दलाई लामा एक प्रकाश-पुरुष की उपस्थिति ________________________ गगन गिल |
कुछ बरस पहले, जनवरी 2011 में, यहीं सारनाथ में दलाई लामा जी के हाथों मेरी दीक्षा हुई थी, और मेरे भीतर के अनाथ व्यक्ति को जैसे प्रकाश की किरण मिल गई थी. मेरा कोई पुण्य अवश्य फलित हुआ था.
उससे भी पहले सन् 1997 में मेरे स्वर्गीय पति श्री निर्मल वर्मा को बुद्ध पूर्णिमा के दिन दलाई लामा जी के हाथों भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान मिला था. उस समय निर्मल भी मेरी तरह रोमांचित थे.
मैं ये संयोग हम दोनों के जीवन के विशेष संकेतक मानती हूँ. और शायद हम दो व्यक्तियों के ज़रिए उन सब भारतीयों के लिए, जिन्होंने दलाई लामा को जैसा प्रेम, जैसी श्रद्धा अर्पित की है, स्वतंत्र भारत के किसी अन्य महापुरुष को नहीं.
इस देश में कौन कल्पना कर सकता था कि बुद्ध धर्म जो हमारे बीच से लोप तो नहीं, अदृश्य हो गया था, तिब्बत से आये युवा महात्मा को देख-सुन कर ऐसा भाव विगलित हो जाएगा जैसे हमारा ही कोई बिछुड़ा हुआ आन पहुँचा हो!
ढाई हज़ार बरस पहले क्या इसी क्षण की भविष्यवाणी प्रज्ञापारमिता में कर दी गई थी?
सन् 1956 की तस्वीरें देखें, युवा तेजस्वी दलाई लामा को अपलक निहारते हुए पंडित नेहरू, तो एक क्षण भ्रम होता है. यह किसी भविष्य-कथन का क्षण है या कि हमारे आधुनिक इतिहास का?
दलाई लामा की आभा ने ज़रूर पंडित नेहरू और उनकी पीढ़ी में कोई प्राचीन स्मृति जीवित की होगी. और उसके बाद भी अनेक लोगों में. जिसे कार्ल जुंग ने आंतरिक जागरण का क्षण कहा था.
परम पावन एक दिन में तो हमारे इतने अपने, इतने आदरणीय हुए न होंगे. इस नए-नए स्वतंत्र हुए देश में निर्वासन और विस्थापन की स्थितियों में अपने छोटे-से समुदाय की मेहनती और गरिमामयी उपस्थिति बनाने में उन्होंने कई प्रकार की योजनाएं बनाई होंगी, भरोसेमंद साथियों को चुना होगा.
लगभग समानांतर समय में तिब्बत की प्राचीन शिक्षा को आधुनिक भारत में रोंपना और विस्मृत भारत की सोई हुई मेधा जगाना आसान न रहा होगा.
भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमें एक विचित्र घटाटोप में फेंकती है. हम संसार को पश्चिमी शैली की तर्कशील, तर्कसंगत दृष्टि से समझना सीखते हैं और एक बड़े अदृश्य संसार के प्रति आँख-कान बंद कर लेते हैं.
विचित्र यह भी कि दर्शन हो या विज्ञान, जो भी तर्क से परे है, अबूझ है, वही हमें बुलाता रहता है. उसी के पीछे जाने से कोई नया सत्य, कोई नया नियम उद्घाटित होता है.
हमारे यहाँ कहते हैं न- एक चिड़िया, अनेक चिड़िया!

आपको मैडम क्यूरी के रेडियम आविष्कार की घटना याद होगी. प्रयोगशाला में कार्य करते हुए एक दिन उन्होंने देखा, नीली रोशनी में छोटे-छोटे कण चमक रहे हैं. चमक रहे हैं और बदल रहे हैं. स्कूल के दिनों में हम यह वृतांत पढ़ते थे.
आध्यात्मिक सत्य पाने का क्षण शायद ऐसा ही होता हो. आप नित्यप्रति की घटना में कुछ अलग-सा होता हुआ देख लेते हैं. एक higher order, एक ब्रह्मांडीय प्रक्रिया. प्रतीत्यसमुत्पाद. जिसे भगवान् बुद्ध ने प्रयोगशाला के बिना ही एक वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे अपने ध्यान में देख लिया था!
बौद्ध विद्वान जब कहते हैं, समस्त वैज्ञानिक और मानसिक ज्ञान बुद्ध ने सदियों पहले जान लिया था, तो हमें गर्व होता है. जब दलाई लामा पश्चिमी वैज्ञानिकों के प्रयोगों में सम्मिलित होते हैं, और प्रयोगशाला के परिणाम वही निकलते हैं जो परम पावन अपनी परंपरा, अपनी अंत:प्रज्ञा से जानते हैं तो हमें गर्व होता है.
पश्चिमी वैज्ञानिक एक ध्यानशील भिक्षु के सिर में इलेक्ट्रोड लगाकर जिस छवि को स्क्रीन पर देखने की प्रतीक्षा करते हैं, उसका सहज अनुभव हर साधक को है.
साधक को अपना अंतर्ज्ञान सिद्ध करने की बाध्यता नहीं. उसका निःशब्द अनुभव हर वह व्यक्ति सत्यापित कर देगा जो ध्यान साधना करता है. आधुनिक विज्ञान अभी भी बुद्ध के ज्ञान से बहुत पीछे है.
एक और उदाहरण देखिए. थंगका चित्र.
ध्यान के लिए बनाये गए ये देव चित्र ध्यान में ही देखे गये हैं. किसी तपस्वी ने उन्हें ध्यान में देखा, उसका विवरण बताया, उनका रंग, उनका आकार, उनकी भंगिमा, उनका स्वरूप, उनकी शक्ति.
किसी दूसरे ने, जो अभी भावना की उस सीढ़ी तक नहीं पहुँचा, उसे चित्रित किया. ऐसे भी शिष्य हैं जो अभी सीढ़ी चढ़े ही नहीं.
गुरु उन्हें रास्ता बताते हैं. इस-इस रास्ते से आओगे तो यहाँ पहुँच जाओगे जहाँ मैं खड़ा हूँ. फिर वही देख लोगे जो मैं देख रहा हूँ.
ध्यान-चित्र एक अदृश्य रस्सी है जिसे पकड़ कर साधक को साधना का पहाड़ चढ़ना है. गुरु योग, गुरु ध्यान, गुरु के गुरु से होते हुए, परंपरा के सब गुरुओं से होते हुए भगवान बुद्ध ने जो अनुभूत किया, उस तक धीरे-धीरे पहुंचना.
आप सब इस प्रक्रिया को मुझसे बेहतर जानते हैं.

मैंने सत्य जानने की इन दो प्रक्रियाओं का उल्लेख इसलिए किया कि आपको कुछ बता सकूँ.
जिस ज्ञान को आप लोगों ने गुरु योग से जाना होगा, मैं उस तक मैडम क्यूरी वाले रास्ते से पहुँची. मुझे हैरानी हुई, विक्षोभ भी, कि एक सहज, मेरे स्वभाव- अनुकूल रास्ता तो मेरी परम्परा में ही प्राप्य था, फिर मैं इतना टेढ़ा रास्ता क्यों गई.
दरअसल ज्ञान ढूँढते हुए भी हम ज्ञान के पार जाना चाहते हैं. कुछ है जो हमेशा अबूझ रहेगा. कुछ है जो केवल गुरु ही आपको बताएगा. जो पुस्तक में दर्ज है, वह ज्ञान नहीं. जो उस दर्ज किए से कोई परम गुरु निचोड़ेगा, वह ज्ञान है.
आधुनिक शिक्षा ज्ञान तक जाकर रुक जाती है जबकि पारंपरिक शिक्षा अबूझ का द्वार कभी बंद नहीं होने देती. यह एक बड़ा अंतर है, भारी विडंबना भी.
आपको एक हँसी की बात सुनाती हूँ. शुरू-शुरू में जब मैंने सुना, कोई चालीस साल पहले, कि दलाई लामा बुद्ध का अवतार हैं, तो मुझे लगा, वह तथागत जैसे दिखते होंगे. जब उनके नयन-नक्श देखे तो मुझे काफ़ी निराशा हुई. तब मेरी बुद्धि इतनी ही थी कि मैं बुद्ध को भौतिक रेखाओं में ढूँढूँ.
बुद्ध एक प्रकाश-पुंज हैं, दलाई लामा जैसे महापुरुष उस प्रकाश का भौतिक आकार – यह मैंने धीरे-धीरे जाना. जब जाना तो सब मेरे सामने खुलता चला गया.
अवतार पुरुष में बुद्ध का प्रकाश हो, तब भी उसकी सांसारिक यात्रा कैसी विकट हो सकती है, उसे कैसा अग्नि स्नान करना पड़ता है, यह उन के जीवन को देख कर समझा जा सकता है. अवतारों को अपने समय की आग पर अडिग चल कर दिखाना ही पड़ता है, तभी वह अवतार कहलाते हैं. भारतीय परम्परा में कोई अवतार ऐसा नहीं जिसका जीवन आसान रहा हो.
यदि मेरी भावना में महात्मा बुद्ध-दलाई लामा-रिनपोछे अभिन्न हैं तो मेरा कोई पूर्व गुरुयोग अवश्य होगा.
मैंने बौद्ध ग्रंथ विधिवत् नहीं पढ़े.
पहली बार जब मार्च 1997 में यहाँ आना हुआ था, प्रोफेसर सरन की पुस्तक ‘द ट्रेडिशनल थॉट’ पर सेमीनार में, तो संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तकें देख कर विस्मय हुआ कि यह सब भी भारत में था! भोटी भाषा से सीधे संस्कृत में पुनर्जीवित किए गए हमारे बौद्ध ग्रंथ. भारत को तिब्बती ज्ञान संपदा की अपूर्व देन. उन्होंने हमारी साभ्यतिक स्मृति भी लौटाई, विलुप्त हुए प्राचीन ग्रंथ भी.
तब तक मैंने हार्वर्ड, हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय देख रखे थे, नालंदा कैसा रहा होगा, इसकी कल्पना नहीं कर पाती थी. यहाँ सारनाथ संस्थान के क्लास रूम में गुरु जी का पारंपरिक आसन देख कर लगा, प्राचीन भारत का कोई गुरुकुल है. मगर आधुनिक भी कैसा!
सन् 1990 में वॉशिंगटन की लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में मैंने माइक्रोफ़िश पर प्राचीन पुस्तकें देखीं थीं, उसके बाद यहाँ. और मैक कंप्यूटर जिन्हें सिर्फ़ अमेरिका में देखा था.
यह कैसा प्रकाशित चित्त है, ऐसा प्राचीन ऐसा आधुनिक! ऐसा समकालीन, ऐसा स्पर्शनीय.
टैगोर ने इसे शांति निकेतन में पुन: प्रतिष्ठित किया था और अब दलाई लामा के निर्देशन में रिनपोछे ने सारनाथ में !
क्या यही वह क्लियर लाइट है, वह मौलिक तेजस, जिसकी बात महात्मा बुद्ध करते हैं?
क्लियर लाइट भी तभी पकड़ में आती है जब वह भौतिक आकार ले. उसका मानव शरीर झंझावातों में से गुज़रे और उसकी ज्योति निष्कंप बनी रहे.
यदि हम में से कुछ का सामना दलाई लामा से न हुआ होता तो क्या हम कभी इस क्लियर लाइट को जान सकते थे?
यह निश्छल, भोली, किसी दूर देश की मुस्कान. बच्चे की तरह किसी साधु महात्मा की दाढ़ी छेड़ देना! भीड़ में किसी लूले के ठूँठ हाथ पकड़ कर सहलाने लगना.
यहाँ सारनाथ में अंधे बच्चों का ईसाई विद्यालय है, जीवन ज्योति. ईसाई नन्स उसे चलाती हैं और दलाई लामा ट्रस्ट उसका सहयोग करता है. ऐसे कितने ही उनके सहयोग हैं, भिन्न समुदायों से, संस्थाओं से.
सहज परमार्थ.
मैं ही बनूँ वैद्य, मैं ही दवा
परिचारक भी मैं बनूँ बीमार इस विश्व का
सबके स्वस्थ होने तक
शान्तिदेव के शब्द. समय पर से गुज़रती दलाई लामा की छाया. करुणामयी.
विश्वास नहीं होता, वह एक ही समय में इतने विविध काम निष्पन्न करते हैं. बौद्ध ग्रंथों पर देशनाएँ. बौद्धिक और कूटनीतिक विनिमय. चीन जैसी आततायी ताक़त के सामने अहिंसा पर अडिग. जिस तिब्बत में उनकी तस्वीर रखना तक वर्जित है, वहाँ की जनता के दिल में उनकी उजली छवि का संबल निरंतर बना हुआ है.

क्या आज हम ऐसे स्वतंत्र भारत की कल्पना कर सकते हैं जहाँ निर्वासित होकर दलाई लामा न आये होते?
तब यह देश, यह समाज कैसा रहा होता?
निश्चित ही यह देश विस्मृति से अर्द्धमूर्च्छित, पश्चिमी सभ्यता की पूँछ में बँधा समाज होता, न कौआ न मोर.
अंग्रेज़ों से अधिक स्वयं हमने अपने शास्त्रीय ज्ञान स्तंभ तोड़े हैं, पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को हेय माना है. शास्त्रीय विद्वानों का उपहास किया है. गुरुकुल प्रणाली की खिल्ली उड़ाई है, उसकी शिक्षा को आधुनिक शिक्षा से कमतर माना है.
ज्ञानियों को पोंगा कह कर हमने उनकी नहीं, अपनी गरिमा का ह्रास किया है.
यह इसलिए भी संभव हुआ होगा कि हमारे यहाँ ज्ञान और चरित्र में फाँक रही होगी. ज्ञान एक प्रकार का बिम्ब गढ़ता होगा और चरित्र उसे आत्मसात न करता होगा. व्यक्ति के चरित्र-दोष ने ही परम्परा को क्षीण किया होगा.
दलाई लामा और उनके साथियों का भारत आना जैसे एक संक्रमण काल है. इतिहास के एक विकट बिंदु पर दो प्राचीन संस्कृतियां मिलती हैं- भारत और तिब्बत. दोनों संकटग्रस्त हैं. एक के लिए आत्म-मूर्च्छा का संकट है, दूसरे के लिए अस्तित्व का.
दोनों का जीवन-स्रोत एक ही है. परस्पर संपर्क में आते ही दोनों एक दूसरे को पुनर्जीवित करती हैं.
जैसे ही हम प्राचीन नालंदा को तिब्बती संस्थान में जीवित होता देखते हैं, हमारी भारतीय मनीषा का सूखा काठ हरा होने लगता है. हमारे सताए गए विद्वानों को प्रतिष्ठा मिलती है. उनकी बात सुनने-समझने वाले मुखर होकर सामने आने लगते हैं. अनेक मंचों पर परंपरा से विच्छिन्नता कैसे कम हो, इस पर विमर्श होते हैं.
भारत सरकार उत्साहित हो कर एक आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय बनाती है मगर वह पॉलिटेक्निक जैसा कुछ घाल मेल बन कर रह जाता है क्योंकि उसकी संकल्पना करने वाला कोई शास्त्रीय विद्वान नहीं है.
फिर दूसरा उद्यम होता है, सांची बौद्ध विश्वविद्यालय आकार लेता है, लेकिन वह भी आदर्श नहीं. कुछ है जो भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली के संपर्क में आते ही क्षीण हो जाता है.
जिन्होंने उस विशुद्ध नालंदा परंपरा को जाना है, वही इसका पुनर्निर्माण कर सकते हैं. अब दलाई लामा रिनपोछे जी के निर्देशन में बोधगया में प्राचीन तिब्बती भारतीय ज्ञान संस्थान बनवा रहे हैं. इसकी परिकल्पना में लचक है. यह शायद आधुनिक-प्राचीन ज्ञान की खाई लाँघ जायेगा. यहाँ कहीं द्वैत नहीं. न देशना समझने में, न उसका कार्यान्वयन करने में.
साध्य के लिए साधन भी शुद्ध हो, गाँधी जी इसकी बात कर गये थे. दलाई लामा यह कर दिखाते हैं.
कभी-कभी लगता है, दलाई लामा के सहयोगी यदि कोई अन्य रहे होते, रिनपोछे से कमतर, तो क्या तब भी ये प्रयास, ये हस्तक्षेप इतने ही प्रभावी रहे होते?
इन दो महात्माओं के संयोग और कारण की युति को भी हमें समझना चाहिए. उनके अगले अवतरण को रिनपोछे के निर्देशन में उनके ट्रस्ट द्वारा पहचाना जाये, यह महती जिम्मेवारी उन्होंने दी है.
यही है, जोत से जोत जले?
मेरी यह आस्था, यह नतमस्तक उस अकम्प ज्योति के लिए जिसे दलाई लामा ने साक्षात किया.
यह हमारे भारतीय दाल-चावल का सौभाग्य है, कि उसने दलाई लामा की पुण्य देह को पोसा है, उनके निर्वासन की दुर्घटना को भारतीयों के लिए उत्सव बनाया है. परम पावन ने हमें हमारी सांस्कृतिक मूर्च्छा से उठाया है. ऐसा असंभव कार्य कोई रत्न पुरुष ही कर सकता था. वह सच्चे अर्थों में भारत रत्न हैं.
(6 जुलाई, 2025 .दलाई लामा के 90 वें जन्मदिन के अवसर पर तिब्बती संस्थान, सारनाथ में आयोजित सभा के लिए लिखा गया.)
गगन गिल एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (२०१८). कविता संग्रह तथा अवाक् (2008), देह की मुँडेर पर (2018) और इत्यादि (2018) आदि गद्य-कृतियाँ प्रकाशित.भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति पुरस्कार (1989), केदार सम्मान (2000), आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम द्वारा आमंत्रित (1990), हारवर्ड यूनिवर्सिटी की नीमेन पत्रकार फैलो (1992-93), संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो (1994-96), साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादमी – 2009), द्विजदेव सम्मान (2010). 2024 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि से सम्मानित.ई-मेल : gagangill791@hotmail.com |
जो गगन गिल ने कहा सच भी है और प्रेरक भी। अगर हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में उसका अंश मात्र भी पालन कर सकें तो बहुत कुछ बदल सकता है । पर मुश्किल यह है आज के समय में सत्ता ने व्यक्ति और उसकी चेतना व ज्ञान को निरर्थक बना दिया है। पारंपरिक जान और संस्कृति की उसकी अपनी परिभाषा है, जिसमें केवल कर्मकांड और अंधविश्वास है। उसका ध्येय, हर प्रकार के जान को, चाहे वह पश्चिम से सीखा आधुनिक हो या हमारी जमीन से उपजा तर्कसंगत प्राचीन, उसे प्रताड़ित करके विचारक और विचार को अपराधी घोषित करना है। इस नकारात्मक, आत्मकेंद्रित और तानाशाही सत्ता के सामने हम चाहे बुद्ध को आत्मसात करें , चाहे जैन दर्शन को, उससे हमारा निजी उद्धार भले हो, समाज, व्यवस्था, जनता का कोई भला नहीं होगा। उसे विचारहीन और प्रभावहीन बनाने का अभियान जारी रहेगा। इस अपार दुख को अपने भीतर महसूस करने के सामने निजी तौर पर ज्योति का दर्शन हमें कम से कम मुझे, सुख शांति देने के बजाय अपरिमेय दुख से भर जाता है। जो स्वयं भगवान बुद्ध ने अंतर तक उद्वेलित हो कर महसूस किया था। उसी से फूटी थी वह ज्योर्तिमय विवेचना वो उपदेश , जिसके लिए आज हम सर्वथा दंडनीय बना दिए गए हैं। अब क्या वैसी सार्वभौमिक
वैचारिक और राजनीतिक क्रांति होगी जिसने बुद्ध दर्शन द्वारा केवल भारत ही नहीं, चीन ,जापान, थाईलैंड जैसे अनेक देशों को बदल कर रख दिया था।
मुझे संदेह है। मेरे भीतर वह साहस और प्रबंधन या संयोजक शक्ति नहीं है जो पूरे देश के अधिकतर नागरिकों को क्रांति के लिए प्रेरित और संचालित कर सके। अगर गगन गिल कर सकें तो मेरा उन्हें कोटिश प्रणाम और मृत्यु पर्यंत आभार।
आकिंचन मृदुला गर्ग