदीप्तो मंडल

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भीष्म
आशीष बिहानी

पूर्वार्द्ध

१.

किसी पेड़ के कोटर में झांकोगे
तो उसकी कालिख घिरी आँखों से ज़्यादा
जीवन वहाँ मिल जाएगा

उसके कानों ने दुनिया को सुनना
बंद कर दिया है
वो सुनता रहता है देशकाल
के बाशिंदों
को चिल्लाते हुए
वो शब्द जिन्हें वे नहीं समझते
और नहीं समझाना चाहते

हवा को चखता सिर्फ़
बेजान खुले मुँह से
सूंघता सवेरे की धुंध
जिसमें मिली है
विश्व के सारे युद्धों के बमों की गंध
और रेडियोएक्टिव विकिरण
वो छूता है सितारों की सतहों को
कोमलता से

सर्काडियन रिदम से उसके मस्तिष्क का
कोई लेना देना नहीं

 

२.

सेटेलाईट की तरह तैरता
अपने शरीर के इर्दगिर्द
वो देखता है जीवन के कंगूरों को
इतिहासकारों-दार्शनिकों-समाजशास्त्रियों का
पोसा-परोसा झूठ उसके मतलब का नहीं
वो जानता है कि अगर
एक धमाके से ये सब नष्ट हो जाए
तो इसकी जगह पर
देखने को होगा कुछ इतना ही नायाब

उसके आस-पास से लोग
अपने कुत्ते और प्रेमिकाएँ लेकर निकलते हैं
उनके लिए देशी-विदेशी पेड़ों और
कलाकृतियों की क़तार में
वह भी एक लगभग दर्शनीय नमूना है

 

३.

भयंकर हलचल उसके मस्तिष्क में
तुम सुन सकते हो
इलेक्ट्रिक डिस्चार्ज की आवाज़
उसके बगल में बैठने पर

आस-पास खेलते बच्चों को
उसे कोई क़िस्से नहीं कहने
किसी की खिलखिलाहट के बलों से उसका कोई वास्ता नहीं
वो लगातार प्रोसेस करता है डेटा
और परिणामों को
प्लग कर देता है किसी और प्रोग्राम में

ब्रह्माण्ड के किसी कोने से धुआं उठता है
तो वो करवा देता है चंद कल्पों में ही
वहाँ मुसलाधार बारिश

हर परमाणु उसका एबेकस है
हर क्वांटम उसका स्टोरेज है

 

४.

उसकी छड़ी एक दमकता हुआ
पोर्टेबल न्युक्लिअर फ्यूज़न रीएक्टर है
जिसकी तरफ भागते आते हैं पतंगे
और स्क्रंSSSSSSSSच करके वाष्पित हो जाते हैं

लोग कौतूहल से देखते हैं उसकी ओर
कई नौसीखिए
कोशिश करते हैं वैसा ही दीखने की
पर शाम घिरते घिरते उन्हें
घर को लौटना पड़ता है

वो विचार करते हैं कि कहीं एक घर होगा उसका
भीगी ठंड में कोई औरत लालटेन लिए
देहरी पर बैठी होगी
एक दरवाज़ा होगा
लालटेन नहाई लकड़ी के पीछे
कहीं तो बंधी होगी इस वट की
दाढ़ी
कहीं तो होगा हेडक्वार्टर
इतनी सारी प्रोसेसिंग पॉवर का
कभी तो उसके फुसफुसाते पुर्जे रुकेंगे
असिमोव की कहानी के कंप्यूटर की तरह वो कहेगा
““देयर इज़ एज़ येट इनसफिशिएंट डेटा
फॉर अ मीनिंगफुल आंसर”

 

उत्तरार्द्ध

 

१.

देखने में वो किसी पिल्ले सा निरीह भी लगता है
उसके ज़ेहन में लावारिस तैरते
मिसाइलों के काम लिए हुए कोड
हैक किये हुए दिमाग़ों की बची खुची मेमोरीज़
जले हुए गांवों की
निर्जन शांति

एक दिन इंसान समझ कर
उसका शिकार करेंगे जानवर
उसके मर्तबान की चिन्दियाँ करके
खाने लायक कुछ न पाएंगे
पतझड़ के भुरभुरेपन में उसका शरीर
दिखेगा किसी इमारत की खिड़की से
धरती पर दाग़ सा

उसके मंसूबे बिछे होंगे धरती पर खुले में
फिर भी किसी को दिखाई नहीं देंगे
उसकी लगाई आग जलती रहेगी
उसका दिमाग डाउनलोड करके
किसी और शरीर में
बढाया जाएगा तमाशा अपने पूर्व-निर्धारित रस्ते पर
आगे

 

२.

पहचान का कण
गिरता है
पहचानों की एक भीड़ पर
और उसका पहचान होना बंद हो जाता है
सैकड़ों अनकुचली परतों के अगुड़े-दिगुड़े विन्यास में
उनका भी व्यक्तिगत
और नगण्य योगदान है

किसी येति के कदमों तले उनका सामूहिक कुरकुरा प्रतिरोध
भुला दिया जायेगा कुछ क्षणों में
बूर दिया जायेगा
नयी नैसर्गिक परतों में
वो उम्मीद कर सकते हैं
कि किसी और एपोक़ में कोई खोदे उन्हें
पाए एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम
किलकारियों के कोरस में अकेली, असंपृक्त आवाज़ें
माचिस की डिबिया सी इमारत
की एक खिड़की से झांकता
एक अस्तित्व उनका भी
जिसको घड़ते वक़्त उनको बताया गया
कि वो नायाब होगा
अपनी तरह का अकेला
हिम का एक षट्कोणीय शल्क

 

३.

उनको चाहिए यज्ञ, उनको चाहिए आवाहन
निरुद्देश्य शून्य में किसी झंकार की तरह
क्षीण होते अनंत तक
वो ही रह सकते हैं
विरासतों के प्रवाहों में जीवित

फिर भी वो लिखते हैं ऐसे प्रोग्राम
जिन्हें समाधान या समाधान के अभाव पर पहुंचकर बंद हो जाना होता है
भंगूर कलाकृतियों के विपुल संग्रहालय
अधपके ज्ञान के सहारे लटके रिश्ते
अदूरदर्शी महत्वाकांक्षाएँ

चाहकर आनुवांशिकीय अमरत्व भी
वो बात करते हैं कुछ क्षणों में शोर बन जाने वाले संकेतों में
ताकि बची रहे एंट्रोपी
नया कचकड़ा बनाने को
आईने, ख़ुद को देखने को
घड़ने को संगमरमर

वो बचाकर रखते हैं आधा
अगले क्षण के लिए

 

४.

युग हुए इस उद्यान में बैठे-बैठे
उनके झूठ, उनके सच
उगलते-निगलते उसे हो गयी शताब्दियाँ
जनसँख्या बढ़ती गयी
व्यक्ति का क़द घटता गया

पर उनके होने का कुल जमा स्कोर उसे पता है
मुश्किल है तो समय के विशाल, धीमे, और धीमे होते डग
स्थानीय परिवर्तनों के ढिंढोरे
यदा-कदा तितलियों के पंख फड़फड़ाने के सिवाय
ब्रह्माण्ड के कथानक में
अर्थहीन

अगर कहीं कोई ईश्वर होता
तो यह सब ख़त्म कर दिया जाता
एक लम्बी अज़ान के बाद
लीवर खींच दिया जाता
आरोह-अवरोह झिलमिलाते रहते
बिना द्रव्यमान के
अवशेषों को भेज दिया जाता एक लिफ़ाफ़े में
किसी प्रयोगशाला को

 

५.

ब्रह्ममुहूर्त के अनुष्ठानों के धुंए से लदी
ठिठुरन में जमा वो देखता है सूरज को उगते हुए
भंवर के साथ मंत्रोच्चार और मृदंगों की तड़तड़ गूँज भी पिघलती है
छायाएं छोटी हो जातीं हैं
इंसानों की दैनिक गतिविधि की आवाज़ें ढक लेतीं हैं
पानी की बूंदों का स्टील पर गिरना
शलभ की कुटर-कुटर
दूर किसी गाय का दीर्घ निश्वास

अलसाई धूप के आलोक में
मवेशी इतस्ततः घूमते हैं निर्व्याज
बिना दिशा के, बिना किसी लक्ष्य पर पहुंचे
उद्यान में लोग चक्कर लगाते हैं
अतिरिक्त ऊर्जा नष्ट करने को

वो उठता है उसके जोड़ रिरियाते हैं जंग के मारे
अपनी छड़ी को वो देखता है ग़ौर से अंतिम बार
और घुटने के दम से तोड़ देता है
बेजान होकर गिर पड़ता है
ओस भीगी तृण को कुचलते हुए

एक घरघराहट बंद होती है
एक घरघराहट शुरू होती है

बैकअप, डेटा ट्रान्सफर
रीइंस्टाल, रीकॉन्फ़िगर, रीबूट. 

आशीष बिहानी 

जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थी, कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद

कविता संग्रह: “अन्धकार के धागे” 2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmailcom

 

Tags: आशीष बिहानीलंबी कविताविज्ञान
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