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Home » जाति, गणना और इतिहास : गोविन्द निषाद

जाति, गणना और इतिहास : गोविन्द निषाद

गोविन्द निषाद जी.बी. पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में शोधार्थी हैं. यह आलेख जाति की बनावट और उसके बुनावट में होते रहे बदलावों की पड़ताल करते हुए विगत में हुए जाति गणनाओं के इतिहास और उसकी राजनीति पर केन्द्रित है. मेहनत से लिखा गया है और पठनीय है. जनगणना को समझने की एक सुस्पष्ट पृष्ठभूमि प्रदान करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 16, 2025
in समाज
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जाति, गणना और इतिहास : गोविन्द निषाद
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जाति, गणना और इतिहास
जाति और जातीय जनगणना का एक समीक्षात्मक अध्ययन


गोविन्द निषाद

 

हाल में ही भारत सरकार ने निर्णय लिया है कि दशकीय जनगणना के साथ जातीय जनगणना भी कराई जाएगी. इसको लेकर तमाम तरह के विमर्श सामने आ रहे है कि जातीय जनगणना क्यों होनी चाहिए, क्यों नहीं होनी चाहिए और इसके क्या भविष्यगत परिणाम हो सकते हैं. ऐसा नहीं है कि भारत में प्रथम बार जातीय जनगणना होने जा रही है. देश स्तर पर जातीय जनगणना की शुरुआत 1871  में हुई.[1] साथ में कई अन्य राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर जनगणना पहले से ही हो रही थी. भारत में जनसंख्या की प्रत्यक्ष जनगणना अवध में 1 जनवरी 1853 को हुई थी.[2]

1820 के दशक में कॉलिन मेकेंजी और जेम्स बुकानन ने आरम्भिक सर्वेक्षणों में  जाति का उल्लेख तो किया लेकिन वह काफी बेतरतीब ढंग से किया गया सर्वेक्षण था. आगे चलकर इन जनगणनाओं में जाति एक श्रेणी के रूप में शामिल हुई जो कई दशकों से अपने आपमें एक विवादास्पद विमर्श रही है. उत्तरआधुनिकता से पहले यह एक स्वीकृत तथ्य माना जाता था कि जाति की उत्पत्ति वैदिक निर्मिति का परिणाम थी लेकिन उत्तरआधुनिक विद्वानों ने इस बात को ख़ारिज करते हुए यह सैद्धान्तिकी विकसित की जिसमें माना गया कि जाति औपनिवेशिक राज्य की निर्मिति है, जिसे दशकीय जनगणना के माध्यम से एक सामाजिक सत्य के रूप में स्थापित किया गया.

औपनिवेशिक भारत में जाति पर व्यापक विद्वत्ता की विस्तृत समीक्षा करने के साथ यह लेख दो व्यापक रूप से परिकल्पित इतिहासलेखन के बीच विवाद के क्षेत्र को रेखांकित करता है. इसमें दो तरह के इतिहास-लेखन को देखा जा सकता है. पहला, औपनिवेशिक निर्माण के रूप में जाति, और दूसरा, पूर्व-औपनिवेशिक निरंतरता के रूप में जाति.[3]

निस्संदेह दोनों विमर्शों के बीच एक केंद्रबिंदु है, जहाँ दोनों विमर्श एक-दूसरे को ओवरलैप करते हैं.  तथाकथित कैम्ब्रिज स्कूल से पहचाने जाने वाले इतिहासकारों द्वारा इस घटना की बहुत अलग व्याख्याएँ की जाती हैं, जबकि सबाल्टर्न स्टडीज कलेक्टिव से जुड़े इतिहासकारों और उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांत और इतिहास-लेखन से प्रभावित विद्वानों द्वारा व्यक्त की गई व्याख्याएँ अलग हैं.[4]

इन विमर्शों के गुणों और कमियों पर यहाँ कोई निर्णय नहीं लिया जाना है. यहाँ ध्यान इस बहस के दोनों ओर स्थित इतिहासकारों द्वारा दी गई अंतर्दृष्टि का विश्लेषण करने से है, जो उनके तर्कों के सार से परिचित कराता है.

1980 के दशक के दौरान मानविकी और सामाजिक विज्ञान के विद्वानों के बीच उनके पद्धतिगत दृष्टिकोणों के साथ-साथ उनके विश्लेषण के तरीके में भी बदलाव आया.  संरचनावादी और उत्तरसंरचनावादी सिद्धांत की बढ़ती लोकप्रियता के परिणामस्वरूप इतिहासकारों ने  सामाजिक और राजनीतिक  इतिहास-लेखन से आगे बढ़कर इस बात की जांच करने लगे कि किस तरह से उपनिवेशको ने दुनिया में ज्ञान का निर्माण किया. इस दौर में एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव एडवर्ड सईद की पुस्तक ‘ओरिएंटलिज्म’ का प्रकाशन था. यह पुस्तक दुनिया के दक्षिणी और पूर्वी क्षेत्रों में समाजों का अध्ययन करने वाले विद्वानों के लिए प्रेरणा का एक प्रमुख स्रोत बन गई. एडवर्ड सईद ने यह दर्शाया कि कैसे औपनिवेशिक प्रशासकों, विद्वानों और साहित्यिक हस्तियों की एक विशाल श्रृंखला ने अपने काम में ‘गैर-पश्चिम’ का प्रतिनिधित्व अत्यधिक अपमानजनक तरीके से किया, जो इन समाजों की ऐतिहासिक वास्तविकता के लिए असत्य था.[5]

मिशेल फ़ूको  की शक्ति और ज्ञान के बीच अंतरंग संबंधों के बारे में अंतर्दृष्टि उन विश्लेषण स्थलों से कहीं आगे तक फैली हुई थी, जिन पर उन्होंने उपनिवेशवाद के इतिहासकारों के द्वारा की गई ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण किया था. उन्होंने उपनिवेशवाद के समर्थन में प्रस्तुत औपनिवेशिक प्रशासकों, मानवशास्त्रियों और इतिहासकारों के उन तर्कों को ख़ारिज किया जिसमें उपनिवेशवाद को मुख्य रूप से पश्चिम के बाकी हिस्सों पर राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व के एक अजीबोगरीब साधन के रूप में समझा गया था. फ़ूको  का विश्लेषण  है कि ज्ञान का निर्माण, एक निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होने से बहुत दूर, वास्तव में सत्ता के द्वारा निर्मित होता है. इसने इतिहासकारों द्वारा औपनिवेशिक शासन को समझने के तरीके में एक बड़ा बदलाव किया.[6] हालाँकि निश्चित रूप से प्रेरणा के अन्य स्रोत भी थे, लेकिन विद्वानों की अंतर्दृष्टि में इन अलग-अलग पहलुओं ने औपनिवेशिक संदर्भों की ऐतिहासिक समझ में एक बड़ा बदलाव लाने के लिए मिलकर काम किया.

प्रारंभिक औपनिवेशिक भारत में प्रशासकों के लिए जाति कोई मौलिक महत्व का विषय नहीं  थी, लेकिन 1857 का विद्रोह एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, क्योंकि चिंतित औपनिवेशिक अधिकारियों को यह विश्वास हो गया कि यह घटना आंशिक रूप से भारतीय समाज और संस्कृति के बारे में उनके अपर्याप्त ज्ञान और समझ के कारण हुई थी. ऐसे संदर्भ में ब्रिटिश शासन को भारतीय लोगोंं, समाज और संस्कृति के बारे में जानना अपरिहार्य हो गया. वह हर उस समुदाय और प्रकृति को जान लेना चाहते थे जो अभी तक अज्ञात थीं.[7] ऐसे में सभी समुदायों को जानने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने नृवंशविज्ञानियों की एक श्रृंखला तैयार की और उनके माध्यम से एक विशेष प्रकार का ज्ञान निर्माण शुरू किया. इसमें एक समझ निर्मित की गई कि भारतीय समाज में जाति को केन्द्रीय तत्व के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. इस पूरी प्रक्रिया को देखते हुए डर्क्स ने औपनिवेशिक राज्य को ‘नृवंशविज्ञान राज्य’ (एथ्नोग्रफिक स्टेट) की संज्ञा दी. आगे चलकर दशकीय जनगणना में इसे स्थापित रूप दे दिया गया.[8]

 

 

1

जाति की औपनिवेशिक निर्मिति के बारे में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप मानवविज्ञानी बर्नार्ड कोहन[9] ने किया. बर्नार्ड कोहेन ने उपनिवेशवाद की समझ को एक ऐसे रूप में देखा, जिसमें राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-ऐतिहासिक महत्व की घट रही घटनाओं में संस्कृति का बड़ा महत्व था. सांस्कृतिक वर्चस्ववाद[10] को ग्राम्सी ने भी एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा था  जिसके जरिये राज्य सहमतियों का निर्माण करता है.

कोहेन ने यही बात प्रमुखता से अपने लेखन में दर्शाया है. उनका दृष्टिकोण सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से प्रभावित दिखाई देता है. जिसमें वह इस तथ्य पर जोर देते हैं कि राज्य सांस्कृतिक तकनीकों के माध्यम से जातियों की निर्मिति को एक ऐसे प्रक्रिया में देखता था, जहाँ जाति की संस्कृति समाज पर नियंत्रण के एक माध्यम के रूप में दिखाई देने लगती है. इस सांस्कृतिक तकनीक का विकास ब्रिटिश प्राच्यवादी और अधिकारियों ने हिन्दू शास्त्रीय ग्रंथो में जाति पर आधारित विचार के आधार पर किया था. यह तब की बात है जब ग्राम्सी ने ‘वर्चस्वता का सिद्धांत’ नहीं दिया था. भारत की जैसी जातीय संरचना थी, उसमें लेखन और वाचन का कार्य कुछ एकमात्र जातियों तक सीमित था. यह किताबी या ग्रंथीय सोच कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी. इसी के जरिये ब्रिटिश प्राच्यवादियों और अधिकारियों ने एक ऐसे समुदाय का निर्माण किया जिसे बेनेडिक्ट एंडरसन ने ‘कल्पित समुदाय’[11] कहा था. इसके जरिये भारतीय समाज की जो तस्वीर आई, वह यह थी कि भारतीय समाज एक अवरुद्ध और अगतिशील समाज है जिसमें किसी भी तरह की गतिशीलता नहीं है. समाज का प्रत्येक व्यक्ति कुछ तय नियमों के अनुसार कार्य करता है. लोगों के बीच में एक अंतर है जो उन्हें मिलने-जुलने से रोकता है.

कोहेन ने तर्क दिया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा जनसंख्या के व्यवस्थित वर्गीकरण और गणना ने सामाजिक पहचान और पदानुक्रम को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस गणना का उद्देश्य मात्र विस्तृत जनसांख्यिकीय आंकड़ा एकत्रित करना न होकर प्रशासनिक और सांस्कृतिक नियंत्रण का भी था. औपनिवेशिक जनगणनाओं ने भारतीयों की जाति के बारे में सोच में एक बड़ा परिवर्तन किया. इसने दक्षिण एशिया के विविधतापूर्ण सामाजिक परिदृश्य पर कठोर श्रेणियों का निर्माण किया. लोगोंं को धर्म, जाति, जातीयता और अन्य सामाजिक चिह्नों के आधार पर वर्गीकृत किया, जो अक्सर पहचान की स्थानीय धारणाओं के साथ मेल नहीं खाते थे.

जो ‘कल्पित समुदाय’ ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय लोगों की पहचान के लिए तय किया, उसमें जाति मुख्य थी. वे इसे भारतीय समाज को समझने का एक मजबूत माध्यम मानते थे. वह बताते हैं कि जनगणना ने दक्षिण एशियाई समाज के स्थायीकरण में योगदान दिया. प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक खास श्रेणी में रखकर पहले से गतिशील सामाजिक संबंधों को रूढ़िबद्ध करके उन्हें मात्रात्मक आंकड़े में परिवर्तित कर दिया गया, जिसने लोगों को एक-दूसरे को देखने के नजरिये में बदलाव पैदा कर दिया. उन्होंने दर्शाया कि जिस तरह से ब्रिटिश अधिकारियों ने सामाजिक श्रेणियों को परिभाषित किया, वह मनमाना, पूर्वाग्रह से ग्रसित और उलझन भरा और अस्पष्ट चित्रण था.

जनगणना के कार्यान्वयन ने आमजन जीवन में लोगों की जाति और समुदाय संबद्धता के बारे में जागरूकता को बढ़ाने में योगदान दिया. जनगणना ने नई सामाजिक पहचानों को मजबूत किया और कभी-कभी नये रूप में उन्हें बनाया. उदाहरण के लिए, जाति और जनजाति का औपनिवेशिक वर्गीकरण अक्सर इन पहचानों को मजबूत करता था, जिससे वे सामाजिक अंतःक्रियाओं और राजनीति में अधिक कठोर और महत्वपूर्ण बन जाते थे. जनगणना ने कुछ पदानुक्रमों को वैध बनाकर और दूसरों को हाशिए पर रखकर सामाजिक संरचना को प्रभावित किया. अंग्रेजों ने अपनी नीतियों को लागू करने के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल किया, जिसने अक्सर मौजूदा असमानताओं को बढ़ाया और नए सामाजिक विभाजन पैदा किए. औपनिवेशिक प्रशासन ने कराधान, कानून प्रवर्तन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिए जनगणना के आंकड़ों का उपयोग किया. इस प्रकार जनगणना औपनिवेशिक नियंत्रण बनाए रखने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन गई. आज यह औपनिवेशिक जनगणना की विरासत समकालीन भारतीय राजनीति में चुनाव में जातीय गोलबंदी का एक मुख्य कारक बन गई है.

निकोलस डर्क्स का औपनिवेशिक भारत में जाति की अवधारणा और उसकी निर्मिति पर एक महत्वपूर्ण अकादमिक अध्ययन है. पाँच भागों में विभाजित उनकी किताब ‘कास्ट ऑफ़ माइंड’ अलग-अलग अध्यायों में औपनिवेशिक जाति निर्मिति की गहन पड़ताल करती है. इस पुस्तक में डर्क्स ने उन तर्कों को आगे बढ़ाया है जो तर्क कोहेन ने दिए. डर्क्स ने लुईस ड्यूमोंट[12] के प्रचलित जाति आधारित सिद्धांत की आलोचना करते हुए यह माना  कि जाति प्रणाली जैसी हम आज देखते हैं, वह पूरी तरह से प्राचीन भारतीय समाज की देन नहीं है, बल्कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान इसे एक कठोर, स्थिर और पिरामिडनुमा सामाजिक ढांचे के रूप में पुनः परिभाषित किया गया जबकि ड्यूमोंट मानते थे कि भारतीय समाज एक पदानुक्रमित समाज रहा है. जिसमें विभिन्न जातियाँ शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर विभाजित थीं. डर्क्स का मानना था कि  तुलनात्मक समाजशास्त्र की जाति को लेकर जो भी चिताएँ थीं, वह न केवल उन्नीसवीं सदी के प्राच्यवाद की उपज थी बल्कि इसमें औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा का हस्तक्षेप भी था, जिसने समाज से राजनीति को हटाकर जाति को मूल संस्था के रूप में स्थापित करके समाज का एक विरोधाभासी रूप निर्मित किया. उन्होंने जाति की वास्तविक स्वरूप की खोज में सांस्कृतिक इतिहास के जरिये कल्लार जाति के मूल को खोजने के क्रम में पाया कि  नृवंश विज्ञान में शब्दों के मूल अर्थ को देखे तो वह जाति के पदानुक्रम को लेकर भ्रमित दिखाई देते हैं [13]

उनका मानना है कि जाति एक औपनिवेशिक उत्पाद है, जिसे अंग्रेजों ने जाति को ‘फूट डालो और राज करो’ के औजार के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे आबादी पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिला. वह इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि औपनिवेशिक राज्य ने अक्सर सामाजिक सद्भाव और सामंजस्य की कीमत पर जातिगत पहचानों के साथ छेड़छाड़ करके अपने व्यापक राजनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति की.

डर्क्स ने दक्षिण एशिया में उपनिवेशवाद के इतिहास के लिए तथाकथित कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहास लेखन के दृष्टिकोण और इतिहासकारों के उस समूह द्वारा पूर्व-औपनिवेशिक से औपनिवेशिक काल तक शासन के निर्माण और प्रसार में भारतीयों द्वारा निभाई गई भूमिका और औपनिवेशिक शासन की अस्थिर, खंडित और नाजुक प्रकृति पर दिए गए तर्कों पर जोरदार सवाल उठाया. डर्क्स के अनुसार, इस तरह की बहसो का प्रभाव उपनिवेशवाद को ‘अभूतपूर्व’ बनाना था और यह संकेत देना था कि दक्षिण एशिया में उपनिवेशवाद के आगमन और विस्तार के लिए भारतीय स्वयं जिम्मेदार थे. वह इसे श्वेत मनुष्य द्वारा श्याम मनुष्य को सभ्य बनाने की प्रक्रिया में देख रहे थे. उन्होंने, संक्षेप में, उपनिवेशवाद के उस अकाट्य तर्क को अस्वीकार करने का काम किया, जिसमें उपनिवेशों की राजनीति, समाज और संस्कृति को मौलिक रूप से पुनर्निर्मित करने का दंभ था और उनके उपनिवेशितों को सभ्य बनाने के मिशन का खंडन किया.

औपनिवेशिक जातिगत नीतियों का प्रभाव उपनिवेशवाद के बाद के काल तक फैला हुआ है. डर्क्स का तर्क है कि जाति की औपनिवेशिक विरासत समकालीन भारतीय समाज, राजनीति और सामाजिक संरचना को आकार देना जारी रखे हुए है.  सकारात्मक कार्रवाई, आरक्षण और सामाजिक न्याय पर आधुनिक भारत की नीतियाँ जाति के औपनिवेशिक संहिताकरण से गहराई से प्रभावित हैं.[14]

प्रसिद्ध मानवविज्ञानी अर्जुन अप्पादुरई[15] ने भी दक्षिण एशिया में सामाजिक संरचनाओं पर औपनिवेशिक प्रथाओं के प्रभाव का व्यापक रूप से विश्लेषण किया है. अप्पादुरई का भी तर्क है कि औपनिवेशिक जनगणना ने जाति श्रेणियों के निर्माण और सुदृढ़ीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.  ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने आबादी को अलग-अलग जाति समूहों में वर्गीकृत करके दक्षिण एशिया की जटिल और तरल सामाजिक वास्तविकताओं पर एक व्यवस्थित व्यवस्था लागू करने की कोशिश की. इसने जाति पहचान को अनिवार्य बना दिया और उसे निश्चित, अपरिवर्तनीय, व्यक्तियों और समूहों में निहित माना. इस प्रक्रिया ने जाति की स्थानीय विभिन्नताओं और संबंधों की गतिशील प्रकृति को नजरंदाज कर दिया, जो अक्सर अंग्रेजों द्वारा लगाए गए कठोर श्रेणियों की तुलना में अधिक लचीले और सम्बन्ध-निर्भर थे. वह बताते हैं कि औपनिवेशिक नीति का यह आधार था कि भारतीय आबादी के बारे में जो कुछ भी जानना आवश्यक था, यह जाति के गणना से ही संभव हो सकता था. इस प्रक्रिया में कई विसंगतियाँ थीं, फिर भी औपनिवेशिक शासन ने न तो इसे छोड़ा न दुरुस्त किया.

वह पन्त के माध्यम से बताते हैं कि भारतीय आबादी की पहचान करने की प्रभावी इकाइयों में जाति एक मुख्य माध्यम बन गई, जिसकी पुष्टि 1911-1931  की जनगणना से होती है. जाति के बारे में एकत्र आंकड़ों ने एक ‘संख्यात्मक बहुमत’ की प्रस्थापनाओंको मजबूत किया, जिसमें आप आगे चलकर देखेंगे कि किस तरह से हिन्दू आबादी और मुस्लिम आबादी के साथ विभिन्न जातियाँ अपनी संख्या बढ़ने या घटने को लेकर चिंतित दिखाई देती हैं. यहाँ से जब स्थानीय स्वशासन के तहत चुनावी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया आरम्भ होती है तो संख्याओं की राजनीति महत्वपूर्ण हो जाती है. यह एक ऐसे लोकतांत्रिक अभिशाप का निर्माण करती हैं कि पहचानों का राजनीतिकरण होने लगता है. इस प्रक्रिया के तहत वृहत स्तर पर हिन्दू और मुस्लिम पहचानों का निर्माण संभव हुआ. उन्हें केवल कल्पित समुदायों के साथ गणना योग्य समुदायों जिसमें संख्यात्मक प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण था, के रूप में देखा गया.[16]

भूमि, फसल, जंगल, जाति, जनजाति इत्यादि के बारे में एकत्र किये गये विशाल आंकड़ों का संग्रह केवल उपयोगिता वादी उद्यम मात्र नहीं था. इन आंकड़ों का प्रयोग राज्य द्वारा महत्वपूर्ण व्यावहारिक उपयोगों में प्रयोग किया जाता था, जिसमें भू-राजस्व का निर्धारण करना, भूमि विवादों का समाधान करना, विभिन्न सैन्य विकल्पों का आकलन करना आदि में उपयोग होता था. इन आंकड़ों पर नौकरशाही के निचले स्तर पर मौजूद भारतीय अधिकारी, गवर्नर जनरल, समितियाँ और बोर्ड विभिन्न प्रकार के वर्गीकरण और उससे जुड़ी संख्याओं की व्यवहारिकता पर लगातार बहसें कर रहे थे.[17]

पीबॉडी ने अपने एक लेख में तर्क दिया है कि अप्पादुरई मानते हैं कि जिसकी भूमिका अधिक औचित्यपूर्ण, शैक्षणिक और अनुशासनात्मक थी. ये ‘संख्याएं’ धीरे-धीरे इस औपनिवेशिक भ्रम का हिस्सा बनती गई. औपनिवेशिक शासन ने एक नई औपनिवेशिक कल्पना का निर्माण किया. हालाँकि यह दावा करते हुए अप्पादुरई यह बताने में सावधानी बरतते है कि जाति पूरी तरह से औपनिवेशिक कल्पना का परिणाम थी. उन्होंने जो विशेष कार्य किया वह था जाति और उनकी संख्या का विशिष्ट संयोजन.[18]

पदमनाभम समरेंद्र ने भी कोहेन, डर्क्स, फ्रैंक एफ कॉनलन और अप्पादुरई के तर्क को आगे बढ़ाते हुए  भारत की सामाजिक संरचना पर ब्रिटिश औपनिवेशिक जनगणना के प्रभाव, विशेष रूप से जाति के संस्थानीकरण  की पड़ताल की है. वह मानते हैं कि भारत में जाति की निर्मिति औपनिवेशिक है.  यह अपने आप में एक अनूठी परियोजना थी, जो सीधे जनता के सर्वेक्षण से जुड़ी थी. वह कहते है कि आरम्भ में उत्तरी-पश्चिमी प्रान्त में 1867 में जो जातीय जनगणना हुई, उसके उद्देश्य बहुत सीमित थे. इससे जाति से समुदायों की पहचान करने और जनसँख्या को ‘कृषि’ और ‘गैर कृषि’ की श्रेणी में वर्गीकृत करने की अपेक्षा की गयी थी. इसके अलावा कुछ जानकारी शिशु हत्या को रोकने में सहायता करने वाली थी. आगे वह कहते हैं कि सर्वेक्षण के दौरान गणना कर्ताओं ने पाया कि समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के पदानुक्रम में वर्गीकृत नहीं है. इसके बजाय उन्हें कई अपरिचित नाम, अपरिचित पहचान और असमान विशेषताओं वाले जाति समुदाय मिलें. यह अवध की 1867 की जातीय जनगणना में दिखाई देता है, जहाँ असमान विशेषताओं वाली जातियाँ एक साथ उच्च पायदान पर मौजूद थीं.

इस आलोचना के तर्क में की ब्रिटिश भारतीय परिस्थितियों से वाकिफ न होने के कारण ऐसा हुआ होगा. इसके प्रतिउत्तर में वह रोजालिंड ओ’हैनलॉन की यह धारणा की पूर्व औपनिवेशिक भारत में भी जातीय जनगणना होती थी, का सहारा लेते हैं. इसके उदाहरण स्वरूप वह मारवाड़ राज्य में हुई जनगणना का उल्लेख करते हैं. समरेन्द्र ने भी मुन्ह्ता नैनसी द्वारा मारवाड़ में किये गये सर्वेक्षण “मारवाड़ रा परगना रा विगत’ का उदाहरण देते हुए तर्क दिया है कि यह सर्वेक्षण तो एक मूल भारतीय द्वारा किया गया था. इसमें भी अवध की 1867 की जनगणना जैसे जातीय पदस्थिति का पता चलता है. इसके आधार पर वह कहते है कि भारत में जातियाँ कभी समरूप नहीं रही हैं. जब जातीय जनगणना आरम्भ हुई तो जातियों की पदानुक्रमित पदस्थिति तय करना उनके लिए बहुत मुश्किल कार्य रहा. आरम्भ में जातियों की असमान और विविधता पूर्ण पहचान ने उन्हें किसी एक सामान वर्गीकरण सिद्धांत के अनुसार सूचीबद्ध करने से रोक दिया.

इतनी भ्रम की स्थिति के बाद 1867 में हुई जनगणना में नौ स्तम्भ श्रेणी बनाई गयी. वह विलियम्स के हवाले से बताते हैं कि इन नौ श्रेणियों में यूरोपीय, यूरेशियाई, मूल ईसाई, मुसलमानों की उच्च जातियाँ, हिन्दुओं की उच्च जातियों से धर्मान्तरित मुस्लिम, हिन्दुओं की उच्च जातियाँ, हिन्दुओं की निम्न जातियाँ, आदिवासी जातियाँ, धार्मिक भिक्षुक और विविध प्रकार की श्रेणियाँ थीं. जातियों को लेकर इतनी विविधता थी कि एक राज्य की जाति की श्रेणी दूसरे राज्य में अन्य श्रेणी में शामिल हो गयी थी. इस बारे में इयान डंकन ने अपने एक लेख में बताया है कि कैसे एक ही व्यवसाय में शामिल तीन व्यक्तियों ने सर्वेक्षणकर्ता को अलग-अलग जाति का बताया. वह इस प्रकार था-

“कानपुर में एक व्यक्ति ने नृवंशविज्ञान अधिकारी के सामने दृढ़ता से घोषणा की कि वह केवट है, लेकिन उसके दो दोस्तों ने दृढ़ता से कहा कि पहला व्यक्ति अपनी जाति भूल गया है और वह तीनों मल्लाह हैं. उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें कभी एक जाति  का कहा जाता था, कभी दूसरी. एक अन्य व्यक्ति ने पहले कहा कि वह मल्लाह और केवट दोनों है, और फिर उसने दावा किया कि वह मल्लाह है लेकिन खुद को केवट कहता रहा.”[19]

इस तरह से यह दिखाई देता है कि व्यक्तियों के बीच भी भ्रम की स्थिति थी कि वह कौन सी जाति का है और कौन सी जाति का नहीं . क्षेत्रवार इतनी विविधता थी कि 1871-72 की जनगणना में अलग-अलग प्रान्त में अलग-अलग श्रेणियाँ निर्मित की गयी. यह दर्शाता है कि जातीय जनगणना किस तरह के विरोधाभास का सामना कर रही थी. हालाँकि यह जनगणना सम्पूर्ण भारत में नहीं हुई थी. इसकी सबसे बड़ी कमी विभिन्न प्रान्तों में तैयार की गई जातियों के वर्गीकृत श्रेणी को लेकर थी. जातियों के वर्गीकरण में एकरूपता की कमी थी.

भारत की पहली जनगणना को जब ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो यह माना गया कि जातियों के वर्गीकरण को लेकर रिपोर्ट संतोषजनक नहीं है. 1881 की जनगणना के समय तय जाति को लेकर जो औपनिवेशिक समझ थी वह मुख्यतः पाठ्य आधारित समझ थी, जिसे उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ग्रहण किया था. उन्होंने माना कि हिन्दू मानस की समझ इन संस्कृत ग्रंथों से निर्मित होती है. इसकी निर्मिति में प्राच्यवादी विद्वानों जैसे जोन्स, कोलब्रुक और अन्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसलिए समरेन्द्र ने इन अधिकारियों को ‘संस्कृतवादी’ कहा इसलिए कि इन अधिकारियों ने जातियों के पूर्व धारणाओं को जानते हुए भी पाठ्य आधारित वर्ण व्यवस्था को मूल पर प्रामाणिक जाति व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करने वाला माना.

बाद में अनुभवजनित दृष्टिकोण ने इसमें मौलिक परिवर्तन कर दिया. जब वर्णव्यवस्था के मॉडल को अनुभवजन्यता की कसौटी पर कसा गया तो वह खरा नहीं उतरा. इसलिए इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे. समरेन्द्र ने ब्रिटिश आधिकारी कॉर्निश का एक उद्धरण दिया है जो ध्यान देने योग्य है. जिन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में जनगणना कार्यों की देखरेख की थी,

“यह स्पष्ट है कि जाति की उत्पत्ति के बारे में आलोचनात्मक विश्लेषण  में हम हिंदू पवित्र लेखन में दिए गए कथनों पर भरोसा नहीं कर सकते. क्या कभी ऐसा काल था जब हिंदू चार वर्गों से बने थे, यह अत्यधिक संदिग्ध है.”[20]

इसी तरह सी एफ मैगराथ, जिन्हें बिहार से जातियों के संकलन का काम सौंपा गया था उन्होंने कहा, “यह आवश्यक था कि यदि इस वर्गीकरण का कोई उपयोग होना था, तो मनु द्वारा कथित रूप से किए गए चार जातियों के अर्थहीन विभाजन को अब अलग रखा जाना चाहिए.”[21] ट्रॉटमैन के हवाले से वह बताते हैं कि विलियम जोन्स, हेनरी कोलब्रुक और बाद में मैक्स मुलर और जॉन मुइर की भारतीय समाज की प्राच्यवादी व्याख्या ने अनुभवजन्य जांच की शर्तो को आकार देना जारी रखा, जब मानवशास्त्रीय व्याख्याओं ने जाति के पाठ-आधारित संस्करणों को विस्थापित करना शुरू कर दिया था.

वह कहते हैं कि मेरा मानना ​​है कि जनगणना के साथ-साथ शाब्दिक परंपराओं के अनुभवजन्यकरण की प्रक्रिया भी हुई. गणना के दौरान वर्ण व्यवस्था के घटकों जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, आदि का अनुभवजन्यकरण किया गया और एक दृश्यमान और सत्यापन योग्य अनुभवजन्यता को तिलांजली दे दी गई. इसके बाद, जाति को अनिवार्य रूप से एक अनुभवजन्य श्रेणी के रूप में मान्यता दी गई. यह अनुभवजन्य जांच के संदर्भ में है. वह यह जोड़ते हैं कि कि शाब्दिक बनाम वास्तविक के संदर्भ में वर्ण और जाति को संतुलित करने की अकादमिक परंपरा यहाँ से शुरू हुई जो जाति पर लेखन में यह परंपरा आज भी जारी है. बाद में चलकर इसमें नृवंशशास्त्रीय विद्वानों की एक लम्बी श्रृंखला का उदय हुआ, जिन्होंने विभिन्न जातियों की संस्कृति, उत्पत्ति, इतिहास, प्रमुख विशेषताएं और परम्परा को सर्वेक्षण के माध्यम से दर्ज किया. जिसमें विलियम क्रूक, स्मिथ,  रिजले आदि आते हैं.[22].

इसके बाद 1891 में भारत की जनगणना की रिपोर्ट में “नस्ल, जनजाति या जाति द्वारा जनसंख्या का वितरण” शीर्षक वाला खंड जाति के विश्लेषण के साथ शुरू हुआ लेकिन जाति का वर्गीकरण नस्ल पर हो या व्यवसाय पर, इसको लेकर औपनिवेशिक अधिकारी तय नहीं हो पा रहे थे. वह जातियों की पहचान और वर्गीकरण के लिए एक निश्चित पहचान के मापदंड तय नहीं कर पा रहे थे. एक ही जाति के भीतर मौजूद कई जातियों की उपजातियाँ सजातीय विवाह नहीं करती थी. ऐसे में उन्हें एक जाति का मानने में समस्या थी. ऐसा ही कई राज्यों में था. 1901 की जनगणना के आयुक्त  रिस्ले “सामाजिक पदानुक्रम” के सिद्धांत के अनुसार भी अखिल भारतीय पैमाने पर जातियों को वर्गीकृत करने के अपने प्रयास में भी विफल रहे. जातियों की प्रकृति में भिन्नता स्वाभाविक रूप से स्थिति को मापने या पदानुक्रम बनाने में यह मॉडल कार्य नहीं कर रहा था.

वह कहते हैं कि मेरा मानना ​​है कि वर्ण व्यवस्था के घटक अनिश्चित नहीं हैं. यह अनुभवजन्य रूप से सत्यापित नहीं होते हैं. दूसरी ओर हम जातियों की उपस्थिति देख सकते हैं; हालाँकि यह भी भारतीय समाज में कभी भी एकरूप और एकरूप पहचान नहीं रही. इस प्रकार जाति मूल रूप से वर्ण से  भिन्न है. फिर भी, जनगणना कार्यों के दौरान वर्ण-नामों और जाति-प्रथाओं दोनों के साथ इसके जुड़ाव के कारण, इसे समाज के एक घटक के रूप में गलत तरीके से समझा गया है. इसे स्पष्ट करने के लिए वह ब्राह्मण जाति का उदाहरण देते हैं. वह कहते हैं कि “ब्राह्मण जाति” शब्द जो अकादमिक और रोज़मर्रा की भाषा में बहुत आम तौर पर इस्तेमाल की जाती है, उसका क्या अर्थ हो सकता है. वह कहते हैं कि भारतीय समाज में ब्राह्मण नामक कोई जाति न तो कभी थी और न ही कभी हो सकती है. कन्याकुब्ज ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण, नंबूदरी ब्राह्मण, चितपावन ब्राह्मण आदि कुछ ऐसे समूह हैं, जिन्हें जनगणना रिपोर्टों में ब्राह्मण जाति के रूप में माना गया है. कुछ ऐसा ही वाकया रश्मि पन्त ने भी अपने शोध कार्य में दर्शाया है कि कुमायूं का एक ब्राह्मण जो पन्त था, बनारस में खुद को देशस्त ब्राह्मण कहता था, जबकि कुमायूं का एक जोशी ब्राह्मण बनारस में अपने को भूगोल के अनुसार कनोजिया या कुर्माचली ब्राह्मण कह सकता था. ऐसा इसलिए क्योंकि यह मैदानी इलाकों में बहुत हीन माने जाते थे.[23]

गौरतलब है कि इन सभी नामों में ब्राह्मण शब्द न तो अकेले आता है और न ही उपसर्ग के रूप में. यह एक प्रत्यय के रूप में जुड़ा हुआ है और वास्तव में विविध जातियों की पहचान के हिस्से के रूप में प्रकट होता है.  हालाँकि वह निष्कर्ष में मानते हैं कि “जाति” के जन्म से पहले समाज में कोई पदानुक्रम या भेदभाव नहीं था. वर्ण और जाति दोनों, जो प्राचीन काल से परंपराओं के अलग-अलग और परस्पर क्रियाशील अंग रहे हैं. वह पदानुक्रम की अपनी-अपनी धारणाएँ रखते थे. जिस जाति की बात यहाँ हुई है, वह औपनिवेशिक जनगणना की विरासत है जिसका प्रभाव समकालीन भारतीय समाज पर आज भी है. औपनिवेशिक काल के दौरान जो स्थापित कठोर जाति श्रेणियाँ बनी वह आधुनिक भारत में सामाजिक गतिशीलता और राजनीति को प्रभावित करती रहती हैं.

कल्पगम[24] की पुस्तक “रूल बाय नंबर्स: गवर्नमेंटैलिटी इन कोलोनियल इंडिया” औपनिवेशिक भारत के शासन में सांख्यिकी और परिमाणीकरण की भूमिका का पता लगाती है. कल्पगम यहाँ ज्ञान उत्पादन और शक्ति के बीच संबंधों की एक महत्वपूर्ण परीक्षा प्रस्तुत करती हैं, जिसमें इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे संख्याओं का उपयोग भारतीय समाज को प्रबंधित और विनियमित करने के लिए किया गया था. कल्पगम मानती हैं कि भारतीय समाज पर औपनिवेशिक सांख्यिकीय प्रथाओं ने सामाजिक पदानुक्रम, आर्थिक संबंधों और प्रशासनिक प्रथाओं को गहराई से प्रभावित किया. वह इस बात पर प्रकाश डालती हैं  कि सांख्यिकीय श्रेणियों और वर्गीकरणों ने सामाजिक पहचान को नया आकार दिया और सार्वजनिक नीति को प्रभावित किया. औपनिवेशिक सांख्यिकी ने भारत में मौजूदा सामाजिक पदानुक्रमों को मजबूत और नया रूप दिया. जाति, धर्म और जातीयता जैसी सांख्यिकीय श्रेणियों का इस्तेमाल अक्सर भारतीय आबादी को वर्गीकृत करने के लिए किया जाता था, जो शासन, शिक्षा और रोजगार से संबंधित नीतियों को प्रभावित करती थीं. वह तर्क देती हैं कि औपनिवेशिक सांख्यिकी ने भारतीय समुदायों के बीच पहचान के निर्माण में योगदान दिया. औपनिवेशिक राज्य द्वारा परिभाषित सांख्यिकीय श्रेणियाँ अक्सर व्यक्तियों और समूहों को पूर्वाग्रह और पक्षपात की दृष्टि से देखा और इस आधार पर उनके साथ व्यवहार किया, जिससे उनकी  सामाजिक गतिशीलता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रभावित होता था.

सात अध्यायों में विभाजित उनकी किताब का पाँचवाँ अध्याय समाज और उसमें होने वाले जातिगत वर्गीकरण पर केंदित हैं, जिसमें वह आरम्भ में कहती हैं  कि उन्नीसवीं सदी के दौरान जैसे-जैसे औपनिवेशिक शासन के तौर तरीके विकसित हुए वैसे-वैसे प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में नये-नये वर्गीकरण सामने आये. इस वर्गीकरण के लिए जिन नई चीजों का आविष्कार किया गया, उन्हें नया नाम दिया जाना जरूरी था. पुराने प्रशासनिक ढांचे में परिवर्तन हुए और नये तरीके सामने आये. इससे वर्गीकरण का एक नया तर्क विकसित हुआ. यह तर्क नई सामाजिक और राजनीतिक कल्पना का परिणाम थे. जनगणना और सर्वेक्षण के माध्यम से नस्ल, जाति, धर्म और व्यवसाय के आधार पर जनसंख्या का वर्गीकरण और गणना ने पहली बार समाज को सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता की दिशा की ओर अग्रसर किया. जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति हुई वैसे-वैसे परिमाणीकरण में वृद्धि होती गई.

जाति के सन्दर्भ में वह कहती हैं कि जाति एक सीमा तक भारतीय समाज में पहचान का प्रतीक रही है. जिसे अक्सर पहचान के सन्दर्भ में निर्धारित किया जाता था. सामाजिक पहचान के सन्दर्भ के रूप में जाति मंदिर आधारित समुदायों, क्षेत्रीय समूहों, वंशों, पारिवारिक इकाइयों शाही पहचान, अनुचर, योद्धा, उपजातियों, व्यावसायिक समूहों के साथ चलती रही. पुरानी शासन व्यवस्थाओं ने जातिगत पहचान सार्वजनिक रूप से विशेष इलाकों में विभिन्न रूपों में सीमित थी क्योंकि प्रत्येक जाति का सम्मान, स्थिति और विशेषाधिकार राजनीतिक सत्ता से संचालित होते थे.

1820 में हुए मेकेंजी और बुकानन के सर्वेक्षण भारत की विशिष्टता को परिभाषित नहीं कर रहे थे. हालाँकि 1830 के दशक तक जाति को औपनिवेशिक वाद-विवाद में एक विशिष्ट विशेषता के रूप में महत्व दिया जाने लगा था और स्थानीय क्षेत्रीय में होने वाली गतिविधियों में जातीय श्रेणियों का प्रयोग किया जाने लगा था. यह बहुत अस्पष्ट होता था. आगे उन्होंने अप्पादुरई, समरेन्द्र, डर्क्स के तर्कों के आधार पर ही बातें की हैं. जातिगणना में होने वाली समस्याओं में उन्होंने ‘संस्कृतिकरण’ को भी एक कारक मानते हुए कहा है कि इसके कारण नई जातियों के उदय के साथ दूसरी निम्न जातियाँ जनगणना में उच्च दर्जे की मांग कर रही थीं.  उनका मानना था कि वर्गीकरण के तर्क कई बार औपनिवेशिक विचारों से प्रभावित होते थे. इसमें यूरोपीय विचारों को उधार लेकर औपनिवेशिक शासन ने नीतियाँ तैयार कीं. प्रशासनिक उद्देश्यों के अनुरूप जनसंख्या के व्यवहार को परिभाषित किया.

उदाहरण के लिए देशी अपराध के लिए ब्रिटिश विचार नस्ल, जाति और समूहों के इर्दगिर्द विकसित हुए क्योंकि पुलिस और न्याय की पूर्व औपनिवेशिक धारणा मनुस्मृति में निर्धारित जाति पदानुक्रम के साथ मेल खा रही थी. डकैती और ठगी को रोकने के लिए 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने अनुच्छेद 35 प्रस्तुत किया, जिसने डकैती की सजा को व्यक्तिगत अपराधों से बढ़ाकर पूरे परिवार और गांव तक को इसमें शामिल कर लिया. उसे इस आधार पर उचित ठहराया कि भारत के डाकू या अन्य अपराधियों की तरह नहीं होते हैं.वह इस पेशे से जन्म से जुड़े होते हैं. सबसे महत्वपूर्ण की वह एक निश्चित समुदाय से बने होते हैं. इस तरह के वर्गीकरण का प्राथमिक उद्देश्य उपनिवेशित लोगों को सामाजिक पहचान के आधार पर एक आबादी को कलंककृत करना था. बाद में इसके तहत पिंडारियों का दमन किया गया.

आपराधिक समुदाय की परिभाषा अस्पष्ट होने के कारण इसमें किसी को अपराधी माना जा सकता था. यह धीरे-धीरे एक आपराधिक जनजातियों के औपनिवेशिक निर्माण में परिवर्तित हुआ जिसके परिणामस्वरूप 1871 का आपराधिक जनजातीय कानून बना, जिसमें आगें चलकर कई जातियाँ और जनजातियाँ अपराधी मानी गयी. इन पर कई तरह के कठोर प्रतिबन्ध लागू किये गये. यह उस परियोजना के तहत हुआ, जहाँ औपनिवेशिक शासन मानता था कोई विशेष समुदाय उसके लिए अगर संकट खड़ा करता है तो उसे नियंत्रित किया जा सके[25].

वह आगे बताती है कि 1931 की जनगणना में कई समाज सुधार संगठनों ने जनगणना में जाति को शामिल करने के खिलाफ सक्रिय रूप से आन्दोलन चलाया. जहाँ तक मुस्लिमों में जातियों का प्रश्न है तो 1921 की जनगणना में उन्हें दर्ज किया था लेकिन 1931 की जनगणना में उन्हें मोमिन और गैर-मोमिन के अलावा उनकी जातियों को दर्ज नहीं किया गया था. मुसलमानों में जातियों के उल्लेख के खिलाफ 1941 की जनगणना का अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्ना ने विरोध किया. वह मोमिन और गैर मोमिन श्रेणी को भी  समाप्त करने के पक्ष में थे. विरोध के बाद भी 1931 की जनगणना में जाति के कॉलोम को बरकरार रखा गया लेकिन व्यक्तियों को अपनी जातियों को दर्ज न करने का भी विकल्प भी दिया गया था. राष्ट्रवादियों द्वारा जाति के कॉलोम के घोर विरोध के बावजूद रखने का कारण मूल यह था कि उसी के साथ निम्न जातियाँ इसकी मांग पुरजोर  तरीके से कर रही थी.

प्रीतम सिंह[26] ने अपने लेख में स्पष्ट रूप से इसका विश्लेषण किया है. वह बताते है कि औपनिवेशिक भारत पर काम करने वाले इतिहासकारों ने यह अक्सर तर्क दिया है कि औपनिवेशिक जनगणना ने भारतीय समाज में जाति विभाजन को और मजबूत किया.(कोहेन, डर्क्स, अप्पादुरई, समेंद्र) इसके विपरीत इस लेख में विश्लेषित किया गया है कि जनगणना श्रेणी के रूप में जाति विशेष रूप से निचली जातियों के लिए महत्वपूर्ण थी. जनगणना रिपोर्टों ने जाति के आंकड़ों ने निचली जातियों के हाशिए पर होने को उजागर किया और सत्ता के लिए उनके द्वारा अपने दावों को बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. उन्होंने अपने लेख में लिखा है कि-

“1918 में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया शुरू करने के उद्देश्य से साउथबोरो समिति ने निचली जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विमर्श में शामिल किया. जनगणना रिपोर्ट जाति हितों का राजनीतिक स्थल बन गई थी. इस समिति की कार्यवाही के दौरान, सबसे बड़े जाति-विरोधी नेता बीआर अंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा तैयार की गई जनगणना रिपोर्टों के आधार पर बॉम्बे विधान परिषद में निचली जाति समूहों के प्रतिनिधित्व का दावा किया. उन्होंने जनगणना के आंकड़ों का उपयोग करते हुए तर्क दिया कि विधान परिषद के निर्वाचित सदस्यों में से 8% अछूत जाति समूहों से आने चाहिए क्योंकि वे कुल जनसंख्या का 8% हिस्सा थे. अब तक अछूत जातियों का प्रतिनिधित्व बम्बई विधान परिषद में शून्य था, जबकि उनकी जनसंख्या कुल जनसंख्या का 8% थी.”[27]

निचली जातियों की इन मांगो को उच्च जाति के राष्ट्रवादियों और सुधारकों ने औपनिवेशिक जनगणना के माध्यम से बनाए गए विभाजन के रूप में देखा. इसलिए उच्च जातियों की मांगो के कारण, 1941 की जनगणना के लिए जनगणना श्रेणी के रूप में जाति को हटा दिया गया. यह निचली जातियों के लिए एक बड़ा झटका था, जो सार्वजनिक क्षेत्र में अपने प्रतिनिधित्व को वैध बनाने के लिए जनगणना के आंकड़ों का उपयोग कर रहे थे. इसे उच्च जातियाँ एक खतरे के रूप में देख रही थीं. हिन्दुओं ने दलितों के लिए आरक्षित सीटो का विरोध किया. मार्च 1939 में केन्द्रीय असेम्बली में एस. सत्यमूर्ति ने कहा कि सरकार को देश को जातियों में नहीं बाँटना चाहिए.[28]

गाँधी ने कहा कि अस्पृश्यता जनगणना का उत्पाद है. उनके अनुसार अगर सरकार जनगणना में इसका निषेध करती है तो यह अपने आप ख़त्म हो जाएगी. उन्होंने अछूतों की संख्या को भी मानने से इंकार कर दिया. लेख आगे बताता है कि कांग्रेस की बाम्बे शाखा ने अपने एक सम्मेलन में इसका विरोध किया. आर्य समाज ने तर्क दिया कि औपनिवेशिक सरकार अछूतों की गिनती हिन्दुओं में करे. एक हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन ने कहा कि हिन्दू अपनी जाति का उल्लेख न करे और अपने को आर्य बताएं. बी.एस. मुंजे ने तर्क दिया कि हिन्दुओं को बिना जाति के गिना जाना चाहिए. यहाँ वह जिन्ना के तर्कों के साथ खड़े होते दिखाई देते हैं, जो वह मुस्लिमों के सन्दर्भ में दे रहे थे. कांग्रेस ने 1931 की जनगणना का विरोध किया और नेहरू ने कहा कि किसी को भी जनगणना में सहयोग नहीं करना चाहिए. प्रीतम सिंह ने कांग्रेस के सदस्य वी. के. कृष्ण मेनन का एक उद्धरण पेश किया है जो इस प्रकार है-

“किसी को भी अपनी जाति और नाम नहीं बताना चाहिए. जिस किसी को यह नोट मिले, उसे अपने दोस्तों को इससे दूर रहने के लिए राजी करना चाहिए. आपसे अनुरोध है कि आप सभी संभव तरीकों से जनगणना का बहिष्कार करेंगे.”[29].

इस तरह से देखे तो राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी संगठन जातीय जनगणना का विरोध कर रहे थे. वही दूसरी तरह एक निचली जाति के मंत्री प्यारे लाल कुरील ने सरकार से अनुरोध किया था कि जनगणना रिपोर्ट में अछूत जातियों की अलग से गणना और सारणी बनाई जाए. निष्कर्ष में वह कहते हैं कि राष्ट्रवादियों ने यह तर्क दिया कि औपनिवेशिक जाति जनगणना औपनिवेशिक डिजाइन का एक पहलू थी, जिसने जाति-आधारित विभाजन पैदा किया जो राष्ट्रवाद के विरुद्ध था. इस मत के विरुद्ध सिंह ने तर्क दिया है कि उच्च जातियों के आधिपत्य और निचली जातियों के हाशिए पर होने को समझने के लिए जनगणना के आंकड़े महत्वपूर्ण थे.

 

 

2

वही दूसरी तरफ विद्वानों का एक समूह जाति को औपनिवेशिक निर्मिति मानने की बजाय उसे निरंतरता के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हैं जो औपनिवेशिक शासन से पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद थी. विद्वानों का यह समूह उस धारणा से साम्यता रखता है जो ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राच्यवादी विद्वानों ने पूर्व-औपनिवेशिक युग की बनायीं थी. यह भी समूह उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास-लेखन से प्रेरित था. पिछली शताब्दी के अंतिम दो दशकों के दौरान कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से जुड़े दक्षिण एशिया के इतिहासकारों ने जाति, औपनिवेशिक ज्ञान और दक्षिण एशिया में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की ऐतिहासिक व्याख्याएं कीं हैं, जो उपरोक्त समीक्षा की गई व्याख्याओं के बिल्कुल विपरीत हैं. यह परंपरा मानती है कि पूर्व-औपनिवेशिक काल में सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता में निरंतरता थी, जो पूर्व-औपनिवेशिक काल से औपनिवेशिक युग तक बनी रही. यह समूह जाति को भी इसी निरंतरता के क्रम में देखता है. उपनिवेशवाद द्वारा अस्तित्व में लाई गई धारणाओं को पूरी तरह से नकारे बिना, इन इतिहासकारों ने आधुनिक भारत के अपने विश्लेषण में पूर्व अतीत के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश पर उचित विचार किया; जिसके भीतर औपनिवेशिक शासन स्थापित किया गया था.

जाति की निरंतरता पर सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली ऐतिहासिक कार्य सुसान बेली[30] ने किया है. यह भारत में जाति व्यवस्था के विकास का एक व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं, जो पूर्व औपनिवेशिक काल से लेकर औपनिवेशिक काल और आधुनिक काल तक को समेटती हुई चलती है. बेली ने इस बात का गहन विश्लेषण किया है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, आर्थिक परिवर्तन और सामाजिक सुधारों सहित विभिन्न ऐतिहासिक परिवर्तनों के द्वारा जाति को एक नया रूप दिया गया. उन्होंने सामाजिक पदानुक्रमों को प्रभावित करने वाली विभिन्न स्थानीय प्रथाओं पर प्रकाश डाला, जिसमें जाति को औपनिवेशिक प्राच्यविदों द्वारा निर्मिति के मत को ख़ारिज किया गया है. कैम्ब्रिज इतिहास-लेखन के कुछ विशिष्ट पहलुओं का उदाहरण देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि उपनिवेशवाद की कई मामलो में आलोचना की जा सकती है, लेकिन कुछ ऐसी प्रथाएँ और व्यवस्थाएं थीं, जो ब्रिटिश विजय से बहुत पहले से चल रहे थी. वह अपने एक लेख में प्राच्यवादी धारणाओं पर बात करते हुए लिखती हैं –

“औपनिवेशिक शासन की शुरुआत से पहले ही यह (जाति) सभी कार्य चल रहे थे. ब्रिटिश शासन के तहत उपमहाद्वीप का अधिकांश हिस्सा जाति चेतना को लेकर अधिक व्यापक हो गया लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जाति किसी भी अर्थ में औपनिवेशिक विद्वान और आधिकारियों की निर्मिति थी या पश्चिमी विद्वानों की गलत काल्पनिक धारणा थी. इसलिए उपनिवेशवाद के अंतर्गत जाति के अर्थ की खोज में केवल ‘प्राच्यवाद’ पर ध्यान केन्द्रित करना और इसे जबरिया राजनीतिक दृष्टिकोण से देखना गलत होगा.”[31]

बेली ने औपनिवेशिक काल से पहले, उसके दौरान और उसके बाद जातिगत मूल्यों, परंपराओं, मानदंडों और जीवन शैली को वैकल्पिक रूप से प्रचारित करने में भारतीयों द्वारा निभाई गई भूमिका को अपने विश्लेषण का केंद्रीय तर्क बनाया है. उन्होंने पूर्व-औपनिवेशिक राज्यों और शासकों द्वारा जाति को दिए गये प्रोत्साहन पर ध्यान केंद्रित किया और ब्रिटिश शासन को जाति के निर्माण में एक सक्रिय तत्व के रूप में देखा, जो उसे निरंतरता प्रदान कर रहा था.

वह वेद और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों का विश्लेषण करती हैं, जो वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में समाज का वर्गीकरण) के लिए वैचारिक और धार्मिक आधार प्रदान करते हैं. जाति व्यवस्था के भीतर विविधता और क्षेत्रीय विविधताओं पर जोर देते हैं. भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति संरचना स्थानीय आर्थिक गतिविधियों, सांस्कृतिक प्रथाओं और राजनीतिक व्यवस्थाओं से प्रभावित थी. बेली चर्चा करती हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों ने जाति व्यवस्था को वर्गीकृत और संहिताबद्ध करके भारतीय समाज को समझने और प्रबंधित करने का प्रयास किया.

उन्होंने माना कि अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण उपकरण जनगणना थी, जिसने जाति, जनजाति, धर्म और अन्य श्रेणियों के आधार पर जनसंख्या को वर्गीकृत किया. इसने न केवल जाति पहचान को मजबूत किया बल्कि अक्सर नए भेद और पदानुक्रम भी बनाए जो पहले इतने कठोर रूप में मौजूद नहीं थे. अंग्रेजों ने कई कानूनी और प्रशासनिक सुधार पेश किए, जिनका जातिगत गतिशीलता पर असर पड़ा. उदाहरण के लिए, संपत्ति के अधिकार, विवाह और विरासत से जुड़े कानून जातिगत विचारों से प्रभावित थे.

वह मानती हैं कि ब्रिटिश कानूनी व्यवस्था ने जाति-आधारित प्रथाओं को भी मान्यता दी और लागू किया, जिससे सामाजिक विभाजन और भी गहरा हो गया. औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों, जैसे कि भूमि राजस्व प्रणाली और कृषि के व्यवसायीकरण का जाति संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ा. पारंपरिक आर्थिक भूमिकाएँ बाधित हुईं और श्रम और उत्पादन के नए रूप सामने आए. इन परिवर्तनों से अक्सर उच्च जातियों को लाभ हुआ, जबकि निचली जातियों और आदिवासी समुदायों के आर्थिक हाशिए की स्थिति और भी खराब हुई.

बेली के विचार में पारंपरिक रूप से ‘कल्पित जाति’ की उत्पत्ति प्राच्यवादी विचारों में नहीं बल्कि सत्रहवीं शताब्दी में होने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में देखी जा सकती है, जब लोगों की दैनिक गतिविधियों में जाति आदर्शों का प्रभाव बढ़ रहा था. मोटे तौर पर यह औपनिवेशिक काल से पहले ही शुरू हो चुका था, जो ब्राह्मणवादी आदर्शों का राज्य के साथ मिलाप था; जिसने जाति मानदंडों को पूरे देश में फैलाने में योगदान दिया. इस पूरी प्रक्रिया को  बेली ने ‘ब्राह्मण राज’ कहा है.  मुगल काल के बाद के उतार-चढ़ाव और अनिश्चितताओं भरे समय में ऐसी प्रक्रियाओं ने अपने दायरे में कई तरह के विकास को शामिल किया, जो जातिगत आचार संहिता के अनुसार अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश कर रहे थे. हालांकि बेली ने इस बात पर सहमति जताई कि ब्रिटिश शासन के तहत जाति चेतना अधिक व्यापक हो गई थी.

इस प्रकार बेली के ब्रिटिश भारत में जाति के विश्लेषण में दो केंद्रीय अंतर्दृष्टि उभर कर सामने आईं, जिसमें एक ओर जाति की निरंतरता थी और दूसरी ओर भारतीय एजेंसी द्वारा उसे बढ़ावा देना था. पहला दावा यह था कि ऐसा नहीं था कि भारत का जाति समाज औपनिवेशिकता का परिणाम था. हाँ, यह जरुर है था कि उनके द्वारा अपनाई गई तकनीकों ने इसे बढ़ावा दिया. दूसरा तर्क यह था कि यह स्वयं भारतीयों की अपनी भीतर एक विस्तृत विविधता थी, जिन्होंने जाति के आदर्शों और प्रथाओं को प्रचारित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने इसी जाति भेद और अंतर को तेज करने की कोशिश की.

सुमित गुहा[32] ने इस धारणा के खिलाफ लिखा कि औपनिवेशिक भारत में आधुनिक राजनीतिक पहचान के रूप में जाति का उदय काफी हद तक उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत की जनगणनाओं का परिणाम थी. इस दृष्टिकोण से हटकर, उन्होंने उदाहरणों के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया कि कैसे जाति और समुदाय की पहचान मुगल भारत में अच्छी तरह से परिभाषित और पूरी तरह से महत्वपूर्ण थी. गुहा ने इस अवधि के दौरान भारत को प्रभावित करने वाली प्रमुख राजनीतिक संस्थाओं की रूपरेखा तैयार की है, जिसमें मुगल साम्राज्य, विभिन्न क्षेत्रीय राज्य और बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश क्राउन शासन शामिल हैं. इनमें से प्रत्येक संस्था की अपनी प्रशासनिक प्रथाएँ और ज़रूरतें थीं, जिसने आबादी की गणना और वर्गीकरण के तरीके को आकार दिया.

ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले, भारत में स्थानीय और क्षेत्रीय शक्तियाँ शासन और प्रशासन के लिए विविध तरीकों का इस्तेमाल करती थीं. इनमें कराधान, सैन्य भर्ती और संसाधन आवंटन के लिए अनौपचारिक गणनाएँ शामिल थीं. ये विधियाँ स्थानीय सामाजिक संरचनाओं, जैसे जाति पदानुक्रम और सामुदायिक नेटवर्क के साथ गहराई से जुड़ी हुई थी. ये गणनाएँ मुख्य रूप से सांख्यिकीय यथार्थता प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं थीं, बल्कि शासन के लिए उपकरण थीं. उदाहरण के लिए, स्थानीय अधिकारी कर संग्रह या श्रम जुटाने की सुविधा के लिए घरों या गाँवों का रिकॉर्ड रख सकते थे.

सात अध्यायों में विभाजित अपनी किताब की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि-

“इस पुस्तक के दो उद्देश्य हैं. इसका मुख्य उद्देश्य पिछली सहस्राब्दी में दक्षिण एशियाई राज्य और समाज की गतिविधियों की एक नई, ऐतिहासिक रूप से वस्तुपरक समझ को प्रस्तुत करना है; दूसरा उद्देश्य इस क्षेत्र में जातीय राजनीति की दीर्घकालिक प्रक्रियाओं की तुलनात्मक समझ के लिए आधार प्रदान करना है क्योंकि यह आधुनिकता के साथ आया और राज्य शक्ति के आधुनिक रूपों से आकार ग्रहण किया. इन उद्देश्यों को प्राप्त करके हमें ‘जाति व्यवस्था’ पर व्यापक रूप से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है जो सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप की लोकप्रिय और विद्वानों की समझ में वह केंद्रीय रूपक रही है. मेरा तर्क है कि हजारों जातीय संगठन समूहों में से प्रत्येक के आंतरिक कामकाज और बाहरी संबंधों के लिए एक एकल, एकीकृत तर्क खोजने का प्रयास अंततः निरर्थक है. हमें इस समाज को किसी भी जटिल सभ्यता की तरह, बहु-स्तरीय या बहु-आयामी  रूप से सोचना शुरू करना चाहिए. एक जाति समाज एक ही सांगठनिक गठजोड़ में कई धागों को अनोखे ढंग से जोड़ता है.”[33]

किताब के पहले ही अध्याय में उन्होंने विश्लेषित किया है कि जाति का उद्भव कैसे हुआ. इस अध्याय की शुरुआत वह डर्क्स के उस कथन से करते है कि, “भारत के बारे में सोचते समय जाति के बारे में न सोचना कठिन है.”[34] वह डर्क्स के इस तर्क को संदर्भित करते हुए बताते हैं कि भारतीय भाषाओं में ‘जाति’ के लिए कोई सटीक अर्थ बता पाना मुश्किल है. अंग्रेजी में इसे पुर्तगाल से उधार लिया गया है. अंग्रेजी शब्द ‘कास्ट’ के लिए पर्यायवाची शब्द हो सकते हैं जैसे जाति, नस्ल, राष्ट्र, जनजाति, वंश और जातीय समूह. इसमें से किसी भी शब्द का उपयोग जाति के लिए किया जा सकता था या किसी एक शब्द का उपयोग जाति के अर्थ में किया जा सकता था या किसी भारतीय शब्द को अपनाया जा सकता था. लेकिन उन्होंने यूरोपीय सिद्धांत में ‘रक्त की शुद्धता’ को अपनाया और इसे भारतीय समाज पर आरोपित कर दिया. इस प्रकार जाति और कास्ट आपस में मिल गये.

नस्लीय शुद्धता की उभरती यूरोपीय धारणाओं को हिन्दू धार्मिक शुद्धता के साथ मिला दिया गया. बाद में विद्वान जाति की धार्मिक परिभाषा की ओर मुड़ गये. जब पुर्तगालियों ने दक्षिण को जीता तो पुर्तगाली वहां की मुख्य भाषा बन गई, जिसे दुभाषियों, नाविकों, सैनिको, कलर्को, रखैलो आदि ने अपना लिया. आगे उन्होंने बताया है कि यूरोपीय नस्ल का विचार भारत में जाति से प्रतिस्थापित हो गया. इसमें पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसकी निर्मिति में वह ईसाई चर्चों की भूमिका को देखते हैं. वह कहते हैं कि अधिकांश लोगों की आज की तरह तब भी कई पहचाने थी और अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग पहचान सामने आ सकतीं थीं. प्रारम्भिक मराठी ग्रंथो में 1290 की शुरुआत में पश्चिमी भारत में भाषा और जातीय समूह दोनों के लिए मरष्ठा (बाद में मराठा) नाम का इस्तेमाल किया जाता था. बाद में जब इब्नबतूता ने इस क्षेत्र की यात्रा की तो उसने टिप्पणी की कि यह मराठा जनजाति या कबीला का क्षेत्र था. जहाँ कुलीन वर्ग को बरहम और खट्टर कहा जाता था. बाद में हम देखते हैं कि कैसे मराठा एक जाति रूप में परिवर्तित होती गई.

वह आगे बताते हैं कि सोलहवीं शताब्दी में मुग़ल प्रशासन ने विशेष समुदायों के लिए ‘कौम’ शब्द का इस्तेमाल करना शुरू करके इसे लोकप्रिय बना दिया. आइन-ए-अकबरी में साम्राज्य की विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों के लिए कुलीन वर्ग को एक अभिजात्य कौम के तहत सूचीबद्ध किया गया, भले ही उनका धार्मिक रुझान कुछ भी हो. यह शब्द आम सैनिकों से उन्हें अलग करता था. यह शब्द अठारहवीं शताब्दी तक प्रचलित रहा. पश्चिम भारत में कौम शब्द मराठी की आधिकारिक भाषा में शामिल हो गया. हालाँकि बाद में यह शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करता गया. यह एक ही प्रान्त के भीतर विभिन्न अर्थ ले रहा था. डेंजिल इबेट्सन के हवाले से वह कहते हैं कि 1883 में कौम का अर्थ धर्म के लिए और जात का उपयोग जाति के लिए किया जाने लगा. जबकि पश्चिम में कौम का इस्तेमाल जाति के लिए और जात का उपयोग जनजाति या वंश के लिए किया जा रहा था.

1891 की जनगणना में जोधपुर राज्य की जनगणना में कहा गया कि, “राजपूत एक प्रसिद्ध कौम है.” बाद में इनके लिए खाप शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा. खेती करने का काम करने वाले लोगों के लिए ‘खेती कौम’ का इस्तेमाल किया गया. 1931 की जनगणना में हम देखते हैं कि किसान एक जाति के रूप में उल्लिखित है.[35] बाद के दशको में कास्टा, कास्ट और जाति का इस्तेमाल मुख्य रूप से विभिन्न यूरोपीय देशों द्वारा एक ही सन्दर्भ में किया जाने लगा. उदाहरण के रूप में वह बताते हैं कि  1730 में तीन भारतीय प्रतिनिधि पुर्तगाल के राजा को एक याचिका प्रस्तुत करने के लिए एकत्रित हुए. यह वास्तव में बनिया, ब्राह्मण और सुनार जातियाँ (ओरिव्स) थे. प्रारम्भिक औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानी इन समूहों को स्तरीकृत करने के लिए ‘जाति’ और ‘जनजाति’ शब्द का स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल करने लगे.

आगे वह कहते हैं कि इन श्रेणियों का पता लगाने के बाद भी हमें पता नहीं चलता है कि राज्यों ने इन्हें क्यों और कैसे लागू किया. जनगणना आयुक्त बनने से पहले इबेस्ट्सन पूर्वी पंजाब में बंदोबस्त अधिकारी रह चुका था. इसका मतलब यह था कि उसे स्वामित्व (विवाह, विरासत और विभाजन) गाँव के प्रबंधन और दावों से निपटना जरूर पड़ा होगा. इस अनुभव के आधार पर उसने पूर्बी पंजाब के बारे में लिखा कि धर्म परिवर्तन से धर्मान्तरित व्यक्ति की जाति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मुसलमान राजपूत, गूजर या जाट सभी सामाजिक, प्रशासनिक और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उतने ही राजपूत, गूजर और जाट हैं, जितना उनका हिन्दू भाई. आगे वह प्राच्यवादी अध्ययनों को मिशनरियों के उद्देश्यों के लिए सही ठहराते हुए कहते हैं कि कई मतभेदों के बाद भी प्राच्यवादी अध्ययनों और मिशनरियों ने समाज में ब्राह्मण प्रभुत्व को माना था, जिसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति जाति को पदानुक्र्मित पूर्वाग्रह से देखने की थी.

सेंट जेवियर के हवाले से वह कहते हैं कि 1544 में हिन्दुओं (गैर यहूदियों) में एक विकृत ‘नस्ल’ थी जिसे ब्राह्मण के रूप में जाना जाता था जो अन्य सभी हिन्दुओं को नियंत्रित करते थे. इससे पहले अलबरूनी ने भी भारतीय समाज के पदानुक्रम पर अपनी किताब में लिखा था, जिसमें ब्राह्मण सबसे ऊपर थे जो विभिन्न परम्पराओं से अन्य को नियंत्रित करते थे. ब्राह्मण के अशुद्ध होने के बाद उसे शुद्ध करने के प्रक्रिया का जो उल्लेख अलबरूनी ने किया है वह गौर करने लायक है.[36]

वह लिखते हैं कि प्राच्यवादियों ने यह माना कि ब्राह्मण सच्चे सिद्धांतों को जानते हैं लेकिन उन्हें छिपाने की साजिश करते हैं. इसके तीन शताब्दी बाद अग्रणी इंडोलाजिस्ट और पादरी जॉन विल्सन ने इस आविष्कार को ख़ारिज करते हुए इसे धोखाधड़ी करार दिया. उन्होंने तर्क दिया कि इसका प्रभाव यह हुआ कि ब्राह्मणों के हाथों में जल्द ही प्रशासन अन्यायपूर्ण, अत्याचारी और अनुचित बन गया. लेकिन भारत की शास्त्रीय भाषाओं के ज्ञान पर आधारित प्राच्यवादी विचार पर आधारित जाति को केन्द्रिय प्रतिमान के रूप में बदल दिया. आगे उन्होंने लगभग डर्क्स, अप्पादुरई, बेली आदि के मतों से सहमत और असहमत होते हुए वही तर्क दिए हैं जो अन्य विद्वानों के यहाँ भी दिखाई पड़ते हैं.

अपने एक अन्य अध्ययन में वह कहते हैं कि 1880 के दशक में ऐसे कई भूमिधारियों ने वंशानुगत वंशावलियाँ तैयार करवाई, जिसमें इस्लाम से परिवर्तित किसान भी शामिल थे. हालाँकि इन लोगों ने मिरासी शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया था. वह डेंजिल इबेस्ट्सन के हवाले से कहते हैं कि 1880 के दशक में पंजाब के नृवंश विज्ञान संबंधी विवरण में कहा गया था कि मिरासी निम्न कृषि जातियों में वही हैं जों क्षत्रियों में भाट हैं. नेशफिल्ड ने भी आज के उत्तर प्रदेश में 1881 की जनगणना में व्यवसायों का विश्लेषण करते हुए टिप्पणी की कि आधिकांश क्षत्री(राजपूत ठाकुर) अभी भी वंशावलियों के आधार पर दावे कर रहे थे लेकिन इस प्रथा में उत्तरोत्तर कमी होती जा रही थी.

इसी के साथ भाट क्षत्रियों के साथ और निम्न दर्जे पर गिरते जा रहे थे. ऐसी ही वंशावलियों का विवरण वह विदर्भ के सन्दर्भ में देते हैं कि जब हैरी-कार्नेक ने 1867 में मध्य भारत में कपास की नई किस्म पेश करने की पेशकश की तो उन्होंने नागपुर के कई वंशानुगत आधिकारियों को अपने साथ बरार चलने के लिए कहा. उसमें से एक वंशानुगत देशमुख था जो आपने साथ एक विस्तृत वंशावली लाया था, जिसमें उसके अपने परिवार और यजमानो तथा अन्य चीजों  का जिक्र था. यह वंशावलियाँ बताती हैं कि गणना, सर्वेक्षण और वर्गीकरण पूर्व औपनिवेशिक काल में भी होते थे. यह सिर्फ ब्रिटिश अधिकारी या प्राच्यवादी उत्पाद नहीं थे.[37]

जाति की पूर्व-औपनिवेशिक निरंतरता पर बल देता ऐतिहासिक चर्चाओं में महत्वपूर्ण लेख रोजालिंड ओ’हैनलॉन[38] का शोध आलेख औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में जाति की समझ और कार्यप्रणाली में आए बदलावों का सूक्ष्म विश्लेषण प्रदान करती हैं. वह बताती हैं  कि डेविड वाशब्रूक जैसे विद्वानों ने मद्रास प्रान्त की राजनीतिक गतिविधियों का अध्ययन करते हुये यह माना कि औपनिवेशिक आर्थिक गतिविधियों और कृषि में हुए परिवर्तनों ने पहले से प्रचलित जाति संस्था को एक नया आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका मानना है कि बाद के दशकों में उत्तरआधुनिक इतिहासकारों और मानवविज्ञानियों ने जाति के ‘औपनिवेशिक निर्मिति’ और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में इसकी स्थायी विरासत पर अधिक जोर दिया है.

अपने लेख में वह जाति की औपनिवेशिक निर्मिति को ख़ारिज करते हुए कहती हैं कि औपनिवेशिक कालीन जातीय बहसो और संघर्ष से पहले अगर क्षेत्रीय स्तर पर देखें तो जातीय निरंतरता दिखाई देती है. इसको वह ब्राह्मण और गैर-ब्राहमण के बीच विरोधाभासो को दक्कन के अहमदनगर, बनारस और पश्चिमी भारत में उसके अस्तित्व के संकेत के रूप में दिखाती हैं. बाद में यह औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा में आधिकारिक रूप से शामिल कर लिया गया.

अपने लेख में वह उत्तरआधुनिक विद्वानों की आलोचना करते हुए लिखती हैं कि प्राच्यवादी ज्ञानमीमांसा और औपनिवेशिक ज्ञान पर एडवर्ड सईद के विश्लेषण द्वारा खोले गए दृष्टिकोणों पर आधारित अप्पादुरई, इंडेन, कोहन, डर्क्स और शिकागो स्कूल के अन्य विद्वानों ने तर्क दिया कि ड्यूमॉन्ट का दृष्टिकोण मूल रूप से ‘ओरिएंटलिस्ट’ दृष्टिकोण था, जो भारतीय समाज को जाति से उत्पन्न एक एकल अपरिवर्तनीय सार के रूप में समझता था. ड्यूमॉन्ट जिस जाति को देख रहे थे, वह वास्तव में उपनिवेशवाद के युग में निर्मित जाति थी. यहाँ, ब्राह्मणों को हिंदू सामाजिक व्यवस्था के आधिकारिक मार्गदर्शक के रूप में माना गया था. औपनिवेशिक राज्य की पहल जैसे कि जनगणना और ‘पिछड़े’ समुदायों के पक्ष में सकारात्मक कार्यवाही की उसकी योजनाओं ने मुख्य रूप से जाति के संदर्भ को पहचानने और संगठित करने के लिए प्रेरित किया.

वह पारंपरिक आख्यानों को चुनौती देती हैं और ब्रिटिश शासन के तहत जाति की जटिलताओं और गतिशीलता पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं. वह मानती है क्षेत्रीय स्तर पर जातीय पदानुक्रम को लेकर विभिन्नता थी. दक्षिण भारत में क्षत्रिय और वैश्य की पहचान ज्यादा मजबूत थी बनिस्बत उत्तर भारत के. यहाँ शुद्र राजा हो सकते थे, जो अपने राजत्व की वैधता के लिए द्विज जातियों पर निर्भर नहीं थे. ठीक यही बात इतिहासकार सुबीरा जायसवाल ने अपने एक व्याख्यान में कही जो बाद में प्रकाशित हुआ  [39].

वही दूसरी तरफ उत्तर भारत में केंद्रीकृत मुग़ल साम्राज्य के अंतर्गत एक प्रभुत्वशाली क्षत्रिय समुदाय का निर्माण सम्भव हुआ. सैन्यबल कि मांग के कारण कई कृषक जातियों ने क्षत्रिय दर्जे को हासिल करने कि कोशिश की. पश्चिम में मराठा एक खुली श्रेणी थी जो सैन्य सम्मान से जुड़ी थी. इसमें वह कृषक समुदाय शामिल हो सकते थे जो सैन्य सेवा देना चाहते थे[40]. जब उत्तर भारत से कायस्थ दक्षिण भारत आयें तो उनकी लिपिक के कार्य में प्रतिस्पर्धा ब्राह्मणों से हुई, वही दूसरी तरफ कृषि में भी बदलाव हो रहे थे; जिससे ब्राह्मणों के भीतर भी सामाजिक विभाजन बढ़ रहा था. ऐसे में ब्राह्मण विद्वानों ने पदानुक्रम आधारित वर्ण व्यवस्था का बचाव किया जिसमें प्रमुख रूप से उभरकर सामने आते हैं गोपीनाथ. इन्होंने 14वीं शताब्दी में मनुस्मृति के आधार पर ‘जातिविवेक’ नामक पुस्तक लिखी. 17वीं शताब्दी में यही जातिविवेक औपनिवेशिक अभिलेखागार में शामिल हो गई, जिसका प्रभाव जातीय जनगणना में जातियों की श्रेणियाँ बनाने पर पड़ा. ओ’हैनलॉन औपनिवेशिक भारत में जाति की ऐतिहासिक समझ के पुनर्मूल्यांकन की मांग करती हैं. वह इस सरल दृष्टिकोण की आलोचना करती हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने केवल पहले से मौजूद जाति संरचनाओं को मजबूत और कठोर बनाया. जाति पर आधारित औपनिवेशिक व्याख्याएँ उनके अपने सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों के साथ-साथ भारतीय समाज के साथ उनके संबंधों से प्रभावित थीं.

वह मानती हैं कि औपनिवेशिक अधिकारी अक्सर मनुस्मृति जैसे पाठ्य स्रोतों पर भरोसा करते थे, जिन्हें वे प्रामाणिक मानते थे, भले ही ये ग्रंथ जाति के यथार्थवादी दृष्टिकोण को उजागर नहीं करते थे. उन्होंने जाति पर बहस की लंबी परंपरा के अध्ययन के आधार पर उन मान्यताओं पर पुनर्विचार करने का प्रयास किया कि राज्य सत्ता और जाति के बीच संबंध मुख्य रूप से औपनिवेशिक राज्य और उसके कानूनी और प्रशासनिक नवाचारों की विशेषता थे. ओ’हैनलॉन इस बात की पड़ताल करती हैं कि जाति केवल अंग्रेजों द्वारा लगाया गया एक स्थिर पदानुक्रम नहीं था, बल्कि इसके बजाय एक तरल और विवादित सामाजिक संरचना थी जो पहले से यहाँ मौजूद थी.

ब्रिटिश भारत में जाति के बारे में बहस में एक और महत्वपूर्ण योगदान नॉर्बर्ट पीबॉडी[41] के निबंध ‘सेंट्स, सेंस, सेंसस: ह्यूमन इन्वेंटरीज इन लेट प्रीकोलोनियल एंड अर्ली कोलोनियल इंडिया’ है. यह उन्होंने अप्पादुरई के कई तर्कों से सहमत और असहमत होते हुए लिखा था. जहाँ अप्पादुरई का मानना था कि राज्य पहले आंकड़ा संग्रह मुख्यतः राजस्व के सम्बन्ध में करता था, जो बाद में अन्य गणनाओ का आधार बनी. पीबॉडी अपने लेख में दर्शाते है कि ऐसा नहीं था. 1658 से 1664 के बीच मारवाड़ के पश्चिमी राजस्थानी राज्य के प्रमुख कस्बों में परिवारों की जाति-वार गणना हुई, जिसमें राज्य के मंत्री मुन्हता नैणसी के निर्देशन में विशाल सर्वेक्षण किया गया था, जिसका शीर्षक था मारवाड़ रा परगना री विगत (मारवाड़ के जिलों का लेखा-जोखा).

पीबॉडी ने अपने अध्ययन में दिखाया कि पश्चिमी राजस्थानी राज्य मारवाड़ में घरों की जाति-आधारित गणना और उसके बाद की गई इसी तरह की सूचियों ने क्षेत्र की शुरुआती औपनिवेशिक जनगणनाओं को आकार दिया, जिसने पूर्व-औपनिवेशिक भारत में पश्चिमी राजस्थान की पहली ज्ञात औपनिवेशिक जनगणना को आकार देने में मदद की. इसे अलेक्जेंडर बोइल्यू ने 1835 में मारवाड़ और बहावलपुर, बीकानेर और जैसलमेर के आस-पास के राज्यों में किया था. वह मानते है कि ज्ञान के रूपों और उससे जुड़ी संस्थाओं के संदर्भ में पूर्व-औपनिवेशिक काल से औपनिवेशिक काल तक की सहज निरन्तरता विद्यमान थी जो औपनिवेशिक विमर्शों को प्रभावित कर रही थी.

इसके बारे में शुरुआत में अंग्रेजी शासन बहुत कम जानता था. बाद में इसका प्रभाव औपनिवेशिक शासन के गठन पर पड़ा. पूर्व-औपनिवेशिक भारत में जनसंख्या की गणना आम तौर पर स्थानीय अधिकारियों जैसे कि गाँव के मुखिया या जमींदार द्वारा की जाती थी. ये विधियाँ अक्सर अनौपचारिक होती थीं और मानकीकृत प्रक्रियाओं के बजाय सामुदायिक ज्ञान पर निर्भर होती थीं. स्वदेशी जनगणना प्रथाओं की विशेषता उनका  लचीलापन था. औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा मांगी गई कठोर और सटीक संख्याओं के विपरीत, ये गणनाएँ अक्सर स्थानीय संदर्भों और ज़रूरतों के आधार पर अनुमान द्वारा तय होती थी.

वह लेख के अंत में सुझाव देते हैं कि उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक औपनिवेशिक अधिकारी भारत में मानव आबादी कि गणना में रुचि रखते थे लेकिन वे आरम्भ में जाति के पदानुक्रम के अनुसार उन्हें वर्गीकृत करने के लिए चिंतित नहीं थे, जो बाद में औपनिवेशिक जनगणनाओं की पहचान बन गई. वह कुछ अलग तर्क देते हुए कहते हैं कि जनसंख्या को वर्गीकृत करने कि यह शैली औपनिवेशिक जनगणना में  इसलिए आ गई क्योंकि ब्रिटिश प्रशासक देशी सूचनाप्रदाताओ और छोटे आधिकारियों पर निर्भर थे, जो पहले से ही जाति को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे. प्रारम्भिक आधिकारियों ने इस प्रणाली को बनायें रखा. उनके लिए जाति केवल आर्थिक आकलन करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों में से एक थी. उन्नीसवीं सदी के बाद जाति एकमात्र निर्धारक बन गई, जिसके माध्यम से साक्षरता दर, जीवन प्रत्याशा , बीमारी, अर्थ और अपराध को देखा जाने लगा. वह इसे नियंत्रण का माध्यम बताने से बचते हैं.

ब्रज रंजन मणि[42] की पुस्तक ‘डीब्राह्मणाइजिंग हिस्ट्री’  एक सशक्त और विचारोत्तेजक किताब है जो भारतीय इतिहासलेखन और बौद्धिक परंपराओं में ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचनात्मक जांच करने का प्रयास करता है. यह किताब इन दोनों धाराओं को आलोचनात्मक नजरिये से देखती है. यह दलित इतिहास-लेखन की एक धारा के रूप में सामने आती है. जाति-विरोधी और सबाल्टर्न अध्ययनों के ढांचे के भीतर स्थित, यह पुस्तक भारतीय इतिहास की एक क्रांतिकारी पुनर्व्याख्या प्रस्तुत करती है, जो उत्पीड़ित जातियों और समुदायों की आवाज़ों और संघर्षों पर केन्द्रित है.

मणि का तर्क है कि मुख्यधारा का भारतीय इतिहास, समाज की तरह ही, ब्राह्मणवादी हितों के अनुसार ही लिखा गया है, वह इतिहास के अभिजात्य, संस्कृतनिष्ठ विवरणों की आलोचना करते हैं, जिन्होंने दलितों, बहुजनों, महिलाओं और अन्य हाशिए के समूहों के अनुभवों को व्यवस्थित रूप से मिटा दिया है या उन्हें विकृत कर दिया है. वह फुले, अंबेडकर और पेरियार से प्रेरणा लेते हुए, एक ऐसे इतिहास की आवश्यकता पर जोर देते हैं जो उत्पीड़ितों की वास्तविकताओं को दर्शाता हो. वह एक ऐसे इतिहासलेखन पर जोर देते हैं जो जाति-आधारित पदानुक्रम को चुनौती देता है और दलितों और बहुजनों के सांस्कृतिक और राजनीतिक दावों को वैध बनाता है.

वह जाति को अलग-थलग करके नहीं देखते हैं. वह एक स्तरित विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं जो यह पता लगाता है कि जाति किस तरह वर्ग और लिंग के साथ मिलकर उत्पीड़न की व्यवस्था को मजबूत करती है. वह जाति को पर्याप्त रूप से संबोधित करने में विफल रहने के लिए इतिहास-लेखन की सभी धाराओं की आलोचना करते हैं. मणि उन प्रति-आधिपत्यवादी व्यक्तित्वों और आंदोलनों का जश्न मनाते हैं जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को चुनौती दी है. जिसे ग्राम्सी ने समझने के लिए ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की सैद्धांतिकी दी है.

इस तरह से देखा जाय तो जाति की ऐतिहासिक निर्मितियों पर कोई एक राय इतिहासकारों के पास भी नहीं. उत्तर आधुनिकतावादी विचारक मानते हैं कि जाति पूर्णतः औपनिवेशिक निर्मिति है, जबकि कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों का समूह इसे निरंतरता के रूप में देखता है. हाल के दशक में दलित इतिहास-लेखन ने भी जाति को नये सिरे से देखना आरम्भ किया है. जाति का उद्भव कहाँ से आरम्भ होता है, इस आधुनिक जाति की निर्मिति पर इतिहासकारों में कोई एक राय नहीं है.इस लेख की एक सीमा यह है कि सिर्फ जातीय इतिहास पर महत्वपूर्ण अध्ययनों को इसमें शामिल करता है. इस क्रम में हिंदी में लिखे गये जातीय इतिहास की गैरमौजूदगी को देखा जा सकता है.

जातीय इतिहास के उपरोक्त दोनों धाराओं के विश्लेषण से यह बात मुख्य रूप से सामने आती है कि जाति ठीक उस रूप में पहले नहीं थी जैसी आज है. उसमें विविधता और गतिशीलता रही है जिसमें जातियों का पदानुक्रम परिवर्तित होता रहा है. किसी एक जाति को एक खास श्रेणी में रखने की परम्परा औपनिवेशिक शासन से पहले नहीं दिखाई देती हैं. इसको उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और अवध में मुस्लिम शासन से पूर्व रहे भर और पासी जातियों के राजाओं के रूप में देखा जा सकता है कि कैसे जातियों के पदानुक्रम अतीत में परिवर्तित होते रहे हैं.

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं. जातियों को एक स्थिर और निश्चित पहचान बनाने का कार्य राज्य द्वारा पहली बार औपनिवेशिक राज्य द्वारा किया गया जहाँ माना गया कि किसी खास व्यक्ति की जाति क्या होगी. बाद में प्रतिनिधित्व मूलक राजनीति ने इन पहचानों को स्थिरीकृत कर दिया. वर्तमान में यह राजनीति की धुरी बनी हुई है. वर्तमान में प्रस्तावित जाति जनगणना करवाने में भारतीय राज्य को भी ऐसी कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, जो औपनिवेशिक शासन के समय दिखाई दे रही थी. राजनीतिक चेतना के बढ़ने के कारण इसे वर्गीकरण और जातियों को पहचानने में कई मुश्किलों का सामना करना होगा. यह भारतीय राज्य और समाज को नये तरह से निर्मित करने का कार्य करेगी जैसे औपनिवेशिक काल में इसने किया.

 

सन्दर्भ सूची

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[10] देखें, ग्राम्सी. ए.(1971) सेलेक्शन फ्रॉम द प्रिजन नोटबुक ऑफ़ एंटोनियो ग्राम्सी, यूनाइटेड किंगडम , इन्टरनेशनल पब्लिशर
[11] देखें, एंडरसन बी. (2020). इमैजिन्ड कम्युनिटी: रिफ्लेक्शन ऑन द ओरिजिन एंड स्प्रीड ऑफ़ नेशनलिज्म इन न्यू सोशल थ्योरी रीडर, राउटलेज, पृ. 282-288).
[12] ड्यूमोंट, एल. (1980), होमो हेरारिकिअस: द कास्ट एंड इट्स इम्प्लीकेशन, शिकागो, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस
[13] डर्क्स एन.बी.(1989) द ओरिजिनल कास्ट, पॉवर, हिस्ट्री एंड हेरार्की इन साऊथ इंडिया, कन्ट्रीब्युशन टू इंडियन सोसिओलोजी 23(1), पृ. 59-77
[14] डर्क्स, एन. बी. (2011). कास्ट ऑफ़ माइंड: कोलोनियलिज्म एंड द मेकिंग ऑफ़ मॉडर्न इंडिया, यूनाइटेड किंगडम, प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रेस
[15] अप्पादुरई,ए. (1996) मॉडर्निटी एट लार्ज: कल्चरल डेमेंशन ऑफ़ ग्लोबलिजेशन, यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा प्रेस
[16] वही, पृ 126-134
[17] वही, पृ. 119-120
[18] पीबॉडी, एन(2001), सेंट्स, सेन्स एंड सेंसेस:ह्युमन इन्वेंटरीज इन लेट प्रीकोलोनियल एंड अर्ली कोलोनियल इंडिया. कम्परेटिव स्टडीज इन सोसाइटी एंड हिस्ट्री 43(4), 819–850.
[19] डंकन, आई. (2020), द मल्लाह एंड राम चरण इन द यूनाइटेड प्रोविन्सेस, कंट्रीब्युशन टू इंडियन सोसिओलोजी 54 (3), 440-465, लेखक द्वारा अनूदित
[20]  लेखक द्वारा अनूदित
[21] लेखक के द्वारा अनूदित
[22] देखें, क्रुक, डब्ल्यू. (1896) द ट्राइब एंड कास्ट्स ऑफ़ द नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सस एंड अवध वोल्यूम 1,2,3,4, ऑफिस ऑफ़ द सुपरीनटेन्टेड ऑफ़ गवेर्न्मेंट प्रिंटिंग उत्तर-पश्चिमी प्रांत और अवध की जनजातियाँ और जातियाँ (खंड 3). सरकारी मुद्रण अधीक्षक का कार्यालय; रिस्ले, एच.एच. (1892) द ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ बंगाल, वोल्यूम 1, 2, बंगाल सचिवालय प्रेस से प्रकाशित
[23] कल्पगम, यू. (2014) रूल बाई नंबर्स, गवर्मेंटालिटी इन कोलोनिअल इंडिया, ओरियंट ब्लैकस्वान, पृ-186
[24] कल्पगम, यू. (2014) रूल बाई नंबर्स, गवर्मेंटालिटी इन कोलोनिअल इंडिया, ओरियंट ब्लैकस्वान, पृ-175-215
[25] और जानकारी के लिए देखें, राधाकृष्ण, मीना (2001) डिसओनेर्ड बाई हिस्ट्री: क्रिमिनल ट्राइब एंड ब्रिटिश इंडियन पालिसी, ओरिएंट ब्लैकस्वान; (1989). द क्रिमिनल ट्राइब एक्ट इन मद्रास प्रेसीडेंसी: इम्प्लिकेशन फॉर इटिंनरेंट ट्रेडिंग कम्युनिटीज, द इंडियन इकोनोमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिब्यू, 26(3), 269-295, कपाड़िया, के.एम. (1952). द क्रिमिनल ट्राइब ऑफ़ इंडिया, सोसिओलोजिकल बुलिटन, 1 (2), 99-12; हॉलिंस, एस.टी. (1914).द क्रिमिनल ट्राइब ऑफ़ द  यूनाइटेड प्रोविंस, गवर्नमेंट प्रेस यूनाइटेड प्रोविंस; गांधी, एम., और सुंदर, केएच (2019) डीनोटिफाइड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया, डेवलपमेंट एंड चेंज, रूटलेज, सिंह, आर(2021) क्रिमिनलाइजेशन एंड पोलिटिकल मोबिलैजेशन इन उत्तर प्रदेश, ईपीडब्लू, वाल्यूम 56, अंक 36, 04 सितम्बर, 2021
[26] सिंह. पी.(2021) नम्बर्स एज ए मीन्स टू पॉवर, पॉलिटिक्स ऑफ़ कास्ट एज ए सेन्सस कैटेगरी इन कोलोनियल इंडिया,सी.1871-1941, ईपीडब्लू, खंड 57, अंक संख्या 18, 30 अप्रैल, 2022; (2003).क्लासिफाइंग कास्ट: सेन्सस सर्वेज इन इंडिया इन द लेट नाइनटिंथ एंड अर्ली टवेंटीन्थ सेंचुरिज,साउथ एशिया: जर्नल ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज 26(2), 141-164.
[27] लेखक द्वारा अनूदित
[28] कल्पगम, यू. (2014) रूल बाई नंबर्स, गवर्मेंटालिटी इन कोलोनिअल इंडिया, ओरियंट ब्लैकस्वान, पृ-213
[29] लेखक द्वारा अनूदित
[30] एस. बेली(1999) कास्ट, सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया फ्रॉम एट्टीनन्थ सेंचुरी टू द मॉडर्न एज, कैब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
[31] वही,पृ. 97, लेखक द्वारा अनूदित
[32] यस. गुहा (2013). बियॉन्ड कास्ट:आइडेंटिटी एंड पॉवर इन साउथ एशिया, पास्ट एंड र्प्रेजेंट, नीदरलैंड:ब्रिल
[33] वही, पृ.1, लेखक द्वारा अनूदित
[34] लेखक द्वारा अनूदित
[35] हटन जे.एच., जे.एच. वैद्यनाथन (1933) सेंसेस ऑफ़ इंडिया 1931, इंडिया रिपोर्ट एंड इंडेक्स एंड अपेंडिक्स ऑफिस ऑफ़ डी सुपरीनटेन्टेड गवर्नमेंट प्रिंट एंड स्टेशनरी
[36] सचाऊ, ई. सी.(2013), अलबरूनी इंडिया: एन अकाउंट ऑफ़ द रिलिजन, फिलोस्फी, लिटरेचर, जियोग्राफी, क्रोनोलोजी, अस्ट्रोनोमी, कस्टम, लॉज़ एंड एस्ट्रोलोजी ऑफ़ इंडिया,यूनाइटेड किंगडम: टेलर एंड फ्रांसिस
[37] गुहा, एस.(2019)हिस्ट्री एंड कलेक्टिव मेमोरी साउथ एशिया 1200-2000, यूनाइटेड स्टेट, यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन प्रेस, पृ. 57
[38] ओ,हैनलोन आर. कास्ट एंड इट्स हिस्टरीज इन कोलोनियल इंडिया: इ रिप्रेजल, मॉडर्न एशियन स्टडी 51(2),
[39] जैसवाल, एस. (1978), सम रीसेंट थ्योरीज ओग द ओरिजिन ऑफ़ अनटचबिलीटी: ए हिस्टोरिकल असेसमेंट, इन प्रोसिडिंग ऑफ़ द इंडियन हिस्टरी कांग्रेस, वोल्यूम 39, पृ. 218-229
[40] देखें, देशपांडे,पी. (2004) कास्ट एज मराठा, सोशल कैटेगरी, कोलोनियल पालिसी एंड आइडेंटिटी इन अर्ली ट्वेन्थ सेंचुरी महाराष्ट्रा, द इंडियन इकोनोमिक एंड सोशल हिस्टरी रिव्यु, 41(1), 7-32.
[41] पीबॉडी, एन(2001), सेंट्स, सेन्स एंड सेंसेस:ह्युमन इन्वेंटरीज इन लेट प्रीकोलोनियल एंड अर्ली कोलोनियल इंडिया. कम्परेटिव स्टडीज इन सोसाइटी एंड हिस्ट्री 43(4), 819–850.
[42] मणि, बी.आर. (2007). डीब्रह्मानाइजिंग हिस्ट्री: डोमिनेंस एंड रेसिस्टेंस इन इंडियन सोसाईटी, मनोहर

 

गोविन्द निषाद
आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश

 विभिन्न पत्र-प्रत्रिकाओ में कवितायेँ और लेख प्रकाशित
वर्तमान में जी.बी. पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में शोधरत
govindgbpssi@gmail.com

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Comments 4

  1. सौरव राय says:
    12 hours ago

    शानदार और इतिहासलेखन की दृष्टि से काफी समृद्ध आलेख। इसमें सुजन बेली की इसी विषय पर महत्वपूर्ण किताब ‘Caste, Society and Politics in India: From the Eighteenth Century to the Modern Age’ भी शामिल की जा सकती थी। बहरहाल, वर्तमान संदर्भों में गोविंद ने काफी जरूरी लेख तैयार किया है। गोविंद और समालोचन दोनों की बधाई।

    Reply
  2. सौरव राय says:
    12 hours ago

    अभी देखा कि सुजन बेली पर चर्चा की है गोविंद ने । पुनः बधाई ।

    Reply
  3. Faqir jay says:
    2 hours ago

    I salute your editorial tenacity and rigour .

    Reply
  4. Vibhajan kalla says:
    2 hours ago

    जाति को पूर्णतः औपनिवेशिक राज की निर्मिति मानना हास्यास्पद है। उत्तर-आधुनिक, उत्तर-औपनिवेशिक विश्लेषण कितनी आसानी से भारतीय दक्षिणपंथ के लिए खाना बन जाते है, वह भी समझने वाली बात है। जाति नितांत तौर पर औपनिवेशिक निर्मिति है, ये विश्लेषण सांस्कृतिक विकृतिकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे पर भी पूर्णतः फिट बैठती है।

    पूर्व औपनिवेशिक समय में जाति को लेकर तरलता तो रही होगी, लेकिन उस तरलता का स्वभाव कैसा है यह शोध करने लायक विषय है। क्या कोई तथाकथित निम्न जाति बिना जमीनी सम्बन्ध बदले किसी उच्च जाति में बदलने का दावा कर पाती थी? क्या सिर्फ दावा कर देने भर से कोई किसी दूसरी जाति का माना जा सकता था या उसका कोई मैटिरियल आधार भी अनिवार्य शर्त की तरह शामिल रहता होगा?

    जनगणना के वर्गीकरण की अपनी सीमाएँ है, उसकी प्रकृति स्टेटिक है और वह पूरे राष्ट्र में किसी एक युनिफॉर्मिटी की कल्पना करता है, लेकिन इसका आधार औपनिवेशिक ज्ञान के बजाय वर्गीकरण की खुद की सीमा से है। हम किसी भी जीवंत चीज को स्टेटिक खाँचों में नहीं बाँट सकते।

    हरजोत ओबेरॉय भी अपनी किताब में अजमेर के मेहरत राजपूतों के जनगणना के समय में उनके हिन्दू और मुस्लिम ऑवरलैपिंग प्रैक्टिस से जन्में कन्फ्यूजन पर लिखते है।

    जाति अगर औपनिवेशिक निर्मिति होती तो हमें उपनिवेश के दौरान नए बनें आधुनिक कामों में शामिल लोगों की नई जातियाँ भी देखने को मिलती। मसलन- विभिन्न प्रकार के औद्योगिक मजदूरों के लिए नई जातियाँ या रेल श्रमिकों की जातियाँ, या प्रिंटिंग प्रेस वालों की कोई जाति। लेकिन मुझे कभी ऐसा पढ़ने, देखने को नहीं मिला।

    अगर औपनिवेशिक राज से जाति की निर्मिति मानी जाए तो एक अन्तर्विरोध भी देखने को मिलेगा- श्रमिक के तौर पर औपनिवेशिक शक्ति को लेबर का जातीय श्रम खत्म करके उन्हें एब्स्ट्रेक्ट लेबर में बदलना है, और साथ में अपने ज्ञान निर्माण से जाति का निर्माण करना है, यह तो सम्भव नहीं हो सकता।

    जाति भारतीय उपमहाद्वीप में निरंतर चलती आ रही संस्था है, उसका स्वरूप कई आर्थिक-राजनीतिक संरचनात्मक परिवर्तनों से बदलता है, लेकिन शक्ति-ज्ञान-शक्ति के फुकोडियन चक्रीय नरैटिव से उसका कोई लेना-देना नहीं।

    हिन्दी में इतना प्रभावशाली लिटरेचर सर्वे पढ़कर खुशी हुई।

    Reply

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