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Home » बीज : आशीष बिहानी

बीज : आशीष बिहानी

बत्तीस वर्षीय आशीष बिहानी मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान (कनाडा) में शोधार्थी हैं. वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य की उनकी दो लम्बी कविताएँ ‘भीष्म’ और ‘मिटना’ आप पहले भी पढ़ चुके हैं. ‘बीज’ कविता जीवन-चक्र और उसके तन्त्र पर केन्द्रित है. कविता विषय का साथ देने की कोशिश करती दिखती है. यही आशीष बिहानी की कुशलता है. कविता प्रस्तुत है.

by arun dev
May 2, 2024
in कविता
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बीज : आशीष बिहानी
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बीज
आशीष बिहानी

 

इंसान उगते पेड़ों पर
कहीं एक पैर कहीं एक आंख
तर्जनी की पहली हड्डी कहीं
स्तन टखने वृषण
मटर के दाने जितनी एक ग्रंथि
बेर की तरह लगती
उसी पेड़ पर

पत्तियों के झुरमुट में से लाल पके
अंग दिखाई देते दूर से
कोई नहीं जानता कि गीड जितने छोटे
बीज से इतना बड़ा पेड़
और इतने भांति के फल कैसे बनते हैं
बादाम से सख्त पारदर्शी खोल में रक्त रस रंगे
मांसल स्थापत्य

कोई मशीन कोई कंप्यूटर कोई कलाकार
इतने महीन धागे से नहीं बुनता
मलमल
बारीक नक्काशी
नुमाइश और सजावट के लिए नहीं सिर्फ

 

२.

ज़ोर से चलते बवंडर
बारिशें पत्तियाँ धोकर कर देतीं उन्हें एकदम नया
पत्थर टकराते
डंठल से खोल से
तड़-तड़-छपाक करके पूरा धरातल
ढक जाता है
ललाई से उभाड़ों से पटा
जैसे पृथ्वी ही एक विशाल जीव हो

चींटियों और दीमकों की लम्बी लम्बी कतारें
ढोतीं सब कुछ अपने पातालभेदी
वृक्षाकर त्रिविमीय नगर में
महामार्ग गलियाँ चौबारे कक्ष
हर कक्ष में होती क़तरब्योंत
काईटिन के औज़ारों से प्रूफरीडिंग
संभले गिने-सधे रद्दे

हर पेड़ की जड़ों में व्यस्त
शिल्पकारों की एक अक्षौहिणी सेना

 

३.

जैसे सुथार के घड़े खांचे-पच्चर
फिट होते हैं जोड़े में
वैसे ही एक अंग का एक हिस्सा
दूसरे किसी निश्चित अंग पर फिसलता चलता है
एक पल और फिर
कट्ट-से फिट हो जाता है

जोड़ा जाता है हर फल
हर अंग
कवक और बैक्टीरिया से लदी फोटोसिंथेटिक चद्दर
उम्रदराज़ चर्मकारों की टीम ओढ़ाती है
रिक-रिक-रिक
कई सौ टाँके लगाकर
फाइनल प्रोडक्ट ताबूतनशीं आख़िरी कक्ष की आख़िरी दीवार में
बने खांचे में सरका दिया जाता है

कई सौ मानवोइड खाद बनें तो
कई दिनों बाद धूल और कालिमा से लदा एक
धरती फाड़ कर निकलता है
कुछ देर स्तब्ध सा धूप में खड़ा हो इधर उधर देखता है
अपने पहले शब्द पेड़ के कोटर में बुदबुदाता है और
अपने पहले मल से कोटर को सील कर देता है

 

४.

हवाएँ उनकी हरी-नीली चमड़ी पर
भूरे-भूरे आखर उकेरतीं हैं
जैसे पूरी दुनिया में तैर रहीं हैं अनगिनत अध्याय लिखती
अनगिनत कलमें
पर वो इबारतें दृष्टिगोचर होती हैं बस यहीं
इस कृत्रिम चर्म पर

वो अचंभित से देखते
ऐंठते से उठे नभ की ओर बाहें फैलाए
बे-पत्ते निर्फल ठूंठ
किसी किसी के तने पर एक सूखे मल
से बंद कोटर भी दिख जाता है
जिससे एक आवाज़ एक कंपन के आने का वहम होता हैं
उनकी हड्डियों में एक झुरझुरी सी दौड़ती है
जमीन पर गलती हुई पत्तियां एक लाल सा कीचड़
उस भुरभुरेपन में वो बढ़ाते पैर
उनके अंगों के सामान्य कार्यक्रम से अलग
शरीर में बहता एक वार्तालाप

पहली बार उन्हें महसूस होता है कुछ
भय.
शुरुआत पर ही उन्हें अंत पुकारता है
मृत्यु पुकारती है
और उनके मस्तिष्क में एक घड़ी चल पड़ती है
किसी अंधे घड़ीसाज की बनाई

 

५.

बीहड़ जंगलों और पथरीली वादियों से निकल कर
नवजात अधेड़
उतरते हैं मैदानों में छाती तक ऊंची घास के बीच
वो देखते हैं अन्य राहगीरों को
दोपाए सब
एक क्षण के लिए होती प्रतीति
आईनों से घड़ी एक भूलभुलैया की

पर नहीं
कई लिंग रंग ढंग
नर-वानर-किन्नर
ऊभे या उकडू होकर चलते
चिम्पाजी-ओरांगुटान-नाहर-भालू
सब फटी आँखों से देखते भीति भरे

एक बार फिर उनके शब्द उनके कंठ तक आते हैं
वे बुदबुदाते है कुछ चरण अपनी चमड़ी से पढ़
कि हज़ारों भिन्न-भिन्न भुनभुनाहटों के बीच
मुक्त छंद सी
बेतुकी बहकी बेहूदी बातों में
शायद उन्हें सुनाई दे कविता

 

चित्र द्वारा: सुदीप्तो मंडल

६.

नदियों के किनारों पर हुजूम बने
भीड़ों में छोटे छोटे कई जमघट
और कई भीड़ों के फैले हुए गुच्छे
और एक अनंत शोर
एक अनहद नाद
कुछ लाख घंटे-ढ़ोल-नगाड़े भी जिस बीच
न सुनाई देते

बहाव के किनारे चलते चलते
उन्होंने कुछ सुनने की कोशिश की
कुछ जो धीमा करदे उनकी घड़ी को
कुछ और लम्बे लम्बे पल
मुट्ठी बंद कर वो पकड़ कर रखें
ठंडी हवा और अलाव की गर्मी मिल कर उनके चेहरे
को गुदगुदाए
आवाजों के समंदर में वो यत्र तत्र मछलियाँ पकड़ें
अठखेलियाँ देखें अलमस्त
सूर्यास्त की बदली भरी उँगलियों में वो नाचते से चलें सूर्य से दूर
नारंगी-बैंगनी झिलमिल को पानी में झुके पेड़ चूमें
कंकरीली धरती एक मीठी सी चुभन पैदा करे
उनकी एड़ियों में

उन्हें महसूस होता है
कि कोई नियम कोई कानून उन्होंने तोड़ दिए हैं
अँधेरे जंगलों को
पपडियाते मल को
अपघटित होते अधपके मानवकार शव जो कभी न जिए
पीछे छोड़ तमाम बाधाएं
वो यहाँ हैं
सो उनका होना ही एक क्रांति है
एक आवाज़ जो उनको बुलाती है
एक रोज़ उस आवाज़ के दरवाज़े पर
देंगे दस्तक

 

७.

जिस आवाज़ को वो ढूंढ रहे थे
हर ओर
वो कबकी उनसे होकर निकल चुकी
मस्तिष्क की घड़ी को जैसे झटका सा लगा
सब एक दूसरे की ओर देखकर मुसकुराए अचानक
मुँह से निकलता हर शब्द
जीभ पर कई मण भारी
उनकी पलकों पर अंगद सा पैर रख
बैठा भय
ताकने को वे ऐसी दिशा ढूंढते हैं जहाँ कोई ऑंखें उन्हें नज़र न आयें
गुच्छे-गुच्छे मानावोइड तब खोने लगे
अंगों का तारतम्य
खर्र खर्र करते उनके पुर्जे चले
उनकी इच्छा के विरुद्ध

कहीं कोई कोटर कंपकंपाए
पट्ट से फट पड़े
कोटर की ब्लैक बॉडी में फंसे शब्द
हतभाग विवश ह्रदयों की हूकें
अग्निसूचक अलार्म सी ट्रैफिक-वेधी चिल्लपों

जंगलों से कराहें झुण्ड़ बनाकर
आसमान की ओर चलीं
समवेत

प्रकृति का कैसा गाढ़ा अशोक रुदन!

चमगादड़ अपनी गुफाओं को लौट गए
चींटियों ने अपने दरवाज़े बंद कर लिए
परेड तीनों तीन कॉलम में आगे बढ़!

क्षितिज अटा है ख़ुद से हारे सैनिकों से
जो नाचने को हाथ चलाए चाहते हैं
गाने को मुँह खोला किया करते हैं
पर वो बस हक्के बक्के से अपने हाथों पैरों पुर्जों को
चलता देख रहे हैं
अगर वो रोबोट होते तो कोई कहीं उनका रिमोट लेकर बैठा होता
कम से कम
कोई समदर्शी चला रहा होता जीवन का चक्र
नाच नहीं तो टूट तो सकते वो

दुश्मन होता कोई तो लड़ सकते थे वो

 

८.

युद्ध करना
एक उबलता नारा कह कर मर कट जाना
क्रांतिकारी होकर जीना
हर दिन एक नन्ही सी कुटिलता को
कुचल डालना
नाच का रस
वीर से वीभत्स हो जाना

कोई गहरा सोता जिसे हांकने की कोशिश व्यर्थ हुई सदा
एक याद गोदी हुई अस्तित्व के रेशे में
आकाशमार्ग में तैरती कराहें उससे बनीं है
पपडियाते मल का यथासमय फटना उससे बना है
ह्रदय में भय आँखों में नींद दरवाजे पर दस्तक
उसका झिलमिलाता प्रतिबिम्ब है

वो सुनता अपनी चमड़ी के
चमकते सुफैद हर्फों को
और उसके हाथ स्वतः उठ आते एक्शन मोड़ में
उसकी आँखों से आंसू ढुलकते
उसकी भृकुटियाँ तन जातीं
वो अपने मुँह खोलता है जितना बड़ा वो खोल सकता हैं
लार की सलाख़ों के बीच से एक दहाड़ उबलती है
वो गोता लगाता हैं
मंथर अवसाद लदे प्रवाह में
एक पंक्ति में चलते हुए

 

९.

मंथर प्रवाह में पिता की सी शक्ति होती है
उसे नहीं ज़रूरत मचलते बालक को
झिड़कने-झटकने-पटकने की
बस अपार बल का एक हाथ फेरना है पर्याप्त

दरिया के तल पर एक गह्वर
आमंत्रित करता
अभिमंत्रित इंद्रजाल में बंधे इबारतों की घचर-मचर से आच्छादित
शरीरों को
कई सहस्र घबराए
एक गोते के गोताखोर
उसमें प्रवेश करते हैं

पिता का सहलाया स्पर्श
जंगलों – पहाड़ों से इकट्ठा किया गया अवसाद
कर गया गह्वर को बंद

पंक्ति में बचे कुछ सौ जीव तन्द्रा में ही देखते हैं
अविश्वास से
जैसे टोल्कीन का लिखा कुछ घट रहा हो

जैसे कोई गर्भनाल काट दी गयी हो
हुआ हो किसी विशाल घंटे पर एक सधा वार
और वो बे-आवाज़ धूल-धूसरित हो गया हो
उन्हें कह दिया गया हो तितर बितर होने को
बगैर किसी युद्ध के
कोई भूकम्प नहीं आया कोई ज्वालामुखी नहीं फटा
नदी ने अपना रास्ता नहीं बदला किसी और जमीन को सींचने को
कालचक्र बस अपनी जगह पर बैठ कर
घर्राता रहा

 

१०.

फटी आँखों से बहती रही
एक नदी में समा जाने की ज़रूरत
लार की सलाखें पिघलकर
जमींदोज़ हो गयीं
कांपते कदम लौटने लगे उन वादियों को
घूम चले फर अयाल चर्म
उनके किसी भय ने उनको ये नहीं बताया था कभी
कि आगे बढ़ने के लिए अपने कदमों का इतिहास
फिर नापना होगा

क्षत-विक्षत किसी महायुद्ध के अधमरे
वो लौटे
अपने ठूंठ हुए मातृ-तरु को

उसकी गोद में उन्होंने इतने जोर से सर पटका
खील-खील हो बिखर गया
प्रकृति की बनायीं सीट सा उनका धड़
तम्बू सा तना
उसपर कवकों दीमकों चींटियों की सेनाएं पुनः काम करतीं हैं
कुछ समय गुजरेगा
और एक कोपल फूटेगी
बारिश होगी
फल फूल सजेंगे

तब तक सोएंगे कई कुम्भकर्ण
पर्वतों कंदराओं घास के मैदानों में
उनके अन्दर की घड़ी रीसेट होने की
प्रतीक्षा करेगी

धरती के पेट की तरफ़ जाता कोई दरवाज़ा कहीं
तैयार किया जा रहा होगा
अभिमंत्रित हो रहे होंगे धूल कण
मशीनों के कान उमेठे जा रहें होंगे
तम्बुओं के नीचे कहीं
बीजों में ठूंसी जा रही होगी
एक अदम्य हिंसा.

 

कविताएँ : भीष्म और मिटना 

आशीष बिहानी ३२ वर्षीय राजस्थानी कवि और जीव विज्ञान के शोधकर्ता हैं. वर्तमान में वे मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान (कनाडा) में शोध कर रहे हैं. उनकी हिंदी और मारवाड़ी कविताएं देश विदेश की कई पत्रिकाओं में छपीं हैं. पिछले दिनों में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य से लंबी कविताऐं लिखने पर उनका विशेष ध्यान रहा है.

Tags: 20242024 कविताएँआशीष बिहानीवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य कि कविताएँ
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Comments 2

  1. संदीप नाईक says:
    1 year ago

    एक अलग मिजाज की कविता, बहुत बधाई आशीष
    संदीप नाईक

    Reply
  2. Bhupendra preet says:
    1 year ago

    बहूत अलग मीटर और विज़न की कविता, हर अंग में कविता पिरोये।

    Reply

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