• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » श्रीविलास सिंह की कविताएँ

श्रीविलास सिंह की कविताएँ

श्रीविलास सिंह की कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं. सघन बिम्बों से भरी ये कविताएँ कवि के अंदर की हलचलों और बाहर की विवशताओं के बीच अपना आकार लेती हैं. इनमें जहाँ आत्मस्वीकार है वहीं समय का तीखा विडम्बनात्मक बोध भी.

by arun dev
September 2, 2021
in कविता
A A
श्रीविलास सिंह की कविताएँ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

श्रीविलास सिंह की कविताएँ

 

1.
आत्मा के मरुस्थल में

उजालों के तमाम शहर
मरुस्थलों के पार खड़े देखते हैं
साँझ की घाटियों में
धीरे धीरे पेड़ों की फुनगियों से उतरती
अंधेरे की धाराओं को,
डोंगियों में नींद हिचकोले लेती
बहती रहती है स्वप्नों की गुफाओं में और
रात्रिचरों की आवाजाही की तेज आहटों के बीच
आतंक धीरे धीरे फैलता है
मस्तिष्क के गुलाबी तंतुओं में
हम डोलते रहते हैं आक्रोश की बिना आवाज़ वाली चीखों
और मौन की डरपोक स्वीकृतियों के बीच.

हमारा समय
गुजरता है रहता है
छीलता हमारी आयु की स्फीति
टूट कर गिरे हुए पंखों की भांति
बीते हुए दिन
बस स्मृतियों की सजावट के काम आएंगे
उड़ने के लिए होती है
जिंदा पंखों की दरकार.
समुंदरों की अमापनीय गहराइयों का
नहीं होता अंदाज
सतह को छू कर बहने वाली हवाओं को और न ही
मछलियों के एकाकी दुःख.

एक प्रकाशस्तंभ
अपने अकेलेपन के बियाबान में खड़ा
कब तक बांटेगा
अकेले न होने का एहसास
दुःख के महासागरों में
टूट चुके पालों वाली नौकाओं को
डूबने से नहीं बचा सकती
सुदूर चमकती एकाकी रोशनी,
अँधेरों से संघर्ष को खोज निकालनी होंगी
अनगिनत डूबी हुई नावें
समुद्र की तलहटियों से और
दुरुस्त करनी होंगी अपने हौसलों की पतवारें
कब तक गाई जाती रहेंगी आर्त प्रार्थनाएं हवाओं के देवता की.

पहाड़ों के उस ओर
घाटियों में उगे प्राचीन शाल वनों में
सुलगने लगे हैं अतृप्त लालसाओं के पत्थर
और वृद्ध और वंध्या महत्वाकांक्षाएं
जहरीले धुएं के पंखों पर सवार
रौंद रहीं हैं युवा स्वप्नों के इंद्रधनुष
तितलियों की प्रतीक्षा व्यर्थ न जाए
इसलिए एक दिन फूलों को
जला डालने होंगे अपनी आग में
काँटों के सारे वन
शहर उजालों के शव समेटता
चुप रोता रहेगा
अंधेरों के मरुस्थल के उस पार.

 

2.
विज्ञापन

पानी की धार फिसल रही है
स्त्री के चेहरे से होती हुई नीचे नाभि की ओर
साबुन के झाग में डूबी स्त्री
बता रही है अपनी कोमल त्वचा का राज़
त्रस्त है एक दूसरी स्त्री
अपनी त्वचा में मौजूद मेलनिन से
थक चुकी है
विवाह की मंडी में बारबार रिजेक्ट हो कर
एक और स्त्री बता रही है उसे
गोरेपन का रहस्य और
क्रीम का जादुई स्पर्श पा
दमकने लगा है उसका चेहरा
कुछ ही क्षणों में
स्त्री फेर रही है
अपना कामनाओं भरा हाथ
मर्दानी कार के उभारों पर
और तुम्हारी कल्पना में
निर्जीव धातु बदलती जा रही है एक मर्दानी देह में
स्त्री पिघल रही है
अपनी देह की ऊष्मा से
निरावृत होती एक एक टुकड़ा
तुम्हारी जेब में मौजूद है
एक निश्चित ब्रांड का कंडोम
ले जाने को उत्तेजना के चरम तक
निरंतर
बेची जा रही है स्त्री
नमक, तेल, क्रीम और कंडोम
और न जाने किन किन चीजों के
डिब्बों, कनस्तरों में बंद
देह पर अपने अधिकार की बहस के बीच
एक प्रबुद्ध मानव अस्तित्व की बजाय
बाजार उसे निरंतर बदलता जा रहा है
बस और बस एक युवा देह में.

 

3.
यात्रा

मैं लौटता हूँ
उतरता हुआ सीढ़ियाँ
जिनका दूसरा सिरा डूबा है
एक सांद्र अंधेरे में,
स्मृतियों के खंडहरों में खिले
रोशनी के फूल
कौंध जाते हैं किसी बिसरा दिए गए कक्ष से
जहाँ छूटा हुआ रह गया था
हृदय का एक स्निग्ध अंश
लौट कर भी हम कहाँ लौट पाते हैं पूरी तरह
किसी जगह से
और जा कर भी कब जाता है कोई
अपनी स्मृतियों सहित,
समय की रेत पर
देर तक बने रहते हैं पांव के निशान
और इन्हीं के साथ
पीछे छूटे हुए रह जाते हैं यात्रा के
कुछ भीगे हुए क्षण
यात्राएं जो अवसान पाती हैं
भविष्य के अनदेखे वनों में.

 

4.
स्मृतियाँ

स्मृतियों के इन्हीं वनों की
अंधेरी गुफाओं में छिपे हैं
लज्जा के वे तमाम क्षण भी
जब मैंने मुँह चुरा लिया था
सच को सच कहने से
और इस तरह हुआ था स्खलित
कितनी बार
मनुष्य होने के दावे से
जब कर लिया था सौदा अपनी आत्मा का
किसी सुविधाजनक झूठ के लिए
जब किसी घायल को तड़पता छोड़
भाग गया था भीरूता के अंधेरों की ओर
जब किसी हत्या के वक़्त
हो गया था मुझे आकस्मिक स्मृतिलोप और
कुछ नहीं देखा था मेरी आँखों ने
देखने की काबिलीयत होने के बावजूद
जब किसी अपने का दुःख बाँटने के अवसर पर
बन गया था अनजान उस की पीड़ा से
दुनियादारी की निर्लज्ज चादर ओढ़ कर

स्मृतियों के इन अंधेरों से
भागता रहा हूँ जीवन भर
जीवन भर छिपाता रहा हूँ इन्हें
चमकीली परतों के नीचे
पर बीता हुआ समय
आता है पलट कर बार बार
जैसे आती हैं लहरें किनारे तक मुड़ कर
जैसे प्रतिध्वनियाँ लौटती हैं
टकरा कर दीवारों से, वृक्षों से और पर्वतों से
जीवन की किताब में से
मिटाया नहीं जा सकता कुछ भी
कुछ भी नहीं
स्मृतियाँ भी नहीं
बहुत असुविधाजनक होने के बावजूद.

 

5.
आंगन के पार द्वार

एक द्वार खुल रहा होगा
आँगन के उस पार
अब थम जाने को होंगी
युगों की अशेष यात्राएं
श्वास प्रश्वास का आवेग जब रुक जाने को होगा
और बुझ जाएगा
चेतना का आलोक.
जब यह बाह्य संसार लय हो जाएगा
ज्योति शून्य होती जा रही आँखों में
देह की ऊष्मा मृत्यु को सौंप कर
जीवन का दाय
तिरोहित हो जाएगी
ऊर्जा के असीम विस्तार में
और बंद हो जाएंगे रंग और गंध के सारे पट
एक अनुभूतिविहीन अनुभव
एक स्पंदनविहीन स्पर्श
एक दृश्यविहीन प्रकाश
एक अंतविहीन अंत
एक द्वार खुलता है आँगन के उस पार.

समस्त प्रेम और घृणा का शेष
शोक और हर्ष का गुणनफल
पीड़ा और आनंद का महाकाव्य
पहुँच जाएगा उपसंहार तक
जबकि अभी सूखी न होगी स्याही तक
प्रस्तावना की
ईश्वर और मोक्ष के विमर्श
व्यर्थ हो चुके होंगे
और बुझ चुकी होंगी महत्वाकांक्षाएं
तुम पूरी तरह थक जाने के बाद
चलोगे एक प्राचीन किन्तु अनदेखी राह पर.

अर्थहीन हो जाएंगी औचित्य की सब खोजें
तमाम विमर्श जीवन के महती उद्देश्यों के
अब भी बचे रहेंगे हवा में बजते
खाली शब्दों की भाँति
देह और प्राण के बीच संबंधों को
परिभाषित करते तमाम प्रतिमान
ध्वस्त हो गए होंगे
अंधेरे सूने रास्ते कहाँ ले जाएंगे
नहीं बता पाए हैं सारे विद्वान
और एक दिन
गुम हो गए हैं दिशा शून्य इसी अंधेरे रास्ते में.

सम्भव न होगा हिला पाना हाथ भी
विदा को
और मुड़ कर देख पाना
एक बार और
इस अबूझ संसार को
सोच पाना एकबार फिर इसकी
अच्छाई और बुराई
सौंदर्य और कुरूपता के बारे में
जब पूरब की दीवार वाले ताख पर
झिलमिला रही होगी दिये की लौ
खुल रहा होगा एक द्वार आँगन के उस पार.

______________

श्रीविलास सिंह
०५ फरवरी १९६२
(उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के गाँव गंगापुर में)

एक कविता संग्रह “कविता के बहाने” २०१९ में प्रकाशित.
कविता संग्रह “रोशनी के मुहाने तक” और कहानी संग्रह “सन्नाटे का शोर” शीघ्र प्रकाश्य.
इधर नोबेल पुरस्कार प्राप्त कुछ कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं.

8851054620/sbsinghirs@gmail.com

 

Tags: विज्ञापन
ShareTweetSend
Previous Post

रैदास बानी का काव्यान्तरण: सदानंद शाही

Next Post

कथा कहो यायावर: देवेंद्र मेवाड़ी: नवीन जोशी

Related Posts

No Content Available

Comments 7

  1. दयाशंकर शरण says:
    12 months ago

    अपराधबोध का दंश समकालीन कविताओं में बार-बार आवर्तित हो रहा है।इसे उसकी एक प्रवृत्ति मानने में कोई हर्ज़ नहीं है।दरअसल,यह आत्मा का संकट है कि मैंने कुछ नहीं किया। अपने को अपराधी महसूस करना आत्मा के सामने एक कनफेशन है। हर आदमी अपने जीवन में इस पीड़ा को कभी न कभी महसूस करता है जैसी श्री विलास सिंह की कविता-स्मृतियाँ महसूस करती है। इन सारी कविताओं के लिए समालोचन एवं कवि को साधुवाद !

    Reply
  2. कैलाश मनहर says:
    12 months ago

    इन पाँचों कविताओं में समय और समाज की विडम्बनाओं को स्मृतियों और संवेदनाओं के आईने में देखते हुये आत्मावलोकन का गहरा भाव अभिव्यक्त होता है | ये कवितायें पाठक को भीतर तक खंगालती है |कवि Shri Bilas Singh और समालोचन को ये कवितायें साझा करने हेतु साधुवाद |

    Reply
  3. Dilip Darsh says:
    12 months ago

    श्री विलास सिंह की ये कविताएँ एक अलग संसार में लेकर जाती है जिसे सपनों का संसार भी नहीं कहा जा सकता । इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि किसी नाव पर बैठकर धार की गति – गतिविधि को महसूस भी कर रहे हैं और आगे भी बढ़ रहे हैं । ऐसी कविताएँ अभी बहुत कम देखने को मिलती है । पीडाभिव्यक्ति आजकल कविता में जिस तरह कुंठाभिव्यक्ति बनकर आ रही है उससे ये कविताएँ बिल्कुल अलग हैं । यथार्थ को छूती यथार्थ को खरोंचती ये कविताएँ बिल्कुल अपनी कल्पना और अपने स्पेस में उन्मुक्तता और असीमता का बोध करा जाती हैं । अपने समय को इस तरह रचना सचमुच अचंभित करता है । मैं सचमुच अभिभूत हूँ उनकी काव्य कला से। आत्मा की झनझनाहट अपनी पूरी त्वरा के साथ मौजूद है इन कविताओं में । बहुत-बहुत बधाई । इतने अच्छे चयन के लिए संपादन टीम को भी बहुत-बहुत बधाई।

    Reply
  4. Yogendra Krishna says:
    12 months ago

    श्रीविलास सिंह की कविताएं पसंद से पड़ता रहा हूं। लेकिन यहां एक साथ कई कविताओं को पढ़ना कवि और उसके सामर्थ्य-सरोकार को बेहतर जानने का अवसर उपलब्ध कराता है। उनकी ये कविताएं जीवन से छूट गए मूल्यों के बरक्स वर्तमान समय की विद्रूपताओं, द्वंद्वों, बेबसी और बेचैनियों को समझने-परखने के लिए अपना अलग मुहावरा रचती प्रतीत होती हैं। कुछ कविताओं में अंतरप्रवाहित कवि का आत्म-संघर्ष और आत्म-स्वीकृतियां इन्हें अतिरिक्त प्रामाणिकता से लैस करती हैं। इन बेहद प्रभावी कविताओं के लिए कवि और समालोचन को बधाई।

    Reply
  5. सिमन्तिनी रमेश वेलुस्कर says:
    12 months ago

    बेचैनी से भरी कविताएं

    Reply
  6. Anonymous says:
    12 months ago

    बेहतरीन अभिव्यक्ति व्यक्त हूई है।

    Reply
  7. Shamim Zehra says:
    12 months ago

    विज्ञापन’ कविता में बाज़ार संस्कृति में महिला के वस्तुओं के विज्ञापनों में केवल युवा स्त्री देह मात्र बन कर रह जाने की त्रासदी है। यह आज के समय के दर्पण जैसी तथा यथार्थ की कविता है।
    शेष चारों कविताएँ सटीक बिम्बों के माध्यम से कल्पना लोक रचती और चिन्तन के लिए प्रेरित करती हैं। ‘आत्मा के मरुस्थल’ इसी प्रकार की प्रथम कविता है। ‘यात्रा’ अतीत पथ की बहुत सुन्दर यात्रा है जिसमें स्मृतियों के खंडहरों में खिले रौशनी के फूल हैं जहाँ से लौटते हुए भी समय की रेत पर पांव के निशान देर तक बने रहते हैं। ‘स्मृतियाँ’ आत्म साक्षात्कार करते हुए जीवन में की गई त्रुटियों के लिए अपराधबोध की अभिव्यक्ति है। ‘आंगन के पार द्वार’ चेतना के आलोक के अन्तिम रूप से बुझते समय के अनुभूतिविहीन अनुभवों के विवरण है।
    सभी कविताएँ भाषा और भाव दोनों मान से बहुत सुन्दर हैं।

    Reply

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक