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Home » हिरोशिमा, मेरा प्‍यार: कुमार अम्‍बुज

हिरोशिमा, मेरा प्‍यार: कुमार अम्‍बुज

कवि कुमार अम्बुज हिंदी में फ़िल्मों पर सृजनात्मक ढंग से लिखने वाले कुछ गिने चुने लेखकों में शामिल हैं. मर्गेरीट ड्यूरॉस द्वारा लिखित और अलँ रेने निर्देशित फ़्रांसिसी/जापानी फ़िल्म 'हिरोशिमा मॉन अमूर (Hiroshima My Love) जो 1959 में प्रदर्शित हुई थी, पर आधारित यह आलेख जहाँ संवेदनशील ढंग से फ़िल्म के कथ्य को समझता है वहीं प्रेम, अकेलेपन और विध्वंस पर अलग से भी एक वैचारिक गद्य में बदल गया है. यह कई बार कुमार अम्बुज के कवि का विस्तार लगता है. ख़ास प्रस्तुति आपके लिए.

by arun dev
October 30, 2021
in फिल्म
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हिरोशिमा, मेरा प्‍यार: कुमार अम्‍बुज
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निरभ्र आकाश में एक पूर्णमासी
हिरोशिमा, मेरा प्‍यार

कुमार अम्‍बुज

परगमन. इससे अधिक घातक रोमांच कुछ नहीं. यह रोमांस भी है, हॉरर भी. यह जीवन और मृत्यु में एक ही दरवाज़े से प्रवेश करना है. यह दुस्‍साहसिक कृत्य है. एक साथ घात और विश्वास. घोषित रूप से अवांछित और अनैतिक. यानी तथाकथित व्‍याभिचारी प्रेम. आफ़त और ताक़त यह है कि किसी भी काल में इसे कोई रोक नहीं पाया. न धर्म, न राज्‍य, न क़ानून, न उपदेश, न पुराना अनुभव, न वात्सल्य, न गृहस्थी और न उजड़ जाने का भय.

न ही परमाणु बम की विभीषिका.
देह पर झरती हुई रेत. या बुरादा. या विकिरण. वासना या प्रेम.

रात के प्रकाश में चमकती उदास सड़कें. उन पर गतिशील, व्‍यथा से शिथ‍िल दो लोग. जैसे वे अपना ही पीछा कर रहे हैं. चारों तरफ़ प्रतीक हैं. उत्‍तर-प्रेम के पीडि़त रूपक. उपरांत जीवन का अब एक ही ध्‍येय है: विस्‍मृत करो. स्‍मृति की सफ़ाई करो. तुमने कोई ध्‍वंस नहीं देखा. तुमने हिरोशिमा नहीं देखा. जो देखा, सोचो कि वह नहीं देखा. जिसे जाना, कह दो कि नहीं जाना. जिसे प्रेम किया, कह दो कि नहीं किया. प्रेम से बड़ा आतंक क्‍या होगा. मगर प्रेमरहित जीवन से अधिक आतंक और कहाँ.

यही द्वैत है. अद्वैत कुछ भी नहीं.
क्‍या यह मनुष्‍य की कोई आनुवांशिक ग्रंथि है. हारमोनल असंतुलन है. कि जो उपलब्ध  है वह प्रेम नहीं चाहिए. जो नहीं है वही चाहिए. एक क्षण के लिए, एक दिन के लिए, एक रात्रि के लिए. वही पूर्णता है. आयु अगर एक चंद्रमाह है तो उसके निरभ्र आकाश में एक पूर्णमासी चाहिए. फिर मरण की किसको परवाह.

शब्‍द के ऊपर शब्‍द गिरते हैं, परछाईं के ऊपर परछाइयाँ. अब ‘चित्रात्‍मकता’ ही मुख्‍य भाषा है. शेष सब सहायक क्रियाएँ. कहानी उसकी जरूरत है लेकिन उस पर हवाओं से, इच्‍छाओं और सपनों से इमारत तामीर की जा रही है कि वह ठोस अवयवों से निर्मित हो जाये. जीवन के लक्षित, अंतर्मन के अलक्षित यथार्थ की तरह.

जैसे हिरोशिमा ही ‘विध्वंस और प्रेम’ के लिए कोई स्वीकार्य पृष्ठभूमि हो सकती है. प्रेमालाप के लिए सबसे निराश जगह. लेकिन यह प्रेम ही है जो बाकी निराशाओं का हरण कर लेता है. उसके बाद सिर्फ प्रेम की निराशा रह जाती है. पाश्विकता, संहार और क्रूरता झेल चुके शहर में, वासना की सुगंध से आच्छादित वातावरण में यह प्रेमालाप है. विरोध दर्ज़ करता हुआ कि संसार में ऐसा कभी न हो कि विभीषकाएँ सभी जगहों पर अपना आरक्षण कर लें. और प्रेम के लिए कोई द‍िक् काल शेष ही न रह जाए.

यह जानते हुए भी परगमन के कायिक प्रेम की प्रक्रिया में वॉल्‍व लगा हुआ है. राह एकांगी है. लेकिन उसी में मुक्ति है. हर मुक्ति वर्तमान को ध्‍वस्‍त कर देती है. यही उसका दाय है. मूल्‍य है. आनंद है. यहाँ एक असफलता दूसरी सफलता की, एक सफलता किसी दूसरी नयी चाहत की प्रेरणा बन जाती है. यह गीले कपड़े से नमी को पोंछना है. किसी रंग का नया नामकरण करना है. रंग जो इंद्रधनुष में नहीं है.

(दो)

तोलस्‍तोय के अन्‍ना कारेनिना की आरंभिक पंक्तियों को कुछ जोड़-तोड़कर कहा जाए तो संसार में सारे लोग अपनी-अपनी गृहस्थियों में अपने-अपने ढंग से, एक ख़ास तरह से सुखी हैं. यही एकरसता, सुहानी बंद गली की उकताहट उन्‍हें किसी नवीनता की तरफ़ धकेलती है. क्‍या यह वही दुख है जो घनघोर अँधेरे में दूर से रोशनी की तरह चमकता है. मगर यह सिर्फ़ दुख होता तो लोग इस तरफ़ क्‍यों जाते.

क्‍या यह अतिवादी आकांक्षा है.
इस कथा में कोई साफ़ पगडंडी नहीं, बना हुआ रास्‍ता नहीं. आड़ी, तिरछी, असमान ऊँचाई की अनंत सीढि़याँ हैं, जिनसे आपको चढ़ना-उतरना है. रेलिंग भी नहीं है. चारों तरफ़ स्‍मृतियों के तेज़ यातायात में वर्तमान और कसक के बीच आवाजाही है.

उद्वेग ही आठों पहर का चौघड़िया है. वही शुभ-लाभ है.
यह प्रतिज्ञारहित संबंध है. अपेक्षारिहत भी.

यह दो संस्‍कृतियों, दो देशों, दो मनुष्‍यों और दो द‍िशाओं का कठिन प्रेम है. भिन्‍नता की एकता में देहाकांक्षी, सच्‍चा लौकिक. दुर्बल अनिच्‍छा और सबल कामना का युग्‍म इसमें निवास करता है. यह जलडमरूमध्‍य में हैं. न इस समुद्र में, न उस उदधि में. इस फ़‍िल्‍म में घटनाएँ तुच्‍छ हैं. दो ही सत्‍य प्रखर हैं- प्रेम और विभीषिका. मोह और मृत्‍यु. स्‍वीकार और स्‍वीकार का भय. ज्‍वार और शांति. शांति जो सर्वत्र एक छलना है.

इस प्रेम में दो शहरों की स्‍मृतियाँ गुथीं हैं. लेकिन यह कुछ आधुनिक है. अर्थसुखी जीवन से बिद्ध, मध्‍यवर्गीय. बीसवीं शताब्दी के युद्धोन्‍मादी, पूँजीवादी समाज से निसृत. लेकिन इसमें भी संतुष्टि, वर्तमान के क्षीण, क्षयकारी क्षण में ही निहित है. परिवार, समाज का आतंक और बेघर होने का भय नहीं लेकिन यह संज्ञान है कि इसका कोई भविष्‍य नहीं. अब प्रेमी व्‍यग्र परछाइयों में बदल जाएँगे. या किसी प्रेतयोनि में. बीच-बीच में अभेद्य चुप्‍पी उनके बारे में बात करती रहेगी.

क्रूरता की याद, नृशंसता और प्रेमालाप के बीच उलझ गई है. संवाद सुलझाने की कोशिश में इसे संश्‍लिष्‍ट कर देते हैं. जीवन के अनेक रूप और प्रकार एक ही डोलची में हैं. यह प्रेम है जो कोहरे में से बाहर आना चाहता है लेकिन ‘विजि‍बिलिटी’ ऐसी है कि एक मीटर दूरी से अधिक का रास्‍ता दिखता नहीं. कौन कहे कि छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन. आशा तो यही कहती है: छाया ही छूना मन, होगा सुख दूना मन.

इसी सुख में प्राण है. इसी में त्राण. एक अनाश्‍वस्‍त आश्‍विस्‍त पसर गई है.
अब तुम स्‍मृतियों का गला घोंटना चाहते हो. और स्‍मृतियाँ तुम्‍हारा.

‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ फ़िल्म से एक दृश्य

(तीन)

लगता है इसी जीवन में कहीं कोई और बेहतर है जो हमारी प्रतीक्षा में है. इसी धरती पर कहीं छोटी-सी शस्‍य श्‍यामला भूमि है. प्‍यारी प्रॉम्स्डि लैण्‍ड. जहाँ गुरुत्‍वाकर्षण के नियम अलग हैं. मगर वहाँ से एक दुखद वापसी हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है. कुछ जगहें लालसा में, स्‍वप्‍न में, आशा में सत्‍य हैं. यथार्थ में कितनी हैं, इसकी खोज जारी रहती है.

यह कोलम्‍बसीय यात्रा है कि जाओ कहीं, पहुँचों कहीं, खोजो कुछ, मिले कुछ. अनेक नावें, नाविकों सहित अपरिचित समुद्र में समा चुकी हैं. ‘मृत समुद्र’ की सीमा ख़त्‍म हो गई है. अब आप तैरते नहीं रह सकते. लहरें आती हैं और हर पराक्रम को अपने भीतर समो लेती हैं. सुख परमाणु बम की तरह गिर चुका है. अब नष्‍ट होने की स्‍मृति है, इसी में जीवित रहना है.

स्‍मृतियों के अनुलोम-विलोम से संगति बैठाना मुश्किल है. एक तरफ़ विद्रूपता और हिंसा के शिकार लोगों की तस्‍वीरें. जीवाश्‍मों का संग्रहालय. उनके बरअक्‍स ऐंद्रिक प्रेमालाप. संवादों की तेज़ रफ़्तार और उनके आरोह अवरोह से कुछ संगत बनती है. यह दुर्लभ स्‍क्रिप्टिंग है. इसमें दर्शक की सजगता चाहिए. वाक्‍यों के दोहराव में तकलीफ़ और आकांक्षा का प्रलयंकारी मिलन है. एक अर्जित पीड़ा, एक दुर्जय कामना.

एक व्‍यर्थता जो जीवन को सार्थक करती है.
अब आप अनुगूँज के साथ सुन सकते हैं, जैसे चरम सुख की द्रवावस्‍था में, या चरम वेदना में : ”तुम मुझे नष्‍ट कर रहे हो. यह मेरे लिए अच्‍छा है.” मैं अपनी कामना का शिकार होते हुए नष्‍ट हो जाऊँ, इससे बड़ा मोक्ष कहाँ. तुम मेरा भक्षण कर लो कि मैं यातना से मुक्‍त हो जाऊँ. मेरे पास कोई और उपाय नहीं. मेरे लिए अब सारे शहर एक से हैं. सारी रातें एक सी हैं. सारी यातनाएँ एक सी हैं. अपने लिए कोई एक यातना चुनना है. इतनी क्रूरताओं में कोई संवेदनशील मन कैसे और क्‍यों जीवित रहे.

विभीषिका और प्रेम में ही यह संभव है कि हज़ारों सूर्य एक साथ प्रकाशित हों, हज़ारों डिग्री का तापक्रम हो और तत्‍क्षण लोहा पिघल जाये. फिर मनुष्‍य देह की तो बात ही क्‍या. क्‍या युद्धजन्‍य जुगुप्‍सा के बीच ही प्रेम को अपनी जगह खोजना है. घृणा को हृदय से इस तरह पोंछना कि उसकी कोई ‘हिडन फाइल’ भी न रह जाए, दुष्‍कर है. उसके ऊपर केवल प्रेम की परत बिछाई जा सकती है. लेकिन यह भी दुष्‍कर है. दोनों के बीच कोई संयोजन, कोई लुआब नहीं, कोई सरेस नहीं. यह मन का पलायन है या देह का. यह शव साधना है या ध्‍यानावस्‍था का सहजाभिनय. इसमें तटस्‍थ रहना, निर्विकार रहना कितना मुश्किल है. आदमी खुद को नष्‍ट कर सकता है, स्‍मृति को नहीं. तुम कैसे आँखें फेर लोगे. तुम चीजों को कैसे नहीं जानोगे. तुम कैसे भूल जाओगे. तुम मनुष्‍य हो.

यह प्रेम के अभाव का, उसकी मरीचिका का अंकन है. अथवा साम्राज्‍यवाद, फ़ासीवाद या युद्धवाद के अक्षम्‍य अपराधों का रेखांकन. जिसे मनुष्‍य की वेदना और प्रेम की ऐंद्रिक अराजक गलियों से गुज़रकर अभिव्‍यक्‍त होना है. या संयम का इस तरह शमन करना है कि वह और उग्र हो जाए और अधिक अनियंत्रणकारी. यह ज्‍वार को भाटा बनाकर चित्रित करना है. जब कुछ बचा ही नहीं तो शोक किसका. और किसके लिए. मगर भीतर कोई है जो आपको याद दिलाता रहता है कि यही त्रासदी है. या यह एक समवेत विरोध प्रदर्शन है.

‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ फ़िल्म से एक दृश्य

(चार)

क्‍या हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरने से युद्ध हमेशा के लिए समाप्‍त हो गया. क्‍या शांति स्‍थापित हो गई. क्‍या यह प्रश्‍न अप्रासंगिक हो गया कि जब हिरोशिमा हुआ तो बाकी शहर क्‍या कर रहे थे. जब हिरोशिमा के लोग अव्‍याख्‍येय नृशंसता से मर रहे थे तो संसार के शेष लोग क्‍या कर रहे थे. क्‍या प्रेम होने से, एक देह के ऊपर दूसरी देह के गिरने से जीवन के बाकी युद्ध समाप्‍त हो जाएँगे. क्‍या अब मनोजगत में शांति छा जाएगाी. अब क्‍या मौसम हमेशा के लिए सुख भरे हो जाएँगे. ऋतुओं में विचलन नहीं होगा. क्‍या अब मेरा पहला प्रेम, मेरा पहला शहर, मेरा अंतिम आश्रय ‘नेवुअर’ मेरे हृदय को मुट्ठी में रखकर भींचना बंद कर देगा.

इस अग्निकांड के बाद, इस प्रलय के बाद अब निर्जन में पहले एककोषीय जीवन आएगा. फिर काई, फिर वनस्‍पतियाँ, मछलियाँ और फिर बाक़ी सब. और यह मिथकीय कथाओं की तरह सात दिनों में नहीं होगा. यह पहाड़ बनने की गति से होगा. यह ऊर्ध्‍व के धूल धूसरित होने से होगा. यह उत्‍तर दिशा के चुंबक हो जाने से होगा. यह पृथ्‍वी के धीरज से होगा. मनुष्‍यता का हर पक्ष दाँव पर होगा. बीच में राख की बारिश होगी. जैसे प्रेम के गुज़र जाने के बाद होती है. जैसी विनाश के बाद होती है.

अब क्‍या तुम मेरी आत्‍मा पर, मेरी देह पर उस अनुकूलन के साथ आओगे जैसे हाथों में दास्‍ताने एकदम दुरुस्‍त बैठ जाते हैं. जहाँ दो त्‍वचाएँ एक हो जाती हैं. ठीक है, अब हम एक ‘ऐपिडरमिस’ हैं. लेकिन तुम मुझे ठीक तरह जान नहीं सकते. क्‍योंकि त्‍वचा से कुछ नहीं जाना जा सकता. वह छिलका है. अंतर के ऊपर एक कवच है. तुम कहते हों कि मैं हज़ारों में, लाखों में एक हूँ तो वह इसलिए कि तुम मुझे जानते नहीं. दरअसल, मैं अपने एक होने में ही हज़ार हूँ.

लक्ष हूँ. कोटि हूँ.
यह पागलपन है और प्रतिभा. दोनों दुस्‍साहस के समानार्थी हैं. पूरक हैं. जैसे सत्‍य और झूठ. जैसे अपराध और पश्‍चाताप. परगमन-प्रेम और नैतिकता एक साथ नहीं रहते. सुनो, मुझे संदेहास्‍पद नैतिकता में सच्‍चा यकीन है. जर्जर नैतिकता ही प्रेम को मजबूत धरातल दे सकती है. जैसे ही वर्जनाएँ हटती हैं, प्रेम एक चमक में, प्रगल्‍भता में बदल जाता है. इनमें से किसी बात का स्‍पष्‍टीकरण नहीं दिया जा सकता. स्‍पष्‍टीकरण चीज़ों को और अधिक धूमिल कर देगा. तुम्‍हें और अधिक अविश्‍वास से भर देगा. स्‍पष्‍टीकरण की यही नियति है. यही निरीहता. यह हास्‍यास्‍पद लग सकता है लेकिन संसार में ऐसा क्‍या है जो हास्‍यास्‍पद नहीं है. क्‍या है जो हास्‍यास्‍पद होने को अभिशप्‍त नहीं.

दो अंतरंग अनुभवों के बाद यह प्रेम लुभा रहा है. लेकिन इसी में क्षरण है. इसका और अधिक होना इसे नष्‍ट कर देगा. अब वापसी का इंतज़ार है. अब पुरुष को पुरुष होना याद आएगा. स्‍त्री को स्‍त्री होना. परिवार. अन्‍यथा सुखी जीवन. आशंकाएँ. संदेह. व्‍यर्थताएँ. ऊब. अब एक-दूसरे से बिछुड़ने की प्रतीक्षा है. यह चक्र का पूरा होना है.

यह वृत्‍त है या असीम तक खिंची समानांतर दो रेखाएँ.
दो भय के बीच एक त्रासदी रहती है.
दो त्रासदियों के बीच भय के विस्‍तृत बीहड़ हैं.
युद्ध और प्रेम दो छोर हैं. दो विभीषिकाएँ.
बीच में जीवन का खण्‍डहर अलंघ्‍य है.

‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ फ़िल्म से एक दृश्य

(पाँच)

अपनी व्‍यथा सुनाना ही सबसे बड़ी यंत्रणा है. दुख को याद करना उसे मन में पुनर्निर्मित करना है. एक बार फिर उसकी व्‍यतीत पीड़ा में से गुज़रना है. स्‍मृति कंपित होती है कि अपने प्रिय की मृत्‍यु के ‘रीक्रिएशन’ का कठिनतम कार्यभार उसके पास आ गया है. इससे अधिक भयानक कुछ नहीं. हत्‍यारों के प्रति घृणा से पार चले जाना संघर्षातीत है. यह अपने अंग-प्रत्‍यंग को स्‍मृति के पत्‍थर पर पछीटना है. तार्किक हो जाना सात्विक क्रोध को नष्‍ट कर देना है. दूसरे देश के व्‍यक्ति से प्रेम द्रोह है.

ख़ुद से, अपने शहर से और राज्‍य से द्रोह है.
लेकिन कुछ बातें, कुछ हार्दिक संकट केवल प्रेम को बताए जा सकते हैं. अपने पुराने प्रेम की कथा भी नये को पुराना प्रेम मानकर सुनाई जा सकती है. एक दिन हम इस प्रेम को भी नष्‍ट कर देंगे. आज के प्‍यार को बस, कल ही भूल जाना चाहेंगे. और प्रेम में भूलने को प्रेम के रूपक की तरह याद करेंगे. हम प्रेम को अपने शहर के सौंदर्य और उसकी यातना से जोड़ देंगे. अपनी स्‍मृतियों से, अधूरी आकांक्षाओं से, किसी देखे गए विस्‍मृत स्‍वप्‍न से.

हम कहेंगे कि वे शहर कितने मनोरम हैं जहाँ दिन-रात जाग बनी रहती है. कुछ न कुछ स्‍पंदित रहता है. हम प्रेमियों के नाम उनके शहर पर रख देंगे. उनके माध्‍यम से हम उन शहरों का दुख-सुख देखेंगे. हम अनचाहे रो पड़ेंगे और अपना सिर एक रात में अर्जित विश्‍वास की छाती पर टिका देंगे. एक रेस्‍त्राँ में बैठकर सुनाई गई व्‍यथा, रेस्‍त्राँ को भी स्‍मृति के अविभाज्‍य शिल्‍प में ढाल देती है. चेतन में और अवचेतन में.

बीच-बीच में संगीत कुछ विषयांतर करता है.
राहत नहीं देता.
क्‍या यह दो शहरों के बीच का प्रेम दो भिन्‍नताओं, दो संस्‍कृतियों, दो भूगोल के बीच का पुल है. या दो कामुकताओं या दो व्‍यग्रताओं का. यह ध्‍वंस को निजी प्रेम की ओट में रखने की असफलता है. या उन आरोपित त्रासदियों को परे ठेलने की बेकार कोशिश, जिन्‍होंने यौवन छीन लिया. उम्र को निष्‍प्रभ कर दिया. इस क़दर कि सांत्‍वनाएँ नाकामयाब हैं. यह बड़बड़ाहट तानाशाह सत्‍ताओं के खिलाफ कोई परिवाद है.

बयान है. या सिर्फ़ प्रलाप.
हर प्रेम को कहना पड़ता है- विदा. अकसर अनचाहे क्षण में. कभी एक दिन के अंतराल में ही. कभी दृष्टि के तिर्यक से, कभी ठीक सामने बैठकर. कभी क्‍लोज अप में, कभी लौन्‍ग शॉट में, कि जाओ, मुझसे दूर जाओ. इसी वक्‍़त. तुम नहीं जाना चाहते. मैं भी नहीं चाहती कि तुम जाओ. लेकिन जाओ. अब हम कभी दुबारा नहीं मिलेंगे. कोई किसी को खोना नहीं चाहता मगर खोना पड़ता है. यही अप्रत्याशित का प्रत्‍याशित दर्शन है. हमें डेटा इरेज करना पड़ता है. उसी सहमति के साथ. उसी दृढ़ता के साथ. जिसके साथ हमने इसे निर्मित किया था.

‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ फ़िल्म से एक दृश्य

(छह)

मैं संशय में हूँ. यही प्रेम है.
मैं तुम्‍हें दूर करना चाहती हूँ लेकिन तुम्‍हारे पास रहना चाहती हूँ. यही प्रमेय तो अप्रमेय है. इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता. यह प्रेमिल अविश्‍वास की आकांक्षा है. व्‍याभिचार की, झूठ की, अधैर्य में बसे सुख की और मृत्‍यु की. अब जीवन के साथ मृत्‍यु किसी छाया की तरह नहीं, एक प्राधिकारी की तरह चलती है. कुछ गर्व से, कुछ अपराजेय भंगिमा से.

यह मैं किस सीमांत पर हूँ. इसके किसी तरफ़ कोई देश नहीं. कोई बसाहट नहीं. हर प्रेम शत्रु है. हर प्रेम नष्‍ट करता है. वह उस तिलचट्टे की तरह है जो परमाणु विस्‍फोट में भी नहीं मरता. वह हमारी आयु के रंध्रों में रहने लगता है, उसे जीर्ण करता है. और हम प्रेम का नहीं, बिछोह का शोक मनाते रह जाते हैं. प्रेम और युद्ध में वे ही ज्‍़यादा आहत होते हैं जो लड़ नहीं रहे होते हैं. समय और स्‍मृति एक-दूसरे को नष्‍ट करते हैं.

यह दुरभि संधि है.
ओह, तुम मुझे आज, अभी-अभी तो मिले हो. यह कितना मुश्किल है कि कल सुबह ही मुझे कहना होगा: तुम मुझे कभी मिले थे. प्रेम विस्‍थापित कर देता है. शरण देता है लेकिन अजीब ढंग से शरणार्थी बना देता है. नाश करते हुए निर्मित‍ि का आश्‍वासन देता है. इस प्रस्‍थान, इस वियोग के पहले मुझे वह घड़ी चाहिए जिसमें काँटें न हों. जिसमें समय बीतने की टिक टिक न हो. मगर असंभव शब्‍द बना ही इसलिए है कि संसार में ऐसा कुछ हमेशा है जो संभव नहीं.

तोलस्‍तोय, फ्लाबेयर या हॉथोर्न की हतभागी नायिकाओं का अंत तुम्‍हारा नहीं क्‍योंकि तुम हिरोशिमा में हो. बीसवीं शताब्‍दी की बीच धार में. सुखी मध्‍यवर्गीय गृहस्‍थी में, चयनित प्रेम की सुविधा तुम्हारे पास है. नागर जीवन का आचरण, क़ानून और समाज बदल रहा है. बस, वह विपदा नहीं बदली है जो हृदय से निकलकर शेष ज़‍िंदगी की शिराओं में बहने लगती है. जिसे लिखा नहीं जा सकता, जिसकी तस्वीर नहीं खींची जा सकती, जो अकथनीय है. बस, वह बनी रहती है- श्‍वास की सिम्‍फ़नी में और अँधेरे तलघर में.

अंतिम दृश्‍यों में एक होटल पर अक्षर चमकते हैं : कासाब्‍लांका.
क्‍या यह उस टीस भरी फ़ि‍ल्‍म का नाम है, उस प्रेम का जिसमें योग नहीं, वियोग है. राग नहीं, शोक है. सुखांत असंभव है. बिछोह अनिवार्य है. इरादतन या गैर इरादतन उसे घटित होना है. अक्षय वेदना का अंग हो जाना है. मनुष्‍य चला जाता है. परछाईं बनी रहती है. अंधकार में भी. प्रेम विदा हो जाता है. लगता है कुछ छूट गया. कुछ अधूरा है.

फिर वियोग आता है और अधूरी कथा को पूरी कर देता है.

‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ फ़िल्म से एक दृश्य

Hiroshima Mon Amour, 1959
Director: Alain Resnais

पुनश्‍च:

जो कथातत्‍व की खोज में फ़‍िल्‍म देखना चाहते हैं वे साहित्य के अपराधी हैं.

जैसे इसी का एक साक्ष्‍य है फ़‍िल्‍म ‘हिरोशिमा मॉन अमूर . हिरोशिमा, माई लव. यह जितनी फ्रेंच फ़‍िल्‍म है, उतनी ही जापानी. और उससे ज्‍़यादा वैश्विक. दो शहरों हिरोशिमा और नेवुअर में प्रत्‍यावर्ती विचरण करती हुई. जटिल और आकर्षक. नाड़ीतंत्र की तरह अपने अँधेरों में उलझी लेकिन दीप्‍त और विरेचक. मर्गेरीट ड्यूरॉस का गद्य पढ़ते हुए किसी भी सर्जनात्‍मक मन में फ़‍िल्‍मकार होने का विचार आ सकता है. फिर ‘हिरोशिमा मॉन अमूर’ तो स्क्रिप्‍ट के लिए ही लिखी गई थी.

यह पटकथा बेहतर है या फ़‍िल्‍म. इसका एक ही उत्तर है- ‘ख़ामोशी’.

मर्गेरीट ड्यूरॉस कहती हैं- ”मैं प्रेम की कोमलता के बारे में नहीं लिखती.”

दरअसल, सारी कलाएँ, साहित्य और चिकित्सा पद्धतियाँ गवाह हैं कि कोमलता अल्पायु है. भंगुर है. वेदना चिरायु है. निदेशक अलँ रेने इस भावना को आत्‍मसात करते हैं और उसका सिनेमा बनाकर रख देते हैं. इमेन्‍युले रीवा इसे चरितार्थ करती हैं. ऐजी ओकादा के साथ. (सन् उनसठ से प्रेम इमेन्‍युले रीवा का कुछ इस तरह पीछा करता है कि दो हज़ार बारह की ‘अमोर्’ में प्रेम ही उन्‍हें मार डालता है. यह पता नहीं कि मरकर चैन मिला या नहीं.)

संदर्भ- छाया मत छूना मन…. : कवि गिरिजा कुमार माथुर की काव्‍य पंक्ति.

 

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.

kumarambujbpl@gmail.com

Tags: HiroshimaMy Loveविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 24

  1. Anonymous says:
    7 months ago

    बहुत सुंदर

    Reply
  2. श्रीविलास सिंह says:
    7 months ago

    एक त्रासदी, एक अपरिमेय पीड़ा का संघनित आलेख। भीतर कहीं उद्वेलित करता, झिंझोड़ता दारुण दुःख का आख्यान। फ़िल्म के बहाने जीवन और जीवन के औचित्य पर प्रश्न उठाता सारगर्भित लेखन।

    Reply
  3. बजरंगबिहारी says:
    7 months ago

    ” जो कथा तत्व की खोज में फिल्म देखना चाहते हैं वे साहित्य के अपराधी हैं।”
    यह कथन फिल्म के साथ इस गद्य कविता पर (भी) उतना ही घटित हो रहा है।
    एक सांस में पढ़ गया!
    पढ़ना प्रीतिकर है।
    बाद में समझता रहूंगा।

    अभी इतना ही कि –

    हिरोशिमा संहार को पाशविक कृत्य न कहिए।
    यह शुद्ध ‘मानवीय’ कर्म है।

    “मैं तुम्‍हें दूर करना चाहती हूँ लेकिन तुम्‍हारे पास रहना चाहती हूँ. यही प्रमेय तो अप्रमेय है. इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता.”

    ‘प्रमेयाप्रमेय’ में उलझा चित्त कुमार अंबुज को साधुवाद दे रहा है।

    -बजरंगबिहारी ।

    Reply
  4. गगन गिल says:
    7 months ago

    परगमन पर ऐसी मर्म भेदी बात कभी नहीं सोची थी। कथन की शुरुआत ही शिखर छू कर हुई। मैं उत्सुक थी अब आगे क्या होगा।

    जितनी नाज़ुक वह फ़िल्म है उतना नाज़ुक ही अम्बुज जी का उस पर लिखा यह लेख। कहीं भी predictable नहीं। जैसे कई सारे गड्डे खाइयों के बीच एक घूमती हुई गेंद साफ़ बच कर निकल आए।

    मेरे पास कोई सुंदर शब्द होता तो आज उन्हें देती।

    आपको धन्यवाद।

    Reply
  5. सुदीप सोहनी says:
    7 months ago

    You saw nothing in hiroshima. Nothing! ~ अम्बुज सर का फ़िल्मों पर लेखन लगातार पढ़ रहा हूँ। यह अद्भुत फ़िल्म है त्रासदी और प्रेम की। पहले दृश्य की रेत के कण जैसे अब भी आँखों में चुभ रहे। आलेख को पढ़कर सोच रहा हमारी पिछली पीढ़ी कितना विनाश कर गई। मन में आया और परमाणु बम फोड़ दिया। और तब किसी ने हिरोशिमा मोन आमोर जैसा सिनेमा रच दिया। त्रासदी में प्रेम और वियोग किसी भी समय के सबसे करुण अनुभवों में एक है। इस आलेख ने भीतर तक भिगो दिया।

    Reply
  6. Vijay Sharma says:
    7 months ago

    त्रासदी को इतने खूबसूरत शब्दों में, वाक्यों में कोई कवि ही ढ़ाल सकता है। फ़िल्म नहीं देखी है अब देखनी ही होगी। समालोचन और कुमार अंबुज को साधुवाद।

    Reply
  7. Daya Shanker Sharan says:
    7 months ago

    हिरोशिमा और नागासाकी की घटनाएं मनुष्य निर्मित भीषण त्रासदियों में से एक है। कुमार अंबुज ने उस लोमहर्षक घटना के दुष्प्रभावों की कई कोणों से बहुत बारीक पड़ताल की है। यह सिर्फ एक फिल्म की समीक्षा भर नहीं है। इसमें सभ्यता के अस्तित्व की मूल चिंता एवं सरोकार समाहित है।उन्हें साधुवाद !

    Reply
  8. कैलाश बनवासी says:
    7 months ago

    यह शायद पहली ऐसी फिल्म समीक्षा है जो किसी समीक्षक ने नहीं,प्रेम की उस यातना या युद्ध के शिकार भुक्तभोगी ने अपूर्व और अद्भुत तीव्रता से लिखी है,जो लिखना भी नहीं है अपने गहरे घावों को उसी यातना के पुनरर्स्मरण से फिर फिर कुरेदना है, साक्षात, जिसमें कोई आड़ या बचाव भी नहीं।
    इसे बार बार पढ़ना होगा। बहुअर्थी शब्दों को एक ही पाठ से समूचा पाया भी नहीं जा सकता।
    कुमार अंबुज को बधाई नहीं दूंगा,हां सांत्वना दूंगा इस पीड़ा से अंशत: ही बाहर आ पाने के लिए। इस पीड़ा का ग्लेशियर अभी भी एक तिहाई डूबा हुआ है प्रेम के समुद्र में ।
    समालोचन का आभार जो इस कोटि की रचना से हमें मिलाया।

    Reply
  9. तेजी ग्रोवर says:
    7 months ago

    ग़ज़ब का आलेख। फिल्म के सम्पूर्ण रोमांच को आपकी दृष्टि ने सहेज लिया है, और यह दृष्टि भी उसी स्क्रिप्ट का हिस्सा हो गयी है जिसके बिना इस फिल्म को देखना नामुमकिन है। ” तुमने हिरोशिमा में कुछ नहीं देखा।” यह उससे कहा जाता है जो हिरोशिमा में एक फ़िल्म शूट कर रही है। प्रत्युत्तर में वह कहती है, “मैंने हिरोशिमा में सब देखा है।” नायिका/एक्टर “देख लिया है” नहीं कहती। देखने की यह प्रक्रिया कभी ख़त्म नहीं होगी। अपने जर्मन प्रेमी की मृत्यु को भी इस भंगुर और जुनूनी प्रेम के आलोक में पुन: जी लेना उस प्रेमी के साक्ष्य में ही मुमकिन है जिससे वह कुछ ही घड़ियों में जुदा होने जा रही है! कुमार अम्बुज ने इस फिल्म की सभी तहों-सलों और गुह्य कोनों को टटोल मारा है और अपने चिंतन और अपनी सोच की प्रक्रिया से पाठक को बेहद उद्वेलित भी किया है।

    Reply
  10. Yadvendra Pandey says:
    7 months ago

    मैं इसे किसी अदेखी फ़िल्म के बारे में लिखे आलेख की तरह पढ़ने की कोशिश कर रहा था पर भावनाओं का सिरा बार बार फ़िल्म की भौतिक काया से फिसल कर कहीं और चला जा रहा था।यह प्रेम के भौतिक और आध्यात्मिक सिरों के बीच खिंचे तंतु पर थिरकते करुण संगीत का शाब्दिक बयान है जिसके मध्य में फ़िल्म उभर उभर आती है।लिख तो रहा हूं आलेख को दो बार पढ़ कर पर जानता नहीं कि आगे और पढ़ने पर क्या क्या नई परतें और खुलेंगी। मैं इसे कुमार अंबुज की एक कविता मानता हूं।
    — यादवेन्द्र

    Reply
  11. Swati Melkani says:
    7 months ago

    बहुत अच्छी समीक्षा ।
    लगा कि एक और कविता ही पढ़ी।

    Reply
  12. विनय कुमार says:
    7 months ago

    फ़िल्मों पर यूँ भी लिखा जा सकता है ! इतना इंटेन्स आलेख पहली बार पढ़ा। Kumar Ambuj का यह आलेख सहेजने लायक़!

    Reply
  13. आशुतोष कुमार says:
    7 months ago

    यह कोई समीक्षा नहीं, इस महान फ़िल्म का हिंदी कविता में रूपांतरण है। कहना न होगा कि यह रूपांतरण सफल भी है और सार्थक भी। शायद कुमार अम्बुज ही इसे सम्भव कर सकते थे। प्रश्न है, क्या प्रेम उन्ही स्थितियों में सम्भव होता है, जिनमें उसका होना नितांत असम्भव होना चाहिए। आलेख पढ़ लेने के बाद पाठक के मन में इस सवाल की गूंज रह जाती है, यही इस आलेख की उपलब्धि है।

    Reply
  14. प्रभात मिलिंद says:
    7 months ago

    यह गहन वैचारिक चिन्तन के साथ लिखा गया आलेख है जो यह इंगित करता है कि एक सच्चे और समर्थ रचनाकार के लिए बहुविध कला-माध्यमों की सम्यक जानकारी रखना उस रचनाकार को पढ़ने-सुनने-देखने के लिए कितना मददगार हो सकता है।

    ‘हिरोशिमा, माय लव’ यूँ तो युद्ध की विभीषिका और नरसंहार, तथा उसके ‘पोलिटिकल-इमोशनल फॉलआउट’ को दर्शाती एक गंभीर फ़िल्म है किंतु कुमार अंबुज जी का यह आलेख हमें इसे इतर दृष्टि से भी देखने के लिए प्रेरित करता है। फ़िल्म में अभिव्यक्त अतीत और वर्तमान, स्मृति और विस्मृति, वहशत और राहत, भय और स्वप्न, प्रेम और साझेदारी, संवेदना और आत्ममुग्धता के बीच जो ‘हिडन कॉर्नर्स’ हैं, यह आलेख उन कोनों के अन्वेषण का श्रमपूर्ण प्रयास करता है।

    कुमार अंबुज की गद्यभाषा और विश्व सिनेमा को देखने की उनकी अंतर्दृष्टि चकित करती है। हिरोशिमा और नेवर्स का समवेत संताप लंबी अवधि तक मस्तिष्क में बना रहता है। इस आलेख को फ़िल्म का ‘लिटरेरी आफ्टरल्यूड’ कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। फ़िल्म के कथानक, किरदार और उनके मनोभावों के ‘इनर स्पेस’ की अद्भुत ‘पोएटिक सिनेमेटोग्राफी !’

    Reply
  15. जीतेश्वरी says:
    7 months ago

    यह सचमुच कुमार अंबुज जी की कविता है। किसी फिल्म को लेकर लिखी गई इतनी सुंदर समीक्षा एक सुंदर काव्यात्मक भाषा में पढ़ने का अवसर पहली बार मिला।

    कुमार अंबुज जी ने हिरोशिमा के बहाने मनुष्य के जीवन को उसके सुख, दुख और उसकी जिज्ञासाओं को बेहद खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश ही नहीं कि बल्कि वे इसमें सफल भी हुए।

    भाषा ऐसी है कि मैंने इस लेख को एक सांस में पढ़कर समाप्त किया। इसके बाद लग रहा था, काश ! यह समाप्त न होकर आगे चलते जाता तो मन को और सुकून मिलता।

    ‘ समालोचन ‘ को इस खूबसूरत लेख के लिए बहुत शुक्रिया और कुमार अंबुज जी को बहुत बधाई💐💐

    Reply
  16. Kumar Ambuj says:
    7 months ago

    सिनेमा के बहाने रुचिसंपन्न, सुधि और बेचैन मित्रों ने इसे जिस तरह पढ़ा और अपने-अपने तरीकों से ग्रहण किया, उन बिंदुओं और व्यंजनाओं की तरफ चले गए जिनसे मुझे भी संपन्नता मिली: इसके लिए सबको धन्यवाद। क्योंकि जैसा आप लिखना चाहते हैं, वैसा पढ़नेवाले न हों तो लिखा हुआ प्रतीक्षा में ही बना रहता है।

    प्रिय अरुण, समालोचन की अभिरुचि इसका हिस्सा है।
    🌹🌹

    Reply
  17. शरद कोकास says:
    7 months ago

    यह गद्य फ़िल्म समीक्षा,कविता या आलेख इनकी सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ, अवचेतन में झंझावात उत्पन्न करता हुआ एक ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो वर्णित दृश्यों से परे जाकर हमारी सोच को विस्तार देता है ।
    प्रेम एक विद्रोह है यह परिभाषा अब पुरानी हो गई है। यह अब विभीषिका भी है। प्रेम की मृत्यु अवश्यम्भावी है। मृत्यु के बाद उसकी लाश उठाकर घूमते रहना नियति है । संहारक के रूप में शिव होना कष्टदायक है ।
    कुमार अम्बुज प्रेम और विभीषिका को लेकर जाने कितने बिम्ब यहाँ गढ़ते हैं। परिभाषाओं की द्वंद्वात्मकता में वे नए आख्यान रचते हैं, मिथकों की निरर्थकता को लेकर आगाह भी करते हैं। इस पूरे आलेख में देह, प्रेम , नियति, विभीषिका, नियति इन समस्त संप्रत्ययों को समानांतर चलते हुए देखा जा सकता है । छह खंडों में चलने के बावजूद यह एक अंतहीन सिलसिला है।

    शरद कोकास

    Reply
    • Kumar Ambuj says:
      7 months ago

      धन्यवाद।

      Reply
  18. Shekhar pathak says:
    7 months ago

    अद्भुत समीक्षा.

    Reply
  19. अमरेंद्र शर्मा says:
    7 months ago

    यह लेख कई मायनों में चौंकाता है । गद्य की रफ़्तार में अर्थगर्भित छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग अनुकरणीय । सिनेमाई रूपबंध में युद्ध, हिंसा, त्रासदी में प्रेम की अवस्थिति और उदासी की गतिकी को कविता की तरह कुमार अंबुज का यह लेख बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करता है । यकीन मानिए पढ़ लेने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करेगा ।

    Reply
    • Kumar Ambuj says:
      7 months ago

      आभार।

      Reply
  20. कुमार विजय गुप्त says:
    7 months ago

    “हिरोशिमा , माय लव” की काव्यात्मक समीक्षा ! इस फ़िल्म के भीतर जो रिदम है , स्वर है , आत्मा है सभी का शाब्दिकरण आपने कर दिया । फ़िल्म आंखों के सामने घूम गयी । धन्यवाद अम्बुज सर !

    Reply
    • Kumar Ambuj says:
      7 months ago

      आभार।

      Reply
  21. Anonymous says:
    6 months ago

    यह कविता के शिल्प की ताकत है कि उसी स्तर पर जाकर कवि कुमार अम्बुज फिल्म की समीक्षा करते हैं । हिंदी के योद्धा कवियों ने विश्व सिनेमा को लेकर प्रभावशाली समीक्षाएं की हैं। हम कवि विष्णु खरे और मंगलेश डबराल की समझ के बारे में पहले दरयाफ़्त हैं।
    कवि कुमार अम्बुज के गद्य और काव्य शिल्प जानते ही हैं। सिनेमा पर उनका हस्तक्षेप काबिलेगौर है।

    हीरालाल नागर

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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