अर्थ के संभव होने की अजस्र धाराधनंजय वर्मा |
पवन माथुर द्वारा लिखी पुस्तक ‘संभव होने की अजस्र धारा’ सही मायनों में साहित्य तथा विज्ञान का संगम है. पिता गिरिजाकुमार माथुर एवं माँ शंकुत माथुर से प्राप्त हुई ‘प्रतिभा’ को इस पुस्तक में सहज ही लक्षित किया जा सकता है. यह पुस्तक भाषा और काव्य-भाषा दोनों पर केंद्रित है. ‘भाषा से हम या हमसे भाषा’ के प्रश्न से शुरू होती यह पुस्तक ‘भाषा’ को मात्र संवाद (कम्यूनिकेशन) से ही नहीं जोड़ती, बल्कि पुस्तक ‘भाषा’ को सृजनात्मकता एवं रागात्मकता के ‘माध्यम’ के रूप में भी देखती है. पुस्तक यह स्थापना देती है कि सृजनात्मकता और संवेदना की पहचान का मूल स्रोत ही भाषा है.
यह पुस्तक महज पढ़ने के लिए नहीं है, दरअसल इस पर बाकायदा अध्ययन की आवश्यकता है, चूंकि इस पुस्तक को श्रम साध्य शोध एवं गहरी अंतर्दृष्टि से लिखा गया है. इसका पहला अध्याय ‘भाषा की सबसे कच्ची छाप’ भाषा की प्रारंभिक अवस्था को नृतत्त्व शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में खोज लेना चाहता है. ओरांगउटान से, ‘नियन्डरथल-मानुष’ के मस्तिष्क का विकास, ‘प्रजनन-प्रत्यंगों’ में परिवर्तन, सामाजिक मेधा, प्राक-कल्पना का प्रारूप तथा प्रतीकात्मकता के सबसे प्रारंभिक स्वरूप का उल्लेख, विशेष रूप से आकृष्ट करता है. इस आलेख का शीर्षक ‘भाषा का प्रारंभिक स्वरूप’ भी दिया जा सकता था.
‘भाषा की जैविक परिधि’ पाठक को मस्तिष्क विज्ञान के कुछ अनूठे संदर्भों से सामना करा कर चमत्कृत कर देता है. ‘भाषा के विकार’ तथा मस्तिष्क का क्षति-ग्रस्त होना एक दूसरे से संबंधित हैं, असंबद्ध सूचनाओं का साहचर्य, स्मृति-लोप के नाभि-केंद्र, जटिल जैविक प्रणालियों द्वारा यथार्थ का पुनर्सृजन कुछ ऐसे ब्योरे हैं जो ‘भाषा’ पर पुनः मंथन के लिए आमंत्रित करते हैं. ‘जैव-भाषा का मस्तिष्क में प्रारूप’ नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों द्वारा मस्तिष्क में विद्यमान ‘ग्रामर के स्वरूप’ को टटोलता है. इन प्रयोगों से निसृत तथ्य एवं प्रस्ताव काफ़ी उत्तेजक हैं.
एक उद्धरण देना उपयुक्त होगा,
“मानव मस्तिष्क पर शोध से यह मालूम चला है कि दृश्य-जगत किसी एलबम की तस्वीरों-सा हमारे मस्तिष्क की दराजों में रखा नहीं मिल जाता. ऐंद्रिय-जगत बेहद जटिल रूपों में हमारे मस्तिष्क में अवस्थित है. आश्चर्य की बात यह है कि कोई एक ‘जटिल-रूप’ दृश्य-जगत से अनुरूपता नहीं रखता. इसका तात्पर्य यह है कि किन्हीं जैविक प्रणालियों द्वारा मस्तिष्क यथार्थ का पुनर्सृजन करता है. … हम जिस ‘भाषा’ का प्रयोग करते हैं वह इसी पुनर्सृजन पर आधारित है.” ( संभव होने की अजस्रधारा, पृष्ठ-32-33)
‘भाषा की आंतरिक ईप्सा: काल ध्वंस’ जाने-बूझे भारतीय चिंतन के ‘पाठ’ को ‘सहमति-की-भाषा’, ‘असहमति-की-भाषा’, ‘प्रत्ययों की चिंगारी’ तथा ‘विचार-शृंखलाओं के नए प्रस्तावों में गूंथ लेता है. यह कोई पुराने पाठ का पुनर्पाठ नहीं है, अपितु उस पुरा-चिंतन के माध्यम से ‘भाषा’ के विकास के चरणों का खुलासा है, जो इस आलेख का नव्य-विशिष्ट पहलू है. यही नहीं ‘भाषा-की-ही-कालबद्धता’ और ‘भाषा द्वारा ही काल-ध्वंस’ की प्रस्तावनाएँ पाठक को एक नई वैचारिकता से झंकृत भी कर देती हैं.
पुस्तक ‘काल-ध्वंस’ तक आकर दर्शन की ओर मुड़ती है. ‘काल’ की पुरा-दार्शनिक व्याख्याओं तथा उनका नूतन वैज्ञानिक अवधारणाओं (स्टीफन-हाकिंग इत्यादि) से तुलनात्मक अध्ययन, कोई अन्य वैज्ञानिक पीठिका से लैस साहित्यिक भी कर सकता था, किंतु जिस प्रकार पवन माथुर ने ‘काल’ और ‘वाक्’ को नए जैव-वैज्ञानिक संदर्भों से जोड़ा है, विशेषकर ‘जैव-घड़ियों’ से वह अद्भुत है. यह अध्याय पुस्तक को एक नई ऊँचाई दे देता है. इसके बाद के दोनों आलेख, ‘भाषा के खेल’ तथा ‘रुमानवाद से उत्तर आधुनिक बोध तक’ श्रम-साध्य आलेख हैं. ‘लीबनीज़’ की तार्किक पद्धति का उल्लेख और उसका ‘ज्ञान’ के कुछ क्षेत्रों को ‘अंतः प्रकाश’ की श्रेणी में रखना, स्वामी विवेकानन्द की उन पंक्तियों की याद दिला देता है, जहाँ उनका कहना था कि ‘सारा ज्ञान भीतर है, पत्थरों में किसी ने ‘ज्ञान’ देखा है, या तारों में खगोल शास्त्र? सारा ज्ञान मनुष्य में ही है’.
संभव होने की अजस्रधारा: काव्य-भाषा नामक आलेख में पुस्तक काव्य-भाषा की ओर उन्मुख हो जाती है. भारतीय काव्य-शास्त्र और आंग्ल-अमेरिकी विवेचना के बीच, लेखक ‘काव्य-भाषा’ की अपनी व्याख्या प्रस्तावित कर देता है: ‘अर्थ के संभव होने की अजस्रधारा: काव्यभाषा’. मेरे विचार से इस पुस्तक का शीर्षक भी यही होना चाहिए था ‘अर्थ के संभव होने की अजस्र धारा’.
अंतिम पाँच आलेख कवि-कविता केंद्रित है. नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों के काव्यांशों को ‘संज्ञा, सांकेतिकता एवं बहुल-ध्वन्यात्मकता’ के त्रिआयामी सूत्र में विवेचित किया गया है. इस आलेख में केदारनाथ सिंह की कविता ‘बुनाई का गीत’ की संरचना में एक ‘गतिशील-संकेत-तंत्र’ को खोला गया है, जो पूरी कविता के अर्थ-तंत्र का नियामक है. निश्चय ही ऐसी संरचनागत विवेचना ‘व्यावहारिक-आलोचना’ को एक नई तार्किक पद्धति द्वारा समृद्ध करती है.
मेरे विचार में शमशेर के काव्य को लेकर कलावाद बनाम मार्क्सवाद, बिंबवाद, अतियथार्थवाद बनाम यथार्थवाद, कलात्मक संस्कार बनाम सामाजिक सरोकार पर कई वर्षों तक लंबी बहस चली है. कई चिंतकों ने यह भी माना है कि शमशेर को किसी एक खांचे में फिट नहीं किया जा सकता. मैं शमशेर को संश्लेष का कवि मानता हूँ, उनके काव्य में अनुभव, दृष्टि, विचार, भावस्थिति की अनेकरूपता का ब्यौरा नहीं, न ही इन सभी के मध्य द्वंद्व अथवा तनाव का ब्यान, बल्कि कार्य उस बिंदु को केंद्रित करना है जहाँ वे एक दूसरे से अंतःक्रिया करते हुए घुल-मिल जाते हों. शमशेर के बिंब प्रतीकात्मक न होकर, सांकेतिक एवं उद्बोधक हैं, कहीं कहीं तो वे वस्तु सरीखे सघन और मूर्त. इनका कार्य आपकी कल्पना को उद्दीप्त करना भर है. मेरा यह मानना है कि शमशेर की ‘सपनों की सी चित्रकारी’ उतनी अमूर्त और अतियथार्थवादी नहीं जैसी चित्रकार सेज़ां या गोगाँ की रही, उनमें चीज़ों को मूर्त करने, भावनाओं के प्रसंग को व्यंजित करने और सौंदर्य के अनेकविध अवतारों का समावेश करने की ललक है. शमशेर के शाब्दिक अर्थों के बजाय उनकी समझ को रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि शमशेर का जितना ज़ोर अभिव्यक्ति की सच्चाई पर है उतना ही अनुभूति की सच्चाई पर. (आधुनिक कवि-विमर्श, पृष्ठ-278-280, 282, 284, 286, 308, 413)
संभव होने की अजस्र धारा में लेखक का शमशेर पर लिखा आलेख ‘ना बाग हाथ में है …..’ इस बहस में ही नहीं जाता कि शमशेर कलावादी थे या मार्क्सवादी अथवा उन्हें किसी अन्य खांचे में फिट किया जाना चाहिए या नहीं. लेखक के लिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि कवि ‘ऐन्द्रियता की कूची से’, एक ‘तर्क-युक्त-अर्थ-जड़ भाषा’ से कैसे निबटता है, इसका विश्लेषण प्रमुख हो जाता है यह आलेख का पहला प्रस्थन बिंदु है. आलेख यह प्रस्तावित करता है कि शमशेर अपनी काव्य-रचना के माध्यम से यह इशारा भी करते हैं कि अभिव्यक्ति हमेशा किसी ‘वस्तु, मूल्य अथवा विचार’ में निरूपित नहीं होती, कविता इन सभी से ‘आज़ाद’ होना चाहती है; यह शमशेर पर आलेख की दूसरी अलग पगडंडी है. लेखक का यह भी मानना है कि बिंब का ‘इंपैक्ट’ एक झटके में, अपनी पूर्ण-समग्रता में होता, वह पाठक को तैयारी का वक़्त ही नहीं देता. ‘बिंब’ में विचार की स्पष्टता नहीं होती बल्कि ‘असीम’ का धुंधलापन होता है; यह आलेख का तीसरा अलग रास्ता है. लेखक का कहना है कि सृजनात्मकता ऐतिहासिक काल खंडों की परंपराओं में बंधकर नहीं चलती, इसलिए शमशेर में प्रभाववाद, अभिव्यंजनावाद और ‘कयूबिज़्म’ सभी के ‘शेड्स’ मिलते हैं. अधिकतर विचारक शमशेर के ‘मूर्त’ को क्लासिकी का ‘यथातथ्य’ समझते हैं जबकि आलेख इस बात पर बल देता है कि शमशेर का ‘मूर्त’ यथातथ्य का भाषान्तरण है, और शमशेर का ‘अमूर्त’ अस्थिर संकेतों का खंडित संदर्भों की ओर उन्मुख होना है, जहाँ ‘मूल-विचार-संवेग’ ‘भेस’ बदल कर मंच पर पहुँचते हैं. यह स्थापनाएँ शमशेर पर चौथा प्रस्थान बिंदु है.
आलेख शमशेर के काव्यार्थ को शाब्दिक अर्थ, संरचना में गुह्य संकेत तंत्र और भिन्न पंक्तियों में शब्दों की आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से अनावृत करने की चुनौती लेता है. इस व्यवहारिक संरचनात्मक पहलू से यह आलोचना शमशेर के काव्यार्थ तक पहुँचने का एक अलग ही रास्ता खोल देती है. (संभव होने की अजस्र धारा, पृष्ठ-161, 162-165, 171-172)
पुस्तक में संकलित आलेख ‘मुक्तिबोध की कविता, तीसरा क्षण और जर्मन-सौंदर्यशास्त्र’, मुक्तिबोध के काव्य-विश्लेषण की संक्षिप्त सी झांकी दे देता है. अपेक्षा थी कि इस आलेख में मुक्तिबोध के काव्य-शिल्प, प्रतीक, बिंब, कविताओं की संबद्धता, काव्य-भाषा, अमूर्तन के अलावा वर्ग-चेतना, सर्वहारा की अंतरानुभूति, क्रांतिकारी संघर्ष चेतना, व्यक्तित्वान्तरण पर भी गहराई से विचार किया गया होता. आलेख में जिस ‘फांक’ की बात मुक्तिबोध की काव्य-चेतना एवं आलोचना दृष्टि में कही गई है (……अजस्र धारा, पृष्ठ-175) उस पर मेरा मत भी यह रहा है कि वे न तो ‘बर्गसां’ को तिलांजलि दे सकते हैं और न ही ‘मार्क्स’ को. दरअसल वे आत्मसंघर्ष के ज़रिए समाज-संघर्ष और सामाजिक संघर्ष के ज़रिए, आत्मसंघर्ष का बोध जाग्रत करना चाहते थे. वे अपने व्यक्तित्व के ‘स्व’ की सीमाएँ तोड़कर ‘पर’ तक पहुँचना चाहते थे. अंतर्विरोध किस जागरूक-संवेदनशील व्यक्ति में नहीं होते, सवाल उन अंतर्विरोधों में से अगले ‘संचरण का संश्लेष’ प्राप्त करना है (आधुनिक कवि विमर्श, पृष्ठ-233-237, 272).
किंतु लेखक इस ‘संश्लेष’ पर ही प्रश्न उठा दे रहा है, और परोक्षतः यह कहना चाह रहा है कि यही तो कवि मुक्तिबोध का ‘आत्म-संघर्ष’ है. लेखक इस ‘आत्म-संघर्ष/तनाव को ‘कलाकार बनाम कार्यकर्ता’ में ही नहीं, ‘सामंती व्यवस्था के ह्रास और पूंजी के बढ़ते वर्चस्व’ के तनाव में और ‘जो है’ तथा ‘जो हो न सका’ के तनाव में भी देख लेता है, (अजस्र धारा, पृष्ठ-176-177). कहा जा सकता है कि यह आलेख का प्रथम प्रस्थान बिंदु है.
आलेख ‘अंधेरे में ‘मोटिफ़’ की व्याख्या में ‘अंधेरे’ को ‘बौद्धिक-वर्ग की कालिमा’ के रूप में और ‘अंधेरे’ में गुम हो गए, मार दिए गए साथियों तक ही सीमित कर देता है. यह ठीक है कि मुक्तिबोध मध्य-वर्ग को ‘डीकलास्ड’ देखना चाहते थे. मुक्तिबोध के काव्य में जब ‘मैं’ आत्म भर्त्सना करता है, तब वह पूरे मध्य-वर्ग की भर्त्सना है, ऐसा मेरा मानना है (आधुनिक कवि विमर्श, पृष्ठ-244, 246). किंतु मुक्तिबोध अपने बिंबों/प्रतीकों के माध्यम से मनुष्य की शोषित तथा शासक की नृशंसता और अमानवीकरण को भी उभारते हैं अतः इस संदर्भ में भी ‘अंधेरे’ की व्याख्या होनी चाहिए थी. (आधुनिक कवि विमर्श, पृष्ठ-262-63).
लेखक यह तो कहता है कि हिंदी आलोचना में ‘अंधेरे’ को ‘पूंजीवाद का अँधेरा’, ‘यथास्थिति का अँधेरा’, ‘जनतांत्रिक विरोधी शक्तियों का अँधेरा’ इत्यादि से व्याख्यायित किया गया है, किंतु शायद लेखक का कहना यह भी है कि इस ‘अंधेरे के पाठ’ में ‘बौद्धिक-कायरता’ को भी शामिल कर लेना चाहिए. इसे आलेख का दूसरा प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है.
इस आलेख में जर्मन दार्शनिकों, बौमगार्टन, शैलिंग, कांट, हीगेल की कलाकृति-प्रक्रिया के विवेचन के माध्यम से, मुक्तिबोध के ‘कला के तीन क्षण’ को परखा गया है और कई स्थलों पर जर्मन-सौंदर्यशास्त्र से ‘साम्य-की छायाओं’ को संकेतित किया गया है. (…. अजस्र की धारा, पृष्ठ-181-187)
हिंदी आलोचना में यह पहली दफ़ा है कि मुक्तिबोध के ‘तीसरा-क्षण’ को ‘जर्मन-सौंदर्यशास्त्र’ में खोजा गया है. यह इस आलेख की उपलब्धि भी है और आलेख का तीसरा प्रस्थान बिंदु भी.
अज्ञेय पर लिखा आलेख ‘…. किसकी बाट, भरोसा किनका’ में व्यक्ति-स्वातंत्र्य, व्यक्तिवादिता, आत्मदान, बिंब, मौन और नव-रहस्यवाद पर पर्याप्त टिप्पणियाँ हैं, वस्तुतः बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया गया है, जो दरअसल बहुत कुछ कहता है. किंतु सबसे ‘रागमय’ आलेख बन पड़ा है, ‘शब्द जो समय के अस्त्र हैं’ जिसे पवन माथुर ने अपने पिता ‘गिरिजाकुमार माथुर’ के काव्य पर केंद्रित किया है, इसकी पठनीयता कुछ ऐसी है मानो पाठक संवेग के पानी पर चल रहा हो.
लगभग पच्चीस वर्ष परा-स्नातक कक्षाओं में भाषा विज्ञान पढ़ाने के बाद मैं यह पूरे भरोसे से कह सकता हूँ कि भाषा की सैद्धांतिकी और व्यावहारिकता पर, हिंदी में यह एक दुर्लभ पुस्तक है. इसके अतिरिक्त यह काव्य-भाषा पर भी नए द्वार खोलने में सक्षम है.
लेखक पवन माथुर को ऐसी अनूठी पुस्तक के लिए बधाई और साधुवाद.
पुस्तक: संभव होने की अजस्र धारा
लेखक: पवन माथुर
प्रकाशक: हंस प्रकाशन
प्रथम संस्करण: 2022/ मूल्य: पये 695/-
प्रो. धनंजय वर्मा |
संदर्भ:
आधुनिक कवि विमर्श, प्रो. धनंजय वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, (2015)
पवन माथुर की बहु आयामी और आलोचना विमर्श में नयी नयी दिशाएं खोजने वाली किताब को , हिंदी में, इतनी गहरी पारखी नज़र वाले, विश्लेखक सहृदय –धनंजय वर्मा–मिल सके, यह भी कोई मामूली तौर पर सुखद कही जाए ऐसी घटना नहीं!
अरसे बाद धनंजय वर्मा जी की आलोचना एक महत्वपूर्ण पुस्तक के मार्फत ही सही ,पढ़ने को मिली।वे मेरे वरिष्ठ गुरुभाई और सागर वि वि के श्रेष्ठ तम छात्रों और आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के प्रतिभाशाली शिष्यों में रहे हैं।यद्यपि उन्होंने अपनी स्वतंत्र राह चुनी और क्षेत्र भी।
पवन माथुर की किताब पर आलोचक प्रवर धनंजय वर्मा की आलोचना से आश्वस्त हुआ। ‘संभव होने की अजस्र धारा’ में भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन से कविता और उसकी भाषा को समझने की कोशिश की गई है।
आदरणीय धनंजय वर्मा की आलोचना पुस्तक को पढ़ने की ओर ले जाती है।
लेखक को हार्दिक बधाई।
आदरणीय वर्मा जी की वस्तु केंद्रित परिचयात्मक समीक्षा श्लाघ्य है । उक्त आकलनों की प्रकृति जिस प्रकार पुस्तक के आद्यन्त परिपाक : अभिव्यक्ति के महत्वपूर्ण विकास क्रम एवं अन्तरबोधों, यथा -नृविज्ञान, विज्ञान, मानव भूगोल, समाज, भाषा, स्वनियों, सृजन, सम्प्रेषणीयता के दार्शनिक मनोवैज्ञानिक प्रेरक तत्वों के पल्लवन और नैरन्तर्य आदि पर नये दृष्टिकोण से किये गये विमर्श को रेखांकित करती है, वह रोचक है तथा पुस्तक के प्रति तीव्र उत्कंठा उत्पन्न करती है। श्री पवन माथुर द्वारा आलोच्य कृति की अंतर्वस्तु के संचयन में किया गया श्रम और उनका यह अपूर्व प्रदेय सर्वथा प्रशस्ति योग्य है। विश्वास है कि इसे पाठक वर्ग का यथोचित स्नेह प्राप्त होगा। लेखक एवं समीक्षक दोनों को साधुवाद!
बहुत ही सटीक विश्लेषण… अच्छा लगा
डॉक्टर पवन माथुर की यह पुस्तक भाषा संबंधी शोध करने वालों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ है। लेखक ने अपनी वैज्ञानिक मेधा का उपयोग करते हुए भाषा और मस्तिष्क के संबंध को काव्यशास्त्र के साथ जोड़ते हुए नये दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है।
धनंजय वर्मा जी ने पवन माथुर भाई की इस पुस्तक के महत्व को समझा है और गहराई से अपने विचारों को भी अभिव्यक्त किया है। निस्संदेह यह श्रमसाध्य कार्य है और गहन शोध से उपजी कृति है।इस समीक्षा में आपने लगभग सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं को अपने सम्यक दृष्टिकोण से रेखांकित और व्याख्यायित किया है।
धनंजय वर्मा जी ने पवन माथुर भाई की इस पुस्तक में भाषा के महत्वपूर्ण सवालों को अपने श्रम से रेखांकित और व्याख्यायित किया है। आपकी समीक्षा में लगभग सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं को गहरी एवम सम्यक दृष्टिकोण से रेखांकित किया गया है।
प्रो पवन माथुर की पुस्तक।का विहंगम।पारायण मैंने भी किया है। साहित्य के गंभीर सवालों को।उन्होंने विभिन्न आलेखों के जरिए विस्तार से व्याख्यायित किया हैं। विज्ञान और रसायन के अध्येता ने साहित्य की विभिन्न अर्थ छवियों को हिंदी की प्रचलित शास्त्रीय अवधारणाओं से अलग देखा और परखा है। मुक्तिबोध और अज्ञेय के तो वे सघन अध्येता लगते हैं। जिस सुरुचि के साथ और साहित्य की जिन रूढ़ हो चुके अभ्यस्त प्रत्ययों के सहारे बातें की जाती हैं; ये विमर्श नए विवेचनात्मक आस्वादन का परिचय देते हैं।
डा धनंजय वर्मा ने गहरी आत्मीयता और तार्किकता से रिव्यू किया है। दोनों लेखकों और समालोचन को इसे प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
एक महत्वपूर्ण पुस्तक को समझने में सहायक यह आलेख शानदार और सार्थक है.
डॉ पवन माथुर के गहन चिंतन से उनकी पुस्तक शब्द बीज के निबंधों के माध्यम से पहले पहल परिचय हुआ था.
यह कृति उनके अथक परिश्रम, गूढ़ अंतर्दृष्टि और तार्किक विश्लेषण की परिचायक है. बहुत सी अबूझ अनजान राहों पर वे साहित्य के पाठक को साथ लिए चलते हैं.
हिंदी जगत में ऐसी कृति का स्वागत और कृति पर इस गंभीर विस्तार के लिए धनंजय जी के प्रति कृतज्ञता !
पवन सर! जितने श्रम से आपने इस पुस्तक को लिखा है,उतने ही गहन एवं नवीन दृष्टिकोण से धनंजय सर ने इस पुस्तक पर विस्तार से लिखा है। आलेख ‘ संभव होने की अजस्र धारा ‘ को एक नए दृष्टिकोण से फिर से पढ़ने को प्रेरित करता है। आप दोनों को बहुत – बहुत बधाई!
बहुत विचारोत्तेजक आलेख। पाठकों को गहन – गंभीर चर्चा के लिए आमंत्रित करती समीक्षा। बहुत बढ़िया!! पवन जी और धनंजय जी, दोनों को हार्दिक बधाई!!
वाह पवन माथुर बधाई बनती है ,समृद्ध आलोचक ने नोटिस लिया है …ज़बरदस्त पुस्तक… अभी आद्योपांत देखा है ,प्रभावी है एक महत्वपूर्ण लेख मेरा पढ़ा हुआ है
यशस्वी भव
विचारोत्तेजक आलेख..इस पुस्तक की समीक्षा मैंने भी लिखी है ।इस समीक्षा को पढ़कर पुनः पुस्तक को पढ़ने की दृष्टि मिली है।’संभव होने की अजस्र धारा’ हर बार एक नई दृष्टिकोण प्रदान करती है।पवन जी और धनंजय जी को हार्दिक बधाई।
डा.पवन माथुर की कृति ‘संभव होने की अजस्र धारा’ पर वरिष्ठ आलोचक डा. धनंजय वर्मा का समीक्षा परक आलेख वस्तुतः समकालीन समीक्षा को एक नईदृष्टि देता है।कहना न होगा कि कृति श्रेष्ठ है या इस कृति पर नीर-क्षीर समीक्षा दृष्टि श्रेष्ठ है।कृति मेंडा.माथुरद्वारा की गई कई स्थापनाओं पर अपनी सहमति और कहीं-कहीं अपनी असहमति दर्ज़ करडा.वर्मा ने निष्पक्षता और निर्भीकता का परिचय दिया है।कृतिकार और समादरणीय समीक्षक दोनों हीप्रणम्य हैं और बधाई के हक़दार भी।———श्रीराम दवे,उज्जैन।
बहुत बढिया
पवन माथुर की महत्वपूर्ण आलोचनात्मक फ़ ‘सम्भव होने की अजस्र धारा’ समकालीन हिन्दी आलोचना की एक उल्लेखनीय कृति है जिसका प्रो., धनंजय वर्मा ने उचित मूल्यांकन किया है।
पवन माथुर की यह किताब भाषा और विज्ञान की बेहतरीन जुगलबंदी भी कही जा सकती है। इसकी साहित्यिक स्थापनाएं पाठक को चमत्कृत कर देती हैं। आलोचना की भाषायी नवीनता और शोधात्मकता यहां खासतौर पर दृष्टव्य है। यहां प्रो. पवन माथुर के आलोचना के अपने नए टूल्स हैं। यहां मनोविज्ञान भी आने स्तर पर आलोचना में सहभागी है।
हिन्दी आलोचना का वैश्विक तुलनात्मक अध्ययन भी इस किताब को विशेष उल्लेखनीय बनाता है। शोधपरक आलोचना और काव्यालोचना प्रो.पवन माथुर की आलोचनात्मक क्षमता और ज्ञान के विस्तार को रेखांकित करती है और आलोचना के खुले आसमान की अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोलती है।
इस महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति के लिए प्रो.पवन माथुर को एवं इसकी उल्लेखनीय समीक्षा के लिए प्रो. धनंजय वर्मा को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
– सुरेन्द्र रघुवंशी
प्रो पवन माथुर जी पारिवारिक परंपरा में मूलतः कवि हैं,चूंकि वे एक वैज्ञानिक भी हैं,तो उनकी सोच और दृष्टि में साहित्य व विज्ञान का समन्वय मिलता है।साहित्य जहां एक ओर हमारी संवेदनाओं का परिष्कार करता है,वहीं दूसरी ओर विज्ञान हमारी दृष्टि को संतुलित करता है।सौंदर्य संतुलन में वास करता है।इस कसौटी पर प्रो पवन माथुर जी एक मंजे परिपक्व सह्रदय रचनाकार के रूप में हमें वैज्ञानिकता की ओर ले जाते हैं।
पाठ के उपरांत पहली बात जो ज़हन में आती है ,वह यह है कि आलोचना के अकाल में भी वयोवृद्ध डा.धनंजय वर्मा की हाल तक प्रकाशित किताबों को पाठकों ने नहीं पढ़ा
है।भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताबों के साथ आईसेक्ट से प्रकाशित’आलोचना के अयन’ को पढ़ना
ज़रूरी है।
पवन वर्मा की किताब का यह भाष्य एकदम नवीन तथ्यों
की ओर आलोचना को ले जाता है।डा विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें साधक आलोचक मानते हैं।नये से नये लेखकों को
वे अपने पाठ के केंद्र में रखते हैं।
उनके लिखे में भारतीय और विश्व आलोचना की गहरी
अंतःदृष्टि का उन्मेष है।
पवन माथुर की किताब उनकी इस आलोचना के उपरांत
आलोचना में एक नया मक़ाम बनाएगी।यह डा वर्मा के
आलोचना कर्म पर भी पुनर्मूल्यांकन का द्वार खोलेगी, ऐसी
आशा बनती है।
निराला और मुक्तिबोध पर उनकी किताबें ,मेरी प्रिय किताबें
हैं जिन्हें मैं बार बार पढ़ता हूं।भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित
“ख़ुतूत से नुमायां” आलोचना में एक नया प्रस्थान बिंदु है।
पवन माथुर की किताब पढ़कर ही कुछ और कहा जा सकता है।
यह आलोचना में एक मंगल आरंभ है।