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Home » द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र: कुमार अम्‍बुज

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र: कुमार अम्‍बुज

वृद्ध होना केवल दैहिक परिवर्तन नहीं है, यह और भी बहुत कुछ है- परिवार और समाज में तेजी से स्थितियां बदल जाती हैं. इस विषय पर अंग्रेजी में १९३७ में फ़िल्म बनी थी- ‘मेक वे फ़ॉर टुमारो’. हिंदी फ़िल्म ‘बाग़वान’ लगभग उसी पर आधारित है. देखी हुई फ़िल्म का साथ-ही-साथ स्वतंत्र, संवेदनशील और समानांतर पाठ मूर्त करने वाले कवि कुमार अम्बुज विश्व सिनेमा के दुर्लभ दर्शक हैं. इस आलेख को पढ़ना ऐसी पीड़ा से गुजरना है जो हमारे आस-पास बहुत है और जिससे हम अनजान बने रहते हैं. वृद्धत्व पर यह किसी शोकगीत की तरह है.

by arun dev
November 12, 2021
in फ़िल्म
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द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र:  कुमार अम्‍बुज
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द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र
कुमार अम्‍बुज

 यह प्रकृति में वसंत की आशा है.
इसमें आयुष्‍यपूर्णता की ओर बढ़ते एक पीले, जीर्ण पत्र के झरने की प्रतीक्षा है. वह पत्ता टूटेगा तो शेष प्रकृति में वसंत आएगा. लेकिन इस अर्थ से किंचित अलग, सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इस शीर्षक पंक्ति का एक और अर्थ है. जो उतना ही प्राकृतिक है लेकिन बदलते समाज ने उसे क्रूर, अमानवीय, हतभागी प्रक्रिया और परिणति में बदल द‍िया है. कि तुम हटो, आनेवाले कल को रास्‍ता दो. ‘मेक वे फ़ॉर टुमारो’.

यह वृद्धाश्रम के विवश स्‍वीकार का सिनेमा है.
एक सुरंग में रहने के लिए सहमति है. जिसके दूसरे सिरे पर कोई रोशनी नहीं है. यह अकेले होते चले जाने पर यक़ीन करने का च‍ित्रपट है. ख़ुद को राहत देने का. बच्‍चों को उनकी ख़ुशनुमा आज़ादी देने का. और अपने को अपमान से बचाने का. शेष जीवन अपनी जर्जरता में गुज़ारने के निरीह साहस का. यह समाज की बदलती सचाई की फ़‍िल्‍म है. यह इकतरफ़ा प्रेम, बलिदान और आनंद का दारुण अंत है. अपने ही वृक्ष में पत्‍तों के शीघ्र पीतवर्णी होते जाने की कथा.

पूरी फ़िल्‍म में दंपती जानते हैं कि वे असहाय हो चुके हैं. उनकी असहायता से ही फ़िल्‍म शुरू होती है. उन्‍हें क़र्ज़ ने अशक्‍त कर दिया है. और उम्र ने. और बच्‍चों ने. उनके हाथ से तोते उड़ चुके हैं. मुहावरेवाले तोते भी और जीवन के तोते भी. अब उनके पास दयनीय समझौते में प्रसन्‍नता, विजय और संतोष के अन्‍वेषण का कार्यभार है.

वे आत्‍म निर्भर होना चाहते हैं.
सत्तर पार होकर भी नौकरी खोजना चाहते हैं, या मज़दूरी, कोई छोटा-मोटा काम. लेकिन वे ख़ुद का ही भार नहीं ढो पा रहे हैं. वे चलते हैं तो पैर दाएँ के बाएँ, बाएँ के दाएँ जाते हैं लेकिन शेष उम्र के तीर को ठीक निशाने पर लगाना चाहते हैं. धनुष उनके पास नहीं है. उनके भीतरी अवयव, अंग-प्रत्‍यंग अपनी जगहों पर ठीक नहीं हैं फिर भी वे आत्‍मनिर्भर होना चाहते हैं. वे जानते हैं कि यही बेहतर उपाय हो सकता है. अभी जो है वह अपमान का कुआँ है. इससे बचने के लिए वे मौत के कुएँ में मोटर साइकिल चलाना भी चुन सकते हैं.

उन्‍हें जो किंचित प्रेम और ध्‍यानाकर्षण नसीब होता है वह बच्‍चों के मन में पैदा हो सकनेवाले क्षणिक अपराधबोध, अचानक उमड़ आई बूँद भर करुणा या बचपन की उस स्‍मृति से, जो राख के नीचे कुछ टटोलने से कभी-कभार मिलती है. या लोकलाज की खुरचन से. लेकिन यह प्रक्रिया ज्‍़यादातर सम्‍मानित मध्‍यवर्ग के भीतर घट रही है इसलिए चीज़ें सतह पर उतनी कुरूप और विद्रूप नहीं लगती हैं, जितनी वे अपने अंतरंग में हैं.

यक़ीनन अभी वे चौराहे पर खड़े भि‍खारी नहीं हैं लेकिन घरों के भीतर हर कोने, हर गलियारे, हर चौराहे पर भिक्षुक हैं. एक बिस्‍तर, भरपेट भोजन, रैन-बसेरा, अनिवार्य दवाएँ और थोड़ी-सी निश्चिंत नींद खोजते हुए. लतियाये जाते हुए. आदरपूर्वक. कई बार इस अवहेलना और लिजलिजी दया के साथ कि इनका कुछ नहीं किया जा सकता. वे घर में चौकीदारी तक नहीं कर सकते. बच्‍चे नहीं सँभाल सकते.
ये लतियाए जाने लायक़ भी नहीं बचे हैं.
यही उनका वानप्रस्‍थ है.

 

(दो)

दरअसल, बच्‍चे चाहें तो भी उन्‍हें रख नहीं सकते.
समाज, नौकरी, जीवन ही ऐसा हो गया है कि अगर वे रखेंगे तो उनका जीवन संकट में आ जाएगा. अराजक किस्‍म की आज़ादी सबसे पहले दाँव पर है. घूमना-फिरना, स्वतंत्र मेलजोल, किटी पार्टी, सब जगह कुछ अवरोध आ सकता है. माता-पिता से बड़ा सीसीटीवी कोई नहीं. उनसे बड़ी दिनचर्या में कोई रोक-टोक नहीं. उन्हें कितना ही समझाओ वे समझेंगे नहीं. कुछ न कुछ ऐसा कहेंगे, वाणी से नहीं तो वक्र-दृष्टि से कि बच्‍चों के निश्चिंत युवा जीवन में व्यवधान पैदा होगा. यह अनुशासन नहीं, बंधन है. आखिर उनका भी जीवन है और एक ही है. उसे भरपूर जीना है.

वे जैसे-तैसे अपना ही जीवन ‘मैनेज’ कर पा रहे हैं. यों भी, अब कोई अपने माँ-बाप के साथ नहीं रहता, न उन्‍हें साथ रखता है. उपभोक्‍ता सामग्री के अलावा घर में कोई जगह भी तो नहीं है. आसपास देख लीजिए. इसे अर्थशास्त्र के ‘डिमॉन्‍स्‍ट्रेशन इफ़ैक्‍ट’ से भी समझा जा सकता है- जैसा पड़ोस में है, वही आपके यहाँ होना चाहिए. जैसा पड़ोस में नहीं है, वह आपके यहाँ होना अनावश्यक है. बल्कि लज्‍जास्‍पद है. युक्ति संग-साथ रहने के लिए नहीं, विलग होने के लिए लगाइए. जो अपने पालकों के साथ रहते हैं या उन्‍हें अपने साथ रखते हैं वे मजबूर हैं या अजूबे हैं. वे एक पुराने समय के निवासी हैं.

यह पारिवारिकता का क्षरण है या जवाबदेही की भावना का.
यह उच्‍च्‍तम बिंदु तक किसी व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्र जीवन की चाह है या उत्‍तरदायित्‍व से पलायन की रीति. माँ-बाप अपने विकलांग, कमजोर, असाध्‍य रोग से ग्रसित या दुर्व्‍यवहारी बच्‍चों को अपने घर से अलग नहीं करते लेकिन इसका उलट अब एक सामान्‍य स्‍वीकार्य दृश्य है. बच्‍चे ज़‍िम्‍मेदारी हैं, बुज़ुर्ग नहीं.

यह आर्थिक असफलता है या सामाजिक. या नैतिक.
इस उत्तर जीवन में वह एक समर्थन कम हो गया है, वह एक मत, वह एक वोट जो वीटो शक्ति से लैस होता है. जो बच्‍चों को मातृशक्ति के रूप में हमेशा उपलब्‍ध रहता है. वह अब इस जरावस्‍था में वृद्ध माता-पिता को प्राप्‍त नहीं है. बल्कि जिस स्‍त्री का समर्थन बच्‍चों को उपलब्‍ध था, वह तो अब ख़ुद याचक की मुद्रा में है. जिन अल्‍पसंख्‍यक घरों में यह दृश्य नहीं है, वहाँ की कहानी, वहाँ की स्क्रिप्‍ट तो कुछ और ही लिखी जाएगी. अब आपके पक्ष में उठा हुआ कोई हाथ नहीं है. न नाज़ुक हाथ. न मज़बूत हाथ. आपकी मतपेटी खाली है. आपकी ज़मानत ज़ब्‍त हो चुकी है.

वस्‍तुत: अब यहाँ तक आते हुए आप किसी के लायक़ भी नहीं रह गए हैं. किसी उपयोग के नहीं. आपकी ज़रूरतें बच्चों की प्राथमिकता में नहीं. जो आपके साथ हो रहा है वह उचित है. कर्मफल है. प्रतिफल है. प्रेमहीन समझौते के लिए भी अदृश्य शर्तें लागू हैं.

और जिसका कोई भविष्य नहीं, उसका कोई वर्तमान नहीं.
और जो निर्धन हैं उनका तो भूतकाल भी नहीं था.

(तीन)

जैसे यह एकांगी मार्ग है.
आप पालन कीजिए, उन्‍हें व्यवस्थित कीजिए और अब रास्‍ते से हट जाइए. उन्‍हें रास्‍ता दीजिए. और आशीर्वाद दीजिए. आपके कर्तव्य हैं, अधिकार नहीं. दरअसल, शुरू से ही आपको अपना ख़याल रखना था. यानी अपने बुढ़ापे का. आप यह ख़याल नहीं रख सके. कारण जो भी रहे हों: अधिक बच्‍चे, कम आय, व्‍यय ज्‍़यादा, ऐसा तो न सोचा था, बदला हुआ ज़माना, जवानी गलानेवाली मेहनत, बाढ़, सूखा, भूकंप, आपकी अन्‍य पारिवारिक जवाबदारियाँ. कारण महत्वपूर्ण नहीं. निर्णायक तो वह स्थिति है जिसमें आप आज हैं. और हर चीज़ के लिए ख़ुद दोषी हैं. उनकी परवरिश के लिए, उन्‍हें उपदेश देने के लिए, उन्‍हें लज्जित करने के लिए, उनके असंतोषजनक रोज़गार के लिए, अपनी पूँजी उन्हें उपलब्‍ध न करने के लिए, और कर दी है तो उपलब्ध करके नष्‍ट करने के लिए.

एकल परिवार ख़ुद अकेले नहीं होते, एक और परिवार को एकल करते हैं. यह नया समाज है. यह राहु है. यही केतु है. इन्होंने परिवारों को ग्रस लिया है. मानो अलग पड़ जाने के लिए माता-पिता का स्‍वभाव ही निर्णायक रूप से बाधक है. लेकिन तथाकथित अच्‍छे, बुरे, अमीर, गरीब, स्वस्थ, अस्वस्थ, शिक्षित, अशिक्षित, सब तरह के बुज़ुर्ग अस्वीकार्य हैं. सबमें कोई न कोई असहनीय कमी है. अवांछित दुर्बलता है.
हालाँकि बच्‍चों में भी दिल है. मगर कोई तंगदिल है, कोई संगदिल.

इस तंत्र में युवाओं की, अधेड़ हो चले परिवारों की मुश्किलें भी गिनाई जा सकती हैं. जो प्रश्‍न पहले कभी ‘बच्‍चा या कार’ के बीच में से एक चुनाव का था, अब वह ‘पैरेंट्स या लग्‍ज़री’ में से किसी एक के चयन पर आ चुका है. बच्‍चे एकाधिक हैं, उनके आपस में मतभेद हैं, वे आर्थिक रूप से कम-ज्‍़यादा संपन्‍न हैं, विचार भिन्‍नता है लेकिन इस बिंदु पर सब एक हैं कि इनके लिए जगह नहीं. इन्‍हें जो रखेगा वह अकेला पड़ जाएगा. मानो उसका विनाश हो जाएगा. वैसे भी संपन्‍नता या विपन्‍नता कोई कारण नहीं. प्रेम ही संयोजक अवलेह है, वही किसी को साथ में रख पाता है.
उसी का अभाव है.

वे पड़ोस में प्रेम या मित्र खोजते हैं, वह बच्‍चों को मंजूर नहीं. घर की बातें बाहर जा सकती हैं. उनकी बदनामी हो सकती है. शिशुपाल की तरह उनके अपराध गिने जा रहे हैं. सौवें अपराध के बाद कठोरतम दण्‍ड तय है. उसके पहले उनकी जरूरतों, इच्‍छाओं, अनिच्‍छओं की उपेक्षा होगी. उनकी समस्‍याओं की. दरअसल, वे ख़ुद एक समस्‍या हैं. उनका प्राथमिक न्‍याय घर में ही किया जा सकता है.
त‍िया-पाँचा.

फ़िल्म से एक दृश्य

(चार)

वे दो हैं.
वे इसी नख्‍़लिस्‍तान में हैं. उन्‍हें देखने के लिए कुछ क़रीब जाना पड़ सकता है. एक-दूसरे का हाथ थामे हैं. वे एक दिख सकते हैं. वे दो होकर एक होना चाहते हैं. लेकिन यह तो गणितीय रूप से भी ठीक नहीं. वे दो हैं तो दो की ज़‍िम्‍मेदारी होगी. दो रहेंगे तो अधिक चुनौती पेश कर सकेंगे. एक-दूसरे की ताक़त बन जाएंगे. उन्‍हें बिलगाना ही ठीक है. एकवचनीय फिर भी सहनीय होंगे.

जैसे ही वे अलग होते हैं, इकाई की स्‍वायत्‍ता और शक्ति नष्‍ट हो जाती है.

यह आर्थिक मंदी का समय भी है. जो 1937 में अमेरिका में था.
यह पूँजीवाद का अगला चरण है. यह विकासशील देशों में धीरे-धीरे इक्कीसवीं सदी के साथ आया. ‘एलीअनेशन’ का. ग्राम्‍य जीवन नष्‍ट होने का. महानगरीय जीवन में नयी सभ्‍यता के प्रवेश का. रोज़गार के संकट का. गिने-चुने कमरों के घर का. अपने कमरे में किसी और की उपस्थिति से असहिष्‍णुता का. आप अलग रहिए. आप भी अपनी स्‍वतंत्रता का उपभोग करें, हमें भी करने दीजिए. यानी आप अपनी असमर्थता का आनंद लीजिए और हमें अपनी समर्थता का आनंद लेने दीजिए. हमारे बेहद निजी परिवार में अन्‍य किसी की प्रविष्टि मुमकिन नहीं है. गुंजाइश ही नहीं. एक का वज़न भी मानो दस का वज़न हो जाता है. जैसी अर्थव्‍यवस्‍था होगी, वैसा ही समाज बनेगा. और वैसा ही परिवार. अब उनके माथे पर, पुराने जर्जर भवनों पर लिखे जानेवाले, बड़े अक्षरों में लिखा दिख सकता है- ABANDONED! परित्‍यक्‍त.

यहाँ यथार्थ को कला से विरूपित किए बिना ही पेश कर दिया गया है. यह कलाहीन सादगी ‘ऑर्गेनिक’ है. चालबाज़ी है, षड्यंत्र भी है तो काँच की दीवार के पार है. नग्‍न. किसी दुराव की ज़रूरत नहीं रह गई है. आप देखते हुए अनजान बने रहने के पात्र की भूमिका में हैं. आप कुछ कह नहीं सकते. कुछ भी कहना आप पर चल रहे अज्ञात मुक़दमे को और बिगाड़ देगा.

घर में बुज़ुर्ग शोभा की नहीं, शर्म की वजह हैं.
यह सफ़ेदपोश मध्‍यवर्ग की महत्वाकांक्षा है जो कई चीज़ों को कुचलकर मंज़‍िल पर पहुँचती है. व्‍हाईट कॉलर गर्व. वैसा ही दुख. वही रुदन. और निर्वीर्य पश्चात्ताप.

बस हो तो वे ख़ुद भी अकेले ही रहना चाहेंगे. प्रेम, ध्‍यानाकर्षण, गरिमा और संरक्षण भाव के बिना कौन किसके साथ रह सकता है. बच्‍चे उन्‍हें रखना नहीं चाहते. सरकार अपने ही उपक्रमों को नहीं रख पा रही है. उनका निजीकरण किया जा रहा है लेकिन इन पर कौन निवेश करेगा. ये उजड़ गई कंपनियाँ हैं. कथाएँ, कविताएँ, कलाएँ उन्हें युगों से दर्ज़ कर रही हैं लेकिन वे लोग नहीं जिन्हें इनका इंदराज करना चाहिए. अभी तो बच्चे अपने उल्लास में हैं, अपनी ही चिंताओं में, अपनी आपाधापी में. उनका अपना जीवन ही मानो किसी व्यर्थता में बीता जा रहा है, उसे सँभालना है. इनके बारे में कैसे सोचें.
ये चित्त में हैं मगर अचित्त के चित्त में नहीं.

फ़िल्म से एक दृश्य

(पाँच)

उस अंतिम दृश्‍य को कैसे भूला जा सकता है. शायद डिमेंशिया के बाद भी वह किसी दर्शक की स्‍मृति से न मिट सके. लेकिन उसके पहले वे दृश्‍यांकन, जब वे अपने अब तक के होने का, एक दूसरे की सहयात्रा का पुनराविष्‍कार कर रहे हैं. एक कार सेल्‍समैन की सहृदयता और टेस्‍ट ड्राइव का साक्षात्‍कार करते हुए, कार से उतरकर वे उसे आश्‍वस्‍त करते हैं कि हमने आपकी कार में कुछ भी छुआ नहीं है. वे अपने सज्‍जन होने का सबूत वहाँ दे रहे हैं, जहाँ ज़रूरत नहीं. जैसे सफ़ाई देना आदत हो गई है. जैसे जो ग़लती हुई ही नहीं है, उसके लिए कह रहे हैं कि यह ग़लती हमने नहीं की है.
यही प्रवंचना जीवन का हासिल है.

अब वे एक होटल के सामने हैं, जिसमें पचास वर्ष पहले अपने हनीमून के लिए ठहरे थे. होटल किसी अन्‍य श्रृंखला द्वारा ख़रीदा जा चुका है. प्रबंधन बदल गया है. होटल भी उसी तरह बदल गया है जैसे यह युगल बदल गया है लेकिन दोनों के बदलने की दिशा विपरीत है. नये प्रबंधक को लगता है इस प्राचीन युग्‍म का स्‍वागत करना चाहिए कि आधी शताब्‍दी बाद वे इस होटल में आए हैं. वे उन्‍हें शाम के रात्रि-भोजन का प्रस्‍ताव देते हैं. विरल घड़ी में यह एक विस्‍मयकारी, अनसोचा उपहार है.

यह शाम पिछली अनेक उदास, अनिश्चित और निर्जीव संध्‍याओं से अलग एक दुर्लभ, आत्मीय, अयाचित और पुरस्कृत संध्‍या है. अब पिता तय करता है कि इसे पूरी तरह उत्सव की तरह मनाया जाएगा. कुछ ही घंटों बाद उनका बिछोह तय है. अब वे अपने मिलन के संक्षिप्त समय में बच्‍चों से मिलने नहीं जाएँगें. वे उस नाटक और अभिनय का हिस्‍सेदार नहीं होना चाहते जो बच्‍चों के परिवार उनके सामने पेश करते रहे हैं. माँ चाहती हैं कि बच्‍चों के पास जाएँ क्योंकि वे डिनर पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं.

”हमने पिछले सालों में सैंकड़ों बार डिनर पर उनकी प्रतीक्षा की है. आज वे कर सकते हैं.”

यह बदला नहीं है. प्रतिकार नहीं. अपनी अंतिम ख़ुशी और वानस्‍पतिकता को एक शाम में बचाने का उपक्रम है. चंद लम्‍हों बाद ही अंतिम विदा का क्षण आएगा. इस प्रसन्‍न चमक पर उस विदा की छाया न पड़े. वे जानते हैं कि ख़ुशी का यह बुलबुला बस फूटने को ही है. लेकिन वे इस बारे में बात भी नहीं करेंगे.

बच्‍चों को अहसास है कि वे क्‍या हरकतें कर चुके हैं.
एक क्‍लीव ग्‍लानि उन्‍हें है.
एक नपुंसक बोध.

होटल प्रबंधक समय निकालकर उनके पास बैठता है. उनके व्‍यर्थ, रोमांटिक और दांपत्य के व्‍यतीत समय से लबरेज़ वार्तालाप को भी वह धीरज के साथ और रुचिपूर्वक सुनता है. बार्क कह रहा है कि उसकी पत्‍नी, यह लूसी, पाँच बच्‍चों की माँ और दादी हो जाने के बाद भी सुंदर है. इतना सुंदर कोई नहीं था. कोई नहीं है. तमाम हादसों के बाद भी सुंदरी में लजाने का भाव बचा है. देखो, वैवाहिक जीवन के पचास साल फुर्र हो गए, पता ही नहीं चला.
”ऐसा इसलिए हुआ कि आपको बच्‍चों ने बहुत सुख दिया होगा.”
बार्क कुछ अचकचाता है और तत्काल सँभलकर कहता है-
”शायद आपके कोई बच्‍चे नहीं हैं.”

फ़िल्म से एक दृश्य

(छह)

बार्क अपनी प्रियतमा की तरह-तरह से प्रशंसा कर रहा है, ख़ासतौर पर यह कि उसे संगिनी बनाना ही उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही. निर्णायक बिछोह के पहले वह अपनी सारी प्रेमिल भावनाएँ प्रकट कर देना चाहता है. जो ज़‍िंदगी की, गृहस्‍थी की आपाधापी में पहले न हो सकीं. वह अब अभ‍िधा में सब कुछ कहना चाहता है. मायने व्‍यंजक हैं. माँ समझ रही है. वह भी ऐसा ही करना चाहती है. दो शरीर, एक प्राण. वे अब प्राणों से भी पृथक होने जा रहे हैं. वह स्‍कूल में पढ़ी एक कविता, जो उसे भूली नहीं है, कंठस्‍थ है, के ज़रिये कहती है कि तुम्‍हारे संग चलने का यह रास्‍ता पहले दिन से ही अनजान ख़ुशियों और आँसुओं से भरा हुआ था.
बस, तुम्हारा साथ होने से मुझे कभी कोई भय नहीं रहा.
किसी का भय नहीं.

वाल्‍ट्ज नृत्‍य के लिए संगीत चालू हो चुका है.
वे तमाम युवतर जोड़ों के बीच, साथ में नृत्‍य करना चाहते हैं. लेकिन संगीत की गति तेज़ है. उनकी अवस्‍था उस क्षिप्रता के लिए उपयुक्‍त नहीं. बाक़ी सब नाच रहे हैं. वे अकबकाए खड़े रह जाते हैं. फ्लोर संगीत निदेशक यह देखकर आर्केस्‍ट्रा को, धुन की चाल को धीमा कर देता है. ‘लेट मी कॉल यू स्‍वीटहार्ट’.

अब वे नाच सकते हैं, जैसे उस संगीत पर, जो उनके इस उत्‍तरार्द्ध जीवन में अपने ही परिवार में कभी धीमा नहीं हुआ. उनकी रफ़्तार के अनुकूलन हेतु परिजन ने कभी अपनी रफ़्तार धीमी नहीं की. यह ध्‍यान ही नहीं रखा कि अब वे उसे संवेग, उस प्रवाह, उस द्रुत के साथ नहीं चल सकते. उनकी गति का अभिनंदन पहली बार हुआ. संगीत उनकी चाल को देखकर हमक़दम किया गया. वे अकिंचन कृतज्ञ हैं.
अब चला-चली की बेला है.

वे एक-दूसरे को अपने अपरिमित प्रेम का विश्‍वास दिलाना चाहते हैं. नवीनीकरण करना चाहते हैं. घोषणा करना चाहते हैं. ज़‍िंदगी में पहली बार वे स्‍थूल शब्‍दों का सहारा लेते हैं- ”आई लव यू”, ”आई लव यू टू”. मगर इन अक्षरों के कपास में पानी भर गया है. वे भारी हो गए हैं. वियोग का अहसास तारी होता जा रहा है. उसे प्रकट नहीं करना है. यह एक मर्मांतक कोशिश है. माँ जानती है कि पा को जहाँ जाना है, वहाँ उनका क्‍या होगा, कोई नहीं जानता. सिवाय इसके कि अच्‍छा नहीं होगा. माँ को जहाँ जाना है वह जानती है कि लोग वहाँ एक ही सवाल के दो जवाब देते हैं. सवाल- ”आप यहाँ क्‍यों आए हैं.”
जवाब- ”हमारे बच्‍चे नहीं हैं.”
दूसरा जवाब- ”हमारे बच्‍चे हैं.”

 

फ़िल्म से एक दृश्य

(सात)

वे प्‍लेटफ़ॉर्म पर आ गए हैं.
ट्रेन प्रतीक्षा में खड़ी है. पिता, जिसे अपनी एक अन्‍य संतान के पास जाकर रहना है, जिसके पास केवल एक की जगह है, माँ को आश्वस्त करता है कि वहाँ जल्‍दी ही कोई काम खोज लूँगा. तब तत्‍काल तुम्‍हें अपने पास बुला लूँगा. माँ इस निर्वात में अपनी प्राणवायु भरते हुए उनके विकलांग विश्‍वास को सहारा देती है: हाँ, निश्चय ही ऐसा होगा. झूठी सांत्‍वना से बड़ा करुण मज़ाक़ कोई नहीं. वही सामने है. वे बहुत देर से एक-दूसरे को माँ और पा कहकर संबोधित कर रहे हैं. जैसे इससे अनाथ होने का भाव कुछ कम होता हो. अब एकाध मिनट बचा है.

अब आशंका व्यक्त करने का समय आ गया है.

”किसी हादसे की वजह से, होनी-अनहोनी से यदि हम अब कभी न मिल सकें तो मैं कहना चाहता हूँ कि मेरे जीवन में तुम आईं, इससे बेहतर कुछ नहीं हुआ.”

”यह तुम्हारी ज़‍िंदगी का सबसे सुंदर उद्बोधन है. संवाद है. सुंदरतम संभाषण है. सच मानो, तुम्‍हारे साथ बीता हर क्षण मेरे लिए भी मूल्‍यवान और सुरम्‍य रहा है.”

यह माँ और पा के बिछुड़ने की घड़ी है.
विदाई भाषण या श्रद्धांजलि दी जा चुकी है. पा को लेकर ट्रेन चल दी है. पृथ्‍वी का घूर्णन रुक गया है. उनके सूर्य, उनके चंद्रमा, उनके तारे किसी अज्ञात समुद्र में डूब गए हैं. किसी बड़ी चमक में खो गए हैं. निस्‍तेज हैं. इस बिछोह को रोका नहीं जा सकता. पैसा नहीं है. संसाधन नहीं है. घर नहीं है. जवानी नहीं है. मित्र नहीं हैं. जो हैं वे असहाय हैं. यह अंतिम भेंट है. अंतिम आलिंगन. अंतिम चुंबन. सुखांत कुछ भी नहीं. जो उजाड़ है वह जीवंत है. यह पूँजीवाद का समाज में अपरिहार्य मगर स्वाभाविक हस्तक्षेप है. यह उत्‍तरकाण्‍ड है, जिसे लिखने में लेखक आद‍िकाल से काँपते आए हैं.

संसार का सबसे अच्‍छा दृश्य होता है जब एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को स्‍पर्श करता है. उसका हाथ थामता है. सबसे दारुण वह जब मनुष्‍य किसी मनुष्‍य का हाथ छोड़ देता है. जबकि वह उसका ही हाथ है. एक ही देह का विस्‍तार है. माता-पिता के बिना बच्‍चे अनाथ हो जाते हैं. इस समीकरण को बराबरी पर रखना विडंबनात्‍मक है कि बच्‍चों के बगैर माता-पिता भी अनाथ हो जाते हैं.

माँ की आख़‍िरी मुस्कराहट परदे पर है.
अब एक अकबकहाट आएगी. ख़ाली प्‍लेटफ़ॉर्म रह जाएगा. उस अमर उदासी, अकेलेपन और अवसाद से भरा हुआ, जो रेलगाड़ी के प्रस्‍थान के बाद रह जाता है. गाड़ी जा चुकी है. लूसी को पता है कि उसका कोई ठिकाना नहीं है. प्‍यारे पा से फिर मुलाकात की कोई उम्‍मीद नहीं. ट्रेन भी मानो किसी विदिशा की तरफ़़ गई है.
किसी कंदरा की तरफ़.

वह जा चुकी ट्रेन की तरफ़ से निगाह हटाती है. सूने हो रहे प्‍लेटफ़ॉर्म पर पीछे पलटकर देखती है लेकिन उधर कोई दिशा नहीं है. उपदिशा भी नहीं.
उधर केवल वह अँधेरा है, जिसमें उसे रहना है.

__________

‘मेक वे फ़ॉर टुमारो’-१९३७,
जोसेफ़ीन लॉरेंस के उपन्‍यास ‘इतने लंबे बरस’ पर आधारित.
निदेशक: लियो मेकैरी (Leo McCarey)

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र: काव्‍य पंक्ति- सुमित्रानंदन पंत.

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

Tags: make way for tomorrowविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 24

  1. पंकज मित्र says:
    4 years ago

    हमारे समय के बहुत ही महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज की विरल दृष्टि से फिल्म देखना एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया है। फिल्म समीक्षा की एक अनूठी भाषा और भंगिमा का उद्घाटन भाई कुमार अंबुज की एक बड़ी उपलब्धि है और हम पाठकों की भी। काव्यमयी भाषा में इस फिल्म की समीक्षा पढ़ते हुए जैसे ठेहुनों में पानी भर जाता है। भाई कुमार अंबुज और समालोचन दोनों को बधाई।

    Reply
    • कुमार अम्बुज says:
      4 years ago

      पंकज जी, इस पाठ में आपकी विवेकसंपन्न संवेदनशीलता को भी श्रेय है।

      Reply
  2. Kalpana says:
    4 years ago

    एक -एक शब्द पिघले लोहे सा कितने लोग कितने वृद्ध आखों में कौंध गए. अनेक पीड़ाएं अमिट अक्षरों में ह्रदय में अंकित हो गईं, कुल्हे की हड्डी टूट जाने के बाद मृत्यशय्या पर पड़ी अपनी नानी की कारुणिक दृष्टि आखों में कौंध आई. जिनके लिए प्रयास करने के बावजूद कुछ नहीं कर पाई.

    Reply
  3. Brajesh Kanungo says:
    4 years ago

    बहुत भावुक कर देने वाला विवेचन। शायद मूल फ़िल्म देखकर भी इतनी गहराई तक नहीं उतरा जा सकता था। बागवान देखी थी तो संदर्भ और भावनाएं और जीवन्त होते गए,पढ़ते पढ़ते। जैसे उन सब की कहानी है जो हमारी उम्र से ही गुजर रहे। एक कवि ही इतना बेहतर मार्मिक गद्य रच सकता है। बधाई।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      भाई, बाग़बान में इसकी बेहूदा नकल है। दुखित आत्मा और त्रासदी उसमें एक ‘अजीब सुखांत’ में बदल गई है।

      Reply
      • कुमार अम्बुज says:
        4 years ago

        Brajesh Kanungo भाई,
        इस फ़िल्‍म के अनुकरण, प्रभाव में तब से अब तक कई फ़‍िल्‍में बनी हैं। तीन का ज़‍िक्र उचित होगा- विश्‍व की श्रेष्‍ठतम सूची में सदैव अपनी जगह बनाये रखनेवाली- ‘टोक्‍यो स्‍टोरी’, जो इससे अनुप्राणित थी। शेष दो हिंदी में: ‘ज़‍िंदगी’ और ‘बाग़बान’। इनमें से पहली कुछ कम ख़राब नकल है और दूसरी बेहद ख़राब। सबसे बड़ी ख़राबी इनके आरोपित सुखांत में है जो यथार्थ को चोटिल करता है। और कुछ हद तक राहत की साँस भरकर वेदनामुक्‍त भी बनाता है। लेकिन ज्ञात वजहों से इस महाद्वीप में यही चाहिए। पहली, अपने होने का श्रेय ‘मेक वे फॉर टुमारो’ को लिखकर देती है, दूसरी इसका कोई ज़‍िक्र नहीं करती।

        उन्‍नीस सौ सैंतीस में अमेरिका में यह फ़िल्‍म संभव और सफल थी, ‘टोक्‍यो स्‍टोरी’ जापान के उन्‍नीस सौ तिरेपन में। क्‍योंकि वहाँ पूँजीवादी समाज का वह चरण आ चुका था। भारत में ‘ज़‍िंदगी’ उन्‍नीस सौ छियत्‍तर में असफल होती है क्‍योंकि अभी पारिवारिक संस्था की संयुक्‍तता में उतनी सेंध नहीं लग पाई थी। लेकिन दो हज़ार तीन में ‘बाग़बान’ स्‍वीकार्य थी कि अब ‘मेक वे फॉर टुमारो’ का समाज अधिकांश भारत में भी निर्मित हो रहा था। ग्राह्य था। उजड़ती ग्रामीण अर्थव्‍यव्‍था, शहरोन्‍मुख पलायन और नये शहरी जीवन की संकुलता में यही होना था।

        यशस्‍वी मराठी लेखक कुसुमाग्रज ने महानगरीय सभ्‍यता में इसे पहले ही लक्षित कर लिया था। यद्यपि यह शेक्सपियर के ‘किंगलियर’ से प्रेरित था। यह भविष्‍य दृष्टि थी। उन्‍नीस सौ सत्‍तर में रचित उनके नाटक ‘नटसम्राट’ में समांतर रूप से यही सब था। जिसे श्रीराम लागू ने अपने अभिनय से इतनी ऊँचाई पर लाकर खड़ा किया कि 2016 में जब इस पर प्रभावी फ़िल्‍म बनी तो उसके नायक नाना पाटेकर ने श्रीराम लागू को प्रणाम किया। क्‍योंकि वास्‍तविक नटसम्राट तो श्रीराम लागू ही थे। ‘नटसम्राट’ नाटक की अन्‍य प्रस्‍तुतियों में इस भूमिका के लिए कई और कलाकार भी स्‍मरण में आते हैं, जिसमें एक अनिवार्य नाम सुप्रसिद्ध मंच अभिनेता आलोक चटर्जी का है।

        लगभग नौ दशक पहले जब चार्ली चैप्लिन का वशीकरण घटित हो रहा था, विकासशाील देशों के सिनेमा में धार्मिकता और पौराणिकता का प्रलय मचा हुआ था, उसी समय में अमेरिका और संसार के दूसरे फ़ि‍ल्‍मकार अपने संदर्भ और उपादेयता सीधे सामाजिक प्रत्‍ययों में भी खोज रहे थे। यह फ़िल्‍म जोसेफीन लॉरेंस Josephine Lawrence के उपन्‍यास The Years Are So Long (इतने लंबे बरस) और उस पर लि‍खे नाटक से निर्मित हुई।

        सोचता हूँ उपन्‍यास का नाम भी कितना मानीखेज़ है।

        Reply
  4. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत सही कहा। हम जैसे जैसे उपभोक्ता वादी संस्कृति में कदम बढ़ा रहे हैं विश्व नागरिक बन रहे हैं तो वैश्विक समाज और संस्कृति को भी अपनाना पड़ेगा। वहां बच्चों की अपनी स्वतंत्र जिन्दगी है। वही हमारे समाज में आज घटित हो रहा है। हमारे बच्चे अपनी स्वतंत्रता चाहते हैं तो इसमें क्या गलत है। आप इसे शोकगीत कहें या कुछ और- इसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं। अंबुज जी ने बहुत अच्छा लिखा है। इसके लिए लेखक और संपादक दोनों बधाई के पात्र हैं। – – हरिमोहन शर्मा

    Reply
  5. Dr Om Nishchal says:
    4 years ago

    फिल्म के बहाने समाज की वृद्धों में खत्म।होती दिलचस्पी और खिन्न जीर्ण जीवन की मार्मिक गाथा। कैलाश वाजपेई ने अरसे पहले इस मसले में चर्चा करते हए कहते थे कि अब पश्चिम।की व्याधि यहां भी पनप रही है। कालोनियों में अकेले बूढ़े लोग रह रहे हैं। बच्चे उन्हे छोड़ कर विदेश बस रहे हैं।

    यह तहरीर इस मुद्दे पर एक संवेदनशील अनुशीलन सा है।

    Reply
  6. @satyadev tripaathi says:
    4 years ago

    अब तो फ़िल्म देखनी पड़ेगी…तभी मन मानेगा…। आपने इतना अधीर कर दिया है…

    Reply
  7. ओम निश्चल says:
    4 years ago

    फिल्म के बहाने समाज की वृद्धों में खत्म।होती दिलचस्पी और खिन्न जीर्ण जीवन की मार्मिक गाथा। कैलाश वाजपेई अरसे पहले इस मसले पर चर्चा करते हए कहते थे कि अब पश्चिम।की व्याधि यहां भी पनप रही है। कालोनियों में अकेले बूढ़े लोग रह रहे हैं। बच्चे उन्हे छोड़ कर विदेश बस रहे हैं।

    यह तहरीर इस मुद्दे पर एक संवेदनशील अनुशीलन सा है।

    Reply
  8. शीला रोहेकर says:
    4 years ago

    बेहद बेहतरीन आलेख। मैं इसे पढ़ने के साथ साथ उस पूरी फिल्म को जी भी रही थी ।यह आपकी भाषा और संवेदनशील दृष्टि का कमाल है।
    बधाई।

    Reply
  9. रवि रंजन says:
    4 years ago

    कुमार अम्बुज को इस सार्थक एवं रोचक विश्लेषण के लिए साधुवाद।

    Reply
  10. फ़रीद खान says:
    4 years ago

    पहले सोचा कि फ़िल्म तो देखी नहीं है तो समीक्षा का आनंद कैसे ले पाऊंगा. फिर भी पढ़ना शुरू किया तो धीरे धीरे फ़िल्म ही दिखने लगी. फ़िल्म की पूरी करुणा इस आलेख में उतर आई है. अंतिम खंड में पहुँचते पहुँचते आँखें नम हो जाती हैं. कुमार अम्बुज जी को इस मर्मस्पर्शी आलेख के लिए प्रणाम है. अरुण भाई आपका बहुत बहुत आभार इसको प्रकाशित करने लिए.

    Reply
  11. मधु कांकरिया says:
    4 years ago

    उफ़! कितना मार्मिक, हृदय स्पर्शी।हर वृद्धावस्था शायद इन अनुभवों से गुजरती है। नहीं भी गुजरे तो भी लगा जैसे कहीं यह पटकथा अपनी इबारत न बन जाए।

    Reply
  12. अतुल कटारिया says:
    4 years ago

    कथा को कविता में बदलते और बहते हुए पढ़ना और फिर उसे स्पर्श कर लेना…अम्बुज जी पाठक को चलचित्र के अंदर ले जा कर एक अलग अनुभूति, एक रोमांच का सामना कराते हैं.
    बहुत ही मर्मस्पर्शी व संवेदनशील विवेचना…हमेशा की तरह.

    Reply
  13. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    बागवान इसकी ही अनुकृति जैसी है। आधुनिकतावादी दृष्टि से न्युक्लीअर फैमिली की परिधि में माँ-बाप नहीं आते। पूँजीवाद मानवीय मूल्यों और संबंधों को सबसे पहले नष्ट करता है। आत्मनिर्वासन इसकी अनिवार्य नियति है।लगता है ,अमेरिकी समाज में 1937 में ही यह विखंडन शुरू हो चुका था। बहुत सामयिक और सार्थक विश्लेषण। कु अंबुज जी को साधुवाद !

    Reply
  14. Pushpa Tiwari says:
    4 years ago

    अब उस उम्र में हूं कि इन बातों को केवल पढ़ती नहीं, महसूस करती हूं । करीब बीस साल पहले ऐसी ही एक घटना ने दिमाग पर गहरा असर डाला था जब बच्चों ने अपने माता पिता की घर में ही सीमा बांध दी थी ।निकाले जाने के भय से वे खुद को बांध कर रखे हुए घुटन भरी जिन्दगी जी रहे थे । यह आलेख मार्मिक है । ये स्थितियां ही मार्मिक हैं । मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति न आने पाए इसके लिए भी विद्वानों को कोई सलाह देनी चाहिए।
    हमने अपने लिए और मित्रों के साथ विचार कर एक समाधान ढूंढा है कि आगे के लिए रास्ता बनाने में मोह का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अपना आगे का प्रबंध खुद करते रहना चाहिए। अपना घर नहीं छोड़ना है । और कुछ न कर सकें तो वृद्ध आश्रम तो हैं । संपत्ति के ट्रांसफर होते ही सब शुरू हो जाता है । पैसा बढ़ना और मुफ्त में जिन्दगी की शुरूआत में ही मिल जाना दिमाग खराब करने के लिए काफी है ।

    Reply
  15. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    कुमार अंबुज ने फिल्म को जीवन से जोड़ कर अद्भुत संवेदना से रूबरू करवाया है।सच ही है वृद्ध होना किसी अभिशाप से कम नहीं। विशेषकर जब अर्थाभाव हो ,किसी अन्य तरह की सुरक्षा का अभाव हो।हम सब तेजी से बदल रहे हैं ,इस तीव्रता ने बुर्जुगों को सीख दी है कि वे स्वयं के लिए आर्थिक आधार पुष्ट रखें,भावुकता के जोम में अपनी जमा जथा सब बच्चों के हवाले ना कर दें।परिवार की अवधारणा टूट रही है ।यह आलेख बहुत कुछ सोचने को विवश करता है।अंबुज जी को बधाई।

    Reply
  16. M P Haridev says:
    4 years ago

    अरुण देव जी; मैसेंजर पर दिये गये लिंक से बात नहीं बनी । अंततः आपकी पोस्ट पर पेस्ट किया तब ब्राउज़र पर खुल सका । टिप्पणी लिख रहा हूँ । वृक्ष पर पतझड़ और वसंत का असर आम जन को भी नज़र आता है । लेकिन व्यक्ति के अवसान को हम ‘ झर जाना ‘ नहीं कहते । जबकि यह प्रकिया जीवन का स्थायी हिस्सा है । काल के पर्ण पर कभी-कभी क्रूर और अमानवीय शासकों ने सामूहिक हत्याएँ करायीं । इतिहास के ये हतभागी पृष्ठ मिटाये नहीं जा सकते । कुमार अंबुज ने एक फ़िल्म ‘ मेक वे फ़ॉर टुमारो ‘ के ज़रिए आगामी ख़ुशनुमा समाज के निर्माण की आशा की है । इन्हीं के लेख से मालूम हुआ कि फ़िल्म बाग़बान ऊपर लिखी गयी पिक्चर का हिन्दी मेक है । अमीर पश्चिमी देशों में वृद्धाश्रमों की भरमार है । मानो उनके रहन-सहन का हिस्सा । उन वृद्धों के बच्चे अपने माता-पिता के जन्मदिन या शादी की सालगिरह पर अपने माता और पिता को मिल आते हैं । कुमार जी लेख को पढ़ने के लिए मैं पीछे लौटूँ उससे पहले लिख रहा हूँ कि हिन्दुस्तान में भी ऐसे वृद्धाश्रमों का उदय हुआ है । भारत की धरती अब बच्चों के अनाथालयों से आगे बढ़ गयी है । नवदंपत्तियों को समझ क्यों नहीं आती कि उनके वृद्ध होने पर उनके बच्चे वृद्धाश्रमों में छोड़ आयेंगे । कुमार अंबुज ने वृद्धों को पुनः आत्म सम्मान के साथ जीने के दुरुह अवसर ढूँढने की कल्पना की है । जिनके अपने हाथ-पाँव ठीक तरीक़े से काम नहीं करते वे अपने सम्मान के लिए रोज़गार तलाशते हैं । मेरे जीवन का निजी अनुभव है-मैं जहाँ पाँव रखना चाहता हूँ वहाँ नहीं रख पाता । दाँतों को साफ़ करने लगता हूँ तो कोई भी टाँग अनियंत्रित होकर कहीं और जा पड़ती है । खाते खोलने के फ़ॉर्मों पर बीस हज़ार से भी अधिक हस्ताक्षर किये । एक फ़ॉर्म पर नौ जगहों पर हस्ताक्षर किये । क्योंकि अनिवार्य था । बाक़ी अफ़सरों को दो स्थानों पर हस्ताक्षर करके मुक्ति पाते हुए देखा । चेक ओर रक़म निकालने के फ़ॉर्म पास करने के लिए अनगिनत दस्तख़त किये । अब मेरे हाथ काँपने लगे हैं । अपने हस्ताक्षर ठीक तरह से नहीं कर सकता । स्टाफ़ सदस्य होने के कारण मेरे चेकों को पास करते समय आफ़िसर अनदेखी कर देते हैं । डॉक्टर ने कहा है कि आपमें Parkinson रोग की शुरुआत हो गयी ।
    अगली टिप्पणी अगले कॉलम में ।

    Reply
  17. M P Haridev says:
    4 years ago

    (दो): यह हिसार ज़्यादा भयावह प्रतीत होता है । बल्कि यह कहना उचित होगा कि यह वस्तुस्थिति है । शादीशुदा बच्चों को माता-पिता सीसीटीवी कैमरों की तरह दिखते हैं । मेरे एक मित्र अमेरिका में रहते हैं । उनके अनुसार वहाँ दफ़्तरों और निजी व्यवसायों पर समय पर पहुँचने का अनुशासन हैं । वाहन चालक अनुशासनहीन नहीं हैं । पैदल यात्रियों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना है । लेकिन भ्रष्टाचार है ।
    उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवक और युवतियाँ महानगरों में नौकरी करते हैं । एक दफ़्तर में काम करते हुए युवकों और युवतियों के बीज प्रेम-पल्लव होता है । कुछेक विवाह में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार नाभिकीय परिवारों का तेज़ी से उदय हो रहा है । जल्दी ही भारत पश्चिमी जीवनशैली में ढल जायेगा । फिर एक घर में वृद्ध माता-पिता को रखने के लिए जगह नहीं मिलेगी । मैं नहीं जानता कि मन में जगह नहीं है या दिलों में नहीं है ।
    “हम अपने शहर में आबाद भी हैं ख़ुश भी हैं
    ये सच तो नहीं मगर एतबार करना है”

    Reply
  18. M P Haridev says:
    4 years ago

    चार: एक युवक और एक युवती विवाह करते हैं । उनके जन्म उनके माता-पिता ने दिये थे । पृथ्वी पर प्राणी जगत के पैदा होने के बाद यह क्रम अनवरत जारी है । यों माता-पिता तब बनते हैं जब उनकी संतान पैदा होती है । मुझे अटपटा प्रतीत हुआ कि माता-पिता ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी नहीं उठाते । ज़िम्मेदारी उठाते हुए ही उन्होंने अपनी संतानों को जन्म दिया था । बच्चे जितना योग्य थे उतना पढ़े । मैं ज़िम्मेदार पुत्र नहीं था । कम अंकों से परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं । हम ग़रीब थे, लेकिन मैं मेरिट लेकर पास होता तो पंजाब विश्वविद्यालय में M.Sc. Physics में दाख़िला लेने के लिए मुझे वज़ीफ़ा मिलता । तब प्रोफ़ेसर बनने के लिए Ph.D. होने की शर्त नहीं थी । मैं कॉलेज में प्राध्यापक हो सकता था । वृद्धावस्था प्राप्त अपने माता-पिता को जीवनयापन की अधिक सुविधाएँ दे सकता था । मेरे लाल जी (पिता जी) ने ज़िंदगी चलाने के लिए चौथी जमात में दर्ज़ी का काम एक मुस्लिम उस्ताद से सीखा । चाचा जी पाकिस्तान के मुल्तान ज़िले में आठवीं कक्षा में टॉपर रहे । देश के विभाजन के बाद मुल्तान ज़िले को हिसार (हरियाणा) ज़िला आवंटित हुआ । विभाजन ने हमें अधिक ग़रीबी में धकेल दिया । मेरे लाल जी व चाचा जी ज़िम्मेदार निकले । मैं निकम्मा बैंक में क्लर्क भर्ती हुआ । घर के हालात ख़राब थे । इस कारण अपने नगर में विशेष सहायक ही बनने को मजबूर होना पड़ा ।
    कुमार जी; आपने भारतीय पृष्ठभूमि को ख़याल में रखकर यह हिस्सा लिखा होता तो इसका narrative अलग होता । जैसे आपने अपने कहानी संग्रह में माँ कहानी का संवेदनशील वर्णन किया था ।

    Reply
  19. Anonymous says:
    3 years ago

    मर्मस्पर्शी व संवेदनशील विवेचना ।

    Reply
  20. Shashi sharma. says:
    3 years ago

    बहुत जीवन्त लेख।

    Reply
  21. हंसा दीप says:
    3 years ago

    बेहतरीन श्रृंखला। उम्र के शिखर पर खड़े लोग, उनकी भावनाएँ और लेखक का मर्मस्पर्शी चित्रण। कुमार अंबुज जी की भाषा के प्रवाह में पाठक बहता चला जाता है। उत्कृष्ट सामग्री के लिए अरुण देव जी, समालोचन का हार्दिक आभार।

    Reply

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