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Home » चर्यापद : शिरीष कुमार मौर्य

चर्यापद : शिरीष कुमार मौर्य

किसी विषय को केंद्र में रखकर कविताओं की श्रृंखला तैयार करने की प्रवृत्ति हिंदी में है, नदी, पहाड़, प्रेम और प्रकृति पर केन्द्रित कविता-संग्रह इधर प्रकाशित हुए हैं. कवि-आलोचक शिरीष कुमार मौर्य ने आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बौद्ध मत के अनुयायी सिद्धों द्वारा आचरण को केंद्र में रखकर अपभ्रंश में लिखे चर्यापद को अपनी कविताओं का केंद्र बनाया है. ज़ाहिर है ये कविताएं समकालीन आचरण को प्र्श्नाकित करती हैं और अपने शिल्प में एक अनूठे अनुभव और नैतिकता का सृजन करती हैं. ये सत्रह ख़ास कविताएँ समालोचन पर आपके लिए  

by arun dev
September 26, 2019
in कविता
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चर्यापद : शिरीष कुमार मौर्य
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चर्यापद

“गौतम बुद्ध के मित्र व शिष्य भद्रक किंवा भदिया द्वारा इक्कीसवीं सदी में विरचित ये नवीन चर्यापद इस विधा के प्रथम व मूल प्रस्तोता शबरपा और उनके गुरु सरहपा को सादर समर्पित हैं.”

 
शिरीष कुमार मौर्य
 
 
 

चर्यापद भूमिका
*

(धम्मनिट्ठ वग्गो का यह पृष्ठ भद्रक को महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध की शय्या के पैताने मिला, यह पिटक में सम्मिलित नहीं है. भद्रक अपने चर्यापदों के संग्रह में भूमिका के रूप में इसे प्रस्तुत कर रहा है.)

 
भिक्षु !
हिरण्यवती के प्रवाह को देखो
वर्षा में
वह संसार के प्रपंचों की भाँति
वेगवान है
 
मुझे इस काल
विगत
कई वर्षों से
यशोधरा के अश्रुओं का
स्मरण
हो आता है
जिनके विषय में कभी कभी
बताती रहीं मौसी
महागौतमी
 
तब मैं कहता हूँ
धर्म वह नाव नहीं है जिस पर चढ़
तुम प्रवाह को पार करते हो
प्रवाह में उतर कर
तैरना धर्म है
 
दो वर्ष* हुए
इसी धर्ममार्ग पर हूँ भिक्षु
सभी को
इस पर बुलाता हूँ
 
माथे पर अदृश्य सजा हुआ
मुकुट नहीं है धर्म
 
बहुत ढूँढ़ोगे
तो वह प्रविविक्ति में नहीं
ग्रामों-नगरों के
कोलाहल में
भटकते
किसी पथभ्रष्ट स्थविर के
तलुवों में मिलेगा
गड़ा हुआ
*
* महापरिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व  
   यशोधरा की मृत्यु हो गई थी.
 
 
_____________________________
 
 

चर्यापद 1

 
अन्न माँगो उस घर से
जो विपन्न हो
 
उजड़ा हो दुर्भिक्ष में उस गाँव जाओ
 
उस व्यक्ति से मिलो
जिससे मिलना सबसे सरल हो
और जिसकी तरह जीना
सबसे कठिन
 
भिक्षु
अभी तो दीक्षा का आरम्भ है
करुणा पर चर्चा
फिर कभी
 
 
 

चर्यापद 2

 
जल नहीं था
किसी भी ऋतु में
गए बरस
 
नदियों के तल छिछले से
छूँछे होते गए
 
नागफनी के सिवा
किसी और
वनस्पति के तने पर विश्वास
नहीं कर पा रही थी
दुःख की चिरैया
 
भरी दुपहरी
माथे से
बहती स्वेद बूँदों पर
बार बार
बैठ रही थी
छोटी सफेद तितली
 
भन्ते!
मेरी देह का नमक चाट रही
वह तुम्हारी
जगप्रसिद्ध करुणा तो
नहीं थी?

 

 

चर्यापद 3

 
मैं अब भी उतना ही अबोध हूँ
मैं अब भी उतना ही भ्रमित हूँ
 
मुझे पथ नहीं मिलता था
और
मुझे पथ नहीं मिला है अब तक
 
हालाँकि
आप वही नहीं रह गए
भन्ते
लेकिन मैं वही भद्रक हूँ
 
मुझे ध्यान से देखिए
प्रतिदिन
एक नई क्रूरता से जूझता हुआ
इस संसार में
अब
मैं अमर हो गया हूँ.
 
 
 

चर्यापद 4

 
लुहार के घर से माँगा भोजन
खाने के बाद
बुद्ध शय्या से न उठ सके
 
महानिर्वाण से पहले रोया
लुहार
स्वयं को धिक्कारता
 
यह एक कथा है
इसमें कुंडा नामक उस व्यक्ति के
लुहार होने का
विशेष उल्लेख है
 
स्पष्ट है
कि कुंडा का पेशा भर बताना यहाँ
अभीष्ट नहीं था
 
भन्ते!
वह आज भी अभीष्ट नहीं है
 
चतुर शिष्यों ने
आपके जाने की कथा चलाते हुए
विवरण बढ़ाते हुए
इसमें लुहार रहने दिया
 
इस परम्परा में
व्याकुल भटकता है भद्रक
और पाता है
कि आपके सिवा कोई और
कभी
अपना दीप आप बन नहीं पाया
 
धम्म के शिखर सदा
मौन ही रहे
देह में कुलबुलाते रहे
अधर्म के चूहे
 
करुणा
उनके भी साथ रही?

 

 

 

 

चर्यापद 5

 
मृत्यु की
देह के नष्ट हो जाने की
घटना
निर्वाण कह देने से
गरिमापूर्ण
नहीं हो जाती
 
भन्ते!
निर्बलों की हत्या ही हुई है सदा
क्या उन्हें
निर्वाण प्राप्त हुआ?
 
अपने दुःख में लिथड़े
वे जीवित रहना चाहते थे
लड़ना चाहते थे
संसार के संघर्षों के बीच
अपने जैसे अनगिन जनों के साथ
वे संधान करना चाहते थे
उस तथ्य का
जिसे करुणा कहा गया
 
निर्वाण
मृत्युपूर्व भी सम्भव है
इसी समझ
और इसी हठ में
आपके निर्वाण पर
मैं बिलख उठा था
 
मैं आज भी बिलख ही रहा हूँ
भन्ते
 
 

चर्यापद 6

सम्राटों और राजकुँवरों
सम्राज्ञियों
और राजकुँवारियों ने
धम्म की ध्वजा उठायी
हिमालय
और
समुद्र पार गए
 
मैं प्रश्नाकुल ही रहा आया
शताब्दियों तक
आज भी बौखलाया सा घूमता हूँ
 
आनन्द या रानी खेमा नहीं हूँ
वे मृत्यु को प्राप्त हुए
या निर्वाण को
कह नहीं सकता
 
अपनी कथा क्या कहूँ
अमरत्व
निर्वाण की सबसे बड़ी
बाधा है
 
कितनी बार बताऊँ
किस किसको बताऊँ
कि मैं अमर हुआ जाता हूँ
भन्ते
मेरे माथे पर गाड़
फहरायी गई धर्मध्वजाओं के
विरुद्ध
मेरी अमरता
अब एक बड़ी चुनौती है
 
और
मेरे इस दुःख पर
शताब्दियों पहले
कहीं
किसी वार्ता में बैठे हुए
आप मुस्कुराए हैं
 
भन्ते !
शिष्यों ने प्रचार किया
करुणा का
व्यंग्य को समझना
और कहना तो छूट ही गया
महिमामयी
इस परम्परा में!
 
 
 

चर्यापद 7

गंगा में
कछुओं की डुबकियाँ
किसी तरह का
निर्वाण नहीं हैं
 
एक संसार से दूसरे संसार में
आते जाते रहते हैं वे
कुतर लेते हैं
अधजले शवों का माँस
 
घाट पर भद्रक का हृदय
करुणा से नहीं
जुगुप्सा से भर जाता है
 
वह
रात्रि शयन के लिए काशी में नहीं टिकता
सारनाथ चला आता है
 
और
निर्वाण तो सारनाथ
चले आना भी नहीं है
 
सुबह भिक्षाटन के लिए
फिर काशी ही जाना है
 
गंगा में डुबकी लगाते कछुए
भिक्षा को
कभी मना नहीं करते

 

 
 

चर्यापद 8

मुण्डित स्त्रियों के स्वप्न
किसको आ सकते हैं
भन्ते?
 
किंतु
थेरी शुभा ने समाज में
पाप की उन जड़ों को भी देखा था
जो घुस आयी थीं
भिक्षुणीसंघ के
निरापद विहारों तक
 
निर्वाण से ठीक पूर्व
आयीं थी मौसी महागौतमी
आपके पास
कुछ कह नहीं पायीं
आप जैसे पुत्र के लिए
अपनी बहन को सराह
वापस चली गईं
 
मुझे कह लेने दें
कि मुण्डित हो जाने से
समाज के भीतर
स्त्रियों के प्रति उपस्थित प्रेम तो कुछ नष्ट हुआ
किंतु पाप थोड़ा भी नहीं मरा
 
मैं भद्रक
निर्लज्ज हो कहूँ
तो मेरे भीतर भी
कुछ पाप बचा रहा
पर बचा रहा
प्रेम भी
 
भन्ते !
मुझे बताइए
कि क्यों मेरी मनुष्यता
इसके लिए
मुझे धिक्कारती नहीं
ढाढ़स ही बँधाती है
 
 

चर्यापद 9

 
मुझे आज
हत्यारों की रसोई का अन्न मिला
भन्ते!
 
अनुभव किया
कि शरीर में जीवन कितना और
किस तरह निवास करता है
पता नहीं
पर मृत्यु निवास करती है
हर तरह
हर जगह
 
मैं बँधा हूँ बँधे वधिक भी है
लेकिन
भद्रक के अनुभव में
वधिकों के नाम नहीं हैं
 
भन्ते !
अवश्य ही वे आपके अनुभव में हैं
 
थेरगाथा में वधितों के
जो नाम हैं
चकित है यह भद्रक
कि थेरीगाथा में ठीक वही नाम
वधिकों के भी हो सकते हैं
 
पता नहीं
यह दुःख का विषय है
या करुणा का
कि सदा कुछ उदान ही रहे
हमारे साथ
 
निदान
कोई भी नहीं.

चर्यापद 10

 
शारिपुत्र थे धर्मसेनापति
नालन्दा में
 
मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर था
 
मैं भद्रक
सारनाथ में सेवक भर हूँ
 
कभी
शारिपुत्र नाम नहीं उचारा मैंने
सारिपुत्त कहने से ही
उस धम्म का पता चलता था
जो राजाओं से नहीं
प्रजा से
सम्बोधित था
 
स्वप्न में भी
किसी को दुःख पहुँचाने की बात
मन में नहीं लाते थे
शारिपुत्र
वे संतुष्ट, वीतरागी, जितेंद्रिय
स्थविर थे
 
पापनिंदक, असंतुष्ट, प्रविविक्त
और उद्योगी था
सारिपुत्त
 
भन्ते!
शारिपुत्र ने धर्म की महिमा बचाई
 
आत्मा बचाई सारिपुत्त ने
 
 
 

चर्यापद 11

आज
रंग एकादशी है
भन्ते
होरी का चीर बाँधा है
मैंने
 
भद्रक
इसी चीर के साथ
भिक्षाटन को
जाएगा
भिक्षा लेगा तो अबीर का
टीका लगाएगा
दाता को
 
अवश्य सुननी चाहिए
पर संघ सुनना पसन्द नहीं करेगा
जो होरियाँ
भद्रक अब होरी तक
काशी के मुहल्लों में
गाएगा
 
लो
वह धर्म की शरण में आता है
वह संघ की शरण में आता है
 
फागुन में उसे सम्भालो
भन्ते!
वह आपकी शरण में आता है

 

 
 

चर्यापद 12

 
हम
क्यों स्थविर कहलाए गए
भन्ते ?
जबकि
हमारे हृदय भी काँपते हैं
उस वृक्ष के
सूखते पत्तों की तरह
जो कथानक में
बोधि है
प्रकृति में पीपल
 
कथानक में
कल्पना बहुत होती है
भद्रक!
प्रकृति में यथार्थ
 
तो क्या काशी कथानक है भन्ते
और सारनाथ प्रकृति?
 
नहीं
काशी पीपल है भद्रक
और सारनाथ बोधि
 
मैं वही कह रहा हूँ
जो तुम कह रहे हो
भद्रक!
पर ठीक वही नहीं कह रहा हूँ
 
फिर ऐसे में
धर्म क्या है भन्ते हमारा?
 
कल्पना और यथार्थ
कथानक और प्रकृति
बोधि और पीपल
के बीच
जो संसार है अछोर
अपार
 
भद्रक !
वही धम्म है हमारा

 

 
 
 

चर्यापद 13

मैंने
प्रथम उपदेश सुना है
भन्ते!
 
महाकश्यप नहीं हूँ
कि कुछ जानूँ
कुछ न जानूँ
जानने के बाद जानूँ
कि जानने से पूर्व कुछ भी नहीं जानता था
 
मेरी जिज्ञासाएँ
अपूर्ण ज्ञान से नहीं
सम्पूर्ण अज्ञान से जन्मी हैं
 
महाकश्यप
आप तक पहुँचने से पूर्व भी
बड़े ज्ञानी
प्रकाण्ड पण्डित थे
भन्ते
आपसे मिल कर जाना
कि कुछ भी नहीं जानते थे
 
मैं भद्रक
कुछ भी न जानता था
 
मैं भद्रक
अब भी कुछ नहीं जानता हूँ
 
यह मेरा
नहीं जानना ही है
भन्ते
कि अतीत
प्रत्युत्पन्न
और
अनागत
सभी कालों में व्याप्त है
मेरा अस्तित्व
 
मैत्रैय बुद्ध होंगे
तो मैत्रैय भद्रक न होगा
क्या?

 

 
 

चर्यापद 14

 
आपके भी
वंश का नाम लिया गया
भन्ते
आपको क्षत्रियकुल गौरव
कहा गया
 
आप भी
गोत्र से पहचाने गए
शाक्यमुनि
कोई दूसरे नहीं थे भन्ते
 
राजकुल
बहुविधि साथ और पास
बना रहा
 
आपकी शिक्षा अनुसार
एक मैं भद्रक ही
भूला आपका राजकुल जाति गोत्र  गौरव
 
हुआ सहजिया
चौदस सौ वर्ष पहले
निर्वाण तो नहीं मिला
पर मिली
उससे भी शानदार
एक व्याकुलता
आपकी ही देन वह
मेरा धम्म है
 
भन्ते
उसी का प्रचार करता हूँ मैं
इन दिनों

 

 

 

 

चर्यापद 15

 
मुझ में ही महायान के बीज थे
भन्ते
मेरे थेर होने में हरसम्भव कमी
रह गयी थी
 
मैं अकेला होने से डरता था
भीतर के प्रकाश भर से
मेरा काम नहीं चलता था
 
आपसे अधिक कोई नहीं जानता
कि मुझ जैसों की
परस्परता भी धम्म ही थी
 
आपके अनुयायी बने
राजकुलीन स्थविरों को मालूम ही न हो शायद
कि प्रजा के  घरों में
दीवट पर धरे
अनगिनत दीप धुआँ हो चुके
भन्ते
      पिछले सैकड़ों वर्षों में
      परस्पर प्रकाश के लिए
      


चर्यापद 16

 
मैं हमेशा से हताश नहीं था
भन्ते
 
मुझ में से आशा गई
पर जीवन बना रहा
 
मैं महीनों
बस्ती के सबसे वंचित व्यक्ति के द्वारे खड़ा रहा
भिक्षा के लिए
 
इतने महीने
मैंने क्या खाया
मत पूछिए
 
भन्ते
मैं उस द्वार से रिक्त-पात्र भले
लौटा हूँ
रिक्त-हृदय
रिक्त-मन
नहीं लौटा
 
मैंने
हताशा में जिस नदी का
जल पिया
उसी का क्षीण प्रवाह
मेरी धमनियों में है
 
यह भी
बहुत बाद में जाना
कि उसी नदी को
आपने
करुणा कहा है.

 

 

चर्यापद 17

 
उरुवेला
अब भी वहीं है
आपको
स्मरण होगा
 
कौण्डना स्मृति में है भन्ते?
असाजी ?
वापा?
महामना?
और मैं?
 
मैं तो निर्वाण समय भी
उपस्थित था
इसी कारण
कुछ अधिक बच गया हूँ
 
जो स्वयं न बचे
जिनकी कीर्ति बची बहुत सारी
वे शिष्य
सम्राट क्षत्रिय, ब्राह्मण, श्रेष्ठि ही
क्यों हैं
वे तपस्सू और काल्लिक
क्यों नहीं हैं भन्ते
 
मैं स्वयं ब्राह्मण
उन दोनों के वर्ण का नाम भी लूँ
तो जिह्वा कट जाए मेरी
चलूँ सदा धम्म की ही राह
 
और अगर
धम्म की राह चलूँ
तो फिर
उस राह का क्या करूँ
जिस पर
अब आपके कुलीन शिष्यों की
कीर्ति की
राख भर बची है ?
_________________________________

 

सम्पर्क:
शिरीष कुमार मौर्य
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनग
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)244 715

 

Tags: चर्यापदबौद्धशिरीष कुमार मौर्यसिद्ध
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