देह का अपने ‘भीतर’ से संवादमदन सोनी |
रुस्तम की कविता निरपेक्ष (‘ऐब्सोलूट’) और मूलगामी (‘रेडिकल’) असन्तोष की कविता है. असन्तोष की जगह, या उसके साथ-साथ हम उसे, एक अपेक्षाकृत प्रचलित पद का सहारा लेते हुए, प्रतिरोध की कविता भी कह सकते हैं, निरपेक्ष और मूलगामी प्रतिरोध की कविता. इसका क्या अर्थ है?
हम जानते हैं कि हिन्दी में असन्तोष और प्रतिरोध की कविता की एक सुदीर्घ, और अनवरत परम्परा है जो उत्तरोत्तर मुख्यधारा के स्तर पर प्रतिष्ठित होती गयी है. अगर सरसरी तौर पर बात करें तो, ऐसी तमाम कविताएँ वर्गभेद, वर्णभेद या लिंगभेद आदि पर आधारित अन्याय का प्रतिरोध करती हुई, अक्सर, प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर, किन्हीं समता और स्वतन्त्रतामूलक व्यवस्थाओं के स्वप्न या युटोपिया से परिचालित होती हैं.
स्वाभाविक ही, इस स्वप्न के पीछे कहीं-न-कहीं यह विश्वास सक्रिय होता है कि अगर, एक ओर, मनुष्य का कोई अशुभ (‘ईविल’) पक्ष है जो उसे उपर्युक्त भेदों से परिचालित करता हुआ, अन्यायी, क्रूर और अत्याचारी बनाता है, और जिसे हिंसा या विधि या दण्ड जैसी युक्तियों के सहारे क़ाबू में किया जा सकता है, तो दूसरी ओर, उसका एक ऐसा शुभ पक्ष भी है जिसे जिस-किसी भी तरह ‘प्रॉसेस’ कर एक न्यायपूर्ण व्यवस्था में संहत किया जा सकता है.
इस तरह, ये कविताएँ, एक तरह के मनुष्यों, या मनुष्य के एक तरह के कृत्यों, का प्रतिरोध करती हुई, उस मनुष्य के पक्ष में होती हैं जो पहली तरह के मनुष्यों या उनके कृत्यों के शिकार होते हैं. दूसरे शब्दों में, प्रतिरोध की ऐसी सारी कविताएँ, अपने तमाम तरह के वैविध्य और कुछ ख़ास क़िस्म के मनुष्यों का प्रतिरोध करने के बावजूद, अन्तत: नृतत्त्वकेन्द्रिक (‘एन्थ्रोपोसेण्ट्रिक’) होती हैं. अपने उपर्युक्त विश्वास के चलते, वे न सिर्फ़ इस नृतत्त्व की छानबीन करना, उस पर चिन्तन-मनन करना ज़रूरी नहीं समझतीं, बल्कि इसीलिए वे उस अशुभ को भी इस नृतत्त्व में लोकेट करने का यत्न नहीं करतीं. वे उस अशुभ को किसी नृतत्त्व-बाह्य वस्तु की तरह देखती हैं, नृतत्त्व के आभ्यन्तरिक पक्ष के रूप में नहीं देखतीं. इसीलिए वे मनुष्य-मात्र को कभी भी अपनी असन्तोषपूर्ण, प्रतिरोधी पूछताछ का विषय नहीं बनातीं. इसकी बजाय वे उन कुछ ख़ास तरह के मनुष्यों को कटघरे में खड़ा करती हैं, जिन्होंने मानो उस नृतत्त्व-बाह्य अशुभ का वरण कर रखा होता है.
वस्तुतः यह मसला सिर्फ़ घोषित रूप से प्रतिरोध की कविता तक सीमित नहीं है, बल्कि उनसे इतर, मानव-नियति, मानव-अस्तित्व के प्रति चिन्तित, उनकी विडम्बनाओं को उजागर करती कविताएँ भी मनुष्यकेन्द्रित कविताएँ ही होती हैं, भले ही वे जब-तब प्रकृति को भी अपने पर्यवेक्षण, अवबोध, अनुभव आदि का विषय क्यों न बनाती हों. यहाँ तक कि जब वे कभी-कभी एक तरह के पर्यावरणपरक संवेग के चलते प्रकृति के क्षरण या विलुप्ति को लेकर चिन्ता व्यक्त करती हैं, तो उनकी यह चिन्ता भी दरअसल, स्वयं प्रकृति के नहीं बल्कि मनुष्य के अस्तित्व पर संकट की आशंका से प्रेरित होती है.
लेकिन जब हम रुस्तम की कविता के सन्दर्भ में निरपेक्ष और मूलगामी असन्तोष की बात कहते हैं, तो उसका यही अर्थ कि वह प्रतिरोध की अन्य कविताओं की भाँति न केवल मनुष्य की पक्षधर कविता नहीं है, बल्कि इसके ठीक विपरीत स्वयं नृतत्त्व का प्रतिरोध करने वाली कविता है.
वह मानव-द्वेष और मानव-भीति से ग्रस्त कहलाये जाने का जोख़िम उठाती हुई भी मनुष्य का प्रतिरोध करती है. वह मनुष्यों के बीच वर्ग-वर्ण- या लिंग-भेद पर आधारित अन्याय को नहीं बल्कि स्वयं मनुष्यत्व या नृतत्त्व के उस प्रलयंकारी परमाणु को अपने प्रतिरोध का लक्ष्य बनाती है जिसके विस्फोट से हुए विकिरण ने पिछली अनेक सहस्राब्दियों के दौरान न सिर्फ़ उपर्युक्त क़िस्म के अनेक भेदों को उत्पन्न किया है बल्कि खुद (यानी सेपियन्स) से इतर मनुष्यों और अन्य प्राणियों की विभिन्न प्रजातियों का विनाश करते हुए समूची प्रकृति को पंगु बना दिया है. और नृतत्त्व के इस प्रतिरोध में यह स्वाभाविक ही व्यंजित है कि वह उस समूची सभ्यता और संस्कृति का भी प्रतिरोध करती है जिसके केन्द्र में मनुष्य है.
अपने इस निरपेक्ष और मूलगामी असन्तोष/प्रतिरोध के अर्थ में, वह हिन्दी की अकेली कविता है. उससे उभरता स्वत्व स्तब्ध और मनुष्य से डरा हुआ है. हालाँकि स्वयं यह कविता ‘काँपती हुई कविता’ शायद नहीं है, जैसाकि इसके बारे में अशोक वाजपेयी ने कहा है.
भय निश्चय ही इस कविता का विषय है, लेकिन क्या स्वयं यह कविता भयाक्रान्त है? क्या भय इस कविता को व्यापता, बरतता, रचता है? ‘काँपती हुई कविता’ सम्भवत: तब होती है जब उसका अर्थ शब्दों के कूलों के बीच बँधा होते हुए भी अस्थिर होता, डगमगाता, झिलमिलाता है. इसके विपरीत, इन कविताओं द्वारा प्रक्षिप्त अर्थ शब्दों के कूलों के बीच बँधा, थिर, शान्त, निष्कम्प, निडर प्रतीत होता है.
लेकिन प्रतिरोध की कविता होने के बावजूद इस कविता का प्रतिरोध उस तरह के ‘एक्टिविज़्म’ के रूप में सामने नहीं आता जैसा प्रतिरोध की अन्य कविताओं में आम तौर से होता है. क्योंकि जो बाहर है, कर्मक्षेत्र है, वस्तु-जगत है, जहाँ ‘एक्टिविज़्म’ सम्भव है, वह स्वयं उसके प्रतिरोध के लक्ष्य पर है; जहाँ कविता के स्वत्व (‘मैं’) समेत हर चीज़ ‘आउट ऑफ़ ज्वाइण्ट’ है. उसकी वास्तविकता, पहचान, पूर्णता और पवित्रता, यहाँ तक कि उसका जीवन इन कविताओं में प्रायः सन्दिग्ध है, या ‘लगभग वास्तविक’, ‘लगभग जीवित’ है.
यहाँ हम ढेर सारे उद्धरणों के सहारे यह देखने की कोशिश करेंगे कि इस ‘बाहर’ की शक्ल इन कविताओं में किस रूप में उभरती है:
‘यह शाम वास्तविक नहीं/आकाश वास्तविक नहीं’ (‘अब, इस वक़्त, यहाँ’); ‘तुम्हारा चेहरा तुम्हारा चेहरा नहीं’; ‘यह वो जगह नहीं जहाँ पर हम पहुँचे हैं,/जिसे हम छोड़ आये हैं पीछे/जो आगे मिलेगी’ (‘मेरी आँखों में’); ‘इस घर में/ – जो नहीं है-’ ; जहाँ ‘मेरी स्मृति/मात्र कल्पना है’ (‘हवा आती है और जाती है’); ‘उस शहर के पास वह नदी बहुत मुश्किल से नदी थी’; ‘वे मछलियाँ उस पानी में जो बहुत मुश्किल से पानी था बहुत मुश्किल से मछलियाँ थीं’ (‘नदी-1’); ‘दिन लाल था या हरा/कहना मुश्किल था’ (‘दिन लाल था या हरा’); ‘न यह रात है, न दिन है’ (‘न यह रात है, न दिन है’); ‘न जल जल था, न हवा हवा थी, न नदियाँ नदियाँ थीं, न झीलें झीलें थीं, न समुद्र समुद्र था, न बादल बादल थे, न बारिश बारिश थी, न अन्न अन्न था, न फल फल थे, न प्रेम प्रेम था, न मनुष्य मनुष्य था, न मन्दिर मन्दिर थे, न ईश्वर ईश्वर था’ (‘न जल जल था’); ‘और ख़ुद मैं? क्या मैं वही था जिसे तुम्हें मिलना था/ या कि मैं कोई और था?’ (‘जहाँ हमें मिलना था’); वहाँ न लोग वह रहे जो वे पहले थे, न कुछ भी वह रह गया है जो वह पहले था, वह एक नया प्रदेश है जिसमें सब अजनबी हैं (‘तब हम वो नहीं रहे’); ‘यहाँ हर रोशनी मात्र एक छल है/और हर राह केवल एक भ्रम है’ (‘क्या खो गया है?’).
बाहर भय है (‘विचार भय है/अर्थ भय/वाक् भय/वाणी भय/प्रेम भय/प्रियतम भय/देह भय/प्राण भय’ – ‘भय-1’; ‘जिसे मैं/अपने ही/चेहरे की तरह/पहचानता था/आज उससे भी मैं डर रहा हूँ’ – ‘चेहरा’), वहाँ ‘ख़ाली नदी बहती’ है, (‘नदी-3’), वहाँ निरे लोगों का व्यर्थ आना-जाना-मिलना है (‘लोग मिलते थे’), वहाँ स्वप्न चुरा लिये जाते हैं (‘जो स्वप्न मुझे नहीं आते थे’), वहाँ एक मृत हाथी की देह को एक अन्य हाथी सूँघ रहा है (‘मृत हाथी की देह को’), वहाँ कऊआ निरन्तर उदास है (‘कऊआ उदास था’), वहाँ लोग इतने ज़्यादा हैं कि पत्थर भी उन्हें देखकर सिकुड़ने लगे हैं (‘और अब हम बहुत ज़्यादा थे’), वहाँ लोग कुछ होना चाहते हैं, बहुत कुछ होना चाहते हैं, ‘इसके लिए/उसके लिए/हो सके तो सबके लिए/खुद अपने लिए’ (‘रात-2’), वहाँ जागने और सोने के बीच हगने, मूतने, नहाने, काम पर जाने, किसी से मिलने, बोलने, सुनने, देखने, देखे जाने जाने, गाली देने, गाली खाने, ख़रीदने, बेचने, पीटने, पिटने जैसी उबाऊ क्रियाओं से भरी निरर्थक दिनचर्या है (‘आज फिर उठना है’), वह एक ‘वाचाल ज़माना’ है जहाँ लोग ‘सिर्फ़ अपनी बात बताना चाहते’ हैं और चाहते हैं कि आप अपना मुँह न खोलें (‘सब चाहते थे’), वहाँ बोलने और सुनने का अर्थ सिर्फ़ होंठों का हिलना और कानों का खुला रहना है (‘न तो मैं कुछ कह रहा था’), वहाँ सर्वत्र आग ही आग है, नदियाँ, जंगल, समुद्र, पर्वत, हर चीज़ आग छोड़ रही है, जहाँ हवा और पानी जल रहे हैं (‘पूरा विश्व जल रहा है’), वहाँ मनुष्यों की भद्दी दुनिया में, बीच चौराहे पर सहमा हुआ एक अकेला जानवर खड़ा है जिसकी निस्तेज आँखों में रह-रहकर सड़कों पर आती-जाती गाड़ियों की रोशनी पड़ रही है (‘रात के नौ का समय था’), वहाँ अकेलापन और वीरानी है (‘स्पेन के एक गाँव में’, ‘घर वैसे ही खड़ा है’, ‘कुछ ही समय पहले’, ‘ढहे घर से’), वहाँ नदियाँ सूख रही हैं, बंजर बढ़ रहा है, एक-एक कर पशु-जानवर मर रहे हैं, यहाँ तक कि ‘जो मित्र थे उनकी भी आँखें बदलने लगी’ हैं (‘कितनी दूर चले आये थे’), वहाँ बाढ़ है, पेड़ घरघराकर गिर रहे हैं, पक्षी उड़ नहीं पा रहे हैं, ‘पृथ्वी पर कहीं लाल, कहीं हरा ख़ून बिखरा पड़ा’ है (‘कुछ अजब दृश्य इधर मैंने देखे हैं’); वहाँ ‘हर चेहरा मुझ पर हँसता है एक राक्षसी हँसी’; वहाँ परिचित पास आने पर अजनबी में बदल जाते हैं; वहाँ ‘सड़कों पर, बाज़ारों में, घरों और मकानों से/हर वक़्त किसी के रोने की आवाज़ आती है’ (‘मैं चलता हँ तो’); वहाँ ‘सब कुछ सड़ रहा है’ (‘सब कुछ वही है’); वहाँ हर कहीं पाँव रखते ही धरती सरक जाती है (‘वहाँ से भागकर’); वहाँ सर्कस से आज़ाद होना चाह रहे हाथी पर गोलियाँ दागी जाती हैं (‘सोलह गोलियाँ’); वहाँ हर कहीं पर, हर स्थान पर वस्तुएँ पड़ी हैं जो आदमी को घेर लेती हैं, घूरती हैं, हथियार बनकर उसकी ओर बढ़ती हैं, उसपर हँसती हैं, उसे मुँह चिढ़ाती हैं (‘वस्तुएँ’); वहाँ मनहूस इनसानों ने उजाड़ दिया है उल्लुओं का घर (‘आधी रात को’) …
२. |
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन तमाम पर्यवेक्षणों का विषयी (‘सब्जैक्ट’) इन कविताओं का ‘मैं’ है, और लगभग शत-प्रतिशत प्रकरणों में यह ‘मैं’ किसी सामान्यीकृत विषयी का स्थानापन्न या प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि व्यक्ति-विशेष का सर्वनाम है. ये कविताएँ एक केन्द्राभिसारी बल से परिचालित हैं और यह केन्द्र है स्वत्व– एक विशिष्ट स्वत्व, कवि का स्वत्व. उदाहरण के लिए, जब यह कहा जाता है कि
‘भय ही में जीता हूँ
भय मुझे लगा हुआ है’
(‘भय-1’),
तो यह कविता से उभरते स्वत्व-विशेष या कवि का प्रतिनिधित्व करते ‘मैं’ की भय की अनुभूति है. इस अर्थ में उपर्युक्त सारे अनुभव ‘निजी’ अनुभव हैं. और इन पर्यवेक्षणों में प्रकट होता वस्तुजगत आत्मपरकता के प्रिज़्म में रूपायित होता वस्तुजगत है. एक ऐसी दुनिया जिसमें,
निश्चित ही मैं भटक गया हूँ.
या फिर सम्भव है कि मैं कहीं अटक गया हूँ.
मैं खड़ा हूँ, या कि चल रहा हँ?
मैं शान्त हूँ, या कि अन्दर ही अन्दर कहीं जल रहा हूँ?
ज़रूर कोई जि़द है जिस पर मैं अड़ा हुआ हूँ.
लगता है कि जैसे सारी दुनिया से मैं लड़ा हुआ हूँ.
जहाँ पर मैं हूँ वह दिशाविहीन कोई जगह है.
मैं कभी इधर मुड़ता हूँ, कभी उधर देखता हूँ –
जैसे कि मैं बेचैन किसी शून्य में लटक गया हूँ.
(‘निश्चित ही मैं भटक गया हूँ’)
कुल मिलाकर, एक ऐसी दुनिया जहाँ मनुष्य होना ही अमानवीय होना है.
हालाँकि, क्या मनुष्य होकर- यहाँ तक कि कवि होकर भी- मनुष्य होने के अभिशाप से, मनुष्यता से छुटकारा पाया जा सकता है? इसी कवि को ही ले लें जो इस क़दर मनुष्य-विरोधी संवेगों से भरा हुआ है और अपनी मनुष्यता से छुटकारा पाना चाहता है, उसका अपरिग्रह करना चाहता है; जो कभी पेड़ में बदल गये होने की कल्पना करता है, तो कभी पत्थर हो जाने की कामना करता है. वह चाहता है कि वह ‘शिला होता’, लेकिन अपनी मनुष्यता के इस क़दर ‘रेडिकल’ विस्थापन के, यानी, शिला होना चाहने के इस क्षण में भी वह अपनी मानवीय आकांक्षा का संवरण नहीं कर पाता और अपनी वांछित पत्थर-योनि को एक मानवीय विशेषण से मण्डित कर लेता है: वह कहता है, ‘काश मैं एक नीली शिला होता’.
जैसाकि ऊपर के उद्धरणों से ज़ाहिर होता है, बाहर सर्वत्र निराशा, दहशत, अमानवीयता, निर्ममता, हिंसा, उजाड़, अजनबीयत है. बाहर की दुनिया के प्रति यह गहरा विकर्षण यह प्रभाव उत्पन्न करता है कि यह व्यक्ति बाहर से, कर्मक्षेत्र से अपसरण कर अपने भीतर लौटता, सिमटता एक अन्तर्मुखी, आत्मोन्मुख व्यक्ति है. वह ख़ुद भी कहता है कि मेरे लिए बाहर के ‘सब दरवाज़े बन्द हैं’ (‘सब दरवाज़े बन्द हैं’), और मैं ख़ाली हाथ लौट-लौट आता हूँ इसी पुराने घर को (‘इसी पुराने घर को’), या
‘मैं बाहर निकलता हूँ,
फिर भीतर लौट आता हूँ’
(‘भय-1’).
लेकिन क्या इस भय का स्रोत इस व्यक्ति के मानस की बजाय बाहर नहीं है? क्या पूरी पृथ्वी के एक सर्वव्यापी नर्क में बदलने के ये सारे पर्यवेक्षण वास्तव में अकर्मक पर्यवेक्षण (‘पैसिव ऑब्ज़र्वेशन्स’) हैं? क्या ये पर्यवेक्षण बाहर की दुनिया के साथ इस व्यक्ति की गहरी किन्तु इसीलिए दारुण ढंग से टूटती संसक्ति को नहीं दर्शाते? और क्या इसीलिए इन पर्यवेक्षणों और अनुभवों का ऐसा उत्कट और मार्मिक बयान अपने आप में सक्रिय प्रतिरोध नहीं है? और जहाँ तक ‘एक्शन’ का सवाल है, वहाँ ‘एक्शन’ को ‘सेलिब्रेट’ करती हुई भी कुछ कविताएँ हैं जिनमें से एक यह है:
‘आज मैं पूरी तरह जीवित हूँ!
देखो! लोग सड़कों पर हैं!
मुट्ठियाँ तनी हुई हैं!
हाथ ऊपर उठ रहे हैं!
उन्होंने
भय अपना त्याग दिया है!
वे लड़ने पर उतर आये हैं न्याय के लिए!
आज मेरी धमनियों में मेरा लहू फिर से दौड़ रहा है!
आज मनुष्य
फिर से सुन्दर लग रहा है!’
(‘आज मैं पूरी तरह जीवित हूँ’)
लेकिन जीवित होने और मनुष्य के सुन्दर होने के इन अहसासों के बावजूद इन कविताओं का मूल और प्रभावी स्वर असन्तोष, विकर्षण, वितृष्णा, हताशा, अवसाद, भय, उदासी, विषण्णता, घुटन, हतोत्साह, और नकार आदि का ही है.
3. |
मनुष्य के सन्दर्भ में तो इन भावों की झलक हम उपर्युक्त उद्धरणों में पा ही चुके हैं, इनकी इन्तिहा तब होती है जब ये भाव जीवन-मात्र के सन्दर्भ में उभरते हैं ‘त्रासद/गुम्फित है हमारे प्राण में’, एक कविता (‘दिन को छोड़ जाना तुम्हारा’) कहती है इसी तरह ‘पर अब जीवन तुच्छ लगता है मुझे/अब मुझे लगता है/कि उसे जीना/कोई बड़ी घटना नहीं है‘ (‘एक जीवन तुम जीना चाहते थे’); ‘फँस गया मैं/जीवन के चक्कर में/फँस गया मैं/जीवन के चक्कर में’ (‘फँस गया मैं’); ‘प्रतीक्षा करता हूँ/कि जब मैं जागूँगा/तो यहाँ कुछ भी नहीं होगा/ इस सुन्दर जीवन का’ (‘प्रतीक्षा करता हूँ’), ‘मैं बरसों से स्वयं को रोक रहा था,/लेकिन उस क्षण/मैंने पहली बार/प्रकृति को श्राप दिया/जिसने जीवन को जन्म दिया था’ (‘एक दफ़्तर के बरामदे में’); ‘मैं रोज़ उठता हूँ/तथा/जीवन और मृत्यु को- दोनों को कोसता हूँ/गाली देता हूँ’ (‘मन मर चुका है’); कल फिर एक दिन होगा/कल फिर मैं चाहूँगा कि डूब जाए सूरज/अन्तिम बार/और धमनियों में बहता हुआ ख़ून/जम जाए अचानक/गिर पड़े यह जीवन/जैसे गिर पड़ती है ऊँची एक बिल्डिंग/जब प्रलय की/शुरुआत होती है’ (‘कल फिर एक दिन होगा’), ‘दुख क्यों है?/इसलिए नहीं कि इच्छा है,/बल्कि इसलिए कि जीवन है/ मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाए सिर्फ़ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर हों यहाँ/तथा पर्वत/और बर्फ़/और -/उफनता लावा/ मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ़ लौट जाए/आग का/घूमन्तू गोला/ फिर बिखर जाये आसमान में/ फिर,/आसमान भी न रहे’ (‘जो मेरे लिए घृणित है’); ‘जीवन, जीवन,/यह तुमने ही किया है/ लहू का यह प्याला/जो उम्र भर मैंने पिया है/क्षत-विक्षत/यह जो मेरा हिया है/यह किसने मुझे दिया है?/किसने?/ ओ शैतान!/तुम्हीं तो रहते हो/मेरे भीतर!/मेरी धमनियों में तुम्हीं बहते हो/ और मैं निर्बल यह जीव/नाचता हूँ/तुम्हारे ही इशारे पर/ लो मैं फेंकता हूँ तुम्हें/उसी अन्धकार में/जहाँ से आये थे तुम/मुझे बनाने!/ जाओ!/ और फिर लौटकर नहीं आओ!’ (‘जीवन, जीवन’); ‘जीवन, जीवन,/तुमसे मैंने घृणा की है/तुम डरावने हो!/तुम यम हो!/अपने साण्ड पर बैठकर तुम आते हो ख़ुद का ही वध करने!/ओ आत्मभक्षी,/देखो यह चहुँ ओर फैला हुआ लहू!/यह तुम्हीं ने बहाया है!/और यह तुम ही हो!/इसीलिए मैंने तुम्हें गाली दी है’ (‘जीवन, जीवन’–2) यहाँ सुख भी सहने की चीज़ है (‘मैंने छोड़ने पर सोचा है’); यहाँ सिर्फ़ देह ही नहीं आत्मा भी विदरणशील है (द्रष्टव्य ‘पहले धीरे-धीरे टूटता है शरीर’) और यह भी अकारण नहीं कि उसमें रात के प्रति गहरा आकर्षण और दिन (जिसमें जीवन के स्पन्दन अधिक गोचर होते हैं) के प्रति उतना ही गहरा विकर्षण है (द्रष्टव्य ‘रात’ शीर्षक कविता-शृंखला)
मनुष्य, मानव-जीवन, मानव-देह और मानव-आत्मा के प्रति गहरे विकर्षण का यह भाव सिर्फ़ एक क़िस्म की सामूहिक आत्महत्या या की प्रलय की कामना (जिसके संकेत ऊपर देखे जा सकते हैं) में ही नहीं, बल्कि एक क़िस्म के सर्वनाश की कल्पना (‘अपाकलिप्टिक विज़न’) में भी फलित होता है, जैसेकि ‘पृथ्वी/अपने ही गर्भ को लौट रही है’ (‘स्टॉकहोल्म ठण्डा है’) या ‘जिस दिन जानवर तुमसे बदला लेंगे’ शीर्षक कविता जिसमें लगभग उन्मादपूर्ण जश्न के भाव से उस समय की कल्पना की गयी है जब जानवर मनुष्य से बदला लेते हुए उसके साथ वह सब कुछ करेंगे जो मनुष्य ने उनके साथ किया है; या एक ऐसे समय की कल्पना जब,
…न आग थी,
न वायु थी,
न जल था.
न समय था,
न गति थी,
न रति थी
न कुछ घूमता था,
न स्थिर था.
न अँधेरा था
न रोशनी थी.
न कल्पना थी.
तब न मैं था,
न तुम थे,
न मन था,
न आत्मा थी,
न स्व था.
न ब्रह्म था,
न यम था,
न मृत्यु थी.
तब
स्वर्ग नहीं था,
नर्क नहीं था,
ईश्वर नहीं था.
जन्म नहीं था,
दुख नहीं था,
श्रम नहीं था.
तब शब्द नहीं था,
अक्षर नहीं था
स्वर नहीं था.
(‘तब न आग थी’)
यानी, जब कविता भी नहीं थी.
ऊपर हमने प्रतिरोध के सन्दर्भ में ‘एक्शन’ की बात कहीं है और तत्सम्बन्धी एक कविता का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है. लेकिन कुल मिलाकर ये ‘एक्शन’ की उतनी नहीं जितनी ‘मेडिटेशन’ की कविताएँ हैं, या और भी बेहतर होगा अगर कहा जाए कि वे ‘मेडिटेटिव एक्शन’ और ‘एक्टिव मेडिटेशन’ की कविताएँ हैं.
जो व्यक्ति इन कविताओं में बोलता है, उसकी कर्मभूमि उसका अन्तर्जगत है, जहाँ कर्म का अर्थ, स्वाभाविक ही चिन्तन-मनन, ऊहापोह और विमर्श है. इस व्यक्ति के सारे पर्यवेक्षण, प्रतिक्रियाएँ, निष्कर्ष आदि दार्शनिक मनन और अनुचिन्तन की गहराई से उद्भूत अवबोध से उत्तीर्ण होकर आये प्रतीत होते हैं. उनमें ऐन्द्रियता उतनी नहीं जितनी विमर्शात्मकता है, या यूँ कहें कि उनमें एक तरह की विमर्शवेदनीयता या विमर्शवेध्यता, या, उन्हीं के शब्दों में, जिनमें ‘लयपूर्ण सोच, लयपूर्ण मनन, या मननपूर्ण लय’ है. और यह दिलचस्प है कि इन चीज़ों को हम विशेष रूप से उन कविताओं में लक्ष्य करते हैं जिनमें आम तौर से ऐन्द्रियता सबसे ज़्यादा अपेक्षित होती है, जिन्हें, अगर एक रूढ़ कोटि का सहारा लें तो, ‘प्रेम कविताएँ’ कहा जा सकता है (यथा, ‘कुछ शब्द’, ‘अब इस वक़्त’, ‘दिन को छोड़ जाना तुम्हारा’, ‘प्रेम मिलने के साथ’, ‘गुलाब भी थे’, ‘नीली गली में’, ‘मेरी आँखों में’, ‘हवा आती है और जाती है’, ‘इसी बिन्दु पर’, ‘तुम्हारे नहीं होने’ आदि),
और जो उस अन्य के प्रति सम्बोधित या उससे प्रतिश्रुत हैं जिसे प्रेम-पात्र जैसा कुछ कहा जा सकता है.
अगर मलयज की अवधारणाओं के सहारे कहें तो, इन कविताओं में ‘तन्मयता’ नहीं है (हालाँकि ‘नीली गली में’ किसी हद तक इसका अपवाद है); वे ‘तद्विवेक’ की ओर झुकी हुई हैं. ‘तब भी इस बाहुल्य में’ नामक कविता (जो स्वयं भी प्रेम के अनुभव पर केन्द्रित है), या स्वयं ‘प्रेम’ शीर्षक के अन्तर्गत रखी गयी कविताएँ, अतिशय विमर्शात्मक (‘हाइपर-डिस्कर्सिव’) हैं.
यह अकारण नहीं कि इसी शीर्षक की एक कविता (‘प्रेम-3’) कहती है कि ‘प्रेम करने की ही नहीं समझने की भी वस्तु है’. लेकिन यह उल्लेखनीय है कि ‘तद्विवेक’ या ‘समझने’ की यह राह, ‘प्रेम’ शीर्षक इन ज़्यादातर कविताओं में, ‘खाला के घर’ से नहीं ‘कविता’ से होकर गुज़रती है, या ‘तद्विवेक’ और ‘समझने’ की ओर झुकी यह कविता प्रेम की उस राह से होकर गुज़रती है जिसमें कोई दुलार, मनुहार या तुष्टीकरण नहीं है, बल्कि जो ‘राह रक्त से सनी है’; इनमें से ज़्यादातर कविताओं में कविता का हवाला है. यही सम्भवत: वह ‘लयपूर्ण सोच, लयपूर्ण मनन, या मननपूर्ण लय’ है जिसकी बात अन्यत्र कही गयी है.
4. |
ये बुनियादी तौर पर अनुभूति की कविताएँ हैं, ऐसी अनुभूति जो सामान्यीकृत नहीं है. यह कवि अनुभूतियों का सामान्यीकरण नहीं करता, वह उनके सच (प्रभाव) को उनकी सामान्य व्याप्ति, अतिव्याप्ति के आग्रह से नहीं, बल्कि उनको उनकी उत्कटतता में उभारने के प्रयत्न से पाता है. इन कविताओं की इकॉनॉमी में, शब्दों से कवि का परहेज़, शायद, शब्दों के हाथों अनुभूति के सामान्यीकृत हो जाने के ख़तरे से भी उत्प्रेरित है.
लेकिन निरपेक्ष और मूलगामी प्रतिरोध की कविता अपने समक्ष उतनी ही मूलगामी या अस्तित्वपरक चुनौतियाँ भी खड़ी कर लेती है. अगर आप मनुष्य के विरोध में खड़े हैं, तो एक मानवीय कर्म के रूप में आपका काव्य-कर्म भी प्रश्न के घेरे में आ जाता है. ये कविताएँ इस समस्या का सामना किस तरह करती हैं?
ज़ाहिर है कि इन कविताओं के सारे असन्तोष के पीछे नैतिकता (‘इथिक्स’) का लुप्त हो जाना है. लेकिन नैतिकता का प्रश्न मनुष्य के ही सन्दर्भ में उठता है, मनुष्येतर के सन्दर्भ में नहीं उठता. और जो चीज़ मनुष्य में इस नैतिकता का स्रोत है वही वह चीज़ है जो उसे मनुष्येतर से न सिर्फ़ सर्वाधिक स्पष्ट तौर पर अलगाती है, बल्कि उसे शेष सारी जड़ और चेतन प्रकृति से ऊपर होने का बोध देती है, और वह चीज़ है आत्मचेतना.
यह आत्मचेतना अनन्त समाश्रयणशील हो सकती है. शायद कहा जा सकता है कि यह आत्मचेतना किसी मनुष्य में जितनी ही अनन्त और अधिक होगी, वह उतनी ही अधिक मनुष्यता से चिह्नित होगा. यह आत्मचेतना ही समूची सभ्यता और संस्कृति का स्रोत है. और अगर सभ्यता और संस्कृति की जड़ में (विशेष रूप से मनुष्येतर चेतन और जड़ प्रकृति के प्रति) ‘रेडिकल’ अनीति निहित है, जैसाकि ये कविताएँ संकेतित करती प्रतीत होती हैं, तो क्या यही नहीं कहा जाएगा कि यही आत्मचेतना उक्त अनैतिकता का भी स्रोत है?
लेकिन इस (अन्तर्विरोधी) आत्मचेतना का स्रोत क्या है? क्या यह मनुष्य का अर्जन है? क्या यह मनुष्य के लिए प्रकृति की ही विशेष देन नहीं है? अगर ऐसा है तो मनुष्य में नैतिकता और अनैतिकता का यह सांघातक अन्तर्विरोध क्या स्वयं प्रकृति में निहित नहीं होना चाहिए?
तब क्या प्रकृति और नृतत्त्व का विरुद्धार्थी द्वित्व एक छद्म द्वित्व नहीं होगा? क्या यह कहना ज़्यादा बेहतर नहीं होगा कि प्रकृति का यह अन्तर्विरोध केवल तभी रूपायित होता है जब प्रकृति अपने मानवीय संस्करण में प्रकट होती है, और इसीलिए वह अन्तर्विरोध नृतत्त्व के अन्तर्विरोध की तरह प्रतीत होता है?
बुराई (‘ईविल’), शायद, नृतत्त्व में नहीं है, बल्कि वह नृतत्व में रूपायित होते प्रकृति के उक्त अन्तर्विरोध से मनुष्य के ऊपर न उठ पाने में है. बुराई इसमें है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के विपरीत जाकर अपनी आत्मचेतना का निवेश इस तरह नहीं कर पाता कि वह नैतिकता में फलित हो सके.
रुस्तम की कविताओं में यह बोध उभरता प्रतीत नहीं होता. इसके विपरीत, उनमें मनुष्य और शेष प्रकृति के बीच एक निरपेक्ष विभाजन उभरता है. इससे भी अधिक, उनमें आत्म और अन्य (मनुष्यों) के बीच भी एक सोपानक्रमिक विभाजन है जिसमें आत्म (‘मैं’) हमेशा पीड़ित है और अन्य हमेशा पीड़क हैं. बावजूद इसके कि वे कहते हैं कि ‘स्व तुच्छ है’ (‘प्रेम-5’), उनमें स्व का गुरुत्व अन्य से निरपेक्ष और प्रबल है; उनमें आत्माभियोग का स्वर अभियोग के स्वर के मुक़ाबले क्षीण प्रतीत होता है.
अभी-अभी हमने कहा था कि रुस्तम की कविताओं में यह बोध उभरता प्रतीत नहीं होता. लेकिन, क्या ये कविताएँ स्वयं यह बोध बन सकी हैं? इस सवाल का जवाब ढूँढने से पहले हम इसे और भी सघन करते हुए यह प्रश्न उठा सकते हैं कि जिन तमाम मानवीय आपराधिक कृत्यों पर ये कविताएँ कुठाराघात करती हैं, उनके बीच काव्य-कर्म की क्या स्थिति है?
क्या एक मानवीय कर्म के रूप में कविता उनका अपवाद है? अगर मनुष्य का समूचा इतिहास संस्कृति के हाथों प्रकृति को विस्थापित करते चले जाने का, संस्कृति के आविर्भाव की प्रक्रिया में प्रकृति को विलुप्ति में झोंकते चले जाने का इतिहास है, तो इस संस्कृति में कविता की क्या हैसियत और भूमिका है? क्या उसे निर्दोष करार देकर बरी किया जा सकता है?
आख़िर, जो नाटक इन कविताओं में जारी है, क्या कविता उस नाटक का निरा मंच है? या वह ख़ुद भी इस नाटक की एक पात्र है? क्या है उसकी पात्रता? कविता का बचाव करते हुए हम इसका कोई भी जवाब क्यों न दें, लेकिन जो चीज़ कविता को नैतिक बनाती है वह यह है कि स्वयं कविता खुद को कटघरे में खड़ा करेगी. वह न केवल निर्दोष नहीं होती, अपनी निर्दोषिता का दावा भी नहीं करती.
कविता एक नैतिक कर्म है, लेकिन इसलिए नहीं कि उसका रचयिता अनैतिक नहीं हो सकता, बल्कि इसलिए कि वह उसके कार्यव्यापार में शामिल हर पक्ष- कवि, पाठक और उससे उभरते चरित्रों- की अनैतिकता का भण्डाफोड़ कर देती है. इस अर्थ में, कविता सम्भवत: उन बहुत थोड़े-से मानवीय कर्मों में से एक है जो सर्वाधिक निष्कवच, अतिसंवेदनशील और वेध्य हैं. और अपनी इस वेध्यता में वह सबसे पहले और सबसे अधिक अपने रचयिता को वेध्य बनाती है. यह वेध्यता उसमें बाहर से आरोपित नहीं होती, बल्कि वह उसके होने का अंग है.
क्या रुस्तम की कविता में कविता का यह नैतिक आयाम उभरता है? क्या उसमें वह निष्कवचता, अतिसंवेदनशीनलता और वेध्यता है? क्या वह खुद को कटघरे में खड़ा करती है? क्या उसमें यह आत्मचेतना है कि वह स्वयं भी उन्हीं मानवीय कर्मों में से एक है जिनपर कुठाराघात का माध्यम उसे बनाया गया है?
इन प्रश्नों के उत्तर के रूप में जो कई अन्य प्रश्न पूछे जा सकते हैं उनमें से एक, जो इन कविताओं के सन्दर्भ में अधिक प्रासंगिक है, वह यह है:
क्या मनुष्यता में निहित ‘ईविल’ के ‘रेडिकल’ विरोध में खड़ी कविता के प्राथमिक निशाने पर सबसे पहले वह चीज़ नहीं होनी चाहिए जो उसकी निर्मिति में सन्निविष्ट मनुष्यता का, मनुष्य की आत्मचेतना का, सबसे अधिक संघनित और प्रभावी रूप है?
क्या देह और आत्मा के संहार की अपने रचयिता की आकांक्षा को धारण करती कविता स्वयं अपनी देह और आत्मा के संहार के बिना उक्त आकांक्षा को प्रामाणिक बना सकती है? ज़ाहिर है, मेरा संकेत भाषा की ओर है. अपने अस्तित्व के लिए भाषा पर सम्पूर्णत: निर्भर होने के नाते गहरी उद्वग्निता और बेचैनी के अहसास के बिना, भाषा में बँधे और बन्द होने के नाते घुटन महसूस किये बिना, और अन्तत: भाषा की मूलगामी तोड़फोड़ कर उसके ध्वंसावशेषों में उससे स्वाधीन होना चाहने की अपनी हताश कोशिश के निशान छोड़े बिना क्या उक्त ‘रेडिकल’ प्रतिरोध की कोई भी कविता प्रामाणिक हो सकती है?
5. |
रुस्तम की कविता में भाषा को लेकर ऐसी कोई उद्विग्नता, बेचैनी, घुटन, तोड़-फोड़ दिखायी नहीं देती. उसमें भाषा का लगभग निस्संशय स्वीकार है. अपनी कविता की भाषा के प्रति यह अकर्मक रुख रुस्तम के प्रतिरोध की मूलगामिता को खण्डित करता प्रतीत होता है. यह अकर्मक रुख उस मनुष्यता के एक निर्णायक पक्ष की अनदेखी करता या उसके प्रति प्रमाद-ग्रस्त होने का संकेत देता है जिस मनुष्यता का यह कविता प्रतिरोध करना चाहती है. वह कविता और भाषा को ‘क्लीन चिट’ देता प्रतीत होता है.
तब भी एक ‘सेविंग ग्रेस’ है, और वह है अपरिग्रह: कविताओं में भाषा का, मात्रात्मक और गुणात्मक, दोनों ही स्तरों पर, यथा सम्भव अपरिग्रह. सिर्फ़ इस अर्थ में नहीं कि उसके ‘युटोपिया’ में वह समय शामिल है जिसमें
‘शब्द नहीं था,
अक्षर नहीं था,
स्वर नहीं था’,
या कवि स्वयं यह कहता है कि ‘काव्य मोह है, आसक्ति. काव्य आसंग है, यानी यह संसार’ (‘तब भी, इस बाहुल्य में’), बल्कि यह अपरिग्रह इन कविताओं के अपने व्यक्तित्व में भी है.
यह कविता, अपने प्रकटन में, अपने नाक-नक़्श, रूप-रंग और वेशभूषा में, लगभग अकिंचनता के स्तर पर सिमटी हुई सादगी लिये हुए है. कुछ-कुछ वैसी ही सादगी जो इस कविता में बोलते हुए व्यक्ति में दिखायी देती है. वह स्वभावोक्ति की कविता है.
उसकी लगभग पूरी तरह तद्भव शब्दावली में, पद-विन्यास, वाक्य-विन्यास और स्थापत्य में, किसी तरह की भव्यता, समृद्धि, विलास, गौरव, दर्प, अलंकृति, चमत्कार, विक्षेप, माधुर्य या ओज, वाग्मिता, वंकिमता, श्लेष, द्वैध, चातुर्य नहीं है (हालाँकि, शायद उसकी इस सादगी के पीछे कहीं-न-कहीं यह तथ्य भी है कि वह मानवीय स्थिति की उस जटिलता का संज्ञान नहीं लेती जिसमें जगह-जगह अन्तर्विरोधों, विरोधाभासों, हेत्वाभासों आदि की गाँठें पड़ी होती हैं).
उसकी गति बहुत प्रशान्त और मन्थर है. वह अपनी पीढ़ी की अन्य कविताओं के बीच ही नहीं, बल्कि सम्भवत: हिन्दी की समूची आधुनिक कविता के बीच भी सर्वाधिक ‘लो प्रोफ़ाइल’ कविता है.
अर्थ उत्पन्न करने या उसके बल में इजाफ़ा करने के उद्देश्य से, जिन-किन्हीं थोड़े-से स्थलों पर, कुछ शब्दों, पदों, वाक्यों या पद-बन्धों के उन दोहरावों को अपवाद के रूप में छोड़ दें जो एक तरह के रेह्टॉरिक की सृष्टि करते हैं, तो उसके व्यक्तित्व की इस ऊपरी सतह पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारा ध्यान आकर्षित कर सके. वह, मानो, अपने होने को लेकर, अपने कविता होने को लेकर, गहरे संकोच और अनिश्चय में डूबी हुई कविता है. उसका आत्मसंशय और अकेलापन उस व्यक्ति के आत्मसंशय और अकेलेपन से कहीं अधिक और अधिक गरिमापूर्ण है जो व्यक्ति इस कविता में बोलता है.
लेकिन स्वयं इस कविता का बोलना? उसके बोलने में न-बोलने या ख़ामोश बने रहने की आकांक्षा निरन्तर स्पन्दित होती है. या, उसका ‘बोलना (या लिखना) देह का अपने ‘‘भीतर’’ से संवाद है, अपनी ‘‘हस्ती’’ से, अपने ‘‘मूल’’ से जहाँ वह ‘‘आदि’’ है, ‘‘आद्य’’ है और इसलिए ‘‘अनादि’’ भी है.’ (‘तब भी, इस बाहुल्य में’).
मदन सोनी जन्म १९५२, सागर (मध्यप्रदेश) मदन सोनी हिंदी के लेखक हैं जो मुख्यतः साहित्यालोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं.छह आलोचना पुस्तकें प्रकाशित जिनमें कविता का व्योम और व्योम की कविता, विषयान्तर, कथापुरुष, उत्प्रेक्षा, विक्षेप और काँपती सतह पर शामिल अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का सम्पादन जिनमें आधुनिक हिन्दी की प्रेम कविताओं का संचयन प्रेम के रूपक, अशोक वाजपेयी की चुनी हुई रचनाएँ, शमशेर की कविता पर केन्द्रित आलोचना पुस्तक समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं, और भारत भवन, भोपाल से प्रकाशित पत्रिका पूर्वग्रह प्रमुख रूप से शामिल हैं.उन्होंने विश्व के कई शीर्ष लेखकों और चिंतकों की रचनाओं के अनुवाद किए हैं जिनमें शेक्सपियर, लोर्का, नीत्शे, एडवर्ड बॉन्ड, मार्गरेट ड्यूरास ज़ाक देरीदा, एडवर्ड सईद आदि शामिल हैं. उनके द्वारा अनुवादित उम्बर्तो एको का विश्व विख्यात उपन्यास ’द नेम ऑफ द रोज’ खासा चर्चित हुआ है उनके अन्य अनुवादों में हरमन हेस्स का उपन्यास सिद्धार्थ विश्व के प्रसिद्ध लेखकों की कहानियों का संचय ’चुगलखोर दिल और अन्य कहानियां’. डैन ब्राउन का उपन्यास ’द विंची कोड . एस हुसैन जैदी की पुस्तकें ’डोगरी टू दुबई’ तथा ’बायकला टू बैंकॉक’ आदि शामिल हैं. इधर विश्व विख्यात लेखक युवाल नोआ हरारी की तीन किताबों- सेपियन्स, होमो डेयस और २१ वीं सदी के लिए २१ सबक़ का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है जो बहुत प्रसिद्ध हुईं हैं. भोपाल स्थित राष्ट्रीय कला केंद्र भारत भवन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त सोनी को अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार, नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की वरिष्ठ शोधवृत्ति और रज़ा फ़ाउण्डेशन दिल्ली तथा उच्च अध्ययन संस्थान नान्त (फ्रांस) की फ़ेलोशिप आदि मुख्य हैं. madanson.12@gma.l.com |
इस आलेख पर तुरन्त टिप्पणी करने का अर्थ होगा कि आप सोच रहे हैं आपने रुस्तम की कविता की विशिष्टता और मदन की आलोचनात्मतक प्रखरता को मानो एक साथ समझ लिया है।
ये दोनों लेखक मेरे मित्र हैं। और मेरे जीवन में इनका होना ही मेरा जीवन है, या उसका एक अभिन्न अंग है। इन दोनों की भीषण रचनात्मक ऊर्जा से मैं आक्रांत भी रहती हूँ लेकिन मेरी समझ की सीमाएँ स्वयं मुझे आक्रांत नहीं करतीं। क्योंकि हर कवि के भीतर के फ़िल्टर एकदम अलग अलग होते हैं। उन्हें पूरी तरह समझ पाना कवि के अपने कहे में नहीं होता। वह वही ग्रहण करने के योग्य स्वयं को पाता है जिसकी चाह उसकी कविता को होती है।
कविता एक ख़तरनाक क़िस्म का कर्म है। आत्मध्वंस और आत्मरक्षण का इतना नाज़ुक तवाजुन कि जीवन गुज़र जाए तब भी उसे कोई साध नहीं पाता।
मदन ने रुस्तम की कविता के विशिष्ट तत्त्वों को जिस मेधा से चिन्हित किया उस मेधा की क़ायल तो मैं हूँ, लेकिन मुझे फिर भी लगता है कि अभी उन्होंने रुस्तम की कविता के कुछ ही पक्षों पर मनन किया है।
मनुष्य केंद्रीयता स्वयं में एक ऐसा विषय है जिसकी अन्तहीन पड़ताल हो सकती है। हो भी रही है। मानुस से इतर प्राणियों की भाषाओ और उनके नैतिक बोध पर इस समय कई बड़े चिंतक बेहद गहराई और शिद्दत से मनन कर रहे हैं। इसलिए मनुष्य अपनी भाषाओं के जटिल और सुंदर संसार पर जब इतराना कम कर,अन्य प्राणियों की ओर उस दृष्टि से देखेगा जिसके बिना उसका मनुष्य होना कभी पूरा नहीं होगा, *साहित्यिक* आलोचना की दृष्टि में भी क़सर रहेगी ही।
मदन और रुस्तम दोनों से मेरी अच्छी दोस्ती है। इस आलेख को लेकर और रुस्तम की कविता के उन पक्षों को लेकर इन दोनों से कभी बात होगी ही जिन्हें इस में आलेख चिन्हित नहीं किया गया।
इस आलेख में विमर्श की इतनी गुंजाइश निकल आ रही है कि बेचैनी महसूस हो रही है। ब्रिलियंट तो यह आलेख है ही, इसमें कोई शक नहीं।
अच्छा लेख है। जैसा तेजी जी ने कहा, और भी कई आयाम बचे हैं जो रुस्तम जी की कविताओं में मौजूद हैं और उन्हें रेखांकित करने का मन बरबस हो उठता है।
ये कविताऐं जितनी मद्धिम स्वर की जान पड़ती हैं, उससे कही ज़्यादा आक्रान्त हैं। यहाँ एक भीषण चीख का खाली गोला है जो चीख की (मनुष्य के कारण ही) निरर्थकता जानते हुए एक खाली अवाक गोलाई के स्वरूप में सिमट आता है। यहाँ इन कविताओं में बेहद ज़रूरी है कि व्यक्ति बाहर बैठ कर कविता के भीतर झाँकने के बजाय पहले खुद कविता के केन्द्र में पहुँचे और फिर उसकी चीखती सतह के लेन्स से दुनिया को देखे। तब रुस्तम जी की कविता की सार्थकता और सौन्दर्य खुल के निखरता है।
Rustam Singh Teji Grover
नीली शिला!!! और रात। क्या पहली रीडिंग में मुझे यह ग़लतफ़हमी भी हो गई कि मदन के आलोचक को तत्सम का मोह अपेक्षया अधिक है?
लेकिन रुस्तम की कविता में प्रतिरोध के विशिष्ट रूप को परखने में उन्होंने वाक़ई बाकमाल काम किया है। लेकिन जहाँ तक आत्म संशय का सवाल है वह तो प्रजाति का सदस्य होने के नाते रुस्तम के तेवर में है ही। यूँ ही कोई नीली शिला नहीं हो जाना चाहता!! प्रजाति तजने की इच्छा रुस्तम की कविता में अपने आप में आत्म संशय की अनुभूति से उत्प्रेरित है।
एक और कविता है जिसमें बाहर किसी वाहन से उतर रहे धूल-धूसरित मज़दूरों को देख रेस्तराँ में बैठा व्यक्ति बरबस आत्म संशय और आत्म ग्लानि से भर जाता है। ये रुस्तम की कविता के existential पल हैं जिसमें प्रतिरोध एक अलग काव्यात्मक युक्ति से सम्भव हो पाया है जो मनुष्य विरोधी नहीं है।
जब मानुस से कवि की विरक्ति नहीं हुई थी उस समय की उनकी कविता में लयपूर्ण सोच ऐन्द्रिकता से ओत प्रोत थी।
अब मुझे लगता है कि मुझे अपने प्रिय कवि रुस्तम पर अलग से लिखना पड़ेगा। मदन का आभार कि उनके आलेख ने मुझमें इतना विचलन पैदा किया है हालाँकि उसे कई बार पढ़कर ही मैं उनसे रूबरू हो पाऊँगी।
काश कविता को, नर्तन को, गायन को सिर्फ़ मानुस की उपलब्धि न माना गया होता!!! प्रजातियों को लांघकर कई मनुष्येतर प्राणी आपस में हमारी प्रजाति को न समझ में आने वाले -सम्प्रेषण करते हैं, जिनमें altruism और सौंदर्य बोध के ऐसे तत्त्व होते हैं जिन्हें हम चाहें तो कविता भी कह सकते हैं।
और *तब भी इस बाहुल्य में* शीर्षक से लम्बी कविता कवि की *तत्सम* सामर्थ्य को बख़ूबी दर्शाती है, और मदन ने जिस अपरिग्रह को कवि की अधिकांश कविता में लक्ष्य किया है वह भी कवि की साधना के फलस्वरूप हो पाया है। इस बात को मदन बहुत सूक्ष्मता से पकड़ पाए हैं।
प्रकृति का हिस्सा हम लोग रहे ही नहीं हैं। हम evolution की प्रक्रिया में इस हद तक ख़लल डाल चुके हैं कि मनुष्य अपना जैव विकास खुद ही कर रहा है। उसने स्वयं को प्राकृतिक जैव विकास से खुद ही बाहर निकाल लिया है।
मदन का यह निबन्ध भी अद्वितीय है। उन्होंने जिस ख़ूबसूरती से कविताओं की सुन्दरता और सीमा को अपने बहती हवा जैसे लयात्मक गद्य में पिरोया है, उससे मन उत्फुल्ल हो गया। मदन हिन्दी के उत्कृष्ट आलोचक तो हैं ही, कमाल के गद्यकार भी हैं।
प्रचलित वैज्ञानिक, दार्शनिक और धार्मिक मान्यता के ख़िलाफ़ मैं मानता हूँ कि न केवल मनुष्य बल्कि सभी प्राणी आत्म-चेतन हैं। इसका प्रमाण यह है कि सभी प्राणी आत्म से ओतप्रोत हैं और आत्म एक चैतन्य सत्ता है, न केवल बाहरी जगत् के प्रति बल्कि अपने प्रति भी। यही कारण है कि मनुष्य समेत सभी प्राणी आत्म-केन्द्रित हैं। आत्म-केन्द्रिता आत्म-चेतना के बिना सम्भव नहीं। बनने या पैदा होने के बाद सभी प्राणी ज़िन्दा रहना चाहते हैं, अपने-आपको ज़िन्दा रखना चाहते हैं और इसके लिए जो कुछ भी उन्हें करना पड़े उसे करने की कोशिश करते हैं। यह मनुष्य का अहंकार ही है, या फिर उसका भ्रम है, कि वह मानता है कि केवल मनुष्य ही आत्म-चेतन है।
2. क्योंकि सभी प्राणी आत्म-केन्द्रित हैं और सबसे पहले केवल अपनी चिन्ता करते हैं, नैतिकता (ethics) ऐसी चीज़ नहीं है जो मनुष्य को प्रकृति ने दी है, बल्कि वह ऐसी चीज़ है जो मनुष्य ने अर्जित की है, या यूँ कहें, जो ज़्यादा सही बात है, कि कुछ मनुष्य उसे अर्जित कर लेते हैं और फिर यथासम्भव उसके अनुसार कर्म करने की कोशिश करते हैं। यह नैतिकता उन्हें आत्म-केन्द्रिता से बाहर आने में मदद करती है। परन्तु किसी भी कालखण्ड में यह सभी मनुष्यों के बारे में सही नही होता। किसी भी समय कुछ ही मनुष्य ऐसे होते हैं जो नैतिकता के प्रभाव में आत्म-केन्द्रिकता से बाहर आ पाते हैं। शेष मनुष्य सभी प्राणियों की तरह ही आत्म-केन्द्र बने रहते हैं या फिर कभी-कभार ही कुछ क्षणों के लिए उससे बाहर आ पाते हैं और फिर उसी समय उसमें वापिस चले जाते हैं।
3. अब, क्योंकि नैतिक सोच मनुष्य अर्जित करता है, और क्यों नैतिक सोच का स्वभाव ऐसा होता है कि उसे किन्हीं कारणों से किसी दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता, इसलिए यह माँग करना स्वाभाविक है कि यह नैतिक सोच मनुष्यों तक सीमित न रहकर मनुष्येतर दूसरे प्राणियों को भी अपने आलिंगन में ले। परन्तु दैनिक जीवन में मनुष्य के अधिकतर क्रिया-कर्म में ऐसा होता नहीं। बल्कि यह कहना चाहिए कि न केवल मनुष्येतर प्राणियों के सन्दर्भ में बल्कि ख़ुद मनुष्य के सन्दर्भ में भी ऐसा नहीं होता। दूसरे शब्दों में, दैनिक जीवन में अपने क्रिया-कर्म में अधिकतर मनुष्य नैतिक सोच से रहित होकर एक निरे आत्म-केन्द्रित प्राणी की तरह ही व्यवहार करते हैं और इतिहास बताता है कि इस व्यवहार का सबसे अधिक और सबसे क्रूर कुठाराघात मनुष्येतर प्राणियों पर हुआ है।
दूसरी बात यह है कि यदि मनुष्य द्वारा नैतिक सोच और दृष्टि का अर्जन प्रकृति-जनित नहीं है बल्कि यह सोच प्रकृति के ख़िलाफ़ जाकर ख़ुद मनुष्य द्वारा अर्जित की जाती है, तब यह कहना सही नहीं होगा कि “प्रकृति और नृतत्त्व का विरुद्धार्थी द्वित्व एक छद्म द्वित्व” है। तब बुराई (evil) मनुष्य की आत्म-केन्द्रिता में ही है और यह बोध मेरी कविताओं में है। मैं यहाँ तक कहूँगा की मेरी कविताओं में यह बोध भी है कि मनुष्य केवल आत्म-केन्द्रित प्राणी ही नहीं है, बल्कि एक अतिशय-आत्म-केन्द्रित प्राणी है और यह (अव)गुण उसे दूर प्राणियों से अलग कर देता है, इस तरह कि वह एक सुपर-प्राणी (super-being) बन जाता है जो दूसरे प्राणियों से कहीं अधिक ताकतवर है, यहाँ तक कि अब वे उसकी दया पर निर्भर हैं। (अन्यत्र मैंने यहाँ तक लिखा है कि मनुष्य अब मात्र एक प्राणी नहीं है बल्कि एक दैत्य (monster) है। उससे भी आगे मैंने लिखा है कि मनुष्य अब एक प्राणी नहीं है, वह एक प्राणी नहीं रह गया: वयः बस एक मॉन्स्टर है। परन्तु यहाँ मैं अपनी कविता की बात नहीं कर रहा।)
4. जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि भाषा और कविता ख़ुद मनुष्य की संस्कृति का हिस्सा हैं और कि मेरी कविताओं ने उन्हें निर्दोष ही मान लिया है, तो उसका जवाब तो केवल यही हो सकता है कि एक मनुष्य जो कवि भी है मनुष्य का प्रतिरोध मनुष्य की भाषा में ही कर सकता है क्योंकि यही भाषा उसके पास है, कोई और नहीं
लेख बहुत शिद्दत से लिखा गया है जैसा कि मदन जी से अपेक्षित है। गहरा गंभीर विवेचन जो इन दिनों कम ही दिखाई देता है। यह भी ज़ाहिर है कि इतनी धीर-व्यग्रता, वेदना की गहन चेतना वाले कवि के सभी पक्षों को इतने छोटे लेख में समेटा नहीं जा सकता। एक संवाद शुरू होता दिखाई देता है जिसे एक सीरीज़ की शक्ल दे कर यहीं छापा जा सकता है।
अच्छा आलेख है।