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Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
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दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव
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दलित स्त्री आत्मकथाएं
अकिंचन स्वरों की महाप्राण पुकार

गरिमा श्रीवास्तव

स्त्री आत्मकथ्यों पर विचार करने के लिए मोटे तौर पर चार निकष ग्रहण किये जा सकते हैं जिनमें जाति, वर्ग, वर्ण, जेंडर के साथ संप्रदाय या धर्म  को भी  देखा जाना चाहिए. ये सभी निकष आपस में गुंथे यानी प्रतिच्छेदी अवस्था में अपना अस्तित्व रखते हैं.  यदि भारतीय समाज की संरचना देखें तो यहाँ के विभिन्न पदानुक्रमों में सत्ता और शक्ति के केन्द्रों पर किसी वर्ग, जाति, जेंडर या सम्प्रदाय का आधिपत्य है.  सामाजिक संरचनाओं के भीतर बहुस्तरीयता होती है जिसका आधार किसी वर्ग, जाति, जेंडर या नस्ल का उत्पीड़न होता है.  जिसमें किसी एक वर्ग या जाति के प्रभुत्व की स्थापना के लिए अन्य को दमित–उत्पीड़ित किया जाता है.  समाजैतिहास में  अन्तर्विभाजक पदानुक्रमिकता का निर्माण होता है.  विभिन्न अस्मिताएं, जो  केंद्र के आसपास मंडराती रहती हैं उनमें जाति और जेंडर को प्रवेश बिन्दुओं के तौर पर देखा जा सकता है. विभिन्न अस्मिताएं अपने दैनंदिन प्रतिरोध के तरीकों और रणनीतियों के साथ संघर्षरत रहती हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक पदानुक्रमिकता को बनाये भी रखना चाहती हैं. एक ओर जाति व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास भी करती हैं दूसरी ओर अपनी ही जाति के भीतर पदसोपानिकता को प्रश्रय भी देती हैं.

भारत में अस्सी के दशक में हम विभिन्न सामाजिक वर्गों की आपसी आवाजाही के बीच अन्तर्विरोध को एक विश्लेषणात्मक ढाँचे के रूप में उभरता हुआ देखते हैं.  यह वही दौर है जब जाति, जेंडर और  कई तरह के वर्गों के आधार पर उत्पीड़न, वर्चस्व और भेदभाव की राजनीति को नए ढंग से समझने के  प्रयास शुरू हुए.  विभिन्न शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में आत्मकथा और आत्मकथात्मक लेखन को समाजवैज्ञानिक शोध के लिए आधार  स्रोतों के रूप में शामिल किया जाने लगा. अपने बारे में लिखकर या कहकर अपने साथ–साथ समुदाय और वर्ग के बारे में प्रामाणिक सूचनाएं देने का काम आख्यानकर्ता करता है. अपने जीवन की विभिन्न स्मृतियों को मौखिक या लिखित रूप में आख्यान का आधार बनाकर वह अगली पीढ़ी में अपने अनुभवों को अंतरित करता है. अक्सर वैयक्तिक अनुभवों की अपेक्षा सामुदायिक अनुभवों को तरजीह दी जाती है और ज्यादा प्रामाणिक भी माना जाता है, क्योंकि लोग उसी को दुहराते हैं, बारम्बार सुनते हैं और फिर उसी को दुहराने लगते हैं.  लेकिन सत्य वही नहीं है जो समाज या समुदाय की वर्चस्वशाली शक्तियों द्वारा दुहराया और दर्ज किया जाता है.  जिसकी तेज़ आवाज़ के शोर में हाशिये की आवाजें कमज़ोर साबित होती हैं.

इन कमजोर आवाजों को आत्मकथन के माध्यम से अपनी बात कहने, ‘टेस्टीमोनियो’ (सामुदायिक साक्ष्य) प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है.  दरअसल ‘आत्म’ का निर्माण जाति, लिंग, वर्ग और वर्ण के साथ यौनिकता को सुदृढ़ करने वाले  परस्पर प्रतिच्छेदी (इन्टरसेक्शनल)  वाहकों के द्वारा होता है.  इस जटिलता के मद्देनज़र जब  सामाजिक जीवन की बहुआयामी कोटियाँ विश्लेषण का आधार बनती हैं तो ऐसे में जाति, वर्ग, वर्ण, जेंडर  की कई कोटियाँ हमारे सम्मुख होती हैं जिनमें किसी एक अस्मिता या किसी एक कोटि से नहीं बल्कि परस्पर विलयित होती हुए अस्थिर स्वभाव की अस्मिताओं से हमारा सामना होता है और यहीं पर विभिन्न वर्गों, सम्प्रदायों, जातियों की अस्मिताएं अपने तमाम अंतर्विरोधों के साथ और भी अधिक जटिल रूप में उजागर हो जाती हैं.

समाज में विभिन्न अस्मिताएं अपनी पहचान के लिए परस्पर प्रतिच्छेदी  अवस्था (इन्टरसेक्शनैलिटी) में ही रहती हैं, वे स्वायत्त नहीं होतीं मसलन स्त्री और अश्वेत एक दूसरे से अलग नहीं बल्कि दोनों एक दूसरे के सूचक होते हैं.  इनकी परस्पर आवाजाही से उत्पीड़न का अभिसरण होता है.  सत्ता के सन्दर्भ में परस्पर प्रतिच्छेदी, एक दूसरे को काटती हुई सरणियों को जेंडर और नस्लभेद के पारस्परिक सम्बन्ध की खोज के दौरान देखा जा सकता है.  इसी तरह जाति और जेंडर को पहले समानान्तर माना जाता था परन्तु बाद के अध्ययनों ने  इन्हें परस्पर अंतर्ग्रथित साबित कर दिया. पितृसत्ता का सांस्थानिक अनुभव  समान होने के बावजूद जाति,  वर्ग, वर्ण और धर्म के अन्तराल  स्त्रियों के अनुभवों को  अपेक्षाकृत ज्यादा, जटिल, मारक, उत्पीड़क और एक दूसरे से पृथक बनाते हैं.  स्त्रियों का जीवन जाति के अंतरफलक, धर्म, वर्ग और संप्रदाय के वैभिन्न्य पर टिका हुआ होता है, जो पितृसत्ता से परिभाषित होता है.  इसी के आधार पर जेंडर के नियम बनाये जाते हैं और वर्तमान समय में एक अस्तित्व के लिए श्रम–विभेदी और जेंडर–विभेदी व्यवस्था का निर्माण करते हैं.  वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में यदि हम इसे देखें तो यौनिकता, श्रम और अर्थोत्पादन के स्रोत दरअसल पितृसत्ता के भीतर छिपी हिंसा और स्त्री के दैहिक, मानसिक  शोषण एवं असमानता के रूप में दिखाई देते हैं.  जो असमानता पर आधारित समाज में भयंकर रूप से पद्सोपानिक व्यवस्था के परिणाम  हैं.

जाति आधारित समाज में, एक ढंग से एक ही जाति के भीतर अपनी ही जाति की स्त्री के ऊपर अपनी जाति के ही पुरुष के नियन्त्रण या वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास जेंडर सम्बन्धी शोषण का कारण बनता है.  पितृसत्ता से सम्प्रदाय और धर्म के गठजोड़ को मुसलमान स्त्रियों की आत्मकथाएं अभिव्यक्त करती हैं.  जितनी बेबाकी से मुसलमान स्त्रियाँ इस्लाम के भीतर के दमन और प्रतिरोध की रणनीतियों को कह डालती हैं, ठीक उसी स्तर का प्रतिरोध और आलोचना हमें हिन्दू स्त्रियों के आत्मकथ्यों में उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध के बाद कहीं नहीं दिखाई देता.  यदि हिन्दू धर्म की आलोचना कहीं दिखाई भी पड़ती है तो वह साहस बीसवीं शती की दलित आत्मकथाकारों तक महदूद है. धर्म जहाँ इस्लाम में तगड़ी सेंसरशिप का काम करता है वहीं हिन्दू धर्म की कट्टरता से निजात पाने के लिए ईसाई या ब्राह्मो धर्म की ओर रुख कर लेने के प्रमाण कई स्त्री आत्मकथ्य देते हैं. उधर बांगला और मलयालम में लिखने वाली अधिकाँश स्त्रियाँ आभिजात्य और मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं उनके आत्मकथ्यों को वर्ग में अंतर्ग्रथित जेंडर विभेद और श्रम विभेद के समीकरणों के आलोक में देखा जाना चाहिए.  भारतीय समाज में पितृसत्ता जाति, वर्ण, वर्ग और धर्म के विभिन्न स्तरों पर अपनी जटिलता के साथ मौजूद है.  पौराणिक धर्म ग्रंथों, आचार–संहिताओं में निम्न जातियों और स्त्रियों के लिए अलग प्रावधान दिए गए.

वर्ण व्यवस्था को अपनाकर जाति व्यवस्था का आधार पुख्ता किया गया और इस तरह भारतीय सामाजिक संरचना को एक जटिल बहुआयामी स्वरुप मिला.  समाज की सोपानिक-व्यवस्था या जाति ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया.  जाति के कारण स्त्री के शोषण की प्रक्रिया और परिणाम में बहुआयामिता का प्रवेश होता है.  जहाँ ऊँची जाति की स्त्री अपने जेंडर के कारण परिवार और समाज में असमानता के अनुभवों से रु-बरु होती है.  पितृसत्ता की मौजूदगी वैयक्तिक स्वतंत्रता के हनन, पर्दा और अभिव्यक्ति पर पाबन्दी लगाने जैसे अनेक मुखौटों के साथ उनकी रचनाओं में झांकती है, वहीं निम्न जाति की स्त्री का शोषण वर्ग, जाति और जेंडर के कारण त्रिस्तरीय हो जाता है, कहीं वह पति की मार खाती है, कहीं अपमान का शिकार होती है, कहीं उसे विद्यालय  में घुसने से रोका जाता है, कहीं मंदिर में.  आर्थिक  और सामाजिक समानता  के सपने देखने वाले  समाज में व्याप्त लैंगिक और  जाति विभेद के बहुआयामी पक्ष इन स्त्रियों की आत्मकथाओं को बहुआयामी बनाते हैं.

जाति, लिंग, वर्ग और नस्ल की अन्तःसम्बद्धता से चार शोषित वर्ग अस्तित्व में आते हैं– सवर्ण स्त्री, दलित स्त्री, दलित पुरुष और रंग और नस्लभेद के शिकार स्त्री–पुरुष.  जहाँ पहले के समाजशास्त्री जाति और लिंग को अलग–अलग अवधारणाओं के तौर पर व्याख्यायित करते थे वहीं नूतन अनुसंधान और विश्लेषण से इस पारंपरिक अवधारणा में बदलाव आया और जाति, वर्ग, लिंग और वर्ण के साथ धर्म को परस्पर जटिल रूप में संगुफित माना जाने लगा.  उधर पश्चिमी स्त्रीवाद ने नए शोध और आलोचना के आधार पर यह पाया कि नस्लभेद/रंगभेद  के अनुभवों को जीती स्त्री के अनुभव अन्य किसी भी स्त्री से अलग विशिष्ट और जटिल होते हैं, यानी अश्वेत(ब्लैक) और गैर–अश्वेत स्त्री के अनुभव एक दूसरे से बिलकुल अलग होंगे.  इसी तरह धर्म और सम्प्रदाय के नियम और सेंसरशिप स्त्री के अनुभवों को नितांत विशिष्ट बनाते हैं.

अगर स्त्री-आत्मकथा में  सत्य और प्रामाणिक अनुभवों की गूंज सुनाई देती है तो आत्मकथा–आलोचना के लिए यह ज़रूरी है कि उनके आत्मकथ्य  खोजे जाएँ, पुरानी रचनाओं  का पुनर्पाठ किया जाए और परस्पर असम्बद्ध दीखने वाली कड़ियों को एकसाथ रखकर देखा जाए.  स्त्री के आत्मकथ्य का विश्लेषण उसके समाज, समुदाय, पीड़ा, चोट, लिंग भेद के अनुभव मनोसामाजिकी और भाषा भंगिमाओं को सामने लाने में मदद करता है.  यह आलेख स्त्रियों की चुप्पियों, मितकथन और कथन की दरारों को विखंडित कर उनके विश्लेषण का प्रयास करता है.  ऐसा समय और समाज जहाँ स्त्री को नितांत निजी कोना उपलब्ध नहीं, वहां उसकी चुप्पी के भी मायने हैं और मितकथन के भी.  स्त्रियों के लिखे हुए ये ‘आत्मकथ्य’ हमें चेतावनी देते हैं कि मौन और मितकथन का अर्थ रिक्ति नहीं है.  ये हमारे ज्ञान और संवेदना की सीमा है जो हमें उसकी चुप्पी के पीछे छिपे अर्थ संदर्भों को खोलने नहीं देती.  कुछेक चुने हुए विषयों पर ही लिखना, लौकिक प्रेम की प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के  लिए भक्ति, अध्यात्म और राष्ट्रप्रेम का सहारा लेना, एक तरह की ‘सेल्फ सेंसरशिप’ है.  अकादमिक शोध केन्द्रों और आलोचकों की लम्बी उपेक्षा के बावजूद इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में  स्त्रीवादी सिद्धांत एक परिपक्व अनुशासन के तौर पर उपस्थित है.

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Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
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Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

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