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Home » दिलीप कुमार और उनका सिनेमा: सुशील कृष्ण गोरे

दिलीप कुमार और उनका सिनेमा: सुशील कृष्ण गोरे

अभिनेता दिलीप कुमार की प्रसिद्धि असाधारण थी, वह अद्वितीय हैं. जिस तरह से उनके व्यक्तित्व में गहराई है उसी तरह से उनके अभिनय की भी अनेक परतें हैं. सुशील कृष्ण गोरे फिल्मों पर लिखते हैं, दिलीप कुमार पर उनका यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
July 20, 2021
in कला, फिल्म
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दिलीप कुमार और उनका सिनेमा: सुशील कृष्ण गोरे
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दिलीप कुमार और उनका सिनेमा
सुशील कृष्ण गोरे

दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के युगप्रवर्तक रहे हैं. यह कहा जा सकता है कि दिलीप कुमार से हिंदी सिनेमा में एक नए अभिनेता का आगमन हुआ जो फिल्मों का मुख्य कथा-नायक बनकर उभरा. उसका किरदार फिल्म की केंद्रीयता में मजबूती से विकसित होने लगा. दिलीप कुमार की कला ने उसको उत्कृष्टता की ऊंचाइयों तक पहुंचाया. सिनेमा में एक्टिंग को किरदारों को जीने, न कि निभाने की परिभाषा से जोड़ा. अपने हुनर से अदायगी को एक नया मेयार दिया.

हिंदी सिनेमा के एक दिग्गज के रूप में उनकी निजी जिंदग़ी से जुड़ी बहुत सारी बातें कही जा सकती हैं– मसलन उनके भीतर एक पेशावर आखिरी सांस तक बस रहा, फलों के बागीचे, फुटबॉल, क्रिकेट का उनका जबरदस्त शौक और फिर बड़े भाई की बीमारी के कारण अचानक मुंबई की तरफ परिवार के साथ रुखसत, देवलाली, पुणे के दिन. फिर उसके बाद इत्तफाक से तब की बंबई के मलाड में स्थित हिमांशु रॉय द्वारा स्थापित मशहूर स्टूडियो बॉम्बे टॉकिज में प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी से मुलाकात और बिना किसी तैयारी के एक फिल्मी सफ़र का आगाज़– 1944 में बनी ज्वार-भाटा से. इस प्रकार मुकद्दर के खेल ने अपने पिता गुलाम सरवर खान के फलों के धंधे में जाने वाले युसूफ खान को हिंदी सिनेमा का शिखर पुरूष दिलीप कुमार बना दिया. लेकिन, मुकद्दर के फैसले को इतिहास रचने के एक बेमिसाल मुकाम तक पहुँचाया दिलीप कुमार की मेहनत, काबिलीयत, हुनरमंदी और सबसे बड़ी बात उनकी पेशेवराना ईमानदारी ने. कर्मनिष्ठा और ईमानदारी का यह नैतिक सबक उनको अपने पठानी परिवार के माहौल से संस्कार में मिला था जिसमें आमदनी का आधार नैतिक होना एक उसूल की तरह माना जाता था.

हम यहीं से उनकी कुल जमा लगभग 60-65 फिल्मों के नाम गिनाने या उनकी निजी कहानियां सुनाने की बजाय इन फिल्मों के जरिए फिल्मी दुनिया का एक नया इतिहास रच देने वाले वाले दिलीप कुमार की फिल्मी कला पर चंद बातें कर सकते हैं. लगभग छह दशकों के आर-पार फैला एक लंबा कालखंड– लेकिन उनके खाते में केवल छह दहाई की फिल्में ? इतना ऊंचा कद, इतना ज़लवा, इतनी मक़बूलियत, इतने आफर के बावज़ूद. यह आकंड़ा उस दौर के लिए भी उनके समकालीन कलाकारों से तुलना की जाए तो बहुत कम है. इस प्रश्न का संबंध दिलीप कुमार के मेथड एक्टर से भी हो सकता है. वे एक समय में एक से ज्यादा फिल्में नहीं करते थे.

1944 के जिस जमाने में दिलीप कुमार ने फिल्मों के क्षेत्र में कदम रखा वह समय हिंदी सिनेमा निर्माण के अपने प्रारंभिक काल में ही था. मूक से बोलती फिल्म और टेक्नीकलर रंगीन फिल्मों का निर्माण अभी शुरू ही हुआ था. ज्यादातर फिल्मों का केंद्रीय विषय कोई आख्यान या कोई संदेश होता था. धीरे-धीरे उनमें जीवन के यथार्थ, प्रेम और संगीत आदि तत्वों का भी समावेश और चित्रण शुरू हो रहा था.  कैमरे के चलचित्र में अभिनय का दायरा अभी बहुत सपाट, कृत्रिम और नाटकीय फिल्मांकन तक सीमित था. उसका प्रारूप अभी मानवीय जीवन और मन के आंतरिक और सूक्ष्म मनोभावों का संघर्ष और उनकी जटिल संरचनाओं की अभिव्यक्तियों को अभिनीत नहीं कर रहा था. लेकिन, फिल्मकार नए प्रयोगों के साथ हिंदी सिनेमा की धारा को आगे बढ़ा रहे थे. 1935 में भी कुंदनलाल सहगल तथा जमुना बरुआ अभिनीत फिल्म देवदास बन चुकी थी. प्रेम सिनेमा के शिल्प में ढल रहा था. उनके समकालीन राज कपूर का अल्हड़ता-भरा प्यार और देव आनंद का शोखियों में घुला फूलों के शबाब में सराबोर प्यार हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग रच रहा था.

ऐसे में सवाल उठता है कि दिलीप कुमार ने अपना एक अलग रास्ता कैसे बनाया? क्या बुनियादी फर्क़ पैदा किया जिससे वे अपना एक स्कूल बना पाए जिसे आज उनके जाने के बाद एक बार फिर से बहुत याद किया जा रहा है.

इसे समझने के सूत्र दिलीप कुमार की अभिनय क्षमता में तलाशे जा सकते हैं. वे लीक से हटते हुए अभिनय के साथ नया प्रयोग शुरू किया. वह प्रचलित हुआ और प्रतिमान बनाता चला गया. उनकी मौलिकता यहां दिखती है कि उन्होंने अभिनय को उसका अंतर्मन दिया. उसमें पात्रों की इच्छाओं, सपनों, संकटों, संघर्षों, तनावों, विह्वलताओं, मजबूरियों आदि की तमाम अंतरंग संवेदनाओं को उकेरा. आप विचार कर सकते हैं कि इस रूप में दिलीप कुमार एक आधुनिक संवेदना के अभिनेता भी ठहराए जा सकते हैं जो अपने किरदारों के माध्यम से कई स्तरों पर अपने समय की नई आकांक्षाओं को बयां कर रहे थे.  वे सिनेमा में मानवीय गरिमा की नई तस्वीरें बना रहे थे.

इसे थोड़ा अलग ढंग से विश्लेषित करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि दिलीप कुमार ने वाचिक शोर से हटाकर दृश्यों को मौन के कलात्मक प्रभाव से जोड़ा. उसे उसका सौंदर्य और अभिजात्य दिया.  उसे कलागत रूप से अधिक मानवीय एवं यथार्थवादी बनाया. उसको इतना तराशा कि वह प्रत्यक्ष के पीछे की भावनात्मक तीव्रताओं को किरदार के अंतरंग में प्रतिस्थापित कर दे.

इस संदर्भ में मशहूर गीतकर लेखक जावेद अख्तर ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि

‘दिलीप कुमार पहले अभिनेता थे जिन्होंने अभिनय को उसका एक स्ट्रक्चर दिया. उसकी संरचना गढ़ी. वे अशोक कुमार और उनके अभिनय दोनों का सम्मान करते थे लेकिन उन्होंने कभी अशोक कुमार की नकल नहीं की. दिलीप कुमार का अभिनय सहज ज्ञान पर आधारित था.’

इस क्रम में दिलीप कुमार ने बहुत अलग ढंग से और पूरी कोमल सहजता के साथ शब्द और मौन दोनों के तानेबाने से संवाद का एक नया सिनेमाई कौशल हासिल किया जो उनकी अदायगी का सबसे खूबसूरत और सबसे कीमती हिस्सा है. उनकी नरम शफ्फाक आवाज़ चांदनी में नहाई लगती है. लगता है उस पर ओस की मासूम ठंडी बूंदें पड़ी हुई हैं. वह कितनी नि:शब्द और कितनी शीशे जैसी साफ और लयबद्ध है. दर्शकों को उनकी यह आवाज़ अपने सधे हुए उतार-चढ़ाव, सभी अनुगूंजों और अंतरालों के साथ जितना तन्मय कर देती है उतना ही उनका एक अधखुला या ठहरा हुआ निर्वाक् भी विस्मित कर देता है. उन्होंने वाणी का प्रयोग कम से कम किया और जब किया तो उसका स्वर बहुत ऊंचा नहीं होने दिया. ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में पृथ्वीराज कपूर से टकराते हुए उनकी आवाज और अनारकली मधुबाला से बात करते उनकी आवाज का यह अंतर देखा जा सकता है.

दिलीप कुमार ने सिनेमा में अभिनेता को कलात्मक विस्तार दिया. उसकी स्वतंत्र पहचान के तरीके, औजार और सूत्र विकसित किए. उन्होंने अपनी मार्का के अभिनय से यह सिद्ध किया कि वह भी कला का एक प्रतिमान है, उसका एक प्रारूप है, उसका एक अनुशासन है. यही अनुशासन उनके किरदारों की सबसे बड़ी मजबूती थी. अपनी अदाकारी को वह कभी बोहेमियन अंदाज में नहीं ले सकते थे. उनका बोहेमियन भी एक प्रारूप में ही होगा. शायद यही उनके सिनेमा का, उनकी अभिनय-कला का मेथड था.  उनमें थियेट्रिक्स जरा भी नहीं था. दिलीप कुमार के पास पृष्ठभूमि में किसी भी प्रकार की कलात्मक विरासत या किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण या यहां तक कि कोई गॉड फादर या फिल्मी कनेक्शन नहीं था. वे अभिनय के क्षेत्र में शून्य से शुरू कर रहे थे. लेकिन, हां उनके पास जो सबसे बड़ी चीज होनी चाहिए थी वह जुनून था, वह ज़ज्बा था. मानवीय ऊष्मा का स्पर्श उनके व्यक्तित्व में ही रचा-बसा था.  वे किरदारों में उतर जाते थे, डूब जाते थे, उसे जी लेते थे. इसके लिए संवेदनशीलता के साथ एक प्रकार का आत्म-विस्मरण चाहिए होता है और दिलीप कुमार उसमें निपुण थे. वे पात्रों का अध्ययन करते थे, पटकथा पढ़ते थे. वे ऐसे थे कि अपने चरित्र की तो बात ही छोड़िए फिल्म के अन्य चरित्रों की भी बुनावट और कथाक्रम में उनके परस्पर टकराव और आत्मसंघर्ष दोनों को पहले गहराई से समझते थे.  इसके लिए ज़ाहिर है कि वे पर्याप्त समय लेते थे और यही कारण है कि वे एक समय में एक ही फिल्म हाथ में लेते थे. व्यावसायिकता या प्रसिद्धि या सफलता के शॉर्ट-कट के किसी मेथड में उनका यकीन नहीं था और न ही वे उसूली तौर पर इसे मानते थे. शायद यही बात रही हो जिसे देखकर मशहूर फिल्मकार सत्यजित रॉय ने उनको ‘अल्टीमेट मेथड एक्टर’ कहा हो.

दिलीप कुमार का विशिष्ट कलाकर्म यही था जो उनका अपना एक नया क्लास निर्मित करता है, वह दर्जा केवल दिलीप कुमार के लिए बना और समाप्त हो गया.  इसीलिए अमिताभ बच्चन ने ठीक ही कहा है कि दिलीप साहब अतुलनीय हैं.  हिंदी सिनेमा का जब भी इतिहास लिखा जाएगा उसे इसी रूप में लिखा जाएगा- दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद. यह है दिलीप कुमार का इक़बाल जिसकी बदौलत वे लगभग छह दशकों तक न केवल अपने बेशुमार चाहने वालों के दिलों पर राज करते रहे बल्कि उनकी कद्दावर शख्सियत ने बॉलीवुड से हॉलीवुड के तमाम अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, निर्देशकों को भी प्रभावित किया.

उन्होंने अपनी गहरी आँखों से देखकर संवाद अदायगी का एक नया आयाम आविष्कृत किया. दिलीप कुमार में बॉडी लैंग्वेज की स्थूल भंगिमाएं कम हैं. वे ठहराव में, एक स्थैतिक फ्रेम में, सिर्फ़ खामोशी से आंखों से सब कुछ कह देने वाले एक विलक्षण काव्यात्मक अभिनेता थे. उनके अभिनय की खासियत उनका अंडर स्टेटमेंट है. गाल एवं होंठों पर टिकी दो उंगलियां टिकाए उनका विचारमग्न खामोश चेहरा आंखों से सब कुछ बयां कर देता है. यह चेहरा एक ऐसा आइकॉन बनाती है जिसे हर कोई अपनी-अपनी स्टाइल में नकल करना चाहता है. लेकिन, दूसरी तरफ उनकी आवाज की भी आभा कुछ कम न थी. कहा ही जाता है कि देविका रानी ने बॉम्बे टॉकीज में तब के युसूफ खान को 1250 रुपये के मासिक वेतन पर इसलिए भी रखा था कि उनको बहुत अच्छी उर्दू आती है. दिलीप साहब के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे पढ़ने के बहुत शौकीन थे. उन्होंने हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी का ढेर सारा उत्कृष्ट साहित्य पढ़ा था. तीनों भाषाओं पर उनका जबरदस्त अधिकार था.  ऐसे में वे जब बोलते थे तो उनका तलफ्फुज बस देखने लायक होता था. अपनी स्वर तंत्री को जिस पिच पर मॉड्युलेट करके जब वे संवाद बोलते थे तो वह एक स्तर पर वाच्या का अभिनय में सूक्ष्म रूपांतरण कर देता था जो प्रभावोत्पादकता का एक शिखर छू लेता था. यू-ट्युब का जमाना है आप वीडियो क्लिप चलाकर देख सकते हैं कि उनकी आवाज़  ने किस तरीके से दिल में चुभती किस अतल गहराई की वेदना को शब्दों में प्रतिध्वनित कर दिया है जब वे देवदास में चंद्रमुखी से कहते हैं– कौन कंबख्त है जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है, मैं तो पीता हूँ कि बस सांस ले सकूँ.

इस प्रकार दिलीप साहब ने खामोशी को अपनी अदाकारी का एक अटूट हिस्सा बनने दिया जो एक ट्रेजेडी किंग के विषाद को ज्यादा असरदार तरीके से फिल्मी पर्दे पर बयां कर पा रही थी. वे किरदारों में समा जाते थे. वे किरदार बन जाते थे; अपनी तरफ से कुछ नहीं करते थे. यह दिलीप कुमार का being rather than doing था. कुछ इस तरह वे किरदार में किरदार की तरह उभरते थे. याद करिए उनकी फिल्म अंदाज़ (1949) का वह सीढ़ियों पर का दृश्य जब त्रिकोणीय प्रेम कहानी के दो नायकों की तरह दिलीप कुमार और राजकपूर आमने-सामने होते हैं. वे राजकपूर से अपनी शांत आवाज में कहते हैं– ‘राजन मुझे आपसे कुछ कहना है’.

जवाब में राजकपूर जोर से व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहते हैं– ‘कहिए’.
इसके बाद दिलीप कुमार लगभग 35 सेकेंड बाद अपनी बात कहते हैं–
‘यह फूल सिर्फ आप पर ही खिलता है राजन बाबू’.

इस छोटे से संवाद के पहले का उनका मौन, चेहरे का घुमाव, दोनों हाथों से फूल को पकड़े हुए अपनी स्थिर आंखों से देखना अभिनय का एक लाजवाब दृश्य रचता है. शायद यह भी उनका अपना ही मेथड रहा हो – जो किसी दृश्य में अंडरस्टेटेड एक्ट के रूप में व्यक्त होता है. वे भंगिमाओं को रेग्युलेट करते थे और तब जाकर उनके अभिनय की गतिकी या प्रवाह में उस प्रकार की एक मंथरता पैदा हो पाई जो जीवन की त्रासदी खास तौर से प्रेम में भग्न ह्रदय की विकलता और सब कुछ समाप्त हो जाने के आत्महंता शोक के साथ ज्यादा सदृश र ज्यादा समनुरूप नज़र आती है. दिलीप कुमार में हम देख सकते हैं कि वे मानवीय वेदना और उसकी परतों नीचे दबी आह को सिनेमा के शिल्प में एक कलात्मक अभिव्यक्ति देने वाले एक उम्दा कलाकार थे. यह सब कैमरे के सामने करते समय कितनी तड़प और टूटन भीतर उपजनी चाहिए और यह महसूस करना कितनी बड़ी चुनौती होती होगी– यह दास्तां दिलीप साहब के साथ अब कहीं खामोश हो गई.  … और कहीं दूर से आता मद्धिम स्वर सुनाई देता है- ऐ मेरे दिल कहीं और चल, तेरी दुनिया से जी भर गया ….  लेकिन, यह भी सच है कि कलात्मक रूपांतरण भी खुद बहुधा जीवन के जाने-अनजाने अक्श़ ही होते हैं.

दिलीप कुमार शुरुआती दशक में प्रेम में टूटे, निराश और ग़म में तनहा छूटे नायक की छवि में कैद हो गए. दिलीप कुमार सिनेमा के पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ रहे थे जो प्रेम की वेदना और तड़प को सीने में झेलते हुए दीवानगी में अपना सब कुछ लुटा देने वाला प्रेमी है. उनका ट्रेजेडी हीरो बेखुदी को ही प्रेम की उदात्तता का पर्याय मानता है और सब कुछ गँवा कर भी उस ऊँचाई को छू लेना चाहता है.  प्रेम की सघन रूमानियत का जो शिल्प दिलीप कुमार ने निर्मित किया वह हिंदी सिनेमा में एक नए अध्याय की शुरुआत थी.

1955 में बनी ‘देवदास’ उसकी पराकष्ठा थी. फिर, उसी प्रकार 1960 की ‘मुगल-ए-आजम’ में अपनी मोहब्बत के लिए हर जुल्म सहने के लिए आत्मोत्सर्ग और विह्वलता के साथ पर्दे पर जीता हुआ सलीम का किरदार.  ट्रेजेडी की सघन अनुभूतियों वाली एक ही धारा की जोगन (1950), बाबुल (1950), दीदार (1951), शिकस्त (1953), देवदास (1955), यहुदी (1958), मुगल-ए-आज़म (1960) जैसी करीब दर्जन भर फिल्में लगातार करने के बाद दिलीप कुमार पर खुद इस अवसाद का असर पड़ने लगा था.

उनको लंदन के मनोचिकित्सक ने उदासी से भरे चरित्रों को छोड़कर जीवन के उमंग, उत्साह एवं हास्य को दर्शाने वाली मनोरंजक फिल्में करने की सलाह दी थी. इसके बाद उन्होंने कॉमेडी एवं एंटरटेनर फिल्मों की तरफ रुख किया और आजाद, गंगा जमुना, पैगाम, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम, गोपी, सगीना महतो, बैराग सरीखी फिल्मों में काम किया. यहां भी दिलीप कुमार ने शानदार अभिनय किया. कहा जाता है कि ‘संघर्ष’ का मेरे पैरों में घुंघरू बँधा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले गीत फिल्माने से पहले दिलीप कुमार ने नृत्य सीखा. ‘सगीना महतो’ में उनको साला मैं तो साहब बन गया गीत पर उनके ठुमके देखते बनते हैं. ‘नया दौर’ फिल्म के लिए तांगा चलाने का अभ्यास किया.

ट्रेजेडी के नायक के लिए ऐसा नहीं था कि वह जीवन के उल्लास या माशूका के चिकने चेहरे पर फिदा नहीं था या उसे चांद के बहाने देखने के लिए छत पर बुलाने का मनुहार नहीं करता था. उन्हें भी अपनी नायिकाओं से सुहाना सफर और ये मौसम हसीं; कभी डाल इधर भी फेरा, के तक तक नैन थक गए जींद मेरिए; मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार के बहाने प्यार का इज़हार करना आता था.

1976 के ‘बैराग’ के बाद तो वे 1981 की ब्लॉक बस्टर ‘क्रांति’ तक तो सिनेमा से एकदम दूर रहे.  उसके बाद शक्ति, विधाता, कर्मा, मशाल, सौदागर आदि फिल्मों में काम किया.  यह उनका फिल्मों में उत्तरार्द्ध था जिसमें वे चरित्र भूमिकाएं कर रहे थे.  एक खास बात यह रही कि इस दौर में उनका सामना राज कुमार, संजीव कुमार जैसे पुराने दिग्गज कलाकारों के अलावा समानांतर सिनेमा के नसीरुद्दीन शाह तथा 80 के दशक में सिनेमा की धारा बदलते हुए का अपना नया अध्याय लिख रहे सुपर स्टार यंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से हुआ. लेकिन, दिलीप साहब की वही सोचती और बोलती आंखों ने यहां भी कमाल ही किया.  रूह से निकलती वही आवाज जिसका असर 50 और 60 के दशकों पर तारी था, इस समय भी सब पर भारी पड़ रही थी. शक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ उनके पिता आला पुलिस अफसर अश्विनी के किरदार में भी दिलीप कुमार ने अपनी अभिनय क्षमता का अपना किला फतह नहीं होने दिया.  यही नहीं उनको इस फिल्म के लिए वर्ष 1983 का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड भी दिया गया.

दिलीप कुमार की जिंदगी और सिनेमा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है.  वे हिदी सिनेमा के एक किंवदंती थे और कई जमानों तक इस दर्जे में बने रहेंगे क्योंकि अभिनय का बेंचमार्क वे तब भी थे और आगे भी रहेंगे.
sushil.krishna24@gmail.com

Tags: दिलीप कुमार
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Comments 10

  1. वंशी माहेश्वरी says:
    2 years ago

    विष्णु खरे की तो अद्भुत विवेचना थी.
    उस क्लिप को कई मित्रों को भेजी, सईद ( फिनलैंड ) उनके युवावस्था के मित्र थे वे इस क्लिप को पाकर विभोर हो गये.
    सुशील जी दृष्टि भी बारीकी के साथ काफ़ी दूर तक जाकर गहरी हो जाती है जोगन से मुग़लेआज़म तक की त्रासदी, दिलीपजी को त्रासमय ( ट्रेजेडी किंग )बनाती है.

    Reply
  2. JSK Rawat says:
    2 years ago

    एक सीधे और मासूमियत से दिखने वाले यूसुफ ख़ान पर ईद पर गहरा और गंभीर, पर पूरी तरह से न्याय करने वाला लेख। बहुत ही सधा हुआ और दिलीप कुमार के हिंदी अभिनय जगत में ओहदे को बड़े ही सुन्दर और दिलचस्प तरीके से उकेरा है। असंख्य बधाई गोरे जी और इसी तरह आगे भी लिखने के लिए शुभकामनाएं।

    Reply
  3. यशवंत गहलोत says:
    2 years ago

    बेहतरीन विश्लेषण। उम्दा लेख।

    Reply
  4. Neelam chaturvedi says:
    2 years ago

    दिलीप कुमार जी एक ऐसे अभिनेता थे जो हर किरदार को जीते थे। अभिनय के हर रंग को उन्होंने बखूबी निभाया था, ख़ासकर ट्रेज़ेडी।आपके लेख से उनके बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। उनके सफर का और कार्यो का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने ।

    Reply
  5. Anonymous says:
    2 years ago

    बहुत अच्छे गोरे जी। आपने दिलीप कुमार के फिल्मी सफर का सफल और जीवन्त चित्रण किया है। बधाई।
    आर एन बाजपेयी

    Reply
  6. विवेक यादव says:
    2 years ago

    सिनेमा के विराट पटल पर दिलीप कुमार के योगदान, उनकी  संवाद अदायगी, विशिष्‍ट आवाज और  साथ ही ‘खामोशी’ के माध्‍यम से भी अभिनय को नया विस्‍तार देने की उनकी शैली का आपने  प्रभावी रूप से रेखांकन किया है. सहजता, विषय का गहनता से प्रकटन और प्रवाह से  परिपूर्ण आपका आलेख बेहद सटीक है. इस प्रकार के विश्‍लेषणपरक आलेख के सुधी पाठकों को आपके लेखों का आगे भी इंतजार रहेगा. 

    Reply
  7. Arvind Mishra says:
    2 years ago

    लेखक की कलात्मक पहलुओं की सूक्ष्म दृष्टि और उनका कलाकर्मी के अभिनय का गहन विश्लेषण प्रभावित करता है।

    Reply
  8. सुधीर says:
    2 years ago

    वाह !अभिनय का सम्पूर्ण युग समेट दिया आलेख में

    Reply
  9. अमर नाथ says:
    2 years ago

    भारतीय सिनेमा में अपने हुनर, अपनी अदाकारी से ख़ास मुकाम हासिल करने वाले दिलीप कुमार की शख़्सियत वाकई बेमिसाल थी। सुशील जी ने बेहद खूबसूरत अंदाज में उनके सफर के हर पहलू को रुपायित किया है इस आलेख में। ट्रेजेडी किंग की रुमानियत को भी बेहद संजीदगी से उकेरा है आपने। इस बेहतरीन लेख के लिए बधाई।

    Reply
  10. कुमार राजेश says:
    2 years ago

    दिलीप साहब के सिनेमाई सफर को अत्यंत कलात्मक तरीके से बयान किया गया है इस लेख में।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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