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Home » अनिल यादव से महेश मिश्र की बातचीत

अनिल यादव से महेश मिश्र की बातचीत

लेखक के भीतर, उसके तलघर में, निरंतर जटिल, बहुआयामी, चेतन-अचेतन अंतःक्रियाएँ चलती रहती हैं, जबकि पाठक केवल रचना को देखता है. रचना के निर्माण की प्रक्रिया पर इतनी सघन और गहरी बातचीत बहुत कम देखने को मिलती है. महेश मिश्र ने गहराई से न केवल कथाकार, यात्रा-वृत्तांतकार और पत्रकार अनिल यादव को पढ़ा है, बल्कि अपने असहज करने वाले प्रश्नों के माध्यम से उन आंतरिक समीकरणों को भी उजागर करने में सफल हुए हैं, जिन्हें लेखक प्रायः गोपनीय रखना पसंद करते हैं. इस संवाद में कथाकार, यात्रा-वृत्तांतकार और पत्रकार अनिल यादव का एक दूसरा, अपरिचित रूप हमारे सामने आता है. ऐसे संवाद तभी संभव होते हैं जब दोनों पक्ष समान बौद्धिक धरातल पर, तैयारी और संवेदनशीलता के साथ आमने-सामने हों यह विशिष्ट अंक ख़ास आपके लिए प्रस्तुत है.

by arun dev
October 29, 2025
in बातचीत
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अनिल यादव से महेश मिश्र की बातचीत
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अनिल यादव से महेश मिश्र की बातचीत

 

(एक) 

 

अपने सबसे चर्चित कहानी संग्रह (नगरवधुएँ अख़बार नहीं पढ़तीं) को अंग्रेजी में छपते हुए देखकर कैसी अनुभूति हो रही है.

अंग्रेजी में कुछ भी छपा हुआ जब दिखता है, तो उसके साथ एक बड़े पुराने संस्कार जैसी चीज समझ आती है. सबसे पहली बात दिमाग में आती है कि इसको बहुत कम लोग समझेंगे. दूसरा यह है कि जो लोग समझेंगे, वे कायदे के लोग होंगे. वैसे यह नोशन ही है.. पुराना.. दिमाग में पड़ा हुआ, कि जैसे अंग्रेजी सत्ता की और सत्ता के आसपास के एलीट की बात दिमाग़ में आती है. इसी नाते यह दिमाग़ में आता है कि वे जो लोग होंगे, वे पॉवरफुल लोग होंगे, जबकि स्थिति अब बहुत बदल चुकी है.

अंग्रेजी करीब-करीब महानगरों में एक बातचीत की भाषा बनती जा रही है और उसमें मध्यम वर्गों, नीचे के तबके भी धीरे-धीरे उसमें शामिल हो रहे हैं. अगर ये कहानियाँ हिंदी के दायरे से बाहर जाएंगी और खास तौर से यूरोप में पढ़ी जाएंगी या दूसरी और अंग्रेजी बोलने वाले इलाकों में पढ़ी जाएंगी, तो एक नई प्रक्रिया सामने आएगी, कुछ नए रिएक्शन सामने आयेंगे. क्योंकि हमारे यहाँ हिंदी में अभी जो झूठी, ओढ़ी हुई नैतिकता का आग्रह है, वह बहुत सारी जेनुइन प्रक्रियाओं को दबा देता है, उनको खा जाता है. मुझे तो सबसे बड़ी चीज़ यही महसूस हुई, कि ये कहानियाँ एक ज़्यादा खुली सोच वाले लोगों… तो नहीं कहूंगा, लेकिन कम हिपोक्रिटिक सोच वाले लोगों तक पहुंचेंगी, और उनकी तरफ से मुझे, जो उनका नज़रिया है, वह पता चलेगा.

 

इन कहानियों में, नगरवधुएँ अख़बार नहीं पढ़तीं  है, यह बहुत जटिल अंतर्वस्तु की कहानी है. कैसे कंसीव हुई और कैसे कंस्ट्रक्ट किया इसे, इसका आर्किटेक्चर कैसे बनाया, यह एक बड़ा काम रहा होगा, एकदम नॉवेला के आकार की, इतनी बड़ी कहानी, इतने सारे दायरे, इनको कैसे समन्वित किया आपने?

देखिये, ये कहानी तो मुझे एक चैलेंज की तरह, एक जर्नलिस्टिक चैलेंज की तरह रखी हुई मिली क्योंकि सचमुच ऐसा हुआ था बनारस में. मैं वहाँ एक अखबार में काम कर रहा था और वहाँ से प्रॉस्टीट्यूट्स को शहर से भगाने का एक अभियान शुरू हुआ, जिसमें पुलिस, संत-महात्मा, मीडिया, धर्माचार्य और पॉलिटिकल क्लॉस के लोग भी.. सब शामिल थे और इस अभियान को चलाने में जिस न्यूज़पेपर में मैं काम करता था, जिसका मैं रिपोर्टर था, वह इस अभियान में बड़ा आगे था, और धर्माचार्यों की ज़बान में रिपोर्ट कर रहा था तो मैं इसी बीच में देखने चला गया, क्या सचमुच ऐसा है, कि ये जो कलंक और बदनुमा दाग़ जैसी औरतें हैं, कौन हैं? ये क्या कर रहीं हैं?

 

एक छोटा सा सवाल इसमें जोड़ना चाहूंगा, इसी सवाल का हिस्सा मानकर अपनी बात रखिएगा. हम समझते हैं कि आप जिस तरह के बैकग्राउंड से आते हैं, वहाँ भी नोशन तो यही रहा होगा, आपका नोशन कैसे बदला कि हम प्रॉस्टीट्यूट्स को इस नजरिये से न देखें, जिस नजरिये से अख़बार और धर्माचार्य देख रहें. यह आईडिया, ऐसी मानवीयता या ऐसे भाव पहली बार कब आये, कि आपको इन्हें इंसान की तरह देखना है न कि स्टिग्मा की तरह?

मैं पहले भी उनको इंसान की तरह देखने की कोशिश कर रहा था, मैं इतना अबोध नहीं था कि मुझे पता ही न हो कि वेश्याएँ क्या होती हैं, और किस तरह से रहती हैं और उनका जीवन क्या है, मैं उन्हें देख चुका था, बहुत शहरों में देख चुका था. लखनऊ में, पंजाब में, नॉर्थ ईस्ट में. तो मेरा इक्सपोज़र था, लेकिन मेरे अपने अख़बार में कुछ ज़्यादा ही धार्मिक, नैतिक और पवित्रतावादी आग्रह के साथ चीज़ें छप रहीं थीं और उसने मुझे, मेरे भीतर ये क्यूरियासिटी पैदा की कि चल के मुझे खुद देखना चाहिए कि क्या वाकई यह सच है जो कुछ छप रहा है, तो मैं उनसे मिलने चला गया और मिलने गया तो फँस गया.

वहाँ पता चला कि पुलिस ने पूरे रेड लाइट एरिया को बंद कर दिया है तो वहाँ से जब निकलने लगे तो पुलिस ने लाठी लेकर दौड़ाया, कैसे.. तुम अंदर कैसे चले गये, और यहाँ तो कर्फ्यू लगा हुआ है, बंद है दोनों तरफ से, मेरी मोटरसाईकल की हेडलाइट फूट गई पुलिस की लाठी से, फिर वापस भाग कर मैं उनके बीच ही चला आया. और फिर मैं वहीं रह गया. तो वहाँ रहने पर जो कुछ देखने, समझने को मिला, सिर्फ एक रात….वह मेरे लिए बहुत आई- ओपनिंग था, कि इस तरह का जीवन वेश्याएँ जी रहीं हैं- यह अंदाजा नहीं था. मुझे लगता था, मैं जानता हूँ, लेकिन ऐसे नहीं जानता था.

उनके चूल्हे के पास बैठ कर बात कर रहा हूँ, उनके बच्चों से हँसी मजाक कर रहा हूँ, जो भड़वे दलाल टाइप के लोग हैं, उनके पास कोई काम नहीं है, वे अनमने से बैठे हुए हैं, उनसे बातचीत कर रहे हैं, और उनके घर के भीतर कैसे वे रहती हैं, जब वे नहीं सजी संवरी रहती हैं, जब वे लिपिस्टिक और यह सब नहीं लगाए रहती हैं. तो वह बिल्कुल दूसरा ही अनुभव संसार था. दूसरा ही भाव-लोक था. तो उसने मुझे इंस्पायर किया, यह इच्छा पैदा किया कि एक तो तुम्हें बहुत अच्छे से देखना चाहिए, समझना चाहिए यह जो नया संसार है, और दूसरा वह जो झूठ तुम्हारे अख़बार में छप रहा है, उसके अगेंस्ट कुछ ऐसा लिखना चाहिए, कि झूठ का पर्दाफाश हो सके और यह जो वास्तविक ज़िंदगी है वह लोगों  को पता चल सके.

तो वह जो कहा जाता है न, कि कंटेंट ही तय कर देता है कि उसका क्या फॉर्म क्या होगा, या कभी-कभी फॉर्म भी कंटेंट तय करता है, दोनों दूसरे पर बहुत निर्भर होते हैं. तो मैं इसको लिखता गया और वह अपने आप, जैसा बन गया.. मैं बहुत सचेत ढंग से उसके पीछे नहीं था, सचेत आर्किटेक्चर नहीं है, कम-से-कम शुरू में तो नहीं था. बाद में एडिट करते इसमें भले कुछ बदल गया हो लेकिन फिर भी बड़ा चेंज तब भी नहीं था. तो यह आर्किटेक्चर भी उसका स्पॉंटेनियस है.

 

इसमें जो अलग-अलग आयाम जुड़ते गए, वे कैसे जुड़ते गए? मतलब उस चीज को जानने के दौरान ही वे सारे खुलते रहे कि उसका ग्लोबलाइजेशन का एक आयाम है, और दूसरी तरफ पुलिस, समाज, मीडिया …सब जुड़ते गए…जानने के दौरान अपने आप जुड़ते गए?

जाहिर है. जिन क्षेत्रों से मेरा रोज साबका पड़ता था- जैसे पत्रकारिता है, जैसे पॉलिटिक्स है, जैसे रियल इस्टेट है, जैसे धर्म वाले लोग हैं… मतलब जितने पक्ष वेश्याओं को हटाना चाहते थे, बनारस से भगाना चाहते थे.. उन सबसे मेरा पाला पड़ा…तो शायद अवचेतन में अपने आप इस तरह की टेक्नीक इवॉल्व हुई कि इन पक्षों  के लाइट में वेश्याएँ दिखाई दें और वेश्याओं की लाइट में ये पक्ष दिखाई दें- मतलब रियल स्टेट, धर्माचार्य दिखाई दें…इस प्रक्रिया में ही चीज़ें आई होंगी कि ये, भाई, डिजाइन्स तो दिखती हैं न, कि जैसे रियल-इस्टेट क्या करना चाह रहा है, यह हम देख रहे हैं, तो बस उसका तार्किक विस्तार क्या होगा, या काल्पनिक विस्तार क्या होगा, तो इसी प्रक्रिया में ये मोरेलिटी ब्रिज़ जैसी चीज है या, जो धार्मिक लोग हैं, वे क्या करेंगे, धार्मिक लोग अंत में वही करेंगे, हवन करेंगे, यज्ञ करेंगे, बाण चलाएंगे मूठ चलाएंगे या यहीं बैठे बैठे मंत्र से उनको भस्म करने का उपक्रम शुरू करेंगे तो इन क्षेत्रों में चलने वाली गतिविधियों के काल्पनिक, तार्किक विस्तार कह सकते हैं.

 

तो मीडिया का चरित्र जो इस कहानी में दिखता है वह एकदम साफ-साफ दिखने लगता है कि जनहितैषी नहीं है मीडिया.. तो आप यह मानते हैं कि मीडिया ऐसा ही है या आप एक चरम स्थिति बना के इसको पेश कर रहे हैं या मीडिया का चरित्र आपके मन में स्पष्ट है कि मीडिया का यही चरित्र है?

देखिए इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है कि खासतौर से  इधर सबसे तेजी से… जो चीजें बदली हैं इस देश में, उनमें से मीडिया एक है और नब्बे के बाद या दो हजार के बाद इसमें बहुत बड़ा आमूलचूल परिवर्तन आया. इससे पहले मीडिया मूलतः बहुत पुराने ढंग के सेठों के हाथ में था, वे इसके मालिक हुआ करते थे और उनका पैसा इसमें लगा हुआ था, प्रबंधन बहुत कंज़र्वेटिव और पुराने ढंग का था लेकिन काम इनको बहुत आधुनिक करना पड़ता था. लोकतंत्र के चौथे खंभे थे, लोकतंत्र अपने आप में एक नई चीज़ है…और पूरी तरह से तकनीक आधारित  काम था. टेक्नॉलजी न होती तो मीडिया न होता.. तो तौर-तरीके पुराने थे लेकिन कंटेंट नया था.  न्यूज़-चैनल या समाचार पत्र  या रेडियो प्रोग्राम  हो वे एक आधुनिक किस्म के कंटेंट थे. 2000 के पहले से यह काम शुरू हो गया था.

उसके बाद कार्पोरेटाइजेशन.  व्यापार करने का जो तरीका था उसका आधुनिकीकरण. उसके बाद यह पूरी तरह से इस तरह से होने लगा कि क्या करना हमको ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा दिला सकता है.

पहले पत्रकारिता करने के पीछे बताया जाता था (जबकि हमेशा ऐसा था नहीं) कि हमको सच सामने ले आना है, जनता की दुख तकलीफ सामने ले आना है. हमको सरकार के सामने प्रतिपक्ष की तरह आईना दिखाना है. यह कि जिस चीज को छिपाने के कोशिश की जा रही है हमको उसको सामने ले कर आना है.

लेकिन अब जो कॉरपोरेट मीडिया है उसका यह उदेश्य हो गया कि हम वही चीज छापेंगे या दिखाएंगे जिससे हमको डिविडेंड मिलता है, जिससे हमको मुनाफ़ा मिलता है. तो यह बहुत खास बात थी कि हर चीज़ को नफ़े और नुकसान के तराजू पर तौल करके मीडिया ने जगह देने का चलन शुरू किया. वह अपने संसाधनों का इस तरह से इस्तेमाल करना चाहता था कि अधिकतम फायदा हो उसको, अधिकतम मुनाफ़ा मिले यही कॉरपोरेट तर्क था तो निर्णय लिया गया कि कौन सी ख़बर चलाई जाए.

वेश्याएँ तो पढ़ी-लिखी भी नहीं हैं और जो पढ़ी-लिखी हैं भी, समाचार-पत्र पढ़ने में उनकी कोई दिलचस्पी भी नहीं. उनके दुख तकलीफ को कौन जानना चाहता है. तो इस आधार पर तय हुआ कि एक ऐसा रीडर ग्रुप, वह भी शायद भविष्य का. जिनकी संख्या कुल तीन सौ है, उसके लिए अख़बार के संसाधन क्यों बर्बाद करें, क्यों न उनके पक्ष में कैम्पेन चलाया जाए जिनकी संख्या हजारों में है, लाखों में है और जो हमको रेवेन्यू भी दे सकते हैं तो फिर जैसे धर्माचार्य हैं, जैसे व्यापारी हैं, जैसे एड्मिनिस्ट्रेशन है, जैसे पुलिस वाले हैं- तो ये सब ऐसे इंस्टीट्यूशंस हैं जो रेवेन्यू भी दे सकते हैं और आपको पाठक संख्या भी दे सकते हैं.

 

तो यह पूरी तरह से रियलिस्टिक है?

यह पूरी तरह से रियलिस्टिक है और यह और ज़्यादा रियलिस्टिक उसके बाद होता गया. आज आप देख सकते हैं, गोदी मीडिया बन गया है. पहले ऐसा नहीं था. पहले जो हमारा पुराना सेठों वाला मीडिया था, उसमें जनता की आवाज़ भी कभी-कभार आ जाया करती थी बल्कि उस मीडिया को विश्वसनीयता अर्जित करने के लिए जनता के पास जाना पड़ता था.

 

तो वह भी एक स्ट्रैटजी थी, कोई नैतिक विकल्प नहीं था..?

न, नैतिक विकल्प कतई नहीं था, वह मजबूरी थी. एक तरह से, स्ट्रैटजी थी कि आपको विश्वसनीयता अगर पानी है, तो आपको जनता के बीच में जाना पड़ेगा, उनके मुद्दे, उनके जीवन में जो चल रहा है, वह आपको कवर करना पड़ेगा, दिखाना पड़ेगा तभी आपकी विश्वसनीयता उनकी नजर में भी बनेगी, जिनसे आप बारगेन करना चाहते हैं.

सत्ता भी तभी थोड़ा बहुत आपसे डरेगी, जब आप सचमुच जनता की कोई समस्या, कोई बात छापेंगे और ऐसा लगेगा कि आप ओपिनियन को बनाने बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं. उसके बाद  तो स्थितियाँ और बुरी होती गईं.

 

इस कहानी में जो मॉरेलिटी ब्रिज़ की अवधारणा है, बिल्कुल हाईपर, रियल-सा मेटाफर लगता है. इसका विचार कैसे आया, मतलब वॉयोरियज़्म एक बिज़नेस बनेगा, और यह आप 2000 में कहानी लिख रहे हैं, सन 1999-2000 के आस-पास. यह तो बहुत हाईपर, रियल-टाईप की सिचुएशन आप कल्पित करते हैं,  कैसे आप बनारस में इसको देख रहे थे?

देखें, यह जो समय है, बड़ा महत्वपूर्ण समय है. बनारस के लिए. मतलब इसी समय बनारस में एक नए तरह की पर्यटन-केंद्रित अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी. एक बूम जैसा आया. यह जो ग्लोबलाइजेशन और नई आर्थिकी 90 के बाद आई, बड़े पैमाने  में लोगों ने अपने घरों में छोटे-छोटे रेस्ट-हाउस, गेस्ट-हाउस बनाने शुरू कर दिए और इसी समय की काशीनाथ जी की वह कहानी भी है, जिसमें बताया गया है कि जिन घरों में छोटे-छोटे मंदिर हुआ करते थे, उनकी जगह कॉमोड बिठा दिये गए और कमरे बना करके विदेशियों को वहाँ टिकाया जाने लगा.

और इसी समय योगा, गिटार, सितार, म्यूज़िक, सिखाने के बहुत सारे इंस्टीट्यूशंस, छोटे-छोटे घरों में चलना शुरू हुए, जिनमें मुख्यत: विदेशी ऑडियन्स थे. तो ये चीज़ें एक वॉयोरिस्टिक टर्न लेंगी, या ले रहीं थीं, मतलब उनकी शुरुआत हो रही थी, वे दिख रहा था, कि मतलब लोग बिज़नेस करने के लिए, जिनके पास थोड़ी-सी भी पूँजी थी, थोड़ा- सा भी पैसा था, वे जिस तरह के विचारों  के साथ सामने आ रहे थे और जिस हद तक जाने को तैयार थे उसी दिशा में सोचने का नतीज़ा है कि ये मैं मॉरेलिटी ब्रिज़ की कल्पना कर पा रहा हूँ, क्योंकि इस तरह की चीज़ें वहाँ शुरु हो चुकी थीं, लेकिन हाँ बहुत छोटे स्केल की.

 

तो आपने उसको हाईटेन्ड-सेंस में उसको कल्पित किया?

वे आता ही है दिमाग में, कि ये चीज़ें अगर इसी गति से, इसी डाइनेमिक्स से चलती रहीं, तो कहाँ जाएंगी. और इन सब चीज़ों में एक वॉयोरिस्टिक प्लेज़र था. और दूसरा यह है कि यह भी आप देख लीजिए कि दुनिया का इतिहास बताता है, जो समकालीन इतिहास है, कि यह जो व्यापारिक ताकते हैं, ये हार-वार नहीं मानतीं…बल्कि विपत्तियों को ही अपने बिज़नेस का मॉडल बना देती हैं. आपदाओं पर भी यह बिज़नेस करती हैं, ये कभी हार नहीं मानतीं.

ऐसा नहीं है कि देखेंगे कि अगर कहीं लोग विरोध कर रहे हैं, कि यहाँ हम इस चीज का व्यापार नहीं होने देंगे, जैसे कुछ चीजें हैं जिनका व्यापार नहीं किया जा सकता है, जैसे भाईचारे का व्यापार नहीं करने देंगे, प्रेम का व्यापार नहीं करने देंगे, संबंधों का व्यापार नहीं करने देंगे. बहुत दिन तक यह कहा जाता था कि ज़मीन हमारी माँ है, उसका व्यापार नहीं करने देंगे, बहुत ज़माने तक लोग चकित होते रहे कि पानी का व्यापार नहीं करने देंगे..

हाँ….तो ये कॉरपोरेट हर चीज़ का व्यापार करके दिखा देते हैं… जिस तरह से अच्छे लोगों की जिजीविषा होती है उसी तरह कॉरपोरेट की भी जिजीविषा होती है, बुरी चीजों की भी जिजीविषा होती है..

 

 हाँ, और काफी मज़बूत जिजीविषा होती है, अच्छाई से  कुछ ज़्यादा ही..

मज़बूत न भी हो तो उनके पास जो संसाधन हैं वे उसे मज़बूत बना देते हैं और उसे मूर्तिमान भी कर देते हैं, उन चीजों को साकार करने में बहुत महत्वपूर्ण  भूमिका अदा करते हैं. बिना संसाधन के आप और आपकी जिजीविषा दोनों मर जाएंगे. लेकिन उनके पास सिर्फ आईडिया आया है जिजीविषा भी नहीं और संसाधन हैं तो सब मूर्तिमान हो जाता है.. वे तुरंत उसको साकार कर लेते हैं और वह सामने आ जाता है. तो यह अंतर है.

 

एक कहानीकार में, मैं आपके संदर्भ में पूछ रहा हूँ कि कहानीकार जो यथार्थ देख रहा होता है, वास्तविकता देख रहा होता है उससे वह हाईपर-रियल तक कैसे पहुंचता है मतलब इस संक्रमण  को सिर्फ कल्पना  से देखते हैं कि एक स्पर्शरेखा दिखती है कि यह इधर ही जाने वाला है और उसके उपकरण ऐसे क्या होते हैं जो वे हाईपर-रियल को कल्पित  करता है. कई सारे मामलों में वह साबित होते हुए दिखता है.

अगर हम 1984 की बात करें जार्ज ऑरवेल का, 1930 के दशक शुरुआती वर्षों में Aldous Huxley ने लिखा ब्रेव न्यू वर्ल्ड. 1959 में उसको रिवाइज़ किया… आज हम देख रहे हैं कि वह 80 और 100 साल पहले लिखे हुए इस तरह के जो कथानक हैं वे सही दिख रहे हैं… कहानीकार के पास ऐसा कौन-सा यंत्र , कौन सा गुण है कि वह भविष्य  को इतना सटीक तरीके से देख लेता है?

बात सिर्फ यह नहीं है कि कहानीकार ही ऐसा कर पाता है करने को मुझे लगता है बहुत लोग कर पाते हैं लेकिन कहानीकार सबसे ज़्यादा वक़्त देता है इस चीज़ को.  एक तो जो लिखने वाले लोग हैं, जो उनके आस-पास यथार्थ फैला हुआ है उससे एक तरह से ऊबे हुए भी रहते हैं, उससे चिढ़े भी रहते हैं. कि यही यथार्थ है और सभी यही लिख रहे हैं तो फिर मैं इसमें अलग क्या कर सकता हूँ. फिर इस तरह की चीज़े होती हैं कि या तो वे उस यथार्थ को बुनियाद बना के बहुत आगे जाते हैं या वे  बहुत पीछे जाते हैं, या  दाँए-बाँए चलते हुए कहीं जाते हैं या फिर यथार्थ को ही भूल ही जाते हैं.

पूरी तरह से फैंटेसी में चले जाते हैं. जादुई यथार्थ जैसी चीज की ओर चले जाते हैं. लेकिन जब-जब आप यथार्थ  के, जो सबसे चुभने वाले या न छोड़े जा सकने वाली चीजों को ध्यान में रखते हैं और जब आप भविष्य को कल्पना करते हैं तो जितनी बढ़िया आपकी यथार्थ की समझ है और जितना आपका कंसर्न है उस वास्तविकता से. उतना ही आप सटीक, उसके भविष्य की जो अभिव्यक्तियाँ हैं, उनके आस-पास पहुँचेंगे. तो इसमें कोई दो राय नहीं कि वे लोग सक्षम थे.

 

तो आप कह रहे हैं कि यथार्थ की जितनी सटीक समझ होगी उसके आधार पर आप भविष्य  को कल्पित कर सकते हैं.

कल्पना करने का साहस भी होना चाहिए..

 

 साहस होना चाहिए. और आप उसमें अपना समय भी दें.

हाँ, ज़्यादातर लोग तो कल्पना करने की हिम्मत ही नहीं कर पाते. जब उनकी कल्पना सचमुच उस ज़ोन में ले जाने लगती है और बनने लगती हैं तो उनको डर लगने लगता है कि यह तो बड़ा भयानक है. क्या इसको लिख देना, क्या इसको कह देना, क्या इसको चित्रित कर देना ठीक होगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि बहुत अविश्वसनीय होगा, बहुत अन-रियल होगा और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि वह जो विविधता भरा काल्पनिक संसार है. जिस संयोजन में, कल्पना में आता है, उसको सम्हाल पाना- लिखे में या दृश्य में, यह भी बड़ा कठिन होता है कि आपको जैसा वह लगा उसको सम्हाल पाएं, उस तरतीब के साथ उसको लिख पाएं, उस धैर्य और उस विन्यास के साथ.

अकसर तो विन्यास ही बिगड़ जाता है और वह बिखर जाता है. वह इस तरह के क्रम में लिखा जाता है कि असंगत और वह बहुत उलझा हुआ लगने लगता है. यह भी होता है. तो मुझे  लगता है कि अपनी कल्पना की प्रलयकारी ताकत के सामने धीरज से जो लेखक खड़ा रहता है, वह लिख ले जाता है.

 

पर उसके लिए कच्ची सामग्री. यथार्थ की ठीक-ठाक सटीक  समझ.

जीवन की समझ कह लीजिए.

 

आप एक सवाल से अभी आप किनारा करते हुए नज़र आए. सवाल वही था कि वेश्याओं के लिए, जो मनोवृत्ति हमारे समाज में है, उससे एक भिन्न मनोवृत्ति की तरफ आप कैसे गए? या यथार्थ की जितनी सटीक समझ होगी, उतना हम कल्पना वाले संसार को सम्हाल पाएंगे? तो मतलब आपके जीवन में ऐसा कौन सा क्षण आया, जब आप उनकी मानवीयता देखने की तरफ बढ़ सके? समाज के लिए जो कलंक है, उससे अलग दृष्टि कैसे बना पाए? कैसे हुआ…बाकी जो आपकी यथार्थ की समझ है, उसका प्रशिक्षण कैसे हुआ?

इसी कहानी की जो तैयारी थी, उसमें एक छोटी-सी घटना ने बड़ा असर डाला. वेश्याओं का जो विरोध करने वाले लोग थे वे बहुत हाईपर तरीक़ों से विरोध कर रहे थे. उनकी नैतिकता और उनके विरोध करने के जो बहाने थे, वे चौंकाने वाले थे- मुहल्ले की लड़कियों की शादी नहीं होती,  जबकि यह मैं जानता था कि यह झूठ है. कि लड़कों की शादी नहीं हो रही है कि वे धंधा करायेंगे, ये सब झूठ था.

इसी बीच मेरा एक डीयू का पढ़ा हुआ दोस्त वहाँ एक स्कूल खोलता है, वेश्याओं के बच्चों के लिए. ये नैतिकतावादी उस स्कूल को जला देते हैं…तो मुझे लगा कि मुझे खुद जाकर देखना चाहिए…क्योंकि उनके बारे में हजार बातें लोग बताते ही थे. लेकिन स्कूल जलाने की घटना ने मुझे वहाँ खुद जाकर देखने-समझने की तरफ धकेला.

 

आपकी कहानियों में एक बात मुझे बार-बार नज़र आती है कि ऊपरी तौर पर व्यंग करते से नज़र आते हैं लेकिन अंदरूनी सतह पर जैसे रो रहे होते हैं, बड़ी गहरी करुणा होती है, कहानियों के स्वर में यह होता है. बाहर एक अज़ीब-सा ठंडापन रखते हैं.  जैसे नगरवधुओं वाली कहानी में प्रकाश वेश्याओं को जानने के लिए जाता है तो नाचने-गाने का कार्यक्रम रखा जाता है, जबकि वहाँ भूख, बीमारी… बहुत कारुणिक दृश्य है, मुझे पाठक के तौर पर रोना आ गया. यह आपकी बनक का मसला है या आपकी लिटरेरी चॉइस है?

अपने यहाँ जो पारस्परिक कथानक शैली है, मतलब जो असरदार रहा है. ख़ास तौर पर हिंदी की परंपरा में. मतलब लोक-कथाओं से लेकर अभी तक, उसमें कथन लॉउड है, असंतुलित है, होता कम है, दिखाया ज़्यादा जाता है, या जो कलाकार मनमाने तरीक़े से इस्तेमाल करता है, बड़े और छोटे दोनों तरह के प्रसंगों में असंतुलित कर देते हैं तो वह अविश्वसनीय लगने लगता है. लेकिन वास्तविकता में कोई चीज़ इस तरह इकहरी नहीं होतीं…करुणा जैसी चीज़ का भी बड़ा दुरुपयोग हुआ है हमारे यहाँ…कहने का मतलब है कि कोई एक राजनेता, मंत्री, प्रधानमंत्री है, उसे दिन भर अभिनय करना है. बिना महसूस किए दुख और करुणा का अभिनय करना पड़ता है. जिनको सत्ता ने मरवाया हो उनके लिए भी दुख प्रकट करना पड़ता है.

तो मेरे दिमाग में शुरू से यह बात थी कि इस करुणा को कैसे चैलेंज किया जा सकता है, इस करुणा के झूठ को कैसे पकड़ा जा सकता है..तो स्वतःस्फूर्त तरीक़े से मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि अगर करुणा नकली है तो उसे प्रकट करने वाला पीड़ित लोगों के प्रति व्यंग्य नहीं कर सकता, हिम्मत ही नहीं पड़ेगी.

पहले ही वह कपट करता है तो वह ज़्यादा करने लगता है, ज़्यादा करुणा, दुख से भीगा हुआ, विगलित दिखाने के चक्कर में, वह व्यंग्य कर ही नहीं पाएगा तो मेरे लिए एक तरह से व्यंग्य पीड़ित के प्रति अधिक सरोकार की वजह से आता है, उसको प्रामाणिकता देने की इच्छा से आता है क्योंकि जो पीड़ित लोग होते हैं तो ऐसा नहीं है कि उन पर व्यंग्य किया ही नहीं जा सकता. उनके जीवन में पीड़ित रहते हुए भी व्यंग्य किया जा सकता है, उनकी स्मृति पर व्यंग्य किया जा सकता है, असहायता पर किया जा सकता है जो इनको तबाह किए हुए है कि बस एक प्रलोभन आए और ये फिर जाल में फँस जायेंगे. तो इस पर व्यंग्य किया ही जा सकता है.

 

 

(दो) 

किन रचनाकारों ने आपको प्रभावित किया है? यथार्थ को समझने में हिंदी के क्षेत्र में, यानी हिंदी कहानी की विधा में, आपकी समझ से यह माना जाता है कि आपको यथार्थ की गहरी समझ है और आप उसे अपनी कहानियों में बखूबी व्यक्त भी कर पाते हैं. चाहे नगरवधू की कहानी हो, या गोसेवक की कहानी हो, या कोई और कहानी हो, लगभग हर कहानी में यथार्थ अपने बहुआयामी रूप में नज़र आता है. वह  गहरा है, पैना दिखाई देता है. तो क्या यह सिर्फ़ आपके जीवन का प्रशिक्षण है, या फिर कुछ लेखकों, कुछ विचारकों, कुछ विचारधाराओं का प्रभाव है, भाव-धारा का, यह इतना गहरा, इतना प्रांजल कैसे हो गया?

आपके भीतर बहुत सी चीज़ें मिलकर यथार्थ बनाती हैं. यह एक चीज़ नहीं है. आप सत्य के ग्रहणकर्ता हैं. आपका मन, आपकी चेतना, जहाँ सबसे पहले चीज़ें दर्ज होती हैं, छानी जाती हैं, विश्लेषित होती हैं, वह आपके भीतर है. लेकिन यथार्थ आपके बाहर फैला हुआ है. तो, यह तो हर जगह मौजूद है, लेकिन हर कोई इसे अलग नज़रिए से देखता है. और यह हर किसी के जीवन की परिस्थितियों के कारण होता है.

मेरा मतलब है, जब एक असहाय व्यक्ति, जिसके नियंत्रण में कुछ भी नहीं है, जिसे सिर्फ दूसरों के निर्देशों का पालन करना है, या जिसे दूसरों की स्थिति के आधार पर अपनी स्थिति तय करनी है, कि मुझे उनसे बचकर निकलना है, उसकी यथार्थ की समझ और परिस्थितियों को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति की यथार्थ  की समझ अलग-अलग होती है. दोनों की समझ में फ़र्क़ होता है.

 

मेरा सवाल आप पर केंद्रित था. यथार्थ के बारे में आपकी समझ इतनी गहरी कैसे हुई?

बचपन से जो मैंने देखा है, जिस तरह का जीवन मैं अपने आस-पास जी रहा हूँ, खासकर किसान समाज में, जो अपराध, फरेब, धोखाधड़ी, हिंसा, क्रूरता, स्वार्थ, मानवता, क्रूरता… ये सब मैंने बचपन से ही देखा है. और उसके बाद, मैंने जो विश्व-दृष्टि बनाई है, कई लेखकों को पढ़ते हुए, सुनते हुए, समझते हुए, उनका भी प्रभाव पड़ा.

 

वे कौन-से लेखक हैं?

इसमें बहुत सारा रूसी साहित्य है. उसने यथार्थ  की समझ बनाने में, ख़ासकर शुरुआती वर्षों में, इसने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसमें अंतोन चेखव भी हैं, तोलस्तोय हैं, पुश्किन हैं, गोगोल हैं.

 

दोस्तोवस्की हैं…

दोस्तोवस्की बाद में आए. शुरुआत में मैं दोस्तोवस्की को समझ नहीं पाया था. और उसके बाद, छात्र आंदोलनों की समझ, लेफ्ट की किसानों और मज़दूरों के आंदोलनों की समझ, उसके बाद, बनारस के घाटों की, पंडों से, अन्य लोगों से बातचीत, दुनिया भर के पर्यटकों से बातचीत, इन सब बातों को मिलाकर, समझ अपने आप में गहरी होती गई.

 

तो जीवन से गहरी संलग्नता, जहाँ हैं वहाँ के लोगों से जुड़ते हैं, कनेक्ट होते हैं और इस प्रक्रिया में ही यथार्थ की समझ अपने आप गहरी होती जाती है?

जाहिर सी बात है… जाहिर सी बात है …और यह कोई संलग्नता वॉलंटरी क़िस्म की नहीं है कि जब चाहूँ संलग्न जाऊँ, जब चाहूँ अलग हो जाऊँ.

 

वह बनक का हिस्सा है.

हाँ,…संलग्न होना पड़ेगा..सर्वाइवल के लिए. संलग्न होना पड़ेगा.

 

अच्छा….एक तरह का हताशा है. जो संलग्न होने के लिए बाध्य करता है?

नहीं, हताशा भी नहीं है वह, हो सकता है शुरू में हो, लेकिन बाद में मुझे मज़ा आने लगता है, बाद में मैं उसे वस्तुनिष्ठ तरीक़े से भी देखने लगता हूँ..

 

तो, उस समय दो अनिल यादव होते हैं. एक जो वहाँ काम कर रहा होता है, और एक जो देख रहा होता है कि ये दोनों कैसे इंगेज़ हो रहे हैं.

ये तो ज़ाहिर सी बात है. और मैंने खुद को ऐसी परिस्थितियों में रखकर देखने का काम, यानी जब मैं उनमें शामिल होता हूँ, और छिटककर खुद को दूर से देखना, या पूरे परिदृश्य को देखने का काम, यह मैंने बहुत किया. और यह अपने आप शुरू हो गया. यह मुझे नहीं पता था कि बाद में इसे आध्यात्मिक  कहा जाने लगा, कि ये एक आध्यात्मिक  काम है.

लेकिन ध्यान की प्रक्रिया लगभग ऐसी ही है. जो ध्यान कर रहा है, वह खुद को वस्तुनिष्ठ  तरीक़े से देख रहा है, चाहे वह साँसों के बहाने हो, या शरीर की अन्य गतिविधियों के बहाने हो. यही तो ध्यान है.

 

आपकी कई कहानियों में, जैसा कि मैं देखता हूँ, उदारता, या उदात्तता है, या जिसको जनरॉसिटी कहते हैं.. उसमें आपका कोई गहरा यकीन नहीं दिखता. आप स्वभाव से किसी व्यक्ति को बहुत उदात्त परिप्रेक्ष्य में नहीं देखते. इसका क्या कारण है? क्या आपको अच्छे लोग नहीं मिले? या अच्छे लोग हैं ही नहीं?

मैं अच्छे लोगों में विश्वास नहीं करता. मुझे अच्छाई पर कम भरोसा है.

 

ऐसा क्यों है? यह बड़ी अजीब बात है. लेखक का काम अच्छाई ढूँढ़ना होता है. उसे भी उसे मैग्नीफाई करना होता है. क्या वह सिर्फ़ बुराई को बढ़ाएगा?

मुझे अच्छाई बहुत कम मिली है. और मैंने अच्छाई भी पाई है, मैंने अच्छाई को अकसर पराजित होते हुए, षड्यंत्रों का शिकार होते हुए, लांछित होते हुए, कुण्ठित होकर  शांत होते हुए देखा है, ज़्यादातर देखा है.

मुझे अच्छाई पर विश्वास है. मुझे अच्छे लोगों पर विश्वास है. लेकिन यह उन लोगों में पैदा होता है जो कभी जीत नहीं पाए.

अक्सर वे हार जाते हैं.

 

हाँ. आपकी कहानियों में यह तो है. पराजित होती हुई उदात्तता तो है. हाँ, होती है. रियलिज़्म है, आप इसे इसी तरह देख पाते हैं? आप इसे बड़ा नहीं कर पाते? क्यों?

 क्योंकि बड़ा करने का समय भी नहीं है यह.. नहीं है समय.

 

भले ही आप यथार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर न दिखाएँ, भले ही आप यथार्थ को केवल कैप्चर करते हैं, और बुराई की जीत ही नज़र आएगी, दुनिया में होता तो है यह, तो क्या वह साहित्य में उसी रूप में आएगा? क्या साहित्य की रचना सिर्फ़ एक रिकॉर्डिंग है?

नहीं, ज़रूरी नहीं कि वह साहित्य में भी वह उसी रूप में आए. यह तो सबसे कॉमन बात होगी कि वह साहित्य में उसी रूप में आए. लेकिन जो एक जागरूक,  सचेत लेखक है वह वास्तविकता  को… वह जैसी है वैसी स्वीकार नहीं कर सकता.

वह इसे ज़रूर तोड़ेगा और वैसी दुनिया में बदलेगा जैसी वह चाहता है.. या जैसे लोग वे चाहता है, वे ऐसे लोगों में बदलेगा, वे ऐसे किरदारों में बदलेगा…

तो अगर मैं अभी नहीं कर पाया हूँ, तो इसका मतलब यह नहीं कि आगे नहीं कर पाऊँगा. मैं कर सकता हूँ.

 

सच है कि आपकी कहानियाँ यथार्थ पर केंद्रित होती हैं. और सच में आप बुराई को जीतते हुए देखते हैं. आपकी कहानियों में भी बुराई जीतती हुई दिखती है. तो आप पाठक से क्या उम्मीद करते हैं? क्या आप उम्मीद करते हैं कि आपकी कहानी पढ़कर वह हताश हो जाए, या उसे फर्क समझ में आ जाएगा, या उसमें बदलाव की कोई आकांक्षा जगे? आपके साहित्य का उद्देश्य क्या है?

हम पाठक से कोई उम्मीद नहीं करते. हम पाठक से कोई उम्मीद कर ही नहीं सकते. यह संभव नहीं है.

 

ऐसा तो हो नहीं सकता. क्या यह सच नहीं है कि एक पाठक हमेशा रचनाकार के मन में रहता है, जिसके लिए आप लिख रहे हैं?

नहीं… नहीं… नहीं… पाठक से बस यह अपेक्षा करते हैं कि वह हमारी बात समझ जाए, उस तक कन्वे हो जाए…और इस कम्यूनिकेशन को पाने के लिए अपने भीतर मैं बहुत सारे बदलाव करता हूँ.

ख़ासकर अपनी भाषा में, मैं बहुत बदलाव करता हूँ, बहुत सारे बदलाव करता हूँ, छेनी, बसुली चलाता ही रहता हूँ. ताकि संवाद ज़्यादा से ज़्यादा हो. पाठक तक पहुँचना चाहिए. छोटी-छोटी बारीकियाँ भी, अगर भाषा में रखी जाएँ, तो पाठक तक पहुँचनी चाहिए.

लेकिन पाठक से कुछ भी उम्मीद करने की स्थिति में मैं नहीं हूँ. और हाँ, यह ज़रूर है कि मेरे भीतर एक चाहत तो है, लेकिन ऐसे उदात्त किरदारों को सामने लाने की हिम्मत मैं अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

 

क्या वजह है? ऐसे किरदार सामने क्यों नहीं आ पाते?

मैं कमज़ोर हो जाता हूँ, हताश हो जाता हूँ.. मैं सोच ही नहीं पाता, हिम्मत ही नहीं कर पाता. हकीकत इतनी डिप्रेशिंग है कि मैं विवश हो जाता हूँ. मैं ऐसे किरदारों के बारे में सोचने की हिम्मत ही नहीं कर पाता.

ऐसे किरदार सामने आए हैं, लेकिन उस ज़माने में हालात अलग थे. ऐसे कई किरदार हैं जो नहीं हार मानते.

जैसे “ओल्ड मैन एंड द सी” का बूढ़ा सैंटियागो. या फिर लुसियस की कोई कहानी, जिसमें एक ऐसा किरदार है जो कभी हार नहीं मानता. लेकिन मुझे अपने आस-पास ऐसा कुछ नहीं दिखता, इसके लिए मुझे विशुद्ध रूप से अपनी कल्पना का इस्तेमाल करके, ऐसा कुछ बनाना पड़ेगा.

 

और यह काम का है या नहीं?

क्यों नहीं है?

 

लेकिन आप नहीं कर पा रहे हैं.

मैं नहीं कर पा रहा हूँ. बुरे वक़्त में भी लोग ऐसे किरदारों को अपने मन में बिठा लेते हैं और वे बहुत हिम्मत देते हैं. किन अगर मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ, तो मैं क्या कर सकता हूँ? दरअसल, यूँ कहूँ कि मैं यथार्थ से आक्रांत हूँ, डरा हुआ हूँ. जब यह डर कम होगा, तब शायद कुछ हो.

 

और यह डर कब कम होगा? क्या जब वास्तविकता बदलेगी तब या आपमें भी कोई परिवर्तन आएगा? क्या आपकी रचनात्मक दुनिया में भी कोई ऐसा तत्त्वांतरण हो सकता है जिससे आप ऐसे किरदार रच सकें जो वास्तविकता में हस्तक्षेप कर सकें, आकर दें उसे, बदल सकें? ऐसे पात्र जो यथार्थ के विद्रूप को कम कर सकें.

दोनों बातें हैं. दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं. वे पात्र बाहर की परिस्थितियाँ बदलने पर भी प्रकट हो सकते हैं और वर्तमान के प्रति जो ऊब और चिढ़ है, उसकी जो तुच्छता है, इससे भी वे पैदा हो सकते हैं. तो, दोनों ही संभव हैं. और ज़्यादा संभावना यह है कि यह जो तुच्छता है, अगर आप यथार्थ की भयावहता को टटोलेंगे, एक्सप्लोर करेंगे तो पायेंगे कि यह विद्रूप तुच्छ है.

 

किस कन्विक्शन से कह रहे हैं यह?

क्योंकि इंसान को इससे क्या मिलता है? इंसान को डर लगता है, शक होता है, निराशा होती है. वह हताश होता है… और उसका ज़िंदगी के प्रति एक गहरा नकारात्मक नज़रिया बनता है.. यह है कि इंसान जो कर सकता है, वह भी नहीं करता. वह निराश हो जाता है. वह अपनी क़ीमत भूल जाता है, अपनी योग्यता भूल जाता है.

और अपनी ज़िंदगी में वह छोटी-छोटी चीज़ें भी नहीं करता जो मायने रखती हैं. तो इस लिहाज़ से मैं कह रहा हूँ कि यह एक तुच्छ बात है.

 

तो आप अपने में यह संभावना देख रहे हैं कि भविष्य में ऐसे पात्र आएंगे, जो वास्तविकता को चुनौती देंगे और उसकी भयावहता को तुच्छ समझेंगे?

ऐसे पात्र होने चाहिए…. लेकिन हाँ, जो तरीक़े हों उनकी जड़ें जीवन में होनी चाहिए.

 

वे हवा-हवाई नहीं होने चाहिए. हक़ीक़त को चुनौती देंगे और इस डर को अच्छी तरह समझेंगे.

 बिल्कुल… बिल्कुल.. ऐसा ही होगा. उन्हें पूरी तरह अंधविश्वासी नहीं होना चाहिए.

 

वे न तो प्रेरणा दे पाते हैं और न ही उनकी कोई मूल्यवत्ता है, कि वे कोई हस्तक्षेप कर सकें.

वे थोड़ी देर के लिए चकित करते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं.

 

(तीन) 
अनिल यादव और महेश मिश्र. चित्र सौजन्य महेश मिश्र

आप सांप्रदायिकता पर केन्द्रित रहते हैं, बहुत ज़ोर देते हैं. आपकी सांप्रदायिकता के इर्दगिर्द कई कहानियाँ हैं. इसी संग्रह में एक कहानी है, “दंगा भेजियो मौला”. मैंने यह कहानी पढ़ी है. यह थोड़ी चौंकाने वाली है. कहानी का विषय और शीर्षक भी वास्तविकता को अतिरंजित करता हुआ प्रतीत होता है. ऐसे कौन भला दंगे की माँग करता है- दंगा भेजियो मौला. यह कैसी कल्पना है? ये कैसा रचनात्मक रोमांच है? मुझे समझ नहीं आ रहा. क्या आप इसे विस्तार से बता सकते हैं?

दंगा आमतौर पर एक नकारात्मक और विध्वंशकारी चीज़ होती है. लोग तो यही कामना करते हैं कि दंगा और कर्फ्यू जैसी चीज़ें उनके जीवन में न आएँ. यही उनके लिए बेहतर है. आती हैं, मज़बूरी में उन्हें झेलना पड़ता है. लेकिन यहाँ जो नौजवान दंगे की कामना कर रहे हैं, जो ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि दंगा उनके पास भेजा जाए, वे दंगे में जीवन का अर्थ देख रहे हैं.

 

वे दंगे में अर्थ देख रहे हैं… कैसे?

वे जीवन का अर्थ देख रहे हैं… यही उदात्तता है… यही सब्लीमिटी है. वे उदात्तता देख रहे हैं. वे जीवन का अर्थ देख रहे हैं क्योंकि उन्हें ऐसी स्थिति में डाल दिया गया है जहाँ वे, उनके लोग, उनकी बहनें, उनके पड़ोसी, या उनका पूरा समाज सीवर के पानी में चूहों की तरह डूब मरें. वे नहीं मरना चाहते. इसकी तुलना में, जो उनके दुश्मन हैं, जो उन्हें डुबोकर मारना चाहते हैं, अगर वे उनका सामना करें और दंगे में मरें, तो उनके जीवन में कुछ अर्थ होगा, उनके जीवन का कुछ मतलब होगा, कुछ गरिमा होगी. इसलिए वे कामना करते हैं कि वे उस तरह न मरें जिस तरह से उनके भाग्य में लिखा है. वे चाहते हैं कि दंगा उनके पास भेजा जाए.

 

इस कहानी का कच्चा माल क्या है? वह, जिसे आपने रूपांतरित किया है? मेरा मतलब है, क्या आपने समाज में कहीं ऐसी स्थिति देखी है? मैं समझना चाहता हूँ.

हँसकर…बहुत देखीं हैं. बनारस में ऐसे कई इलाके हैं जो अनियोजित तरीक़े से बसे हैं. मतलब हर जगह अनियोजित तरीक़े से ही बसे हैं. तो, वहाँ नारकीय दृश्य रहता है बारिश के दिनों में, महीनों तक पानी भरा रहता है. इलाके डूबे रहते हैं. लोग मरते रहते हैं. ख़तरा बना रहता है, हैजा, डायरिया फैला रहता है. तो, ज़रूर किसी ऐसी ही बस्ती को देखते हुए इसे बनाया गया होगा. ऐसी जगहों की कमी नहीं है. अब, उससे थोड़ी दूर गोरखपुर है.

हर साल बहुत सारे बच्चे जापानी एंसेफिलाइटिस से मरते हैं. बच्चे मरते हैं. मतलब, 3 साल से लेकर 11 साल, 12 साल तक, बहुत सारे बच्चे मर जाते हैं. ऐसी स्थितियाँ देखकर ही बनी होगी.

 

आपकी कहानियों में मैंने एक और बात देखी है. कहानियों में आप वाक्यों को बहुत ही जटिल तरीके से रचते हैं. एक वाक्य में बहुत सारे विशेषण और क्रिया-विशेषण एक साथ आते हैं. और वे व्यर्थ नहीं होते.

आमतौर पर, वे उस जटिल स्थिति को ही पकड़ रहे होते हैं. मैंने दोस्तोएवस्की की “द कारमाज़ोव ब्रदर्स” में यही बात देखी है. और उसे पढ़ते हुए, मुझे आपके लिखने का तरीका भी याद आया. और मैंने वह समानता देखी. जैसे दोस्तोएवस्की लगातार क्रिया-विशेषणों का प्रयोग कर रहे हैं. दिमित्री का भावुक स्वभाव, उसकी लगातार बदलती मनःस्थिति, कतेरिना के पास जाने के लिए, ग्रुशेंका को पाने के लिए, पिता से पैसे लेने के लिए, वह चारों ओर दौड़ रहा है. तो, अपनी भावुक मनःस्थिति में, जब भी दोस्तोएवस्की इसका वर्णन करते हैं, तो वे एक ही वाक्य में दो-तीन-चार क्रिया-विशेषणों का प्रयोग करते हैं. मैंने आपकी कहानियों में भी ऐसा ही देखा है. आपने इस भाषाई प्रयोग को कैसे विकसित किया? क्या आपने इसे सचेत रूप में विकसित किया या वास्तविकता को कॉम्प्लेक्सिटी में देख सकने की क्षमता के कारण?

समस्या यह है कि वास्तविकता हमेशा मल्टी-डाइमेंशनल होती है.

और सिर्फ़ वास्तविकता ही क्यों? सब कुछ बहुआयामी है. भ्रम, इल्यूज़न माया भी बहु-आयामी है. वह एक-आयामी नहीं है. तो, अगर आप इसे इस तरह रखेंगे कि पहले एक आयाम रखें, फिर दूसरा आयाम सामने लाएँ, फिर तीसरा आयाम सामने लाएँ, फिर चौथा आयाम सामने लाएँ, तो सबसे पहले तो आपका टेक्स्ट बहुत लंबा हो जाएगा. मतलब, आपकी सारी कहानियाँ उपन्यास में बदल जाएंगी.

दूसरी बात, हमारा अनुभव यह है कि जब हम इन सभी आयामों को एक साथ देखते हैं, तब हम कंसीव करते हैं वास्तविकता को. अगर हम इसे बारी-बारी से अलग-अलग अध्यायों में रखने लगें तो कुछ और कंसीव होगा, वास्तविकता नहीं कंसीव होगी.

इसलिए, उस वास्तविकता को एक-साथ ही अधिकतम आयामों के साथ ताकि उसको पढ़ने वाला, देखने वाला, सुनने वाला, ग्रॉस्प कर सके. उसको रखना पड़ेगा. तो उसको अधिक सम्पूर्णता में देखने और वर्णित करने के चक्कर में यह होता है और आपका वाक्य जटिल हो जाता है.

फिर भी संतोष नहीं मिलता. ऐसा लगता है कि अभी भी कुछ बचा है जो छूट गया है. ऐसे में कुछ और जुड़ जाता है, जो इसे जटिल बना देता है.

लेकिन हाँ, इसे इससे उबरना चाहिए. कभी-कभी यह भी होता है कि बहुत सारी विशेषण और एडवर्ब…

 

नहीं, लेकिन मुझे तो यह एक गुण ही लगता है.

नहीं, नहीं, मैं अपनी बात कह रहा हूँ. मैं आपको लिखने वाले की बात बता रहा हूँ. बहुत सारा घमंजा तैयार हो गया किसी कैरेक्टर को सामने रखते समय. एक पैराग्राफ में बहुत विशेषण आ गए…फिर लगता है कि इतने सारे कोणों से उछल-उछल के देखने के बजाय सिर्फ एक लाइन यह भी तो हो सकती थी कि जो उस पूरे जटिल स्ट्रक्चर को सम्हाल सके.. तो, मैं इसे अपना लेता हूँ. लेकिन, कभी-कभी ऐसा होता है, किसी चमत्कार की तरह. हर रोज़ नहीं. एक लाइन ध्वनित कर दे पूरे कैरेक्टर को या उसके हर कोने को. जब आपको ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं, तो आप एक जटिल स्थिति में फँस जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वास्तविकता जटिल होती है.

 

ऐसा लगता है कि जिस हिंदी भाषा को हम जानते, समझते और बरतते हैं, वह अकसर भावे ं की अभिव्यक्ति में या स्थितियों की जटिलता को पकड़ने के क्रम में थोड़ी-सी कमज़ोर साबित होती है. क्या यह हमारी व्यक्तिगत समस्या है या भाषा की समस्या है?

यह भाषा की ही समस्या है. मैंने अकसर पाया है कि कई बार ऐसी स्थितियाँ आती हैं जब मेरे पास हिंदी में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते. लेकिन भोजपुरी में मिल जाते हैं. बोलियों में तत्पर तरीक़े से मिल जाते हैं. हिंदी कोई बड़ी रिसोर्सफुल भाषा नहीं है.

 

बोलियों से कटने पर यह विपन्न हो जाती है.

हाँ. आप कोई भी एक छोटी-सी चीज ले लीजिए. आप एक कमीज ही ले लीजिए तो उसके सभी हिस्सों को, यानी उन सभी चीज़ों को जो उसे शर्ट बनाती हैं, अलग कर दें. और देखें कि उसमें कितने शब्द हिन्दी के हैं. कॉलर, बटन, काज, कपड़ा, धागा, अस्तर, करते जाइए, करते जाइए… आप पाएंगे कि उसमें हिंदी के शब्द बहुत कम हैं. ज़्यादातर शब्द कहीं और से आए हैं, फ़ारसी से हैं, उर्दू से हैं.

 

तो फिर हम वैसी भाषा का इस्तेमाल कर क्यों नहीं पाते जिसमें हमें सब कुछ मिल सकता है? क्या हम कर सकते हैं? कुछ लोग कर सकते हैं.

हमें करना ही होगा. जिसे भी चीज़ों को पकड़ना है, लिखना है, बोलना है, उसको ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल करना पड़ेगा. बल्कि वह घाटे में ही रहेगा जिसका आग्रह शुद्धतावादी होगा.. कि हम सिर्फ़ हिंदी और संस्कृत का प्रयोग करेंगे, उर्दू का इस्तेमाल नहीं करेंगे, फ़ारसी का प्रयोग नहीं करेंगे, अंग्रेज़ी के इस्तेमाल से बचेंगे. तो वह तो घाटे में ही रहेगा.

वह तो एक ऐसी भाषा बोलेगा जो ठीक से कम्यूनिकेट ही नहीं होगी. इसलिए, भाषा को और अधिक समृद्ध बनाने का एकमात्र तरीका यही है कि उसे यथासंभव अधिक से अधिक भाषाओं से समृद्ध  किया जाए. इसलिए, हिंदी के साथ हमारी यही समस्या है.

और हिंदी कोई बहुत पुरानी भाषा तो है नहीं, सौ साल पुरानी भाषा है, और इसका जो शुद्धतावादी आग्रह है. और सरकार ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग किया है. तो इन सब चीज़ों ने इसे थोड़ा सीमित किया है. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि ये चीज़ें समय के साथ टिकने वाली नहीं हैं. ऐसे तो भाषा बच ही नहीं सकती. यह शुद्धता पर आधारित भाषा सफल नहीं हो सकती. वह जीवित नहीं रह सकती. वह अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकती. अगर किसी भाषा को अपना उद्देश्य सिद्ध करना है, तो उसे प्रवहमान होना पड़ेगा.

और उसको दूसरी भाषाओं से भी बहुत कुछ लेना-देना पड़ेगा. यह तय है.

 

 इस संदर्भ में, आपकी एक कहानी है लोकगायक का बिरहा. मुझे यह शीर्षक कम समझ आया. कहानी तो बहुत अच्छी है. कहानी बहुत यथार्थवादी है. गोगोल की कहानी ‘द पोर्ट्रेट’ की याद दिलाती हुई…और कहानी बहुत करुणा पैदा करती है. और यह हर तरह से सच लगने वाली कहानी है. लेकिन मुझे यह शीर्षक समझ नहीं आया.

क्यों शीर्षक में क्या समस्या है? बिरहा शब्द के दो अर्थ हैं. एक तो लोकगीतों की शैली है. और दूसरी विरह-गीत. यही बिरहा का मूल  है. मूलत: उसमें विरह-गीतों की प्रधानता है… जब आर्ट फॉर्म के रूप में एस्टैब्लिश हो गया तो इसमें सब आ गया..ड्रामा वगैरह सब कुछ घुस गया…तो शीर्षक सटायरिकल है…कि एक विरह रचने वाले का विरह-गीत, एक लोककवि का विरह गीत..

 

जी, जी…इसी डुएलिटी को ही मैं समझना चाहता था, कि गायक पूरी तरह से एलिअनेट हो जाता है…

वह शीर्षक में ही निहित है. कि वह ख़ुद अपनी कला से भी एलिअनेट हो जाता है..

 

मतलब दो स्तरों पर शीर्षक काम कर रहा है…

हाँ, इसीलिए वह दो बार आया था और इस पर पहली बार आप बात कर रहे हैं. इससे पहले किसी ने नहीं पूछा इसके बारे में..लोग बहुत सामान्य चीजों से संतुष्ट हो जाते हैं आम-तौर पर…हमारी सोसाइटी का अधिकांश गहरे नहीं धँसना चाहता. और दूसरा यह है कि अब उसको जिस स्तर पर है, वहीं… उथली चीजें परोसने का एक विज़ुअल संसार प्रकट कर दिया गया है, वीडियो से जो बमबारी हो रही है. जिस तरीक़े से बताया जा रहा है, उसमें कोई गहराई नहीं है, सब कुछ बड़े उथले तरीक़े से चल रहा है…तो यह समाज जो संवेदनहीन होता जा रहा है, उथला शैलो होता जा रहा है…इस प्रक्रिया का भी उसमें बड़ रोल है कि लोगों को जीवन जैसी चीज है उसको सोचने समझने के लिए ऑन देयर ओन  छोड़ा जाना चाहिए कि वे जूझें. समझें..

 

 बिल्कुल… उस प्रक्रिया से जोड़ें, उसके अलग-अलग लेवल…

इसके बजाय उसे सस्ते तरीक़े और उथली चीजें बनाकर. भरमार में.. प्रभूत मात्रा में परोसा जाए..और अब तो खैर और बड़ा नुकसान हो गया ..उसका अटेंशन स्पैन वाकई बहुत कम हो गया, किसी चीज पर फोकस करने की क्षमता वाकई बहुत ख़राब हो रही है… पता नहीं भविष्य में उसकी रिकवरी हो भी पायेगी कि नहीं.

 

 

(चार) 

अरुंधति रॉय की अभी एक जीवनी आई है या जीवनी का एक हिस्सा आया है, बहुत चर्चित हो रही है…चर्चा के पॉज़िटिव, नेगेटिव दोनों आयाम नज़र आ रहे हैं…आप इस सबके बारे में कैसे सोचते हैं?

देखिए किताब तो मैंने अभी पढ़ी नहीं…लेकिन मुझे ये उम्मीद है…जितनी किच-किच हो रही है, उससे मुझे लगता है किताब अच्छी ही होगी.

 

नहीं… कुछ लोगों को उनके ऐक्टिविस्ट स्वरूप से बड़ी दिक़्क़त है, कि या तो लेखक ही बन जाओ या फिर ऐक्टिविस्ट ही बन जाओ…

क्यों भाई. ये कौन तय करेगा कि कौन क्या बने. अगर किसी में क्षमता है तो वह क्यों न बने सब कुछ. गायक, नर्तक, स्टेट्समैन, लेखक, ऐक्टिविस्ट. सब कुछ क्यों नहीं बने. कौन तय करेगा, किसने उनको अधिकार दिया..

असली बात दूसरी है. यह जो हमारे यहाँ फ्यूडल माइंडसेट है, इसको सिगरेट पीती औरत ख़राब लगती है. सिगरेट पीने का मतलब एक उन्मुक्त और लोकाचार की परवाह न करने वाली, बड़े आराम से उसे चरित्रहीन वगैरह कह सकते हैं. अब क्योंकि यह तो आजकल कह नहीं सकते तो कैंसर को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगा दो. अगर यह इतना ही जागरूक समाज है तो हमने तो नहीं देखा कि गाँव की हुक्का, बीड़ी पीने वाली औरतों को कोई मना भी करता है, कोई आलोचना भी करता हो.

 

 (हँसते हुए..) फिर ऐसा क्यों हो रहा है…कुण्ठा- भाव है क्या?

जेलसी है, कुण्ठा-भाव भी है और ऐसी औरत डराती भी है, पुरुष के वर्चस्व को गंभीर चुनौती देती है, उसे तोड़ती भी है. यह कोई झगड़ा ही नहीं है, सिगरेट वगैरह का..और हाँ, रॉय के लेखन को मैं पसंद करता हूँ, कैपिटल(पूँजी) के प्रभाव की ऑयरनी जिस तरीक़े से वे पकड़ती हैं वह भारत में तो किसी और के लेखन में मुझे नहीं दिखती..

 

कौन-कौन से लेखक आपको पसंद हैं? कोई दस-बारह लेखक बताइये.

रशियन तो हैं ही, इनमें मुझे पुश्किन बहुत अच्छे लगे, अंतोन चेखव बहुत पसंद हैं…गोगोल…

गोर्की मुझे ज़्यादा नहीं पसंद आए. फिर उसके बाद बाल्जाक, शेक्सपियर, बोर्हेज, नदाइन गार्डिमर, कोएट्जी. अभी ठीक से सब याद नहीं. लेकिन बहुत हैं, बहुत हैं…किसी का कुछ अच्छा है, किसी का कुछ और अच्छा है. कोई एक ही लेखक का सब कुछ अच्छा नहीं होता…

 

किसी नई कहानी के लिए आपका क्रिटिकल पाइंट क्या होता है, मतलब कब आइडिया आता है कि हाँ अब तो इसको लिखना पड़ेगा. हर कहानी के लिए वह अलग होगा जाहिर सी बात है, लेकिन किसी एक कहानी के उदाहरण …इस संग्रह की किसी और कहानी के माध्यम से इस प्रक्रिया को बताएँ…

ऐसा भी नहीं होता कि लिखना ही पड़ेगा…(दोनों लोग तेजी से हँसते हुए…) बाध्य- वाध्य नहीं करतीं…सैकड़ों की भ्रूण हत्या हो गई…

 

क्या पता जिनकी भ्रूण हत्या हुई वे अन्य कहानियों में रूप बदल कर आ रही हों...

कभी- कभी वे नुकसान भी करती हैं..

 

कैसे..

वे क्लैरिटी कम करती हैं…पता लगा कि आपने तीन कहानियों की हत्या की..भ्रूण-हत्या की और उसका पश्चाताप मन में है…अब आप नई कहानी लिख रहे हैं…बिलकुल नए विषय पर. लेकिन आपके अंदर जो अपराध-बोध है कि हमने हत्या की, वह सब घुस आता है…कहानी ग़ैरसलीकेदार  हो जाती है.

 

(हँसते हुए..) कथ्य के स्वरूप और उसकी बनक को बिगाड़ती होंगी… तीन भ्रूण मिलकर चौथी का गला घोंटने आ जाते होंगे…

(साथ में हँसते हुए, सहमत होते हुए..) इसलिए एक कहानी सोचनी चाहिए और उसको लिखकर फुरसत पानी चाहिए… और उस समय और कुछ नहीं करना चाहिए, बस वही लिखना चाहिए… अवचेतन से सब कुछ खिंचा चला आता है…यकायक कहानियों में कोई ऐसी डिवाइस पैदा हो जाती है जो यथार्थ के सभी संभव आयामों को खोल देती है.

इसी तरह बातचीत के क्रम में भी हम जिस उलझी, जटिल चीज के बारे में बात कर रहे होंगे तो नई बात निकल आती है… और उसके समस्त आयामों के साथ नटशेल में रखने की कोशिश कर रहे हैं तो इसी प्रयास में, मुझे लगता है कि प्रयास की ईमानदारी है, तीव्रता है, उत्कण्ठा है, जिज्ञासा है…पता नहीं क्या है…संपूर्णता में तो नहीं लेकिन उसके अरीब-करीब का कुछ पकड़ में आता है और चला आता है.

बातचीत में जो सुनने में इतना भरा-पूरा और चमत्कारिक लगने लगता है…तो यह जितना ही आप असावधान रहेंगे, जितना सहज रहेंगे उतना ही ज़्यादा, उतना ही अच्छा, मतलब प्रामाणिक बनेगा…और जितना ही आप सावधान रहते हैं, उसको एडिट करने के चक्कर में रहते हैं…वह नहीं आता…जितना ही आप उसको पॉलिटिकली करेक्ट या दिशा देने के चक्कर में रहते हैं वह नहीं प्रकट होगा…वह निर्देशित नहीं होना चाहता…

 

 फिर क्षण ही पकड़ में नहीं आएगा…क्रिएटिव प्रॉसेस ..

वह अपने तरीक़े से ही चलना चाहता है, अपने तरह से फ्लो होना चाहता है, वह अवचेतन ज़्यादा है, चेतन कम..सारा क्रिएटिव प्रॉसेस…और बल्कि अवचेतन में भी अवचेतन जहाँ उलझा हुआ है, शून्य है, खाली है वहाँ ज़्यादा मुखर होता है…

 

इसको थोड़ा और स्पष्ट करें..

उसको आप इससे देखिए कि जहाँ आप उसको निर्देशित कर रहे हैं… निर्देशित आप किन चीजों को कर सकते हैं..(सहमत होकर दोनों लोग बोलते हुए- कॉंशस), अवेयर चीजों को…

 

आपकी कहानियों में अक्सर देखने को मिलता है कि कथावाचक या वह माध्यम जिसके ज़रिए कहानी आगे बढ़ती है, एक ठंडा पर्यवेक्षक होता है, जो उसे ठंडे अंदाज़ में देखता है, मानो उसे दुनिया की कोई परवाह ही न हो. लेकिन कहानी में एक गहरी चिंता भी है. यह गहरी कंसर्न दिखती है और एक अजीब सी स्थिति बन जाती है, जब लगता है कि कथावाचक एक ठंडी आत्मीयता देने की कोशिश कर रहा है, बाहर से ठंडी और अंदर से टॉरमेंटिंग.

आप ऐसी परिस्थिति कहानी में कैसे लाते हैं? या आप इस तरह से ही जीवन को देखते हैं? या आपके मन में कुछ ऐसा है कि पाठक को इसी तरह से अधिक प्रभावित और उद्वेलित किया जा सकता है? या आपकी शैली की विशिष्टता है जो उसे इस रूप में लाती है?

यह बड़ा घुला-मिला है. लेकिन हाँ, इसमें कुछ ऑर्गेनिक-सा भी है, कुछ जैविक-सा भी है. किसी भी चीज़ के प्रति जो मेरा सरोकार है, मेरी संलग्नता है, जो मेरी चिंता है… मैं चाहता हूँ कि वह फलीभूत हो, सफल हो. लेकिन अकसर विफल होती है, कुचल दी जाती है, और उसके बड़े वीभत्स, बड़े दारुण रूप सामने आते हैं…मतलब मैं जिस तरह के लोगों को चाहता हूँ कि सफल हों, अकसर ऐसे लोग पराजित ही नहीं होते बल्कि प्रताड़ित भी किए जाते हैं, ऐसे लोग जेल में डाल दिए जाते हैं, नेस्तनाबूद कर दिए जाते हैं…

तो यह एक तरह की डिवाइस है, ऑर्गेनिक डिवाइस जो बाद में आई लिखने में कि ऊपर से अपनी संलग्नता को छिपा करके थोड़ा खिलवाड़ी, थोड़ा मनोरंजक, थोड़ा असम्पृक्त तरीक़े से देखा जाए या ऐसे देखते हुए दिखा जाए ताकि जब जो फॉल-ऑउट्स हों, ये सरोकार जब निष्फल और व्यर्थ साबित हो जाएँ तो उसका क्षोभ भी न हो, उसकी निराशा भी न दिखाई दे, इसलिए यह एक डिवाइस है…लेकिन इसमें भी अगर इस मनोरंजन के बीच, इस खिलवाड़ी भाव के बीच में जब भी कोई बहुत क्रुशियल मौका आए, कि अब अपनी प्रामाणिकता  दिखाए बिना, अब अपना असली रूप दिखाए बिना रहा नहीं जा सकता, या अगर अब भी जाहिर नहीं किया तो पाठक भ्रमित हो जाएगा कि लेखक किधर है…

क्या वह सचमुच अपने किरदार के दर्द का आनंद ले रहा है… या इस पीड़ा से कोई सरोकार है… तो फिर उसे वहाँ जताना पड़ता है. और ये निश्चित तौर पर उससे एक नए या विचित्र तरह का रस या भाव पैदा होता है, यह मैं मानता हूँ. कुछ लोगों को यह पसंद आता है, कुछ लोगों को अच्छा नहीं भी लगता. लेकिन यह एक यूनीक क़िस्म की चीज़ है. उन्हें लगता है कि शुरू से आप अपनी पक्षधरता या विरोध साबित क्यों नहीं करते, आप उसे खुलकर क्यों नहीं ज़ाहिर करते?

 

आपका साइड क्लियर क्यों नहीं…

लेकिन ऐसा जीवन में होता कहाँ है.

 

ऐसा नहीं होता..

नहीं, इतना साफ- साफ कहाँ होता है. जब तक कुछ बहुत निर्णायक नहीं होता है, आदमी का पक्ष कहाँ दिखाई पड़ता है?

 

ढुलमुल बना रहता है. जब मौका मिले, तो साइड बदला लिया जाए.

हाँ..

जब कुछ निर्णायक होता है, अस्तित्व पर संकट होता है, तभी व्यक्ति अपना पक्ष देख पाता है. और ख़ासकर भारतीय समाज में तो यह ज़्यादा है… यह क्लॉउड है, हम किधर हैं, पता ही नहीं चलना चाहिए.

 

आप इसे लिटरेरी डिवाइस की तरह इस्तेमाल करने का जो ख़तरा है वह तो बता रहे हैं लेकिन फ़ायदा यह है कि पाठक पूरी तरह से इंगेज़्ड है और उस स्थिति में, मुझे लगता है कि आप उसे एक सरल-सी करुणा में विगलित नहीं होने देना चाहते.

यह भी है.

 

मुझे लगता है कि आप उसे एक सरल-सी करुणा में विगलित नहीं होने देना चाहते. और उस ठंडेपन को इसलिए रखते हैं कि यथार्थ की एक बड़ी पिक्चर, एक ज़्यादा पूर्ण पिक्चर सामने आए. और दूसरी बात, अगर आपको कोई पक्ष चुनना है, तो आप चुनो. मैं यह नहीं कहूँगा कि आपको कौन-सा पक्ष चुनना है.

मतलब कि आप पाठक को खुलकर इंगेज़ करते हैं.

 बिल्कुल.

 

आप बता देते हैं, कि भई, ये हाल है, सच में यह है, ये अंदर-अंदर चल रहा है… मैं बाहर ऐसा हूँ. हमारा कथावाचक ऐसा है. आप अपना पक्ष देख लो. क्या आप इतने ठंडे रहना चाहते हैं या थोड़ा इंटिमेट होकर जुड़ना चाहते हैं? क्या आप इस स्थिति में दखल देना चाहते हैं?

क्या यह किसी तरह का प्रयास है?

जाहिर-सी बात है. मुझे इसमें कोई यकीन नहीं है कि लेखक पाठक को यह बताए कि आपको कौन सा पक्ष चुनना है. नो.. नहीं…

 

मुझे ऐसा लगता है कि आप ऐसा कर रहे हैं. आप ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि आपने पाठक को बाहर से ठंडा रखे हुए हैं. अंदर एक करुण स्थिति बनी हुई है. उस करुण स्थिति से पाठक जुड़ रहा है. और कथावाचक नहीं कह रहा कि तुम जुड़ो जा के.

अब पाठक के सामने एक चैलेंज है कि… आपको एक ऐक्टिव रीडर चाहिए. ऐसा रीडर चाहिए जो टेक्स्ट से इंगेज़ करे और टेक्स्ट में जो बन रही स्थितियाँ हैं और जीवन में भी जो बन रही स्थितियाँ हैं उनसे जुड़े. मुझे लगता है कि आपके टेक्स्ट का यही मतलब है.

मेरा कथावाचक अपना पक्ष बता देता है. वह भी संकेतों में बताता है. वह चिल्ला के नहीं बताता है. उस कोल्ड, उस डिस्टैंस्ड, उस सटायरिकल एप्रोच के बीच में कहीं न कहीं बता ज़रूर देगा. पक्का बता देगा. लेकिन वह पाठक से कभी नहीं कहेगा कि तुम्हें भी यही पक्ष चुनना है.

 

नहीं, वह पाठक से ऐसा नहीं कहता. लेकिन यह टेक्स्ट की डिमाण्ड है कि पाठक उस करुण स्थिति से जुड़े. और बिना कथावाचक के प्रकट रूप से यह कहे कि भई तुम कुछ करो. क्यों नहीं कर रहे हो? मैं तो नहीं कर रहा हूँ. तुम तो करो.

तो ऐसा नहीं है. मुझे लगता है कि वह अपनी कोल्डनेस से एक तरह का रिज़ेक्शन पैदा कर रहा, क्षोभ पैदा कर रहा है.. पाठक में कथावाचक के लिए.. कि देखो यह कितना कोल्ड है जबकि मैं कितना बेहतर हूँ….

क्या ऐसा कुछ है?

हाँ, मुझे ऐसा बहुत महसूस होता है. बहुत सारे पाठक जता भी देते हैं. और वे यह कहते भी हैं कि लेखक हमसे ज़्यादा हृदय-हीन है. जब वे कहता है कि वे एक बेरहम लेखक है, तो मुझे अपनी कामयाबी का एहसास होता है.

एक तरह से, यह पाठक के लिए एक चुनौती है. एक लेखकीय चुनौती भी है. मुझे यह पसंद है.

 

हाँ, मुझे याद है आपकी इमामदस्ता कहानी को पढ़कर एक पाठक की प्रतिक्रिया थी कि मेरा जी कर रहा था कि अपनी गोदी में लेकर मीसम को लेकर भाग जाऊँ.  मुझे उसे बचाना चाहिए.

जबकि कहानी में, उस विकट स्थिति में भी उसे कोई बचाने नहीं आ रहा है. उस पर हमला हो रहा है, वह मारा जा रहा है. और कथावाचक बहुत ही ठंडे अंदाज़ में वहाँ मौजूद है. लेकिन पाठक, एक पाठक को ऐसा लगता है कि मुझे मीसम को बचाना चाहिए. उसे इस प्रचंड हिंसक आग के बीच कूद जाना चाहिए.

तो मुझे लगता है कि आपकी साहित्यिक युक्ति बहुत गहरे अर्थों में सफल है. आपका कथावाचक भाव-शून्य है. कहानी बाहर से ठंडी है. अंदर से वे जुड़ना चाहती है. इंगेज़ होना चाहती है.  लेकिन हर पाठक को शायद ऐसा नहीं लगता कि उसे जुड़ना चाहिए. शायद वे बाहरी परत में ही रहता है और कहता है कि जब लेखक ठंडा है, तो मुझे भी ठंडा ही रहना है. या फिर उसे रियल ही न माने. जबकि पाठक एक चेंज एजेंट की तरह मौजूद हो सकता है.

पर, मुझे लगता है कि आपकी यह शैली सफल है, आप इसका जान-बूझकर इस्तेमाल कर रहे हैं या अनजाने में हो रहा है, मुझे नहीं पता. कई कहानियों में मुझे एक अंदर का यह स्वर दिखता है. बाहर की कोल्डनेस, अंदर की वह दारुण स्थिति, और उसके बीच पाठक का यह बोध जगना कि मुझे यहाँ हस्तक्षेप करना चाहिए, मैं इतना कोल्ड नहीं हो सकता, इस कथावाचक की तरह…

देखिए, ज़्यादातर जो डिवाइसेज़ हैं बहुत सोच- समझकर नहीं लाई जातीं बाद में भले ही लेखक उनका इतना ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं कि पहले पाठक, फिर आलोचक, संपादक, फिर दूसरे लोग उन्हें पहचान लें और उनके बारे में बात करने लगें, तो लेखक यह क्लेम करने लगे कि मैंने जान-बूझकर ऐसा किया है. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है.

 

दरअसल, यह टेक्स्ट है जो लेखक को पार करता है.

ये डिवाइसेज़ लेखक के अवचेतन से आती हैं जस की तस  चली आती हैं, और थोक के भाव आती हैं.

और ये लेखक  को ट्रांसेंड करती हैं. लेखक इन्हें जान-बूझकर नहीं ला रहा होता है…

बिल्कुल.

अगर लेखन अच्छा है, तो वह ट्रांसेंड करेगा, वह उसके पार चला जाएगा….

चला जाता है. यही लेखन का जादू यही है, यही लेखन का सौंदर्य है. यही तो है. जिन चीज़ों के लिए लोग लिखते हैं, लिखने के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते. लिखने के लिए लोग रुपया-पैसा, परिवार, संपत्ति और क्या-क्या चीज़ें छोड़ देते हैं.

 

ऐक्चुअली तो अगर कोई लेखक किसी एक क्षण को भी ठीक से पकड़ ले तो वह याद रहती है, पाठक को, हर पाठक को…

अब, जैसे इस तरह की कोई एक चीज़ आपके अवचेतन से उड़ती हुई आती है और कागज़ पर फैल जाती है…आपको पता ही नहीं था कि आपके अंदर वह है भी. यह कोई मामूली उपलब्धि या मामूली सुख या रोमांच नहीं है.

लिखने का जो मजा है, लिखने का जो चस्का है, वह ऐसी चीज़ों से ही तो आता है. और ये ज़्यादातर अवचेतन से आता है. और, अलग-अलग लेखक में अलग-अलग तरीक़े से आता है.

इसलिए, यह कहना कि मैंने यह तरीका अपनाया, मैंने यह बनाया, मैंने वह बनाया, यह सब मेरे लिए बक़वास है.

सच तो यह है कि वह कहीं अंदर ही था और एक ख़ास अंदाज़ में, रचने के दबाव में, वह भक्क से बाहर आ गया. क्योंकि, उसी टेक्नीक से उसको लिखा जा सकता है. अब, बाद में, उसे पहचाना जाता है. पहले से यह सोचकर कि मैं इसे ऐसे रखूँगा, मैं इसे ऐसे लिखूँगा, मैं इसे ऐसे लिखूँगा, यह सब नहीं चलता.

 

टेक्स्ट की अपनी एक रीज़निंग होती है. उसकी एक अपनी टैंजेंट होती है, जो अपने साथ पकड़ के ले जाती है कि इधर चलना पड़ेगा, है न?

 अरे बिल्कुल. हाँ.

मेरा मतलब है, देखिए कैसे एक लेखक एक साल, दो साल बैठ के कैसे 300 पेज, 400 पेज, 500 पेज, 600 पेज लिखता चला चला जाता है…लिखता चला जाता है..

आप इसे रोक नहीं सकते… आप इसे रोक ही नहीं सकते. इसलिए, ऐसी चीज़ें लिखते समय, वह जाँचता रहता है. वह बार-बार जाँचता रहता है. उसे पता नहीं होता कहानी कहाँ जा रही है. अचानक उसके अवचेतन में एक डिवाइस बनी और उसने उसे देख लिया. आर्क दिख गया लगता है…ओ…ये यहाँ भी जा सकता है.

यह आश्चर्य, यह विस्मय.. (महेश मिश्र- यह क्रिएटिव प्लेज़र है…). चाहे आँखें फूट जाएँ, चाहे पीठ टूट जाए लेकिन वह खुद को रोक नहीं सकता. वह खुद को रोक ही नहीं सकता. वह लिखेगा. भले ही उसकी नींद उड़ जाए, चाहे वह इतनी सिगरेट पिए कि कैंसर ही हो जाए. लेकिन वह मानेगा नहीं.. वह नहीं मानेगा… वह लिख देगा. तो, यह बहुत ही मैजिकल चीज़ है. और ऐसी चीज़ें रोज़ खुलती रहती हैं. इसीलिए एक लेखक सालों बैठा रहता है. वह ऊबता नहीं. वह भागता नहीं.

 

(पाँच) 
अनिल यादव और महेश मिश्र. चित्र सौजन्य महेश मिश्र

कुछ लोग सैकड़ों किताबें लिखते हैं. उन्हें लिखने का आनंद मिलता है रहता है. जो ज़्यादा लिखते हैं और जो कम लिखते हैं, आप दो तरह के लेखकों में इसे कैसे देखते हैं? उदाहरण के लिए, मेरा एक अजीब-सा सवाल है कि कुछ लोग बहुत लिखते हैं. मान लीजिए, हर साल एक किताब आती है. किसी ने 100 किताबें लिखीं, किसी ने 120 किताबें. मुझे लगता है कि यह बंदा ज़रूर एक्स्ट्रापोलेट कर रहा होगा- अपनी इमोशंस को, अपनी रीज़निंग को, अपने कंटेंट को ज़बरदस्ती फैला रहा है…जबकि ज़रूरी नहीं कि यह सच हो…ऐसा लगता है कि वह जो लिखना चाहता होगा वह सबमें अधूरा रह जा रहा होगा, इसलिए मज़बूरी में उसे पाने के लिए बार-बार उसे लिखने की ओर आना पड़ता होगा…मैं उन तथाकथित प्रोफेशनल लेखकों की बात नहीं कर रहा जिनका काम किताब प्रकाशित करके रॉयल्टी पाना है. अगर आप इसे एक रचनात्मक प्रक्रिया के रूप में देखें, तो वे बहुत कुछ लिखते हैं. बाहरी तौर पर, मुझे लगता है कि वे हर चीज़ एक्स्ट्रापोलेट कर रहे होंगे..

इमोशंस का, रीज़निंग का, स्टोरीज़ का. ज़बरदस्ती छोटी बातों को बड़ा बना रहे हैं.

आप क्या सोचते हैं?

कई स्कूल हैं. लोग कई तरह से सोचते हैं. आप जो एक्स्ट्रापोलेशन की बात कर रहे हैं, वह एक तरह का गुण है राइटिंग का. यह स्कूल मानता ​​है कि लिखने के लिए अनुभव की कोई ज़रूरत नहीं है. सामान्य अनुभव चाहिए, लेकिन विशिष्ट अनुभव की कोई ज़रूरत नहीं. और दूसरा, ऐसे पात्रों के बारे में लिखें जिन्हें हम जानते ही नहीं हैं क्योंकि जिन लोगों को हम जानते हैं और उनके प्रति हमारी जो भावनाएँ हैं, नैतिक आग्रह हैं, अपेक्षाएँ हैं, जो भी हैं, वही हमारी सीमा है.

हम अपनी माँ के बारे में लिखते हैं, तो हम उसे एक चरित्रहीन महिला, एक वेश्या के रूप में चित्रित नहीं कर सकते.

 

नहीं कर पायेंगे…

या अपने बेटे के बारे में लिखते हुए उसको भविष्य में एक बहुत बर्बाद, अपराधी, दुर्दांत और कुख्यात व्यक्ति के रूप में चित्रित नहीं कर पायेंगे. तो, इस स्कूल का मानना ​​है कि कैरेक्टर जाने-पहचाने नहीं होने चाहिए.

 

एक डिस्टैंस रहनी चाहिए.

डिस्टैंस होनी चाहिए. पूरी तरह से कल्पनाशील होना चाहिए ताकि उनको एक्स्प्लोर करने की अपरिमित आज़ादी मिल सके.

 

 कुछ भी बनाया जा सके.

कुछ भी बनाया जा सके. और लेखक जब इस आज़ादी वाले ज़ोन में प्रवेश करता है, तो उसका अवचेतन आने लगता है लेखन में, एक तो यह स्कूल है.

दूसरा यह है कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, जो अनुभव हो वही लिखा जाना चाहिए.

तीसरा, उसे फैंटेसी में उसे पाया जाना चाहिए. झूठ और फैंटेसी को इस तरह पोज़ीशन किया जाना कि वास्तविकता उसके ट्रैप में फँस जाए और एक गहरा अर्थ देने लगे.

तो, तरह-तरह के स्कूल हैं.

 

क्या आपको लगता है कि झूठ और फैंटेसी के बीच में वास्तविकता को ऐसे ट्रैप किया जा सकता है कि वास्तविकता और स्पष्ट तरीक़े से समझ में आए?

हाँ, बिल्कुल.

 

 तो आज जो अनइक्सप्रेस्ड वास्तविकता है वह भी दिखने लगे…और वह फैंटेसी और झूठ के माध्यम से हो सकता है..

 हाँ. भई 1984 में कैसे भविष्य की तस्वीर फँस गई?

 

 झूठ और फैंटेसी के बीच में.

उस समय तो यह एक्स्प्लोर्ड नहीं था.

 

यह तो बस एक बीज था. द्वितीय विश्व युद्ध और आस-पास के समय में देखा क्या हो रहा था.

इसलिए, यह अलग है… इसीलिए लेखन की दुनिया इतनी विपुल है, विविधतापूर्ण है. कोई भी कुछ भी कर सकता है. जो लेखन के शास्त्र माने, वह भी लिख सकता है. जो न माने, वह भी लिख सकता है. कोई तीसरी चीज़ भी पैदा कर सकता है. मतलब हर तरह के कॉम्बिनेशंस और पॉसिबिलिटीज़ हैं.

तो यह तो लिखने वाले पर है कि उसकी कितनी क्षमता है.

 

 या कितना अनुशासित है? वह बैठेगा ही नहीं, तो लिखेगा कैसे?

बहुत से लोग बहुत क़ाबिल होते हैं. बस अपनी कहानियों का विषय चुन लेते हैं, संतुष्ट हो जाते हैं और मर जाते हैं.

 

मुझे लगता है कि आप भी कोई अनुशासित लेखक नहीं हैं. क्योंकि आप अपने पोटेंशियल के हिसाब से लिखते नहीं..

नहीं, मैं बहुत मिश्रित किस्म का हूँ. मिश्रित और खिचड़ी टाइप का..

 

मुझे आप लापरवाह और बे-परवाह टाइप के लगते हैं..

वह सब है… लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मैं बहुत अनुशासित होता हूँ…यही मैं हूँ जो भोर में 4 बजे उठकर बैठता हूँ और लिखने की कोशिश करता हूँ… यही मैं हूँ जो सालों तक कुछ नहीं लिखता. तो, सब कुछ घुला-मिला है. तो यह डिपेंड करता है ..कि कभी-कभी अनुशासन प्रबल हो जाता है..

 

वह तो मनमौजीपना हुआ न…. कि कभी- कभी बैठता हूँ, सालों तक नहीं बैठता, फिर बैठ जाता हूँ..

ऐसा नहीं है. यह स्वाभाविक बात है कि आप सालों तक नहीं लिखते. इसे लापरवाही नहीं कहते. लेकिन एक बात है. मुझे लगता है कि जब मैं लिख नहीं रहा होता, जब मैं काम नहीं कर रहा होता, तो ऐसा नहीं कि मैं लिख नहीं रहा होता.

 

यह अंदर ही अंदर चल रहा है… इम्ब्रायो बन रहा है… विकसित हो रहा है?

हाँ, यह विकसित हो रहा है. कभी-कभी ऐसा होता है. इसलिए मैं नहीं बता सकता कि यह क्या है. लेकिन हाँ, जीवनी-शक्ति का एक बड़ा हिस्सा लिखने की कोशिश में हमेशा लगा रहता है. कागज़ पर वह दिखाई दे या न दे. यह महत्वपूर्ण है.

 

 हाँ, यह ज़रूरी है. कुछ चीज़ें खो जाती होंगी, लेकिन कुछ निकलती भी होंगी.

लेकिन चीज़ों को फॉर्मूलेट करने, उनको एक फिलॉसॉफिकल ऐंगल से देखने, उनका कोई अर्थ निकालने, वर्णन के लायक़ बनाने, या उन्हें तरह- तरह से वर्णन के लायक़ बनाने में मन लगा ही रहता है. वह खाली नहीं बैठा रहता.

हाँ, लेकिन वह हर साल उत्पादन में नहीं बदल पाता…यह कोई समझदारी की बात नहीं है.

लेकिन नहीं है, तो नहीं है… एक ही जीवन है… इसी में थोड़े-ही सब कुछ हो जाएगा.

(सोचने का विराम)

पूरा क्रिएटिव प्रोसेस अपनी तार्किकता और बुद्धि को एक हद तक सरेंडर करने की माँग करता है… सिर्फ अवचेतन को फॉलो करना होता है. और उसके नतीजे में कुछ अप्रत्याशित चीज़ें पाई जा सकती हैं. यह आपके ऊपर है कि आप उन्हें दुनिया के सामने लाते हैं या नहीं. यह आपका सच्चा दिमाग ही तय करेगा. लेकिन हाँ, अगर आपको कुछ नया हासिल करना है, तो उस ज़ोन में जाना ही पड़ेगा.

 अवचेतन ज़्यादा है, चेतन कम है.

 

सारा क्रिएटिव प्रॉसेस…

हाँ, सारा… बल्कि जहाँ अवचेतन ज़्यादा उलझा हुआ है, शून्य है, खाली है, वहाँ ज़्यादा मुखर होता है.

 

समझा नहीं… इस बात को ज़रा स्पष्ट करें.

ऐसे देखिए कि उसको (अवचेतन को) जहाँ आप शिफ्ट करना चाहते हैं, निर्देशित करना चाहते हैं, किन चीज़ों को आप कर सकते हैं?

कॉन्शस चीज़ों को, जिनके इम्प्रेशंस हैं.

अवेयर चीज़ों को, जिनकी संरचना आपको पता है… कि ये-ये कम्पोनेंट हैं और इनको इस-इस विन्यास में रखेंगे तो यह संरचना बनेगी. बिगड़ेगी-धुंधली होगी तो भी जानी हुई चीज़ों के बारे में. अवचेतन तो वही चीज़ है… उसमें आप दिशा दे सकते हैं कि यह इस दिशा में जाए तो ज़्यादा अच्छा है.

 

मतलब चेतन में अवचेतन का हस्तक्षेप…

लेकिन अवचेतन में एक ऐसा क्षेत्र भी है जहाँ चेतना का हस्तक्षेप है ही नहीं… वहाँ पर आपको यह मानना पड़ेगा कि यह जिधर भी फ्लो करके जाता है उसे फॉलो करो… पीछा करो… भई, वह जिस दिशा में प्रवाहित होगा…

 

तो पर यह तो अंधी गली भी है न! इसको हमेशा आप अच्छा ही नहीं कह सकते कि यह अच्छी दिशा में ही जा रहा है…

कौन कहता है कि अच्छी दिशा में जाएगा और कौन-सी दिशा अच्छी है…कौन यह तय करेगा कि अच्छी दिशा किधर है कि कौन-सी दिशा बुरी है. यह तो कॉन्शस दिमाग का काम है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है. यह तो समीक्षा है, यह तो साहित्य-समीक्षा है, यह तो जो हो चुका है…इतिहास में… उसके पलड़े पर रखकर आप देख रहे हैं…

 

 पर साहित्य का मूल्यांकन तो किन्हीं मानदंडों पर ही होगा न?

 करें लोग… करें लोग. निर्माण हमेशा सचेत होता है. लेकिन साहित्य का निर्माण सचेत तरीके से नहीं होता… उसमें अवचेतन के सबसे सुन्न हिस्से का, सबसे ठस्स हिस्से का योगदान है.

 

तो यह कुछ-कुछ रहस्यात्मक बात लगती है.

कोई रहस्यात्मक बात नहीं है. यह जब मन से आप दूर रहेंगे और उसके डाइनैमिक्स पर आप काम नहीं करेंगे तो आप उसे ज़्यादा रहस्यात्मक मानेंगे. उसे आप ऋषि-मुनि के सूत्र जैसा मानेंगे, आध्यात्मिक बात, मन की गति समझेंगे.

जो इस इसके साथ इंगेज़ करते हैं वे जानते हैं कि यह कोई रहस्य नहीं है.

 

मतलब अवचेतन को साधा जा सकता है, आप ऐसा बोल रहे हैं?

साधा-वाधा तो नहीं जा सकता है, हाँ यह ज़रूर किया जा सकता है कि उसके पीछे पीछे चला जा सकता है… अपनी तार्किकता को, अपनी बुद्धि को सरेंडर किया जा सकता है… उसके नतीजे में कुछ अनइक्सपेक्टेड पाया जा सकता है… अब यह आपके ऊपर है कि उनको दुनिया के सामने लाना चाहते हैं कि नहीं…यह आपका, सचेत दिमाग बताएगा… अगर आपको कुछ नया हासिल करना है तो उस ज़ोन में जाना ही पड़ेगा.

 

अगर अवचेतन पर हम बात करें… यह किन चीज़ों से बनता है? हमारा, आपका अवचेतन तो अलग-अलग होगा… तो यह किन चीज़ों से बनता है? क्या यह कोई गड्ड-मड्ड सी चीज़ है, जिसे समझ नहीं पाते और उस को अवचेतन का नाम दे देते हैं…

(व्यवधान… अरे आपको बिना देखे हम बोल नहीं सकते, मशीन से नहीं करेंगे बात…) असल में, मेरी समझ में अवचेतन सेकंड-दर-सेकंड जो भी हम करते हैं उसका एक विशाल संग्रह है.

 

मतलब कि यह सारे इंप्रेशंस संग्रह कर लेता है. थोड़े-बहुत कॉन्शस ज़ोन में रहते हैं और बाक़ी सब यहाँ स्टोर हो जाते हैं. And it’s a huge thing, a huge store…?

It’s huge… बचपन की एक दोपहर, जिस तरह की बारिश देखी, जिस तरह कोई…एक खिलौना, एक जगह से दूसरी, जगर उठाकर रखा रहता है …सब… सब है वहाँ…सिर्फ काम की चीज़ों, जिनके बिना आपका काम नहीं चलेगा वह तो चेतन है, वहाँ रख लिया और बार-बार उपयोग कर रहे हैं…

 

 जैसे टू-प्लस-ट इज़ फोर.

हाँ. बाकी तो अवचेतन् में पड़ा ही हुआ है.. तो जब आप वहाँ दाखिल हो जाते हैं: वह कोई बहुत रहस्यमय चीज़ नहीं है बल्कि एक इस तरह से देखिए इसे कि आपकी चेतना का वह हिस्सा जो दुनिया से, सभ्यता से, बाध्यकारी ताकतों से…जिन पर आपका अस्तित्व निर्भर है ऐसी ताकतों के प्रभाव से संचालित होता है – वह है आपका चेतन.

 

वह जो फ्री है – अवचेतन है और नया उससे ही रचा जा सकता है ? बिना अवचेतन के हस्तक्षेप के नहीं हो सकता.

हाँ, उसके बिना नया रच ही नहीं सकते – उस कबाड़ से नई और ऊबड़-खाबड़ पॉलिटिकली, सोशली इन-करेक्ट…लेकिन हाँ जीवन में गहरे धंसी हुई चीजें आती हैं.. तो आपकी चेतना से तो सिर्फ दुनियादार चीज़े आती हैं… क्योंकि सब कुछ बड़ा कोडिफाइड है –लोकाचार, शिष्टाचार, राजनीति, अकेडिमिया, प्रशासन सब कुछ कोडीफाइड है… ये…..ये सब कुछ करेंगे तो आप सही हैं… और उल्टा किया तो यू आर आउट… अवचेतन यह सब थोड़े जानता है … इसलिए मेरा मानना है कि अवचेतन के बिना कुछ नया नहीं हो सकता — और यह साहित्य की ही बात नहीं है… वे कहते हैं न कि जो बेंजीन का स्ट्रक्चर था न वह कैकुले ने सपने में देखा था कि एक साँप अपनी पूछ को मुंह में दबा रहा है…तो जो हेक्सागोनल स्ट्रक्चर है न बेज़ीन का – यह देखकर ही सूझा था.

 

अदर वाइज़ वैलेंसी एडजस्ट नहीं हो रही थी.

 नहीं हो रही थी… ये उसके अवचेतन ने पैदा किया. यह सब जगह के लिए सच है साइंस के लिए, खेल के लिए … कोई भी चीज़ जो सच होगी – ऐसा नहीं कि वह केवल साहित्य के लिए सच होगी और बाकी चीज़ों के लिए नहीं होगी. ऐसा नहीं है. सच्ची चीज़ों में एकसूत्रता होगी.

 

(छह) 

आपकी नज़र में साहित्य की समाज में क्या आवश्यकता है? जैसे इस तरह कि साहित्य सच का संधान करता है, या भविष्य को दिखाता है – उसकी भयावहता को भी और जो सपने हैं उनको भी – अच्छाई को भी देखता है… आप की नज़र में साहित्य का, पाठक होने का कोई मतलब है? इधर टेक्निकल नॉलेज और एफिशियंसी पर बात होती है- हयूमेनिटीज़ के  पाठ्यक्रम कम हो रहे हैं, तकनीकी ज्ञान, कौशल को ही बढ़ावा जा रहा है. आज के ग्लोबलाइजेशन के शोर मे.. लोगों का कहना है ह्यूमैनिटीज का क्या काम है ? साहित्य तो एफिशिएंसी को कोई मानदंड मानता ही नहीं- आप क्या सोचते हैं?

साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका है, सब-ऑल्टर्न किस्म की भूमिका है. यह जीवन की व्याख्या है. जो जीवन हम जी रहे हैं उसको सम्पूर्णता में कहाँ समझ पा रहे हैं. हम जीवन में इतना धंसे हुए हैं कि उसे टोटैलिटी में नहीं देख पाते. व्याख्या नहीं कर पाते, उसको समझ नहीं पाते तो एक अधूरापन, एक बेचैनी, एक असुरक्षा, एक भय महसूस करते हैं. तो साहित्य यह काम करता है कि वह जीवन की व्याख्या करता है. कुछ लोग जीवन को थोड़ा एलियनेट होकर तटस्थ तरीके से ज़्यादा गहराई तक जाकर , ज्यादा सम्पूर्णता में जाकर देखते हैं और उसको तरह-तरह से, सामने लाते हैं, तमाम क्रिएटिव रूपों में सामने लाते लाते हैं. लेकिन जो ह्यूमैनिटीज़ वाली बातें हैं …….

आप दिन भर जिन चीज़ों में मुब्तिला हैं तो उनसे ऊब जाएंगे– क्योंकि उनमें एक निश्चित पैटर्न है, उसमें अनिश्चितता का तत्त्व बहुत कम है, उसमें बारम्बारता है, चीजें एक लूप में चलती हैं.जब तक आप एक नई मशीन को नहीं जानते बहुत क्यूरियासिटी रहती है, जैसे ही आप जान जाते हैं….बटन, सेंसर पता चलते ही– आप फिर उसमें ध्यान ही नहीं देते– तो जो ऊब पैदा होगी वह कैसे निपटी जाएगी… तो मेरा मानना है कि टेक्नालॉजी जितनी बढ़ती जाएगी, वॉयड उतना बढ़ता जाएगा, ऊब उतनी बढ़ती जाएगी ..उसकी व्याख्या की ज़रूरत उतनी ही बढ़ती जाएगी.

अभी ज़रूर ऐसा दौर है कि आविष्कारों की गति बहुत तेज है … जैसे मोबाइल फोन ही बीस-पच्चीस साल से लोगों को चकित किए जा रहा है लोग उसके  नए-नए डाइमेंशन्स जानते जा रहे हैं…उपयोगिता के आयाम बढ़ते जा रहे हैं; बढ़ते जा रहे हैं लेकिन एक दिन यह ख़तम हो जाएगा, मैटीरियल है न, उसकी सीमा है… फिर क्या होगा –मोबाइल एक सरल सी चीज़ हो जाएगी फिर उस खालीपन का हम क्या करेंगे इस प्रक्रिया में जो जटिलता हमारे जीवन में बढ़ गई है. आपकी समझाइश की जरूरत नहीं पड़ेगी क्या? वहाँ साहित्य और ह्यूमैनिटीज़ की… दूसरी चीज़ों की ज़रूरत पड़ेगी.

 

टेक्नोक्रेट्स तो अपने समय को भर लेते हैं – प्लेजर से….

मुझे नहीं लगता कि वे भर लेते हैं- यह तो एक स्यूडो क़िस्म का नाटक है कि ड्रिंकिंग कर लिया, पोकर खेल लिया.

 

आनंद को वे जीवन का अर्थ समझते हैं- उपभोग को, …क्योंकि मुझे तो नहीं लगता कि अधिसंख्य लोगों की जरूरत साहित्य है….ऐसी बात तो पिछले 500 सालों के इतिहास से भी नहीं लगती. अनिवार्य मौज़ूदगी तो नहीं दिखती.

अनिवार्य हिस्सा तो रहा है….ये अलग बात है कि छपा हुआ साहित्य नहीं था- ओरल ट्रेडिशंस, धार्मिक साहित्य, गाना बजाना, किस्से- कहानियाँ. क्या छापाखाना आने के बाद ही साहित्य है, वह भी तो कुछ था. तो प्लेज़र नहीं भर पाता— बिना ह्यूमन इंटर-ऐक्शन के, शराब पीने, जुआ खेलने, घूमने से यह वॉयड नहीं भर सकता – इसके लिए ह्यूमन इंटर-ऐक्शन की ज़रूरत पड़ेगी -ही-पड़ेगी.

 

कुछ लोग फ़िल्मों से यह वॉयड भर लेते हैं. साहित्य ही है वह भी.

लेकिन वह वन-वे ट्रैफिक है, फ़िल्मों से आपके पास आता है. आप से फ़िल्मों की ओर कुछ नहीं जा रहा है.

 

वह तो लिटरेचर में भी है, क्रियेटर्स के लिए तो अलग है लेकिन रिसीवर्स के लिए तो एक ही जैसे हैं.

साहित्य की ज़रूरत जीवन की व्याख्या के लिए चाहिए, वह फर्स्ट-हैंड-एक्स्पीरियंस से ही मिलेगा – प्लेजर तो एस्केप है.

 

ज़्‌यादातर लोग तो लिट्‌रेचर को भी एस्केप ही मानते हैं.

लिटरेचर एस्केप नहीं है.

 

कैसे? मतलब मैं आपसे सहमत होना चाहता हूँ.. लेकिन आप बताइए कैसे ?

जब आप लिटरेचर नहीं पढ़ते तो सिर्फ एक जीवन जीते हैं और उसको भी नहीं समझते हैं… आपके आंतरिक आँख, नाक, कान उसके प्रति बंद रहते हैं. जब आप लिटरेचर पढ़ते हैं तो हजार जीवन जीते हैं. इस तरह से उन चरित्रों के आलोक में.. उन्होंने जो भोगा, सहा उसके संदर्भ में सपने जीवन को जानने लगते हैं.

 

अँधेरे कोने प्रकाशित हो जाते हैं.

तो यह एस्केप कैसे हुआ? यह तो इंगेज करना हुआ… अपने जीवन को देखने के लिए, महसूस करने के लिए तमाम इंतजाम कर लिया, तमाम आंखों और अधिक.

 

सक्रिय इंद्रियों– अधिक सक्रिय इंद्रियों का इंतज़ाम कर लिया, ज़्यादा आँखें हो गईं.

और बल्कि आपको अन्यथा वे मिल ही नहीं सकतीं थीं-इतना enhanced, भिन्न देश, भिन्न समय की इंद्रियां…और अलग-अलग क्षमताओं से लैस इन्द्रियों को, जिनके बारे में. आपको पता भी नहीं था. तो इस्केप कहाँ से हो गया… यह तो बड़े सस्ते क़िस्म की बात हो गई कि इतने पैसे कमा सकते थे कि इतना उत्पादन कर सकते थे और वह समय पढ़ने में  नष्ट कर दिया.

 

 देखिए पैरामीटर हैं तो आपको जजमेंटल तो होना पड़ेगा. जीवन मतलब जजमेंटल होना… क्योंकि निर्णय लेने हैं.

जीवन नहीं है…यह जीवन नहीं है साला…क्या कहूँ आपसे… यह तो ऐसा है कि जीवन को सस्टेनेबल जीवन बना दिया गया. ऐसा जीवन जो सस्टेन कर सके.

 

 हम्म.. ऐसा जीवन, मतलब रोटी कमा सके.

रोटी ही काफी नहीं है.

 

हाँ, मतलब रोटी ही काफी नहीं इस दुनिया उस सस्टेनेबल का मतबल… रोटी तो संकेत की तरह है.

 रोटी ही काफी नहीं. उसके साथ और कुछ रोटी, कपड़ा, मकान, सम्मान, प्रतिष्ठा या जीवन के पुरुषार्थ, उद्‌देश्य हैं ये सब..

 

यही सिखाया है सभ्यता ने. लेकिन आप कह रहे हैं यह जीवन नहीं है तो फिर जीवन की आपकी धारणा क्या है?

जीवन अनिश्चित चीज़ है- एवर- एवॉल्विंग चीज़ है, एवर-डेवलपिंग चीज है- जो-जो अनुभव होते हैं उनको इन‌का‌र्पोरेट करते हुए किसी नई दिशा में जाने का नाम है.

 

यहाँ सब कुछ वेल-डिफाइंड और कंफाइण्ड है…

यहाँ तो आपका टीचर ही सत्तर साल पुराने नोट्स से पढ़ा रहा है एक वेल–डिफाइंड सिलेबस है जो तीस साल पुराना है और पाँच हजार साल पुरानी सभ्यता है जिसके मूल्यों का आपको पालन करना है. यहाँ सब कोडीफाइड है, उस कोड से विचलित होते हैं तो माना यह जाता है कि आप एण्टी-लाइफ हैं जबकि असली लाइफ वही है.

 

तो मतलब पूरे जीवन का विपर्यय हम लोग जी रहे हैं…

हम लोग जी नहीं रहे हैं, नौटंकी कर रहे हैं. अभिनय कर रहे हैं –‘से चीज़’  विक्टोरियन युग का कैमरामैन फोटो खींचने के पहले कहता था चीज़ कहो… और उससे चेहरा ऐसा बन जाता था कि मानो मुसकुरा रहे हैं …तो मान लिया जाएगा कि आप प्रसन्न हैं और फोटो अच्छी आएगी. ये नॉर्म रहा है- ‘से चीज़’…मुस्कराएँ चाहे नहीं….

 

सभ्यता उसका नोटिस नहीं लेती.

हाँ, जबकि मुस्कराना जीवन है, मुस्कराते हुए दिखना सभ्यता.

(लंबा पॉज) यह जीवन अगर बीच में खंडित भी हो जाए, टूट जाए, ख़त्म हो जाए, इसकी धज्जी उड़ जाए.. क्या फर्क पड़ेगा?

 

हमारा भी तो फर्मा उसी तरह है सेट है- कि यही लाइफ किसी दूसरी तरह से देखने की न तो गुंजाइश है, न विज़न है.

फर्मा न सेट होता तो अच्छा ही होता – जीवन के ज़्यादा मौके रहते… लेकिन करें क्या…हमारी भी जो लालसा, तृष्णा है. प्रशिक्षण का भी मामला है- एक ख़ास तरह से ट्रेन किया है.

 

 तो जीवन की परिभाषा जो आप दे रहे हैं- आपका साहित्य उसकी वकालत कब करेगा … अभी कर रहा है ?

पता नहीं कब करेगा. वह तो तब हो पाएगा जब लिखने पर आपका ग़ज़ब का नियंत्रण…नियंत्रण नहीं दक्षता हो, नियंत्रण तो बेकार का शब्द है. जीवन को ज़्यादा संपूर्णता में देख पाऊं और उसको नई दिशा दे पाऊं…मुझे लगता नहीं कि मैं इतना क़ाबिल हूँ.

 

पर अन्यत्र कहीं (इरफान जी के साथ वाले इंटरव्यू में शायद) आप कह रहे थे कि आप लकीर तोड़ते हैं….यहाँ पर उल्टी बात बोल रहे हैं…

बनी-बनाई लकीर पर न चलना एक बात है और उससे संतुष्ट होना दूसरी बात है. मैं उससे बुरी तरह से असंतुष्ट हूँ.

 

मतलब पर्याप्त नहीं है. आपके विज़न में है कि लाइफ कैसी होगी, कैसे डिफाइन होगी -अनप्रेडिक्टेबल होगी – वहाँ मुस्कान होगी, मुस्कान का अभिनय नहीं होगा…

इसीलिए तो इतनी छटपटाहट है…क्योंकि धुंधला–धुंधला दिखता है. वर्तमान भी दिखता है और दोनों के बीच का अंतराल चिढ़ाता है, परेशान करता है. वह न दिखता होता तो शायद हम दावा कर ले जाते कि हमने तीर मार लिया है

(अंतराल) देखिए हो पाएगा कि नहीं… जितनी ऊर्जा से काम करना चाहिए कहाँ करते हैं जब हर तरफ से लात खा रहे होते हैं तो बैठ के अपना कुछ लिखा जाता है… बल्कि अपने-आप सचेत तरीक़े से दुनिया को रिफ्यूज़ करके… दरवाज़ा बंद करके अगर लिखा जाता तो शायद कुछ बात बनती…अभी तो नहीं हो पा रहा है.

 

मतलब भविष्य में आप एक ऐसा पात्र रच सकते हैं जो जीवन को  पुनर्परिभाषित  करेगा… जो अनप्रेडिक्टेबिलिटी को जीवन बनते हुए देखेगा और दिखाएगा…

क्यों नहीं … बल्कि फ़िक्शन में बड़ा मज़ा आएगा ऐसा पात्र रचने में.. वह फ़िंक्शन फिर..

 

ऐक्चुअली मैं आपको प्रवे क ही कर रहा हूँ..

एंटरटेनिंग भी बहुत होगा..

 

बहुत इमैजिनेटिव होगा, ऑल्टरनेटिव जैसा देता हुआ दिखेगा सबको….

हाँ… वह विचार के स्तर पर भी एडवांस्ड चीज़ होगी..

 

 इंट्रीगिंग…

हाँ- विस्मित करने वाला..उसके लिए वही है कि शांति हो… या पता नहीं क्या हो — हम लोग कंडीशन की बात करते रहते हैं जबकि न हो तो भी हो जाता है.

 

और बहुत सारे बहाने भी तो होते हैं…

हाँ, कभी-कभी बहाने, भी होते है. अपने अंतर में जान रहे होते हैं कि यह हमारे बस में नहीं है लेकिन फिर भी कहते हैं कि जिस दिन नौ मन तेल होगा, उस दिन राधा का नृत्य होगा.

 

और हम अनजान क्षेत्र  में उद्यम भी नहीं करना चाहते … रचने का जितना सुख है, इतना ही वह पीड़ादायी भी होगा… मेरे ख़्याल से..

नहीं हम उद्यम तो करना चाहते हैं लेकिन वही है कि… चाहते हैं कि एक-दो उपन्यास हो जाए तो फिर उपन्यास के क्षेत्र में वेंचर किया जा सकता है…दो-तीन उपन्यास बरबाद किए जा सकते हैं…. लेकिन फिर जो अगला होगा वह काम का होगा….(अंतराल पर) मुश्किल होती हैं जीवन-स्थितियों, सर्वाइवल का भी तो सवाल है…इसी सब के बीच में वह प्रकट हो सकता है… इन्हीं ख़ूबियों ख़ामियों के बीच में… ऐसा नहीं है कि जब ख़ूबियां होंगी तभी प्रकट होगा…

 

 कई बार तो ख़ामियों के बीच से ही कल्पना जन्म लेता है उसके लिए तो फर्टीलिटी का अलग ही क्राइटेरिया है…

कल्पना के लिए क्या क्राइटेरिया… कोई क्राइटेरिया ही नहीं….. बहुत अच्छी और बुरी, दोनों स्थितियों में, आपकी कल्पना बहुत उछाल लेती है- जब डिस्ट्रेस्ड होते हैं -बहुत यातना में होते हैं तो फिर यह कल्पना ही आपको ज़िंदा रखती है. तत्काल सुख देने वाली स्थितियों की कल्पना आ जाती है. कुछ अच्छा होगा भविष्य में उसकी संभावना बनाती है, हर स्थिति में अपना काम करती है और यह आपका आंतरिक सार-तत्त्व है कि आप किस तरह कल्पना का उपयोग किसी कलाकृति के लिए करते हैं, वरना कल्पना तो प्रभूत मात्रा में…जिसे कहते हैं न कि भालू के शरीर में… बाल की कहाँ कमी है…

(दोनों लोग ठहाके मारकर हंसने लगते हैं , हँसी बंद नहीं होती, इंटरव्यू समाप्त मान लिया जाता है.)

यह बातचीत आमने सामने बैठकर हुई है. कोशिश की गई है कि  संवाद का यह  शिल्प  अधिकतम सुरक्षित रहे – समालोचन

अनिल यादव
वह भी कोई देश है महराज, कीड़ाजड़ी (यात्रा संस्मरण), नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं, अप्रेम (कथा संग्रह), गौसेवक (नॉवेला), सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है (लेख-संग्रह). अनेक सम्मान और पुरस्कार.

अनिल यादव की कृतियों का नेपाली, पंजाबी, मराठी, ओड़िया, इतालवी, अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है.

महेश मिश्र सांस्कृतिक मामलों के जानकार और टिप्पणीकार हैं. भारतीय और वैश्विक मामलों पर दृष्टि रखते हैं. साहित्य में उनकी गहरी रुचि है और उनका लेखन लगातार सामने आ रहा है.
दिल्ली में रहते हैं.

Tags: अनिल यादवमहेश मिश्र
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मिर्र : पवन करण

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Comments 3

  1. लखनलाल पाल says:
    49 minutes ago

    साहित्यकार अनिल यादव जी का ये बहुत लंबा साक्षात्कार है। इस साक्षात्कार में उन्होंने अपनी कहानी पर हर कोण पर बात की है। इसके साथ ही यथार्थ पर उनका दृष्टिकोण बिलकुल अलग तरह का है। यह दृष्टिकोण सोशल मीडिया, अखबार, उसके मालिक, सत्ता के मध्य से निकालकर कहानी में तो लाते ही है, साक्षात्कार में भी वे उसे एड कर ले जाते हैं।
    महेश मिश्र भी पूरी तैयारी के साथ सामने आकर कुरेदते प्रश्न करते हैं। नगरबधुऐं अखबार नहीं पढ़ती है, कहानी के पात्रों के जीवन पर शोध पूर्ण कथा है। कहानी के माध्यम से इनकी वास्तविकता को पाठकों के सामने लाते हैं। बनारस की आज की स्थिति पर भी बात करते हैं, जहां नगर के लोग विकास में शामिल हो रहे हैं।, पर्यटकों के ठहरने के लिए घर को ही ठहरने की उत्तम व्यवस्था वाले विश्राम घर में तब्दील कर चुके हैं।
    यद्यपि यह साक्षात्कार लंबा है, पर जैसे ही पाठक इसके साथ जुड़ने लगता है, वैसे-वैसे वह उसमें बहने लगता है। इस साक्षात्कार से यह भी साबित हो चुका है कि यह स्तरीय पत्रिका है। जो यथार्थ को सामने लाने के लिए दृढ़संकल्पित है।

    Reply
  2. Aditya Shukla says:
    29 minutes ago

    अनिल यादव एक शानदार किस्सागो हैं, सिर्फ़ इस अर्थ में नहीं कि उनकी कहानियाँ शानदार हैं बल्कि इस अर्थ में भी कि साहित्य, जीवन, संसार और मनुष्य के संबंधों के बारे में उनके पास एक ऑर्गेनिक दृष्टि है। वे किसी भी चीज का गौरवगान नहीं करते और एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि के साथ चीजों को देखने-दिखाने का यत्न करते हैं। इसलिए उनको सुनना और पढ़ना हमेशा समृद्ध करता है। महेश जी ने उनकी रचना प्रक्रिया को खोलने के लिए बहुत श्रम और धैर्य के साथ यह साक्षात्कार लिया है। साथ ही कुछ जरूरी सवाल किए हैं। पाठकों को लेखक की रचना प्रक्रिया से भी वाकिफ होना चाहिए और ऐसी बातचीत पाठकों के लिए बहुत कारगर साबित हो सकती है। एक पाठक के रूप में मेरी अपेक्षा थी कि कुछ प्रश्न संसार और समाज और उसकी समस्याओं के इर्द गिर्द भी होते तो अच्छा होता। लेकिन ऐसी चाहतें तो अंतहीन बातचीत में भी पूरी नहीं हो सकतीं। इंटरव्यू में इस्तेमाल तस्वीरें, जो संभवतः AI जनित हैं, देखने में थोड़ी अजीब लगती हैं, मेरी राय में अगर उनकी जगह वास्तविक चित्र इस्तेमाल किए जाते तो बेहतर होता।

    Reply
  3. संतोष अर्श says:
    38 seconds ago

    बहुत लम्बी, किन्तु विश्वसनीय बातचीत है। महेश मिश्र ने अपने प्रश्नों से अनिल यादव की रचनात्मक क्षमता को खोला है। अनिल यादव की रचनाओं पर बात करने के लिए महेश जी ने कुछ मार्ग समतल कर दिया है। आज के समय में ‘यथार्थ’ को लेकर, मेरा मानना है कि दृष्टिकोण पूर्व निर्धारित नहीं होना चाहिए और बातचीत में इस तथ्य की सुगबुगाहट तो है।

    Reply

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