दिलीप कुमार
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दिलीप कुमार को भाषा, साहित्य- ख़ासकर शायरी से बड़ा प्यार था. आज उनके जाने के बाद उनका ही पसंदीदा शेर, जिसे मैंने उनके ही मुख से किसी मंच पर बोले की रेकोर्डिंग में सुना था और जो गोया इसी दिन के लिए लिखा गया था और इसी दिन के लिए दिलीप साहब उसे बार-बार बोला करते थे–
हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे,
बहारें हमको ढूँढेगी, न जाने हम कहाँ होंगे,!!
आज सचमुच बहारें ढूँढ रही हैं खिजाएँ बनकर- अभिनय के बेताज बादशाह, अपने युग के महानायक दिलीप कुमार को और वे अब जाने कहाँ हैं. लेकिन रह गये हैं उनके अफ़साने, जो बयां हो रहे हैं,गढ़े भी जा रहे – गढ़े जाते रहेंगे, बयां होते रहेंगे और लोगों के सर चढ़कर बोलते रहेंगे,. तो, इसी शृंखला में कुछ अफ़साने यहाँ भी, कुछ सुने-पढ़े हुए, कुछ देखे से समझे हुए और इससे आगे बढ़कर कुछ भोगे हुए और इसीलिए बनाए हुए– यानी गढ़े हुए भी. अफ़साने सुनाना तो फितरत है आदमी की, पर गढ़ना बावस्ता है कुदरत से उस शख़्स की, जिसके कुछ किये से अफ़साने गढ़े जाने की उर्वरता बनती है. और दिलीप कुमार की ऐसी उर्वरता के क्या कहने,, जिसका परमान देगा आगे के लिखे का काफ़ी सारा.
लेकिन उसके पहले यह कि हिंदी सिनेमा के पहले शीर्ष सितारे (सुपरस्टार) दिलीप कुमार अपने अभिनय के ताल्लुक़ से वैसे ही हैं, जिसके लिए कहा गया – ‘नास्ति येषाम् यश:-काये ज़रा-मरण-अजं भयं’ (जिसकी कला-काया जन्म-मरण के भय से मुक्त है). यानी वे हमेशा-हमेशा के लिए रहेंगे अपने मुरीदों के दिलों में और यह जमात कभी ख़त्म होने वाली नहीं, बढ़ती जा रही है,. सो, ऐसी अमरता के नायक को उनके दैहिक अवसान पर हम अलविदा कैसे कह कह सकते हैं!! सो, अफ़साने-क़िस्से-किंवंदन्तियाँ-सचाइयाँ और सबकुछ उनके किए, उनसे हुए अभिनय की जानिब से.
मुरीदों ने अपने-अपने दिलीप कुमार को बहुतेरे नामों से नवाज़ा है – ‘इन्हके नाम अनेक अनूपा’. ‘पहले किंग खान’ (दूसरे किंग खान- शाहरुख़) वे इसलिए हैं कि उनका मूल नाम यूसुफ़ खान था. वे फलों के व्यापारी सरवर खान के बेटे थे. दिलीप कुमार तो उनका पर्दे का नाम था, जिसे असली नाम बन ही जाना था. उनकी बोलकर लिखायी गयी आत्मकथा ‘वजूद और परछाईं’ (सब्सटैंस ऐंड शैडो’ का अनुवाद) के आ जाने से तमाम जीवन-संदर्भ क़ायदे से प्रायः प्रामाणिक रूप में हमारे सामने हैं. यूसुफ़ खान की उच्च शिक्षा मुम्बई के खालसा कॉलेज से हुई थी. रणवीर राजकपूर, जो आगे चलकर सिर्फ़ राजकपूर रह गये, भी खालसाइट थे और मैंने भी बी.ए., एम.ए. खालसा से ही किया है, तो एक सुदूर का नजदीकी रिश्ता यह भी है– बाक़ी तो मुरीद और आदर्श का सर्वप्रिय ताल्लुक़ है ही, दोनो ही हमारे छात्र-काल में एक बार मुख्य अतिथि के रूप में खालसा में आये भी थे, जो हमारे लिए आतुर प्रतीक्षा और आजीवन के लिए यादगार दिन था. अब अवसान ने सिद्ध कर दिया है कि इतने पास से उन्हें साक्षात देखने का यही पहला और आख़िरी अवसर रहा.
दिलीप साहब के जीवन में उस कॉलेज का बड़ा और निर्णायक योगदान यह भी है कि वहीं के उनके प्रोफ़ेसर डॉ. मसानी ने उनको देविका रानी से मिलवाया था. और अच्छी उर्दू आने के कारण उनकी कम्पनी के लिए पहले तो पटकथा लेखक के रूप में रख लिये गये. उनकी अच्छी उर्दू का पहला ज़ायक़ा मुझे तब मिला था, जब नूरजहाँ बेगम के पाकिस्तान से आने पर दिलीप साहब के साथ उनकी ‘गुफ़्तगू’ दूरदर्शन पर सुनी थी. उस वक्त कहा उनका वाक्य समझने में मुझे काफ़ी समय लगा था और आज तक याद है –
‘हमने तुम्हारा ठीक उतने ही दिन इंतज़ार किया है, जितने दिन बाद तुम वहाँ से आयी हो’.
इस तमीज़ व अच्छी उर्दू के साथ अच्छे परिधान का शौक़ एवं कौन सा परिधान अच्छा फबेगा, की समझ उन्हें शुरू से ही थी, जो उनके मासूम व अदामय (स्टाइलिश) चेहरे पर खिलकर उन्हें आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी बना देती थी. यह दोहरा आकर्षण देविकाजी की पारखी नज़र से छिपा न रह गया. और उन्होंने यह जानते हुए भी कि उस नौजवान ने न कभी थिएटर का मुंह देखा, न कभी अभिनययादि के बारे में सोचा- कहते हैं कि तब तक दिलीप साहब ने किसी ख़ास सिलसिले में सिर्फ़ एक फ़िल्म देखी थी,ऐसे शख़्स के सामने ‘ज्वार-भाटा’ फ़िल्म की मुख्य भूमिका के लिए प्रस्ताव रख दिया. १९४४ में सामने आयी यही उनकी पहली फ़िल्म थी. साथ में देविकाजी ने एक ही शर्त रखी कि वे अपना नाम बदल लें और ऐसा नाम रखें, जो दर्शकों के लिए आकर्षण का सबब बने.
कहते हैं कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि पंडित नरेंद्र शर्मा से नाम सुझाने का आग्रह किया गया और उनके सुझाए तीन नामों-वासुदेव, जहांगीर, दिलीप कुमार- में से यूसुफ़ को जहांगीर नाम पसंद आया था, लेकिन वहीं कार्यरत कथाकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार नाम की संस्तुति की और देविकाजी ने भी दिलीप पर ही अपनी राय क़ायम की. इस तरह यूसुफ़ खान हो गये दिलीप कुमार. इस नामचर्चा को दो वाक्यों का विराम देकर यहीं बता दूँ कि इस काम के लिए १२५० रुपए की फ़ीस मुक़र्रर हुई, जिसे यूसुफ खान ने सालाना समझा था, क्योंकि तब औसत तनख़्वाह ५० रुपए मासिक हुआ करती थी. बाद में पता चला की यह मासिक थी. इस १२५० रुपए की क़ीमत को समझने के लिए यूसुफ़ से थोड़ा पहले देविका रानी द्वारा ही अभिनेता बनाये और उन्हीं के कहे पर कुमुदलाल गांगुली से अशोक कुमार बने अभिनेता का वह क़िस्सा सुनना पड़ेगा, जो सबने सुन रखा होगा, ३०० रुपए की एकमुस्त रक़म पहली बार पाकर दादामुनि इस चिंता में पड़ गये थे कि उसे कहाँ रखें तथा इतनी बड़ी रक़म के घर में होते हुए उन्हें कैसे नींद आये,. और अंत में तकिए की खोल में डाला, उसे सर के नीचे रखके सोये, फिर भी रात भर नींद नहीं आयी थी. बहरहाल, उसी दादामुनि और शशीधर के साथ देविकाजी ने दिलीपकुमाए उर्फ़ मुहम्मद यूसुफ़ खान की ट्रेनिंग शुरू करा दी, जिसका एक संस्करण यह भी है कि तब तक अशोक कुमार ‘बम्बई ड़ाइंग’ छोड़कर ‘फ़िल्मिस्तान’ से जुड़ गये थे.
यूसुफ़ खान के दिलीप कुमार बनने के इस तथ्य के झूठे अफ़साने जो अभी-अभी मरणोपरांत समाज-माध्यम पर छा गये थे– कि हिंदू बनकर उसने अकूत रुपए कमाये और मरते-मरते करोड़ों रुपये किसी मुस्लिम संगठन को अर्पित (डोनेट) कर गये, आदि बनाने-फैलाने वालों को मालूम नहीं कि फ़िल्मोद्योग में आधे लगों के नाम बदले हुए ही हैं. ऐसे मिथ्यारोप हम जैसे उनके फ़न के फ़ैनों को बेहद तकलीफ़देह गुजरते हैं, पर जाति-सम्प्रदाय-दबंगई और पैसे से चलती राजनीति एवं उच्छ्रिंखल मीडिया के युग में किया भी क्या जा सकता है!! बहरहाल, उनके जीवन में यह सब कुछ, जो उनके बिना किये हो गया, ऐसा सधा- उन्होंने नामों के संतुलन को अपने सलूक व सलीके से इस कदर साधा कि यह युग्म ‘यूसुफ बनाम दिलीप कुमार’ न हुआ, बल्कि ‘यूसुफ़ बरक्स (समानांतर) दिलीप कुमार’ होकर उनकी ज़िंदगी का एक गाढ़ा रूपक बन गया. यूसुफ़ को उन्होंने न छोड़ा, न छिपाया और दिलीप कुमार को भी समूचा अपना लिया. नामों की यह एकता-समता निजी जीवन व कला की संगति से होते हुए बहुत आगे निकलकर हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रतीक भी बनी.
दिलीप कुमार उर्फ़ यूसुफ़ हिंदुस्तान-पाकिस्तान के यत्किंचित मेल के भी रहनुमा बने. ‘कारगिल आक्रमण’ की खबर सुनकर थोड़े ही दिनों पहले पाकिस्तान के दौरे से लौटे प्रधानमंत्री अटल बिहारीजी वाजपेयी ने जब उन्हीं सम्बंधों का वास्ता देते हुए बात करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन लगाया, तो उनके साथ दिलीप कुमार भी जुड़े थे. तब दिलीप साहब ने युद्ध बंद करने की अपील करते हुए साफ़-साफ़ कहा था कि जब भारत-पाकिस्तान-सीमा पर तनाव पैदा होता है, तो हिंदुस्तान के मुसलमानों की हालत बहुत पेचीदा हो जाती है. उन्हें अपने घरों से निकलने में भी दिक़्क़त महसूस होती है, कुछ कीजिए,. दिलीप साहब के हवाले से हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता का बेहद सांसारिक रूप यह भी सिद्ध हुआ कि उनका एक घर पेशावर (पाकिस्तान) में है और एक घर मुम्बई में भी है. उनके और पेशावर के उसी मुहल्ले में ही स्थित राजकपूर के घर को पाकिस्तान सरकार ने राष्ट्रीय सम्पत्ति के रूप में सम्मानित-सुरक्षित किया और अपना सर्वोच्च सम्मान ‘निशाने इम्तियाज़’ भी दिलीप कुमार को प्रदान किया.
अपने यहाँ भी जब शेरिफ बनने का प्रस्ताव दिलीप साहब स्वीकार नहीं कर रहे थे, तो मनवाने के लिए व्यक्तिगत रूप से शरद पवार ‘क्रांति’ के सेट पर उनसे मिलने गये थे. राज्य सभा की सदस्यता के साथ ‘पद्म भूषण’ व ‘दादा साहेब फाल्के’ जैसे महनीय सम्मानों से उनके इस वतन ने उन्हें नवाज़ा. और आठ फ़िल्मों के लिए आठ बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ‘फ़िल्म फ़ेयर’ पुरस्कार तो मिला ही– ‘दाग’ (१९५४), आज़ाद (१९५६), ‘देवदास’ (१९५७), ‘नया दौर’ (१९५८), ‘कोहिनूर’ (१९६१), ‘लीडर’ (१९६५), ‘राम श्याम’ (१९६८) और ‘शक्ति’ (१९८३). इनके साथ ही कम से कम दर्जन भर बार तो नामांकित (नॉमिनेट) भी हुईं फ़िल्में. इन सब आँकड़ों के सिवा जो अकूत सम्मान उनके चहेतों ने दिया और जो उनके मनों में महफूज है, उसकी तो क्या गिनती,!! इस तरह मुहम्मद यूसुफ़ खान व दिलीप कुमार की युगपत् यात्राएँ काफ़ी मानीखेज हैं.
जन्म व नामों की इसी संगति में देखें, तो यूसुफ़ के दिलीप कुमार बनने का इत्तफ़ाक़ यूँ भी फलित हुआ कि मुगले आज़म, यहूदी,आदि जैसी चंद भूमिकाओं के अलावा यूसुफ़ भाई ने अपने अभिनय में अधिकांश हिंदू पात्रों को ही साकार किया. उनमें भी एकाधिक ब्राह्मण पात्रों का निभाया जाना ख़ास उल्लेख्य है. फ़िल्म ‘संघर्ष’ में बनारस स्थित पण्डे ख़ानदान के कुंदन बने यूसुफ़ खान उर्फ़ दिलीप कुमार , तो उनके पिता की भूमिका में थे इफ़तेखार खान उर्फ़ इफ़्तेखार. और जब तिलक लगाकर पीताम्बरी धोती पर बंद गले वाला सिल्क का कुर्त्ता पहनके, धोती का टोंगा हाथ से सम्भालते हुए वाली शैली (स्टाइल) में सम्भ्रांत विप्र बनकर पर्दे पर उभरते मुहम्मद यूसुफ़ खान, तो कोई भी पैदाइशी ब्राह्मण फीका पड़ जाये. सगिना महतो, गोपी, गंगा जमुना, जैसी फ़िल्मों में लोकजीवन में पगे हिंदू पात्र निभाते हुए क्या ही शोभायमान होते. गरज यह कि एक शख़्स में बसी व उभरती अनेक शख़्सियतों (मुझमें बसते हैं करोड़ों लोग) की अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.
बड़ा दिलचस्प रहा इसे पढ़ना। सोचा था बाद में पढ़ूंगी क्योंकि काम करने के लिए लैपटॉप ऑन हो चुका था। फिर भी एक सांस में पढ़ गई।
अभी कुछ दिनों पहले सुरेखा जी के लिए कुछ ऐसे ही अद्भुत पोस्ट को आप ने हमसे साझा किया , और अब दिलीप जी के लिए । धन्यवाद ।
आप की लेखनी की कला बिल्कुल वैसे ही है जैसे दिलीप जी कला नामों से परे रही ।
दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन थोड़े बेमिसाल नक्षत्रों में से हैं जिनके अभिनय की कला और गहराई पर किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो सकता है।उनकी गिनती मोतीलाल, बलराज साहनी,संजीव कुमार,प्राण जैसे कालजयी अदाकारों की परंपरा में होती है। इसमें दो राय नहीं है कि दिलीप कुमार बार बार पैदा नहीं होते। यह आलेख उनके जीवन के विविध प्रसंगों और पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है।
जीवन में पढ़ने -लिखने का सिलसिला जबसे चला है तब से लेकर अब तक कई सारे लेखों को पढ़ा है किंतु सर के लेख को लेकर जो उत्सुकता जो होती है वो शायद ही कहीं और देख पाती हूं ।कुछ दिन पहले सर के ही माध्यम से साझा एक पोस्ट सुरेखा जी को लेकर देखा सुखद अनुभव हुआ ठीक वैसे ही आज यूसुफ़ से दिलीप का सफर और कलाकार अपना अंदाज़ यह जानने और समझने का मौका इस लेख के ज़रिए मिला । सौभाग्य ही है जो कुछ बातों का फर्क करना और फर्क समझना इनके सानिध्य से प्राप्त हुआ है नहीं तो क्या फर्क पड़ता की दिलीप,दिलीप के अलावा भी यूसुफ़ और न जाने क्या -क्या हैं ।बहुत फर्क पड़ता है कलाकार को सिर्फ कलाकार होते हुए देख ।
अप्रतिम लेख सर🙏पहले शब्द को पकड़कर मन बिल्कुल बहता हुआ अंतिम शब्द तक कब आया पता ही नहीं चला…कमाल!!
बहुत बेहतरीन अंदाज़े बयाँ, शीर्ष अभिनेता को आपने तहेदिल से उनकी शख्सियत के मुताबिक नवाज़ा ।
त्रिपाठी जी त्रिपाठी जी सदर प्रणाम,
बेहतरीन लेख। दिलीप कुमार पर यह संस्मरण/लेख पढ़ते हुए हम हिंदी सिनेमा के क्लासिक को समझने की दृष्टि अर्जित कर सकते हैं।
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उन कुचेष्टाओं का भी संज्ञान लिया है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दिखती हैं। बनाम और बरक्स का हवाला ऐसे कुत्सित अभियान का माकूल उत्तर है। दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ खान ने बनाम न चलने दिया, बरक्स ही चल निकला!
“अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.”
कलाद्वेषी जमात को सटीक जवाब।
जानकारी पूर्ण और बेहद मार्मिक। शुक्रिया सत्यदेव जी ।
😅 लेख बहुत लम्बा था! पढ़ने में काफ़ी समय लगा और पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा।
There are so many films you’ve cited here; I didn’t know half of them. 😂 But I am glad I know them now.
What I liked the most is your unique way of leading the reader through Dilip Kumar’s acting style, delivering dialogues, genres of films, his personal life and all of this without a hitch.
Loved reading this. Honestly, next when I watch Mughal e azam, I shall be watching it in a new light😀
Forever grateful to you for showing things with a new interpretation.
Der se padh payi… Kintu hamesha ka tarah sachmuch atyant sunder likha hai….