दिल्ली: मुल्क-ए-हिजरतप्रियंका दुबे |
हिजरत
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि लड़कियों को न पतिव्रता होना चाहिए और न प्रेमीव्रता. उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘प्रेम-व्रता’ होकर ही जीवन जीना चाहिए. जहां प्रेम हो, वहीं साँस चले. इसलिए पहाड़ों से अपने पुराने प्रेम का पीछा करते हुए मैं भोपाल से दिल्ली और फिर दिल्ली से आख़िरकार शिमला तक आ पहुँची हूँ. यहाँ जिन पहाड़ों से प्रेम हैं, उन्ही के बीच साँस चलती है. यह प्रेम कितना लम्बा चलेगा, नहीं जानती. अगर कल यह प्रेम नहीं रहा तो बीस बाय छः फुट के ट्रक में मध्यप्रदेश से हिमाचल प्रदेश तक घिसट आयी अपनी इस ‘प्रत्यक्ष’ दुनिया का क्या करूंगी, वह भी नहीं मालूम. हाँ, इतना निश्चित है कि आज इस पल में तो मैं पहाड़ के प्यार में हूँ. और इसलिए पहाड़ पर भी.
लेकिन प्यार के लिए लगातार चली आयी इस दस साल लम्बी हिजरत ने आत्मा पर ऐसे कितने ही निर्मम नक़्शे खींच दिए हैं जो अब शायद बीस बाई छः फुट के ट्रक में समा जाने वाली मेरी ‘प्रत्यक्ष दुनिया’ के पार्श्व में लगातार विस्तार पा रही मेरी तथाकथित ‘वास्तविक दुनिया’ पर हमेशा के लिए उभर आए हैं. यहाँ ‘तथाकथित’ का इस्तेमाल सोच समझ कर रही हूँ. क्योंकि देश-दुनिया के अलग अलग हिस्सों में पसरी पड़ी इस ज़िंदगी जितनी लम्बी हिजरत के बाद मेरा अपना आत्मिक संसार कितना है बचा है और कितना उजड़ा है, ठीक ठीक समझ नहीं आता.
यूं तो उर्दू भाषा का शब्द ‘हिजरत’ हमेशा से मेरे बहुत क़रीब रहा है. लेकिन इस सितम्बर जब मैंने बीते एक दशक तक मेरा ठिकाना रहे दिल्ली शहर को छोड़ने की प्रक्रिया शुरू की तो ‘हिजरत’ शब्द के अनगिनत स्वरूप जैसे हर दिन मेरी आँखों के सामने ज़ाहिर होने लगे.
‘हिजरत’ या ‘तर्क-ए-वतन’ होने का अर्थ है अपने गाँव-देश को छोड़कर दूसरे शहर जा बसना या बसने के लिए मजबूर हो जाना.
अनंत काल से सूरज के फेरे पढ़ती पृथ्वी और उस पृथ्वी के ऊपर भी सतत बेघर ही जीने वाली स्त्री से लम्बी हिरजत भला किसकी रही होगी? शिमला, जिसे मेरे साहित्यिक पुरखे ‘शिमले’ बुलाते थे और जिसे आज मैं प्यार से ‘शिम्स’ कहकर पुकारती हूँ, उस शहर के पहाड़ चढ़ते हुए भी दिल्ली की स्मृति ने मेरा पीछा नहीं छोड़.
हम तर्क-ए-वतन हो जाते हैं लेकिन वतन हमें कहाँ छोड़ता है? और फिर कई बार, बार बार, कितनी ही बार तर्क-ए-वतन होने के बाद तो स्त्री शायद अपनी तरह के बंजारे प्राणियों के लिए ‘वतन’ शब्द के मायने ही सुलझाने में ही उलझ जाती होगी.
ऐसे में, मेरे लिए वतन और हिजरत के आख़िर क्या मायने हैं?
सोचते हुए नए शहर की ओर बढ़ ही रही कि उन हज़ारों मजदूरों की याद आयी जिन्हें कोरोना की पहली लहर के दौरन हमने रोते बिलखते हुए दिल्ली छोड़ते देखा था. रोज़गार और एक बेहतर जीवन की तलाश में राजधानी का रुख़ करने वाले वो सैकड़ों गुमनाम नागरिक जिनको सालों की कमेरतोड़ मेहनत के बाद भी एक सुरक्षित वापसी तक नसीब नहीं हुई.
फिर याद आयी प्रिय ईरानी फ़िल्मकार अब्बास किरोस्तामी की फ़िल्म ‘टेस्ट ओफ़ चेरी’ की. फ़िल्म में गार्ड का काम करने वाले उस अफ़ग़ानी पात्र की स्मृति जो युद्ध की विभीषिका में फ़ंसे अपने देश को छोड़ परदेस के बीहड़ों में खड़े ख़ाली दरवाज़ों की पहरेदारी करने को मजबूर हो गया था. मुज़फ़्फ़र अली की ‘गमन’ में भटकते फ़ारुख शेख़ का कारुणिक चेहरा आँखों के सामने तैरता रहा. हीरा देवी की आवाज़ में सैकड़ों उदास शामों को सुना गया गीत ‘आजा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूं’ कानों में जैसे फिर बजने लगा.
सवाल उठा कि क्या मेरी हिजरत उस वक्त से शुरू हो गयी थी जब लाखों साल पहले आदिमानव ने अफ़्रीका में, अफ़्रीका से चलना शूरू किया था ? या उससे भी पहले जब पृथ्वी पर मौजूद एकमात्र महाद्वीप ‘पैंजिया’ ने टूट कर दूर बिखरते अपने टुकड़ों को आज की दुनिया की ज़मीन और समंदर के लिए रास्ते बनाने एक लम्बी हिजरत पर निकलते देखा था? या उससे भी पहले जब अंतरिक्ष में मौजूद तमाम आकाश-गंगाओं ने एक दूसरे से दूर जाना शुरू किया था?
कई बार गूगल किया, किताबें खंगाली लेकिन मुझे आज तक समझ नहीं आया कि खुद में अनगिनत सितारे समेटे आकाश-गंगाएं एकदूसरे से दूर क्यों जा रही हैं?
और क्या धरती पर इंसानों का एक दूसरे के साथ-साथ खुद से भी यूं दूर जाना सिर्फ़ आसमान में बिछड़ते सितारों की नक़ल है?
आख़िर कब से शुरू हुई थी हमारी हिजरत?
सितारों का तो नहीं पता लेकिन मैंने जो भी दहलीज़, शहर या ठिकाना छोड़ा, सिर्फ़ प्यार में छोड़ा. रोज़गार को भी जब दिल्ली आयी, तो उन सालों में रिपोर्टिंग का वह रोज़गार भी प्यार ही हुआ करता था. आज भी है शायद. और अब, जब पहाड़ की आस में रोज़गार छोड़ा तब भी पहाड़ प्यार ही है. मन के बंधन को हर बंधन से ऊपर तसलीम किया. पहाड़ की कथा का आग़ाज़ तो अभी बाक़ी है, लेकिन बीते दस सालों में कब मेरी हिजरत की कहानी दिल्ली की मेरी कहानी में तब्दील हो गयी, ठीक ठीक पकड़ पाना मुश्किल है.
दिल्ली
पगड़ी अपनी सँभालिएगा ‘मीर’
और बस्ती नहीं ये दिल्ली है
दिल्ली शहर में मेरा आख़िरी ठिकाना निज़ामुद्दीन-पश्चिम इलाक़े की एक बरसाती में था. यहाँ ‘बरसाती’ से मुराद बरसों पुराने एक दो मंज़िला मकान की छत पर बने एक अकेले कमरे से है.
छत से रहीम का मक़बरा, जिसे सालों की सरकारी मरम्मत के बाद हाल ही में आम लोगों के लिए खोला गया है, साफ़ नजर आता था. मरम्मत के बाद से आधी गुम्बद पर टंके सफ़ेद संगमरमर के पत्थर सारा दिन जगमगाते थे. जबकि बाक़ी आधी खुरदुरी पड़ी इमारत को पुरातत्व विभाग वालों ने यूं कहकर ज़ख़्मी ही छोड़ दिया था कि उनके जस का तस रहने से आम लोगों यह इल्म हो पाएगा कि चार सौ साल से भी ज़्यादा गुज़ारी अपनी ज़िंदगी में इस इमारत ने अपने सीने पर क्या क्या सितम उठाए हैं.
जिस दिन मैंने यह बरसाती किराए पर ली थी, उस दिन भी मेरे झोले में ‘एक चिथड़ा सुख’ की एक प्रति और दिल में जीवित ‘बिट्टी की बरसाती’ की एक झलक झूल रही थी. ‘एक चिथड़ा सुख’, जिसकी प्रति को गहरे दुःख के क्षणों में मैं अक्सर ‘एक चिथड़ा दुःख’ के नाम से पुकार कर बरसाती की छत तक उछाल देना चाहती रही हूँ.
लेकिन तभी अचानक याद आ जाता रहा है कि दुःख तो कमबख़्त चादर भर के ही आता है. चिथड़े तो सुख के ही मिलते हैं, वाह भी अगर सौभाग्य रहा तो. यह जैसे मेरा और उपन्यास के लेखक निर्मल वर्मा के बीच का पुराना प्राइवट जोक हो गया हो? जितना मैंने उनको पढ़ा है, मुझे जाने क्यों लगता है कि वह ज़रूर हस पड़ते मेरे इस बेवक़ूफ़ी भरे मज़ाक़ पर. हस कर सहने के सिवा और कर भी क्या सकते हैं हम दुःख का?
लेकिन सिर्फ़ निर्मल ही नहीं, निज़ामुद्दीन का आसमान मीर-ग़ालिब जैसे अज़ीम शायरों के साथ बाबा औलिया साहब जैसे सूरज की रौशनी में सदियों यूं जगमगता रहा है कि इसका उजास मुझे अपनी उस बरसाती के भीतर रहते हुए ही लगतार खुद में उतारता रहा.
दूरी भी तो नहीं थी. बरसाती की छत से फूल फेंकती तो सीधा ग़ालिब की मज़ार पर लगता था. फिर ऐसी हूक उठती अपने प्यारे शायर को देखने की कि मैं झोला उठाकर उसी फूल का पीछा करती हुई निकल पड़ती सड़क पर. ठीक उसी तरह जैसे इस बार हिजरत से पहले की आख़िरी रात को निकली थी.
वही तड़प, लेकिन उदासी में भीगी हुई.
रास्ते में क़ब्रें इतनी मिलती कि निज़ामुद्दीन की गलियों में भटकते हुए मुझे बनारस का मणिकर्णिका घाट याद आने लगता. भीतर बनी तंग गलियों के चप्पे चप्पे पर बिछी ऊँघती क़ब्रें. रस्ते में कोई फ़ोन आ जाए या कोई परिचित टकरा जाए तो गप्प भी कब्र से टिक कर कुछ यूं लगानी पड़ती है जैसे भीतर सो रहा मुर्दा भी उस गप्प में शरीक हो. युद्धरत इलाक़ों में फैली लैंड-माइन्स के माफ़िक़ हर कदम पर टकी उन क़ब्रों को देखकर मैं अक्सर सोचती कि ज़मीन के एक अदद टुकड़े पर इतने मुर्दा या तो मोहब्बत में डाले जा सकते हैं या फिर तल्ख़ तीखी रकीबी में.
तभी सामने की कब्र पर एक फटी कंबल में लिपटा बैठा फ़क़ीर मुझसे रुपया माँगता और मिर्ज़ा नौशा की कब्र के रास्ते में ही मुझे अक्सर यूं वैराग्य पकड़ लेता.
निज़ामुद्दीन में वैरगय ढूँढना नहीं पड़ता है. सैकड़ों क़ब्रें और उन क़ब्रों पर कुछ यूं ऊँघते शोला आँखों वाले फ़क़ीर जैसे बस नीचे सोते मुर्दा के पास किसी तरह पहुँच जाने का इंजतार ही कर रहे हो. आग आँखों में लिए निज़ामुद्दीन के फ़क़ीर निगाहों को जबड़ों की तरह इस्तेमाल कर हर बार इतनी ज़ोर से पकड़ लेते हैं मेरी रूह को जैसे वे नहीं, उनके ज़रिए वैराग्य मुझे ढूँढता हुआ चला आया हो!
याद पड़ता है, उन फ़क़ीरों की शोला आँखें फिर अपने ही चेहरे पर छापे उस रोज़ जब आख़िरी बार ग़ालिब बाबा की मज़ार पर पहुँची थी तब पहली बार खुद पर ज़ाहिर हुआ कि अब कमबख़्त ग़ालिब को भी अलविदा कहना पड़ेगा?
यह दिन भी देखना ही था मुझे? उस लम्हे में उनके सामने फिर बस ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तकी मीर ही के आशआर याद आए.
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुहँ दिखाऊँगा.
तो क़िस्सा यूं है कि ग़ालिब को आम बहुत पसंद थे.
जुआ खेलने पर जब भी जेल होती तो यही सोच कर मायूस होते रहते कि फिरंगी जब तक छोड़ेंगे तब तक कहीं गर्मियाँ और आमों का मौसम न ख़त्म हो जाए. इतने साल दिल्ली में आम सिर्फ़ उनकी ही याद में खाए मैंने. दिल्ली के बाहर भी क्या आम खा सकूँगी? बेवफ़ाई सी होगी शायद. फ़राज़ के हवाले से कहूँ तो, इससे पहले कि हम बेवफ़ा हो जाएँ, क्यों न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ?
लेकिन क्या जुदा होने भर से बेवफ़ाई का गम इंसान को सालना बंद कर देता है?
सोचते हुए देर तक सड़क के मुहाने पर खड़ी रही. टैक्सी, ऑटो सब सरासर निकल रहे थे. लेकिन आख़िरी मुलाक़ातों की इस आख़िरी रात को मैंने सिर्फ़ पहली मोहब्बतों के नाम दर्ज कर रक्ख़ा था. सो पाँच रुपए के न्यूनतम टिकट वाली डीटीसी बस को चुना. कहीं जाना नहीं था, सिर्फ़ फिरना था आवारा.
तब तक फिरना था आवारा जब तक रात के अंधेरे में डीटीसी बसें चलती रहें.
दिल्ली देखते ही देखते कितनी बदल चुकी थी. सेंट्रल विस्टा को रास्ता देने के लिए अपने ख़ात्मे के इंतज़ार में घिरी खड़ी इमारतें जैसे मुझसे इंडिया गेट पर गुजरी पुरानी बरसाती शामों का पता पूछती हों. दिसम्बर 2012 के बाद के विरोध प्रदर्शन हों या दलितों पर अत्याचार के ख़िलाफ़ जंतर मंतर से उठती आवाज़ों की याद. और फिर आगे की सड़कों पर फैली 2020 के दंगों की स्मृतियां क्या 1857 से लेकर 1984 तक के खून ख़राबे की सुने-पढ़े क़िस्सों में सीधे सीधे नहीं धकेल रही थीं मुझे?
उस पल दिल में ऐसी ज़ोर की टीस उठी है कि बस की खिड़की पर देर से टिके कानों में हेडफ़ोन घुसाकर स्पॉटिफ़ाई पर ग़ालिब की पुरानी चिट्ठियों के आसपास बुना गया एक पॉड्कास्ट सुनने लगी. पूर्वी दिल्ली से गुजरते हुए शायर का वह ख़त सुनती हूँ जो उन्होंने 1857 के खून ख़राबे के बाद अपने एक दोस्त को लिखा था.
दिल्ली में कुछ अज़ीज़, कुछ दोस्त, कुछ शागिर्द, कुछ माशूक़ थे. सो वो सब के सब खाक में मिल गए. एक अज़ीज़ का मातम कितना सख़्त होता है ! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको जीस्त क्यों न दुशवार हो?
बस में बैठी बैठी सोचती हूँ, कितनी बार बसेगी और कितनी बार उजड़ेगी दिल्ली? पहाड़ पर कोई पूछेगा को क्या बताऊँगी? कहाँ से आयीं हूँ मैं? सितम्बर के महीने में मंडी हाउस में खड़े पुराने मकानों के बरामदे पर झूलते मधुमालती के गुलाबी गुच्छों वाली दिल्ली से? या वहीं दस कदम के फ़ासले पर बंगाली मार्केट में ऑटो रिक्शा चलाते हुए फ़ोन पर अपने दो साल के बालक के लिए सहरसा बिहार में डॉक्टर का इंतज़ाम करने की पशोपेश में मशगूल उस अनाम प्रवासी पूर्वांचली की दिल्ली से? विरोध प्रदर्शनों के दौरान डंडे सहने वालों की या संसद में क़ानून बनाने वालों की? यमुना के प्रदूषित पानी में चाह कर भी न डूब पाने वालों की या उसके ऊपर से सायं सायं करती गाड़ियाँ दौड़ाने वालों की? क्रिसमस पर ठिठुरथे हाथों से सैंटा कलौज़ का झूठा सपना सिग्नल पर एक लाल टोपी के रूप बेचने वाले बेघर बच्चों की या उन्ही चौराहों से उदासीन निकल जाने वाली लाल बत्ती से सजी सरकारी गाड़ियों की? आँखों में सुनहरे भविष्य का सपना लिए आयी छोटे क़स्बे की लड़की की या नौकरी के पहले दिन खंचा-खच भरे पब्लिक ट्रांसपोर्ट में उसी लड़की के स्तन दबाकर भागते किसी अनाम अंकल की? बस के उस सफ़र ने जैसे स्मृति का एक कलाईडोस्कोप खोल दिया था मेरे सामने.
आधी रात गए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बस से उतरी तो लगा जैसे मेरे ही तरह दिल्ली की हिजरत भी काफ़ी पुरानी है. ग़ालिब से भी पहले दिल्ली के ज़ख्मों को दर्ज करते मीर के यह आशआर भी यही गवाही देते हैं.
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब,
रहते थे मुंतख़ब ही जहाँ रोज़गार के
उस को फ़लक ने लूट के बरबाद कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
पैदल चलते हुए जब रात के अंधेरे में दिल्ली की मिट्टी को गौर से देखती हूँ तो लगता है जैसे सात पुराने शहरों को अपने सीने के अंदर छिपा कर जीने वाले इस महानगर में आज शायद सात नए गुमनाम शहर उग आए हैं.
इन सात अनाम शहरों के निशान हम नक़्शों पर तो नहीं खींच सकते क्योंकि किसी को नहीं पता की वह वास्तव में कहाँ हैं. हैं भी या नहीं? लेकिन इनके होने को यमुनापार से लेकर गुड़गाँव तक खुद को रोज़-ब-रोज़ घिसते यहाँ बाशिंदों के घिसे हुए चेहरों पर ज़रूर पढ़ जा सकता है.
दिल्ली के सीने के ऊपर खिंचे यह सात बेनाम बेपहचान शहर ग़ुरबत और तकलीफ़ में डूबे कितने बेपनाहों का सरमाया हैं, ठीक ठीक कोई नहीं कह सकता. और यूं भी, इस तरह जानने-सुनने भर तक के लिए कोई टिकता भी तो नहीं है यहाँ अब.
दरअसल यह सात बेनाम शहर राजधानी के सीने पर सालों से हिजरत में रहने, जीने और फिर किसी दिन यूं ही तर्क-ए-वतन हो जाने वाले खानाबदोश प्रवासियों के दिलों में बसने वाली दिल्ली का हिस्सा है. क़ानून में इसके कोई निशान नहीं, लेकिन ज़ेहन पर ज़रूर मिलते हैं.
कम से कम मैं तो ख़ामोश खोए हुए बेनाम लोगों की इसी दिल्ली, हमारे इसी मुल्क-ए-हिजरत की नागरिक रही हूँ.
‘नो नेशन फ़ॉर वुमन’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक की लेखिका प्रियंका दुबे बीबीसी में पत्रकार हैं, इधर रचनात्मक लेखन में भी सक्रिय हैं. priyankadubeywriting@gmail.com |
प्रवासियों के दिल में बसने वाली दिल्ली। रोचक एवं शानदार विवरण।
प्रियंका जी दुबे ने यह आलेख खिलंदड़ी अंदाज़ में लिखा है, लेकिन इसके पार्श्व में गहन अध्ययन और स्मृतियों के आवरण इनके मन-मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़ गये हैं । प्रेम को पतिव्रता न कहना शायद इन्हें दक़ियानूसी अहसास से भर देता हो । प्रेमी-व्रता के करोड़ों क़िस्सों के चिथड़ों की अरबों चिंदियाँ धरती पर बिखरी पड़ी हैं । सत्य यह है कि प्रेम अव्याख्यित है ।
प्रियंका जी के अध्ययन और उनकी व्याख्या अनूठी शैली में लिखी गयी है । बीस गुना छह फ़ीट में सिमटा इनका संसार भोपाल से दिल्ली और फिर दिल्ली से शिमला ले आया । यह नियति को पता होगा का शिमला में रुक गया इनका गट्टू (छोटा) ट्रक 🛻 कितने दिनों तक रुका रहेगा । इनकी ज़िंदगी कहीं ख़ानाबदोशों के कबीलों जैसी नहीं है । कभी नयी दिल्ली के मालिक बंजारे होते थे । इस रेत के टीले से साँप और बिच्छू निकल आते थे । अंग्रेज़ों ने इसे देश की दिल्ली बना दी । हर दुख के साथ सुख भी जुड़े हुए होते हैं । 2 सौ से अधिक पुरानी नयी दिल्ली की चौड़ी सड़कें और दोनों ओर घने पेड़ लगाने को मैं दूरदर्शी क़दम मानता हूँ ।
प्रियंका जी को निज़ामुद्दीन इलाक़े में बरसाती का किराये पर मिल जाना सौग़ात है । निज़ामुद्दीन में रहने वाली प्रोफ़ेसर अलका त्यागी दयाल सिंह सांध्य कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से शिमला इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़ की स्थायी फेलो बन जाती हैं । और आप भी पक्षियों के पंखों की तरह उड़कर भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से शिमला में नया निवास स्थान बना लेती हैं । यह किस्सागोही मुझे पसंद आयी । मुझ जैसे अजनबी को किसी ओवरब्रिज के नीचे अपना ठिकाना बनाना पड़ेगा । हज़रत निज़ामुद्दीन के क़िस्से Sadia Delhavi की पुस्तक ‘Sufism The Heart of Islam में पढ़ें थे ।
दुबे जी को क़ब्रों के बीच फटे कंबल ओढ़े हुए फ़क़ीर मिले । फ़क़ीरों को दुनिया निराली है । वे पक्षियों की तरह अपने ठिकाने बदलते रहते हैं । बंजारा हिल्स हैदराबाद में आज बीस-बीस मंज़िला इमारतें बन गयी हैं । यह नाम बताता है कि वहाँ के मूल निवासी बंजारे थे । हर शहर में बंजारों और गडरिया लुहारों की झोपड़ियाँ मिल जाएँगी । औद्योगीकरण ने इनका परम्परागत काम छीन लिया है और ये कूड़ा बीनने लगे हैं ।
ग़ालिब की बल्लीमारान वाली गली में हर साल गुलज़ार कुछ दोस्तों के साथ कम्पनी बाग़ से पैदल मार्च करते हैं । ग़ालिब की दुनिया निराली है । उनसे सम्बन्धित आम की टीस की कहानी आपने बयाँ की है । ग़ालिब किताबों में हैं; साहित्यकारों के दिलों पर राज करते हैं ।
वस्ल की शब हिजरत का गमगीन क़िस्सा न छेड़ो । ‘शिमले’ की वादियों के लुत्फ़ उठाओ । कुफ़री जाओ । शिमला इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़ के भवन के बराबर से नीचे उतरती हुई सड़क पर स्नो टर्फ़ पर हाकी खेल आओ ।
रात के अँधेरे वाली डीटीसी बस का ज़िक्र शायद एक फ़िल्म ‘रात की साढ़े बारह लोकल’ की याद आ गयी । ज़्यादा नहीं लिख पाऊँगा । दिवाली के पर्व के लिए घर की सफ़ाई में हाथ बँटवा रहा हूँ ।
Beautiful! 🙂 Meri bhi memories ke taar hil gaye isse padh kar
बेहतरीन गद्य का एक नमूना .बहुत बधाई प्रियंका जी और समालोचन
बहुत शानदार है यायावरी का यह ब्यौरा, और उतना ही रूमान से भरा इसका फ़लसफ़ा है। ‘हिजरत’ के स्थूल अर्थ को Priyanka Dubey जी ने जितनी बारीकी और ख़ूबी के साथ डिकोड किया है वह बहुत दिलचस्प और रोचक है। सच है, विस्थापन महज़ एक ‘फिजिकल शिफ्टिंग’ नहीं है, बल्कि इसका गहरा ताल्लुक़ हमारे ज़ेहन और उस दुनिया की यादों से है जिसे हम अपने पीछे छोड़ आते हैं। ज़िन्दगी और ग़म-ए-रोज़गार की आपाधापी में हिजरत एक बहुअर्थी फ़ितरत है। यह संस्मरण भी इसी फ़ितरत की तस्दीक है।
पुरानी दिल्ली की लेखिका ने एक मुकम्मल और ज़िंदा तस्वीर पेश की है। और, उनकी इस खानाबदोशी को कांप्लीमेंट करते मीर और ग़ालिब के अश’आर के क्या कहने ! उनकी ज़ुबान में एक जादुई नफ़ासत और लहज़े में किस्सागोई सी रवानी। पढ़कर सचमुच एक ख़ुशी मिली। समालोचन को एक वैविध्यपूर्ण पोर्टल बनाने के अरुण देव जी, आपको भी मुबारकबाद।
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, कमाल हो गया है । रात ने अपने आप को जगाये रखा कि वह हिजरत में डूबीं प्रियंका जी दुबे से मुलाक़ात कर सके । पिया से मिलने के लिए दूसरों को सुलाने वाली रात को ख़ुद जागना पड़ा । मुझे रब ने दो मेहर बख़्शीं । १. प्रियंका जी दुबे ने मुझे अपनी मित्रावली की माला में पिरो लिया । यह श्रेय आपकी झोली में डाल रहा हूँ कि आपने मेरी टिप्पणी को जोड़ दिया । २. धरती और व्योम रूपी स्पेस मुझे मिल गया और मैं इत्मीनान से दुबे जी के यात्रा वृत्तांत को पढ़ पा रहा हूँ ।
निज़ामुद्दीन की बरसाती को मैं खपरैल की झोपड़ी के रूप में देख रहा हूँ । मन्ना डे ने सपने में एक फुल गेन्दवा प्रियंका जी की गोद में डाला । और इन्होंने फूल को ग़ालिब की मज़ार को समर्पित कर दिया । क़ब्र से ग़ालिब की रूह बाहर निकली और फूल पा कर वापस मज़ार में समा गयी । मुझे chronology शब्द पहले से पसंद था । एनडीटीवी के रवीश कुमार ने इसे मशहूर कर दिया । शायद प्रियंका जी ने दिल्ली की double decor बसें नहीं देखी होंगी । उसकी छत पर खड़े होकर मैं प्रियंका जी दुबे से hand shake कर सकता था । इन्होंने दिल्ली मिल्क स्कीम की दूध से भरी हुई काँच की बोतलों का ज़िक्र किया । इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल एजुकेशन एंड स्पोर्ट्स साइंसेज़ विकास पुरी दिल्ली के एक प्रोफ़ेसर मित्र के घर जाकर रुकता था । भोर में उनके घर के बाहरी दरवाज़े के पास यही काँच की दूध से भरी हुई बोतलें वेंडर रख जाता था । उन प्रोफ़ेसर दिनेश प्रकाश शर्मा ने कई घर बदले थे । उनमें से एक प्रियंका जी की बरसाती जैसे घर में भी गया था ।
इन्होंने ‘तर्क-ए-वतन’ शब्द युग्म लिखा तो मुझे एक शेर याद आ गया । “सोचकर तर्क-ए-ताल्लुक़ तोड़ना
टूटकर पत्ते हरे होते नहीं”
2020 के प्रायोजित दंगों पर मेरा भी विरोध दर्ज कर लीजिए । केन्द्र की प्रतिगामी सरकार का वीभत्स चेहरा बहुत जगहों पर देखा । अरुण जी आप भी इसके साक्षी हैं ।
प्रियंका जी के फज़्ल से इनसे फ़ेसबुक पर मुलाक़ात होती रहेगी ।
प्रियंका दुबे जी का दिल्ली पर लिखा लेख रोचक तो है लेकिन उन्हों ने औरों की तरह जिस कविता को मीर तक़ी मीर का बताया है वो ग़लत है। मीर ने “क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो” कभी नहीं लिखा। ये मोहम्मद हुसैन लिखित आब-ए-हयात के हवाले से उद्धृत होता रहा है। तस्दीक़ के ऐतबार से बताना चाहूँगा अली सरदार जाफ़री की दीवान-ए-मीर का मुता’ला करें – पृष्ठ 397 – हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट, बंबई ने सन् 1960 में छापी थी। अब कुछ साल पहले राजकमल ने भी छापी है। कुछ दिनों पहले सुरेश सलिल का भी यही ग़लत दावा था। मैंने उससे भी सुधार करने को कहा था, लेकिन वह ‘बड़ा’ अनुवादक है। हम जैसों की कहां सुनने वाला? दिक्कत ये है कि बाहर से आ कर दिल्ली में बसने वाले हम दिल्ली वालों से दिल्ली के बारे में ज्यादा जानते हैं…
लंबे, रूककर, ठहरकर गाए जा रहे किसी विलंबित राग की तरह है यह लेख। इत्मिनान से खुलता हुआ। लोग कहते हैं, दिल्ली के भीतर जाने कितने शहर है। इसे पढ़ते हुए लगता है कि किसी दिल्ली रहवासी के भीतर जाने कितनी स्मृतियां हैं। किसी भी याद के लिए दूरी जरूरी होती है। ये दूरियां मन की निकटता बढ़ा देती हैं। यह आलेख दूरी और निकटता की धूप-छाँह में एक छोटा सा सफर तय करता है। छोड़ना, आगे बढ़ना और पलटकर देखना। इन सभी को अपने में समेटता है यह लेख।
प्रियंका, आपने ख़ूब लिखा और जेहनो रूह को सुकून देने वाला.