| दुःख की दुनिया भीतर है
नीरज कुमार |
‘दुःख की दुनिया भीतर है’, संस्मरण विधा में जे सुशील ने अपने पिता की स्मृतियों को संजोया है. पिता के गुज़रने के बाद उनकी स्मृति कैसे गहराती जाती है, जे सुशील उन यादों के बहाने अपने पिता के जीवन में झाँकते हैं. उन स्मृतियों को संगृहीत करने का प्रयास भी करते हैं. अपने पिता के अंतिम समय में वे उनसे दूर अमेरिका में थे, और यह दूरी इतनी ज़्यादा कि केवल उनके भोज के दिन ही वे अपने गाँव पहुंच पाए. पुस्तक का शुरुआती हिस्सा बिहार के ग्रामीण परिवेश में ले जाता है, जिसमें मृत्यु के बाद के कर्मकांड, जो कहा जाए जे सुशील के सामने एकदम से उपस्थित होते हैं, उनसे हम भी रूबरू होते हैं.
जे सुशील दु:ख की ऐसी दुनिया को हमारे समक्ष रखते हैं जिसमें एक प्रवासी का दु:ख भी घुला मिला है. लेखक के दिलो दिमाग़ में पिता की स्मृतियों के कई आयाम हैं जिनसे पिता की एक पूरी तस्वीर उभरती है. संस्मरण में एक बड़ा सवाल कि “पिता होने का अर्थ क्या है?” बार-बार हमसे टकराता है. एक मध्यमवर्गीय पिता अपने पुत्रों से स्नेह तो करता है लेकिन उस स्नेह को प्रदर्शित करने से बचता है. अपनी पुस्तक के शीर्षक की पृष्ठभूमि लेखक के पिता का जीवन संघर्ष है; उसमें वे घटनाएं हैं जिन्होंने एक पिता के आंतरिक दुखों को एक अनंत मौन में बदल दिया. आज़ादी के बाद बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश को रेखांकित करते हुए लेखक बिहार, झारखंड, व बंगाल के मज़दूर वर्ग में कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव, अधिकारी-मज़दूर संघर्ष, आपातकाल के भयावह दौर आदि को अपने पिता के अनुभवों से समझने का प्रयास करते हैं. यह पुस्तक प्रवासी जीवन में कमज़ोर पड़ते पारिवारिक रिश्ते और सामाजिक बदलावों को भी सामने लाती है.
जादूगोड़ा, जो वर्तमान झारखण्ड में स्थित युरेनियम का औद्योगिक क्षेत्र है, उसके इर्द-गिर्द यह कथा बुनी जाती है जिसमें एक मज़दूर नेता के संघर्ष, यूनियन की राजनीति से उसके मोह भंग का वर्णन आता है. यह एक ऐसा अतीत है जिसका ज़िक्र एक पिता अपने बच्चों के सामने नहीं करता. यह एक गहरे मौन की सृष्टि करता है. अपने बड़े बेटे का भागकर शादी कर लेना और उस बेटे की अकाल मृत्यु हो जाना ऐसे अन्य आघात हैं जिनसे पिता के अंदर का मौन और गहराता जाता है. एक ख़दान मजदूर की साधारण लेकिन लंबी नौकरी के बाद कुछ सम्मान और शांति की चाह में जे सुशील के पिता गाँव आने की सोचते हैं.
इस बीच गाँव के लोगों, सगे-संबंधियों के अपमानजनक व्यवहार उनको दु:ख की दुनिया में धकेलने का कार्य करते हैं. जे सुशील लिखते हैं कि “पिता बीस बरस में अपनी गली पक्की नहीं करवा पाए. उन्हें इस बात का ग़म रहा. गांव के लोगों ने उन्हें सम्मान नहीं दिया, जिसकी उम्मीद में वे वह शहर छोड़कर आए थे.” इन घटनाओं में सामाजिक और आंतरिक दुःख एक दूसरे से गुँथे हुए हैं जिसमें कौन सा दु:ख कहाँ शुरू होता है और दु:ख का कौनसा सिरा कहाँ मिलता इसे अलगाना मुश्किल प्रतीत होता है.
नटाली ज़ेमोन डेविस जैसे विद्वानों ने भावनाओं के इतिहास को अकादमिक जगत की बहसों और अध्ययन का विषय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं. जे सुशील अपने पिता की स्मृति के पुंज और मृत्यु प्रसंग में एकाएक वे पिता के जाने के बाद की रिक्ति में अपने पिता की छवि को बड़ी कुशलता से गढ़ते हैं, जो कि हिंदी साहित्य में मौजूद भावनाओं के इतिहास के प्रबल पक्ष को उजागर करने में सहायक हैं. अगर इमोशन्स (भावनाओं) को साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं के माध्यम से समझना है तो उन्हें स्पष्ट रूप से प्रकट करना होता है, और वो कथानकों के माध्यम से दृश्य अभिव्यक्ति (विज़ुअल एक्सप्रेशन) प्राप्त कर सकते हैं, जिससे कि समाज और सामाजिक बदलावों की एक ग्रामर ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेशन तैयार होती है, जिसे सामाजिक विज्ञान, साहित्य के अध्येता उसको विश्लेषित कर सकते हैं.
जोआना बर्क की इमोशनोलॉजी थ्योरी के मुताबिक भावनाएँ (इमोशन्स) एक व्यक्तिगत विषय (प्राइवेट अफ़ेयर) नहीं बल्कि एक सामाजिक रूप से अन्तर्निहित अनुभव (सोशली एम्बेडेड एक्सपीरियंस) है, जो व्यक्ति (इंडिविजुअल) और समाज (सोसाइटी) के बीच के रिश्ते को परिभाषित करता है. ऐसे में जे सुशील के पिता का जन्म सिर्फ़ एक शिशु का जन्म नहीं बल्कि एक भावनात्मक रूप से संहिताबद्ध सामाजिक संसार में उनका आगमन था जहाँ समाज के नियमों में एक पुरुष उत्तराधिकारी से जुड़ी उम्मीदें उन्हें घेरे हुई थीं, जिसके तहत उनका जन्म कलंकित समझा गया. वो ग्रामीण बिहार के ऐसे समाज में थे जिसकी नैतिक मूल्य (एथिकल वैल्यूज़) में पुरुष के संयम, धैर्य , सहनशीलता जैसे इमोशन्स को महत्व दिया जाता था लेकिन समाज के तानों से बचने के लिए और आर्थिक मजबूरी के तहत उन पर बेचैनी और भय जैसे भाव हावी थे, जिसके चलते उन्होंने बंगाल प्रवास किया. इससे पता चलता है कि कैसे सोसाइटी की भावनात्मक अपेक्षाएँ एक व्यक्ति के जीवन के निर्णय को प्रभावित करती है. फिर जब वे वापस अपने गाँव लौटे तो उन्हें अपने आसपास के लोगों के बेमाने व्यवहार का सामना करना पड़ा. जहाँ एक पूरे भावनात्मक व्यवस्था का परिवर्तन हमें दिखाई देता है, जहाँ पहचान, अथॉरिटी और रुतबा, समाज के नातेदारी के सामाजिक नियम पर आधारित था. ऐसा व्यवहार मिलने से जो उनमें ग़ुस्सा, नाराज़गी जैसी भावनाएं मन में पनपी, वो केवल उनकी ख़ुद की नहीं बल्कि एक ऐसी सामाजिक असमानता से उत्पन्न हुईं जो कि औद्योगिक शहरी समाज और भूमि आधारित ग्रामीण समाज के मूल्यों के ढांचे बीच के अंतर में गुथी हुई है.
दुःख की भी शायद अपनी दुनिया होती है जिसके मायने हर इंसान के लिए अलग होते हैं . लेखक का दुःख है कि वे पिता की अपने जीवन में उपस्थिति को महसूस करना चाहते हैं लेकिन उसमें विफल रहते हैं, सबसे ज़्यादा अपने पिता के अंतिम समय में उनके पास होने की चाह, लेकिन न हो पाने का दुःख. मँझले भाई के अपने दुःख हैं और परिवार के अपने. लेखक के मँझले भाई, जो जीवन में सफल नहीं हो सके, उनका चेहरा पिता से मिलता है. वह भाई पिता की तरह पढ़ नहीं पाया. शायद लेखक का उच्च शिक्षा प्राप्त होना और विदेश चला जाना भी पिता-पुत्र की दुनिया में एक बड़ी खाई पैदा करता है. पिता-पुत्र के बीच में संवाद का न होना, आपस में एक गहरी चुप्पी का होना उनके जीवन में कब स्थायित्व लेता है उसका लेखक को स्वयं नहीं पता क्योंकि मौन से ही वे इस रिश्ते की व्याख्या करते हैं. दुःख देख पाने की अंतर्दृष्टि संभवतः एक दिव्य गुण हो सकता है क्योंकि मनुष्य के दु:ख बहुत कुछ आंतरिक होते हैं तो थोड़े-बहुत बाहरी भी होते हैं. लेखक जब अपने पिता को देखते हैं तो वे पाते हैं कि दुखों ने ही उन्हें चुप होते जाने दिया. जो दुःख उन्होंने ज़ाहिर किए उनमें सबसे बड़ा यह था कि एक दिन गाँव में उनकी बची-कुची ज़मीन बिक गई. अपने बच्चे के मेहनती होने के बाद भी वे उसे एक साइकिल नहीं दिलवा पाए आदि. जीवन में असफल होने का बोध, आर्थिक असफलताएँ, सामाजिक तिरस्कार, स्वयं की कमतरी का एहसास आदि अगर पिता के चेहरे से न भी जान पड़ते हैं तो भी उनके व्यवहार में मौन की कई परतें बनाते हैं. दुखों के कारण मौन की ये परतें पिता के चरित्र और व्यक्तित्व को ख़ास शक्ल देते हैं, लेखक स्वयं भी एक जगह कहते हैं कि
“मैं जान गया था मेरे पिता में कई लोग रह रहे थे.”
दुःख के भाव की साहित्य में उपस्थिति कोविड-19 के भयावह दौर के बाद उपजी परिस्थितियों से बढ़ी है जिनमें मृत्यु-बोध, जीवन की क्षण भंगुरता, स्मृति का दुखद-अंधेरापन प्रमुख हैं. प्रवास, राजनीति, ग्रामीण समाज और औद्योगिक क्षेत्रों की पृष्ठभूमि में जे सुशील ने इस संस्मरण को बाँधा है. संस्मरण के प्रमुख पात्र अपने पिता की स्मृतियों से उन्होंने एक ऐसे जीते-जागते पुरुष की छवि को निर्मित किया है जो एक पूरी पीढ़ी विशेष से हमारा साक्षात्कार करवाती है. यह पुरुष एक पिता, एक भाई, पति और पुत्र भी है. वह दरअसल एक संघर्षरत व्यक्ति का चित्र है जिसके हाथ जीवन में असफलता आती है. संस्मरण के महत्वपूर्ण पक्षों में लेखक की घटनाओं की अच्छाई और बुराई की सहज आत्म स्वीकृति विशेष है. कई घटनाएँ जो बिहार के ग्रामीण परिवेश और जादूगोड़ा की ख़दान मज़दूर की दुनिया में जो बुराइयाँ है, वे उन्हें बिना किसी लाग लपेट के वर्णित करते हैं. पिता की झगड़ालू प्रवृत्ति के बारें में लिखते समय वे उनकी हिंसक आदतों का विवरण यथावत बतलाते हैं. मज़दूर नेताओं को ऐसे झगड़ालू क़िस्म के लठैतों की आवश्यकता होती है, और जे सुशील इन्ही शब्दों में लिखने से झिझकते नहीं हैं. बदलते परिदृश्यों में मज़दूरों के दैनिक जीवन के संघर्ष को लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी हाशिए की स्थिति को, अपने पिता के जीवन के उदाहरण से लेखक सफलतापूर्वक लक्षित कर पाने में सफल रहते हैं.
पिता मज़दूर है, कम पढ़ा लिखा है, वित्तीय समझदारी का अभाव और ग़रीबी का जीवन बिता रहा है, ग्रामीण परिवेश की शाश्वत सच्चाई में पिता की ज़्यादातर छवि ऐसी ही मिलती है. लेखक अपने पिता को साहित्य में वह स्थान दे पाने में समर्थ और सफल रहें है जैसा की एक असफल पिता को मिलना चाहिए था. जादूगोड़ा की मज़दूर बस्ती के चित्रण में लेखक ने अपने पिता के बच्चों की शिक्षा के प्रति सजगता को बखूबी दिखाया है. बड़े भाई की पक्की नौकरी के लिए अधिकारियों से सिफ़ारिश हो या छोटे पुत्र का शिक्षा के प्रति अव्वल स्थिति में होना मज़दूर पिता को मिलने वाली क्षणिक सुखद घड़ियाँ हो सकती है, जिसे वे समाजवाद के सपनो में अपनी स्थिति की बेहतरी की उम्मीद में देखते है. जादूगोड़ा के मज़दूरों की दुनिया का खाका, जो अपने पिता की मित्रता के विवरणों के माध्यम से लेखक खींचते है, उसमे उन लोगों का पेशा उनकी मित्रता के जुड़ाव का प्रबल कारक है. इस दुनिया में धर्म या जाति का प्रभाव नगण्य होता है.
मजदूरों की दुनिया में केवल दो ही जातियाँ होती है– एक अधिकारी और दूसरा मजदूरों की. वहीँ इस किताब में आए राजनैतिक कथानकों को देखें तो, 1960 के दशक की कलकत्ता की वामपंथी राजनीति और मज़दूर आंदोलनों के उभार में एक प्रवासी श्रमिक की स्थिति को जे सुशील ने अपने पिता के उदाहरण के माध्यम से आवाज़ देने का प्रयास किया हैं. नक्सली राजनीति ने कैसे मज़दूरों को अपनी ओर आकर्षित किया, धर्म के संस्थागत रूप से उनके पिता की दूरी जैसे कई पहलू हैं, जिन्हें यह किताब प्रभावी रूप प्रदान करती है. इंदिरा गांधी की नीतियों को उनके पिता ने अपने आंदोलन के दौर में भले ही पसंद न किया हो लेकिन उनके मानसिक पटल पर वे एक बड़ी और प्रभावी राजनीतिज्ञ थी. यह संस्मरण बदलते भारत का एक जीवंत उदाहरण माना जा सकता हैं.
संस्मरण के मुख्य पात्रों में लेखक की माँ भी विशेष है. माँ की शादी कम उम्र में हुई और कम उम्र में ही गौना हुआ. लेखक को पिता के मितव्ययी स्वभाव की तुलना में माँ का थोड़ा बहुत ख़र्चीला स्वभाव भी फ़िज़ूल-ख़र्ची लगता है. जीवन के उतरार्द्ध में जब पिता मौन होते गए तो लेखक अपनी माँ के माध्यम से ही पिता से संप्रेषण साधने का प्रयास करते रहे. बचपन में माँ से पड़ी मार भी वे अपने संस्मरण में शामिल करते हैं जिससे लेखक के जीवन में पिता की तुलना में माँ की उपस्थिति ज़्यादा मुखर लगती है. लेखक के अनुसार पिता के दु:खों को और बढ़ने से बचाया जा सकता था, अगर माँ उन्हें शहर से गांव आने ही न देती.
जे सुशील की विश्व साहित्य की समझ और उस पर एक अध्येता जैसा अधिकार इस संस्मरण में आसानी से देखा जा सकता है. वे सायास ढंग से उन संस्मरणों और संदर्भों का ज़िक्र करते हैं जिनसे एक पिता की स्मृतियों को साहित्य का हिस्सा बनाया जा सकता था. वी. एस. नायपॉल, पॉल ऑस्टर और ओरहान पामुक ने जिस तरह से पिता की स्मृतियों पर लिखा उनका ज़िक्र भी जे सुशील करते हैं. जे सुशील लेकिन घटनाओं का केवल ब्यौरा नहीं देते हैं, वे एक भाव में गहरे उतरते जाते हैं. वे दु:ख जैसे गहरे भाव की भूमिका का विश्लेषण मानव जीवन के संदर्भ में करते हैं. किस प्रकार एक भाव मनुष्य की मानसिकता में झांकने की एक खिड़की हो सकता है, यह हमें उनके “दु:ख के भाव” के गुँथे हुए अर्थों से पता चलता है.
उन्होंने दु:ख को अनेकों जीवंत उदाहरणों के माध्यम से ऐसे दर्शाया है कि पाठक को भी उनका अनुभव होने लगता है . चूंकि ये दु:ख मनुष्यों के भीतर है, तो पाठक द्वारा इनमें केवल झांका जा सकता है. इनको पूर्ण रूप से महसूस केवल संस्मरण के पात्र ही करते हैं. फिर भी इन भावों का वर्णन स्मृतियों और आपबीती घटनाओं के द्वारा जिस ढंग से लेखक करते हैं कि वह पाठक पर एक गहरी छाप छोड़ जाता है. संस्मरण का बड़ा हिस्सा एक घटनाक्रम का ही बयान है लेकिन इस घटनाक्रम के माध्यम से पाठक भाव की गहराई का अनुमान लगाने में सक्षम हो जाता है. भाव को प्रकट करने की जे सुशील की अपनी अनोखी कथा शैली है जो कविता का गुण लिए हुए है. भावों के कथा क्रम में, पिता से पुत्र का रिश्ता और बाद में उस पुत्र का स्वयं पिता हो जाना कैसे पिता-पुत्र के रिश्ते को नया अर्थ देता है उसका बयान भी जे सुशील के इस संस्मरण में हैं. अपने पिता को समझने के लिए जे सुशील ने अपने पुत्र के साथ बीतने वाले लम्हों का वर्णन किया है, कि एक पिता भी अपने पुत्र से बहुत कुछ सीखता है.
भावनाओं के इतिहास और उसके सामाजिक और साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में जे सुशील के पिता के संस्मरण की इस पुस्तक का अंतिम हिस्सा अत्यंत प्रभावी है. लेखक अपने पिता के जीवन को उनके भावों से देखने का प्रयास करते है. अगर पिता घटनाओं को लिखते तो किस भाव से लिखते, बचपन, माँ की मार, मज़दूरी के दिन, बड़े बेटे की मृत्यु, कुटुंब कबीले के लोगों के अप्रत्याशित व्यवहार में लेखक ने अपने पिता के भावों को आवाज़ प्रदान की है, यह लेखन का प्रभावी पक्ष है, ख़त्म होते होते यह पुस्तक एक आईना बन जाती है जिसमें एक समाज है और उससे बने एक व्यक्ति का प्रतिबिंब है. व्यक्ति के इस प्रतिबिंब में एक पूरी पीढ़ी है या कहें तो पीढ़ी का एक मौन है. लेकिन इस मौन में अतीत और वर्तमान, हताशा और जिजीविषा की पूरी दुनिया का कोलाहल है.
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पीएचडी शोधार्थी, यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस एट ऑस्टिन |

नीरज कुमार
ओह, दुःख की एक दुनिया सबके भीतर जगाती है यह समीक्षा। संक्षिप्त पर असरकारी।