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समालोचन

Home » अविनाश मिश्र की कविता : धर्मपत्नियाँ

अविनाश मिश्र की कविता : धर्मपत्नियाँ

अविनाश मिश्र की ‘धर्मपत्नियाँ’ कविता का एक सिरा पौराणिक है, तो दूसरा समकालीन. कविता इन दोनों के बीच भाव और विचार की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई आगे बढ़ती है. इसे एक विराट विक्षोभ ने घेर रखा है जो जितना कवि का है, उतना ही समय का भी. कवि हमेशा से अज्ञात, असुरक्षित, अनपेक्षित, अराजक, और अनन्य पथ पर चलने के लिए जाने जाते रहे हैं, और अविनाश मिश्र भी उसी परंपरा के कवि हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
November 5, 2025
in कविता
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अविनाश मिश्र की कविता : धर्मपत्नियाँ
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धर्मपत्नियाँ
अविनाश मिश्र

 

कीर्ति

कुटिल मनुष्य को कीर्ति त्याग देती है
यह मेरा वचन नहीं है
लेकिन यह मेरा ही है कि
बहुनैष्ठिकता एक विकृत व्यवहार है
और यह भी कि
उत्तेजना संसर्ग की प्राथमिक शर्त है
तुम बढ़ोगे तो मैं बढ़ूँगी
मैं बढ़ूँगी तो तुम पाओगे :
सब कीर्तियाँ अंततः एक जैसी हैं
सब स्खलन अंततः एक जैसे हैं.

 

 

लक्ष्मी

प्रेम-कविता से प्रारंभ में ही तुम बाज़-आओ
अभिव्यक्ति के लिए आकर्षित हो जाओ
मानवीय व्यवहार की विडम्बना की तरफ़
नेरूदा में कोई यक़ीन मत रखो
वह तुम्हारा कवि नहीं है
कवियों की तलाश में तुम वाल्मीकि तक जाओ
और निराला पर रुक जाओ
प्रेम को उत्तरविषय बनाओ
और पाओ उसकी चंचलता को
हाथ का मैल!

 

 

pinterest से आभार सहित

धृति

मुझसे तुम्हें जो कुछ मिला
तुम उसके वितरक मात्र हो
मैं सहती हूँ तुम्हारी प्रतिगामिता
और तुम सहना जानते ही नहीं
कहना क्या जानोगे…
मेरे संग पर निर्भर है
तुम्हारा समस्त यश
तुम्हारे भय में
प्रचलन से भिन्न होती जाती हूँ
अनुरागरंजित नहीं सुहागरंजित!

 

 

मेधा

मैं वह हूँ
जिसे दूसरे की गाड़ी
कभी बड़ी नहीं लगती
क्योंकि मैं गाड़ी रखती ही नहीं
जबकि रख सकती हूँ
मेरे बदन को बरतते हुए
तुम्हारे बदन की आँखों में
मैं पाती हूँ असंख्य गाड़ियाँ
मूर्खता की सात कोटियाँ
और विवेक के आठ प्रकार.

 

 

पुष्टि

एक दिमाग़ से दूसरे दिमाग़ तक
एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक
एक कान से दूसरे कान तक
अफ़वाहों-असत्यों को प्रसारित करने वाली
नई प्रतिभाओं के साथ हूँ मैं
मुख्यधारा के साथ-साथ चलने वाली
सहधाराओं के साथ हूँ मैं
मठाधीशों ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया
मंचाधीशों ने उन्हें मंच नहीं दिया
मैंने उन्हें क्लेश नहीं दिया.

 

 

 

श्रद्धा

तुम्हारी कुछ अदाओं की दीवानी होकर
मैं पहले तुम्हारी आदी हुई फिर चिड़चिड़ी
इसके बाद तुम अपनी अदाओं को क़ैद समझकर
अपने आयामों से दूर जाने लगे
मैं चकित हुई इस अदा से
ढूँढ़ने लगी तुममें
तुम्हारी पुरानी अदाएँ
दीवानी होकर
और आदी और चिड़चिड़ी होकर
छायावादी ढंग से.

 

 

 

क्रिया

वर्षांत में कई दोस्त तुमसे दूर हो चले
या तुम ही उनसे दूर हो गए
अब दूर से देखते हो कि हो चले
वे शिल्प तुमसे दूर चले गए
जिसमें तुम कविता कहते आए
वे कथ्य तुमने खो दिए
जिन पर तुम कविता रचना चाहते थे
एक साँस तुमने गँवा दी
एक आह
एक क़लम…
अब ख़ुद को ही
ख़ुद का क्षेपक लगते हो
मूल कथा से कटे हुए
कहीं से टूटकर
कहीं जुड़े हुए
प्रवाहबाधित!

 

 

 

बुद्धि

मैं होती हूँ
या नहीं होती हूँ
लगभग नहीं होती हूँ
मैं तुमसे बहुत दूर हूँ
प्रेरणा सताती है तुम्हें
रचना के स्वप्न आते हैं
मुक्ति बताती है मुझे
चेतना समझाती है मुझे
निर्विचार से निर्विकार होने तक
आकर्षण का अन्य!

 

pinterest से आभार सहित

लज्जा

मुझे बहुत याद मत करो
वगरना मैं बहुत याद आऊँगी
तुम ज़्यादा मत बदलो मुझे
मैं ज़्यादा नहीं बदल पाऊँगी
मैं तुम्हारे साथ हूँ
इस तरह नज़र आओ
एकांत में भी
इस अभिनय का अभ्यास करते रहो
प्रेम को मानते रहो एक बहुत विशाल व्यंग्य
और ज़रूरत को जीने की अंतिम शर्त.

 

 

मति

मैं मारी गई
ऋचाओं, श्लोकों, पदों, चौपाइयों,
मुहावरों, कहावतों, कविताओं, कहानियों,
चित्रों, चित्रपटों में ही नहीं…
सब जगह
मेरे मरण से दुबली नहीं हुई देह
और पुष्ट होती गई
अखंड पाखंड प्रतीत होता है यह संसार
इसमें कहाँ तुम,
कहाँ तुम्हारा कलात्मक व्यवहार!

 

अविनाश मिश्र (जन्म: 1986, गाजियाबाद) कविता, कथा, आलोचना, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकों में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से प्रकाशित पहला कविता-संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएँ’ (2017), वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पहला उपन्यास ‘नये शेखर की जीवनी’ (2018), राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित दूसरा कविता-संग्रह ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान : कामसूत्र से प्रेरित’ (2019), हिन्द युग्म से प्रकाशित दूसरा उपन्यास ‘वर्षावास’ (2022), राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित नवें दशक की हिंदी कविता पर एकाग्र आलोचना ‘नवाँ दशक’ (2024) और तीसरा कविता-संग्रह ‘वक़्त ज़रूरत’ (2024) शामिल हैं.

हिन्द युग्म से दो खंडों, ‘आगमन’ और ‘प्रस्थान’ में ‘आगमन’ पूर्व-प्रकाशित ‘नये शेखर की जीवनी’ का पुनर्लिखित संस्करण है, जबकि ‘प्रस्थान’ उसका अग्रगामी और प्रयोगशील विस्तार.
‘सदानीरा’ और ‘हिन्दवी’ का संपादन भी कर रहे हैं.

 संपर्क: www.avinash-mishra.com

 

Tags: 20252025 कविताएँअविनाश मिश्रधर्मपत्नियाँसदानीराहिन्दवी
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Comments 23

  1. Baabusha Kohli says:
    2 months ago

    वाह ! एकदम अविनाश-मिश्र सरीखी बेधक ! गोली की तरह दनदनाती हुई !
    मेधा, श्रद्धा, लज्जा और मति — इस इमारत के मज़बूत स्तंभ हैं।

    Reply
  2. खुशबू सिंह says:
    2 months ago

    अविनाश मिश्र की असल जमीन यही है । वे फिर अपने पुराने तेवर में दिखे. वे दरअसल प्रेम के कवि हैं।

    Reply
  3. प्रभात कुमार says:
    2 months ago

    अब ख़ुद को ही
    ख़ुद का क्षेपक लगते हो …

    alienation की विडंबना साकार हो उठी है इन पंक्तियों में..

    ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास लौट कर मल्लिका से इसी भावना को व्यक्त करता है —-मैं वह कालिदास हूँ ही नहीं जिसे तुम जानती हो..

    वह भी ख़ुद का क्षेपक ही लगता है ख़ुद को…प्रवाहबाधित…

    इस मायने में यह कविता आषाढ़ का एक दिन की वैचारिकी और दार्शनिक चेतना का नवाविष्कार भी है, अन्य बहुत कुछ होने या हो सकने के साथ-साथ ।🌸

    Reply
  4. मदन सोनी says:
    2 months ago

    बहुत सुन्दर कविताएं।

    Reply
  5. Akhilesh Singh says:
    2 months ago

    उनकी रचनात्मकता किसी भी समानधर्मी के लिए ईर्ष्या का कारण हो सकती है। उनपर आक्रमण किए जा सकते हैं, उनसे आक्रांत होकर। उन्हें पराजित नहीं किया जा सकता, इसी तरह, पराजितों के द्वारा।

    Reply
  6. उद्भ्रांत says:
    2 months ago

    अपने रूप, रस, gandh में सर्वथा नवीन इन कविताओं का आकर्षण durnivar है

    Reply
  7. प्रतीक ओझा says:
    2 months ago

    इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह सिर्फ अविनाश जी ही अच्छे से कर पाते हैं पुरानी कविताओं से लेकर अब तक उनका सामंजस्य बिल्कुल भी बिगड़ा नहीं है। कविताओं में कार्यव्यवहार और समय को शास्त्रीय प्रतीत होते आधुनिक धागे में पिरोने की कला उनके पास अदभुत है। जिनका बेहतरीन उदाहरण लक्ष्मी, लज्जा, पुष्टि और मति हैं। अच्छी कविताओं के लिए खूब बधाई🌼❤️

    Reply
  8. केशव तिवारी says:
    2 months ago

    अविनाश के यहाँ एक बात बहुत अलग वो जिस कथ्य को चुनते हैँ फिर उसके किसी भी आयाम को बिना बिचरे महसूस किये उस पर कलम नहीं उठाते ‘ एक मुक़म्मल शिकारी की तरह तब कथ्य को दबोचते हैँ l ये बहुत श्रम और उससे ज्यादा धैर्य की मांग करता है l उनका कथ्य हमेशा अपना शिल्प चुनता है… ये सब कह तो रहा हूँ पर ये कितना कठिन है ये तो उस प्रक्रिया से गुजरने वाला ही समझ सकता है l

    Reply
  9. RAMA SHANKER SINGH says:
    2 months ago

    देह, प्रेम और सुन्दरता को कविता में सधे हुए तरीके से बरतने में अविनाश जी सिद्धहस्त हैं.

    मांसलता को बिखर जाने का भय होता है, लालसा अश्लील हो जाती है और देह के बहुत ज्यादा अनावृत्त हो जाने का संकट रहता है. और इसे कविता में कविता की तरह कहा जाना है.

    अविनाश यह सब बड़ी खूबसूरती से करते हैं. उनकी भाषा उनकी अनुगामी हो गई है. और यह सब उन्होंने अर्जित किया है.

    Reply
  10. प्रत्यूष चंद्र मिश्र says:
    2 months ago

    अविनाश ये कविताएं समकालीन हिन्दी कविता की जड़ता को तोड़ती है. वे न केवल सघन बिम्ब और भाव के कवि हैं बल्कि अपनी अभिव्यक्ति में भाषिक सौन्दर्य को भी बचा ले जाते हैं. हिन्दी की सपाट तरल-गरल कविता का क्रिटिक अविनाश की कविताओं में सहज रूप से लक्षित किया जा सकता है.

    Reply
  11. ललन चतुर्वेदी says:
    2 months ago

    इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अविनाश मिश्र काव्य-वस्तु पर लम्बे समय तक विचार करते हैं और जब लिखने बैठते हैं तो शेर की तरह अचूक शिकार करते हैं.इन कविताओं का अपना वास्तु शास्त्र है .एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं.परम्परा और आधुनिकता के संगम में दर्शन की एक धारा बहती हुई दिख रही है.

    Reply
  12. Sushma Sinha says:
    2 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं, प्रभावित करती कविताएं

    Reply
  13. रवि रंजन says:
    2 months ago

    समकालीन कविता में प्रचलित मुहावरे से भिन्न एवं विशिष्ट अनुभूति की ताजगी से भरपूर कविताएँ, जिन पर सार्थक टिप्पणी करने के लिए इन्हें बार बार पढ़ना और गुनना ज़रूरी है.
    कवि अविनाश के लिए शुभकामनाएँ.

    Reply
  14. कमलानंद झा says:
    2 months ago

    प्रेम कविता लिखना दुष्कर है, अच्छी प्रेम कविता लिखना तो और भी दुष्कर। लेकिन अविनाश इस दुष्कर कविकर्म को सहजता से निभा जाते हैं। अविनाश जी को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  15. अनिता रश्मि says:
    2 months ago

    पौराणिक बातों संग सामयिक सोच की कलात्मक अभिव्यक्ति.
    सभी कविताएँ पठनीय और विशेष हैं।
    अविनाश जी को बधाई

    Reply
  16. पंकज प्रखर says:
    2 months ago

    अविनाश का कवि नए का अभिज्ञान करता है। लेकिन इसके बर’अक्स वह अनुभूति और अभिव्यक्ति, दोनों का सामंजस्य भी रखता है, जो कि इस कविता में भी है। नए और प्रयोग के चक्कर में जहाँ समकालीन काव्य-व्यवहार बहुत कुछ नीरस, औचित्य-विहीन, काव्यधर्मिता से दूर होता, सौंदर्यबोध से च्युत हुआ जा रहा―वहाँ अविनाश का काव्य-संसार, सुंदर-सारगर्भित और अर्थगौरवपूर्ण का निर्माण करता है। वह इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि बहुत कुछ चुप रहने के शिल्प में संभव होता हुआ, पाठकों को भी अभिज्ञान के लिए उकसाता है―एक ज़रूरी समझाइश की मांग करता हुआ।

    Reply
  17. rahul jha says:
    2 months ago

    समन्वय की प्रस्तावना को लेकर कविता जिस तरह लिखी जाती है…उसके अलग-अलग मान-प्रतिमान होते हैं…जहाँ अर्थ एक प्रतिध्वनि की तरह आती है…और भाषा को खोल देती है…

    उस खुले विस्तार में…जहाँ सबकुछ आद्दंत है…

    अविनाश की कविता इसी अर्थ-संदर्भ में प्रकट है…जिसकी तासीर जाती नहीं …!

    Reply
  18. सोनू यशराज says:
    2 months ago

    अपने वक्त की आंच को समेटे अभिनव आयाम से संपृक्त अनूठी रचनाएं।

    Reply
  19. rupa singh says:
    2 months ago

    बहुत अच्छी कविताएँ । टटकी ।

    Reply
  20. जावेद आलम ख़ान says:
    2 months ago

    विषय और शिल्प के लिहाज से कसी हुई कविताएं हैं।असर छोड़ती हैं।अविनाश भाई को बहुत बधाई इन कविताओं के लिए

    Reply
  21. ज्योतिकृष्ण वर्मा says:
    2 months ago

    उत्कृष्ट प्रतिबिम्बों से सजी, गहन अर्थ लिए बहुत सुन्दर कविताएं| बधाई अविनाश जी| आभार “समालोचन” !!

    Reply
  22. M P Haridev says:
    2 months ago

    अविनाश जी मिश्र की कविताओं ने सआदत हसन मंटो के लेखन का स्मरण करा दिया ।
    पुरुष के लिए औरत अपनी वासना पूरी करने की वस्तु बनाया है । उसके लिए परस्त्रीगमन बिना ग्लानि की विधि है । कविताएँ असाधारण हैं । उन्हें और समालोचन को बधाई ।

    Reply
  23. हरप्रीत कौर says:
    1 month ago

    प्रेम को मानते रहो एक बहुत विशाल व्यंग्य
    और ज़रूरत को जीने की अंतिम शर्त.

    शिल्प और भाव दोनों बेहतरीन ,सधे हुए

    Reply

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