• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » कोरोना के इर्द-गिर्द कुछ गद्य: मदन सोनी

कोरोना के इर्द-गिर्द कुछ गद्य: मदन सोनी

कोरोना या कोई भी महामारी केवल चिकित्सकीय समस्या नहीं रहती कभी भी, एक तरह से अब तक के ‘विकास और उसके ‘सह उत्पाद’ पर वह गम्भीर प्रश्न खड़ा करती है. कोरोना से लड़ने के लिए ‘क्वारनटीन’ और ‘सोशल डिसटेंसिंग’ के भी सामाजिक राजनीतिक मंतव्य हैं, और इसके पीछे अर्थ और वर्चस्व की अपनी वैश्विक रणनीति तो होती ही है. विचारक, आलोचक, अनुवादक मदन सोनी ने कोरोना संकट को बड़े फलक पर रखते हुए उसके सभी संभव निहितार्थों पर तीक्ष्ण और गम्भीर विचार किया है. मदन सोनी द्वारा युवाल नोआ हरारी की किताबों के अनुवाद सेपियन्स, होमो डेयस और २१ वीं सदी के लिए २१ सबक़ ने धूम मचा रखी है. यह आलेख ख़ास तौर पर समालोचन पर आपके लिए.

by arun dev
April 13, 2020
in आलेख
A A
कोरोना के इर्द-गिर्द कुछ गद्य: मदन सोनी
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

कोरोना के इर्द-गिर्द कुछ गद्य                             

मदन सोनी

कोरोना महामारी एक सदी बाद अब तक की सबसे सांघातक, सबसे भयावह वैश्विक महामारी है. इसके पहले अन्तिम वैश्विक महामारी सम्‍भवत: .’स्पेनिश फ़्लू’ की थी जिसने दुनिया भर में 50 करोड़ लोगों (तत्कालीन दुनिया की एक-चौथाई आबादी) को प्रभावित किया था और 1.5 करोड़ से 5 करोड़ के बीच की, या उससे भी बड़ी संख्या में लोगों की जान ले ली थी. लेकिन दुनिया की तब तक की सबसे बड़ी महामारी होने के बावजूद, प्रथमत:, इसके समय का दायरा 3 वर्षों (जनवरी 1918 से दिसम्बर 1920 तक) में फैला था, दूसरे, यह वह समय था जब चिकित्सा-विज्ञान तथा अन्य प्रतिरोधक वैज्ञानिक, राजनैतिक, सामाजिक संसाधन आज के मुक़ाबले अत्यन्त अल्पविकसित और कम थे. इस अर्थ में मौजूदा संकट इसलिए और भी भयावह है कि यह विज्ञान में हुई असाधारण प्रगति को और इस प्रगति से सर्वाधिक लाभान्वित राष्ट्रों तक को गम्‍भीर चुनौती दे रहा है. अगर आज दुनिया की वैज्ञानिक और आर्थिक रूप से अत्यन्त विकसित सरकारें इस संकट के सामने हतप्रभ हैं, तो इसलिए कि इस विज्ञान ने उन्हें घोषित-अघोषित रूप से आश्‍वस्‍त कर रखा था कि महामारी का युग हमेशा के लिए बीत चुका है, और सम्भवतः इसीलिए उनके अत्यन्त कुशल और चौकस आपदा-प्रबन्धन में इस तरह के संकट के लिए कोई तैयारी नहीं थी.

दरअसल यह आश्वासन सिर्फ़ महामारी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके दायरे में हमारा प्रकृति-मात्र पर अन्तिम रूप से विजय प्राप्त कर चुके होने का आत्मविश्वास भी झलकता प्रतीत होता है. यह अकारण नहीं कि दुनिया की अधिकांश वैज्ञानिक तैयारियाँ सम्भावित रूप से इन्सानों द्वारा पैदा किए जाने वाले संकटों या इन्सानी निर्भरता से निपटने पर, इन्सान को नियन्त्रित करने पर केन्द्रित हैं. दुनिया भर में हथियारों के जखीरे और आर्टिफ़िशियल इण्टेलिजेन्स तथा आटोमेशन के उत्पादों पर सबसे ज़्यादा होने वाले ख़र्च इसके प्रमाण हैं.

तैयारियाँ प्राकृतिक आपदाओं से निपटने को लेकर भी जारी हैं, लेकिन ये तैयारियाँ ज़्यादातर इन आपदाओं की प्रकृति को प्रत्याशित या अनुमेय मानकर ही हैं, अप्रत्याशित, अननुमेय मानकर नहीं. मानो मनुष्य का ज्ञान प्रकृति के अतीत का ही नहीं, उसके भविष्य का, उसकी सम्भाव्यताओं का भी दोहन कर चुका हो. लेकिन अगर वाक़ई हमारा ऐसा विश्वास है, तो वर्तमान संकट उसका बहुत बड़ा प्रतिवाद है. प्रकृति अननुमेय और अप्रत्याशित से भरी हुई है.

कोरोना के रूप में आया संकट जिन अन्‍यान्‍य अर्थों में अभूतपूर्व है उनमें एक सबसे महत्‍वपूर्ण यह है कि इसके साथ मनुष्य का सामना, पिछले लगभग सौ वर्ष बाद, किसी मानवीय या अतिमानवीय नहीं, बल्कि एक अ-मानवीय, या अ–जैविक अन्य (‘अदर’) से हो रहा है (दूसरा विश्वयुद्ध, या हमारे अपने देश का विभाजन, जो इससे भी भीषण और जान के साथ-साथ माल की भी तबाही के कारण बने थे, उनमें एक-दूसरे के सामने अन्य के रूप में मनुष्य ही थे).

लेकिन, भले ही इस समय सारे उपायों के बावजूद संक्रमण की विश्‍वव्‍यापी शृंखला टूटती दिखायी नहीं दे रही है, विज्ञान की कामयाबी के अतीत को देखते हुए हमें यह उम्‍मीद करनी चाहिए कि वह अन्‍तत: (हालाँकि न जाने कितनी बड़ी क्षति के बाद) इस संकट पर विजय प्राप्‍त कर लेगा. जैसाकि विश्‍वविख्‍यात इज़रायली चिन्‍तक युवाल नोआ हरारी ने संकेत किया है, विज्ञान का सारा विकास ‘अज्ञान के स्‍वीकार’ पर निर्भर रहा है, इसलिए इस बार भी उसकी सफलता निश्‍चय ही ऐसे ही स्‍वीकार का सुफल होगी. लेकिन इस बार शायद इस स्‍वीकार को अधिक मूलगामी (रेडिकल) होना होगा : उसमें अननुमेयता और अप्रत्‍याशितता के अक्षय अज्ञान के स्‍वीकार को शामिल करना अनिवार्य होगा. दूसरे शब्‍दों में, सिर्फ़ इतना स्‍वीकार करना भर पर्याप्‍त नहीं होगा कि ‘हम नहीं जानते थे’, बल्कि यह भी स्‍वीकार करना होगा कि हमारे सर्वश्रेष्‍ठ ज्ञान के दायरे में ऐसा बहुत कुछ है जिसका अनुमान या प्रत्‍याशा सम्‍भव नहीं है.

(M.C.-Escher-Relativity)

 

हमारे ज्ञान के दरवाज़े पर कभी भी किसी ऐसे अ-निवार्य आगन्‍तुक की दस्‍तक हो सकती है जिसकी उम्‍मीद या कल्‍पना उसने नहीं की थी. यह स्‍वीकार शायद हमारी ज्ञानात्‍मक काया के सन्‍दर्भ में, एक तरह से, ऐसे टीके की भूमिका निभा सकता है जो इस काया को अननुमेय और अप्रत्‍याशित के प्रति अनुकूलित कर सके. जिस प्रकृति पर विजय से हम अपना बुद्धिमान मानव (होमो सेपियन्‍स) होना परिभाषित करते आये हैं उस प्रकृति (की अननुमेयता से) से हमें अपनी बुद्धि का टीकाकरण भी करना होगा.

हम अभी तक इस वायरस के उद्गम की वास्‍तविक वजह नहीं जानते. अफ़वाहों में व्‍याप्‍त ‘कॉन्‍सपिरेसी थ्‍योरियों’ को छोड़ दें, और अगर यह मान भी लें कि कोरोना किसी इन्सानी कीमियागिरी का वांछित-अवांछित नतीजा नहीं है, तब भी प्रकृति को जीतने और जोतने की, उसको और उसके साथ अविनाभाव जुड़े जीव और वनस्‍पति–जगत को विस्‍थापित कर, उसको (जिसमें होमो प्रजाति के अन्‍य मानव भी शामिल रहे हैं) विलुप्ति के अथाह, अँधेरे गर्त में धकेलकर, अपने साम्राज्‍य का विस्‍तार करने की जो परियोजनाएँ हम चला(ते) रहे हैं– वह स्‍वयं भी एक तरह की कीमियागिरी ही है, भले ही भाषा पर अपने एकाधिकार का इस्‍तेमाल करते हुए हमने उसे ‘विकास’ जैसे विभिन्‍न गरिमामय नाम क्‍यों न दे रखे हों. ऐसे में इस सम्‍भावना को निरी सनक मानकर ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि मुमकिन है यह वायरस हमारी इस कीमियागिरी या ‘विकास’ का ही एक सह–उत्‍पाद (बाइप्राडक्‍ट) हो. एक वैज्ञानिक शोध के आकलन के मुताबिक़ इस वायरस के उत्‍परिवर्तन (म्‍यूटेशन्‍स) प्राकृतिक चयन (नेचुरल सिलेक्‍शन) का परिणाम हैं. लेकिन प्राकृतिक चयन स्‍वयं जिस विकास-प्रक्रिया का अंग होते हैं वह प्राकृतिक सम्‍बन्‍धों में आये या लाये गये बदलावों से निरपेक्ष नहीं होती.

जिस अननुमेयता और अप्रत्‍याशितता की हम बात कर रहे हैं उसने इसलिए दुनिया को अभूतपूर्व रूप से सकते में ला दिया है, क्‍योंकि जैसाकि हमने ऊपर संकेत किया, हम पिछले सौ साल के अनुभव के आधार पर इस आश्‍वस्ति के साथ जीना शुरू कर चुके थे कि महामारी का युग बीत चुका है. भावी संकटों से बेख़बर न होते हुए भी हम उनकी अननुमेयता और अप्रत्‍याशितता से निश्चिन्‍त हो चुके थे. मनुष्‍य का सामूहिक विनाश तो दूर–दूर तक हमारी चिन्‍ता का विषय नहीं ही रह गया था, उलटे हम उसकी आयु को दुगुना-तिगुना करने, या मुमकिन हो सके तो उसे अमर बना देने की विलासिता की दिशा में सोच रहे थे.

मनुष्‍य की गति, क्षमता, अभिगम्‍यता आदि को चरम सीमा तक ले जाना हमारी प्राथमिकता बन चुके थे. हम विश्‍वग्राम बन चुके थे और अब पृथ्‍वी से इतर ग्रहों पर अपने उपनिवेश स्‍थापित करने की दिशा में सोच रहे थे. हम हिन्‍दू राष्ट्र और राम मन्दिर बनाने, दुनिया को इस्‍लामिक स्‍टेट में बदलने, छोटे–छोटे नगरों तक में मैट्रो का जाल बिछाने, ध्‍वनि की रफ़्तार से भागने वाली ट्रेनें और स्‍मार्ट सिटीज़ बनाने के कामों में व्‍यस्‍त थे…. इन सबके बीच कोरोना जैसी किसी चीज़ की कल्‍पना भी हास्‍य का, या, अपने सर्वोत्‍तम कलात्‍मक क्षणों में, ज्‍़यादा–से-ज्‍़यादा घण्‍टे-दो-घण्‍टे के मनोरंजन का विषय ही हो सकती थी.

लेकिन अब यह एक यथार्थ है : एक ऐसा यथार्थ जो मनुष्‍यता की कोशिकाओं में अपने अपने आँकड़ों को धँसाकर, उनको भेदकर, उसमें अपनी बस्तियाँ बसा लेने का ख़तरा पैदा कर रहा है; एक ऐसा यथार्थ जिसकी संक्रामकता और सांघातकता के दायरे में सिर्फ़ इन्‍सान का शरीर और उसका वर्तमान ही नहीं है, बल्कि उससे ज्‍़यादा उसका मानस और भविष्‍य भी है. विज्ञान हमें हमारी जैविक (बायलॉजिकल) उत्‍तरजीविता और आरोग्‍य को लेकर आश्‍वस्‍त कर सकता है, उसे इस वायरस से अनुकूलित कर सकता है (आमीन!), लेकिन हमारा मानस लम्‍बे समय तक इससे वध्‍य बना रहेगा.

यह विडम्‍बना भी ध्‍यान देने योग्‍य है कि जिस ‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ नामक पद की इस समय सारी दुनिया में सबसे ज्‍़यादा गूँज सुनायी पड़ रही है, जिसको एकमात्र श्रेष्‍ठ क्रिया (हालाँकि वह, वस्‍तुत:, क्रिया नहीं, अ–क्रिया है) मानकर, उसका प्रबलतम आग्रह करने को हम विवश हैं, वह आग्रह एक ऐसे समय में किया जा रहा है जब सारी दुनिया के एक विश्‍व–ग्राम (ग्‍लोबल विलेज) में बदल जाने का, दूरियों के सिमट जाने का, ‘सोशल कनेक्टिविटी’ का जश्‍न मनाया जा रहा था. इस अर्थ में कोरोना को, शायद एक उत्‍तर-उत्‍तरआधुनिक संघटना कहा जा सकता है. वह समय की एक ऐसी नयी अवधारणा बन जाने की सम्‍भावना समाहित किये प्रतीत होता है जिसका उपयोग शायद भविष्‍य में समय को परिभाषित करने वाले एक उपसर्ग के रूप में करना पड़े.

‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ नामक यह अवधारणा जिस भयावहता के गर्भ से जन्‍मी है, वह इस अवधारणा को, इसके विविध राजनैतिक-सामाजिक संस्‍करणों के साथ, अगर हमारे उत्‍तर-कोरोना मनोविज्ञान का स्‍थायी भाव बना दे, तो इसमें आश्‍चर्य की बात नहीं होनी चाहिए. और अगर इस मनोविज्ञान का दुरुपयोग जातीय, नस्‍लीय, राष्‍ट्रीय शुद्धताओं के अहंकारपूर्ण दावों और इन शुद्धताओं की रक्षा के नाम पर दुनिया के कुछ हिस्‍सों में की रही किलेबन्दियों की कोशिशों (यथा अमेरिका की आव्रजन नीति, या ब्रेक्जि़ट, या CAA, NRC, NRP आदि) को वैध ठहराने के लिए किया जाए, तो यह भी आश्‍चर्य की बात नहीं होनी चाहिए. कोरोना भले ही, जैसाकि हमने शुरू में कहा है, एक अ-मानवीय, या अ–जैविक अन्‍य है, लेकिन यह स्‍वयं को व्‍यक्‍त उस मनुष्‍य के रूप में ही करता है जो इससे आविष्‍ट या सन्‍दूषित होता है. दूसरे शब्‍दों में यह मनुष्‍यों को एक-दूसरे के सन्‍दर्भ में ‘दूषित अन्‍यों’ में रूपान्‍तरित करता है. इस अर्थ में यह महामारी दूषित या सन्दिग्‍ध-रूप-से–दूषित अन्‍य का सामूहिक उत्‍पादन (मास प्रॉडक्‍शन) कर रही प्रतीत होती है. इस अन्‍यता में निहित सांघातकता की सम्‍भावना अन्‍य–जन-भीति (ज़ेनोफ़ोबिया – जो किसी संक्रामक वायरस से कम नहीं है) को हमारे सामान्‍य मनोविज्ञान का हिस्‍सा बना दे सकती है. और एक ऐसे समय में जब यह अन्‍य—भीति अनेक शक्तिशाली सत्‍ताओं की अन्‍तर्देशीय और अन्‍तरराष्‍ट्रीय राजनीति की प्रेरक बनी हुई है, इस कोरोना–उत्‍पादित विराट अन्‍य को, अन्‍य-भीति के उसके वध्‍य सामान्‍य मनोविज्ञान के साथ, बहुत आसानी से, अन्‍य-व्‍यक्ति से अन्‍य-समुदाय, अन्‍य-सम्‍प्रदाय, अन्‍य-नस्‍ल में रूपान्‍तरित कर लिया जा सकता है, और ‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ के ‘उपाय’ को सामुदायिक, साम्‍प्रदायिक, नस्‍लीय, राष्‍ट्रीय ‘डिस्‍टेन्सिंग’ की शक्‍ल दी जा सकती है.

 

अपनी इस नयी शक्‍ल में इस ‘डिस्‍टेन्सिंग’ का अर्थ, ज़ाहिर है, एक-दो मीटर की दूरी बनाये रखने तक सीमित नहीं होगा, बल्कि ‘दूषितों’ को थोक के भाव में जिबह कर देना होगा. (‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ की अवधारणा अत्‍यन्‍त प्राचीन और महामारियों से ही जुड़ी हुई है, जैसाकि मिशेल फूको ने विलक्षण अनुसन्‍धानपूर्वक दर्शाया है, जिसके तहत, मसलन कोढियों को बड़ी संख्‍या में जहाज़ में लादकर समुद्र में फेंक दिया जाता था, और जब किसी समुदाय का उन्‍मूलन करना होता था, तो उसे किसी महामारी का वाहक बताकर ही वैसा किया जाता था. फूको यह भी संकेत करते हैं कि जिसे हम ‘क्‍लीनिक’ कहते हैं, वह भी महामारी के गर्भ से जन्‍मी ‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ का संस्‍थानीकृत रूप है. हिटलर भी यहूदियों को संक्रामक रोगाणुओं के स्‍थायी वाहकों के रूप में देखता था.) यह निरी सम्‍भावना नहीं है, हमारे देश में (जहाँ जाति–व्यवस्‍था और साम्‍प्रदायिकता ने हमें ‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ की ‘सार्थकता’  का पहले ही अभ्‍यस्‍त बना रखा है) यह सिलसिला शुरू हो चुका है : एक सम्‍प्रदाय-विशेष की जमात की नितान्‍त मूर्खतापूर्ण, अन्‍धविश्‍वास से भरी लापरवाही ने कोरोना के दूषण के प्रसार में ख़तरनाक स्‍तर का योगदान कर उन लोगों को इस समूचे सम्‍प्रदाय के खिलाफ़ खुलकर आरोप के घेरे में लेने का ‘औचित्‍य’ उपलब्‍ध करा दिया है जो उसके खिलाफ़ पहले से घात लगाये बैठे थे.

इस महामारी के इर्दगिर्द जो वक्‍तृता (रेह्टॉरिक) और छवियाँ विकसित हो रही हैं वे भी ध्‍यान देने योग्‍य हैं. कोरोना (जो प्रकृति के अनन्‍त अ-जैविक अणुओं में से एक उदासीन, निर्दोष अणु-मात्र है) पर ‘शत्रु’ और ‘दानव’ जैसी संज्ञाओं और विशेषणों का आरोपण कर, और इस तरह, विवक्षित अर्थ में, मनुष्‍य को ‘मित्र’ और ‘देवता’ की तरह मण्‍डित कर, स्‍वाभाविक ही उसके खिलाफ़ ‘जंग’ या ‘युद्ध’ छेड़ने और इस युद्ध में ‘विजय’ प्राप्‍त करने का आह्वान किया जा रहा है (और, मानो, इस ‘युद्ध’ को उद्दीपक पृष्‍ठभूमि प्रदान करने, सरकारी टेलिविज़न दानवों पर देवों की विजय के लिए युद्ध की अपरिहार्यता और औचित्‍य साबित करने वाले पुराने धारावाहिकों को प्रसारित कर रहा है). इसी तरह, यद्यपि कहा भले ही यह जा रहा हो कि तालियाँ, थालियाँ और घण्टियाँ बजाकर (जिनके साथ जहाँ-तहाँ शंखनाद भी किया गया), और अँधेरा फैलाकर दिये/मोमबत्तियाँ जलाकर हम दूसरों का और अपना मनोबल बढ़ा रहे हैं, लेकिन कोई भी थोड़ा–सा पारम्‍परिक दिमाग़ इन छवियों में निहित ‘अशुभ शक्तियों’ के खिलाफ़ की जाने वाली ओझागिरी के साथ आसानी से और उत्‍साहपूर्वक तादात्‍म्‍य स्‍थापित कर सकता है.

कुल मिलाकर, ‘पोस्‍ट-ट्रुथ’ राजनीति के हथकण्‍डों के रूप में इस्‍तेमाल की जा रही यह पूरी शब्‍दावली और दृश्‍यावली जो मनोवैज्ञानिक बीज बो रही है उसका सुनिश्चित फल एक ही है : आने वाले समय में इसे कोराना की भूमि पर उगी नयी अन्‍यता और विविध किस्‍म की ‘ज़ेनोफोबिक डिस्‍टेन्सिंग’ की फसल के रूप में काटना.

इस शब्‍दावली-दृश्‍यावली को प्रजनित, प्रसारित करने और हमारी भाषा में उसकी बस्तियाँ बसाने में इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया सबसे अधिक सक्रिय है. पता नहीं क्‍यों, सरकार आवश्‍यक वस्‍तुओं की आपूर्ति बनाये रखने के सिलसिले में दवाइयों, किराना, सब्जियों आदि की जिन दूकानों के खुले रहने का आश्‍वासन देती है उनमें मीडिया का नाम शामिल क्‍यों नहीं किया जाता. जबकि अहिर्निश खुली रहने वाली सबसे बड़ी दूकानें यही हैं (जो सम्‍भवत: उस एकमात्र उद्योग का अंग हैं जो कोरोना-महामारी के नतीजे में सम्‍भावित विराट आर्थिक मन्‍दी से न केवल शायद अप्रभावित बना रहेगा बल्कि कुछ ज्‍़यादा ही मुनाफ़ा कमाएगा). ये दूकानें सिर्फ़ पुष्‍ट, प्रामाणिक सूचना नहीं बेचतीं (जिसे इन दूकानों को दिन में सिर्फ़ दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर खोलकर बेचा जा सकता है), बल्कि वे ज्‍़यादातर अनावश्‍यक और दहशत तथा अवसाद उपजाने वाली जानकारी को उच्‍च तकनीकी दृश्‍य–संयोजनों (मोन्‍ताज) और ध्‍वनि–प्रभावों से सज्जित कर, उसे मनोरंजक बनाकर, निरन्‍तर हमारे दिमाग़ों में ठूँसती रहती हैं, और इनकी ओट में ज्‍़यादातर मध्‍वर्गीय कमॉडिटी का अलंकृत प्रचार करती रहती है. यह भी एक महामारी है– सूचना और कमॉडिटी की महामारी, जो भले ही, जैविक अर्थ में, लोगों की जान नहीं लेती, लेकिन जिसका वायरस हमारी मानसिक कोशिकाओं का निरन्‍तर क्षरण करता हुआ उसकी प्रतिरोधक क्षमता को ख़त्‍म करता रहता है.

इस महामारी ने उन मानसिक स्‍पेसों को लगभग नष्‍ट कर दिया है जहाँ ठहरकर विचार, विमर्श और प्रतिरोध के रूपाकार गढ़े जा सकें, जहाँ दिमाग़ी मौतों या सदमों के आँकड़ों को दर्ज़ किया जा सके, उनका विश्‍लेषण किया जा सके. इसी के साथ–साथ, सत्‍ता और पूँजी के आपसी लेनदेन पर खड़ा यह मीडिया-उद्योग एक और काम करता है (और इस संकट की आड़ में सबसे ज्‍़यादा कर रहा है) : सत्‍ता और उसके शीर्ष पर बैठे लोगों का छवि–निर्माण और उन दिमाग़ों में उनका अंकन जिनकी प्रतिरोधक क्षमता को वह पहले ही हर चुका होता है. लगभग 99 प्रतिशत मीडिया में शासकों, पूँजीपतियों और विशेषज्ञों को सवालों के कटघरे में खड़ा करने, उनके फ़ैसलों को चुनौती देने, उत्‍तरदायित्‍व से उनके पलायन को रेखांकित करने आदि की इच्‍छा तो दूर-दूर तक नहीं ही है, क़ाबिलियत भी शायद नहीं है.

बहरहाल, हम अपने जीवन में पहली बार एक अनिश्चितकालीन प्रतीत होते (और दुर्भाग्‍यवश अनिवार्य) ‘लॉक डाउन’ में, अपने घरों, और शहरों आदि में बन्‍द हैं (यह विडम्‍बना ही है कि मौजूदा हुकूमत ‘बन्दियों’ की हुकूमत साबित हुई है : नोटबन्‍दी, सीमाबन्‍दी, तालाबन्‍दी). जो लोग कर्मशीलता की सार्वजनिक स्‍पेसों में या दफ़्तरों, सिनेमाघरों, बाज़ारों, होटलों, मालों आदि में अपनी दिनचर्या के अभ्‍यस्‍त हैं, मुमकिन है उनके लिए यह एकान्‍त दमघोंटू (क्‍लास्‍ट्रोफ़ोबिक) लगता हो. लेकिन जो लाखों बेघर, बेरोज़गार मज़दूर अपने घरों से सैकड़ों हज़ारों मील दूर शरणार्थी–शिविरों या अस्‍थायी चिकित्‍सालयों में अलग-थलग रह रहे हैं, अगर और कुछ नहीं तो, उनके बारे में सहानुभूतिपूर्वक सोचकर ही हम अपने दमघोंटूपन से कुछ राहत पा सकते हैं, और इस, आरोपित ही सही, एकान्‍त का उपयोग, अधिक एकाग्र ढंग से, अपने ही बनाये उस पूरे तन्‍त्र की प्रतिरक्षा-प्रणाली पर पुनर्विचार के लिए कर सकते हैं जो एक अननुमेय, अप्रत्‍याशित के समक्ष निहायत ही लाचार होकर रह जा सकता है.
इस समय सब कुछ स्‍थगित है : सिर्फ़ बाज़ार और परिवहन आदि ही नहीं, बल्कि, करोड़ों लोगों की उत्‍तरजीविता से जुड़े अन्‍तहीन ज़रूरी सवाल और गतिविधियाँ; स्‍थगित हैं उन असंख्‍य घटनाओं-दुर्घटनाओं की ख़बरें जो इस महामारी के साथ–साथ और इसके बावजूद हमेशा की तरह लगातार घटित हो रही होंगी; और स्‍थगित हैं राजनैतिक विमर्श और प्रतिरोध… एक गहरे अर्थ में, इस समय लोकतन्‍त्र स्‍थगित है. हमारे लिए उपलब्‍ध एकान्‍त की ही तरह यह स्‍थगन-काल सत्‍ता के लिए भी एक एकान्‍त की तरह उपलब्‍ध है. लेकिन सत्‍ता एकान्‍त में ‘क्‍लास्‍ट्रोफ़ोबिया’ महसूस नहीं करती; उल्‍टे, जब वह आत्‍मकेन्द्रित, स्‍वैराचारी ढंग से सोचना और निर्णय लेना चाहती है, तो एकान्‍त की माँग करती है : ‘तख़्लिया!’. इस स्‍थगन–काल के एकान्‍त में सत्‍ता उत्‍तर-कोरोना परिदृश्‍य में किस तरह के फ़ैसले लेने के बारे में सोच रही हो सकती है– हम अपने एकान्‍त का एक उपयोग उन निर्णयों के पूर्वानुमान और तत्‍सम्‍बन्‍धी कार्रवाइयों की तैयारी के लिए भी कर सकते हैं. 

मदन सोनी

जन्म १९५२, सागर (मध्यप्रदेश)

मदन सोनी हिंदी के लेखक हैं जो मुख्यतः साहित्यालोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं. आलोचना पर केंद्रित उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा उन्होंने विश्व के कई शीर्ष लेखकों और चिंतकों की रचनाओं के अनुवाद किए हैं जिनमें शेक्सपियर, लोर्का, नीत्शे, एडवर्ड बॉन्ड,  मार्गरेट ड्यूरास  ज़ाक देरीदा, एडवर्ड सईद आदि शामिल हैं. उनके द्वारा अनुवादित उम्बर्तो एको का विश्व विख्यात उपन्यास .’द नेम ऑफ द रोज.’ खासा चर्चित हुआ है उनके अन्य अनुवादों में हरमन हेस्स का उपन्यास सिद्धार्थ विश्व के प्रसिद्ध लेखकों की कहानियों का संचय .’चुगलखोर दिल और अन्य कहानियां.’. डैन ब्राउन का उपन्यास .’द विंची कोड . एस हुसैन जैदी की पुस्तकें .’डोगरी टू दुबई.’ तथा .’बायकला टू बैंकॉक.’ आदि शामिल हैं.

इधर विश्व विख्यात लेखक युवाल नोआ हरारी की तीन किताबों- सेपियन्स, होमो डेयस और २१ वीं सदी के लिए २१ सबक़ का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है जो बहुत प्रसिद्ध हुईं हैं.

भोपाल स्थित राष्ट्रीय कला केंद्र भारत भवन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त सोनी को अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें मानव संसाधन विकास मंत्रालय, संस्कृति विभाग की वरिष्ठ अध्ययन वृत्ति, रज़ा  फाउंडेशन पुरस्कार शामिल हैं. वे नान्त (फ़्रांस) के  उच्च अध्ययन संस्थान के फैलो भी रहे हैं.

madansoni12@gmail.com

Tags: कोरोनामदन सोनी
ShareTweetSend
Previous Post

क्वारनटीन: राजिंदर सिंह बेदी

Next Post

युवा कविता : दो : ओम निश्चल

Related Posts

2024: इस साल किताबें
आलेख

2024: इस साल किताबें

देह का अपने ‘भीतर’ से संवाद:  मदन सोनी
आलेख

देह का अपने ‘भीतर’ से संवाद: मदन सोनी

उदयन वाजपेयी की कविताएँ: मदन सोनी
आलेख

उदयन वाजपेयी की कविताएँ: मदन सोनी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक