
कालयात्रा में भीमबेटकादेवेंद्र मेवाड़ी |
यह मन भी कालयात्रा पर कहाँ-कहाँ भटकता रहता है! धरती से आसमान तक. आज से लेकर अतीत की दुनिया और भविष्य में बेरोक-टोक जब चाहे आता-जाता रहता है. लेकिन, वह अनुभव अनोखा और अविस्मरणीय बन जाता है, जब मन के साथ शरीर भी इस में शरीक हो जाता है.
यही हुआ. भोपाल गया तो मन भीमबेटका की ओर निकल भागा. बमुश्किल उसे रोका और कहा, नहीं, इस बार यों अकेले नहीं जाओगे, मैं भी साथ चलूँगा. वह तो न जाने कब से भीमबेटका के शैलचित्रा देखने को मचल रहा था, लेकिन अब तक मैं ही वहाँ जा नहीं सका था. इसलिए इस बार वहाँ गया तो मौक़ा मिलते ही वह भागने लगा.
रात में मध्य प्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के युवा मित्रा विकास शेंदे का फोन आया कि सुबह गाड़ी भेजूँगा. आप लोग चाहें तो आसपास घूम लें. मन ख़ुश हो गया. विकास से कहा-‘‘हम भीमबेटका जाना चाहेंगे.’’ सुबह सारथी ब्रजेश गाड़ी लेकर आया तो होटल पलाश से हम भीमबेटका के लिए निकल पड़े. हम यानी हम तीन- मैं, लखनऊ के बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान के वैज्ञानिक चंद्रमोहन नौटियाल और विज्ञान पत्रिका ‘आविष्कार’ के सम्पादक श्री राधाकांत अंथवाल.
भोपाल-होशंगाबाद रोड पर सड़क के दोनों ओर खड़े पलाश के पेड़ों को पीछे छोड़ते हुए हम सड़क के दोनों ओर फैले ओबेदुल्लागंज क़स्बे के बाज़ार को पार कर लगभग 45 क़िलोमीटर दूर रातापानी अभयारण्य की हरियाली के बीच विंध्य पर्वत माला के उत्तरी छोर पर भीमबेटका की विशाल काली, खड़ी चट्टानों के पास पहुँच गए. आसपास सागौन, शाल, बहेड़ा, कारी और तेंदू के पेड़ों तथा लेंटाना की छिटपुट झाड़ियों से भरा जंगल. कहते हैं, कभी पाण्डव यहाँ आए थे. भीम की बैठक के नाम पर इस स्थान का नाम भीमबैठका पड़ा, जो आगे चल कर भीमबेटका हो गया. इन शैलाश्रयों की खोज सन् 1957 में डॉ. विष्णु वाकनकर ने की थी, जो सफ़र के दौरान ट्रेन में से इन पहाड़ियों को देख कर चौंके थे. उन्होंने फ्रांस और स्पेन में ऐसी चट्टानों वाली पहाड़ियाँ देखी थीं. वे यहाँ आए और इन पुरा-पाषाणकालीन शैलाश्रयों को देखकर हतप्रभ रह गए.
मैं अपने सामने सदियों से खड़ी भव्य चट्टानों को देर तक देखता रहा. फिर देखा— थोड़ा ऊपर एक ओर के विशाल शैलाश्रय में आधुनिक मानवों ने एक मन्दिर की स्थापना कर ली है और दूसरी ओर के शैलाश्रय में करीने से दीवार चिन कर दरवाज़े का फ्रेम लगा दिया है.
दो कठोर चट्टानों के बीच दरार में जड़ें जमाकर हवा में हरी पत्तियों की हथेलियाँ हिलाता नन्हा पीपल कठिन परिस्थितियों में भी जैसे हँसते-हँसते संघर्ष करते हुए जीने का सन्देश दे रहा था. एक और ऊँची खड़ी चट्टान पर शान से खड़ा पीपल का ही एक बिरादर पेड़ दूर नीचे ज़मीन तक अपनी जड़ फैला कर किसी भी हालात में हार न मानने की बात कह रहा था.
चित्रांकित शैलाश्रयों की ओर जाने वाले मार्ग के मुहाने पर भीमबेटका को विश्व विरासत घोषित करने वाला सुनहरा फलक दिखाई दिया. यूनेस्को ने सन् 2003 में पुरा-पाषाणकालीन आदि मानवों की इस शरणस्थली को विश्व विरासत घोषित किया. भारत में यह मानव की बसाहट का प्राचीनतम स्थान है. माना जाता है कि इनमें से कुछ शैलाश्रयों में होमो इरेक्टस मानव रहा होगा.
इन शैलाश्रयों के एक गाइड रवीन्द्र राय और अपने दोनों साथियों, नौटियालजी और अंथवालजी के साथ पेड़ों के बीच से विशाल चट्टानों से बने शैलाश्रयों को देखते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ रहा था कि ऐन सामने एक बड़ी चट्टान की खोह में खड़े पाषाणकालीन मानव पर नज़र पड़ी. उसके पास ही उसकी स्त्रा कुछ पीस रही थी. पीछे बच्चा खड़ा था. बस, मन छूट कर काल यात्रा पर निकल गया. अब मैं अपने साथियों के साथ ‘हूँ’, ‘हाँ’ कह कर चल रहा था, रवीन्द्र की बातें सुन रहा था, लेकिन मन पुरा-पाषाणकाल में आदिमानवों के बीच पहुँच कर उन पुरखों को कंद-मूल जमा करते, शिकार पर जाते और चट्टानों के भीतर चित्रा बनाते हुए देखने लगा.
शायद वह पूर्व पाषाणकाल था, जब मन ने देखा- कुछ आदिमानव टहनी की पतली कूची से चटख लाल और हरे रंग से जानवरों के चित्र बना रहे थे. दम साध कर देखता रहा, उन्होंने एक गैंडे का चित्र बनाया. वर्तमान काल से गया मन क्षण भर चौंका—गैंडा? और, वह भी यहाँ इस पथरीले इलाक़े में? कि तभी वह सम्हला. याद आया—वर्तमान से 30,000 वर्ष पीछे अतीत में हूँ. तब तो भारत भर में गैंडे पाए जाते थे. उन चित्रकार पुरखों ने याद करते हुए, बड़े ध्यान से जंगली भैंसे, बाघ और रीछ का भी चित्र बनाया. वे लाल पत्थर और पत्तियाँ घिस कर रंग बना रहे थे. कुछ आदिमानव जंगल में पत्थर के भोंडे नुकीले हथियारों से हिरन का शिकार कर रहे थे.
मैं सोच में डूबा था कि नौटियालजी की आवाज़ आई- ‘‘क्या सोच रहे हैं? इधर आइए, आपका फोटो तो खींच लूँ.’’ उन्होंने फोटो खींचा, स्क्रीन पर दिखाया. मैं वर्तमान में खड़ा था. वे आगे बढ़े और मेरा यायावर मन पलट कर मध्य पाषाण काल में पहुँच गया.
आज से 12,000 से 5,000 वर्ष के बीच का समय रहा होगा. यहाँ आदिमानवों के जीवन में हलचल बढ़ गई है. वे चट्टानों के भीतर सजावट के साथ चित्र बना रहे हैं. वन्य पशुओं के साथ मानव आकृतियाँ भी बनाने लगे हैं. पहले की तुलना में चित्रा आकार में छोटे हैं. हमारे ये पुरखे अब नुकीले, कंटीले भालों, बर्छियों और धनुष-बाणों से पशुओं का शिकार करने लगे हैं. वहाँ उस चट्टान पर वे दो आदिमानव ऐसी ही एक आखेट की घटना का चित्रांकन कर रहे हैं. आसपास कहीं मादल बज रहा है. मन उधर गया तो देखा एक आदिमानव गले में लटका मादल दोनों हाथों से बजा रहा है. साथी आदिमानव हाथों में हाथ डाले कतार में नाच रहे हैं. चित्राकार आदिमानव सफ़ेद रंग से यह दृश्य चट्टान में चित्रित कर रहे हैं. उन्होंने पास में ही एक माँ और बच्चे का चित्र बना दिया है.
मन कालयात्रा पर आगे बढ़ गया है. शायद आज से 5,000 से 2,500 वर्ष पहले का समय है. इन विशाल काली-भूरी चट्टानों से भरी पहाड़ियों से दूर नीचे मैदानों में लोग खेती करने लगे हैं. इस पहाड़ी से उतरकर कुछ आदिमानव छिपते-छिपाते नीचे उतर कर एक जगह कंद-मूल रख रहे हैं. खेती करने वाले वहाँ रस्सियाँ और भाले-बर्छियाँ बनाने का सामान रखकर कंद-मूल उठा रहे हैं. इसका मतलब खेती करने वाले किसानों और आदिमानवों में चीज़ों का लेन-देन शुरू हो गया है.
मन यह देख कर ख़ुश हुआ ही था कि तभी अंथवालजी की आवाज़ आई—‘‘वहाँ नीचे मैदानों की ओर क्या देख रहे हैं, आप? आइए, इस चट्टान पर तीनों फोटो खिंचाते हैं. रवीन्द्रजी खींच देंगे.’’ मैं जाकर साथ में खड़ा हो गया. रवीन्द्रजी ने हमारा फोटो खींचा और बताया—‘‘पीछे देखिए, वह चट्टान ‘स्टोन टार्टाइज’ कहलाती है. प्रकृति ने चट्टान को कछुए का रूप दे दिया है.
रवीन्द्रजी बता रहे हैं- ‘‘यहाँ देखिए, चित्रों को लाल, सफ़ेद और पीले रंगों से बनाया गया है. वे देखिए, घुड़सवार दिखाई दे रहे हैं.’’ रवीन्द्रजी की बात सुन रहा हूँ, लेकिन मन लगभग 2,500 वर्ष पीछे पहुँच गया है. वहाँ वे चित्राकार चट्टानों पर घुड़सवारों के चित्र बना रहे हैं. मन भटकता हुआ देख रहा है कि कुछ आदिमानवों ने कुरते जैसी पोशाक पहनी है. कुछ चित्राकार इन नए फैशन वाले आदिमानवों के चित्र बना रहे हैं. चित्रों में वृक्ष देवता भी बनाए जा रहे हैं. एक चित्राकार ने तो आकाश में उड़ता रथ बना दिया है.
हम रवीन्द्रजी के पीछे-पीछे मन्त्रा मुग्ध होकर चल रहे हैं. वे कह रहे हैं- ‘‘और, यह है ‘जू रॉक’. देखिए, इसमें जानवर ही जानवर बने हैं. आदिमानव चित्राकारों ने यहाँ अपने देखे तमाम वन्य पशु चित्रित कर दिए हैं. उनके दो झुण्ड, दो दिशाओं में चल रहे हैं. झुण्ड में हिरन हैं, सांभर हैं, जंगली भैंसा है और हाथी भी है. उधर देखिए, मोर और साँप का चित्रा बनाया गया है. और, वह सूर्य और हिरन देखिए.’’ वे एक और चट्टान पर हमें बड़े दाँतों वाले दो हाथी और शिकारी, धनुर्धर, ढाल-तलवारें दिखाते हैं.’’ मुझे लगता है—हमारा आदिमानव पुरखा शायद सभ्य होता जा रहा है.
वे एक शैल चित्रा में हमें एक आदमी पर टूट पड़े जंगली भैंसे का चित्रा दिखाते हैं, जिसकी बगल में दो आदमी असहाय खड़े हैं. वे बताते हैं कि शायद भैंसे के तेज़ क्रोध को दर्शाने के लिए उसकी थूथन को ख़ूब मोटा दिखाया गया है.
मन कालयात्रा पर चलते-चलते मध्यकाल में फिर उन्हीं शैलाश्रयों में भटक रहा है. इस काल में चित्रा और भी सजावटी बनाए जा रहे हैं. लेकिन, पहले अनगढ़ता में जो सौन्दर्य था, वह अब कम हो रहा है. एक आदिमानव चित्रकार ज्यामितीय चित्र बना रहा है. घोड़े डमरू जैसे आकार से बनाए गए हैं. घुड़सवार तेज़, नुकीले भाले लेकर आगे बढ़ रहे हैं. चित्राकार मैगनीज, हेमेटाइट, नरम पत्थर और लकड़ी के कोयले को पीस कर रंग बना रहे हैं. ये उनमें जानवरों की चर्बी और पत्तियों का रस भी मिला रहे हैं.
हम पेड़ों के बीच की पगडण्डी से वापस लौट रहे हैं. एक विशाल शैलाश्रय में नीली कमीज़ पहने मूर्ति सा बैठा मानव देखकर मैं ठिठका. यह कैसा आदिमानव? तभी वह मानव हिला. गार्ड था. जहाँ कभी वस्त्राहीन आदिमानव बैठते होंगे, वहाँ बैठा इक्कीसवीं सदी का गार्ड समय की लम्बी यात्रा याद दिला रहा है. आगे बढ़े. एक और शैलाश्रय की दीवार पर एक आदि मानव चित्र बना रहा है. गौर से देखा- आदि-मानव का पुतला है. रवीन्द्र कभी फिर आने का आग्रह कर रहा है.
हम उन ऊँची चट्टानों, उनके भीतर के शैलाश्रयों और शैल चित्रों को पीछे छोड़ कर भोपाल वापस लौट रहे हैं. मन शान्त है. हज़ारों वर्ष पीछे पुरा-पाषाणकाल तक की यात्रा जो कर आया है. जानता हूँ, भीमबेटका के शैलचित्रा आजीवन याद आते रहेंगे. याद आते रहेंगे और मन बार-बार पाषाणकाल की कालयात्रा करता रहेगा.
(‘कथा कहो यायावर ‘ से एक अंश)
पूरा लेख पढ़ लिया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी देवेन्द्र मेवाड़ी जी सामर्थ्यवान लेखक हैं। विज्ञान और साहित्य के मर्मज्ञ हैं।
नवीन जोशी ने उन पर बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
Thank you Naveen ji for giving us such a wholesome review. It incites interest in Devendra Mewari ji’s book. The quotes too appear vital to a just appreciation of the book as well as the author.
Congratulations to both Naveen ji and Devendra Mewari ji.
Deepak Sharma
देवेंद्र मेवाड़ी का लिखने का तरीका बेहद संवेदनशील और सम्मोहक है। कथा कहने के साथ-साथ वह पाठक को भी अपने साथ लिए चलते हैं।
अत्यंत रुचिकर समीक्षा।निसंदेह मेवाड़ी जी विज्ञान के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक हैं।उनकी रचना पढ़कर सहज रूप से वैज्ञानिक समझ विकसित होती है।मेरे वे अभिप्रेरक व मार्गदर्शक हैं।
जीवन सभी में है। कुछ बोल लेते हैं कुछ मौन रह भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेते हैं। एक मन ने दूसरे का मन पढ़ लिया समझिए वही जीवन बेहतरीन है। बहुत ही रोचक …लेखक-समीक्षक दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं …