मणिपुर के नाटकके. मंजरी श्रीवास्तव |
भारत के उत्तर-पूर्वी प्रदेश हमेशा से हमारे लिए रहस्यमय और कौतूहल भरे रहे हैं. वहां के लोगों से लेकर वहां की सभ्यता, संस्कृति, गीत-संगीत, नाटक सब इतने सुकून भरे हैं कि कोई वहां जाए तो वहीं का होकर रह जाए. पर दुर्भाग्यवश सही तरीके से ये प्रदेश और इनका जनजीवन लोगों के समक्ष आ नहीं पाया है. इन प्रदेशों से कभी-कभार कोई भूपेन हज़ारिका, कोई रतन थियाम या कोई मैरी कॉम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे पहचान दिलाने में सफल हो जाते हैं.
लेकिन अब धीरे-धीरे विभिन्न स्तरों पर व्यक्तिगत और सांस्थानिक रूप से उत्तर-पूर्व को पहचान दिलाने का, वहां की पूरी सभ्यता और संस्कृति को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाने का प्रयास किया जा रहा है. इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण आयोजन है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा पिछले कई वर्षों से आयोजित किया जाने वाला पूर्वोत्तर राष्ट्रीय रंग उत्सव जिसमें भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों से नाटकों को आमंत्रित किया जाता है. इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत स्तर पर भी असम और मणिपुर में कई नाट्य महोत्सवों का आयोजन किया जा रहा है.
पिछले भागों में अंतर्राष्ट्रीय नाटकों पर बात की गयी थी अब पूर्वोत्तर की ओर. भारत में नाटक का ज़िक्र करते ही जिस नाट्य निर्देशक का नाम सबसे पहले ज़ेहन में उभरता है वह हैं भारत के अप्रतिम रंगकर्मी, भारतीय रंगमंच के बादशाह, थिएटर के जादूगर रतन थियाम जो आते तो मणिपुर से हैं पर उनकी विशेषता यह है कि वे अपनी स्थानीयता के साथ ही खुद को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करते हैं.
रतन थियाम पर अलग से बातें हुईं हैं और आगे भी होगी. इस कड़ी में मणिपुर के कुछ अन्य वरिष्ठ और युवा नाट्य निर्देशकों की चर्चा की गयी है जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में रंगमंच के पटल पर बहुत शानदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है.
1.
पेबेट
रतन थियाम के अतिरिक्त मणिपुर मशहूर रंगकर्मी स्वर्गीय एच. कन्हाईलाल की वजह से भी जाना जाता है. कन्हाईलालजी की पत्नी और निर्देशिका-अभिनेत्री सावित्री हेस्नाम का नाटक ‘पेबेट’ कुछ वर्षों पहले मैंने भारत रंग महोत्सव में देखा था हालांकि यह नाटक एच. कन्हाईलाल द्वारा निर्देशित था.
पेबेट में मशहूर मणिपुरी वरिष्ठ अभिनेत्री और प्रसिद्ध मणिपुरी निर्देशक स्वर्गीय कन्हाईलाल जी की जीवन संगिनी सावित्री हेस्नाम जी को देखना खुद पर फ़ख्र करने जैसा है.
पेबेट की माँ की भूमिका निभा रही माँ सावित्री मंच पर कोई वृद्धा या वरिष्ठ नायिका नहीं लगती, बल्कि चिड़िया-सी फुदकती सोलह बरस की किशोरी या युवती लगती हैं. मंच पर कोई सेट नहीं, कोई ताम-झाम नहीं, कोई साज-सज्जा नहीं सिर्फ अपनी आवाज़, अपनी सुरीले कंठ से निकलती विभिन्न प्रकार की ध्वनियों, अपने अभिनय और भाव-भंगिमाओं से वह ऐसा जादू उत्पन्न करती हैं कि मंच पर कोई और कलाकार दर्शकों को दिखता ही नहीं. दर्शक ठगे-से, मंत्रमुग्ध से सिर्फ़ उन्हीं को निहारते रह जाते हैं. उनके अभिनय को व्याख्यायित करने के लिए मेरे पास क्या दुनिया के किसी भी व्यक्ति के पास शब्द कम पड़ जाएँ. एक और बात जो उनके कुशल अभिनेत्री होने का परिचायक है कि अपने रंग सहयात्री और जीवनसाथी कन्हाईलाल जी को खोने की वेदना से भरी होने के बावजूद वे अपने अभिनय पर अपनी वेदना, अपनी पीड़ा को भारी नहीं पड़ने देतीं. मंच पर उनका अभिनय ही उनकी वेदना पर भारी पड़ता है.
पेबेट वह पहला नाटक है जिसमें कन्हाईलाल ने रंगमंच से सम्बंधित अपनी विचारधारा और आदर्शों को शिल्प और कथ्य के माध्यम से प्रकट किया. यह रंगमंच की एक वैकल्पिक शैली के माध्यम से बंधी-बंधाई रंग-परंपरा में हस्तक्षेप था जो जनता से जुड़ने में सफल रहा. पेबेट एक ‘फुंगा वारि’ है जो मणिपुर की एक परंपरागत कथा-शैली है जिसमें बड़े-बूढ़े आग के पास बैठकर बच्चों को कहानी सुनाते हैं. कन्हाईलाल ने इस कहानी को आज की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को रेखांकित करने और परिचित के व्यतिक्रम से रंगमंच में चेतना प्रवाहित करने के लिए प्रयोग किया है.
पेबेट एक छोटी चिड़िया है जिसे बहुत समय से देखा नहीं गया है. शायद उसकी प्रजाति ख़त्म हो गई है. अपने बच्चे की हिफाज़त करते हुए माँ पेबेट शिकारी बिल्ली की चापलूसी करके उसका ध्यान बंटाने की कोशिश करती है. वह तब तक उसके मन के मुताबिक़ बातें करती रहती है जबतक कि उसके बच्चे अपनी रक्षा करने में सक्षम न हो जाएँ. जैसे ही वे बड़े होते हैं, चिड़िया बिल्ली का विरोध करती है और बिल्ली उसके सबसे छोटे चूज़े को पकड़ लेती है लेकिन चिड़िया चालाकी से बिल्ली से अपने बच्चे को छुड़ा लेती है. सभी पेबेट चिड़ियाँ आखिरकार संगठित होती हैं और बिल्ली उनके जीवन से हमेशा के लिए चली जाती है.
इस पूरे नाटक में पेबेट चिड़ियाओं की माँ बनी सावित्री हेस्नाम, मक्कार साधु बने अभिनेता एच. तोम्बा और पेबेट के बच्चे बने अभिनेताओं जी. गोकेन, पी. त्योसन, धनञ्जय राभा, एस. बेम्बेम और एच. लोहीना सबने शानदार अभिनय किया है. माँ सावित्री ने तो कमाल का अभिनय किया है. वे सचमुच चिड़िया ही लग रही हैं. उनकी वे मुद्राएँ अद्भुत हैं जब वे अपने सबसे छोटे बच्चे को उड़ना और दाना चुगना सिखा रही हैं, जब वे बिल्ली से अपने बच्चों की हिफाज़त कर रही हैं अपने पंख फैलाकर. अपने हाथ से वे पंखों का जो दृश्य उत्पन्न करती हैं वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. अपने बच्चों को लेकर, उनकी हिफाज़त को लेकर उनके चेहरे पर और उनकी आँखों में जो चिंता के भाव हैं वे लाजवाब हैं. ऐसा महसूस ही नहीं होता कि हम मनुष्यों को अभिनय करते देख रहे हैं. महसूस होता है कि मंच पर हम चिड़ियों को देख रहे हैं, किसी मक्कार बिल्ली को देख रहे हैं.
2.
बास्केट ऑफ़ डॉल्स
कुछ वर्षों पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की डिप्लोमा प्रस्तुति की श्रृंखला में युवा निर्देशक ओएसिस सोगैजम का नाटक ‘बास्केट ऑफ़ डॉल्स’ फ़्रांसीसी नाटक ‘ले चैन्त्स दे ई उमई’ की ही तरह का अद्भुत और जादूभरा नाटक था. ओएसिस मणिपुर से आनेवाले युवा निर्देशकों में एक महत्वपूर्ण नाम हैं. ओएसिस सौगैजम द्वारा अभिकल्पित और निर्देशित नाटक ‘बास्केट ऑफ़ डॉल्स’ मणिपुरी लोककथा पर आधारित था.
निर्देशक ओएसिस ने बताया कि यह 1980 में लिखी गई स्क्रिप्ट है जो पहले सिर्फ लोककथा और नाटक के रूप में ही था. ओएसिस ने इसे ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ा. यह लोककथा हमें बताती है कि बच्चों को गुड़ियों से खेलना पसंद है. इस नाटक में एक लडकी लुवान्ग्वी अपनी दोस्त के साथ अपनी गुड़ियों से खेलती है जिनके नाम थोइनु और लुवान्ग्बा हैं. गुड़ियों के बारे में उसकी इस कहानी में इस क्षेत्र की स्त्रियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा, राजनीति और यहाँ की संस्कृति की झलक मिलती है.
मणिपुर, बर्मा (म्यांमार) के समीप स्थित है. इतिहास में इन दोनों देशों के बीच बहुत सारे युद्ध हुए हैं. बर्मा के लोगों और राजकुमार कोइरंग्बा के बीच एक षड्यंत्र उस समय हुआ था जब राजकुमार एक विवाहिता से ज़बरदस्ती शादी करना चाहता था जिसका नाम थोइनु था. लुवान्ग्बा जो थोइनु का पति और इस नाटक का नायक है वह अंत में वीरगति को प्राप्त होता है. उनके छोटे से पुत्र को बाढ़ के पानी को रोकने के लिए जिंदा दफना दिया जाता है. कोइरेंग्बा के नकाबपोश थोइनु की अस्मत की हिफाज़त नहीं कर पाते.
नाटक युद्ध के दौरान जनसाधारण की स्थिति और बच्चों तथा स्त्रियों के विरुद्ध होनेवाले अपराधों को दिखाने की भी कोशिश करता है और समाज में चलनेवाले सत्ता संघर्ष को भी. सत्ता का यह संघर्ष राजाओं के ज़माने से आजतक चल रहा है. इस सत्ता के द्वारा लोगों के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया जता था और बच्चे तथा स्त्रियाँ इसकी सबसे ज़्यादा शिकार होती थीं. आज सत्ता पुरुषों के पास है. अपनी सत्ता और ताकत का इस्तेमाल अपनी मर्जी के मुताबिक़ करते हैं. कोइरेंग्बा सत्ताधारी पुरुष का प्रतीक है. बच्चे जिस गुड़िया को खेलकर छोड़ देते हैं वह थोइनु की प्रतीक है जिसके साथ कोइरेंग्बा के लोगों ने बलात्कार किया था. नाटक बच्चों पर होनेवाले युद्ध के दुष्प्रभाव को भी दिखाता है.
नाटक को काफी संपादित करने के बावजूद भी संगीत और नृत्य की सहायता से मूल विषयवस्तु को बरकरार रखते हुए प्रतीकात्मक और शैलीबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया जिसके लिए युवा निर्देशक ओएसिस बधाई के पात्र हैं. संगीत इस नाटक का मुख्य पक्ष और आधार दोनों रहा. इसमें लोक, धार्मिक, पश्चिमी, परम्परागत और शास्त्रीय संगीत सबका समावेश किया गया और हस्तनिर्मित बांस के वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया गया. मुख्य वाद्ययंत्रों में बांसुरी का प्रयोग सबसे अधिक किया गया.
ओएसिस बताते हैं कि इस नाटक की स्क्रिप्ट के लिए उन्हें युद्ध की तस्वीरों, विशेषकर हिरोशिमा और नागासाकी तथा वियतनाम युद्ध की तस्वीरों ने प्रेरित किया. वियतनाम युद्ध के बाद की एक जली हुई, भागती हुई लड़की की दारुण तस्वीर ने ओएसिस को हिलाकर रख दिया. साथ ही, युद्ध के बाद १३ बूढ़ी औरतों की तस्वीर ने भी उन्हें काफी दुखी किया. इसके अतिरिक्त ओएसिस ने दारियो फ़ो की पत्नी की लिखी किताब ‘द रेप’ से भी कुछ तथ्य/दृश्य लिए, विशेषकर वह दृश्य जिसमें चलते नाटक के दौरान कलाकार से बलात्कार किया गया था.
अपने नाटक के माध्यम से उन्होंने युद्ध के भयानक साइड इफेक्ट्स दिखाए हैं जिनमें असुरक्षा की भावना, औरतों और बच्चों के प्रति हो रही हिंसा को उन्होंने नाटक का मूल स्वर बनाया है. अपने इस नाटक में ओएसिस ने मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ के एक गीत ‘मत रो बच्चे…’ को बेहद खूबसूरती से शामिल किया है और ख़ास बात यह है कि उनके नाटक के लिए इस गीत को गाया है एक छह वर्ष की बच्ची ने जिसका नाम है जयति वैद्य. कुल मिलाकर ओएसिस का नाटक एक मुकम्मल नाटक कहा जा सकता है. ओएसिस सोगैजम के रूप में एक ऐसा निर्देशक सामने आया है जो न सिर्फ अच्छा निर्देशक है बल्कि एक अच्छा संगीतकार भी है, ध्वनि और प्रकाश पर भी समान रूप से उसका अधिकार है. दूसरे शब्दों में वह ‘वन मैन शो’ कर सकता है.
3.
बकाई
मणिपुर के युवा निर्देशकों में थवाई थियाम का नाम भी लिया जा सकता है. युवा निर्देशक थवाई थियाम का नाटक ‘बकाई’ चिंतन और ट्रीटमेंट की दृष्टि से नया है.. नाटक बकाई थीब्ज के राजा पेंथियस और देवता डायनिसस पर आधारित है. अपनी प्रस्तुति में थवाई डायनिसस को एक विकसित देश के तौर पर देखते हैं जो पूरे विश्व में वैश्वीकरण को प्रभावित करता है और पेंथियस को एक छोटे समुदाय के रूप में जिसका अस्तित्व बने रहना संदिग्ध है.
वे पेंथियस और डायनिसस के बीच के अंतर्द्वंद्व को भगवान् और मनुष्य के बीच के द्वंद्व के रूप में नहीं दिखाते बल्कि उसे वे परिभाषित करते हैं पुराने पारंपरिक नैतिक सिद्धांतों और आधुनिक वैज्ञानिक सोच के बीच द्वंद्व के रूप में. पूर्वोत्तर की पूरी संस्कृति को आत्मसात करते हुए थवाई का बकाई स्थानीय से वैश्विक हो जाता है. थवाई अपने पिता और भारतीय थिएटर के बेताज बादशाह रतन थियाम की तरह ही अपनी स्थानीयता, अपनी आंचलिकता से गहराई से जुड़कर सार्वभौम और वैश्विक होते हैं. उनके नाटकों में हमारी सभ्यता पर छाए संकट की गहरी चेतना है. इस चेतना को वे मणिपुर से उठाकर विश्व स्तर पर स्थापित कर देते हैं और दुनिया के सामने तमाम अनसुलझे प्रश्न छोड़ देते हैं.
वे अपने पिता की तरह ही मणिपुरी और भारतीय संस्कृति के नागरिक होते हुए ही विश्व नागरिक होने के लिए प्रयत्नरत हैं. अपने नाटकों से वे वैश्विक संवाद की संभावना को निरंतर खोलने का वह यत्न कर रहे है जिसे पिछले वर्षों के क्षुद्र राष्ट्रवाद ने निरंतर अवरुद्ध किया है. कहानी वही पुरानी है पर थवाई का ट्रीटमेंट नया है.
थवाई बताते हैं कि उन्हें वो चीज़ें आकर्षित करती हैं जो छुपी हुई हैं, रहस्यमयी हैं और उस रहस्य को वे अपने नाटक में भी बनाये रखना चाहते हैं. यह रहस्य ही जादू उत्पन्न करता है और दर्शकों को बांधे रखता है. जिस जादू की बात वो करते हैं वह जादू वे अपने पिता रतन थियाम से वे विरासत में लेकर आते हैं. रतन थियाम थिएटर नहीं जादू करते हैं और यह भारतीय थिएटर के लिए बेहद सुखद संकेत है कि उनकी अगली पीढ़ी भी यह जादू सीख रही है और दर्शकों पर यह जादू होता रहेगा.
थवाई को चूंकि विरासत में थिएटर मिला है इसलिए कई चीज़ें वे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से तो ज़रूर लेते हैं लेकिन उसकी वे अपने तरीके से व्याख्या करते हैं और यही बात उन्हें उनके पिता रतन थियाम से अलग करती है. रतन थियाम के सुपुत्र होने के नाते रंगकर्मियों और दर्शकों की उनसे अपेक्षाएं कहीं ज़्यादा हैं लेकिन उन्हें सिर्फ और सिर्फ रतन थियाम के सुपुत्र के रूप में नहीं बल्कि एक संभावनाशील निर्देशक के रूप में देखा जाना चाहिए.
थवाई ने अपने इस नाटक में परिधान और वेशभूषा, विशेष रूप से आभूषणों को लेकर नए प्रयोग किये हैं. उनके कलाकारों के वस्त्र-आभूषण तिब्बत, बर्मा और कई पड़ोसी देशों से प्रेरित हैं. नृत्य, भाव-भंगिमाओं और प्रकाश-व्यवस्था पर भी थवाई ने बहुत ध्यान दिया है. कुल मिलाकर उनका यह डेब्यू नाटक सफल रहा है और वे बधाई के पात्र हैं. पूर्वोत्तर का लोक-संगीत नाटक में मुखर है. विशेष रूप से रुदन और विलाप तथा बुरी शक्तियों के नृत्य को दिखाने के लिए थवाई ने जिस धुन का इस्तेमाल किया है वह पूर्वोत्तर से निकलता तो है लेकिन वैश्विक सुर को भी उसी प्रखरता से ध्वनित करता है.
यह धुन सुनते ही बहुत तेजी से ऐसा महसूस होने लगता है कि हम चारों ओर बुरी शक्तियों से बेतरह घिरे हैं और लोकल से ग्लोबल, स्थानीय से वैश्विक के संघर्ष में रत हैं. वाद्य यंत्रों में तुरही और नगाड़े का प्रमुख रूप से इस्तेमाल किया गया है. एक सधी हुई प्रस्तुति के लिए निस्संदेह थवाई और उनकी पूरी टीम बधाई की पात्र है.
4.
रिक्शा अमासुंग नोंगमेई
मणिपुर की एक और संभावनाशील निर्देशक हैं सुश्री एस. थनिनलेइमा. डॉ. एस. थनिनलेईमा द्वारा लिखित और निर्देशित मणिपुरी नाटक ‘रिक्शा अमासुंग नोंगमेई’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाटक है.. यह मणिपुर के समूह खेंजोंगलंग की प्रस्तुति है. यह कहानी है पोइरेइ नामक एक रिक्शेवाले की जो दो जून की रोटी कमाने के लिए हर दिन सुबह से शाम तक रिक्शा चलाता है. रिक्शा चलाने के दौरान वह ऐसे-ऐसे लोगों और घटनाओं से दो-चार होता है जो उसका हृदय विदीर्ण कर देते हैं. ऐसी-ऐसी घटनाएँ वह रोज़ देखता है जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता. वह हमेशा परेशान रहता है, आम लोगों की परेशानियों का कारण ढूँढने की कोशिश में वह सदा परेशान रहता है. हर गुज़रते दिन के साथ वह मौत का तांडव देखता है…बस इनकी संख्या कम या ज़्यादा होती है. हर बार उसके सामने एक लाश होती है…एक आदमी की लाश …भयाक्रांत माताएं अपने पुत्रों को पुकार रही हैं जिनकी आवाज़ पोइरेइ को परेशान करती हैं और वह सोचता है कि अगर यही सिलसिला जारी रहा तो एक दिन उसकी भूमि से आदमी ग़ायब हो जायेंगे.
एक रिक्शेवाले के माध्यम से यह नाटक उत्तर—पूर्व में किसी न किसी वज़ह से हो रही मौतों को सामने लाता है, उसके कारणों की पड़ताल की कोशिश भी है यह नाटक. उत्तर-पूर्व, विशेषरूप से मणिपुर की दशा को उजागर तो करता है लेकिन कहीं-कहीं बहुत लाउड हो जाता है.
रिक्शेवाले की भूमिका में यादगार अभिनय किया है लालू उर्फ़ एस. चिन्ग्लेन्न्गंबा ने. निर्देशक के अनुसार यह नाटक एक कलाकार के, विशेष रूप से अभिनेता के तन, मन एवं मस्तिष्क के सर्वोत्तम भावों की प्रस्तुति है.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
मेरे लिये नाटकों की दुनिया रहस्यमय तरीक़े से कथ्य के मंच पर प्रदर्शन करने का अद्भुत माध्यम है । समालोचन का यह अंक उत्तर पूर्व के राज्य मणिपुर पर केंद्रित है । हमारे देश का भूगोल रशिया और अमेरिका से छोटा है । परंतु विविधताओं से भरा हुआ है । ऐसा ही मणिपुर । वहाँ के निवासियों को नाम बहुतेरे व्यक्तियों के लिये अजनबी हैं । एक नाटक में अभिनय करने वाली महिला सावित्री स्व. कन्हाई लाल की पत्नी सावित्री हैं । वह पेबेट में चिड़िया का अभिनय करती हैं । वे स्वयं निर्देशिका हैं । चिड़िया अपने बच्चों को बिल्ली से रक्षा करती हैं । लाक्षणिक रूप से भक्षक से समाज की रक्षा करना । के मंजरी श्रीवास्तव को शब्द समायोजन के लिये बधाई । मंजरी जी बुनकरों और उनके कार्यों के संरक्षण कर रही हैं । प्रशंसनीय है ।
दिलचस्प आलेख। फिर से नाटकों को समाज में केंद्रीयता देने की जरुरत है।यह हमारी जातीय परंपरा की एक अमूल्य विरासत है। मंजरी जी को साधुवाद !
वाह. कितना ख़ूबसूरत आलेख जैसे मणिपुर उतर आया हो। नाटक जैसे सपना ही है। क्या तो खूबसूरत इमेजरीस तस्वीरों में भी, चार नाटक जैसे चार कहानियाँ सपनों की और उस दुनिया की।
बहुत ही सुन्दर, लगातार पढ़ते रहने के लिए विवश हो गया। साथ ही उत्तर पूर्व की बहुत सी बातें जानने को मिली। आभार।