कहना न होगा कि धूमिल की कविता की बनावट, उसका स्थापत्य सक्रिय आंदोलनों या काव्य-धाराओं में एकदम कस के बंधा हुआ नहीं था. वह एक ग्रामीण मिजाज के व्यक्ति की ठेठ बोली है जो उसने कुछ परिश्रम से हासिल हुए ज्ञान के जरिए अभिव्यक्त किया है. स्पष्टतः एक वैचारिक प्रस्थान बिंदु के साथ धूमिल को बाँधने के आकर्षण में, जो युगीन राजनीति से प्रभावित जान पड़ती है, नामवरजी ये दुविधाएँ पैदा करते हैं. इस तरह धूमिल को बाँधने का प्रयास ही बेमानी है. काशीनाथजी के संस्मरण से तो पता चलता है कि राजकमल चौधरी की मृत्यु के पाँच महीने पहले ही धूमिल उनसे पहली बार मिले थे और मिलने से कोई खुशी उन्हें नहीं मिली थी. इसलिए इतना जोर इस पर दिए जाने का क्या औचित्य है. धूमिल की कविता बड़ी बात यह है कि उनके सामाजिक उत्तरदायित्व और उनकी संवेदनात्मक अनुभूति में कोई फाँक नहीं है. उनके अंतर्मन का, उनकी संवेदना जगत का निर्माण ही उन चिन्ताओं से हुआ है जो उनकी कविताओं में हर वक्त फूटती रहती हैं.
धूमिल देश की समस्याओं पर उसी तरह बात करते हैं जैसे एकदम ठेठ आत्मीय परिवेश की समस्याओं से कोई त्रस्त होकर करता है. मुक्तिबोध में भी यह फांक नहीं दिखाई देता. इन कवियों की अपनी आंतरिक दुनिया ही इतनी विराट है जिसमें अपने लिए उतनी जगह नहीं जितना बाकी दुनिया के लिए. राजनीतिक विचारधाराओं या युगीन वादों-विवादों के स्पष्ट खांचे में सभी कवियों को फिट करने की कोशिश आलोचकों को नहीं करनी चाहिए.
सामाजिक स्थितियाँ व्यक्तियों को विभिन्न रूपों में प्रभावित करती हैं. कोई व्यक्ति अपने भीतर पैदा हुए क्रोध को, क्षोभ को, पीड़ा को किस दिशा में ले जाएगा, यह उस व्यक्ति की राजनीतिक चेतना पर, मूल्यों पर, संघर्ष की भौतिक और मानसिक अवस्थिति पर निर्भर करेगा. सातवें दशक के प्रभाव को भी इसी रूप में देखना चाहिए. यहीं धूमिल और राजकमल चौधरी का फर्क है. समानता के सूत्रों को तलाशने का जो काम नामवरजी और कुछ अन्य आलोचक करते हैं उसे युग के प्रभाव के रूप में ज्यादा देखना चाहिए, कवि की मूलवृत्ति के रूप में नहीं. कवि की वास्तविक पहचान तब हो सकती है जब इन स्थितियों के प्रति उनके व्यवहार को देखा जाए. क्या धूमिल कविता का मूल्य नहीं समझते, कविता को महत्वहीन मानते हैं, क्या धूमिल सिर्फ जनतंत्र को खत्म कर देना चाहते हैं, क्या अपने लोगों के लिए एक बेहतर समाज की आकांक्षा उनमें नहीं है, क्या उन्हें जनता से लगाव नहीं है, क्या हिन्दुस्तान की जो पटकथा लिख दी गई है वे उससे निरपेक्ष हो गए हैं. अगर यह सब नहीं हुआ है और धूमिल की कविता इसके ठीक उलटे दिशा में है तो उन्हें खाँचा ढूंढ कर उसमें फिट करने की जरूरत नहीं है. खाँचे को ही थोड़ा लचीला बना लेना उचित होगा.
धूमिल की स्त्री-दृष्टि को लेकर भी काफी विवाद रहा है. आलोचकों में स्पष्ट वैचारिक मतभेद है इस बिन्दु पर. विद्यानिवास मिश्र और नन्दकिशोर नवल पूरी तरह उनके पक्ष में खड़े होते हैं. अशोक वाजपेयी उनमें स्त्री की भयावह लेकिन समकालीन रूढ़ि से मुक्त रहने का दायित्वबोध देखते हैं. नामवरजी स्त्री के यथार्थ चित्रों के उदाहरणों के साथ यह पूछते हैं कि इस यथार्थ को देखने वाली किसानी दृष्टि क्या सिर्फ सामंती है. शंभुनाथ गुप्त धूमिल में स्पष्ट मर्दवादी चेतना देखते हैं. राजेश जोशी धूमिल की कविता में सामंती चेतना देखते हैं और सहानुभूति के साथ उसके पीछे के कारणों की मार्क्सवादी पड़ताल करते हैं. ऐसे में यह विषय संवेदनशील है और इस पर राय देना कठिन भी.
नामवरजी का मानना है कि धूमिल की कविता में नारी परिवार विहीन छायावादी प्रेमिका की तरह नहीं आती बल्कि गृहस्थिन की तरह आती है, जिसका बड़ा ही मार्मिक चित्र किस्सा जनतंत्र शीर्षक कविता में खींचा गया है. इस कविता में रसोईघर के अंदर,
करछुल बटलोही से बतियाती है और चिमटा तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता चुपचाप जलता है और जलता रहता है
औरत गँवे-गँवे उठती है…
इत्यादि. क्या यह नारी का यथार्थ रूप नहीं है? और इस यथार्थ को देखने वाली किसानी दृष्टि सिर्फ सामंती है? वैसे धूमिल ने परिवार के बाहर भी नारी को देखा है. एक जगह उन्हें लेनिन का सिर नीग्रो औरत के पुष्ट दूध भरे स्तन-सा दिखाई पड़ता है और आतिश के अनार सी वह लड़की कविता भी धूमिल की ही है, जो खुद को आततायी के टैंक के नीचे बम के साथ फेंक देने वाली कुमारी रोशनआरा बेगम के लिए लिखी गई है. निः संदेह इस कविता में नारी के वीरत्व के प्रति एक रोमैंटिक भावना अधिक मुखर है, किन्तु यथार्थ की मांसलता यहाँ भी मौजूद है. क्या इसके बाद भी आप नारी के प्रति धूमिल की दृष्टि को सामंती कहेंगे?[13]
नामवरजी के इस सवाल के जवाब में यह कहा जा सकता है कि हाँ, इन सारी बातों के बाद भी धूमिल की दृष्टि में सामंती तत्व हो सकते हैं. सामतीं तत्व हमारी भाषा में, लहजे में, संकेतों में अनेक जगहों पर हो सकते हैं. राजा-महाराजाओं के दौर में भी पर्याप्त सम्मान के साथ स्त्रियों की वीरता के गुणगान के चित्र मिल जाते हैं और उसके गृहणी रूप के भी, इसलिए यह तर्क पर्याप्त नहीं है. इससे क्या यह मान लें कि सामंती युग स्त्रियों की बराबरी चाहता था! नवलजी का तर्क है कि जिन प्रतीकों के प्रयोग को लेकर हो-हल्ला है उनके उद्देश्य पर ध्यान देना चाहिए. वे स्त्रियों की अवमानना के लिए नहीं आते बल्कि महत्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों को छूने के क्रम में उपमा के लिए आते हैं.[14]
यह एक वाजिब तर्क है. लेकिन पुनः बात यहीं खत्म नहीं की जा सकती. यह पहचानने की कोशिश करनी होगी कि इन उपमाओं के उपयोग के क्रम में स्त्री का वस्तुकरण कितना हुआ है, स्त्री-पुरुष समानता को कितनी चोट पहुँची है, यही उपमाएँ रचनाकार के मस्तिष्क में क्यों आती हैं, समाज में ऐसी कौन सी संस्कृति व्याप्त है कि उसके चित्त पर इन्हीं से चोट लगती है और बातें दूसरे ढंग से नहीं रखी जा सकतीं.
नवलजी और नामवरजी के उदाहरणों से इतना तो पता चलता है कि धूमिल समाज में स्त्रियों की भूमिका के प्रति सार्थक दृष्टि के साथ संवेदनशील रहे हैं और धूमिल में प्रत्यक्षतः स्त्री-विरोधी रवैया ढूंढना कवि के साथ अन्याय होगा. लेकिन मर्दवाद और पितृसत्ता हमारी संस्कृति में जिस तरह घुली-मिली है, उसकी छवियाँ किसी भी रूप में उसके अस्तित्व को मजबूत करते दिखें उस पर प्रहार करना चाहिए. और हमारे युग में, तो यह कहने की बहुत जरूरत नहीं रह गई है कि भाषा को अब सीधे-सीधे नहीं उसके गूढ़ार्थों, संकेतों के साथ पढ़ना चाहिए. धूमिल ने भी इस पर बहुत जोर दिया है.
इसके साथ ही आलोचकों को इस चिंता से थोड़ा मुक्त होना होगा कि कवि का कोई एक पक्ष कमजोर हो गया तो जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ेगा. आलोचना युद्ध का मैदान नहीं है, पूर्वाग्रह-मुक्त सार्थक विश्लेषण की एक प्रक्रिया है. पूरे हिन्दुस्तान में सामंतवाद और मर्दवाद के तत्व जैसे व्याप्त हैं, धूमिल में उसकी छवियाँ दिख जाएँ तो धूमिल के पूरे साहित्य का महत्व कम नहीं हो जाता. उल्टे पाठकों को यह पता चलता है कि धूमिल को यहाँ सतर्कता के साथ पढ़ना चाहिए. समर्थ कवि की सीमाओं से हम प्रेरणा न ले लें. यह पहचानने की कोशिश करें कि अगर ये सीमाएँ रह गईं तो समय रहते वे इन्हें दुरुस्त क्यों न कर सके.
कबीर के यहाँ स्त्रियों के संदर्भ में जो पंक्तियाँ हैं उससे कबीर की पूरी वाणी खारिज नहीं हो जाती. युगीन संदर्भों में जब आप कबीर को समझते हैं तो इस बात को पचा लेते हैं कि यह सीमा उनके भीतर कैसे आई होगी. साहित्य को और भी सामाजिक तभी बनाया जा सकता है, जब इस सीमा को भविष्य के रचनाकार पाटें. धूमिल को भी ऐसे ही देखना चाहिए. कबीर की ऐसी ही वृत्ति की चर्चा पुरुषोत्तम अग्रवाल करते हैं. वे बताते हैं कि स्त्री-विरोधी स्वर कबीर में दिखाई देता है लेकिन चेतना के एक स्तर पर वे स्वयं स्त्री हो जाते हैं. इस द्वंद्व को समझना होगा. आधुनिक युग में द्वंद्व अब वैसा नहीं रहा जैसा भक्तियुगीन सामंती दौर में था. लेकिन जब तक समाज में सामंतवाद के अवशेष रहेंगे, गैरबराबरी रहेगी, मर्दवाद रहेगा, प्रबुद्ध मस्तिष्क में भी उसकी छवियाँ दिखाई दे सकती हैं.
धूमिल में भी वे अवशेष दिखाई देते हैं. उदात्त स्तर पर उनकी दुनिया में स्त्रियों की भलाई है लेकिन एक समतावादी चेतना से युक्त भाषा की अनुपस्थिति इन अवशेषों की तस्दीक करते हैं. इस द्वंद्व को धूमिल पाट नहीं पाए. शायद उन्हें अपने लेखन के एक लंबे दौर तक यह पता ही नहीं चला कि इसे पाटना भी है. हालांकि इसे सिर्फ धूमिल तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए क्योंकि वास्तविकता यह है कि बनारस हो, या उत्तर प्रदेश, या फिर भारत, इस द्वंद्व को आखिर कोई भी नहीं पाट पाया.
दुखद तो यह है कि भदेसपने की आड़ में सामंती मूल्यों की रक्षा करते ढेर सारे रचनाकार आज भी मिल जाते हैं. मर्दवादी संस्कृति का हिन्दुस्तान में प्रसार गाँव और शहर हर जगह है. किसी सामाजिक संकट के समय, किसी अनहोनी के मौके पर, उत्सव या ऐशो-आराम के वक्त हमारे समाज की जुबान यूँही गालियों के रूप में स्त्री योनि की ओर खिंचती चली जाती है. यह कुण्ठा अगर भीतर कैद भी हो तो समय-समय पर ऊफान मार देती है. पिछले कुछ महीनों में रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह राजपूत प्रसंग में इस देश ने जिस तरह से बर्ताव किया है वह एक दाग की तरह है. शंभु गुप्त ने एक अच्छी बात कही है कि इस अनिश्चय और अनिर्दिष्टता की सबसे ज्यादा गाज स्त्री पर पड़ती है. इतिहास गवाह है कि ऐसे अराजक और दिशाहीन समय में यौनिकता और देहवाद एकदम सतह पर आ जाते हैं और स्त्री खामखाँ इनकी चपेट में ली जाती है. पुरुष सत्ता को अपनी सार्थकता और सफलता इसी में दिखने लगती है कि स्त्री को उसकी यौनिकता के आधार पर ही पहचाना जाए.[15] इस मर्दवाद से मुक्ति चाहने वाले हर व्यक्ति के मन में निस्संदेह यह भाव आया होगा कि हाथरस की घटना हो या कोई और, पूरा समाज सजा पाने लायक है. मर्दों के नियंत्रण में कैद यह समाज मर्दों की भाषा और उस भाषा से अर्जित संस्कारों से ग्रस्त है. इसीलिए शंभु गुप्त धूमिल की स्त्री-दृष्टि की सीमाओं को पहचानने के क्रम में उन आलोचकों पर अधिक आक्रामक हो जाते हैं जो अपनी भाषाई क्षमता से उनकी भाषा के डिफेंस में खड़े हैं.
शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?
शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!
ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं
अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।
धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।