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Home » के विरुद्ध : वागीश शुक्ल

के विरुद्ध : वागीश शुक्ल

रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत मूर्धन्य चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के जीवन और कला पर केंद्रित अखिलेश द्वारा लिखित जीवनी ‘के विरुद्ध’ सेतु द्वारा प्रकाशित की गई है. स्वामीनाथन की जीवनी का ‘के विरुद्ध’ शीर्षक इसलिए है कि बकौल अखिलेश– “स्वामी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि वे सबके विरुद्ध थे. यहाँ तक कि अपने विरुद्ध भी... यह पाठ स्वामी के बारे में होते हुए भी स्वामी ‘के विरुद्ध’ होता लग सकता है.” अखिलेश ने इसे प्रश्न-उत्तर शैली में लिखा है, जो इसे एक अनूठा स्वरूप देती है. इसकी चर्चा करते हुए विद्वान वागीश शुक्ल ने ठीक ही रेखांकित किया है कि यह स्वामीनाथन के प्रति हमारी जिज्ञासा को और भी प्रखर बनाती है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 20, 2025
in समीक्षा
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के विरुद्ध : वागीश शुक्ल
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अ-विरोध में ‘के विरुद्ध’

वागीश शुक्ल

 

आधुनिक भारतीय चित्रकर्म में स्वामीजी (स्वर्गीय श्री जगदीश स्वामीनाथन) कई अर्थों में अनूठे थे और कुछ देर से ही सही, उन पर हिन्दी में एक पुस्तक का उपलब्ध होना कलाप्रेमियों के लिए रिक्ति को उपस्थिति के चित्रलेखन से भरने जैसा सान्त्वनाप्रद है. इस सान्त्वना का भराव इसलिए और भी उजागर हुआ है कि इस जीवनी को अखिलेश ने लिखा है जो न केवल स्वयं एक ख्यातिलब्ध चित्रकार होने के नाते स्वामी जी की कला को ऐसे अनेक झरोखों से देख सकते हैं जो सामान्य जन के लिए बन्द हैं, अपितु जिनको स्वामी जी के साथ एक लम्बी नज़दीकी हासिल रही है जिसकी रहबासी दैनंदिन व्यवहार से लेकर कलावीथी तक फैली हुई है. यह पुस्तक स्वामी जी के देहान्त के पच्चीस वर्ष बाद आयी है किन्तु इन पच्चीस वर्षों में अखिलेश स्वामी जी की मौजूदगी से बाहर नहीं रहे हैं, अतः हमें किसी दूरी का अहसास नहीं होता.

जिस ‘नज़दीकी’ का मैंने अभी उल्लेख किया उसकी तपिश की पहुँच इस जीवनी के पाठकों तक बराबर मौजूद है और स्वामी जी की कई अन्यथा दुर्लभ अन्तरंगताओं में शामिल होने का अवसर देती है. हमें इसी पुस्तक से यह पता चलता है कि स्वामी जी की कोई ‘डायरी’ भी थी जिसमें वे कुछ अपने और दूसरों के मनपसन्द विचार, पसन्दीदा शेर आदि टाँक लेते थे और उससे कुछ अवतरण भी पढ़ने को मिल जाते हैं. चूँकि यह डायरी लेखक के पिता जी को स्वामी जी ने यूँ ही थमा दी थी और लेखक के घर से भी इसकी बरामदगी एक आकस्मिक संयोग ही है, इसलिए यह भी प्रकट है कि यह डायरी स्वामी जी ने ‘प्रकाशनार्थ’ नहीं लिखी और वे इसकी मौजूदगी की ओर से लापरवाह थे. किन्तु जिसे उनके जीवन और चिन्तन में दिलचस्पी है उसके लिए तो यह डायरी महत्वपूर्ण ही है. इस पुस्तक में लेखक ने स्वामी जी के साथ की कई बैठकों का भागीदार के रूप में जो हवाला दिया है उससे न केवल स्वामी जी का अपितु उस पूरे मित्र-मण्डल का सजीव स्वरूप सामने आता है जिससे विविध कलाक्षेत्रों में सक्रिय लोगों से बने इस मित्रमण्डल की सर्जनात्मक ऊर्जा की उष्णता हम तक सीधी पहुँचती है. इस समवेत की ऊर्जा से काट कर स्वामी जी की कला-साधना को ‘स्वायत्त’ देखना उस कला-साधना के प्रति अन्याय होगा.

जगदीश स्वामीनाथन की कृति : सौजन्य अखिलेश

 

2

इस पुस्तक को पारम्परिक अर्थों में एक ‘जीवनी’ मान कर पढ़ने में कुछ उम्मीदों को पूरे होने से कुछ पहले ही ठिठकना पड़ सकता है. उदाहरण के लिए पहले ही पृष्ठ पर बताया गया है कि स्वामी जी कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘मजदूर कथा’ लेकर गाँधी जी से मिले. अब अव्वल तो अन्यत्र इस पत्रिका का नाम ‘मजदूर आवाज’ मिलता है और दोयम, चूँकि गाँधी जी का देहान्त 30 जनवरी 1948 को हुआ है तथा स्वामी जी ने कम्युनिस्ट पार्टी 1948 में ही ज्वाइन की इसलिए पाठक की सहज जिज्ञासा हो सकती है कि क्या स्वामी जी पार्टी-सदस्यता ग्रहण करते ही गाँधी जी से मिलने चले गये- क्योंकि इस समय कम्युनिस्ट पार्टी का रुख गाँधी-नेहरू-कांग्रेस के सख्त खिलाफ़ था, यह याद रखने की बात है कि दिसम्बर 1947 में कम्युनिस्ट पार्टी यह घोषित कर चुकी थी कि भारत की आजादी झूठी है और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के ‘अपवित्र गठजोड़’ का परिणाम है तथा फरवरी 1948 में ही रणदिवे महासचिव बने हैं. ऐसी किसी भी जिज्ञासा से मुखातिब होना इस पुस्तक में जरूरी नहीं माना गया है.

इसी प्रकार अनेकत्र इस बात पर जोर दिया गया है कि स्वामी जी का जन्म ‘मिथुन राशि’ में हुआ था. स्वामी जी ने स्वयं जो कहा है वह यह है कि उनका जन्म मिथुन और कर्क की सन्धि में हुआ. उनके इस कथन का आधार उनके जन्म की तारीख 21 जून 1928 है जिस दिन पाश्चात्य ज्योतिष के अनुसार ‘मिथुन (gemini) का समापन और ‘कर्क (cancer) का प्रारम्भ है. अब यदि एक तमिल ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने जन्म की ज्योतिषीय गणना के लिए पाश्चात्य ज्योतिष की सहज उपलब्ध शब्दावली का सहारा ले रहा है तो इसके दो ही अर्थ सम्भव हैं- या तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार उसकी जन्मकुण्डली बनवायी नहीं गयी या फिर उसने अपने बयान में उसका तिरस्कार किया है. दोनों ही स्थितियों में स्वामी जी और ज्योतिष के सम्बन्ध पर विश्वास या अविश्वास की कोई रोशनी पड़ती है और उन्हें ‘मिथुन राशि का जातक’ बता कर जो फलित-ज्योतिषीय उड़ानें इस किताब में ली गयी है उनके खिलन्दड़ेपन की तह आँकने का अवसर हमें मिलता है. किन्तु इस पुस्तक से हमें यह भी पता नहीं चलता कि यह सूचना स्वामी जी की खुद दी हुई है- पाश्चात्य और भारतीय ज्योतिष के बीच के फर्क का तो जिक्र ही छोड़िए.

इसी प्रकार हमें यह बताया गया है कि स्वामी जी और भवानी जी के विवाह से दोनों ही परिवार असहमत थे. इस विरोध का क्या कारण था, इसकी कोई चर्चा नहीं है. जो भी हो, स्वामी जी के पिता के रुख में बाद में चल कर कुछ नरमी जरूर आयी होगी क्योंकि यह मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ कि स्वामी जी के पिता ने ही अपने पौत्रों स्वामी जी के पुत्रों- का नाम क्रमशः कालिदास और हर्षवर्द्धन रखा और यह नामकरण संस्कृत साहित्य में उनकी निजी दिलचस्पी के चलते हुआ क्योंकि कालिदास तो खैर सर्वविदित महाकवि हैं ही, महाराज हर्षवर्द्धन के तीन नाटक- रत्नावली, नागानन्द और प्रियदर्शिका भी संस्कृत साहित्य-रसिकों में बहुत समादृत हैं. पारिवारिक बेरुखी में ऐसी किसी नरमी या उसके सर्वथा अभाव की कोई चर्चा इस पुस्तक में नहीं हैं

पाठक उलझन में पड़ सकता है कि स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ की गयी जिस पत्रिका का नाम अन्यत्र ‘कान्ट्रा 66’ मिलता है उसका नाम इस पुस्तक में क्यों ‘कान्ट्रा’ दिया हुआ है. वह जानना चाह सकता है कि आखिर ‘ग्रुप 1890’ का यही नाम क्यों चुना गया (वस्तुतः जयन्त पांड्या के भावगर स्थित मकान का नम्बर 1890 था). स्वामी जी का निधन किस तारीख को हुआ? उनके बच्चों की पैदाइश कब और कहाँ हुई? ये जानकारियाँ छोटी हो सकती है किन्तु एक ‘जीवनी’ पढ़ने वाला इन्हें पाना चाहता है.

इस पुस्तक में कई झलकियाँ हैं जिनके नेपथ्य में फैले रंगमंच पर हम अपनी निगाह डालना चाहेंगे. भवानी जी (स्वामी जी की धर्मपत्नी) के बारे में उनके नाम के अतिरिक्त लगभग कुछ भी नहीं है और उसका भी अनेकत्र ‘भिवानी’ छपना कष्टप्रद. स्वामी जी के पितृकुल और मातृकुल के बारे में भी कुछ नहीं है.

ख़ैर जैसा मैंने कहा, यह सब तब जब हमें उनकी ‘जीवनी’ पढ़नी हो.

 

 

3

स्वामी जी के एक कथन ने- जो इस पुस्तक के पृ. 71-72 पर दिया हुआ है- मेरा ध्यान खींचा:

‘मेरा अनुमान तो यही था कि वे या तो पशुपक्षी या देवताओं के चित्र बनायेंगे या फिर ‘चोक’ जैसी कोई मांगलिक आनुष्ठाानिक आकृति बनायेंगे. मगर उनके हाथों से जो निकलता चला आया, उसे देख कर मैं तो आश्चर्य से ठगा रह गया.’

इस पर अखिलेश की टिप्पणी है:

‘इन रेखांकनों में जो बात सबसे पहले हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है उनकी लिपि जैसी बनावट. मानो ये चित्रकार रेखांकन करने के बजाय कुछ लिख रहे हों. दरअसल इन कोरवा गिरिजनों की कोई अपनी लिपि नहीं है. और ये सारे चित्रकार निरक्षर थे. फिर इन अद्भुत रेखांकनों के पीछे क्या रहस्य है?’

मैं कला-पारखी नहीं हूँ किन्तु मुझे यह याद आया कि भोजपुरी में ‘चित्र बनाने’ के लिए अलग से शब्द नहीं है. जो तस्वीरें घर के दरवाजों पर, आँगनों पर, दीवारों पर, और कभी-कभार कागजों पर उकेरी जाती हैं उनको ‘लिखनी’ कहते हैं. ये ‘मांगलिक आनुष्ठानिक आकृतियाँ’ हो सकती हैं और जिनकी आस्था ‘मांगलिक आनुष्ठाानिक कृतियों के प्रति शिथिल है, वे इन्हें दूसरी तरह से भी देख सकते हैं जैसे हमारे नृत्य आडिटोरियमों में देखे जाते हैं या हमारी देवमूर्तियाँ म्यूजियमों में देखी जाती हैं- किन्तु भोजपुरी की एक समृद्ध लिपि-परम्परा रही है- वह देवनागरी से उद्भूत ‘कैथी’ में भी लिखी जाती रही है और अब देवनागरी में लिखी जाती है. ‘लिखनी’ करने वाली स्त्रियाँ अब प्रायः सभी साक्षर हैं और पहले भी, जिनकी स्कूली शिक्षा नहीं थी वे भी अकसर रामायन बाँच लेती थीं.

दरअसल भाषा बोलने-पढ़ने-लिखने के पहले हम ‘देखते’ हैं यह सारा संसार एक दृश्य-लेख की तरह हमारे सामने उपस्थित होता है. वैदिक साहित्य का एक प्रसिद्ध वाक्य है, ‘पश्य देवस्य काव्यम्’ – इस दुनिया को ‘देखो’ जो ईश्वर की कविता है. वेद-मन्त्र ‘देखे’ जाते हैं- बोले-सुने-पढ़े नहीं जाते. पढ़ने के लिए उन्हें शब्दों की आनुपूर्वी में उतारना पड़ता है जो ऋषिगण स्वयं करते हैं. इस ‘देखने’ को ‘बोलना’, इस ‘पश्यन्ती’ को ‘वैखरी’ में उतारना ‘भाषा’ कहलाता है, उस ‘भाषा’ को संकेतों का जामा पहनाना, ‘वाणी’ को ‘लिपि-तनु’ देना, ‘लेखन’.
जो खुद को दिखायी देता है उसे तूलिका से लिखना ही चित्रकर्म है और इस अर्थ में सारी चित्रकला ‘पोट्र्रेट’ बनाने की कला है. यह तब ‘यथार्थवाद (Realism1) के भीतर आती है जब वह उस ‘तथ्य’ की अनुकृति होती है जो कहीं पहले से मौजूद शक्ल में सबको दीखता है. इसे ‘मूर्तन’ से भिन्न समझना चाहिए क्योंकि वायु और आकाश भी हमारे यहाँ ‘मूर्ति’ स्वीकार किये गये हैं.

कोई कला तभी ‘अ-मूर्त’ हो सकती है जब हम उसे देखकर ‘नेति’ यह वह तो नहीं है जिसे हमने देख रखा है- कह सकें. इस अर्थ में आदिवासी कला का वास्तविक स्वरूप ‘अमूर्त’ है- अब जब हम उनसे गणेश जी की मूर्ति बनाने के लिए कहते हैं ताकि हम अपने ड्राइंग-रूम में एक नये ढंग की ऐश-ट्रे सजा सकें, वे भी वही कर रहे हैं जो उनसे माँगा जाता है.

मैंने जब भारत-भवन में आदिवासियों की कला-कृतियाँ देखी थीं तो मुझे कुछ को देखकर इस ‘अ-मूर्त’ कला का आभास हुआ था.

 

 

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स्वामी जी की कला की ‘आयत्ति’ की जड़ें कई आयतनों में थीं. एक तरफ वह उनकी गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता में थी जिसकी अभिव्यक्ति-चेष्टाओं ने उन्हें विविध क्षेत्रों में उतारा. ये अभिव्यक्तियाँ एक तरफ तो कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में पार्टी-चेतना को मजदूरों के बीच पहुँचाने से लेकर उस पार्टी-चेतना की जकड़नों से बाहर होने के क्रम में पार्टी से निष्कासित होने तक के अनुभवों में फैलीं तो दूसरी तरफ एक पत्रकार के तौर पर वैश्विक और देशी राजनीति तक को नापने में सामने आयीं. ऐसे सभी ‘भ्रमणों’ में स्वामी जी की जो तलाश थी वह उस मनुष्य की थी जिसे किसी ‘अर्थ-निर्धारण’ में पा लेने से इस यायावरी की परि-समाप्ति नहीं हो सकती थी और जिसके लिए कला की वह राह ही चुनी जा सकती थी जो खुद ही मन्ज़िल है.

इस यायावरी के लिए जो कला-पथ स्वामी जी ने चुना उसके इर्दगिर्द की कई पगडण्डियों के राहियों से उनकी खेम-कुसल लेते रहने का भी सवाल सामने आता है. सर्वप्रथम तो अन्य चित्रकारों से उनके सम्बन्ध की ही बात ले लें. उन्होंने हिम्मतशाह को कई तरह से प्रोत्साहन दिया जिनमें मुख्य उल्लेखनीय है अपने स्टूडियो के उपयोग का. वे उनकी बराबर प्रशंसा भी करते रहते थे. इस प्रशंसा को उन्होंने उन दिनों में किया था जब हिम्मतशाह अपनी असन्दिग्ध प्रतिभा के बावजूद व्यावसायिक दृष्टि से एक सफल कलाकार न थे और स्वामी जी कला के बाज़ार में दिन पर दिन चमक रहे थे- उनके चित्र बनने के पहले बिक रहे थे.

इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि स्वामी जी ने कला के विविध क्षेत्रों से कोई विश्वयारी कायम कर रखी थी. वे शास्त्रीय या अर्ध-शास्त्रीय संगीत के रसिया न थे. उन्हें नाटक देखना भी पसन्द नहीं था. ये जानकारियाँ इसी पुस्तक से मिल जायेंगी और जब हम हर चीज़ का कोई तात्पर्य निकालने पर आमादा हों तो यह सवाल भी उठाने में अचूक ठहरेंगे कि क्या अपनी चुनी हुई कला-विधा को छोड़कर अन्य कला-विधाओं के प्रति ‘सम्मान’ दिखाना कलाकार का कर्तव्य नहीं है?

यह सवाल यों तो मूर्खतापूर्ण लगता है क्योंकि व्यावहारिक अनुभव यह बताता है कि जिन्हें शास्त्रीय संगीत में कुछ भी स्वाद नहीं मिलता वे भी संगीत-सभा में पूरे समय विनयावनत मुद्रा में बैठे रहते हैं और वे ऐसा करके ‘सम्मान’ ही दिखा रहे होते हैं. किन्तु यहाँ बात दरअसल सम्मान की नहीं ‘ज़ौक’ की हो रही है.

ऐसे किसी भी सवाल के पीछे कलाकार की ‘छवि’ की एक पूर्व-निर्मिति होती है जिसके निर्देशन में हम कलाकार की उपलब्ध उपस्थिति को जाँचते हैं.

 

 

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स्वामी जी की छवियाँ अनेक हैं जिनमें एक है विचारक की. वे उन बिरले सर्जकों में से थे जिनमें अपनी सर्जना के स्वरूप और आन्तर के बारे में व्यक्ति से बढ़कर भी कुछ सोचने की क्षमता होती है- ‘मैं क्यों सिरजता हूँ’ से आगे ‘सिरजना क्या होता है’ पर भी बात करने की क्षमता. वे अपनी बात कह सकने के लिए आवश्यक वाग्मिता भी रखते थे. वे बहुत कम शब्दों में, बहुत प्रभावी ढंग से, अपनी बात कह सकते थे. वे एक उच्च कोटि के कवि थे, भले ही ‘कविता’ के नाम पर उन्होंने बहुत कम लिखा.

पृ. 77 पर दिये गये एक उद्धरण से:

मैं चित्र बनाता हूँ क्योंकि मैं उससे अलग नहीं हो सकता और यह मुझे मुझसे परे ले जाता है.
. . .
मैं वहाँ खड़ा हूँ जहाँ पहला आदमी खड़ा था.

यह वक्तव्य एक व्यक्ति के बारे में नहीं, सम्पूर्ण मनुष्यता के बारे में है- मनुष्य इसी अर्थ में अन्य प्राणियों या अचेतन जगत से भिन्न है कि वह खुद से परे जाने के लिए कुछ करता है.

‘मैं क्यों हूँ?’ के जवाब कई तरह से दिये गये हैं- उदाहरण के लिए द कार्ते का जवाब बहुत मशहूर है: ‘इसलिए कि मैं सोचता हूँ.’ एक कम मशहूर जवाब की ओर ध्यान दिलाता हूँ. ‘धर्मा हि तेषामधिको विशेषः’ – मनुष्य में पशु से यही भिन्न है कि मनुष्य में ‘धर्म’ होता है.

यह ‘धर्म’ क्या चीज है: भगवान पतंजलि ने महाभाष्य में समझाया है- खेद (= कामेच्छा) का अपगम (= उस कामेच्छा की तुष्टि) किसी भी स्त्री में हो जायेगी किन्तु मनुष्य ने नियम बनाया, यह स्त्री गम्या है, यह अ-गम्या. यहाँ नियामक गम्या स्त्री का मोहक होना और अ-गम्या स्त्री का अ-मोहक होना नहीं है, कुछ और है जो गम्यात्व का निर्धारण करता है. भोजन के नियम भी मनुष्यों ने बनाये हैं, उदाहरण के लिए कलियुग में वर्तमान ‘हिस्टोरिकल हिन्दू’ के लिए गोमांस इस कारण अभक्ष्य नहीं है कि वह अरुचिकर है अथवा अ-स्वास्थ्यकर है, वह अभक्ष्य इसलिए है कि गोमांस खाना ‘अ-धर्म’ है.

सोचना हो या धर्म हो या चित्र बनाना हो या कविता करना हो या फिजिक्स और मैथेमैटिक्स हो- सब उस पहले आदमी द्वारा अपने स-जातीय चेतन पशुओं से भिन्न होते हुए, अपने वि-जातीय अचेतन पत्थरों से भिन्न होते हुए, अपने स्व-गत नख-केश-हस्त- पाद से भिन्न होते हुए, ‘अपने’ तक पहुँचने के लिए अलग राह निकालने के तरीके हैं. शरीर की आवश्यकताओं कामनाओं से दूर, शरीर-धारण के ऐतिह्य से परे जाने के उपाय.

देह ही आत्मा है, यह ‘देहात्मवाद’ कहलाता है. इससे इनकार करना ही सारा शगुफ्ता के उस परिचय से अलग होना है जो अमृता प्रीतम देने के लिए विवश हुई थीं- औरत का बदन के अलावा कोई वजूद नहीं होता.

‘देहात्मवाद’ स्त्री को रजःस्रावी (Menstruator) होने तक सीमित करता है और दुनिया को कुछ आकाशीय पिण्डों के चाल-चलन में परिभाषित करता है. इसके द्वारा खींची गयीं हदबन्दियाँ ही धर्म, कला और विज्ञान के घेरे बनाती हैं तथा विश्व के किसी ‘केन्द्र’ को खोजने की ओर उन्मुख करती हैं जो अगर हम कोई खुदावन्द नहीं खोज पाते तो हम खुद हो जाते हैं.

 

जगदीश स्वामीनाथन का यह चित्र अखिलेश के सौजन्य से

 

6

हमारे यहाँ ‘कवि’ शब्द में सभी प्रकार के कलाकर्मी शामिल हैं और चित्र, संगीत, नृत्य, कविता, व्याकरण, दर्शन, सबकी एकसूत्रता स्वीकृत रही है. विष्णुधर्मोत्तरपुराण और दत्तपुराण जैसे ग्रन्थों में यह एकदम साफ-साफ बताया गया है किन्तु संगीतरत्नाकर या रसगंगाधर भी एकदेशी ग्रन्थ नहीं हैं. वे संगीत या साहित्य के व्यावहारिक चैतन्य का पारमार्थिक चैतन्य से सम्बद्ध करते हुए ही बात करते हैं.

यहाँ जो बात मुझे उठानी है वह यह है कि हमारे यहाँ जब कवि अर्थात कलाकर्मी को ‘क्रान्तदर्शी’ कहा गया है तो क्या इसके पीछे इसका स्वीकार है कि कलाकर्मी वह भी देख सकता है जो सामान्य मनुष्य नहीं देख सकता. क्या उसमें अतीन्द्रिय शक्तियाँ होती हैं? अखिलेश ने

पुस्तक में पृष्ठ 48 पर स्वामी जी का एक उद्धरण दिया है:

‘वर्ष इकहत्तर के जून महीने में टिड्डा चित्रित करना चाहता था और मुझे टिड्डे का फोटोग्राफ या प्रिन्ट कहीं मिल नहीं रहा था. मैं आराम करने के लिए लेट गया और जब उठा तो देखा कि मेरी पैलेट पर एक टिड्डा बैठा हुआ है. किसी और समय मैं सोनपखी (Lady Bird) चित्रित करना चाहता था उसका कोई चित्र मेरे पास नहीं था. मेरे मित्र हरमीत सिंह उस वक्त मेरे स्टूडियो में अपनी अमेरिकन दोस्त के साथ मौजूद थे. मैंने उनसे आग्रह किया कि वे लेडी बर्ड का एक रेखाचित्र बना दे. वह कोशिश कर रही थी. तभी मुझे लगा कि मेरे पैर के पास कुछ हलचल हो रही है और वहाँ लेडी बर्ड मौजूद थी. एक बार और जब मैं बुलबुल का चित्र बनाना चाहता था, मैंने देखा कि बुलबुल का एक जोड़ा रोज सुबह मेरी खिड़ी पर आने लगा.‘

रचना करते समय बहुत से रचनाकारों को यह लगता है कि उन्हें कोई अलौकिक शक्ति प्रेरित कर रही है. मुझसे जोशी जी (मनोहर श्याम जोशी) कहा करते थे कि कुरु कुरु स्वाहा के कई अंश उनसे ‘लिखवाये गये’ हैं. इन सारी अनुभूतियों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का ‘निमित्तमात्र भव सव्यसाचिन’ है अर्जुन, तुम निमित्तमात्र बनो, यह समझो कि तुम खुद कुछ नहीं कर रहे हो, कोई और तुमसे करवा रहा है, एक सटीक वाक्य है.

ऐसे कथन हम अपने आसपास बिखरे हुए पाते हैं. अवध के नवाब आसफुद्दौला कवियों के आश्रयदाता होने के अतिरिक्त स्वयं भी कविता करते थे किन्तु यह कम मालूम है कि उनकी खास महल शम्सुन्निसा बेगम भी शाइरा थीं. शम्सुन्निसा बेगम का एक शेर है:

वही देखता है जो देखे हैं सबकुछ
न  तुम देखते हो, न हम देखते हैं II

मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि स्वामी जी जब टिड्डा या सोनपंखी या बुलबुल के चित्रित करना चाहते होंगे तो टिड्डा, सोनपंखी या बुलबुल खुद माडेलिंग के लिए आ जाते होंगे. कौन नहीं चाहेगा कि उसका पोट्र्रेट स्वामीनाथन जैसे कलाकार के हाथों बने?

 

 

7

पृ. 128 पर स्वामी जी का एक वाक्य है- दरअसल अपने वास्तविक रूप को देख लेना अपने अर्थ को खो देने के बराबर है.

इस वाक्य ने मुझे एक बार फिर यह याद करने के लिए विवश किया कि ‘शब्द’, ‘अर्थ’ और ‘वास्तविक’ के क्या तात्पर्य हमारे यहाँ लिये गये हैं.

मैं इस विषय पर कई लेखों में लिख चुका हूँ- एक सुगम सन्दर्भ मेरी पुस्तक आहोपुरुषिका है. फिलहाल यहाँ इतना कि शब्दब्रह्म का जागतिक विस्तार ही ‘अर्थ’ कहलाता है जो माया-प्रसूत है और इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूप को जान पाना इस माया-प्रसूत अर्थ के निरसन द्वारा ही सम्भव है क्योंकि माया की विक्षेप-शक्ति ही अ-वस्तु में वस्तु का अध्यास करती है- रस्सी में साँप दिखाती है.

स्वामी जी के वाक्य की बगल में केवलाद्वैत के इस सिद्धान्त को रखने का आशय यह नहीं है कि मैं यह बता रहा हूँ कि स्वामी जी ने यह वाक्य शंकराचार्य से उठाया है. जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह है कि कोई भी जिज्ञासु किसी भी साधना-मार्ग से जब ज्ञान तक पहुँचता है तो वह एक ही सचाई का सामना करता है- साधना का मार्ग कवि-कर्म भी हो सकता है, चित्र-कर्म भी, संगीत-कर्म भी और वह कर्म भी जिसे हम ‘आधुनिक विज्ञान’ कहते हैं.

 

 

8

यह पुस्तक प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गयी है और प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर है. हिन्द स्वराज की तर्ज कोई नयी नहीं है. यह ‘गुरु-शिष्य-संवाद’ की पुरानी पद्धति है. जिज्ञासु प्रश्न करता है और उत्तर पाता है. इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण श्रीमद्भगवद्गीता है जिसका एक नाम कृष्णार्जुन- संवाद भी है. किन्तु इस ‘संवाद-शैली’ की जो भारतीय परम्परा रही है उसमें इस संवाद- शैली की सीमाओं को भी स्वीकार है- जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में ही अन्त में भगवान ने अर्जुन से कहा- ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ – यह तुमको बता दिया अब जैसा मन में आवे वैसा करो, आगे खुद सोचो कि क्या करना है. इस सम्बन्ध में एक पुराना औपनिषदिक कथन चला आ रहा है- जितनी दूर रथ से जाया जा सकता है उतनी दूर रथ से जाओ, आगे पैदल का रास्ता है.

मेरी समझ में हिन्द स्वराज की शैली Catechism की शैली है. चुने हुए प्रश्न और उनके उत्तर जिसके बाद जिज्ञासु की जिज्ञासा की समाप्ति है और उसकी तर्कणा-शक्ति का अवसान है, उसे अब कुछ सोचने की नहीं सिर्फ करने की ज़रूरत है- शब्द बदल कर कहें तो दुनिया को समझना नहीं है, बदलना है. ऐसा प्रभाव अखिलेश की पुस्तक नहीं छोड़ती- हम स्वामी जी के बारे में, कला के बारे में, कला और व्यवहार के बारे में, कला और परमार्थ के बारे में और जानना चाहते हैं- अगर उपलब्ध सामग्री से सन्तोष न हो तो खुद सोच कर.

यह पुस्तक जिज्ञासा और तर्कणा को शान्त नहीं करती उन्हें और तीव्र करती है. इसे सिर्फ ‘संवाद-शैली’ में ही लिखा गया माना जाना चाहिए जिसका आदर्श हिन्द स्वराज सिर्फ इसलिए कह दिया गया है कि महात्मा गाँधी के प्रति हमारी श्रद्धा है और स्वामी जी स्वयं उनका बहुत प्रभाव अपने जीवन पर मानते थे.

 

 

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पुस्तक में कुछ काल्पनिक भी है- उदाहरण के लिए मक़बूल फिदा हुसैन और स्वामी जी की ‘बैतबाजी’. किन्तु ऐसी चीजें अगर हुई नहीं तो ‘हो सकती’ है. जो बात मुझे खासतौर पर देखने में आयी वह यह है कि पुस्तक बहुत से उद्धरणों से बनी है स्वामी जी खुद क्या कहते हैं या उनके बारे में दूसरे क्या सोचते हैं इनका एक मजमूआ इसमें मौजूद है. इस पुस्तक में स्वामी जी की उपस्थिति केवल अखिलेश तक नहीं है, उसकी व्याप्ति उन सब में है जो स्वामी जी के आत्मीय हैं- चाहे उनकी भौतिक निकटता कम हो या जियादा.

स्वामी जी की मकबूलियत को मकबूल फ़िदा हुसैन जैसे कलाकर्मियों से उनकी नज़दीकी में आँक लेने भर से नहीं पहचाना जा सकता. एक चित्रकार के रूप में अखिलेश बहुत से बड़े चित्रकारों के प्रिय रहे हैं- स्वामीनाथन या मकबूल फ़िदा हुसैन या सैयद हैदर रज़ा एक लम्बी सूची में से कुछ शीर्षस्थ नाम भर हैं. इस प्रियता का कारण अखिलेश का सौहार्द, उनकी सहज विनम्रता और उनके कलाकर्म की उत्कृष्टि की स्वीकार्यता है किन्तु स्वामी जी के बारे में लिखते हुए वे अपने को ही सामने नहीं ले आते, उन सभी को सामने ले आते हैं जिन्होंने स्वामी जी की प्रतिभा का साक्षात्कार किया है. इस तरह यह पुस्तक एक ‘स्वामीनाथन फेस्ट’ का भी आभास देती है.

 

 

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अखिलेश की यह पहली किताब नहीं है. वे एक चित्रकर्मी के रूप में ही नहीं, एक लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं. सक्षम हिन्दी में सहज सम्प्रेषण पर उनका अधिकार है जिसका सदुपयोग उन्होंने हिन्दी साहित्य के एक अल्प-पोषित इलाके- चित्र-कर्मियों और उनकी साधना का आत्मीय परिचय को पुष्टि देने के लिए किया है. मैं उम्मीद करता हूँ कि कभी निकट भविष्य में ही वे कोई पुस्तक लिखेंगे जिसमें चित्रांकन के आन्तर और बाह्य रहस्यों का कुछ खुलासा होगा और हम यह पहचानने के और नज़दीक होंगे कि कोई चित्र कब और क्यों आधुनिक, या अमूर्त, या पोट्र्रेट कहलाता है और स्वामी जी या हिम्मत शाह जैसे लोग जब कैनवास पर पेन्टिंग से इन्स्टालेशन आर्ट की ओर मुड़ते हैं तो ठोस शक्लों में उतरने के पहले उनके मन में कैसी छवियाँ उभरती होंगी.

फिलहाल, इस पुस्तक का प्रकाशन हिन्दी की एक बड़ी साहित्यिक घटना है और कला के प्रति अशोक जी की उस प्रतिबद्धता का भी प्रमाण है जिसने उन्हें रज़ा फ़ाउण्डेशन के माध्यम से कुमार गन्धर्व या स्वामीनाथन जैसों पर लिखवाने के लिए समर्थ लेखकों से आग्रह करने की ओर उन्मुख किया.


यह किताब यहाँ से प्राप्त करें.

 

वागीश शुक्ल

हिन्दी
, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी वाङ्मय के गहरे और गम्भीर अध्येता, आलोचक और अनुवादक वागीश शुक्ल (जन्म : १९४६, उत्तर प्रदेश) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रह रहें हैं. साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर आधारित वैचारिक निबन्धों का संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ तथा निराला की सुदीर्घ कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका ‘छन्द-छन्द पर कुमकुम’ प्रकाशित. गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका पर कार्य जारी. अभी-अभी चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म शीर्षक से आलेखों का संग्रह प्रकाशित.

wagishs@yahoo.com

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